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नक्काशी: भाग 2- मयंक और अनामिका के बीच क्या हुआ था?

अनामिका को मयंक गुप्ता ज्यादा ही प्रबुद्ध और और विनम्र लगते थे. 6 फुट से भी लंबे मयंक गुप्ता पर्वत समान अडिग, गहन रूप से शांत और सहज प्रकृति के व्यक्ति थे. उन के स्वभाव में एक नरमी थी जो मिस अनामिका को अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी नहीं मिली थी.

“और आज का ‘थौट औफ द डे’ क्या है?” अनामिका ने बात बदलते हुए मज़ाकिया लहज़े में पूछा.

“आज लामा सोग्याल नक्काशी सिखाते हुए बता रहे थे कि एक महत्त्वपूर्ण सूत्र यह भी है कि अपने पूरे अस्तित्व के साथ संपूर्णता पाने का प्रयत्न करें, मतलब जीवन की अनंत व स्वाभाविक भव्यता के बीच जीने के प्रयत्न करना.”

“हां, क्योंकि सबकुछ अस्थाई है, प्रोफैसर गुप्ता,” अनामिका बोलीं.

बाहर सैलानियों की चहलकदमी बढ़ गई थी. कुछ विदेशी पर्यटक नौर्लिंग में इकट्ठा होना शुरू हो गए थे. इस वक्त रैस्तरां में जो इजराइली संगीत बज रहा था उस की धुन अनामिका को विशेष प्रिय थी. जब हम फुरसत में होते हैं तो संगीत अपनी उपस्थिति बहुत अलौकिक तरीके से दर्ज करवाता है.

दोनों संगीत सुनते रहे और कुछ देर बाद विदा ली.

मयंक गुप्ता अनामिका की आंखों की तरलता देखते रहते थे और मन में सोचते रहते थे कि अनामिका जी जैसे सरल लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं. अनामिका इतनी अद्भुत थीं कि पिछले 2 महीनों से हर पल उन को उन्हीं का खयाल बना रहता था. अब तो नौर्लिंग में सुबह की कौफी पीने के लिए आना और अनामिका जी से बातें करना, जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन रहा था.

अनामिका एक घंटे की ध्यान की क्लास के लिए वहां से 2 किलोमीटर दूर धर्मकोट के तुषिता सैंटर जाती थीं.

आज भी वे उस तरफ सड़क पर पैदल चलती जा रही थीं. यह इलाका भारत का हिस्सा तो बिलकुल भी नहीं लगता था और यही बात इस को विशिष्ट बनाती थी. बीचबीच में मठों से घंटों की आवाज और हवाओं में लाल चंदन की धूप की खुशबू दिव्यता का एहसास करवाती.

कुछ तिब्बती महिलाएं वहां से गुजर रही थीं, जो अब अनामिका को पहचानने लग गई थीं. सब उन को ‘ताशीडेलेक’ बोल कर अभिवादन करती हुई आगे गुजर रही थीं. तिब्बती महिलाएं भड़कीले लाल, नीले, पीले वस्त्र पहनती हैं लाला मूंगा और हरे फिरोजा पत्थर की मालाओं के साथ, जो अनामिका को बहुत पसंद थे.

अब अनामिका तुषिता सैंटर के सामने थीं. बांसुरी, तुरही, घड़ियाल की आवाजें आ रही थीं. इस का मतलब कि सुबह का ध्यान सत्र शुरू होने वाला था. आकाश नीला, विस्तृत और सुंदर दिख रहा था. बादल के छोटेछोटे टुकड़े तैर रहे थे जैसे किसी पेंटर ने एक बड़े कैनवास पर सफेद रंग का ब्रश फेर दिया हो. अंदर धातु के अगरदान रखे हुए थे जिन से तेज खुशबूदार धुआं ऊपर की ओर उठ रहा था. कुछ लोग प्रार्थनाचक्र घुमा रहे थे. अनामिका ने भी चक्र घुमाया और अंदर चली गईं.

अगले दिन मयंक गुप्ता नौर्लिंग नहीं आए, न ही उन्होंने फोन किया. अनामिका उन का इंतजार करती रहीं और फिर सुबह के सत्र के लिए तुषिता की तरफ चली गईं. वापस आते वक्त वे मयंक गुप्ता को फोन मिलाने का सोचने लगीं लेकिन बाद में फोन वापस बैग में डाल कर उन के घर की तरफ मुड़ गईं. अनामिका को फोन का उपयोग असहज कर देता था, इस का कारण उन को भी नहीं पता था. फोन उन्होंने सिर्फ अपने बेटे से बात करने के लिए ही रखा था.

अंत में वे मयंक गुप्ता के घर के सामने खड़ी थीं. दरवाजा उन के तिब्बती सहायक जामयांग ने खोला और मिस अनामिका सीधे मयंक गुप्ता के कमरे की तरफ चली गईं. कमरे के अंदर चीजें व्यवस्थित थीं. फर्श और दीवारों पर लकड़ी का काम था और अनेक मक्खन के दीये जल रहे थे. सबकुछ साफ, सुंदर और रोशन.

मयंक गुप्ता कोई किताब पढ़ रहे थे और वह भी इतने ध्यान से कि उन को अनामिका के वहां होने तक का एहसास न हुआ. वहां तरहतरह की किताबें थीं, ‘दि सर्मन औन दि माउंट’, ‘राबिया-बसरी के गीत’, ‘मैडम ब्‍लावट्स्‍की की सेवन पोर्टलस एफ़ समाधि’ इत्यादि. दूसरी तरफ टेबल पर नक्काशी का समान- छेनी, गोज और कुछ अलगअलग आकार के लकड़ी के टुकड़े पड़े थे. बहुत ही कलात्मक और बौद्धिक शौक थे मयंक गुप्ता के.

“प्रोफैसर गुप्ता,” अनामिका जी धीमे से बोलीं.

मयंक गुप्ता एकदम से चौंक गए. उन को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अनामिका उन के कमरे में, उन के सामने खड़ी थीं.

अनामिका को सही से पता था कि मयंक गुप्ता उन को किस रूप में देखते हैं, लेकिन फिर भी मयंक गुप्ता के सान्निध्य में जो नरमी और आत्मीयता उन को मिलती थी वह बहुत अमूल्य और अनोखी थी. चट्टान जैसे मजबूत लेकिन जल की तरह तरल मयंक गुप्ता के मन में कई बार अनामिका का हाथ पकड़ कर बैठने की इच्छा उठती थी लेकिन उन्होंने कभी कोशिश नहीं की. वैसे भी, प्रेम कोई निश्चित प्रयास नहीं है, इस में सहज भाव से डूबना होता है, समाहित होना होता है.

“आप आज आए नहीं, मैं इंतजार कर रही थी.”

“ओह, मेरा इंतजार. दरअसल, मैं आज नक्काशी की क्लास भी नहीं गया. कोई खास वजह नहीं है. बस, मन ही नहीं था.”

“क्या पढ़ रहे थे आप?”

रिवाजों की दलदल : क्या श्री को जिम्मेदार ठहरा पाई रमा ?

गाड़ी छूटने वाली थी तभी डब्बे में कुछ यात्री चढ़े. आगेआगे कुली एक व्यक्ति को उस की सीट दिखाने में सहायता कर रहा था और पीछे से 2 बच्चों के साथ जो महिला थी उसे देख कर रजनी स्तब्ध रह गईं.

अपना सामान आरक्षित सीट पर जमा कर उस महिला ने अगलबगल दृष्टि घुमाई और रजनी को देख कर वह भी चौंक सी उठी. एक पल उस ने सोचने में लगाया फिर निकट आ गई.

‘‘नमस्ते, आंटी.’’

‘‘खुश रहो श्री बेटा,’’ रजनी ने कुछ उत्सुकता, कुछ उदासी से उसे देखा और बोलीं, ‘‘कहां जा रही हो?’’

श्री ने मुसकरा कर अपने परिवार की ओर देखा फिर बोली, ‘‘हम दिल्ली जा रहे हैं.’’

‘‘कहां हो आजकल?’’

‘‘दिल्ली में यश एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. लखनऊ तो मम्मी के पास गए थे,’’ इतना कह कर वह उठ कर अपनी सीट पर चली गई. यश ने सीट पर अखबार बिछा कर एक टोकरी रख दी थी. बच्चे टोकरी से प्लेट निकाल कर रख रहे थे.

‘‘अभी से?’’ श्री ने यश को टोका था.

‘‘हां, खापी कर चैन से सोएंगे,’’ यश ने कहा तो वह मुसकरा कर बैठ गई. सब की प्लेट लगा कर एक प्लेट उस ने रजनी की ओर बढ़ा दी, ‘‘खाइए, आंटी.’’

‘‘अरे, नहीं श्री, मैं घर से खा कर चली हूं. तुम लोग खाओ,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा और फिर आंखें मूंद कर वह अपनी सीट पर पैर उठा कर बैठ गईं.

कुछ यात्री उन की बर्थ पर बैठ गए थे. शायद ऊपर की बर्थ पर जाने का अभी उन लोगों का मन नहीं था इसलिए रजनी भी लेट नहीं पा रही थीं.

श्री का परिवार खातेखाते चुटकुले सुना रहा था. रजनी ने कई बार अपनी आंखें खोलीं. शायद वह श्री की आंखों में अतीत की छाया खोज रही थीं पर वहां बस, वर्तमान की खिलखिलाहट थी. श्री को देखते ही फिर से अतीत के साए बंद आंखों में उभरने लगे है.

श्रीनिवासन और उन का बेटा सुभग कालिज में एकसाथ पढ़ते थे. जाने कब और कैसे दोनों प्यार के बंधन में बंध गए. उन्हें तो पता भी नहीं था कि उन के पुत्र के जीवन में कोई लड़की आ गई है.

सुभग ने बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद प्रशासनिक सेवा का फार्म भर दिया और पढ़ाई में व्यस्त हो गया. सुभग की दादी तब तक जीवित थीं. उन के सपनों में सुभग पूरे ठाटबाट से आने लगा. कहतीं, ‘देखना, कितने बड़ेबड़े घरानों से इस का रिश्ता आएगा. हमारा मानसम्मान और घर सब भर जाएगा.’

उन के सपनों में अपने पोते का भविष्य घूमता रहता. सुभग के पापा तब कहते, ‘अभी तो सुभग ने खाली फार्म भरा है मां, अगर उस का चुनाव हो गया तो कुछ साल ट्रेनिंग में जाएंगे.’

‘अरे तो क्या? बनेगा तो जरूर एक दिन कलेक्टर,’ मांजी अकड़ कर कह देतीं.

श्री के पति ने खापी कर बर्थ पर बिस्तर बिछा लिया था. रजनी ने देखा अपनी गृहस्थी में श्री इतनी अधिक मग्न है कि उस ने एक बार भी रजनी से सुभग के बारे में नहीं पूछा. क्या उसे सुभग के बारे में कुछ भी पता नहीं है. मन ने तर्क किया, वह क्यों सुभग के बारे में जानने की चेष्टा करेगी. जो कुछ हुआ उस में श्री का क्या दोष. आह सी निकल गई. दोष तो दोनों का नहीं था, न श्री का न सुभग का. तो फिर वह सब क्यों हुआ, आखिर क्यों? कौन था उन बातों का उत्तरदायी?

‘‘बहनजी, बत्ती बुझा दीजिए,’’ एक सहयात्री ने अपनी स्लीपिंग बर्थ पर पसरने से पहले रजनी से कहा.

रजनी को होश आया कि ज्यादातर यात्री अपनीअपनी सीट पर सोने की तैयारी में हैं. वह अनमनी सी उठीं और तकिया निकाल कर बत्ती बुझाते हुए लेट गईं.

हलकीहलकी रोशनी में रजनी ने आंखें बंद कर लीं पर नींद तो कोसों दूर लग रही थी. कई वर्ष लगे थे उन हालात से उबर कर अपने को सहज करने में पर आज फिर एक बार वह दर्द हर अंग से जैसे रिस चला है. यादों की लहरें ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा समुद्र उफन रहा था.

सुभग ने जिस दिन प्रशासनिक अधिकारी का पद संभाला था उसी दिन से मांजी ने शोर मचा दिया. रोज कहतीं, ‘इतने रिश्ते आने लगे हैं हम लड़कियों के चित्र मंगवा लेते हैं. जिस पर सुभग हाथ रख देगा वही लड़की ब्याह लाएंगे.’

सुभग ने भी हंस कर अपनी दादी के कंधे पर झूलते हुए कहा था, ‘सच दादी. फिर वादे से पलट मत जाइएगा.’

‘चल हट.’

घर के आकाश में सतरंगे सपनों का इंद्रधनुष सा सज गया था. खुशियां सब के मन में फूलों सी खिल रही थीं.

पापा ने अपने बेटे के लिए एक बड़ी पार्टी दे रखी थी. उन के बहुत से मित्रों में कई लड़कियां भी थीं. रजनी ने बारबार अनुभव किया कि सुभग के मित्र उसे श्री की ओर संकेत कर के छेड़ रहे थे. सुभग और श्री की मुसकराहट में भी कुछ था जो ध्यान खींच रहा था.

पार्टी के बाद सुभग उसे घर तक छोड़ने भी गया था. लौटा तो रजनी ने सोचा कि बेटे से श्री के बारे में पूछ कर देखें. पर उस से पहले उस की दादी एक पुलिंदा ले कर आ पहुंचीं.

सुभग ने कहा, ‘दादी, यह मुझे क्यों दिखा रही हैं?’

‘शादी तो तुझे ही करनी है फिर और किसे दिखाएं.’

‘शादी…अभी से…’ सुभग कुछ परेशान हो उठा.

‘शादी का समय और कब आएगा?’ दादी का प्यार सागर का उफान मार रहा था.

‘नहीं, दादी, पहले मुझे सैटल हो जाने दीजिए फिर मैं स्वयं ही…’ वह बात अधूरी छोड़ कर जाने लगा तो दादी ने रोका, ‘हम कुछ नहीं जानते. कुछ तसवीरें पसंद की हैं. तू भी देख लेना फिर उन की कुंडली मंगवा लेंगे.’

‘कुंडली,’ सुभग चौंक कर घूम गया था. जैसेजैसे उस की दादी का उत्साह बढ़ता गया वैसेवैसे सुभग शांत होता गया.

एक दिन वह अपने मन के सन्नाटे को तोड़ते हुए श्री को ले कर घर आ गया. रजनी चाय बनाने जाने लगीं तो सुभग ने बड़े अधिकार से श्री से कहा, ‘श्री, तुम बना लो चाय.’ तो वह झट से उठ खड़ी हुईं. उस के साथ ही सुभग ने भी उठते हुए कहा, ‘‘इसे रसोई में सब दिखा दूं जरा.’’

उस दिन उस की दादी का ध्यान भी इस ओर गया. श्री के जाने के बाद उन्होंने कहा, ‘शुभी, यह मद्रासी लड़की तेरी दोस्त है या कुछ और भी है?’

वह धीरे से मुसकराया. ‘आप ने वादा किया है न दादी कि जिस लड़की पर मैं हाथ रख दूंगा आप उसे ही ब्याह कर इस घर में ले आएंगी.’

दादी ने कदाचित अपने मन को संभाल लिया था. बोलीं, ‘कायस्थ घराने में एक मद्रासी लड़की तो आजकल चलता है लेकिन अच्छी तरह सुन लो, कुंडली मिलवाए बिना हम ब्याह नहीं होने देंगे.’

रजनी ने धीरे से कहा, ‘अम्मांजी, अब कुंडली कौन मिलवाता है. जो होना होता है वह तो हो कर ही रहता है.’

‘चुप रहो, बहू. हमारा इकलौता पोता है. हम जरा भी लापरवाही नहीं बरतेंगे,’ फिर सुभग से बोलीं, ‘तू इस की मां से कुंडली मांग लेना.’

‘दादी, जैसे आप को अपना पोता प्यारा है, उन्हें भी तो अपनी बेटी उतनी ही प्यारी होगी. अगर मेरी कुंडली खराब हुई और उन्होंने मना कर दिया तो.’

‘कर दें मना, तुझे किस बात की कमी है?’

‘लेकिन दादी…’

उसे बीच में ही टोक कर दादी बोलीं, ‘अब कोई लेकिनवेकिन नहीं. चल, अब खाना खा ले.’

सुभग का मन उखड़ गया था. धीरे से बोला, ‘अभी भूख नहीं है, दादी.’

रजनी जानती थी कि सुभग ने अपने बड़ों से कभी बहस नहीं की. उस की उदासी रजनी को दुखी कर गई थी. एकांत में बोलीं, ‘क्यों डर रहा है. सब ठीक हो जाएगा. तुम दोनों की कुंडली जरूर मिल जाएगी.’

‘और यदि नहीं मिली तो क्या करेंगे आप लोग?’ उस ने सीधा प्रश्न ठोक दिया था.

‘इतना निराशावादी क्यों हो गया है. दादी का मन रह जाने दे, बाकी सब ठीक होगा,’ फिर धीरे से बोलीं, ‘श्री मुझे भी पसंद है.’

गाड़ी धीरेधीरे हिचकोले खा रही थी. शायद कोई स्टेशन आ गया था. गाड़ी तो समय पर अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाती है पर इनसान कई बार बीच राह में ही गुम हो जाता है. आखिर ये रिवाजों के दलदल कब तक पनपते रहेंगे?

वह फिर अतीत की उस खाई में उतरने लगीं जिस से बाहर निकलने की कोई राह ही नहीं बची थी.

दादी के हठ पर वह श्री की कुंडली ले आया था लेकिन उस ने रजनी से कह दिया था, ‘मम्मा, मैं यह सब मानूंगा नहीं. अगर श्री से शादी नहीं तो कभी भी शादी नहीं करूंगा.’

फिर सब बदलता ही चला गया. श्री की कुंडली में मंगली दोष था और भी अनेक दोष पंडित ने बता दिए. दादी ने साफ कह दिया, ‘बस, फैसला हो गया. यह शादी नहीं होगी, एक तो लड़की मंगली है दूसरे, कुंडली में कोई गुण भी नहीं मिल रहे हैं.’

‘मैं यह सब नहीं मानता हूं,’ सुभग ने कहा.

‘मानना पड़ेगा,’ दादी ने जोर दिया.

‘हमारे पोते पर शादी के बाद कोई भी मुसीबत आए यह नहीं हो सकता है.’

‘आप को क्या लगता है दादी, उस से शादी न कर के मैं अमर हो जाऊंगा.’

‘कैसे बहस कर रहा है उस मामूली सी लड़की के लिए. कितनी सुंदर लड़कियों के रिश्ते हैं तेरे लिए.’

‘दादी, सुंदरता समाप्त हो सकती है पर अच्छा स्वभाव सदा बना रहता है.’

सुभग का तर्क एकदम ठीक था पर उस की दादी का हठ सर्वोपरि था. सुभग के हठ को परास्त करने के लिए उन्होंने आमरण अनशन पर जाने की धमकी दे दी.

दिन भर दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे. दादी बिना अन्नजल के शाम तक बेहाल होने लगीं. वह मधुमेह की रोगी थीं. पापा ने घबरा कर सुभग के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘बेटा, तुम्हें तो बहुत अच्छी लड़की फिर भी मिल ही जाएगी पर मुझे मेरी मां नहीं मिलेगी.’

सुभग ने पापा की जुड़ी हथेली पर माथा टिका दिया.

‘पापा, दादी मुझे भी प्यारी हैं. यदि इस समस्या का हल किसी एक को छोड़ना ही है तो मैं श्री को छोड़ता हूं.’

पापा ने उसे गले से लगा लिया. जब उस ने सिर उठाया तो उस का चेहरा आंसुआें में डूबा हुआ था.

पापा से अलग हो कर उस ने कहा, ‘पापा, एक वादा मैं भी चाहता हूं. अब आप लोग कहीं भी मेरे विवाह की बात नहीं चलाएंगे. अगर श्री नहीं तो और कोई भी नहीं?’

पापा व्यथित से उसे देखते रह गए. बेटे से कुछ कह पाने की स्थिति में तो वह भी नहीं थे. जब दादी कुछ स्वस्थ हुईं तो पापा ने कहा, ‘मां, उसे संभालने का अवसर दीजिए. कुछ मत कहिए अभी.’

1 माह बाद दादी ने फिर कहना आरम्भ कर दिया तो सुभग ने कहा, ‘दादी, जब तक मैं नई पोस्ट और नई जगह ठीक से सैटल नहीं होता, प्लीज और कुछ मत कहिए.’

बहुत शीघ्र अपने पद व प्रतिष्ठा से वह शायद ऊब गया और नौकरी छोड़ कर दुबई चला गया. शायद विवाह से पीछा छुड़ाने की यह राह चुनी थी उस ने.

इसी तरह टालते हुए 3 वर्ष और बीत गए थे. सुभग दुबई में अकेले रहता था. फोन भी कम करता था. वहां की तेज रफ्तार जिंदगी में पता नहीं ऐसा क्या हुआ, एक दिन उस के आफिस वालों ने फोन से दुर्घटना में उस की मृत्यु का समाचार दिया.

जाने कब रजनी की आंख लग गई थी. कुछ शोर से आंख खुली तो पता चला दिल्ली का स्टेशन आने वाला है.

उन्होंने झट से चादर तहाई, बैग व पर्स संभाला और बीच की सीट गिरा कर बैठ गईं. श्री भी परिवार सहित सामान समेट कर स्टेशन आने की प्रतीक्षा कर रही थी. उन की आंखों में पछतावे के छोटेछोटे तिनके चुभ रहे थे. दादी का सदमे से अस्वस्थ हो जाना और उन का वह पछतावा कि अगर उसे इतना ही जीना था तो मैं ने क्यों उस का दिल तोड़ा?

दादी का वह करुण विलाप उन की अंतिम सांस तक सब के दिल दहलाता रहा था. काश, कभीकभी इस से आगे कुछ होता ही नहीं, सब शून्य में खो जाता है.

स्टेशन आ गया था. जातेजाते श्री ने उन का बैग थाम लिया था. स्टेशन पर उतर कर बैग उन्हें थमाया. उन की हथेली दबा कर धीरे से कहा, ‘‘धीरज रखिए, आंटी. मुझे मालूम है कि आप अकेली रह गई हैं,’’ उस ने अपना फोन नंबर व पते का कार्ड दिया और बोली, ‘‘मैं पटेल नगर में रहती हूं. जबजब अपने भाई के यहां दिल्ली आएं हमें फोन करिए. एक बार तो आ कर मिल ही सकती हूं.’’

रजनी ने भरी आंखों से उसे देखा. लगा, श्री के रूप में सुभग उस के सामने खड़ा है और कह रहा है, ‘मैं कहीं नहीं गया मम्मा.’

बेवकूफ : क्यों अंकित खुद अपना घर तबाह कर रहा था ?

अंकित जब इस कसबे में प्रवक्ता हो कर आया तो सालभर पहले ब्याही नीरा को भी साथ लेता आया था. नीरा के मन में बड़ी उमंग थी. कालेज के बाद सारे समय दोनों साथ रहेंगे. संयुक्त परिवार में स्वच्छंदता की जो चाह दबी रही उसे पूरी करने की ललक मात्र ने उस की कामनाओं के कमल खिला दिए.

छोटा सा कसबा, छोटा सा घर. घर में पतिपत्नी कहो या प्रेमीप्रेमिका, मात्र 2 प्राणी वैसे ही रहेंगे जैसे किसी घोंसले में बैठे पक्षी भावभरी आंखों में एकदूसरे को निहार कर मुग्ध होते रहते हैं. अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति का सपना तनमन को सराबोर सा कर रहा था.

नीरा को यह सपना सच होता भी लगा. ब्लौक औफिस के बड़े बाबू सरोजजी की मेहरबानी से मकान की समस्या हल हो गई. शांत एकांत में बनी कालोनी का एक क्वार्टर उन्हें मिल गया और अकेलेपन में नीरा का साथ देने के लिए बड़े बाबू की पत्नी विमला का साथ भी था. विमला ने बड़ी बहन जैसे स्नेह से नीरा की आवभगत की थी और उन की बेटी सुगंधा और निर्मला तो जैसे उस की हमउम्र सहेलियां बन गई थीं. दोनों परिवारों में नजदीकियां इतनी जल्दी हो गईं कि कुछ पता ही नहीं चला और जब चला तो नीरा के हाथों के तोते उड़ गए.

नीरा वैसे तो सुगंधा की मुक्त हंसी के साथ उस के मददगार स्वभाव की कायल थी. वह घर के काम में सहायता करती और काम यदि अंकित का होता तो वह और तत्परता से करती. अंकित जब खाने के बाद कपड़े पहन कर कहता, ‘कितनी बार तुम से कहा है कि बटन कपड़े साफ  करने से पहले ही टांक दिया करो.’ सुगंधा तब नीरा के बोलने से पहले ही बोल पड़ती, ‘लाओ, मैं टांक देती हूं. भाभी को तो पहले से ही बहुत काम करने को पड़े हैं. औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. कोल्हू के बैल सी जुती रहो रातदिन.’

सुगंधा आंखें  झपकाती हुई जिस तरह अपने मोहक चेहरे पर हंसी और गुस्से का मिलाजुला रूप प्रकट करती वह अंकित को अपना मुरीद बनाने को काफी था. ऐसे में बटन टांकती सुगंधा हौले से अपनी उंगलियां अंकित के चौड़े सीने के बालों पर फिरा देती.

अंकित को लगता, जैसे किसी ने उस के दिल के तारों को छेड़ दिया है, जिस की मधुर  झंकार अपनी थरथराहट देर तक अनुभव कराती रहती.

कभीकभी वह जानबू झ कर बटन तोड़ बैठता ताकि सुगंधा के स्पर्शसुख का आनंद ले सके. ऐसे मौके पर सुगंधा इठला कर कहती, ‘देखती हूं, आजकल तुम्हारे बटन रोजरोज टूटने लगे हैं.’

‘जब कोई टांकने वाली हो तो बटन क्या किसी से पूछ कर टूटेंगे,’ अंकित ने सधे शब्दों में अपनी बात कह दी.

अंकित की बात से सुगंधा की आंखें चमक उठीं. अपने होंठों की मुसकान समेटते हुए उस ने आंखों को ऊपर चढ़ा कर कहा, ‘भाभी का लिहाज कर के मैं बटन टांक देती हूं वरना तुम में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हैं.’

‘वह तो तुम्हीं लोगों के लगे होते हैं, हमारी औकात ही क्या?’ अंकित ने मुसकरा कर कहा तो नीरा चौंक गई.

एक दिन नीरा ने देखा, सुगंधा अंकित के सीने पर उंगली फिरा रही थी और अंकित मुंह से ध?ागा काटती सुगंधा के सिर को सूंघ रहा था. नीरा अब जान पाई कि सुगंधा उस के घर अधिकतर तभी क्यों आती है जब अंकित घर पर होता है.

उस ने सुगंधा के आनेजाने पर गहरी दृष्टि रखनी शुरू की. एक दिन सुगंधा की मां से नीरा बोली, ‘‘चाची, सुगंधा की शादी कब कर रही हो? अभी तो दूसरी बेटी भी ब्याहनी है. बाप के रिटायर होने से पहले दोनों के हाथ पीले हो जाएं तो अच्छा है.’’

‘‘क्या कहूं बहू, आजकल की लड़कियों की जिद तो जानती ही हो. कहती है, पहले एमए करूंगी उस के बाद ब्याह की बात. लोग पढ़ीलिखी लड़की को ज्यादा पसंद करते हैं. अब अंकित से पढ़ाई में सहयोग लेने की बात कर रही थी,’’ विमला ने अपनी भारीभरकम काया को ऊपरनीचे करते हुए कहा.

‘‘यह तो है, पर शादी की उम्र निकल गई तो डिग्रियों को कौन पूछेगा? मेरी सम झ में सुगंधा मु झ से छोटी तो कतई नहीं होगी,’’ नीरा ने ठहरठहर कर कहा.

विमला इस तथ्य से अनभिज्ञ हो ऐसा न था, लेकिन अपनी बेटी की बढ़ती आयु का प्रश्न उसे अपनी लाचारी का बोध करा गया. वह कटुता से बोली, ‘‘ऊपर वाला किसी को बेटी न दे. घरवाले खिलाते हैं, बाहर वालों को तकलीफ होती है. जिस की चाहे जितनी मदद करो, गैर आदमी कभी अपना हुआ है?’’

इस के बाद 2-3 दिन तक सुगंधा अंकित के घर नहीं आई तो अंकित को कुछ अटपटा लगा. नीरा भी दरवाजे पर खड़ी हो कर देखती कि दिनभर उस के घर मंडराने वाली सुगंधा को चैन कैसे पड़ता होगा बिना यहां आए. कहीं वह बीमार तो नहीं पड़ गई?

आखिर तीसरे दिन अंकित ने कालेज से आते समय बड़े बाबू के घर जा कर खोजखबर ली. इस के पहले वह नीरा से पूछना चाहता था मगर कहीं वह संदेह न करने लगे, यह सोच कर नहीं पूछा.

बड़े बाबू घर में नहीं थे, न ही सुगंधा की मां या बहन थी. सूने घर में सुगंधा तकिए के खोल पर कढ़ाई कर रही थी. वह अपने काम में इतना तल्लीन थी कि अंकित ने उस की आंखें बंद कर लीं. वह जान ही न सकी. वह सम झी कि अकेलेपन से ऊब कर नीरा दीदी आई हैं, परंतु जब अंकित ने हथेलियों को हटाने का उपक्रम किया तो उसे उन हाथों के स्पर्श का भान हुआ. वह ‘उई मां’ कहती हुई चौंक कर छिटकी और कमरे के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई. फिर आंखें नचा कर बोली, ‘‘शरारत पर उतारू हो, पहले भाभी से इजाजत ले लेते तो ठीक था.’’

‘‘क्यों, क्या बात है? क्या मु झे जोरू का गुलाम सम झ रखा है,’’ कह कर अंकित उस की ओर बढ़ा, तो ‘न न’ करती सुगंधा उस की बांहों में आ गई. अंकित ने पूछा. ‘‘नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘तुम से नाराज होने का अर्थ खुद अपनेआप से नाराज होना है. 2-3 दिन तुम्हें देखे बिना जैसे काटे हैं, मैं ही जानती हूं. भाभी का वश चलता तो तुम्हारे पैरों में बेडि़यां डाल देतीं,’’ अंकित की गरदन पर सिर रखे सुगंधा सुबक कर बोली.

अंकित ने उस के आंसू पोंछे. सांत्वना देते उस ने हाथ सुगंधा की पीठ पर फिराया तो उस का सारा शरीर जैसे  झन झना उठा. जवानी के मादक स्पर्श और एकांत ने दोनों की सुधबुध हर ली. दोनों आवेश से गुजर रहे थे. दोनों के तनमन जैसे एकदूसरे में समा जाने को बेचैन हो रहे हों.

इसी समय विमला बाजार से आ गई. दोनों को अजीब हालत में देख कर अंकित से बोली, ‘‘घर में अकेली लड़की पा कर उस की इज्जत पर हमला बोलते तुम्हें शर्म नहीं आई? आने दो बड़े बाबू को. तुम्हारी एकएक हरकत न बताई तो कहना. ठीक कर दूंगी, सम झते क्या हो? तुम्हें मकान इसीलिए दिलाया था कि हमारे घर पर ही डाका डालो.’’

घायल नागिन की तरह विमला की फुंफकार देख कर अंकित के होश उड़ गए. वह चुपचाप गरदन नीची कर के बाहर जाने लगा तो मां की नजर बचा कर आंख दबा कर सुगंधा ने उसे गंभीरता से न लेने का संकेत किया.

अंकित घर आया तो उस के हवाइयां उड़ते चेहरे को देख कर नीरा घबरा गई. पहले तो वह निढाल सा पड़ा रहा, फिर अकबक करने लगा तो नीरा घबरा गई और वह विमला चाची को बुलाने चली गई.

विमला ने नीरा की दशा पर तरस खाते हुए कहा, ‘‘चलो, मैं आती हूं. मर्द जात को हजार परेशानियां रहती हैं. कोई बेमन की बात हुई होगी. वह भावुक आदमी है, मन परेशान हो उठा होगा.’’

विमला ने आते ही हंस कर कुछ कहने से पहले अंकित की ओर देखा, फिर हथेलियों से उस का सिर सहला कर कहा, ‘‘क्या तबीयत ज्यादा घबरा रही है? घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा.’’

विमला चाची के पांव छूते हुए अंकित बोला, ‘‘अब आप आ गई हैं तो लगता है मेरी मां आ गई है. अब जी ठीक है, थोड़ा सिरदर्द है.’’

‘‘इसे थोड़ा सिरदर्द कहते हो, ऐसे ही डिप्रैशन की शुरुआत होती है,’’ फिर नीरा से बोली, ‘‘आदमी की इच्छा के विरुद्ध कोई काम जानलेवा हो सकता है.’’

तब तक सुगंधा आ चुकी थी. उस ने धीरेधीरे अंकित का सिर सहलाया, बालों में उंगलियां फिराईं और वह ठीक हो गया.

विमला के इस बदलाव को देख कर अंकित को आश्चर्य हो रहा था. यह आश्चर्य उस ने इशारे से सुगंधा से जाहिर किया तो वह धीरे से बोली, ‘‘मैं ने जान देने की धमकी दी है तब मानी हैं. बस, उन्हें खुश रखने की जरूरत है.’’

अंकित को राहत मिल गई. नीरा रसोई में शायद चाय बना रही थी. विमला चाची को घर में ताला लगाना याद आ गया और वे चली गईं. सुगंधा अंकित का हाथ सहलाते हुई बोली, ‘‘मां दिल की बड़ी साफ हैं. तुम्हारी इतनी बड़ी हरकत  झेल गईं. कल उन के लिए साड़ी और शौल ले कर आना.’’

आत्मीय वातावरण में चाय पी गई. नीरा को लगा, मांबेटी ने उसे उबार लिया है. अब उसे सुगंधा के पढ़ने पर एतराज हो कर भी, एतराज नहीं था. पति की जिंदगी का सवाल जो था.

अंकित की अधिकांश कमाई सुगंधा के घर वालों पर खर्च होते देख कर नीरा को कोफ्त तो होती मगर लाचार थी. दिल कचोट कर रह जाता, पर अंकित के डिप्रैशन में जाने का डर था. सुगंधा रोज देररात तक उस के पास ही पढ़ती और कभी वह स्वयं सुगंधा के घर पढ़ा आता. विमला तो उस पर जैसे बलिहारी जाती.

इधर एक परिवर्तन यह हुआ कि विमला के घर उस का दूर का भतीजा विनोद अकसर आने लगा. सुगंधा भी उस में रुचि लेती थी. यह बात अंकित की सहनशक्ति से बाहर थी. अंकित के सामने ही विनोद पर सुगंधा का पूरा ध्यान देना कुछ अनकही कह रहा था. उसे विनोद का व्यवहार भाई जैसा भी नहीं लग रहा था परंतु सुगंधा इस बाबत कुछ कहने पर उसे बहला कर रूठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारे मन में पाप है. भाई के सामने तुम्हारा ध्यान रख कर मु झे क्या बदनाम होना है?’’

वह अगले 2 दिन तक रूठी रही तो अंकित ने उस से कहा, ‘‘आखिर तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘नीरा भाभी को जेवरों से लादे हो. मेरे नाम पर फूटी कौड़ी भी है कभी?’’ सुगंधा मुंह फुला कर बोली.

‘‘तुम हुक्म तो करो,’’ अंकित ने मामला संभालना चाहा.

‘‘आज रात को नीरा के सारे जेवर ले आना और दरवाजा खुला छोड़ देना. सवेरे कह दिया जाएगा कि चोरी हो गई,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘मेरी परीक्षा ले रही हो?’’ अंकित बोला.

‘‘तुम तो अभी से घबराने लगे,’’ सुगंधा ने मुंह बनाया.

‘‘नहीं, तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा.’’

‘‘देखूंगी,’’ कह कर सुगंधा ने अपनी ओर बढ़े अंकित के हाथ धीरे से हटा दिए, जैसे कह रही हो, यह सब तभी होगा जब वचन के पक्के निकलोगे.

नीरा दोनों की बातचीत दरवाजे के पास से सुन रही थी. उस के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई.

नीरा सबकुछ जान कर भी खामोश बनी रही. रात को वह जल्दी सोने का नाटक करने लगी जिस से अंकित को मौका मिल सके. अंकित ने जब जेवर और इंदिरा विकासपत्र अलमारी से निकाले तो वह चौंक कर जाग गई.

अंकित परेशान सा उसे देखने लगा पर नीरा की आंखें फिर बंद हो गईं. अंकित जेवर वगैरह ले कर चलने को हुआ तो नीरा हड़बड़ा कर उठ बैठी. अंकित परेशान सा उस की ओर देखने लगा. वह बोली, ‘‘अंकित, बाहर देखो, सरसराहट जैसी आवाज हो रही है.’’

‘‘हवा का  झोंका होगा. तुम बेफिक्र रहो,’’ अंकित ने उसे भरमाने की कोशिश की.

‘‘मगर देख लेने में हर्ज क्या है,’’ कह कर नीरा उठ खड़ी हुई. लाचारी में अंकित को भी इसलिए उठना पड़ा ताकि यह बाहर अकेली जाए तो कहीं कोई बवाल न खड़ा कर दे.

बाहर देखने पर लगा, वाकई

2 साए  झुरमुट के पास छिटक कर अलग हो गए. पुरुष स्वर बोला, ‘‘मेरी मानो तो यहीं से लौट चलो, बाद में बवाल होगा.’’

‘‘उस बेवकूफ को तो आ जाने दो जो बीवी के जेवर ले कर मेरी राह देख रहा होगा. जैसे अभी तक सब्र किया है, एक घंटे और धीरज नहीं रख सकते,’’ इस बार स्वर सुगंधा का था.

अब चौंकने की बारी अंकित की थी. उस के मुंह से हठात निकला, ‘‘ओह, इतना बड़ा फरेब?’’

अंकित और नीरा दबेपांव वहां से अपने मकान में आ गए.

‘‘मैं तो यह सब पहले से जानती थी परंतु तुम कुछ सुनने को तैयार होते, तभी तो बताती,’’ नीरा बोली.

‘‘तुम्हें सब पता था?’’ अंकित ने नीरा की ओर देखा जैसे कोई बच्चा खुद को पिटाई से बचा लेने वाले को देखता है.

‘‘हां, और यह भी जान लो कि मैं सोने का बहाना कर रही थी. मु झे तुम्हारी खुशी के लिए मुंह सिलना पड़ा वरना इन दोनों की रात को घर से भागने की बात मैं पहले ही इन के दरवाजे के पास खड़ी हो कर सुन चुकी थी.’’

‘‘दरअसल, मैं वहां पकौड़े देने गई थी पर वहां की बातचीत से चौंक गई. विमला चाची, विनोद और सुगंधा को अकेला छोड़ कर बाजार गई थीं और ये दोनों एकदूसरे मे खोए अपनी योजना पर चर्चा कर रहे थे.

‘‘सुगंधा कह रही थी, ‘अंकित को भरोसा है कि मैं उस पर जान देती हूं.’’’

‘‘विनोद ने फौरन योजना बता दी, ‘मांग लो, बेवकूफ से बीवी के गहने,’ यह सुन कर मैं तो सन्न रह गई और तुम्हें रोकने का एक यही उपाय मु झे सू झा.’’

‘‘तुम ने मु झे बरबादी से बचा लिया,’’ कहते हुए अंकित की आंखें भर आईं.

‘‘तो कौन सा एहसान कर दिया, साथ ही मैं भी तो बरबाद होती. तुम्हारी बरबादी क्या मेरी बरबादी न होती? फिर सच कहूं, जेवर खो कर भी मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मु झे डर था कि ये लोग तुम पर कोई जानलेवा हमला न कर दें,’’ नीरा ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘और मैं, जेवर और तुम्हें दोनों को खो कर उस को खुश करना चाहता था जो मु झे बेवकूफ सम झती है,’’ अंकित भरे मन से बोला. नीरा ने कहा, ‘‘अब तो बेवकूफ नहीं सम झेगी?’’

‘‘अगर रुक गई तो?’’ अंकित ने जवाब दिया.

‘‘जाएगी कहां? नीरा बोली, ‘‘वह ठग विनोद इसे नहीं, जेवरों को ले जाना चाहता था. इसे तो वैसे भी कूल्हे पर लात मार कर निकाल देता.’’

‘‘सच, वह तो सूरत से लफंगा लगता है. तुम ने दोनों को बचा लिया,’’ अंकित अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोला.

दोनों ने निश्चय किया, अब तबादले का आवेदन कर दिया जाएगा और जब तक तबादला नहीं होता है, बीमारी की छुट्टी ले ली जाएगी, परंतु अब यहां नहीं रहना है.

Valentine’s Day 2024 : सायोनारा – उस दिन क्या हुआ था अंजू और देव के बीच ?

उन दिनों देव झारखंड के जमशेदपुर स्थित टाटा स्टील में इंजीनियर था. वह पंजाब के मोगा जिले का रहने वाला था. परंतु उस के पिता का जमशेदपुर में बिजनैस था. यहां जमशेदपुर को टाटा भी कहते हैं. स्टेशन का नाम टाटानगर है. शायद संक्षेप में इसीलिए इस शहर को टाटा कहते हैं. टाटा के बिष्टुपुर स्थित शौपिंग कौंप्लैक्स कमानी सैंटर में कपड़ों का शोरूम था.

देव ने वहीं बिष्टुपुर के केएमपीएस स्कूल से पढ़ाई की थी. इंजीनियरिंग की पढ़ाई उस ने झारखंड की राजधानी रांची के बिलकुल निकट बीआईटी मेसरा से की थी. उसी कालेज में कैंपस से ही टाटा स्टील में उसे नौकरी मिल गई थी. वैसे उस के पास और भी औफर थे, पर बचपन से इस औद्योगिक नगर में रहा था. यहां की साफसुथरी कालोनी, दलमा की पहाड़ी, स्वर्णरेखा नदी और जुबली पार्क से उसे बहुत लगाव था और सर्वोपरी मातापिता का सामीप्य.

खरकाई नदी के पार आदित्यपुर में उस के पापा का बड़ा सा था. पर सोनारी की कालोनी में कंपनी ने देव को एक औफिसर्स फ्लैट दे रखा था. आदित्यपुर की तुलना में यह प्लांट के काफी निकट था और उस की शिफ्ट ड्यूटी भी होती थी. महीने में कम से कम 1 सप्ताह तो नाइट शिफ्ट करनी ही पड़ती थी, इसलिए वह इसी फ्लैट में रहता था. बाद में उस के पापामम्मी भी साथ में रहने लगे थे. पापा की दुकान बिष्टुपुर में थी जो यहां से समीप ही था. आदित्यपुर वाले मकान के एक हिस्से को उन्होंने किराए पर दे दिया था.

इसी बीच टाटा स्टील का आधुनिकीकरण प्रोजैक्ट आया था. जापान की निप्पन स्टील की तकनीकी सहायता से टाटा कंपनी अपनी नई कोल्ड रोलिंग मिल और कंटिन्युअस कास्टिंग शौप के निर्माण में लगी थी. देव को भी कंपनी ने शुरू से इसी प्रोजैक्ट में रखा था ताकि निर्माण पूरा होतेहोते नई मशीनों के बारे में पूरी जानकारी हो जाए. निप्पन स्टील ने कुछ टैक्निकल ऐक्सपर्ट्स भी टाटा भेजे थे जो यहां के वर्कर्स और इंजीनियर्स को ट्रेनिंग दे सकें. ऐक्सपर्ट्स के साथ दुभाषिए (इंटरप्रेटर) भी होते थे, जो जापानी भाषा के संवाद को अंगरेजी में अनुवाद करते थे. इन्हीं इंटरप्रेटर्स में एक लड़की थी अंजु. वह लगभग 20 साल की सुंदर युवती थी. उस की नाक आम जापानी की तरह चपटी नहीं थी. अंजु देव की टैक्निकल टीम में ही इंटरप्रेटर थी. वह लगभग 6 महीने टाटा में रही थी. इस बीच देव से उस की अच्छी दोस्ती हो गई थी. कभी वह जापानी व्यंजन देव को खिलाती थी तो कभी देव उसे इंडियन फूड खिलाता था. 6 महीने बाद वह जापान चली गई थी.

देव उसे छोड़ने कोलकाता एअरपोर्ट तक गया था. उस ने विदा होते समय 2 उपहार भी दिए थे. एक संगमरमर का ताजमहल और दूसरा बोधगया के बौद्ध मंदिर का बड़ा सा फोटो. उपहार पा कर वह बहुत खुश थी. जब वह एअरपोर्ट के अंदर प्रवेश करने लगी तब देव ने उस से हाथ मिलाया और कहा, ‘‘बायबाय.’’

अंजु ने कहा, ‘‘सायोनारा,’’ और फिर हंसते हुए हाथ हिलाते हुए सुरक्षा जांच के लिए अंदर चली गई.

कुछ महीनों के बाद नई मशीनों का संचालन सीखने के लिए कंपनी ने देव को जापान स्थित निप्पन स्टील प्लांट भेजा. जापान के ओसाका स्थित प्लांट में उस की ट्रेनिंग थी. उस की भी 6 महीने की ट्रेनिंग थी. इत्तफाक से वहां भी इंटरप्रेटर अंजु ही मिली. वहां दोनों मिल कर काफी खुश थे. वीकेंड में दोनों अकसर मिलते और काफी समय साथ बिताते थे.

देखतेदेखते दोस्ती प्यार में बदलने लगी. देव की ट्रेनिंग खत्म होने में 1 महीना रह गया तो देव ने अंजु से पूछा, ‘‘यहां आसपास कुछ घूमने लायक जगह है तो बताओ.’’

हां, हिरोशिमा ज्यादा दूर नहीं है. बुलेट ट्रेन से 2 घंटे से कम समय में पहुंचा जा सकता है.

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है. मैं वहां जाना चाहूंगा. द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका ने पहला एटम बम वहीं गिराया था.’’

‘‘हां, 6 अगस्त, 1945 के उस मनहूस दिन को कोई जापानी, जापानी क्या पूरी दुनिया नहीं भूल सकती है. दादाजी ने कहा था कि करीब 80 हजार लोग तो उसी क्षण मर गए थे और आने वाले 4 महीनों के अंदर ही यह संख्या लगभग 1 करोड़ 49 लाख हो गई थी.’’

‘‘हां, यह तो बहुत बुरा हुआ था… दुनिया में ऐसा दिन फिर कभी न आए.’’

अंजु बोली, ‘‘ठीक है, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. परसों ही तो 6 अगस्त है. वहां शांति के लिए जापानी लोग इस दिन हिरोशिमा में प्रार्थना करते हैं.’’

2 दिन बाद देव और अंजु हिरोशिमा गए. वहां 2 दिन रुके. 6 अगस्त को मैमोरियल पीस पार्क में जा कर दोनों ने प्रार्थना भी की. फिर दोनों होटल आ गए. लंच में अंजु ने अपने लिए जापानी लेडी ड्रिंक शोचूं और्डर किया तो देव की पसंद भी पूछी.

देव ने कहा, ‘‘आज मैं भी शोचूं ही टेस्ट कर लेता हूं.’’

दोनों खातेपीते सोफे पर बैठे एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि एकदूसरे की सांसें और दिल की धड़कनें भी सुन सकते थे.

अंजु ने ही पहले उसे किस किया और कहा, ‘‘ऐशिते इमासु.’’

देव इस का मतलब नहीं समझ सका था और उस का मुंह देखने लगा था.

तब वह बोली, ‘‘इस का मतलब आई लव यू.’’

इस के बाद तो दोनों दूसरी ही दुनिया में पहुंच गए थे. दोनों कब 2 से 1 हो गए किसी को होश न था.

जब दोनों अलग हुए तब देव ने कहा, ‘‘अंजु, तुम ने आज मुझे सारे जहां की खुशियां दे दी हैं… मैं तो खुद तुम्हें प्रपोज करने वाला था.’’

‘‘तो अब कर दो न. शर्म तो मुझे करनी थी और शरमा तुम रहे थे.’’

‘‘लो, अभी किए देता हूं. अभी तो मेरे पास यही अंगूठी है, इसी से काम चल जाएगा.’’

इतना कह कर देव अपने दाहिने हाथ की अंगूठी निकालने लगा.

अंजू ने उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहा, ‘‘तुम ने कहा और मैं ने मान लिया. मुझे तुम्हारी अंगूठी नहीं चाहिए. इसे अपनी ही उंगली में रहने दो.’’

‘‘ठीक है, बस 1 महीने से भी कम समय बचा है ट्रेनिंग पूरी होने में. इंडिया जा कर मम्मीपापा को सब बताऊंगा और फिर तुम भी वहीं आ जाना. इंडियन रिवाज से ही शादी के फेरे लेंगे,’’ देव बोला.

अंजू बोली, ‘‘मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतजार रहेगा.’’

ट्रेनिंग के बाद देव इंडिया लौट आया. इधर उस की गैरहाजिरी में उस के पापा ने उस के लिए एक लड़की पसंद कर ली थी. देव भी उस लड़की को जानता था. उस के पापा के अच्छे दोस्त की लड़की थी. घर में आनाजाना भी था. लड़की का नाम अजिंदर था. वह भी पंजाबिन थी. उस के पिता का भी टाटा में ही बिजनैस था. पर बिजनैस और सट्टा बाजार दोनों में बहुत घाटा होने के कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली थी.

अजिंदर अपनी बिरादरी की अच्छी लड़की थी. उस के पिता की मौत के बाद देव के मातापिता ने उस की मां को वचन दिया था कि अजिंदर की शादी अपने बेटे से ही करेंगे. देव के लौटने के बाद जब उसे शादी की बात बताई गई तो उस ने इस रिश्ते से इनकार कर दिया.

उस की मां ने उस से कहा, ‘‘बेटे, अजिंदर की मां को उन की दुख की घड़ी में यह वचन दिया था ताकि बूढ़ी का कुछ बोझ हलका हो जाए. अभी भी उन पर बहुत कर्ज है… और फिर अजिंदर को तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो. कितनी अच्छी है. वह ग्रैजुएट भी है.’’

‘‘पर मां, मैं किसी और को पसंद करता हूं… मैं ने अजिंदर को कभी इस नजर से नहीं देखा है.’’

इसी बीच उस के पापा भी वहां आ गए. मां ने पूछा, ‘‘पर हम लोगों को तो अजिंदर में कोई कमी नहीं दिखती है… अच्छा जरा अपनी पसंद तो बता?’’

‘‘मैं उस जापानी लड़की अंजु से प्यार

करता हूं… वह एक बार हमारे घर भी आई थी. याद है न?’’

देव के पिता ने नाराज हो कर कहा, ‘‘देख देव, उस विदेशी से तुम्हारी शादी हमें हरगिज मंजूर नहीं. आखिर अजिंदर में क्या कमी है? अपने देश में लड़कियों की कमी है क्या कि चल दिया विदेशी लड़की खोजने? हम ने उस बेचारी को वचन दे रखा है. बहुत आस लगाए बैठी हैं मांबेटी दोनों.’’

‘‘पर पापा, मैं ने भी…’’

उस के पापा ने बीच में ही उस की बात काटते हुए कहा, ‘‘कोई परवर नहीं सुननी है हमें. अगर अपने मम्मीपापा को जिंदा देखना चाहते हो तो तुम्हें अजिंदर से शादी करनी ही होगी.’’

थोड़ी देर तक सभी खामोश थे. फिर देव के पापा ने आगे कहा, ‘‘देव, तू ठीक से सोच ले वरना मेरी भी मौत अजिंदर के पापा की तरह निश्चित है, और उस के जिम्मेदार सिर्फ तुम होगे.’’

देव की मां बोलीं, ‘‘छि…छि… अच्छा बोलिए.’’

‘‘अब सबकुछ तुम्हारे लाड़ले पर है.’’ कह कर देव के पापा वहां से चले गए.

न चाहते हुए भी देव को अपने पापामम्मी की बात माननी पड़ी थी.

देव ने अपनी पूरी कहानी और मजबूरी अंजु को भी बताई तो अंजु ने कहा था कि ऐसी स्थिति में उसे अजिंदर से शादी कर लेनी चाहिए.

अंजु ने देव को इतनी आसानी से मुक्त तो कर दिया था, पर खुद विषम परिस्थिति में फंस चुकी थी. वह देव के बच्चे की मां बनने वाली थी. अभी तो दूसरा महीना ही चला था. पर देव को उस ने यह बात नहीं बताई थी. उसे लगा था कि यह सुन कर देव कहीं कमजोर न पड़ जाए.

अगले महीने देव की शादी थी. देव ने उसे भी सपरिवार आमंत्रित किया था. लिखा था कि हो सके तो अपने पापामम्मी के साथ आए. अंजु ने लिखा था कि वह आने की पुरजोर कोशिश करेगी. पर उस के पापामम्मी का तो बहुत पहले ही तलाक हो चुका था. वह नानी के यहां पली थी.

देव की शादी में अंजु आई, पर उस ने अपने को पूरी तरह नियंत्रित रखा. चेहरे पर कोई गिला या चिंता न थी. पर देव ने देखा कि अंजु को बारबार उलटियां आ रही थीं.

उस ने अंजु से पूछा, ‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’

अंजु बोली, ‘‘हां तबीयत तो ठीक है… कुछ यात्रा की थकान है और कुछ पार्टी के हैवी रिच फूड के असर से उलटियां आ रही हैं.’’

शादी के बाद उस ने कहा, ‘‘पिछली बार मैं बोधगया नहीं जा सकी थी, इस बार वहां जाना चाहती हूं. मेरे लिए एक कैब बुक करा दो.’’

‘‘ठीक है, मैं एक बड़ी गाड़ी बुक कर लेता हूं. अजिंदर और मैं भी साथ चलते हैं.’’

अगले दिन सुबहसुबह देव, अजिंदर और अंजु तीनों गया के लिए निकल गए. अंजु ने पहले से ही दवा खा ली थी ताकि रास्ते में उलटियां न हों. दोपहर के कुछ पहले ही वे लोग वहां पहुंच गए. रात में होटल में एक ही कमरे में रुके थे तीनों हालांकि अंजु ने बारबार अलग कमरे के लिए कहा था. अजिंदर ने ही मना करते कहा था, ‘‘ऐसा मौका फिर मिले न मिले. हम लोग एक ही रूम में जी भर कर गप्प करेंगे.’’

अंजु गया से ही जापान लौट गई थी. देव और अजिंदर एअरपोर्ट पर विदा करने गए थे. एअरपोर्ट पर देव ने जब बायबाय कहा तो फिर अंजु ने हंस कर कहा, ‘‘सायोनारा, कौंटैक्ट में रहना.’’

समय बीतता गया. अजिंदर को बेटा हुआ था और उस के कुछ महीने पहले अंजु को बेटी हुई थी. उस की बेटी का रंग तो जापानियों जैसा बहुत गोरा था, पर चेहरा देव का डुप्लिकेट. इधर अजिंदर का बेटा भी देखने में देव जैसा ही था. देव, अजिंदर और अंजु का संपर्क इंटरनैट पर बना हुआ था. देव ने अपने बेटे की खबर अंजु को दे रखी थी पर अंजु ने कुछ नहीं बताया था. देव अपने बेटे शिवम का फोटो नैट पर अंजु को भेजता रहता था. अंजु भी शिवम के जन्मदिन पर और अजिंदर एवं देव की ऐनिवर्सरी पर गिफ्ट भेजती थी.

देव जब उस से पूछता कि शादी कब करोगी तो कहती मेरे पसंद का लड़का नहीं मिल रहा या और किसी न किसी बहाने टाल देती थी.

एक बार देव ने अंजु से कहा, ‘‘जल्दी शादी करो, मुझे भी गिफ्ट भेजने का मौका दो. आखिर कब तक वेट करोगी आदर्श पति के लिए?’’

अंजु बोली, ‘‘मैं ने मम्मीपापा की लाइफ से सीख ली है. शादीवादी के झंझट में नहीं पड़ना है, इसलिए सिंगल मदर बनूंगी. एक बच्ची को कुछ साल हुए अपना लिया है.’’

‘‘पर ऐसा क्यों किया? शादी कर अपना बच्चा पा सकती थी?’’

‘‘मैं इस का कोई और कारण नहीं बता सकती, बस यों ही.’’

‘‘अच्छा, तुम जो ठीक समझो. बेबी का नाम बताओ?’’

‘‘किको नाम है उस का. इस का मतलब भी बता देती हूं होप यानी आशा. मेरे जीवन की एकमात्र आशा किको ही है.’’

‘‘ओके उस का फोटो भेजना.’’

‘‘ठीक है, बाद में भेज दूंगी.’’

‘‘समय बीतता रहा. देव और अंजु दोनों के बच्चे करीब 7 साल के हो चुके थे. एक दिन अंजु का ईमेल आया कि वह 2-3 सप्ताह के लिए टाटा आ रही है. वहां प्लांट में निप्पन द्वारा दी मशीन में कुछ तकनीकी खराबी है. उसी की जांच के लिए निप्पन एक ऐक्सपर्ट्स की टीम भेज रही है जिस में वह इंटरप्रेटर है.’’

अंजु टाटा आई थी. देव और अजिंदर से भी मिली थी. शिवम के लिए ढेर सारे गिफ्ट्स लाई थी.

‘‘किको को क्यों नहीं लाई?’’ देव ने पूछा.

‘‘एक तो उतना समय नहीं था कि उस का वीजा लूं, दूसरे उस का स्कूल… उसे होस्टल में छोड़ दिया है… मेरी एक सहेली उस की देखभाल करेगी इस बीच.’’

अंजु की टीम का काम 2 हफ्ते में हो गया. अगले दिन उसे जापान लौटना था. देव ने उसे डिनर पर बुलाया था.

अगली सुबह वह ट्रेन से कोलकाता जा रही थी, तो देव और अजिंदर दोनों स्टेशन पर छोड़ने आए थे. अंजु जब ट्रेन में बैठ गई तो उस ने अपने बैग से बड़ा सा गिफ्ट पैक निकाल कर देव को दिया.

‘‘यह क्या है? आज तो कोई बर्थडे या ऐनिवर्सरी भी नहीं है?’’ देव ने पूछा.

अंजु ने कहा, ‘‘इसे घर जा कर देखना.’’

ट्रेन चली तो अंजु हाथ हिला कर बोली, ‘‘सायोनारा.’’

अजिंदर और देव ने घर जा कर उस पैकेट को खोला. उस में एक बड़ा सा फ्रेम किया किको का फोटो था. फोटो के नीचे लिखा था, ‘‘हिरोशिमा का एक अंश.’’

देव और अजिंदर दोनों कभी फोटो को देखते तो कभी एकदूसरे को प्रश्नवाचक नजरों से. शिवम और किको बिलकुल जुड़वा लग रहे थे. फर्क सिर्फ चेहरे के रंग का था.

Valentine’s Day 2024 : सच्चा प्यार – क्या शेखर की कोई गलत मंशा थी ?

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सोशल मीडिया पर फैला है 90 फीसदी झूठ

सोशल मीडिया पर 2 खबरें बड़ी तेजी से वायरल हुईं. पहली खबर फिल्म अभिनेत्री और मौडल पूनम पांडेय की मौत से जुड़ी है और दूसरी किरन बेदी को पंजाब का राज्यपाल बनाने की खबर भी सच की तरह से देखी गई. यह हाल के एकदो दिनों की घटनाएं हैं, ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं.

जनवरी 2011 में विद्रोहियों ने राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की सत्ता को उखाड़ फेंका था. इस विद्रोह को आगे बढ़ाने वाले लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय थे. इस क्रांति के पीछे सोशल मीडिया की ताकत थी. क्रांति का बिगुल फूंकने का श्रेय गोनिम को जाता है. उन्होंने ‘हम सब खालिद सईद हैं’ नाम का फेसबुक पेज शुरू कर लोगों से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की थी. सोशल मीडिया से एकजुट हुए लोगों के 3 दिनों के प्रदर्शनों के बाद सेना ने मिस्र में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए राष्ट्रपति को पद से हटा दिया. इस के बाद सत्ता और भी अधिक कट्टरवादियों के हाथ आ गई.

मिस्र में क्रांति का कोई मकसद पूरा नहीं हुआ. 2011 की क्रांति को जोरदार धक्का लगा है. देश में दमन का राजनीतिक माहौल है. मुबारक युग की वापसी हो रही है. क्रांति का मकसद पूरा नहीं हुआ है. लोगों को रोटी, आजादी और सामाजिक न्याय मिले. कुछ लोग मानते हैं कि क्रांति में मेरा भरोसा अडिग है. देश की स्थिति सुधारने के लिए वह निहायत ही जरूरी था. क्रांति का कोई मकसद पूरा नहीं हुआ. आजादी का मुद्दा आज भी बना हुआ है. सोशल मीडिया ने क्रांति तो करवा दी पर जिम्मेदारी नहीं संभाल पाई. जिस की वजह से देश और भी खराब हालात में फंस गया.

मिस्र जैसा उदाहरण ही भारत में भी देखने को मिला है. अन्ना आंदोलन भी कुछ उसी तरह का था. जिस ने उस समय की यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि को खराब किया. उस में सोशल मीडिया की भूमिका सब से अधिक थी. देश में अन्ना आंदोलन पहला था जिस में सोशल मीडिया और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की भूमिका प्रमुख थी. इस आंदोलन को बड़ी सफलता दिल्ली के निर्भया कांड के कारण मिली. पूरे देश ने निर्भया को न्याय दिलाने के लिए आवाज उठाई.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी निर्भया से मिलने अस्पताल गए. इलाज के लिए विदेश भेजा लेकिन उस को बचाया नहीं जा सका. उस समय की यूपीए सरकार ने निर्भया को ले कर अलग से बजट बनाया जिस से महिला सुरक्षा के लिए काम किया जा सके. महिलाओं को ले कर नया कानून भी बनाया गया. इस के बाद भी सोशल मीडिया में जो प्रचार हुआ उस का प्रभाव 2014 के लोकसभा चुनाव पर पड़ा और कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार चुनाव हार गई. एनड़ीए की अगुआई में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए.
सोशल मीडिया ने यूपीए सरकार हटाने की दिशा में बड़ा प्रचार अभियान चलाया. भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दा बना. देश को भ्रष्टाचारमुक्त रखने के लिए लोकपाल कानून बनाने की मांग की गई थी. यूपीए की सरकार हटने के बाद लोकपाल और भ्रष्टाचार पर बात होनी बंद हो गई.

देश की राजनीति ‘दानदक्षिणा पंथी’ विचारधारा की तरफ बढ गई. ‘दक्षिणा बैंक’ मजबूत करने के लिए मंदिर और धर्म की राजनीति होने लगी. महिला कानून और भ्रष्टाचार जैसे मुददे दरकिनार हो गए. जिस सोशल मीडिया ने इन को ले कर हल्ला मचाया था वह इस को भूल कर ‘दक्षिणा पंथी’ हो गई. अन्ना आंदोलन के प्रमुख अन्ना हजारे और उन के लोग अलगअलग गुटों में बंट गए. जो राजनीति को बदलने की बात करते थे वे खुद बदल गए.

मुद्दों को हल करने की ताकत नहीं :

सोशल मीडिया की सब से बड़ी कमजोरी या दिक्कत यह है कि वह मुद्दों को उठा सकती है. किसी भी विरोध को हवा दे सकती है लेकिन उस को हल नहीं कर सकती. मिस्र में मुबारक सरकार के खिलाफ हवा देने की बात हो या भारत में यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की, सोशल मीडिया ने हवा तो बनाई लेकिन बदलाव की दिशा को सही करने का काम नहीं किया. कारण यह है कि विरोध को हवा दे कर नाकारात्मक माहौल तो बनाया जा सकता है, सोशल मीडिया या भीड़ निर्माण का काम नहीं कर सकती.

अयोध्या में विवादित ढांचे के खिलाफ आंदोलन कर के कारसेवा करने वालों को एकजुट तो किया जा सकता है जो ढांचे को गिरा सकता था. वहां पर निर्माण करना भीड़ के वश का नहीं था. सोशल मीडिया जो फैलाता है वह पूरा सच नहीं होता. उस में 90 फीसदी झूठ होता है. लोग सच को नहीं जानना चाहते, झूठ के पीछे भाग लेते है. पूनम पांडेय ने अपनी मौत का झूठ सोशल मीडिया पर फैलाया, सब ने सही मान लिया. भाजपा नेता ने किरन बेदी को पंजाब का राज्यपाल बनाया, लोगों ने सच मान लिया.

पहले परखें, फिर आगे बढाएं :

ऐसे में जरूरी है कि सोशल मीडिया के सच को पहचानें. सोशल मीडिया पर बहुत सारे इन्फ्लुएंसर है जो तरहतरह के प्रचार कर के देखने वालों को बेवकूफ बनाते है. सोशल मीडिया पर इन को फौलो करने वाले यह भी नहीं देखते कि ये लोग हैं कौन? इन की अपनी विश्वसनीयता कितनी है. सोशल मीडिया पर जब कोई पोस्ट देखते हैं तो सब से पहले यह देखना जरूरी है कि पोस्ट करने वाला कौन है, उस की अपनी विश्वसनीयता क्या है.

ऐसी बहुत सारी पोस्ट होती हैं जिन को किस ने भेजा, हमें पता नहीं होता है. हम उस को आगे फौरवर्ड करने लगते हैं. इस से सोशल मीडिया पर झूठ को बढ़ावा मिलता है. पैसे कमाने के लिए इन्फ्लुएंसर्स झूठ बोलते है. हम उन को सही मान कर यकीन कर लेते हैं. ये ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं जिन का काम किसी तरह से अपने फौलोअर्स को बढ़ाने का होता है. फौलोअर्स बढ़ाने के साथ ही वे झूठे प्रचार कर पैसे कमाने लगते हैं.

आज बहुत सारे अच्छे लोग और उन के चैनल सोशल मीडिया पर हैं. भले ही उन के फौलोअर्स अधिक न हों पर वे झूठ नहीं परोसते. ऐसे लोगों को फौलो करिए. उन के कमैंट देखिए. पत्रपत्रिकाओं के भी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म हैं, जहां कुछ भी पोस्ट करने से पहले संपादक की नजर से हो कर गुजरना पड़ता है. उन की पोस्ट पर यकीन करें. अखबार और पत्रिकाएं पढ़ेंगे तो आप के अंदर तर्क करने की क्षमता का विकास होगा. आप लिखना समझेंगे, सोशल मीडिया के झूठ को फैलाने का हिस्सा नहीं बनेंगे.

भाजपा का 400 पार का दावा, ठोस है या निकलेगा खोखला

भारतीय जनता पार्टी ने अपने राजसूय यज्ञ का घोड़ा खोल दिया है. 2024 में वह पूरे भारत को जीतना चाहती है. इस के लिए उस ने अपना लक्ष्य 400 के पार लोकसभा की सीटों का रखा है.

भारत के इतिहास में 400 सांसदों की जीत केवल 1984 में मिली थी. जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी. राजीव गांधी उस समय कांग्रेस के नेता थे. इस सहानुभूति वाले चुनाव में कांग्रेस को 404 लोकसभा की सीटें मिली थीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना नाम इतिहास में लिखवाने का शौक है. ऐसे में वे 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को 400 से अधिक सीटें हासिल करने का लक्ष्य ले कर चल रहे हैं.

पौराणिक कहानियों में तमाम ऐसे राजाओं की कहानियां दर्ज हैं जो अपनी ताकत दिखाने के लिए राजसूय यज्ञ करते थे. इस के लिए अपना एक घोड़ा छोड़ते थे. घोड़ा जो भी पकड़ता था उसे राजा से लड़ना होता था.

मजेदार बात यह है कि यह घोड़ा केवल कमजोर राज्यों की तरफ जाता था. भारत के किसी भी राजा ने दूसरे देशों पर अपना झंडा नहीं लहराया है. जिस तरह से मुगलों ने भारत पर आक्रमण किया, उस तरह भारत के किसी राजा ने दूसरे देश को अपने कब्जे में नहीं किया. इस से यह पता चलता है कि राजसूय यज्ञ का घोड़ा अपने ही राज्य के राजाओं के लिए छोड़ा जाता था.

कहां खो गया पार्टी का चाल, चरित्र और चिंतन ?

लोकतंत्र में घोड़ा तो नहीं छोड़ा जा सकता, ऐसे में इस के लिए दूसरी पार्टियों को खत्म करना जरूरी हो गया है. इस के लिए भाजपा तोड़फोड़ और दलबदल को बढ़ावा दे रही है. बिहार में जदयू और राजद गठबंधन को तोड़ कर नीतीश कुमार को भाजपा ने अपनी तरफ मिला लिया. नीतीश कुमार को अपना बहुमत साबित करना है. अब सब की नजर कांग्रेस के विधायकों पर है. कांग्रेस अपने विधायकों को हैदराबाद में कैद कर के रखे हुए है, जिस से किसी दूसरे दल से उन की बातचीत न हो सके.

उत्तर प्रदेश में भाजपा जंयत चौधरी की पार्टी लोकदल पर डोरे डाल रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़ कर एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया. इस के साथ ही विरोधी नेताओं को दबाने के लिए सीबीआई और ईडी का सहारा लेना पड़ रहा है. इस तरह के काम हमेशा कमजोर लोग करते हैं. भाजपा खुद को ताकतवर कहती है. सिद्धांतों पर चलने वाली पार्टी बताती है. इस के बाद भी उसे छोटे दलों में तोड़फोड़ करनी पड़ती है.

चंडीगढ़ में मेयर का चुनाव जीतने के लिए इसी तरह का काम किया गया. जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक को टिप्पणी करनी पड़ी है. चुनाव में दलबदल कोई नई बात नहीं है. हरियाणा में 1980 के दशक में ‘आयाराम गयाराम’ नाम से दलबदल मशहूर था. उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा और सपा की सरकार के दौर में 1989 के बाद से 2007 तक यह खूब हुआ. इस में संस्कारवान कही जाने वाली भाजपा का बड़ा योगदान रहा है. ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ की बात करने वाली भाजपा ने इस संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया.

बिना विपक्ष किस काम का लोकतंत्र ?

राजनीति में पालाबदल संस्कृति धर्म के रास्ते आई. पौराणिक कहानियों में कई जगहों पर यह बताया गया है कि देवता भी एकदूसरे के पक्ष में पाला बदल करते रहते थे. उन की कहानियां सुना कर नेता अपने पालाबदल को सही ठहराते हैं. वे तर्क देते हैं कि न्याय के लिए बोला गया झूठ झूठ नहीं होता.

रामायण में राम ने जब राजा बालि को मारा तो बालि ने अपना दोष पूछा तो राम ने कहा कि अपने भाई का राज्य और पत्नी हासिल करने के अपराध का दंड है. विभीषण ने रावण के अधर्म को ढाल बना कर पाला बदल लिया. महाभारत में कृष्ण ने दोनों पाले में रहने का फैसला करते समय कहा कि वे युद्ध नहीं करेंगे. इस के बाद भी वे परोक्ष रूप से युद्ध में हिस्सा लेते रहे.

आज भी नेता जब पाला बदलते हैं तो कहते हैं कि उस पार्टी का लोकतंत्र खत्म हो गया था, वहां दमघुट रहा था. अब आजादी की सांस ले रहे हैं, घरवापसी हो गई है. संविधान बचाने के लिए दलबदल जरूरी था. नेताओं के तर्क पर ही घर, परिवार और महल्लों में अलगअलग पाले बन जा रहे हैं. घरों में 2 ही भाई हैं तो दोनों के बीच पाले बन गए हैं. उन के बीच खींचतान होती है. पालाबदल की यह संस्कृति धर्म से राजनीति, राजनीति से घरों तक फैल रही है. इस से घर का अमनचैन प्रभावित हो रहा है.

लोकतंत्र में अगर विधायकों, सांसदों को बचाने के लिए कभी हैदराबाद, कभी गोवा और कभी गोहाटी के रिजौर्ट में कैद रखना पड़े तो यह कैसा लोकतंत्र और कैसी आजादी. दलबदल करने वाला नेता तो इस का जिम्मेदार है ही, जो ताकत इस के लिए मजबूर कर रही है वह और भी अधिक जिम्मेदार है.

केवल 400 के पार जाने से क्या हासिल होगा? लोकतंत्र में संख्या का बल तो महत्त्व रखता ही है, उससे अधिक महत्त्व विपक्ष भी रखता है. लोकसभा में जब सदन बैठे, दूसरी तरफ विपक्ष हो ही न, सब सांसद हां में हां ही मिलाते रहे तो जनता की आवाज को कौन उठाएगा…

भारत रत्न वितरण : पुरस्कारों के एवज में राजनीतिक बंदरबांट

दिग्गज भाजपा नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण अडवाणी को देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न देने पर उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रिया नहीं हुई. विपक्ष के तमाम नेता ईडी से बचने के जुगाड़ और भागादौड़ी में लगे हैं. ऐसे में वे इस फैसले पर प्रतिक्रियाहीन बने रहने में ही अपना भला महसूस रहे हैं. लेकिन जिस जनता के बिहाफ पर भारत रत्न और पद्म पुरस्कार सहित दूसरे छोटेबड़े सरकारी पुरस्कार व सम्मान दिए जाते हैं उस जनता के दिलोदिमाग पर भी भारत रत्न के ऐलान का कोई खास असर नहीं हुआ.

इस घोषणा के 11 दिनों पहले जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा हुई थी तब जरूर थोड़ी हलचल हुई थी. लेकिन अधिकतर लोगों को खासतौर से युवाओं के जेहन में यह सवाल आया था कि अब ये कर्पूरी ठाकुर कौन हैं और इन्होंने देश के लिए ऐसा क्या किया है कि उन्हें यह सब से बड़ा सम्मान प्रदान किया जा रहा है.

यह घोषणा बिहार और उत्तर प्रदेश के समाजवादी दलों और कुछ पिछड़ों को ही थोड़ी रास आई थी लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के बारे में गिनाने के लिए हिंदूवादियों के पास इतना ही है कि उन की कोशिशों के चलते राममंदिर बन पाया और देश हिंदू राष्ट्र होने की तरफ बढ़ रहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पुरस्कार को देने की घोषणा के साथ वजह बताने की कोशिश भी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स पर की थी कि एल के आडवाणी का देश के विकास में अहम योगदान रहा है. यह योगदान क्या था, किसी की समझ नहीं आया, न ही इस बाबत नरेंद्र मोदी ने कोई उदाहरण पेश किया.

इस से आम लोग भी असमंजस में दिखे जिन्हें यह रटा पड़ा है कि वे 80-90 के दशक में भाजपा और राममंदिर आंदोलन के पोस्टरबौय थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति कि काट उन्होंने कमंडल की राजनीति से किया था जिस के एवज में आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. भगवा राजनीति में आडवाणी को मोदी का गुरु माना जाता है क्योंकि गोधरा कांड के बाद उन्होंने हो मोदी की पीठ थपथपाई थी जबकि भाजपा के दूसरे दिग्गज प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी तो मोदी को राजधर्म की याद दिला रहे थे.

गलत नहीं कहा जा रहा कि शिष्य ने गुरु को दक्षिणा दे दी लेकिन इस के एवज में नरेंद्र मोदी आडवाणी से काफीकुछ छीन भी चुके हैं. 22 जनवरी के अयोध्या शो में आडवाणी को न आने देने पर उन की आलोचना हुई थी और इस बार चूंकि यह भगवा कुनबे के अंदर से ज्यादा हुई थी, इसलिए उन्होंने आडवाणी को भारत रत्न दे कर अपने मन का गिल्ट दूर कर लिया, बशर्ते वह रहा हो तो, नहीं तो यह एक खामखां का ही फैसला लगता है जिस से किसी को कुछ मिलना जाना नहीं है. हां, कुछ सहूलियतें जरूर 96 वर्षीय आडवाणी को मिल जाएंगी.

कर्पूरी ठाकुर के पहले भी जिन 49 हस्तियों को यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया, यह जरूरी नहीं वे सभी इस के सच्चे हकदार थे या रहे होंगे. दरअसल, भारत रत्न देने का कोई तयशुदा पैमाना या पैमाने नहीं हैं. यह सरकार यानी प्रधानमंत्री की इच्छा पर निर्भर करता है कि किसे यह दिया जाना फायदे का सौदा साबित होगा.

दौर दक्षिणपंथियों का है, लिहाजा, वे अपने हिसाब से रेवड़ियां बांट रहे हैं. यही अपने दौर में कांग्रेस करती रही थी. इस लिहाज से तो बात बराबर हो जाएगी वाली शैली में खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन यह दलील ठीक वैसी ही है कि उस ने गलती की या जनता के वोट का मनमाना इस्तेमाल किया तो हम भी क्यों न करें.

भगवा गैंग हमेशा ही कांग्रेस पर यह आरोप लगाता रहा है कि उस ने पुरस्कारों का राजनीतिकरण किया और भारत रत्न नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों को दिए. साल 1955 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत रत्न देने की घोषणा की थी तब कोई खास हलचल नहीं हुई थी. नेहरू तब प्रधानमंत्री थे, इसलिए यह मान लिया गया कि उन्होंने खुद को ही इस खिताब से नवाज लिया था. यहां मकसद नेहरू की उपलब्धियों का बखान करना नहीं लेकिन कोई भी इस सच से मुंह नहीं मोड़ सकता कि उन्होंने विषम परिस्थितियों में आधुनिक भारत की नींव रखी थी.

वह नजारा कितना दिलचस्प रहा होगा, इस का आज अंदाजा लगा पाना मुश्किल है. 13 जुलाई, 1965 को नेहरू यूरोप और रूस के दौरे से वापस लौटे थे तो प्रोटोकाल तोड़ते खुद राजेंद्र प्रसाद उन के पास पहुंचे थे और एयरपोर्ट पर उन का स्वागत किया था. रात के भोज में राष्ट्रपति ने नेहरू को भारत रत्न दिए जाने का ऐलान किया था.

बकौल राजेंद्र प्रसाद, नेहरू हमारे समय के शांति के सब से बड़े वास्तुकार हैं. उन्होंने संभावित विरोध को आंकते भारत रत्न के बारे में यह भी कहा था कि यह कदम मैं ने स्वविवेक से अपने प्रधानमंत्री की अनुंशसा के बगैर व उन से किसी सलाह के बिना उठाया है. इसलिए एक बार कहा जा सकता है कि यह निर्णय अवैधानिक है लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे इस फैसले का स्वागत पूरे उत्साह से किया जाएगा.

जानने वाले ही जानते हैं कि डाक्टर राजेंद्र प्रसाद न तो हिंदू कोड बिल पर नेहरू से इत्तफाक रखते थे और न ही धार्मिक मुद्दों पर उन से सहमत थे. जब राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद वहां गए थे तब भी नेहरू ने एतराज जताया था. एवज में राजेंद्र प्रसाद ने लंबाचौड़ा पत्र उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं की भावना के बाबत लिखा था और नेहरू की बात नहीं मानी थी. संसद में हिंदू कोड बिल के पेश होने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद ने पत्र लिख कर एतराज जताया था.

7 दशकों बाद भी इन बातों के अपने अलग माने हैं कि विकट के वैचारिक और धार्मिक मतभेद होने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद, नेहरू की उपलब्धियों और प्रतिभा की अनदेखी नहीं कर पाए थे. नेताओं में एकदूसरे के प्रति सहज सम्मान का भाव था. इस पैमाने पर तो नरेंद्र मोदी द्वारा लालकृष्ण आडवाणी को इस ख़िताब से नवाजना समझ आता है लेकिन वे आडवाणी की उपलब्धियां नहीं गिना पाए. इस पैमाने पर लगता है कि अब तमाम पुरस्कार निरर्थक और वोटों की राजनीति के शिकार हो चले हैं, इसलिए अपना औचित्य, महत्त्व और गरिमा भी खो रहे हैं.

हालांकि इस की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी जब उस ने साल 2014 में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को यह सम्मान बख्शा था. सचिन किसी भी एंगल से इस के लायक नहीं थे. अच्छा क्रिकेट खेलने के एवज में उन्हें कई दूसरे राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिल चुके थे. अहम बात यह है कि हरेक मैच के बदले उन्हें तगड़ी फीस मिलती थी. उन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया, सिवा इस के कि करोड़ों लोगों का वक्त बरबाद किया जो दूसरे किसी उत्पादक काम में लग सकता था.

भारत रत्न सचिन इश्तिहारों से भी पैसा कमाते हैं. कम हैरत की बात नहीं कि राष्ट्रीय खेल हौकी में दुनियाभर में अपना लोहा मनवाने वाले मेजर ध्यानचंद की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया. उन के प्रशंसक जबतब उन के लिए इस सर्वोच्च सम्मान की मांग करते रहते हैं. अगर किसी खिलाड़ी को देना ही था तो भारत रत्न के सही हकदार ध्यानचंद ही थे जिन्होंने आर्थिक अभावों में रहते भारतीय हौकी का परचम लहराया था.

जिस तरह राजेंद्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू को भारत रत्न दिया था उसी तरह 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भारत रत्न दिया था. तब भी आरोप यही लगे थे कि इंदिरा ने खुद ही प्रधानमंत्री रहते यह पुरस्कार ले लिया. हालांकि तब वजह यह बताई गई थी कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से बंगलादेश को अलग करवाने में अहम भूमिका निभाई थी.

अब वर्तमान में दिए गए अवार्ड में ऐसी कोई वजह आडवाणी, कर्पूरी ठाकुर या दूसरे किसी राजनेता को भारत रत्न देते वक्त सामने नहीं आई. 1957 में गोविंद वल्लभ पंत और फिर 1998 में लोकनायक के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण को भारत रत्न देना राजनीति से ही प्रेरित था. हां, लाल बहादुर शास्त्री इस के हकदार जनता के पैमाने पर थे जिन्हें यह सम्मान 1966 में दिया गया था. उन के पहले 1962 में राजेंद्र प्रसाद को भारत रत्न दिया जाना एक तरह से रिटर्न गिफ्ट था क्योंकि उन्होंने नेहरू को यह सम्मान दिया था. इसी तरह कांग्रेस ने वी वी गिरी को भी भारत रत्न रिटर्न गिफ्ट साल 1975 में किया था.

इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान की प्रतिष्ठा तो यहीं से गिरना शुरू हो गई थी जब इस को एक्सचेंज किया गया था. यानी, तब तक यह कांग्रेसियों द्वारा कांग्रेसियों के लिए ही था. 1976 में के कामराज जैसों को तो यह यों ही दे दिया गया था, जिन्होंने कांग्रेस को खासतौर से दक्षिण में मजबूत करने का काम किया था.

राजर्षि के नाम से जाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन को 1961 में भारत रत्न किस बिना दिया गया था, यह समझ से परे है. अगर फ्रीडम फाइटर होना इस की वजह थी तो ऐसे हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इस काबिल थे जिन्होंने छोटेमोटे काम, समाजसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में किए थे. उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया ?

पहली बार 1954 में भारत रत्न डा. सर्वपल्ली राधा कृष्णन, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और भौतिक शास्त्री डा. चंद्रशेखर वेंकटरमण को दिए गए थे तब इस की कोई खास अहमियत नहीं थी. साल 1955 में सिविल इंजीनियरिंग के जनक डा. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को भारत रत्न दिया गया था तब ऐसा लगा था कि कला, साहित्य विज्ञान और लोकसेवा के क्षेत्रों में ईमानदारी से दिया जाएगा लेकिन उन के साथ ही डाक्टर भगवानदास को भी भारत रत्न दिया गया था तो साफ हो गया था कि कांग्रेस सरकार अपनी खुदगर्जी पूरी करने के लिए मनमरजी भी इस की आड़ में कर रही है.

डाक्टर भगवान दास ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी थी और वे समाजसेवी भी थे लेकिन चूंकि उन्होंने पहली सरकार में कोई पद लेने से मना कर दिया था यानी त्याग किया था, इसलिए उस की भरपाई उन्हें भरत रत्न दे कर कर ली गई. यह असल में नरेंद्र मोदी की आडवाणी को ले कर मन की ग्लानि दूर करने जैसी बात भी थी. इसे प्रायश्चित्त भी कहा जा सकता है जिस का विधान धर्मग्रंथों में इफरात से है कि कोई गलती या पाप हो जाए तो ऐसा या वैसा कर यानी कुछ दानदक्षिणा लेदे कर गिल्ट दूर कर लो. इस से दूसरा फायदा लोकनिंदा से बचने का भी होता है.

इसी लोकनिंदा से बचने के लिए साल 1991 में भारत रत्न देने की घोषणा की गई तो राजीव गांधी के साथ में मोरारजी देसाई और वल्लभभाई पटेल के भी नाम घोषित किए गए थे. अब अगर कोई यह सवाल करता कि राजीव गांधी को यह क्यों, तो जवाब यह होता कि मोरारजी देसाई और वल्लभभाई पटेल को भी तो दिया है. और सच में किसी ने कोई सवाल उन के नाम पर नहीं किया था.

अगर वैज्ञानिकों और कलाकारों सहित दूसरे क्षेत्रों की कुछ हस्तियों को छोड़ दें तो सही माने में भारत रत्न के जो नेता हकदार थे उन में एक नाम भीमराव आंबेडकर का भी है लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री पद की कुरसी संभालते ही पद्म पुरस्कारों की तरह भारत रत्न की अहमियत गिराने में भी नरेंद्र मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. 2015 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने का फैसला कतई हैरान कर देने वाला नहीं था बल्कि यह अपने सियासी पुरखों का पुण्य स्मरण और श्रद्धांजलि कांग्रेस की तर्ज पर थी.

लेकिन इसी साल मदन मोहन मालवीय को भी इसी सम्मान से नवाजा जाना साबित कर गया था कि इस सम्मान का कोई पैरामीटर नहीं है. इस खामी का बेजा इस्तेमाल कांग्रेस ने भी किया था. महामना अर्थात महान आत्मा के ख़िताब से नवाजे गए पंडित मदन मोहन मालवीय का बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की स्थापना में सहयोग के अलावा देश के लिए एक बड़ा योगदान यह भी था कि उन्होंने कभी कांग्रेस छोड़ कर हिंदू महासभा जैसी कट्टरवादी हिंदू पार्टी बनाई थी.

आज जो कट्टरवादी पत्रकारिता फलफूल रही है उस का जनक भी उन्हें भी न कहना अतिशयोक्ति होगी. हिंदी हिंदू हिंदुस्तान के जरिए हिंदू राष्ट्र की अवधारणा भी उन्हीं की दी हुई है. जिस के सपने मंदिरों के जरिए साकार करने की कोशिश आज भगवा गैंग कर रहा है.

कांग्रेस ने तो कभी किसी हिंदूवादी को भारत रत्न नहीं दिया लेकिन साल 2019 में नरेंद्र मोदी ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को यह पुरस्कार दे कर चौंकाने की कोशिश की थी. एक हार्डकोर कांग्रेसी कहे जाने वाले प्रणब मुखर्जी ने, दरअसल, आरएसएस के दफ्तरों में जाना शुरू कर दिया था और खुद के कभी प्रधानमंत्री न बन पाने का जिम्मेदार नेहरू-गांधी परिवार को ठहराना शुरू कर दिया था.

कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देने वाले मोदी को ऐसे कांग्रेसियों की सख्त जरूरत आज भी रहती है जो गांधी परिवार को कोसें और हिंदुत्व से रजामंदी रखें. यह डील परवान चढ़ पाती, इस के पहले ही प्रणब मुखर्जी का निधन हो गया. अब हर कभी उन की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी के कांग्रेस में जाने की अफवाह उड़ती रहती है जो 5 फरवरी को जयपुर लिटरैचर फैस्टिवल में यह कहती नजर आ रही थीं कि वे भी पिता की तरह हार्डकोर कांग्रेसी हैं लेकिन कांग्रेस को राहुल गांधी और गांधी परिवार से इतर भी कुछ सोचना चाहिए. संसद में 370 सीटों की दावेदारी ठोक चुके मोदी को ऐसे कांग्रेसियों की दरकार है जो कांग्रेस में रहते सोनिया-राहुल को कोसते रहें, नहीं तो ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसों की तरह भाजपा में शामिल हो जाएं.

चूंकि प्रणब मुखर्जी बड़ा नाम थे और विभीषण बनने की राह पर पहला पांव रख चुके थे, इसलिए उन्हें भारत रत्न दे देना घाटे का सौदा कहीं से नहीं था. घाटे का सौदा तो यह कर्पूरी ठाकुर या आडवाणी को देने से भी नहीं है जिन्हें एवज में मुफ्त रेलयात्रा जैसी कुछ मामूली सहूलियतों के साथ सरकारी आयोजनों में कुछ विशिष्ट हस्तियों के साथ बैठने का मौका मिल जाएगा. लेकिन जब वे उम्र और अशक्तता के चलते अयोध्या राम लला की प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जा पाए या नहीं जाने दिए गया तो किसी और आयोजन में क्या जा पाएंगे.

रहा सवाल भारत रत्न का, तो वह कर्मठ और देश के लिए कुछ कर गुजरने वालों को ही दिया जाना चाहिए जिस के लिए कुछ तयशुदा पैमानों का होना भी जरूरी है. नहीं तो यह रिवाज ही खत्म होना चाहिए जिस से कम से कम उस जनता को कुछ हासिल नहीं होता जिस का प्रतिनिधित्व सरकार करती है.

डीपफेक : जूम मीटिंग में नकली अधिकारी बन कर डाली 200 करोड़ रुपए की ठगी

हाल ही में हम ने फिल्म ऐक्टर्स और राजनेताओं के डीपफेक फोटो-वीडियो देखे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मंच पर डांस करते देख कर लोग आश्चर्य में पड़ गए. बाद में पता चला कि डीपफेक के जरिए प्रधानमंत्री के फेस का इस्तेमाल हुआ. मगर अब डीपफेक मामला बहुत आगे बढ़ चुका है. हौंगकौंग की एक मल्टीनेशनल कंपनी को डीपफेक की वजह से करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ा है. साइबर क्रिमिनल्स ने ऐसा जाल बिछाया कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के कर्मचारियों को भनक तक नहीं लगी और कंपनी ने 200 करोड़ रुपए क्रिमिनल्स के बताए 5 अलगअलग बैंकों में ट्रांसफर कर दिए.

मजे की बात यह है कि डीपफेक से धोखाधड़ी करने के लिए साइबर क्रिमिनल्स ने बाकायदा ज़ूम मीटिंग की. इस मीटिंग में कई क्रिमिनल्स बैठे थे जिन के चेहरों पर डीपफेक के जरिए असली अधिकारियों के चेहरे लगे थे. यहां तक कि कंपनी के चीफ फाइनैंशियल औफिसर को भी क्लोन कर के डीपफेक वर्जन तैयार किया गया था. इन सब ने कंपनी के एक अधिकारी को धोखे में रख कर वीडियो कौन्फ्रैंस की और उस से हौंगकौंग के 5 अलगअलग बैंक खातों में पैसे ट्रांसफर करने को कहा. अपने सीएफओ के आदेश का पालन करते हुए उस अधिकारी ने सारे पैसे ट्रांसफर कर दिए.

कुछ समय पहले तक दुनियाभर में आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस को ले कर लोगों में काफी उत्सुकता और उत्साह था. कहा जा रहा था कि इस से मनुष्य को काम करने में बहुत आसानी हो जाएगी. घंटों के काम चुटकी बजाते हो जाएंगे. मगर अब इस तकनीक से लोगों में डर बढ़ता जा रहा है. आप के फोन पर आप को किसी अपने की आवाज सुनाई दे जो आप से कहे कि वह परेशानी में है, तुरंत पैसे चाहिए तो आप बिना देर किए पैसे भेज देंगे. बाद में पता चले कि उस रिश्तेदार ने तो आप को फोन ही नहीं किया. उस की आवाज में बात कर के किसी ने आप को ठग लिया. या फिर वीडियो कौल पर किसी महिला को उस का कोई जानने वाला, आप का प्रेमी, पति या कोई रिश्तेदार नजर आए और उस को कहीं मिलने के लिए बुलाए तो वह अवश्य वहां चली जाएगी. लेकिन हो सकता है कि अनजान जगह बुला कर उस को लूट लिया जाए, उस की हत्या कर दी जाए, उस का रेप हो जाए, क्योंकि जो तसवीर उस ने वीडियो पर देखी और जिस पर भरोसा कर के वह मिलने गई वह तो क्रिमिनल द्वारा डीपफेक के जरिए बनाई गई थी.

हौंगकौंग की जिस बहुराष्ट्रीय कंपनी को डीपफेक तकनीक का शिकार बनाया गया है. उस से 20 करोड़ रुपए हौंगकौंग डौलर की ठगी की गई है. यह राशि 200 करोड़ रुपए से भी अधिक है. यह डीपफेक तकनीक से की गई अब तक की सब से बड़ी ठगी है. हालांकि हौंगकौंग पुलिस ने अभी इस बात का खुलासा नहीं किया है कि किस कंपनी से यह ठगी हुई है, मगर मामले की जांच बहुत तेजी से शुरू हो चुकी है.

डीपफेक तकनीक में नकली वीडियो या औडियो रिकौर्डिंग के लिए एआई टूल का उपयोग किया जाता है. डीपफेक से बनाए गए ये चेहरे देखने में असली जैसे लगते हैं. साइबर अपराधियों ने वीडियो कौन्फ्रैंसिंग कौल कर के कंपनी को निशाना बनाया. इस दौरान डीपफेक तकनीक के जरिए कंपनी के सीएफओ के साथ अन्य कर्मियों का एआई अवतार तैयार किया गया.

5 अलगअलग बैंक खातों में पैसे ट्रांसफर

वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के दौरान डीपफेक टैक्नोलौजी की मदद से मौजूद सीएफओ समेत सभी अधिकारी और कर्मचारी फर्जी थे. इसी दौरान फर्जी सीएफओ ने कंपनी की कौन्फ्रैंसिंग शाखा के वित्त विभाग के एक अधिकारी से 5 अलगअलग बैंकों में रकम ट्रांसफर करने के लिए कहा. अपने सीएफओ की बात वह कैसे न मानता? उस ने तुरंत बताए गए खातों में रकम ट्रांसफर कर दी.

एक सप्ताह बाद हुआ ठगी का एहसास

अधिकारी ने पुलिस को बताया कि उस की कंपनी का सीएफओ उस समय ब्रिटेन में था. जब डीपफेक वीडियो कौल की गई तो उसे लगा कि सीएफओ समेत सभी कर्मचारी असली हैं. वह इन में से कई लोगों को जानता था, इसलिए वह झांसे में आ गया और कौन्फ्रैंसिंग के 5 बैंक खातों में 15 बार में कुल मिला कर 20 करोड़ कौन्फ्रैंसिंग डौलर ट्रांसफर कर दिए. अधिकारियों को लगभग एक सप्ताह बाद ठगी का एहसास हुआ, जिस के बाद पुलिस जांच शुरू हुई.

जैसेजैसे टैक्नोलौजी का इस्तेमाल बढ़ रहा है और काम करना आसान हो रहा है वैसेवैसे साइबर स्कैमर्स एआई की डीपफेक तकनीक का गलत इस्तेमाल करते जा रहे हैं. एआई की मदद से धोखाधड़ी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. हाल ही में आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की डीपफेक तकनीक की मदद से केरल के एक व्यक्ति के साथ 40 हजार रुपए की ठगी हुई है. शिकायत करने वाले शख्स का नाम राधाकृष्ण है जिस के साथ फ्रौड हुआ है.

स्कैमर ने धोखाधड़ी को अंजाम देने के लिए खुद को राधाकृष्ण का सहकर्मी होने का दावा किया और अस्पताल में एक रिश्तेदार के इलाज के लिए उन से पैसे मांगे. राधाकृष्ण का दिल पसीज आया और उन्होंने 40 हजार रुपए ट्रांसफर कर दिए. हालांकि, राधाकृष्ण ने इस तरह के फ्रौड के बारे में पहले सुना था, सो पूरी तरह अस्वस्थ होने के लिए उस से वीडियो कौल करने के लिए कहा, फिर उस शख़्स ने विडियो कौल किया. जिस के बाद राधाकृष्ण को तसल्ली हुई और उन्होंने 40 हजार रुपए ट्रांसफर कर दिए.

राधाकृष्ण का कहना है कि उन्होंने सतर्कता बरती थी, लेकिन उन्हें ठगा जा चुका था. उन का दावा है कि उन्हें डीपफेक के जरिए झांसा दिया गया. जिस के बाद इस की शिकायत कोझिकोड के साइबर क्राइम पुलिस थाने में की गई.

डीपफेक का मतलब है कि किसी भी शख्स की तसवीर, आवाज या वीडियो बना देना. ये वीडियो कौल देखने में बिलकुल फर्जी नहीं लगते हैं. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस या एआई और मशीन लर्निंग जैसेजैसे उन्नत होती जाएगी, इस तरह की समस्याएं बढ़ती जाएंगी. कुछ समय पहले तक डीपफेक वीडियोज को पहचानना आसान होता था. लेकिन अब ऐप डैवलपर्स ने अनेक कमियों को सुधार दिया है, वैसे भी एआई तो हमेशा लर्न ही करता रहता है, विभिन्न डेटा पैटर्न को समझता रहता है.

अब डीपफेक की ऐप्स इतनी उन्नत हो गई हैं कि इन में बनाए वीडियो में पलकें झपकना भी एकदम सामान्य लगता है, वहीं वीडियो और इमेज भी अब पहले से बेहतर हो गए हैं. कई देशों में एआई टीवी न्यूजकास्टर भी शुरू हो गए हैं जो हूबहू न्यूज एंकर जैसे लगते हैं और खबरें पढ़ते हैं.

पिछले दिनों भारत में भी कुछ मीडिया घरानों ने इस को लौंच किया है. हालांकि, इस के नुकसान भी हैं क्योंकि फेक न्यूज फैलाने में इस का इस्तेमाल किया जा सकता है. डीपफेक की सहायता से चुनावी अभियान भी प्रभावित किए जा सकते हैं.

फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि अगर आप को अनजान नंबर या आईडी से वीडियो कौल आए तो उस पर विश्वास न करें. किसी को पैसा देने से पहले उस से फोन पर बात कर लें या उस से जा कर मिल लें. अगर करीबी दोस्त है, परेशानी में है तो उस के परिवार में से किसी से बात कर के स्थिति के बारे में जानने का प्रयास करें.

आप कहीं छुट्टी पर जा रहे हैं या आप के बच्चे कहीं जा रहे हैं तो उस के बारे में सोशल मीडिया पर न लिखें. सोशल मीडिया पर घरेलू बातें, परिवारजनों की तसवीरें आदि पोस्ट करने से बचें, जो आप की निजता को सार्वजनिक करता है.

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