हर दिन के खाने में अकसर शामिल रहने वाली सब्जी लौकी अपनेआप में खूबियों की खान होती है. इसे सारे साल तमाम घरों में बेहद चाव से खाया जाता है. मरीजों के लिए तो यह खासतौर पर मुफीद होती है. इसी वजह से कुछ नकचढ़े किस्म के लोग इसे मरीजों की तरकारी करार दे कर खाने से इनकार भी कर देते हैं. चूंकि लौकी पचने में आसान होती है, लिहाजा इसे पीलिया जैसे रोगों के मरीजों तक को खूब खिलाया जाता है, पर इस का मतलब यह नहीं है कि सामान्य स्वस्थ लोगों के लिए यह बेकार है. सेहतमंद लोग भी लौकी के कोफ्ते, लौकी की खीर व लौकी की बरफी वगैरह चाव से खाते हैं.  आमतौर पर लंबी छरहरी लौकियां तो हर जगह बहुतायत में पाई जाती हैं, मगर निहायत खूबसूरत गोल व लट्टू जैसे आकार की लौकियों की अलग ही शान होती है. इन सुंदर लट्टू के आकार वाली व गोल लौकियों के अंदरूनी गुण तो लंबी लौकियों जैसे ही होते हैं, पर इन का हुस्न लाजवाब होता है. गोल व लट्टू लौकियों की खेती भी लंबी लौकियों की खेती की तरह ही की जाती है.

माकूल हालात

जहां गरम सूखा मौसम हो और उम्दा धूप निकलती हो, वहां लौकी के अंकुरण के लिए 25 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान सही होता है. इस की सामान्य बढ़वार के लिए 25 से 30 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान ठीक होता है. 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर नर फूलों की तादाद में इजाफा होता है और मादा फूलों की तादाद घटती है.

बीज और बोआई

लौकी की खेती के लिए 2 से ढाई किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगते हैं. गरमी की फसल के लिहाज से जनवरीफरवरी के दौरान बोआई की जाती है, जबकि खरीफ के लिहाज से जूनजुलाई में बोआई करना मुनासिब रहता है. बोआई करते वक्त कतार से कतार की दूरी 150-180 सेंटीमीटर होनी चाहिए और पौध से पौध की दूरी 60 सेंटीमीटर सही रहती है.

खाद व फर्टीलाइजर

खेत की तैयारी के समय अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद की 15-20 टन मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें. इसी समय 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 100 किलोग्राम पोटाश भी प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में मिलाएं. रोपाई के 20 दिनों बाद, फूल आने से पहले और पहली फसल तोड़ाई के बाद हर बार 50 किलोग्राम नाइट्रोजन का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

कीट व बीमारियां

तमाम फसलों की तरह लौकी की फसल भी कीड़ों व रोगों की चपेट में आती रहती है, लिहाजा अच्छी फसल लेने के लिए कीटों व रोगों के प्रति बेहद सतर्क रहना पड़ता है. लौकी के खास कीटों व बीमारियों से चौकन्ना रह कर बचा जा सकता है.

खास कीट

लौकी के खास कीटों व उन से बचाव के बारे में यहां बताया जा रहा है: माहो/तेला : यह कीट लौकी की फसल का खास दुश्मन है. बचाव के लिए फोरेट (थाइमेट) की 12.5 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. इस से करीब 3 हफ्तों के लिए फसल की अच्छी हिफाजत हो जाती है. इस के अलावा आक्सीडेमेट्रान मिथाइल (मेटासिस्टाक्स) का छिड़काव 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से 10-15 दिनों के अंतराल से करें.

कुटली (माइट)/चुरदा : यह कीट भी लौकी की फसल के लिए बहुत घातक होता है. बचाव के लिए सल्फर की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बिखराएं या डायकोफाल (केलथेन)/ डायनोकैब (काराथेन) का 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

फल की मक्खी : यह लौकी के फलों को खासतौर पर नुकसान पहुंचाती है. बचाव के लिए संक्रमित फलों और सूखी पत्तियों को इकट्ठा कर के किसी गहरे गड्ढे में जला दें. फल की मक्खी से बचाने के लिए लौकी के फलों को पौधों पर ज्यादा नहीं पकने देना चाहिए. लौकी की बेलों के नीचे निराई या जुताई करते रहने से फल की मक्खी के प्यूपा को बाहर निकालने में मदद मिलती है.

खास रोग

कीड़ों के अलावा लंबी, गोल या लट्टू लौकी की फसलों को कई बीमारियों का भी खतरा रहता है. अगर समय रहते बीमारियों का इलाज न कराया जाए, तो फसल को काफी नुकसान होता है. लौकी के खास रोग व बचाव के बारे में यहां बताया जा रहा है: रोमिल फफूंद (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. रोकथाम के लिए मेटालेक्सिल + मैंकोजेब (रिडोमिल) का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें. 21 दिनों बाद से शुरू कर के 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करने से काफी फायदा होता है.

भस्मी फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग भी फसल के लिए काफी नुकसानदेह होता है. बचाव के लिए सल्फर की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बिखेरें. सल्फर बिखेरने का काम सुबह या शाम के वक्त करना ठीक रहता है. गरम धूप में सल्फर बिखेरने से फसल को फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है.

फुझारियम मुरझान : इस बीमारी के असर से पौधे मुरझा कर शिथिल पड़ जाते हैं. इस से बचने के लिए फसल को बदलबदल कर बोएं. यह बदलाव 3 साल के क्रम में होना चाहिए.

वायरल जटिलता : इनसानों को ही वायरल नहीं होता, बल्कि वायरल जटिलता की चपेट में पौधे भी आ जाते हैं. इस से बचने के लिए वायरस वाहक तत्त्वों की रोकथाम करनी चाहिए. इन कीड़ों व रोगों के अलावा रस चूसने वाले कीड़ों और पत्तियां खाने वाली सूंडि़यों से भी फसल को काफी खतरा रहता है. इन के इलाज के लिए भी उम्दा कंपनी की दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए.

लट्टू जैसी लौकी ‘माही 90’

बेहद बड़े लट्टू जैसी नजर आने वाली यह लौकी वाकई अति खूबसूरत होती है. साधुसंतों के कमंडल आमतौर पर इसी किस्म की लौकी से बनाए जाते हैं. आकर्षक चटक हरे रंग की यह लौकी अपनी सुंदरता की वजह से मामूली लौकी के मुकाबले महंगी मिलती है. ‘माही 90’ नस्ल की लौकी में 60-65 दिनों में फल आने शुरू हो जाते हैं. इस के बड़े हरे लट्टू जैसे फलों का वजन 600 से 750 ग्राम तक होता?है. यह नस्ल भरपूर पैदावार देने वाली होती है. इसे दूरदूर तक ले जाने में कोई खराबी नहीं आती. उत्तर पूर्व व पंजाब इलाकों के लिए यह नस्ल बेहद मुफीद होती है.

चपटीगोल लौकी ‘माही 1’

बहुत बड़े टिंडे जैसी नजर आने वाली माही 1 नस्ल की लौकी भी बेमिसाल होती है. इस का खास चपटा व गोल आकार काफी मोहक लगता है. माही 90 के मुकाबले हलके हरे रंग की यह लौकी भी साधारण लंबी लौकी की बनिस्बत महंगी मिलती है. माही 1 नस्ल की लौकी में 50-55 दिनों में ही फल आने शुरू हो जाते हैं. इस के चपटेगोल बगैर धारी के खरबूजे जैसे फलों का वजन 450 ग्राम से आधा किलोग्राम तक होता है. यह नस्ल भी भरपूर पैदावार देने वाली होती है. ‘माही 90’ और ‘माही 1’ लौकियां आमतौर पर हर सब्जीमंडी में नजर आ जाती हैं, मगर लंबी लौकियों के मुकाबले आज भी गोल या लट्टू जैसी लौकियां कम दिखाई देती हैं.

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