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तूड़ी पंप से भूसा स्टोर

पंजाब के लुधियाना में स्थित ‘मघर सिंह भजन सिंह एंड संस’ ने भी भूसा इकट्ठा करने वाली मशीन बनाई है. मशीन निर्माता ने बताया कि तूड़ी यानी भूसा पंप एक ऐसी मशीन है, जो पानी वाले पंप की तरह भूसे को उठा कर दूसरी जगह पर स्टोर करती है. इस पंप की काम करने की कूवत को अपनी इच्छा के अनुसार घटा या बढ़ा सकते हैं.

यह पंप भूसे को 25 फुट तक की दूरी तक आसानी से फेंक सकता है. इस पंप को इस तरह बनाया गया है कि इस का एक सिरा भूसे के ढेर के एकदम पास में रहता है और दूसरे सिरे पर एक मजबूत लोहे का पाइप लगा होता है, जिस में से हो कर भूसा दूसरी जगह पर इकट्ठा होता है. इस पंप की एक खास बात और भी है कि इस में 1800 आरपीएम हार्सपावर की मोटर लगी होती है. यह मशीन भूसा स्टोर करने में काफी कारगर और बेहतर साबित हो रही है.  इस पंप से मजदूरी का खर्च भी कम आता है. केवल काम के मुताबिक ही मजदूरों की जरूरत पड़ती है. इस पंप को ट्रैक्टर व बिजली दोनों से चलाया जा सकता है.

इस पंप के बारे में ज्यादा जानकारी देते हुए बलविंदर सिंह ने इस पंप की कीमत 21000 रुपए बताई. पंप को ले जाने का खर्च अलग से होगा. इस मशीन पर अभी किसी भी तरह की सरकारी छूट नहीं है.

अगर आप भी इस पंप के बारे में ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो बलविंदर सिंह के फोन नंबर 09815099844 और गुरपाल सिंह के फोन नंबर 08146806669 पर बात कर सकते हैं. इस के अलावा इन की फैक्टरी ‘मघर सिंह भजन सिंह एंड संस’ के नंबर 0161-5057844 पर भी जानकारी ले सकते हैं. इस फैक्टरी में इस मशीन के अलावा खेती से संबंधित दूसरी कई मशीनें जैसे कल्टीवेटर, ट्रैक्टर ट्रौली, ग्रास कटर, डिस्क हैरो व टैंकर भी बनाई जाती हैं.

कुछ कहती हैं तसवीरें

रंग दे तू मोहे हराहरा :

गोदना एक बहुत पुरानी कला है, जिस में शरीर में ही रंगों को इस तरह भर दिया जाता है, मानो वह कोई कैनवास हो. दुनिया में बहुत से देशों में रंगीन गोदना गुदवाने की प्रथा है. ये तसवीरें इंडोनेशिया देश की हैं, जहां कुछ गोदना कलाकारों ने अपने हाथों का हुनर दिखाया.

 

 

 

संकर भिंडी की खेती

सब को पसंद आने वाली सब्जियों में भिंडी का स्थान सब से आगे है. किसी को कद्दू से परहेज होता है, तो कोई घुइयां खाने में आनाकानी करता है, मगर भिंडी की तरकारी को आमतौर पर सभी चाव से खाते हैं. यही वजह है कि हर मौसम में भिंडी की मांग रहती है और यह खूब धड़ल्ले से बिकती है. भिंडी के शौकीन इसे 50 रुपए पाव के रेट से भी खरीदते हैं और 20 रुपए पाव के रेट से भी लेते हैं यानी उन्हें यह मनपसंद सब्जी किसी भी कीमत पर लेनी होती है. चूंकि यह काफी डिमांड वाली सब्जी है, लिहाजा इस की खेती करना काफी फायदे का सौदा रहता है. किसान तोे बड़े पैमाने पर भिंडी बोते ही हैं, पर आम लोग भी अगर उन के पास थोड़ीबहुत जमीन हो तो आराम से भिंडी की फसल उगा सकते?हैं. यहां पेश हैं भिंडी की खेती से जुड़ी चंद खास बातें:

जमीन : भिंडी की खेती के लिए सही पानी निकास वाली दोमट से चिकनी मिट्टी तक मुफीद होती है.

बोआई का वक्त : करीब पूरे साल बिकने वाली भिंडी की बोआई करने के लिहाज से फरवरीमार्च, जूनजुलाई व अक्तूबरनवंबर के महीने मुनासिब होते?हैं.

खेत की तैयारी : भिंडी की खेती के लिए भी खेत की बाकायदा पूरी तैयारी करनी चाहिए. इस के लिए खेत की पहली जुताई हैरो द्वारा करें. इस के बाद 2 बार साधारण ट्रेलर से जुताई करें. हर जुताई के बाद खेत में पाटा लगाना बेहतर रहता है. पाटा लगाने से जमीन जल्दी भुरभुरी हो जाती है.

बीज की मात्रा : भिंडी की उम्दा खेती के लिए 8-10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना ठीक रहता है.

बोआई का फासला : भिंडी की बोआई हमेशा सीधी लाइनों में करनी चाहिए. एक लाइन से दूसरी लाइन की दूरी

60 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. लाइनों में एक पौधे से दूसरे पौधे का फासला 30 सेंटीमीटर होना चाहिए. ज्यादा पासपास बोआई करने से पौधों की बढ़वार ठीक से नहीं हो पाती है. इसी तरह लाइनों के बीच का फासला भी निहायत जरूरी है. तकरीबन 60 सेंटीमीटर यानी 2 फुट का फासला लाइनों के दर्मियान रहने से पौधों की देखभाल करने में सहूलियत होती?है. लाइनों के बीच अंतर होने से फलों की तोड़ाई करने में भी आसानी होती है.

खाद व उर्वरक : बोआई से पहले खेत की तैयारी के वक्त खेत में 50-60 बैलगाड़ी गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालनी चाहिए. इस के अलावा 200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई : खेत में नमी का खयाल हमेशा रखना चाहिए. खास कर बीजों का अंकुरण होने के बाद 1 बार खेत की सिंचाई करना बेहद जरूरी है. इस के बाद जरूरत के मुताबिक खेत की सिंचाई करनी चाहिए.

अंतरसस्य क्रियाएं

(अन्य जरूरी काम)

अंतरसस्य क्रियाओं यानी दूसरे जरूरी कामों के तहत भिंडी के खेत को खरपतवारों से बचा कर रखना बेहद जरूरी?है. इस के लिए कम से कम 3 बार खेत की निराईगुड़ाई करना बहुत ही जरूरी है. निराईगुड़ाई के काम में कतई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, वरना फसल पर खराब असर पड़ सकता?है.

रोगों से बचाव : तमाम फसलों की तरह भिंडी की फसल भी रोगों से बच नहीं पाती. सब से ज्यादा आम बीमारी पाउडरी मिल्ड्यू होने पर बचाव के लिए 20 से 25 किलोग्राम सल्फर का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 2 से 3 बार बुरकाव करें. सल्फर की बजाय केराथेन का छिड़काव भी किया जा सकता है.

पीली नसों वाली मोजेक वायरस से संक्रमित पौधों को खेत से दूर ले जा कर जला कर खाक कर देना चाहिए.

कीड़ों से बचाव : बीमारियों के साथसाथ भिंडी की फसल कुछ कीड़ों की चपेट में?भी आती रहती?है, लिहाजा कीड़ों के प्रति चौकन्ना रहना भी बेहद जरूरी होता है.

सफेद मक्खी का फसल पर हमला होने की हालत में कारगर कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए. अपने इलाके के हिसाब से मुफीद कीटनाशक का ही इस्तेमाल करना मुनासिब होत?है. इस के लिए अपने इलाके के कृषि वैज्ञानिक से बात की जा सकती है. सफेद मक्खी के अलावा चूसक कीड़े भी भिंडी की फसल के दुश्मन होते?हैं. ये फसल की तीसरी पत्तों की अवस्था में ज्यादा घातक रहते?हैं. इन की रोकथाम के लिए इलाके के हिसाब से कारगर कीटनाशक का इस्तेमाल करना बेहतर रहता है. इस मामले में भी अपने इलाके के कृषि वैज्ञानिक की सलाह ले कर ही दवा का इस्तेमाल करना चाहिए. इस प्रकार संकर भिंडी की सुधरी हुई खेती कर के किसान भाईभरपूर उपज हासिल कर सकते हैं.

किसान की कहानी उन्हीं की जबानी

ग्राम मिलक रावली निवारी के 55 साल के किसान देवेंद्र सिंह ने कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद के कृषि वैज्ञानिकों से मधुमक्खी पालने के तरीकों के बारे में साल 2005 में जानकारी प्राप्त की और एक मधुमक्खी पालने का केंद्र शुरू किया. उस केंद्र में पहले साल मधुमक्खी के 5 बक्से रखे. 1 बक्से की कीमत 2 हजार रुपए फ्रेम के साथ थी. उन्होंने सिर्फ 10 हजार रुपए में मधुमक्खी पालने का काम शुरू किया. इस काम से देवेंद्र सिंह को 15 हजार रुपए की कीमत का शहद प्राप्त हुआ और साल 2006 में उन्होंने 10 बक्से तैयार किए. उन 10 बक्सों से देवेंद्र सिंह ने 36 हजार रुपए का शहद बेचा. साल 2007 में उन्होंने 30 बक्से तैयार किए, जिन से उन को 72 हजार रुपए की आमदनी हुई थी.

मधुमक्खी पालने के काम से?ज्यादा आमदनी देख कर उन की इस काम में रुचि बढ़ गई. साल 2008 में उन्होंने 60 बक्से तैयार किए, जिन से उन्हें 1 लाख, 36 हजार रुपए की अमादनी हुई थी. साल 2009 में उन्होंने 120 बक्से तैयार किए. उस से उन्हें 2 लाख 88 हजार रुपए की आमदनी हुई. देवेंद्र सिंह ने बताया कि साल 2009 में 2 लाख 88 हजार रुपए की आमदनी होने के बाद उन के मधुमक्खी के बक्से चोरी हो गए थे. केवल 10 बक्से बचे थे. साल 2010 में देवेंद्र सिंह को काफी नुकसान हुआ, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने मधुमक्खी पालने के काम को फिर से शुरू किया. आज देवेंद्र सिंह के पास 150 बक्से तैयार?हैं, जिन से उन्हें करीब 3 लाख रुपए की आमदनी होती है. देवेंद्र सिंह ने दावा किया है कि इस काम में कम खर्च से?ज्यादा आमदनी होती है. यह काम बेरोजगारों के लिए बहुत ही फायदेमंद है.

कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद के वैज्ञानिकों से देवेंद्र सिंह ने मधुमक्खी पालने के तरीके के साथ पशु पालने की जानकारी भी साल 2005 में ली थी. पशु पालने के तरीके की जानकारी के बाद देवेंद्र ने 1 गाय व 1 भैंस पालना शुरू किया. वैज्ञानिकों से मिली जानकारी व पशुओं के रखरखाव की जानकारी का इस्तेमाल कर के पशुओं के दूध के धंधे से उन्हें हर साल 65 हजार रुपए से?ज्यादा की आमदनी हुई. देवेंद्र सिंह के बड़े बेटे गौरव इस काम में उन की मदद करते?हैं.

देवेंद्र सिंह ने बताया कि उन के पास 1 हेक्टेयर जमीन?है. उस जमीन में वे खरीफ व रबी की फसल में मक्का (हरा चारा), उड़द, गेहूं व गन्ने की खेती करते हैं. उन्होंने केंचुआ खाद तैयार करने का काम भी शुरू किया है.

देवेंद्र सिंह ने केंचुए पालने की जानकारी कृषि वैज्ञानिकों से साल 2008 में ली थी और अपने खेत में केंचुआ खाद तैयार करने का काम शुरू किया था. उन्होंने कुल 5 हजार रुपए के केंचुए खरीद कर इस काम को शुरू किया. इस काम से उन्होंने 25 हजार रुपए के केंचुए बेचे और 60 हजार रुपए की केंचुआ खाद बेची, जिस में घर के पशुओं के गोबर की खाद का इस्तेमाल किया गया था.

साल 2009 में देवेंद्र सिंह ने 75 हजार रुपए के केंचुए और 80 हजार रुपए की केंचुआ खाद बेची?थी, जिस से उन्हें 67 हजार रुपए की कुल आमदनी हुई. साल 2010 में देवेंद्र सिंह ने 1 लाख 50 हजार रुपए के केंचुए और 1 लाख रुपए की केंचुआ खाद बेची?थी, जिस में उन्हें 1 लाख 62 हजार रुपए की आमदनी हुई थी. साल 2011 में देवेंद्र सिंह ने 2 लाख रुपए के केंचुए और 2 लाख 30 हजार रुपए की केंचुआ खाद बेची, जिस से उन्हें 2 लाख 42 हजार रुपए का फायदा हुआ.

साल 2012 में उन्होंने 2 लाख 50 हजार रुपए के केंचुए और 1 लाख 50 हजार रुपए की केंचुआ खाद बेची?थी, जिस से उन्हें 3 लाख 2 हजार रुपए की शुद्ध आमदनी हुई थी. साल 2013 में देवेंद्र सिंह ने 2 लाख 25 हजार रुपए के केंचुए और 1 लाख 80 हजार रुपए की केंचुआ खाद बेची थी, जिस से 2 लाख 97 हजार रुपए की कुल आमदनी हुई. साल 2014 में देवेंद्र सिंह ने 2 लाख 75 हजार रुपए के केंचुए और 2 लाख रुपए की केंचुआ खाद बेची, जिस से उन्हें 3 लाख 70 हजार रुपए का फायदा हुआ.

साल 2015 में देवेंद्र सिंह ने 1 लाख 25 हजार रुपए के केंचुए और 90 हजार रुपए की केंचुए खाद बेची, जिस से उन्हें 1 लाख 70 हजार रुपए की आमदनी हुई, जबकि उन के पास 500 क्विंटल केंचुआ खाद अभी बेचने के लिए रखी है.

देवेंद्र सिंह ने बताया कि कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद उन के लिए एक वरदान साबित हुआ है, क्योंकि इस से पहले उन्हें जानकारी के लिए पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में जाना पड़ता था.

देवेंद्र सिंह का कहना है कि फसलों के लिए बीज के रखरखाव, मिट्टी की जांच, अच्छे बीज, पशुपालन, मुरगीपालन, बकरीपालन, सुअरपालन के बारे में जानकारी किसानसभा द्वारा दी जाती है. वैज्ञानिक तरीके से खेती कर के उन की आमदनी दोगुनी हो गई है. उन का परिवार अब बहुत सुखी है.   

डा. प्रमोद मडके, डा. अनंत कुमार (कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद)

किसान कैसे तैयार करें धान की नर्सरी

आजकल भारत की बेहद खास फसल धान का मौसम चल रहा है. तमाम किसानों की उम्मीदें इस फसल से जुड़ी होती हैं. इसीलिए धान की नर्सरी तैयार करने की अहमियत काफी बढ़ जाती है. पेश हैं धान की नर्सरी से जुड़ी खास बातें. भारत एक कृषि प्रधान देश है. यहां की खरीफ की फसल में धान का खास स्थान है. भारत दुनिया का सब से ज्यादा क्षेत्रफल में धान उगाने वाला देश है.

धान की उन्नत किस्में : भारत में तमाम तरह की धान की किस्में उगाई जाती?हैं, जिन में से कुछ खास हैं आईआर 64, इंप्रूव्ड पूसा बासमती 1 (पी 1460), जया, तरावरी बासमती, पीएचबी 71, पीए 6201, पूसा आरएच 10, पूसा बासमती 1, पूसा सुगंध 2, पूसा सुगंध 3, पूसा सुगंध 4 (पी 1121), पूसा सुगंध 5 (पी 2511), माही सुगंधा, रतना और विकास.

किसान भाइयों को धान की नर्सरी तैयार करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

 खेत का चुनाव व तैयारी : धान की नर्सरी लगाने के लिए चिकनी दोमट या दोमट मिट्टी का चुनाव करें. खेत की 2 से 3 जुताई कर के खेत को समतल व खेत की मिट्टी को भुरभुरी कर लें. खेत से पानी निकलने का सही इंतजाम करें.

नर्सरी लगाने का सही समय : मध्यम व देर से पकने वाली किस्मों की बोआई मई के अंतिम हफ्ते से जून के दूसरे हफ्ते तक करें.

जल्दी पकने वाली किस्मों की बोआई जून के दूसरे हफ्ते से तीसरे हफ्ते तक करें.

नर्सरी के लिए क्यारियां बनाना : नर्सरी के लिए 1.0 से 1.5 मीटर चौड़ी व 4 से 5 मीटर लंबी क्यारियां बनाना सही रहता है. क्यारियों के चारों तरफ पानी निकलने के लिए नालियां जरूर बनाएं.

बीज की मात्रा : नर्सरी के लिए तैयार की गई क्यारियों में उपचारित किए गए सूखे बीज की 50 से 80 ग्राम मात्रा का प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से छिड़काव करें. धान की मोटे दाने वाली किस्मों के लिए 30 से 35 किलोग्राम व बारीक दाने वाली किस्मों के लिए 25 से 30 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत होती है. नर्सरी में ज्यादा बीज डालने से पौधे कमजोर रहते हैं और उन के सड़ने का भी डर रहता है.

बीजोपचार : बीजजतिन रोगों से हिफाजत करने के मकसद से बीजों का उपचार किया जाता है. बीज उपचार के लिए केप्टान, थाइरम, मेंकोजेब, कार्बंडाजिम व टाइनोक्लोजोल में से किसी एक दवा को 20 से 30 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से काम में लिया जा सकता है.

थोथे बीजों को निकालने के लिए, बीजों को 2 फीसदी नमक के घोल में डाल कर अच्छी तरह से हिलाएं और ऊपर तैरते हलके बीजों को निकाल दें. नीचे बैठे बीजों को बोआई के लिए इस्तेमाल करें.

शाकाणु अंगमारी रोग से बचाव के लिए 1.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 45 लीटर पानी में घोल कर उस में बीजों को 12 घंटे भिगो कर व सुखा कर बोआई करें.

अंकुरण क्षमता बढ़ाने और अंकुरों की बढ़वार तेज करने के लिए 400 मिलीलीटर सोडियम हाइपोक्लोराइड व 40 लीटर पानी के घोल में 30 से 35 किलोग्राम बीजों को भिगो कर व सुखा कर बिजाई के काम में लाना चाहिए.

बोआई की विधि : बीजों को अंकुरित करने के बाद ही बिजाई करें. अंकुरित करने के लिए बीजों को जूट के बोरे में डाल कर 16 से 20 घंटे के लिए पानी में भिगो दें. इस के बाद पानी से निकाल कर बीजों को सुरक्षित जगह पर सुखा कर बिजाई के काम में लें. बीजों को नर्सरी में सीधा बोने पर 3 से 4 दिनों तक चिडि़या आदि पक्षियों से बचाव करें जब तक कि बीज उग न जाएं.

नर्सरी में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल : प्रति 100 वर्ग मीटर नर्सरी के लिए 2 से 3 किलोग्राम यूरिया, 3 किलोग्राम  सुपर फास्फेट व 1 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. यदि नर्सरी में पौधे पीले पड़ने लगें तो 1 किलोग्राम जिंक सल्फेट व आधा किलोग्राम चूने को 50 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सिंचाई : बोआई के समय खेत की सतह से पानी निकाल दें और बोआई के 3 से 4 दिनों तक केवल खेत की सतह को पानी से तर रखें. जब अंकुर 5 सेंटीमीटर के हो जाएं, तो खेत में 1 से 2 सेंटीमीटर पानी भर दें. जैसेजैसे पौधे बढ़ते जाएं, पानी की मात्रा भी बढ़ाते जाएं. ध्यान रखें कि पानी 5 सेंटीमीटर से ज्यादा नहीं भरना चाहिए.

ज्यादा पानी होने पर पानी को खेत से निकाल देना चाहिए. इस के लिए पानी के निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए, क्योंकि अधिक पानी भर जाने से पौधे अधिक लंबे व कमजोर हो जाते हैं. ऐसे पौधे रोपाई के लिए अच्छे नहीं माने जाते हैं.

नर्सरी में खरपतवार नियंत्रण : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बोआई के पहले या दूसरे दिन 1 लीटर बेंथियोकार्ब नामक दवा का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें. इस के अलावा 1 से 2 बार जरूरत के मुताबिक खरपतवारों को हाथ से भी उखाड़ें.

रोपाई : नर्सरी लगाने के 3 से 4 हफ्ते बाद पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है. रोपाई के लिए पौध को क्यारियों से उखाड़ने से 5 से 6 दिन पहले 1 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति 100 वर्ग मीटर नर्सरी के हिसाब से देते हैं ताकि स्वस्थ पौध मिल सकें.

नर्सरी प्रबंधन

* खेत की 2 से 3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी करें और अंतिम जुताई से पहले 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद मिलाएं.

* खेत को समतल कर के करीब 1 से डेढ़ मीटर चौड़ी, 10 से 15 सेंटीमीटर ऊंची व जरूरत के मुताबिक लंबी क्यारियां बनाएं. 1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 1000 वर्गमीटर की नर्सरी पर्याप्त होती है.

* खेत की ढाल के अनुसार नर्सरी में सिंचाई व जल निकास की नालियां बनाएं.

* बनाई गई क्यारियों में प्रति वर्ग मीटर

40 ग्राम बारीक धान या 50 ग्राम मोटे धान का बीज फफूंदनाशक दवा कार्बडाजिम से बीजोपचार के बाद 10 सेंटीमीटर दूरी पर कतारों में 2 से 3 सेंटीमीटर गहरा बोएं.

1 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 30 से 40 किलोग्राम बीज की मात्रा पर्याप्त होती है. यदि अंकुरण

80 फीसदी से कम हो तो उसी अनुपात में बीज दर बढ़ाएं. क्यारियों में बोआई के बाद बीजों को मिट्टी की हल्की परत से ढक दें.

* संकर धान का बीज 20 से 25 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से 15 से 20  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगता है.

* प्रतिवर्ग मीटर नर्सरी में 10 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 5 ग्राम यूरिया अच्छी तरह मिला दें.

* नर्सरी में पौधे नाइट्रोजन की कमी के कारण पीले दिखाई दें तो 15 से 30 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 7 से 10 ग्राम यूरिया प्रति वर्ग मीटर की दर से नर्सरी में दें.

* रोपाई में देरी होने की संभावना हो तो नर्सरी में नाइट्रोजन की टाप ड्रेसिंग न करें.

* जरूरत होने पर पौध संरक्षण दवाओं का छिड़काव करें. यदि नर्सरी में सल्फर या जिंक की कमी दिखाई दे तो सही मात्रा के अनुसार उपचार करें.

* रोपाई के समय पौध निकाल कर पौधों की जड़ों को पानी में डुबो कर रखें. पौध को क्यारियों से निकालने के दिन ही रोपाई करना सही होता है.

* नर्सरी में खरपतवार दिखाई दें तो उन्हें निकाल कर नष्ट कर दें. इस के बाद नाइट्रोजन का इस्तेमाल करें.

उड़द की उन्नत खेती

उड़द की खेती पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में की जाती है. इस की बोआई जायद व खरीफ दोनों मौसम में फरवरी के अंत से ले कर अगस्त के मध्य तक सफलतापूर्वक की जा सकती है.

खेत का चयन व तैयारी : समुचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी इस के लिए सब से सही होती है. वैसे दोमट से ले कर हलकी जमीन तक में इस की खेती की जा सकती है. खेत की तैयारी के लिए सब से पहले जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से कर के 2-3 जुताई देशी हल या हैरो से करें और उस के बाद ठीक से पाटा लगा दें. बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी रहना बहुत जरूरी है.

बीज की दर : बोआई के लिए उड़द के बीज की सही दर 12-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. खेत में अगर किसी वजह से नमी कम हो, तो 2-3 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर बढ़ाई जा सकती है.

बोआई का समय : खरीफ मौसम में उड़द की बोआई का सही समय जुलाई के पहले हफ्ते से ले कर 15-20 अगस्त तक है. हालांकि अगस्त महीने के अंत तक भी इस की बोआई की जा सकती है.

बीज शोधन : कवक जनित बीमारियों की रोकथाम के लिए बीजों का कवकनाशी से शोधन करना जरूरी है. बीजशोधन के लिए 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम या 2.5 ग्राम थीरम का प्रति किलोग्राम की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. यह ध्यान रखें कि दवा बीज में सही तरह से चिपक जाएं.

राइजोबियम उपचार : दलहनी फसल होने के नाते अच्छे जमाव, पैदावार व जड़ों में जीवाणुधारी गांठों की सही बढ़ोतरी के लिए राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करना जरूरी होता है. 1 पैकेट (200 ग्राम) कल्चर 10 किलोग्राम बीज के लिए सही रहता है. उपचारित करने से पहले आधा लीटर पानी का 50 ग्राम गुड़ या चीनी के साथ घोल बना लें. उस के बाद उस में कल्चर को मिला कर घोल तैयार कर लें. अब इस घोल को बीजों में अच्छी तरह से मिला कर सुखा दें. ऐसा बोआई से 7-8 घंटे पहले करें.

बोआई का तरीका

हल के पीछे कूंड़ में बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 35 से 45 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए. पौधे से पौधे के बीच की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिए. बोआई के बाद तीसरे हफ्ते में पासपास लगे पौधों को निकाल कर सही दूरी बना लें.

उर्वरक : उड़द की फसल को 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत होती?है. इस के अलावा 15-20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर देने से फसल की पैदावार में बढ़ोतरी पाई गई है. उर्वरकों की सभी मात्रा बोआई के समय ही दें.

सिंचाई : उड़द की फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं रहती है, लेकिन फिर भी यदि सितंबर महीने के बाद बारिश न हुई हो तो फलियां बनते समय 1 बार हलकी सिंचाई जरूर करें. अधिक बारिश व जल भराव की स्थिति में पानी के निकलने की व्यवस्था करें, वरना फसल को नुकसान हो सकता है.

निराईगुड़ाई : उड़द की अच्छी पैदावार के लिए 2 बार गुड़ाई करनी चाहिए. पहली बोआई के 20-22 दिनों बाद और दूसरी बोआई के 40-45 दिनों बाद. ऐसा करने से खरपतवार खत्म हो जाते हैं, जोकि अच्छी फसल व अच्छी पैदावार के लिए जरूरी है.

खास कीट व रोग

कमला कीट : यह उड़द को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला कीट है. इस की सूंड़ी पर रोएदार काले रंग के बाल होते हैं. ये कीड़े पत्तियों को खा कर ठूंठ बना देते?हैं.

देखभाल

* इंडोसल्फान 25 ईसी की 1.5 लीटर मात्रा 500 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* डाईमेथोएट की 1.25 लीटर मात्रा 600 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छि़काव करें.

* 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिथाइल पैराथियान का बुरकाव जरूरी है.

* इंडोसल्फान 4 फीसदी की धूल का 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें.

फली छेदक कीट?: इस कीट की सूंडि़यां फलियों में छेद कर के दानों को खाती हैं, जिस से उपज में भारी नुकसान होता है.

देखभाल

* इंडोसल्फान 35 ईसी का 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

* मोनोक्रोटोफास का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

* डाईमेथोएट का 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

* इंडोक्साकार्ब 400 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में?बना कर प्रति एकड़ की दर से छ्रिड़काव करना चाहिए.

पीला मोजैक : इस रोग की वजह से पत्तियों पर हलके पीले से ले कर सुनहरे रंग के चकत्ते से पड़ जाते हैं. अधिक प्रकोप की दशा में पत्तियां सूख कर झड़ने लगती हैं.

रोकथाम

यद्यपि यह एक वायरस जनित रोग है, लेकिन इस का संक्रमण एक सफेद रंग की मक्खी द्वारा होता?है, जिसे रोकने के लिए इमिडाक्लोप्रिड की 100 मिलीलीटर या डाईमेथोएट की 1.25 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें और संक्रमित पौधों को उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें.

पत्तीधब्बा रोग : पत्तियों पर हलके भूरे रंग के त्रिकोणीय धब्बे बन जाते?हैं, जिन के बीच का रंग हलका व बाहरी रंग गाढ़ा होता है.

देखभाल

* बोआई से पहले कवकनाशी से बीज उपचार करें.

* गरमी के समय की जुताई करें.

* 500 ग्राम कार्बेंडाजिम का प्रति एकड़ की दर से  छिड़काव करें.

खरीफ दलहनी फसलों की उन्नत खेती

दालों में प्रोटीन की भरपूर मात्रा होने के साथसाथ ये मिट्टी की उपजाऊ कूवत को भी बढ़ाती हैं. पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई दलहनी फसलें खरीफ, रबी व जायद के मौसमों में उगाई जाती रही हैं. फसल चक्र में दलहनी फसलों की मौजूदगी मिट्टी में नाइट्रोजन की भी बढ़ोतरी करती है. 

अरहर की उन्नत खेती

अरहर खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली दलहनी फसल है. इस की खेती ज्यादातर इलकों में होती है और पिछले 10 सालों में किसानों का रुझान इस की खेती की तरफ बढ़ा है. ऐसे इलाकों में जहां पर सिंचाई का सही इंतजाम नहीं है, वहां इसे उगया जाता है. इस के उत्पादन व उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिए अच्छी किस्मों का चुनाव बेहद जरूरी है. अरहर की अलगअलग किस्मों की पैदावार कूवत 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है.

अरहर कुदरत-3 और कुदरत करिश्मा जैसी संशोधित किस्में भी हैं. यह किस्में रोग रहित है इस के लिए आप मोबाइल नंबर : 09935281300 पर संपर्क कर के बीज मंगा सकते हैं. 

अच्छी किस्में : हालांकि अरहर की

3 प्रकार की (अल्पकालीन, मध्यकालीन व दीर्घकालीन) किस्में होती हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश राज्य के पश्चिम हिस्से में इस की केवल अल्पकालीन किस्मों (140-150 दिन) की खेती ही सफल है.

खेत का चयन व तैयारी : अरहर की फसल के लिए ऐसी मिट्टी जरूरी है, जिस में जल निकास की सही व्यवस्था हो, क्योंकि खेत में पानी भरने पर फसल को भारी नुकसान हो सकता है. मिट्टी का पीएच मान 5-8 के बीच होना चाहिए. अरहर में मिट्टी जनित रोगों से बचाव के लिए एक ही खेत में लगातार कई सालों तक अरहर नहीं उगानी चाहिए. बोआई करने से पहले खेत की एक बार गहरी जुताई कर के 2-3 बार हैरा चला कर मिट्टी  को भुरभुरी कर लेना चाहिए. इस के बाद खेत बोआई के लिए तैयार हो जाता है. बोआई के समय खेत में सही नमी का होना बहुत जरूरी है.

बोआई का समय : वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अरहर की बोआई मई के पहले हफ्ते से ले कर जून के आखिर तक की जा सकती है, लेकिन इस क्षेत्र में अरहर ज्यादातर गेहूंअरहर फसलचक्र के तहत उगाई जाती है. ऐसे में फसल  की बोआई 15 जून तक जरूर कर देनी चाहिए ताकि अरहर के बाद बोई जाने वाली फसल की बोआई में देरी न हो.

बोआई की विधि : अरहर की फसल की ज्यादा पैदावार लेने के लिए यह जरूरी है कि बोए गए क्षेत्र में पौधों की पर्याप्त तादाद हो. बोआई में लाइन से लाइन की दूरी 45 से 50 सेंटीमीटर व पौधों से पौधों की दूरी 15-20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.

मेंड़ों पर बोआई : प्रयोगों द्वारा यह साबित हो चुका है कि मेंड़ों पर अरहर की बोआई करने पर न केवल पैदावार में बढ़ोतरी होती है, बल्कि इस तकनीक को अपनाने से जलभराव से नुकसान से भी बचा जा सकता है. साथ ही कवक जनित बीमारियों का हमला भी कम होता है.

बीजशोधन : अरहर की बोआई से पहले बीजों को जरूर शोधित कर लेना चाहिए ताकि कवक जनित बीमारियों से फसल को बचाया जा सके. बीजशोधन के लिए प्रति किलोग्राम बीज की मात्रा में 2.5 ग्राम थीरम व 1.5 ग्राम कार्बंडाजिम को अच्छी तरह मिलाएं, जिस से दवा बीजों की सतह पर अच्छी तरह चिपक जाए. इस प्रक्रिया को बोआई से 8-10 दिन पहले कर बीजों को बोआई के लिए रख दें.

खाद की व्यवस्था :  अरहर दलहनी फसल है जिस में नाइट्रोजन की जरूरत कम पड़ती है, क्योंकि इस की जड़ों में पाए जाने वाले जीवाणु आबोहवा से नाइट्रोजन सोख कर फसल को पहुंचाते रहते हैं. लेकिन जब तक कि जड़ों में जीवाणुधारी गांठों का पूरा विकास नहीं हो जाता है, तब तक इस को नाइट्रोजन की जरूरत होती है. यह अवधि 40-45 दिनों की होती है. इस दौरान पौधों के पोषण के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है. इस के अलावा 40 किलोग्राम फास्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की भी जरूरत होती है. प्रयोगों द्वारा यह भी साबित हो चुका है कि प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम सल्फर फसल को देने से उत्पादकता पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है.

खरपतवार रोकथाम : अरहर की फसल में पौधों की बढ़वार को सामान्य रखने के लिए शुरू के 30-40 दिनों तक खरपतवारों की रोकथाम बहुत जरूरी है. इस के लिए फसल में खुरपी द्वारा पहली गुड़ाई बोआई के तकरीबन 20 दिनों बाद व दूसरी 40 दिनों बाद करें.

खरपतवारनाशी रसायनों द्वारा भी खरपतवारों को खत्म किया जा सकता है. बोआई के फौरन बाद व जमाव से पहले पैंडीमिथेलीन की 3.3 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा व  नुकसानदायक कीट

अरहर की फली की मक्खी : यह अरहर का खास नुकसानदायक कीट है. इस कीट के बच्चे जिन्हें मैगेट कहते हैं, फलियों के अंदर घुस कर दाने खाते हैं. कीटों से ग्रसित फलियां टेढ़ीमेढ़ी हो जाती हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर करीब 50 फीसदी तक फसल नष्ट हो जाती है.

देखभाल

* बीमारी लगी फलियों को दिसंबरजनवरी में तोड़ कर जला देना चाहिए.

* कटाई के बाद खेत में फसल के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए.

* अधिक प्रकोप की दशा में न्यूवाक्रान 800 मिलीलीटर या इंडोसाकार्ब 400 मिलीलीटर का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

अरहर के प्रमुख रोग

उकठा रोग : इस रोग से अरहर की फसल को सब से ज्यादा नुकसान होता है. यह रोग ‘फ्यूजेरियम उडम’ नामक कवक द्वारा फैलता है. जब पौधे 30 से 45 दिनों के हो जाते हैं, तब से वे इस रोग की चपेट में आने लगते हैं. इस में पत्तियां पीली पड़ कर झुक जाती हैं और पूरा पौधा सूख जाता है. जड़ों में कवक के असर से पौधों के अंदर खाद्य पदार्थ का संचार रुक जाता है. इतना ही नहीं कवक द्वारा छोड़ा गया फ्यूजेरिक अम्ल भी जड़ों को प्रभावित कर देता है. इस से जड़ें  सड़ कर  गहरे रंग की हो जाती हैं. जड़ से ले कर तने की कुछ ऊंचाई तक छाल को हटाने से काले रंग की धारियां दिखाई पड़ती हैं. इस रोग के असर से पूरी फसल तक नष्ट हो जाती है. प्रबंधन के लिए रोगरोधी किस्मों के बीज बोने चाहिए और एक ही खेत में बराबर अरहर की खेती नहीं करनी चाहिए.

देखभाल

* प्रभावित खेत में गरमी की गहरी जुताई कर के पहली फसल की दबी हुई जड़ों को निकाल कर जला देना चाहिए.

* प्रभावित खेत में अगले 5-6 साल तक अरहर की फसल नहीं लेनी चाहिए.

* हरी खाद के इस्तेमाल और ज्वार व तंबाकू के साथ मिलवां खेती करने पर रोग का प्रकोप कम हो जाता है.

* रोगरोधी किस्मों की बोआई करनी चाहिए.

झुलसा रोग : यह फफूंद जनित रोग है. इस रोग के कारण पत्तियों व फूलों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जिस से वे सूखने लगते हैं. फूल सूखने की वजह से फलियां बनती ही नहीं. यदि बनती भी हैं तो वे सूख जाती हैं. इस की रोकथाम के लिए 500 ग्राम  मैंकोजेब का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. बीजों को कार्बंडाजिम की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर के बोना चाहिए. खेत में ट्राईकोडर्मा नामक जैव फफूंद को मिलाना चाहिए.     

– डा. भूपेंद्र कुमार             

कपास की खेती ‘खोटा सोना’ न बन जाए ‘सफेद सोना’

कपास यानी नरमा को?भारत में ‘सफेद सोना’ भी कहा जाता?है. लेकिन पिछले साल हरियाणा और पंजाब राज्यों में इस सफेद सोने पर सफेद मक्खी ने जम कर कहर बरपाया था. जिस से यह ‘सफेद सोना’ न रह कर ‘खोटा सोना’ बन गई थी और किसानों को हजारोंलाखों रुपए की चपत लगी थी. सरकार को करोड़ों रुपए मुआवजे के तौर पर जारी करने पड़े थे. पिछली बार अनेक बीज कंपनियों व कीटनाशक कंपनियों के सारे दावे धरे रह गए और नरमा फसल पर सफेद मक्खी के प्रकोप को अनेक तरह के कीटनाशक भी नहीं रोक पाए. इस बार इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर पंजाब सरकार ने सफेद मक्खी के काले साए से नरमा फसल को बचाने के लिए ‘वार प्लान’ तैयार किया है. इस योजना के तहत कपास की खेती में माहिर कृषि वैज्ञानिकों और अधिकारियों की टीमें तैनात की जाएंगी. टीमों में 200 से ज्यादा जानकार लोग होंगे, जो समयसमय पर नरमा फसल का मुआयना करेंगे.

हरियाणा सरकार ने पिछले साल सफेद मक्खी से हुए नुकसान की भरपाई के लिए अब जा कर 967 करोड़ रुपए का मुआवजा जारी किया है, जो किसानों के बैंक खातों में सीधा जाएगा.दूसरी तरफ धोखा खा चुके किसानों ने भी कमर कस ली है. कपास बोने वाले किसानों का कहना है कि हम नरमा फसल में उत्पादन के लिए बीज की अच्छी किस्म से ले कर बीजाई के खास तरीके अपनाएंगे और समयमसय पर जानकारों से सलाहमशवरा भी करेंगे. कृषि जानकारों का मानना है कि नरमा की अच्छी पैदावार के लिए खेत में नरमा पौधों की सही संख्या होना और सिंचाई का सही इंतजाम होना जरूरी है. नरमा पौधों की सही संख्या के बाद पौधों के लिए सही मात्रा में खाद व पानी की जरूरत होती है. उस के अलावा खास बात लंबी अवधि तक फल देने वाले बीज का चुनाव भी है.

प्रगतिशील किसानों का कहना है कि 1 एकड़ में नरमा के 4 हजार से 4800 तकपौधे होने चाहिए. पौधों के बीच में 3 से सवा 3 फुट तक का फासला होना चाहिए, ताकि पौधों को बढ़ने के लिए सही जगह मिले और पौधों के बीच में सही फासला होने पर पौधों को हवा धूप ठीक से मिले, जिस से उन में फुटाव ठीक होगा.माहिरों का कहना?है मौसम के मिजाज का कुछ पता नहीं चलता, इसलिए नरमा की बोआई सीधी न कर के डोलियों (मेंड़ों) पर करें. अगर किसान हाथ से बोआई करते?हैं, तो बीज के साथ गोबर की खाद जरूर डालें.

आज ज्यादातर किसान देशी कपास न बो कर बीटी कपास की ही बीजाई करते?हैं. बीटी कपास के लिए किसानों को यह?भी जानना जरूरी?है कि उस के लिए ज्यादा खुराक चाहिए. इस की बीजाई के दौरान 1 एकड़ में 20 किलोग्राम पोटाश, एक बैग डीएपी, 20 किलोग्राम यूरिया, 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट जरूर डालें.कुछ क्षेत्रों में जहां खारा पानी है, वहां 1 एकड़ में कम से कम 8 से 10 ट्राली प्रति एकड़ गोबर की खाद खेत तैयार करते समय जरूर डालें, क्योंकि नरमा में पौधे ज्यादा नमक सहन नहीं कर पाते और गोबर की खाद डालने से उन्हें ताकत मिलती है.

अंगरेजी में एक कहावत है ‘वैल बिगेन इज हाफ डन’ यानी किसी काम की अगर शुरुआत अच्छी हो तो समझ लो कि आधा काम निबट गया. यह बात खेती में भी लागू होती है. खेती की शुरुआत बीज से होती है. बीज ही खेती का मुख्य आधार है. बीज पर ही फसलों का उत्पादन टिका होता है. अच्छे बीज जहां औसतन 20 से 30 फीसदी ज्यादा पैदावार देते हैं. वहीं खराब बीजों से मेहनत, पैसा और समय दोनों बरबाद हो जाते हैं.

अच्छी शुरुआत अच्छे बीजों के साथ

डाक्टर बीज : ‘हर हाल में खुशहाल डाक्टर बीज का यही कमाल’? यह नारा है डाक्टर बीज उत्पादन करने वाली कंपनी सोलार एग्रोटैक का. कंपनी का 2 तरह का कपास बीज बाजार में है.

सोलार 65 : मध्यम अवधि, 155-160 दिनों तक फसल तैयार होने का समय. पौधे सीधी बढ़त वाले एक समान बड़े और वजनदार टिंडे.

नरमा का खिलाव अच्छा चुगाई आसान. अधिक टिंडे. रस चूषक कीटों के प्रति सहनशील. पौधों की लंबाई 150 से 160 सेंटीमीटर. बीजाई का समय 31 मई तक. रेशे की लंबाई 29 से 30 मिलीमीटर. सभी प्रकार की नरमा उगाने वाली मिट्टी के लिए सही है.

‘सोलार 65’ को हरियाणा के हिसार क्षेत्र के अनेक किसानों ने आजमाया है, जिन में किसान साधुराम (मो. नं.  0881300016), अजीत सिंह (मो. नं.  9813244409), सतनाम सिंह (मो. नं.  9896274777) जैसे अनेक किसान हैं, जिन्होंने इस बीज को बोया था और अच्छी पैदावार ली.

जींद के किसान सुभाष (मो. नं.  8607520822), जगदीश (मो. नं.  9728897165) और फतेहाबाद के किसान सुनील कुमार (मो. नं.  9992115136) ने भी इस बीज से अच्छी पैदावार ली.

गोल्ड स्टार : मध्यम अवधि 160-165 दिनों में तैयार होने वाली फसल. पौधे सीधी बढ़त वाले. मजबूत तना. हर तरह के मौसम में कामयाब पौधे की लंबाई 6 से 7 फुट. पौधे की ऊंचाई जल्दी बढ़ती है. टिंडे पासपास और ज्यादा संख्या में मिलते हैं. टिंडे मोटे व वजनदार तकरीबन 5 से 5.6 ग्राम. पौधों की संख्या ज्यादा और अच्छी पैदावार. खिलाव अच्छा चुगाई भी आसान. रस चूसक कीटों के प्रति सहनशील. हर प्रकार की नरमा लगाने वाली मिट्टी में कामयाब.

इस गोल्ड स्टार नरमा बीज को जिला फतेहाबाद हरियाण के किसान राकेश (मो. नं.  9802656653), जींद के किसान जगवीर (मो. नं.  9467037975), रोहतक के किसान मनजीत (मो. नं.  9813468762) व हिसार के किसान मोहित (मो. नं.  9416672767) ने बोया और इस बीज से अच्छी फसल ली है.

शिल्पा व कार्तिक : कपास की उन्नत किस्मों में शिल्पा और कार्तिक भी शामिल है. इन में मरोडिया नामक बीमारी से छुटकारा मिल जाता है. इन दोनों किस्मों में फल झड़ने के बाद?भी अंकुरण होता है. इन में विपरीत परिस्थितियों में जूझने की कूवत भी है.फसल मई के आखिरी महीने तक बोई जा सकती है और पकने की अवधि 155 से 160 दिन है. बीज कंपनी का कहना?है कि यह किस्म कम पानी में भी अच्छी बढ़त देती है. इन किस्मों में बड़ा टिंडा होता है और रस चूसक कीटों का हमला कम होता?है. यह लीफकर्ल बीमारी के प्रति सहनशील है.

विक्रम 310 : इस के टिंडे मध्यम आकार के होते हैं. फसल तैयार होने का समय 160-170 दिन है. इस किस्म की बोआई मई के आखिर तक होती है. सामान्य नरमे की तुलना में कम दूरी पर बोया जाता है.

दक्ष सी 111 : टाटा कंपनी के दक्ष सी 111 बीज की खासीयत के बारे में बीज कंपनी का कहना है कि इस के टिंडे बड़े साइज के व अधिक मात्रा में आते हैं.

फसल पकने तक हरी रहती है व पौधे की टहनियों में लचक होने के कारण नरमा चुनते समय पौधा टूटता नहीं है. रस चूसक कीटों के प्रकोप में कमी होती है. फसल पकने की अवधि 155-165 दिन है. पौधों की लंबाई 5.5 से 6 फुट तक होती है. बोआई मई के आखिर तक कर सकते हैं.

राघव, बलवान, एनसीएस 9013 : नुजिवीडू सीड्स लि. की एनसीएस-9013, राघव व बलवान जैसी वैराइटी हैं, जिन्हें हरियाणा व पंजाब में किसानों ने आजमाया?है और अच्छी पैदावार ली है. देखें संबंधित बौक्स (इन्होंने आजमाया)

सिकंदर टाटा : कैमिकल्स का धान्या संकट नरमा ‘सिकंदर’ भी बीज के विश्वास और मुनाफे का प्रतीक है. इस की खास विशेषताएं हैं मध्यम पछेती पकने वाली फसल, अधिक टिंडे व बढि़या खिलाव, रस चूषक कीटों के प्रति बेहतर सहनशील, लंबे व मजबूत आकार का पौधा.

यह बीज उत्तम भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल है. इसे सैकड़ों किसानों द्वारा आजमाया गया?है और तकरीबन 10 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार भी ली है.

सुपर श्रद्धा : सुपर सीड्स कंपनी का सुपर श्रद्धा संशोधित देशी कपास बीज है. फसल पकने का समय 155-160 दिन है और फसल बीजाई का समय अप्रैल से जून महीने तक है. यह किस्म सिंचित व असिंचित दोनों क्षेत्रों के लिए सही है और इसे हर प्रकार की जमीन में पैदा कर सकते हैं.

सुपर 931 : इस पौधे का ऊंचा कद, मोटे टिंडे होते हैं व पूरी पैदावार मिलती है. फसल पकने का समय 160-165 दिन है व टिंडों का वजन 5 से साढ़े 5 ग्राम होता है. इस के रोएंदार पत्ते होते हैं. यह रसचूसक कीट के लिए प्रतिरोधक व सिंचित व असिंचित दोनों क्षेत्रों के लिए सही है.

कावेरी बुलेट व कावेरी जादू : कावेरी बुलेट में फसल पकने का समय 145 से 150 दिन है. इस में 2 से 3 फल शाखाएं व 21 से 24 तक उपफल शाखाएं निकलती हैं. फूल आने की अवधि 40 से 45 दिन है.

कावेरी जादू में फसल पकने की अवधि 150-160 दिन है. पौधों को पासपास बोने के लिए सही बीज, अधिक टिंडे लगते हैं. सभी तरह के हालात के अनुकूल हैं. सूखा सहने की क्षमता है और रसचूसक कीट के लिए प्रतिरोधक है. इस पौधे की ऊंचाई 5 से 5.5 फुट होने पर ही टिंडों को तोड़ना सही रहता है. इस के अलावा अंकुर 3228, अंकुर 3028, अंकुर 3244 , जेके 0109, जेके 8940 जैसी अनेक वैराइटियां हैं, इसलिए किसान बीज बोने से पहले अपने इलाके के आधार पर सही बीज का चुनाव करें और संबंधित जानकारी ले कर बीज जरूर बोएं. कंपनी के वादों से पहले पड़ताल भी जरूरी है.

मशीन से भी बोआई

पशुचालित प्लांटर: केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल द्वारा बनाई गई पशुओं से चलने वाली बोआई मशीन से भी कपास की बोआई की जाती है. इस पशुचालित प्लांटर से कतार से कतार की दूरी व बीज से बीज की दूरी नियंत्रित की जाती है. चूंकि कपास का बीज महंगा होता है, इसलिए इस मशीन से बोने पर बीज की बरबादी नहीं होती.

इस मशीन से सरसों जैसे छोटे बीज से ले कर मध्यम और बड़े बीज जैसे सोयाबीन मूंगफली, मक्का आदि की भी बोआई की जा सकती है. इस मशीन के लिए केवल 1 जोड़ी बैलों की जरूरत होती है, जो मशीन को खींच कर चलाते हैं. मशीन की अनुमानित कीमत 15 हजार रुपए है.

इस मशीन से संबंधित किसी भी जानकारी के लिए किसान केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल के  नंबरों 0755-2521133, 2521139 व 2521142 पर बात कर सकते हैं.

स्वचलित सीड ड्रिल मशीन : हाथ से चलने वाली सीड ड्रिल मशीन और ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलने वाली आटोमैटिक सीड ड्रिल मशीन से भी कपास की बिजाई कर सकते हैं. इस के लिए भारत एग्रो इंजीनियरिंग की मशीनें उपलब्ध हैं, जिन पर सरकार की ओर से सब्सिडी भी दी जाती है. इन मशीनों से संबंधित जानकारी के लिए कंपनी के फोन नंबर 02827-253858पर बात कर सकते हैं.

हरियाणा के किसानों ने जो आजमाया

दक्ष सी 111 का इस्तेमाल करने वाले किसान

नाम : राजेंद्र सिंह

गांव : नहला

जिला : फतेहाबाद

मो. नं.: 9468022282

पैदावार : 27 मन प्रति एकड़

 

नाम : हिम्मत सिंह

गांव : संडौल

जिला : हिसार

मो. नं.: 9050441556

पैदावार : 30 मन प्रति एकड़

 

नाम : सुंदर सिंह

गांव : पावड़ा

जिला : हिसार

मो. नं.: 9992231031

पैदावार : 32 मन प्रति एकड़

 

नाम : धर्मवीर सिंह

गांव : हांसावाला

जिला : हिसार

मो. नं.: 9050861225

पैदावार : 20 मन प्रति एकड़

 

नाम : अनिल कुमार

गांव : छान

जिला : हिसार

मो. नं.: 9467244657

पैदावार : 29 मन प्रति एकड़

 

नाम : सतपाल

गांव : बधावड़

जिला : हिसार

मो.नं.: 8529481875

पैदावार : 28 मन प्रति एकड़

 

नाम : रणदीप सिंह

गांव : खरक पुनिया

जिला : हिसार

मो. नं.: 9966577443

पैदावार : 33 मन प्रति एकड़   

बलवान/एनसीएस 9013 का

इस्तेमाल करने वाले किसान

 

नाम : राजेंद्र

गांव : शिमला, कलायत

मो. नं.: 08930112385

नरमा : बलवान

पैदावार : 25 मन प्रति एकड़

 

नाम : रामेश्वर

गांव : कालता, जींद

मो. नं.: 09466690759

नरमा : बलवान

पैदावार : 25 मन प्रति एकड़

 

नाम : सुरेश

गांव : कुचराना कलां

मो. नं.: 09991198433

नरमा : बलवान

पैदावार : 28 मन प्रति एकड़

 

नाम : संजय

गांव : पौली, जुलाना, जींद

मो. नं.: 08529856800

नरमा : बलवान

पैदावार : 30 मन प्रति एकड़

 

नाम : ओमप्रकाश

गांव : सैंथली, नरवाना

मो. नं.: 09467238216

नरमा : एनसीएस 9013

पैदावार : 30 मन प्रति एकड़

 

नाम : मनमोहन लाडी

गांव : कालता, उचाना

मो. नं.: 09416485370

नरमा : बलवान

पैदावार : 34 मन प्रति एकड़

 

नाम : नाथूराम

गांव : बाणा, नरवाना

मो. नं.: 09729263403

नरमा : बलवान

पैदावार : 32 मन प्रति एकड़

धान्या संकर, नरमा सिकंदर

इस्तेमाल करने वाले किसान

 

नाम : कृष्ण कुमार

गांव : रावल वास

जिला : हिसार

मो. नं.: 9812674587

पैदावार : 10.40 क्विंटल प्रति एकड़

 

नाम : चंद्रभान

गांव : देवां

जिला : हिसार

मो. नं.: 9467297446

पैदावार : 8 क्विंटल प्रति एकड़

 

नाम : भूप सिंह फोगट

गांव : सिघरान

जिला : हिसार

मो. नं.: 9466282080

पैदावार : 9 क्विंटल प्रति एकड़

 

नाम : अशोक

गांव : संगतपुरी

जिला : जींद

मो. नं.: 9992707851

पैदावार : 30 मन प्रति एकड़

 

नाम : पप्पू

गांव : भौगंरा

जिला : जींद

मो. नं.: 9896212587

पैदावार : 32 मन प्रति एकड़

 

नाम : लीजाराम

गांव : डुंडवा

जिला : कैथल

मो. नं.: 989635596

पैदावार : 30 मन प्रति एकड़

 

नाम : छज्जूराम

गांव : ठाणी शंकर

जिला : भिवानी

मो. नं.: 9992061237

पैदावार : 7.5 क्विंटल प्रति एकड़

खूबसूरत गोल और लट्टू लौकी की खेती

हर दिन के खाने में अकसर शामिल रहने वाली सब्जी लौकी अपनेआप में खूबियों की खान होती है. इसे सारे साल तमाम घरों में बेहद चाव से खाया जाता है. मरीजों के लिए तो यह खासतौर पर मुफीद होती है. इसी वजह से कुछ नकचढ़े किस्म के लोग इसे मरीजों की तरकारी करार दे कर खाने से इनकार भी कर देते हैं. चूंकि लौकी पचने में आसान होती है, लिहाजा इसे पीलिया जैसे रोगों के मरीजों तक को खूब खिलाया जाता है, पर इस का मतलब यह नहीं है कि सामान्य स्वस्थ लोगों के लिए यह बेकार है. सेहतमंद लोग भी लौकी के कोफ्ते, लौकी की खीर व लौकी की बरफी वगैरह चाव से खाते हैं.  आमतौर पर लंबी छरहरी लौकियां तो हर जगह बहुतायत में पाई जाती हैं, मगर निहायत खूबसूरत गोल व लट्टू जैसे आकार की लौकियों की अलग ही शान होती है. इन सुंदर लट्टू के आकार वाली व गोल लौकियों के अंदरूनी गुण तो लंबी लौकियों जैसे ही होते हैं, पर इन का हुस्न लाजवाब होता है. गोल व लट्टू लौकियों की खेती भी लंबी लौकियों की खेती की तरह ही की जाती है.

माकूल हालात

जहां गरम सूखा मौसम हो और उम्दा धूप निकलती हो, वहां लौकी के अंकुरण के लिए 25 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान सही होता है. इस की सामान्य बढ़वार के लिए 25 से 30 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान ठीक होता है. 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर नर फूलों की तादाद में इजाफा होता है और मादा फूलों की तादाद घटती है.

बीज और बोआई

लौकी की खेती के लिए 2 से ढाई किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगते हैं. गरमी की फसल के लिहाज से जनवरीफरवरी के दौरान बोआई की जाती है, जबकि खरीफ के लिहाज से जूनजुलाई में बोआई करना मुनासिब रहता है. बोआई करते वक्त कतार से कतार की दूरी 150-180 सेंटीमीटर होनी चाहिए और पौध से पौध की दूरी 60 सेंटीमीटर सही रहती है.

खाद व फर्टीलाइजर

खेत की तैयारी के समय अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद की 15-20 टन मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. इसी समय 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश भी प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिलाएं. रोपाई के 20 दिनों बाद, फूल आने से पहले और पहली फसल तोड़ाई के बाद हर बार 50 किलोग्राम नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

कीट व बीमारियां

तमाम फसलों की तरह लौकी की फसल भी कीड़ों व रोगों की चपेट में आती रहती है, लिहाजा अच्छी फसल लेने के लिए कीटों व रोगों के प्रति बेहद सतर्क रहना पड़ता है. लौकी के खास कीटों व बीमारियों से चौकन्ना रह कर बचा जा सकता है.

खास कीट

लौकी के खास कीटों व उन से बचाव के बारे में यहां बताया जा रहा है: माहो/तेला : यह कीट लौकी की फसल का खास दुश्मन है. बचाव के लिए फोरेट (थाइमेट) की 12.5 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस से करीब 3 हफ्तों के लिए फसल की अच्छी हिफाजत हो जाती है. इस के अलावा आक्सीडेमेट्रान मिथाइल (मेटासिस्टाक्स) का छिड़काव 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 10-15 दिनों के अंतराल से करें.

कुटली (माइट)/चुरदा : यह कीट भी लौकी की फसल के लिए बहुत घातक होता है. बचाव के लिए सल्फर की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बिखराएं या डायकोफाल (केलथेन)/ डायनोकैब (काराथेन) का 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

फल की मक्खी : यह लौकी के फलों को खासतौर पर नुकसान पहुंचाती है. बचाव के लिए संक्रमित फलों और सूखी पत्तियों को इकट्ठा कर के किसी गहरे गड्ढे में जला दें. फल की मक्खी से बचाने के लिए लौकी के फलों को पौधों पर ज्यादा नहीं पकने देना चाहिए. लौकी की बेलों के नीचे निराई या जुताई करते रहने से फल की मक्खी के प्यूपा को बाहर निकालने में मदद मिलती है.

खास रोग

कीड़ों के अलावा लंबी, गोल या लट्टू लौकी की फसलों को कई बीमारियों का भी खतरा रहता है. अगर समय रहते बीमारियों का इलाज न कराया जाए, तो फसल को काफी नुकसान होता है. लौकी के खास रोग व बचाव के बारे में यहां बताया जा रहा है: रोमिल फफूंद (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. रोकथाम के लिए मेटालेक्सिल + मैंकोजेब (रिडोमिल) का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें. 21 दिनों बाद से शुरू कर के 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करने से काफी फायदा होता है.

भस्मी फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग भी फसल के लिए काफी नुकसानदेह होता है. बचाव के लिए सल्फर की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बिखेरें. सल्फर बिखेरने का काम सुबह या शाम के वक्त करना ठीक रहता है. गरम धूप में सल्फर बिखेरने से फसल को फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है.

फुझारियम मुरझान : इस बीमारी के असर से पौधे मुरझा कर शिथिल पड़ जाते हैं. इस से बचने के लिए फसल को बदलबदल कर बोएं. यह बदलाव 3 साल के क्रम में होना चाहिए.

वायरल जटिलता : इनसानों को ही वायरल नहीं होता, बल्कि वायरल जटिलता की चपेट में पौधे भी आ जाते हैं. इस से बचने के लिए वायरस वाहक तत्त्वों की रोकथाम करनी चाहिए. इन कीड़ों व रोगों के अलावा रस चूसने वाले कीड़ों और पत्तियां खाने वाली सूंडि़यों से भी फसल को काफी खतरा रहता है. इन के इलाज के लिए भी उम्दा कंपनी की दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए.

लट्टू जैसी लौकी ‘माही 90’

बेहद बड़े लट्टू जैसी नजर आने वाली यह लौकी वाकई अति खूबसूरत होती है. साधुसंतों के कमंडल आमतौर पर इसी किस्म की लौकी से बनाए जाते हैं. आकर्षक चटक हरे रंग की यह लौकी अपनी सुंदरता की वजह से मामूली लौकी के मुकाबले महंगी मिलती है. ‘माही 90’ नस्ल की लौकी में 60-65 दिनों में फल आने शुरू हो जाते हैं. इस के बड़े हरे लट्टू जैसे फलों का वजन 600 से 750 ग्राम तक होता?है. यह नस्ल भरपूर पैदावार देने वाली होती है. इसे दूरदूर तक ले जाने में कोई खराबी नहीं आती. उत्तर पूर्व व पंजाब इलाकों के लिए यह नस्ल बेहद मुफीद होती है.

चपटीगोल लौकी ‘माही 1’

बहुत बड़े टिंडे जैसी नजर आने वाली माही 1 नस्ल की लौकी भी बेमिसाल होती है. इस का खास चपटा व गोल आकार काफी मोहक लगता है. माही 90 के मुकाबले हलके हरे रंग की यह लौकी भी साधारण लंबी लौकी की बनिस्बत महंगी मिलती है. माही 1 नस्ल की लौकी में 50-55 दिनों में ही फल आने शुरू हो जाते हैं. इस के चपटेगोल बगैर धारी के खरबूजे जैसे फलों का वजन 450 ग्राम से आधा किलोग्राम तक होता है. यह नस्ल भी भरपूर पैदावार देने वाली होती है. ‘माही 90’ और ‘माही 1’ लौकियां आमतौर पर हर सब्जीमंडी में नजर आ जाती हैं, मगर लंबी लौकियों के मुकाबले आज भी गोल या लट्टू जैसी लौकियां कम दिखाई देती हैं.

बाजरे की आधुनिक खेती

एक जमाना था जब ज्वार, बाजरा या मक्का जैसे अनाजों को मोटा व मामूली माना जाता था. गरीब तबके के लोग ही ज्वार, बाजरा व मक्का जैसे अनाजों की रोटियां खाया करते थे. मगर अब इन अनाजों को खाना शान की बात समझा जाता है. मौल्स में इन अनाजों के आटे काफी महंगे दामों पर मिलते हैं. अगर बाजरा की बात की जाए तो कबूतरों को चुगाने वाले इस सलेटी अनाज में भरपूर खूबियां होती हैं. इस का फाइबर वाला आटा सेहत के लिए मुफीद होता है. इस के आटे से सोंधी रोटियां व लाजवाब पुए बनाए जाते हैं. बाजरे की रोटी में गुड़ व देशी घी मिला कर तैयार किया गया मलीदा बेहद स्वादिष्ठ होता है. गुड़ व तिल डाल कर बनाए गए बाजरे के पुए देख कर मुंह में पानी आ जाता है. वैसे चारे के लिहाज से इस का ज्यादा इस्तेमाल होता है.

खासीयत

बाजरा ऊंची बढ़ने वाली फसल है, जो ज्यादातर चारे के लिए लगाई जाती है. बाजरा के पौधों में कल्ले काफी मात्रा में निकलते हैं. अपने सूखारोधक गुण की वजह से बाजरे की फसल भारत के सभी हिस्सों में उगाई जाती है. माकूल हालात में इस की 1 से ज्यादा कटाई ली जा सकती हैं. इसे हरे और सूखे चारे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. बाजरे के चारे से साइलेज भी उम्दा बनता है.

सही जमीन

बाजरे की फसल हर किस्म की जमीन में उगाई जा सकती है. फिर भी इस के लिहाज से रेतीली और रेतीली दोमट जमीन बेहतर होती है. बाजरे के खेत में जल निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए, क्योंकि यह फसल ज्यादा पानी नहीं बरदाश्त कर सकती है.

खेत की तैयारी

हल और हैरो का इस्तेमाल कर के जमीन को सही तरीके से जोत कर तैयार करना चाहिए. खेत की सही तैयारी के लिए 2-3 बार जुताई करना जरूरी होता है. जमीन की तैयारी में खयाल रखने वाली बात यह है कि खेत में नमी ठीकठाक मात्रा में होनी चाहिए. नमी कम लगे तो उसे सिंचाई से दूर करना चाहिए.

उर्वरक व खाद

किसी भी फसल के लिए खाद व उर्वरक का सही मात्रा में इस्तेमाल करना लाजिम होता है. बाजरे की खेती के लिए 10 बैलगाड़ी गोबर की सड़ी खाद, 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से फसल की बोआई से पहले खेत में डालना चाहिए. बोआई के 1 महीने बाद 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से फसल में बिखेर कर डालना चाहिए. इस के बाद 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हर कटाई के बाद सिंचाई कर के डालना चाहिए.

बीज और बोआई

बाजरे की फसल को खरीफ और गरमी के मौसम में बोया जाता है. मोटे तौर पर बाजरे की बोआई का सही वक्त मध्य फरवरी से ले कर जूनजुलाई तक है.  जहां तक बीजों की मात्रा की बात है, तो 5-7 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सही रहता है. बोआई के वक्त लाइनों की आपसी दूसरी 25 सेंटीमीटर होनी चाहिए. बीजों को 2 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए.

निराईगुड़ाई

किसी भी फसल की खेती में निराईगुड़ाई की बहुत ज्यादा अहमियत होती है. बाजरे की खेती के मामले में भी निराईगुड़ाई बेहद जरूरी होती है. बोआई के बाद वक्तवक्त पर खेत की निराईगुड़ाई कर के सफाई करते रहना चाहिए. खरपतवारों को लगातार निकालते रहने से फसल की बढ़वार और पैदावार पर माकूल असर पड़ता है.

सिंचाई

किसी भी फसल में सिंचाई की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता है. खरीफ के मौसम में अगर लंबे अरसे तक बारिश न हो, तो फसल को 10-12 दिनों के अंतराल पर सींचते रहना चाहिए. इस बात का खयाल रखें कि फरवरीमार्च में बोई गई फसल को हर 8-10 दिनों बाद पानी की दरकार होती है.

कटाई

पौधों में फूल आने से पहले फसल को चारे के लिहाज से काटना सही रहता है. अगर किसी वजह से इस दौरान फसल न काट सकें तो 50 फीसदी फूल आने पर फसल जरूरी काट लेनी चाहिए. बोआई के करीब 65-70 दिनों बाद फसल इस स्थिति में पहुंचती है.

चारे की पैदावार

आमतौर पर बाजरे के चारे की पैदावार 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. 1 बार से ज्यादा कटाई वाली फसल की पैदावार करीब 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

उन्नतशील प्रजातियां

बाजरे की उन्नतशील प्रजातियां हैं बाजरा जाइंट, एचसी 20 व रजको बाजरा आदि. रजको बाजरा प्रजाति की 3-4 बार कटाई की जा सकती है.

पोषक तत्त्व

बतौर चारा बाजरा पोषक तत्त्वों से भरपूर होता है. 50 फीसदी फूल आने पर इस के चारे में 7.1 फीसदी कूड प्रोटीन मौजूद होता है. कुल मिला कर मुख्य रूप से पशुओं के लिए बोया जाने वाला बाजरा गुणों की खान होता है. फाइबर से भरपूर यह अनाज इनसानों के लिए भी काफी मुफीद होता है. गांव के लोग रोटी के साथसाथ बाजरे की खिचड़ी भी खाते हैं. इस के दानों को भाड़ में भुनवा कर भी खाया जाता है. कारोबारी और जागरूक किस्म के किसान बाजरे का आटा पिसवा कर उसे 500 ग्राम, 1 किलोग्राम व 2 किलोग्राम की पैकिंग में बेच कर भरपूर कमाई कर सकते हैं.

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