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परिवार से जोड़ने के लिए बच्चों को रखें इंटरनैट से दूर

कुछ वर्षों से सोशल मीडिया यानी सोशल नैटवर्किंग साइट्स ने लोगों के जीवन में एक खास जगह तो बना ली है परंतु इस का काफी गलत प्रभाव पड़ रहा है. इस में कोई शक नहीं कि डिजिटल युग में इंटरनैट के प्रयोग ने लोगों की दिनचर्या को काफी आसान बना दिया है. पर इस का जो नकारात्मक रूप सामने आ रहा है वह दिल दहलाने वाला है.

जानकारों का कहना है कि इंटरनैट और सोशल मीडिया की लत से लोग इस कदर प्रभावित हैं कि अब उन के पास अपना व्यक्तिगत जीवन जीने का समय नहीं रहा.

सोशल मीडिया की लत रिश्तों पर भारी पड़ने लगी है. बढ़ते तलाक के मामलों में तो इस का कारण माना ही जाता है, इस से भी खतरनाक स्थिति ब्लूव्हेल और हाईस्कूल गैंगस्टर जैसे गेम्स की है. नोएडा में हुए दोहरे हत्याकांड की वजह हाईस्कूल गैंगस्टर गेम बताया गया है. जानलेवा साबित हो रहे इन खेलों से खुद के अलावा समाज को भी खतरा है. अभिभावकों का कहना है कि परिजनों के समक्ष बच्चों को वास्तविक दुनिया के साथ इंटरनैट से सुरक्षित रखना भी एक चुनौती है. इस का समाधान रिश्तों की मजबूत डोर से संभव है. वही इस आभासी दुनिया के खतरों से बचा सकती है.

पहला केस : दिल्ली के साउथ कैंपस इलाके के नामी स्कूल में एक विदेशी नाबालिग छात्र ने अपने नाबालिग विदेशी सहपाठी पर कुकर्म का आरोप लगाया. दोनों ही 5वीं क्लास में पढ़ते हैं.

दूसरा केस : 9वीं क्लास के एक छात्र ने हाईस्कूल गैंगस्टर गेम डाउनलोड किया. 3-4 दिनों बाद जब यह बात उस के एक सहपाठी को पता चली तो उस ने शिक्षकों और परिजनों तक मामला पहुंचा दिया. परिजनों ने भी इस बात को स्वीकार किया कि बच्चे के व्यवहार में काफी दिनों से उन्हें परिवर्तन दिखाई दे रहा था. समय रहते सचेत होने पर अभिभावक और शिक्षकों ने मिल कर बच्चे की मनोस्थिति को समझा और उसे इस स्थिति से बाहर निकाला.

तीसरा केस : 12वीं कक्षा के एक छात्र की पिटाई 11वीं में पढ़ रहे 2 छात्रों ने इसलिए की क्योंकि वह उन की बहन का अच्छा दोस्त था. यही नहीं, उसे पीटने वाले दोनों भाई विशाल और विक्की उसे जान से मारने की धमकी भी दे चुके थे और ऐसा उन्होंने इंटरनैट से प्रेरित हो कर किया.

चौथा केस : 7वीं कक्षा की एक छात्रा ने मोबाइल पर ब्लूव्हेल गेम डाउनलोड कर लिया. उस में दिए गए निर्देश के मुताबिक उस ने अपने हाथ पर कट लगा लिया. उस की साथी छात्रा ने उसे देख लिया और शिक्षकों को पूरी बात बता दी. कहने के बावजूद छात्रा अपने परिजनों को स्कूल नहीं आने दे रही थी. दबाव पड़ने पर जब परिजनों को स्कूल बुलाया गया तो पता चला कि घर पर भी उस का स्वभाव आक्रामक रहता है. इस के बाद काउंसलिंग कर के उस को गलती का एहसास कराया गया.

एक छात्रा के अनुसार, ‘‘पढ़ाई के लिए हमें इंटरनैट की जरूरत पड़ती है. लगातार वैब सर्फिंग करने से कई तरह की साइट्स आती रहती हैं. यदि हमारे मातापिता साथ होंगे तो हमें अच्छेबुरे का आभास करा सकते हैं. इसलिए हम जैसे बच्चों के पास पापामम्मी या दादादादी का होना जरूरी है.’’

एक अभिभावक का कहना है, ‘‘डिजिटल युग में अब ज्यादातर पढ़ाई इंटरनैट पर ही निर्भर होने लगी है. छोटेछोटे बच्चों के प्रोजैक्ट इंटरनैट के माध्यम से ही संभव हैं. आवश्यकता पड़ने पर उन्हें मोबाइल फोन दिलाना पड़ता है. बहुत सी बातों की तो आप और हमें जानकारी भी नहीं होती. कब वह गलत साइट खोल दे, यह मातापिता के लिए पता करना बड़ा मुश्किल होता है.’’

एक स्कूल प्रिंसिपल का कहना है,  ‘‘एकल परिवार की वजह से बच्चों का आभासी दुनिया के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. यदि बच्चे संयुक्त परिवार में रहते तो वे विचारों को साझा कर लेते. अभिभावकों को उन की गतिविधियों और व्यवहार पर नजर रखनी चाहिए. हम ने अपने स्कूल में एक सीक्रेट टीम बनाई है जो बच्चों पर नजर रखती है. 14-15 साल के बच्चों में भ्रमित होने के आसार ज्यादा रहते हैं.’’

अपराध और गेम्स

इंटरनैट पर इन दिनों कई ऐसे खतरनाक गेम्स मौजूद हैं जिन्हें खेलने की वजह से बच्चे अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं. इस का सब से ज्यादा असर बच्चों पर पड़ रहा है. साइबर सैल की मानें तो विदेशों में बैठे नकारात्मक मानसिकता के लोग ऐसे गेम्स बनाते हैं. इस के बाद वे इंटरनैट के माध्यम से सोशल मीडिया पर गेम्स का प्रचारप्रसार कर बच्चों को इस का निशाना बनाते हैं.

साइबर सैल में कार्यरत एक साइबर ऐक्सपर्ट ने बताया कि हाईस्कूल गैंगस्टर और ब्लूव्हेल जैसे गेम्स से 13 से 18 साल के बच्चों को सब से ज्यादा खतरा है. इस उम्र में बच्चे अपरिपक्व होते हैं. इन को दुनियाभर के बच्चों में स्पैशल होने का एहसास कराने का लालच दे कर गेम खेलने के लिए मजबूर किया जाता है. गेम खेलने के दौरान बच्चों से खतरनाक टास्क पूरा करने के लिए कहा जाता है. अपरिपक्व होने के कारण बच्चे शौकशौक में टास्क पूरा करने को तैयार हो जाते हैं. वे अपना मुकाबला गेम खेलने के दौरान दुनिया के अलगअलग देशों के बच्चों से मान रहे होते हैं. गेम खेलने के दौरान वे सहीगलत की पहचान नहीं कर पाते. गेम के दौरान बच्चों में जीत का जनून भर कर उन से अपराध करवाया जाता है.

एक सर्वेक्षण में शामिल 79 प्रतिशत बच्चों ने कहा कि इंटरनैट पर उन का अनुभव बहुत बार नकारात्मक रहा है. 10 में से 6 बच्चों का कहना था कि इंटरनैट पर उन्हें अजनबियों ने गंदी तसवीरें भेजीं, किसी ने उन्हें चिढ़ाया इसलिए वे साइबर क्राइम के शिकार हुए.

इन औनलाइन घटनाओं का वास्तविक जीवन में भी गहरा प्रभाव पड़ता है. इंटरनैट पर दी गई व्यक्तिगत जानकारी का दुरुपयोग होना, किसी विज्ञापन के चक्कर में धन गंवाना आदि बालमन पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं.

मानसिक विकारों के शिकार

सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर अपना खाता खोलने वाले 84 प्रतिशत बच्चों का कहना था कि उन के साथ अकसर ऐसी अनचाही घटनाएं होती रहती हैं जबकि सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय न रहने वाले बच्चों में से 58 फीसदी इस के शिकार होते हैं.

बाल मनोविज्ञान के जानकारों के अनुसार, आज के बच्चे बहुत पहले ही अपनी औनलाइन पहचान बना चुके होते हैं. इस समय इन की सोच का दायरा बहुत छोटा रहता है और इन में खतरा भांपने की शक्ति नहीं रहती. उन का कहना है कि ऐसी स्थिति में बच्चों को अपने अभिभावक, शिक्षक या अन्य आदर्श व्यक्तित्व की जरूरत होती है जो उन्हें यह समझाने में मदद करें कि उन्हें जाना कहां है, क्या कहना है, क्या करना और कैसे करना है. लेकिन इस से भी ज्यादा जरूरी है यह जानना कि उन्हें क्या नहीं करना चाहिए.

सोशल नैटवर्किंग साइट्स का एक और कुप्रभाव बच्चों का शिक्षक के प्रति बदले नजरिए में दिखता है. कई बार बच्चों के झूठ बोलने की शिकायत मिलती है. 14 साल के बच्चों द्वारा चोरी की भी कई शिकायतें बराबर मिल रही हैं. मुरादाबाद के संप्रेषण गृह के अधीक्षक सर्वेश कुमार ने बताया, ‘‘पिछले 2 वर्षों के दौरान मुरादाबाद और उस के आसपास के इलाकों से लगभग 350 नाबालिगों को गिरफ्तार कर संप्रेषण गृह भेजा गया है. इन में से ज्यादा नाबालिग जमानत पर बाहर हैं लेकिन 181 बच्चे अभी संप्रेषण में हैं.’’

आक्रामक होते बच्चे

मनोचिकित्सक डाक्टर अनंत राणा के अनुसार, पहले मातापिता 14 साल से ज्यादा उम्र के बच्चों को काउंसलिंग के लिए लाते थे, लेकिन आज के दौर में

8 साल की उम्र के बच्चों की भी काउंसलिंग की जा रही है. अपराध की दुनिया में कदम रखने वाले बच्चे ज्यादातर एकल परिवार से ताल्लुक रखते हैं. ऐसे परिवारों में मातापिता से बच्चों की संवादहीनता बढ़ रही है, जिस वजह से बच्चे मानसिक विकारों के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में वे अपने पर भी हमला कर लेते हैं. काउंसलिंग के दौरान बच्चे बताते हैं कि परिजन अपनी इच्छाओं को उन पर मढ़ देते हैं. इस के बाद जब बच्चे ठीक परफौर्मेंस नहीं दे पाते तो उन्हें परिजनों की नाराजगी का शिकार होना पड़ता है. ऐसे हालात में ये आक्रामक हो जाते हैं.

8 से 12 साल के बच्चों की काउंसलिंग के दौरान ज्यादातर परिजन बताते हैं कि उन के बच्चों को अवसाद की बीमारी है. उन का पढ़ाई में मन नहीं लगता. टोकने पर वे आक्रामक हो जाते हैं और इस से अधिक उम्र के बच्चे तो सिर्फ अपनी दुनिया में ही खोए रहते हैं.

साइबर सैल की मदद लें

आप का बच्चा किसी खतरनाक गेम को खेल रहा है या उस की गतिविधियां मोबाइल पर मौजूद इस तरह के गेम की वजह से संदिग्ध लग रही हैं, तो तुरंत साइबर विशेषज्ञ से सलाह ले सकते हैं. फोन पर भी आप साइबर सैल की टीम से संपर्क कर सकते हैं. इस के लिए गूगल एरिया के साइबर सैल औफिस के बारे में जानकारी लें. वहां साइबर सैल विशेषज्ञ के नंबर भी मिल जाएंगे.

ध्यान दें परिजन

– परिजन बच्चों को समय दें और उन से भावनात्मक रूप से मजबूत रिश्ता बनाएं.

– बच्चे की मांग अनसुनी करने से पहले उस की वजह जानें.

– बच्चों के दोस्तों से भी मिलें ताकि बच्चे की परेशानी की जानकारी हो सके.

– बच्चों को अच्छे व बुरे का ज्ञान कराएं.

– बच्चों को व्यायाम के लिए भी उकसाएं.

– बच्चों से अपनी अपेक्षाएं पूरी करने के बजाय उन की काबिलीयत के आधार पर उन से उम्मीद रखें.

गणित नहीं कैमिस्ट्री भी बनी सपा कांग्रेस में गठबंधन, भाजपा की बढ़ी धड़कन

इंडिया गठबंधन ने इस बार मायावती के मास्टर स्ट्रोक का मुकाबला करने की रणनीति तैयार कर ली है. 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने सब से अधिक मुसलिम उम्मीदवार उतार कर समाजवादी पार्टी का गणित बिगाड दिया था. इस बार आजाद समाज पार्टी को साथ ले कर बसपा की कैमिस्ट्री बिगाड़ने का काम किया गया है. समाजवादी पार्टी ने रामजी लाल सुमन को राज्यसभा का उम्मीदवार बना कर बसपा के जाटव वोट में सेंधमारी की है. बसपा जिस तरह से इन चुनावों में खामोश है यह पार्टी की बेचारी को दिखाती है.

इंडिया गठबंधन की कैमिस्ट्री ने लोकसभा चुनाव में बसपा को एक किनारे कर के पूरी लड़ाई को आमनेसामने कर दिया है. अब इंडिया गठबंधन और भाजपा के एनडीए का सीधा मुकाबला होगा. ऐसे में उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ फंस गया है. उस का प्रयास था कि उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन न बन पाए. भाजपा ने लोकदल को अलग करने में सफलता भले हासिल कर ली लेकिन सपा-कांग्रेस को मिलने से नहीं रोक पाई.

मध्य प्रदेश से सीखा सबक

भाजपा का प्रयास था कि सपा-कांग्रेस के बीच फूट डाली जाए. राहुल गांधी ने यहां मध्य प्रदेश वाली गलती नहीं की. मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने ‘अखिलेश वखिलेश’ कह कर समाजवादी पार्टी को अपना दुश्मन बना लिया था. इस बार राहुल गांधी ने धैर्य से काम लिया और हर कीमत पर दोस्ती को अंजाम तक पहुंचा दिया. ‘गोदी मीडिया’ बारबार अखिलेश को भड़काने का काम कर रही थी. दोनों ही पार्टियों के प्रदेश स्तर के नेताओं ने खूबसूरती से इस दोस्ती की क्राफटिंग की. जिस से दोनों दलों के बीच केवल गणित ही नहीं कैमिस्ट्री भी बन गई.

उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस गठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे में सपा ने कांग्रेस को अमेठी और रायबरेली समेत 17 सीटें दी हैं. सपा और कांग्रेस दोनों के ही लिए यह फायदे का सौदा है. सपा और कांग्रेस में दोस्ती की क्राफटिंग करने में कांग्रेस के यूपी प्रभारी अविनाश पांडे ने डेढ़ महीने मेहनत की. इस दौरान जहां कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने धैर्य से काम लिया. उन के बयान कई बार सपा को असहज करने वाले हो जाते थे.

प्रदेश के नेताओं की गणित ने बनाई बड़े नेताओं कैमिस्ट्री

वहीं सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल ने हर बात को समझदारी के साथ अखिलेश यादव तक पहुंचाई. जैसे ही स्वामी प्रसाद मौर्य ने पाला बदल कर इस दोस्ती को बिगाड़ने का कदम उठाया सपा ने तय कर लिया कि अब जल्दी ही इस गठबंधन का ऐलान किया जाए.

राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में अखिलेश अमेठी और रायबरेली में शामिल नहीं हुए तब अखिलेश और राहुल गांधी के बीच फोन पर बात हुई. जिस के बाद यह तय हो गया कि घंटों के अंदर गठबंधन हो जाएगा. गठबंधन की सीटों को ले कर हर विवाद इस के बाद खत्म हो गया. कांग्रेस ने सपा को अपर हैंड मानकर बात मान ली. दोनों दलों के बीच गणित कैमिस्ट्री ऐसी बदली की ना-ना करते ‘हां’ हो गई.

सपा प्रमुख अखिलेश यादव को राहुल गांधी की न्याय यात्रा में शामिल होना था. उस के एक दिन पहले उन्होंने सीटों का बंटवारा तय करने की शर्त रख दी. सपा की ओर से 17 सीटों का प्रस्ताव भेजा गया. इस में कुछ सीटों पर कांग्रेस सहमत नहीं थी. सपा हाथरस की जगह सीतापुर चाहती थी. इस के अलावा खीरी और मुरादाबाद सीट पर भी उस का दावा था. प्रदेश के नेताओं के बीच बात न बनती देख राहुल और अखिलेश के बीच फोन पर बात हुई. देर शाम कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने प्रदेश के नेताओं के बीच बात हुई.

मध्य प्रदेश के अनुभव को देखते हुए समन्वय का रास्ता ही बेहतर माना गया. कांग्रेस ने मुरादाबाद, खीरी की जिद छोड़ी और सपा कांग्रेस को सीतापुर देने पर राजी हो गई. दोनों दलों के शीर्ष नेताओं में हुई बातचीत के बाद गठबंधन को अंतिम रूप दे दिया गया.

वोटों का बंटवारा रोकना पहली प्राथमिकता

कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने व उस के कोटे की सीटें बढ़ाने के पीछे 2 अहम फैक्टर माने जा रहे हैं. रालोद के जाने के बाद सपा के पास उस के कोटे की 7 सीटें खाली थीं. कांग्रेस को पहले ही 11 सीट का वादा किया जा चुका था. इस में रायबरेली-अमेठी शामिल नहीं थी. इन को मिला लें तो 13 सीटों पर सपा पहले ही तैयार थी. रालोद के जाने के बाद उदारता दिखाना आसान हो गया. अंदरखाने यह भी फीडबैक था कि अल्पसंख्यक वोटरों में कांग्रेस को ले कर रुझान बेहतर हुआ है.

प्रदेश की 25 से अधिक लोकसभा सीटों पर अल्पसंख्यक वोटरों की भूमिका प्रभावी है. ऐसे में कांग्रेस के अलग लड़ने से इन वोटरों के बंटवारे का भी खतरा था. जिस का सीधा नुकसान सपा को हो सकता था. राज्यसभा के टिकट सहित अन्य मसलों को ले कर भी सपा में मुसलिमों की भागीदारी को ले कर सवाल उठे थे. इसलिए भी सपा ने वोटरों में एका का संदेश देने का दांव खेला है. सीटों के बंटवारे में उस के कोर वोटरों को किसी और के पाले में खिसकने का खतरा न हो, इस पर सपा ने खास ध्यान दिया है. कांग्रेस को मिली सीटों में अमरोहा और सहारनपुर ही ऐसी है जहां अल्पसंख्यक वोटर चुनाव का रुख बदलने की क्षमता रखते हैं.

यूपी के चुनावी मैदान में कांग्रेस को 17 सीटें उसे मिली हैं, उस में रायबरेली ही उस के खाते में है. अमेठी, कानपुर व फतेहपुर सीकरी में कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी. बांसगांव में पार्टी ने प्रत्याशी ही नहीं उतारा था. बाराबंकी, प्रयागराज, वाराणसी, झांसी, गाजियाबाद में सपा दूसरे नंबर पर थी. 2019 में कांग्रेस ने 1977 के बाद का सब से खराब प्रदर्शन किया था और उसे एक सीट मिली थी. वोट 7 फीसदी से भी नीचे आ गया. 2022 के विधानसभा चुनाव में वह 2 सीट पर सिमट गई. इस के बाद भी 17 सीटें मिलना उस के लिए फायदे का सौदा है.

सपा का साथ मिलने के चलते अधिकतर सीटों पर कांग्रेस लड़ाई में आ सकेगी. 2019 में सपा व और बसपा जैसे दो बड़े जातीय क्षत्रपों के साथ रहने के बाद भी भाजपा गठबंधन ने यूपी में 64 सीटें जीत ली थीं. अमेठी व कन्नौज में तो सपा, बसपा, कांग्रेस व रालोद सहित पूरा विपक्ष साथ लड़ा था, लेकिन जीत भाजपा को मिली थी. सपा-कांग्रेस को 24 में जीत के लिए जमीन पर और पसीना बहाना पड़ेगा.

2019 और 2024 के बीच गोमती नदी में पानी बहुत बह गया है. राम मंदिर को ले कर वोटर का उत्साह ठंडा दिख रहा है. भाजपा में टिकट वितरण और गठबंधन में तमाम मुश्किलें हैं. अभी जैसे ही सीटों का बंटवारा होगा वह रार सामने आएगी. ओम प्रकाश राजभर योगी मंत्रिमंडल में शामिल न किए जाने से नाराज हैं. भाजपा कई बड़े नेताओं के टिकट काटने जा रही थी. कांग्रेस-सपा के मिलने के बाद भाजपा यह साहस नहीं दिखा पाएगी. पार्टी के अंदरखाने नेताओं में बेचैनी है. जिस का प्रभाव भाजपा के मिशन 80 पर पड़ेगा.

सुलक्षणा : भाग 2- आखिर ससुराल छोड़कर वह अनजान जगह पर क्यों चली गई?

क्या उस का बाकी जीवन ऐसे इनसान के साथ बीतेगा? अपनेआप को अनेकों बार संभाल कर, फिर से उन के सभी ऐब को दरकिनार कर वह उन्हें प्यारसम्मान देती रही, इस उम्मीद से कि शायद वे एक दिन जरूर सुधर जाएंगे. मगर उन के लिए संवेदना, प्यार, अपनापन कोई मायने नहीं रखते थे.

हर बार संबंध बनाने के बाद वे उस पर पैसे फेंकने लगे. 1-2 बार तो उसे समझ नहीं आया, जब लगा कि ये अपनी पत्नी को भी वेश्या समझते हैं. तो उन की यह घटिया सोच उस से बरदाश्त नहीं हुई. उस ने उन के ऐसे बरताव करने पर एतराज जताया.

‘‘तो क्या करेगी तू…? मुकदमा करेगी…? जा कर, अब देख तेरे साथ और क्याक्या करता हूं, आई अपनी वकालत झाड़ने….‘‘
उन्होंने जो कहा, अखिरकार उस के साथ वैसा करने लगे.

उस की बिना मरजी के बारबार वे उस की देह पर वार करते रहे और उन के इस घिनौने कामों को वह खून की प्याली समझ पीती गई. उन के साथ एक कमरें में रहना उस के लिए असहनीय बनता जा रहा था. वह चाहती थी कि वह मर जाए, जिस से उस की जिंदगी को यह सब झेलने से आजादी मिल सके.

आप को क्या लगता है, उस ने मायके में अपनी घुटन भरी यातनाओं का जिक्र नहीं किया होगा…? हजार बार किया, मगर उन के घर औरतों के दुखतकलीफ का कोई महत्व नहीं होता. पिता तक तो खबर ही नहीं पहुंचती, मां और बहनें सब उसे ही ज्यादा पढ़ेलिखे होने की दुहाई देते.

‘‘अरे जैसा है चला, सब को कुछ ना कुछ सहना तो पड़ता है.‘‘

‘‘तू ज्यादा पढ़लिख गई है, इसलिए इतनी शिकायतें करती है.‘‘

‘‘तुम्हारी दोनों बहनंे तो कुछ नहीं कहतीं.‘‘

‘‘इसी वजह से हम औरतों को ज्यादा पढ़ने की छूट नहीं है.‘‘

‘‘अपना सब छोड़छाड़ कर यहां आ कर रहने की सोचना भी मत. ऐसा पीढ़ियों से नहीं हुआ और न होगा, क्योंकि शादी के बाद बेटियों का घर ससुराल ही होता है, भले ही वह जैसा भी हो.‘‘

अपने मायके से वह आशाहीन थी, इसी वजह से उस की हालत बद से बदतर होती चली जा रही थी. उस के शरीर से आत्मा जैसे निकलने के लिए तरस रही हो. इसी बीच उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है.

मां बनना इन दुखों के पहाड़ के बीच उस की जिंदगी का सब से खुशनुमा पल था, और सच पूछें तो उसे एक बेटी की चाहत थी, जिस का नाम आकांक्षा रखती, उसे खूब पढ़ालिखा कर अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने की आजादी देती. मगर, यह खुशी भी उस के ससुराल वालों से देखी न गई.

जब उस ने यह बात अपने पति से साझा की तो…

‘‘लड़का ही होगा, अगर लड़की हुई तो कचरे में फेंक दूंगा, समझी.‘‘

उस की कोख में बेटी होने का पता लगाने के बाद, उन्होंने अपनी पहचान और पैसों के रोब से उस की अधूरी आकांक्षाओं के साथ उस के भीतर ही उस का गला घोट देना बेहतर समझा.

इन 6 सालों के बीच वह 2 बार अपनी बरदाश्त की सीमाएं पार होने पर ससुराल छोड़ कर अपने मायके जा चुकी थी.
‘‘तेरी कोख ही मनहूस है… एक बेटा तक नहीं दे सकती…‘‘

बेटा न हुआ तो उस के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहराया गया.

लेकिन, हर बार सभी की एक ही समझाइश और ससुराल वापिसी करा दी जाती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. दामाद साब अपनेआप सुधर जाएंगे.‘‘

‘‘तुम सब्र रखो, तुम 2 बार घर छोड़ कर वैसे ही आ चुकी हो, समाज क्या कहेगा?‘‘

‘‘यहां लौट के आ गई, तो बाकी बहनों के ससुराल वाले थूथू करेंगे हम पर.‘‘

‘‘कुछ नहीं तो पिता की इज्जत और उन के व्यापार का तो खयाल करो.‘‘

‘‘इस घर में तलाक का नाम भी मत लेना.‘‘

पिता को भी थोड़ाकुछ पता था, मगर वे अपनी पार्टनरशिप बचाने के चक्कर में जानबूझ कर अनजान बनते रहे और साथ ही उन्हें भी लगता था कि धीरेधीरे चीजें ठीक हो जाएंगी, शादी करने के बाद सब को एडजस्ट करना होता है, वह भी एक न एक दिन कर लेगी.

इतने वक्त सब का हठी व्यवहार देख कर सुलक्षणा को यह अहसास होते देर नहीं लगी कि उस की परेशानियों से किसी को कोई वास्ता नहीं है. अपने घर वालों के द्वारा उस के साथ पराई औलाद जैसा बरताव करते देख उसे असहनीय पीड़ा होती थी.

उसे एक ऐसे पिंजरे में मजबूरन कैद होना पड़ गया था जहां से वह केवल नीले आजाद आकाश में उड़ते हुए खुशहाल पक्षियों को देख सकती थी. उड़ती कैसे? उस की उड़ान तो शादी के पहले से नियत्रंण में रखी गई थी और शादी के बाद मानो उस के पंख ही काट दिए गए हों.

उस बीच उस के लोभी भाई ने शादी रचाई. उस के पिता, भाई और पति में खासा फर्क नहीं था.

पिता के साथ भाई का पैसों को ले कर मतभेद आएदिन होता रहता था. रोजरोज की कहासुनी से तंग वह अपनी शादी पर मिलने वाले पूरे दहेज पर अपना हक लेने की फिराक में था.

उस के ससुराल वालों ने शर्त रखी, ‘‘हमारी इकलौती बेटी से शादी के बाद आप का बेटा घरजमाई बन कर रहेगा, पूरा कारोबार संभालेगा, सारी प्रोपर्टी पर अंत में उस का ही हक होगा, हम उसे अपना बेटा मान कर प्यार देंगे.‘‘

उस का मतलबी भाई मान गया. घर पर कई दिनों की महाभारत और पिता के कई प्रलोभन देने के बावजूद भी भाई नहीं समझा. बड़ी धूमधाम से उन दोनों की शादी संपन्न हो गई और वह घरजमाई बन कर उन्हें धोखा दे कर चलता बना.

वही सुलक्षणा का जीवन नरक से भी बदतर बनता चला जा रहा था, अपनी दूसरी बेटी की जुदाई उसे अंदर से खोखला करती जा रही थी. वह अपने हैवान पति और ससुराल वालों से नफरत करने लगी.

अपने पति के साथ बारबार हमबिस्तर न होने के बहाने बनती रही. वह नहीं चाहती थी कि वो पेट से हो और एक निर्दोष संतान फिर से मार दी जाए. मगर, उस का पति हवस का गिद्ध…

उन की कामवाली के साथ अंतरंग होते उस ने उन्हें अपनी आंखों से देख लिया. जिस इंसान ने अनगिनत बार उस का विश्वास तोड़ा, इस बार, उन की ये निरी हरकत वह बरदाश्त नहीं कर पाई.

उसे पूरा विश्वास हो गया कि इस महल में कभी कोई सुधर नहीं सकता, शायद यही वो पल है, जो इतने सालों से यह कहने इंतजार कर रहा था कि, अब बस, उस ने अपने सारे रिश्ते तोड़ कर ससुराल छोड़ने का फैसला कर लिया.

उस ने आज के दिन अपनेआप को एक नए रूप में ढलते हुए महसूस किया. अंदर से जैसे एक अनवरत देवीरूपी ताकत उस का साहस भरते जा रही थी. वह आवेश में भी आ कर कोई उलटासीधा कदम नहीं उठाना चाहती थी.

वह घर छोड़ कर पहले भी 2 बार जा चुकी थी इस उम्मीद से कि उस के मायके वाले एक बार कह दंे कि ‘‘बेटी, तुम फिक्र मत करो. यह घर भी तो तुम्हारा है,’’ मगर, इस बार अपने मायके कतई न जाने का सूझबूझ कर फैसला लिया, क्योंकि वहां कहने को उस के खुद के भी अपनाने वाले नहीं थे. 2-4 दिन के बाद वही समझा कर फिर वापस उस नरक में धकेल देंगे. इसी रात वह अपने जेवर और पैसे ले कर घर से भाग गई.

कहां जाती? कहां रहती? बिना कुछ परवाह किए वह निरंतर अपना मुंह छिपा कर चलती चली जा रही थी. एक बस गुजरती दिखी और बिना सोचे उस पर सवार हो गई.
2 दिन बाद कहीं सुलक्षणा के मायके में…

‘‘नमस्कार बहनजी, बहू की 2 दिन पहले बेटे से छोटी सी बात पर थोड़ी कहासुनी हो गई थी, तब से घर से गायब है, पक्का आप के पास आ गई होगी, जब गुस्सा शांत हो जाए तो समझा कर वापस भेज दीजिएगा.’’

‘‘नहीं, वह तो यहां नहीं आई. उसे गए हुए पूरे 2 दिन हो गए और आप मुझे अब बता रही हैं? कहां होगी मेरी बेटी, किस हाल में होगी वह?‘‘
‘‘आप चिंता न करें, आ जाएगी, चलिए, मैं बाद में फोन करती हूं.‘‘

‘‘कहां गई मेरी बच्ची… कुछ भी कर के उसे ढूंढ कर लाओ… यह सब आप की गलतियों का नतीजा है, पैसे देख कर अपनी लड़की का सौदा कर आए, वहां बेटे ने अपना सौदा कर लिया… कभी खबर ली, किस हाल में रहती है वह?‘‘ गुस्से के आंसुओं से तिलमिला उस की मां ने पिता से जीवन में पहली बार कुछ कहने की हिम्मत की.
मां की बात सुन कर पिता मायूस हो सिर पर हाथ रख कर बैठ गए, जानते वे भी सब थे, कैसे उन का खुद का खून, बुढ़ापे, व्यापार का सहारा अपने सामने विदा होते देख उन का घमंड अंदर ही अंदर चूरचूर हो चुका था. किसी से क्या स्वीकार करते?

क्या मुद्दों से दूर हो रही हैं हिंदी फिल्में

आजकल हिंसा, बलात्कार, कत्ल, साजिश के चटपटे मसाले लपेट कर बनने वाली फिल्मों और टीवी सीरियलों से आम आदमी से जुड़े मुद्दे गायब हो चुके हैं. लिहाजा आम आदमी उस से कनैक्ट नहीं हो पाता. यही वजह है कि ऐसी मारधाड़ वाली फिल्में बौक्स औफिस पर एकडेढ़ हफ्ते में ही दम तोड़ देती हैं. लेकिन जबजब जनता की दुखती रग पर हाथ रखने वाली फिल्में बौलीवुड ने दीं, वे खूब चलीं और खूब सराही गईं.

समाज के सामने काले सच का परदाफाश करने के लिए कला और कलाकारों के माध्यम से अनेक कोशिशें होती हैं. भ्रष्टाचार पर नाटक खेले जाते हैं. जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं. आंदोलन होते हैं. इसी में एक तरीका फिल्में भी हैं जिन के जरिए न सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन होता है बल्कि ये हमें समाज में फैली बुराइयों से रूबरू भी कराती हैं.

भ्रष्टाचार की पोल खोलती फिल्में

भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर जबजब कोई फिल्म आई, खूब पसंद की गई. भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जो भारत की जड़ें धीरेधीरे खोखली कर रहा है. शायद ही कोई ऐसा सरकारी विभाग होगा जिसे भ्रष्टाचार ने छुआ नहीं होगा. करप्शन एक अभिशाप की तरह देशभर में फैला हुआ है. शिक्षा संस्थानों से ले कर हैल्थ सैक्टर तक भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमाए हुए है.

कई बौलीवुड फिल्में हैं, जिन में भ्रष्टाचार की पोल खोली गई है. इस लिस्ट में सब से पहला नाम आता है साल 2005 में बनी फिल्म ‘अपहरण’ का, जिस में लीड रोल निभाया था बौलीवुड ऐक्टर अजय देवगन ने. फिल्ममेकर प्रकाश ?ा के निर्देशन में बनी यह फिल्म भ्रष्टाचार के मुद्दे को उजागर करती है.

अजय देवगन, नाना पाटेकर और बिपाशा बसु स्टारर यह फिल्म बिहार में हो रहे बड़े पैमाने पर अपहरण के मुद्दे और उस से उगाही जाने वाली करोड़ों रुपयों की रकम के खेल को उजागर करती है. वर्ष 2005 में 10 करोड़ रुपए की लागत से बनी इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर 21.63 करोड़ रुपए का कलैक्शन किया था.

साल 2018 में रिलीज हुई फिल्म ‘भावेश जोशी सुपरहीरो’ एक आम आदमी के सुपरहीरो बनने की कहानी है. इस का मतलब यह नहीं है कि उस शख्स के अंदर कोई सुपर पावर थी, बल्कि फिल्म की कहानी तो उस के उस जज्बे और ताकत के बारे में थी, जो वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने में दिखाता है.

निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने के निर्देशन में बनी इस फिल्म में प्रियांशु पैन्यूली, हर्षवर्धन कपूर मुख्य किरदार में थे. फिल्म की कहानी 2011 में हुए अन्ना आंदोलन पर आधारित थी, जिस में कुछ युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरते हैं. फिल्म के किरदार भावेश और सिक्कू एकसाथ मिल कर लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए सोशल मीडिया प्लैटफौर्म का इस्तेमाल करते हैं और जनता को भ्रष्टाचार के बारे में जागरूक करते हैं.

खुद को फिल्म से कनैक्ट करते दर्शक

बौलीवुड के खिलाड़ी कुमार यानी अक्षय कुमार स्टारर फिल्म ‘गब्बर इज बैक’ में भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को बहुत सशक्त तरीके से पेश किया गया है. साल 2015 में आई इस फिल्म में अक्षय कुमार के अलावा श्रुति हासन, करीना कपूर खान, चित्रांगदा सिंह, जयदीप अहलावत, सुनील ग्रोवर मुख्य किरदारों में नजर आए थे. डायरैक्टर कृष के निर्देशन में बनी यह फिल्म स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार को उजागर करती है. फिल्म एक आम इंसान के जीवन पर आधारित है, जो अपनी पत्नी के साथ खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है, लेकिन अचानक उन की जिंदगी में ऐसा भूचाल आता है, जो उस का सबकुछ बरबाद कर देता है.

अपनी बरबादी पर रोने और अवसादग्रस्त होने के बजाय फिल्म का किरदार करप्शन को जड़ से खत्म करने और लोगों को इंसाफ दिलाने के अपने मिशन पर निकल पड़ता है और भ्रष्टाचारियों को चुनचुन कर मारता है.

ऐक्टर अजय देवगन की फिल्म ‘गंगाजल’ भी दर्शकों को खूब पसंद आई थी. फिल्म बिहार में पुलिस डिपार्टमैंट और राजनीतिक गठजोड़ के पाप और उस में पनपते भ्रष्टाचार को दर्शाती है. यह फिल्म भाईभतीजावाद, अपराध, रिश्वतखोरी के खिलाफ आवाज उठाती है. ‘गंगाजल’ में अजय देवगन के अलावा ग्रेसी सिंह, मुकेश भी मुख्य किरदारों में नजर आए थे.

समाज का काला सच उजागर

बौलीवुड में ऐसी कई फिल्में हैं जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आधारित हैं. इन में ‘खोसला का घोसला’, अनिल कपूर की फिल्म ‘नायक’ जैसी फिल्में शामिल हैं, जो करप्शन के काले सच को दर्शकों के सामने उजागर करती हैं.

‘खोसला का घोसला’ को 2006 में कारा फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित किया गया था और सकारात्मक आलोचनात्मक प्रतिक्रिया के साथ 22 सितंबर, 2006 को रिलीज किया गया था. इस ने 54वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता.

फिल्म ‘नायक’ में एक आम आदमी को मुख्यमंत्री द्वारा एक दिन के लिए राज्य को चलाने की चुनौती दी जाती है. उस एक दिन में वह भ्रष्ट अफसरों की ऐसी क्लास लगाता है कि उस का एक दिन का शासन जबरदस्त सफल होता है. उस के एक दिन के काम को देख कर राज्य के लोग उसे राजनीति में शामिल होने के लिए मजबूर करते हैं, जिस के बाद भ्रष्ट नेता द्वारा उस का घरपरिवार तहसनहस कर दिया जाता है. लेकिन वह हार नहीं मानता और भ्रष्टाचार के खिलाफ कमर कस कर खड़ा हो जाता है.

ये सभी फिल्में ब्लौकबस्टर रहीं. सिनेमाहौल में हफ्तों चलीं क्योंकि ये सभी जनता की रोजमर्रा की परेशानियों से जुड़ी थीं. आज करोड़ोंअरबों रुपए लगा कर बन रही फिल्में 2 दिनों में ही लुढ़क जाती हैं क्योंकि लोग उन से खुद को कनैक्ट नहीं कर पाते हैं.

फिल्म निर्माताओं को सोचना चाहिए कि फिल्में सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए नहीं होतीं, बल्कि इन का गहरा असर उन के दिलदिमाग पर पड़ता है, खासकर युवाओं पर. अगर उन के सामने हिंसा परोसी जाएगी तो उन का स्वभाव उग्र और आक्रामक बनेगा, अगर सामाजिक मुद्दों से उन्हें जोड़ा जाएगा तो उन मुद्दों को सम?ा कर वे समाज का कुछ भला कर सकेंगे.

थप्पड़: स्त्री के वजूद का अपमान

मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में 26 दिसंबर, 2023 को बीटैक की एक छात्रा को सहपाठी लड़के द्वारा थप्पड़ मारने का मामला सामने आया. दरअसल, छात्रा ने साथ में पढ़ने वाले इस छात्र की दोस्ती का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, जिस के बाद उस छात्र ने कक्षा में अन्य छात्रों के सामने ही बीटैक की सीनियर छात्रा को कई थप्पड़ जड़े. वह इतने पर ही शांत नहीं हुआ बल्कि गुस्से में कुरसी उठा कर लड़की को मारने की कोशिश की. लड़की ने भाग कर अपनी जान बचाई. बाद में लड़की ने यह घटना घर पर परिजनों को बताई और थाने में रिपोर्ट लिखवाने पहुंची. छात्रा ने आरोप लगाया कि आरोपी कई दिनों से उस पर दोस्ती करने का दबाव बना रहा था. दोस्ती स्वीकार न किए जाने पर वह हिंसा पर उतर आया.

इस बार के बिग बौस में ईशा मालवीय और अभिषेक कुमार ऐसे कंटैस्टैंट हैं जो अपने पास्ट रिलेशन को ले कर चर्चा में रहते हैं. अभिषेक ईशा के एक्स बौयफ्रैंड हैं. एक साल पहले उन का रिश्ता खत्म हो चुका है. उन का रिश्ता टूटने की वजह भी कहीं न कहीं अभिषेक का थप्पड़ और उस की तरफ अग्रेसिव व्यवहार ही था. ईशा ने अंकिता और खानजादी से बात करते वक्त बताया था कि उस ने एक बार अभिषेक को अपने दोस्तों से मिलवाया. ईशा के ज्यादा दोस्त होने की वजह से अभिषेक को गुस्सा आ गया था और उस ने ईशा को सब के सामने थप्पड़ मार दिया था. थप्पड़ की वजह से ईशा की आंख के नीचे निशान पड़ गए थे. इसी के बाद उन का रिश्ता टूटता चला गया.

कुछ समय पहले डायरैक्टर अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ ऐसे ही विषय को ले कर आई थी. इस में बात शुरू होती है सिर्फ एक थप्पड़ से लेकिन यह पूरी फिल्म महज थप्पड़ के बारे में नहीं थी बल्कि उस के इर्दगिर्द तैयार हुए पूरे तानेबाने और हर उस सवाल को कुरेद कर निकालने की कोशिश करती दिखी जिस ने इस ‘सिर्फ एक थप्पड़’ को पुरुषों के हक का दर्जा दे दिया.

इस में अमृता की भूमिका में तापसी पन्नू अपने पति विक्रम के साथ एक परफैक्ट शादीशुदा जिंदगी बिताती दिखती है. अमृता सुबह उठने से ले कर रात को सोने तक अपने पति और परिवार के इर्दगिर्द घिरी जिंदगी में बिजी है और इस ‘परफैक्ट’ सी जिंदगी में बहुत खुश है. लेकिन इसी बीच एक दिन उन के घर हुई पार्टी में विक्रम अमृता को एक जोरदार थप्पड़ मार देता है तो फिर सबकुछ बदल जाता है. किसी ने सोचा न था कि एक थप्पड़ रिश्ते की नींव हिला देगा. लेकिन अमृता ‘सिर्फ एक थप्पड़’ के लिए तैयार नहीं थी. एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ जिस का कहना है कि मियांबीवी में यह सब तो हो जाता है. उस के आसपास के लोगों के लिए यह बात पचा पाना बहुत मुश्किल था कि सिर्फ एक थप्पड़ की वजह से कोई स्त्री अपने ‘सुखी संसार’ को छोड़ने का फैसला कैसे ले सकती है जबकि पुरुष को तो समाज ने स्त्री को मारनेपीटने का हक दिया ही हुआ है.

सवाल स्त्री के मान का

सच यही है कि एक थप्पड़ स्त्री के मानसम्मान और अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है. एक थप्पड़ यह दर्शाता है कि आज भी पुरुषों ने औरत को अपनी प्रौपर्टी सम?ा रखा है, जबरन उस पर अपना हक जमाना चाहते हैं. अगर स्त्री ने हक नहीं दिया तो थप्पड़ की गूंज में उसे एहसास दिलाना चाहते हैं कि उस की औकात क्या है. समाज में उस का दर्जा क्या है.

महिलाओं के खिलाफ हिंसा

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक महिलाओं से हिंसा पूरी दुनिया का भयंकर मर्ज है.  दुनिया की 70 फीसदी महिलाओं ने अपने करीबी साथियों के हाथों हिंसक बरताव ?ोला है, फिर चाहे वह शारीरिक हो या यौनहिंसा. दुनियाभर में हर रोज 137 महिलाएं अपने करीबी साथी या परिवार के सदस्य के हाथों मारी जाती हैं.

हमारे समाज में अकसर लड़कियां और लड़के दोनों ही पुराने रिवाजों से बंधे हुए होते हैं. लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि घर के काम करना, पति की सेवा करना और उस की हर बात मानना उन का कर्तव्य है. उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष महिलाओं का मौखिक, शारीरिक या यौनशोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस का उन्हें कोई नतीजा भी नहीं भुगतना होगा.

बचपन से लड़कियों का 40 फीसदी समय ऐसे कामों में जाता है जिन के पैसे भी नहीं मिलते. इस का यह नतीजा होता है कि उन्हें खेलने, आराम करने या पढ़ने का समय लड़कों के मुकाबले कम ही मिल पाता है.

प्यू रिसर्च सैंटर की स्टडी

हाल ही में अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च सैंटर ने एक दिलचस्प स्टडी की थी. इस में भारत में महिलाओं के बारे में पुरुषों की सोच का अध्ययन किया गया. स्टडी में पाया गया कि ज्यादातर भारतीय इस बात से काफी हद तक सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा पति का कहना मानना चाहिए.

प्यू रिसर्च सैंटर की यह नई रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों के बीच 2019 के अंत से ले कर 2020 की शुरुआत तक किए गए अध्ययन पर आधारित है.

इस के अनुसार करीब 80 प्रतिशत इस विचार से सहमत हैं कि जब कुछ ही नौकरियां हैं तब पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी करने का अधिक अधिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 10 में 9 भारतीय (87 प्रतिशत) पूरी तरह या काफी हद तक इस बात से सहमत हैं कि पत्नी को हमेशा ही अपने पति का कहना मानना चाहिए. यही नहीं,  इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर भारतीय महिलाओं ने इस विचार से सहमति जताई कि हर परिस्थिति में पत्नी को पति का कहना मानना चाहिए.

महिलाओं पर केंद्रित होती हैं ज्यादातर गालियां

नारीशक्ति की बात तो होती है लेकिन अभी भी महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं. पढ़ीलिखी महिलाएं भी प्रताडि़त हो रही हैं. अगर आप को किसी को अपमानित करना है तो आप उस के घर की महिला को गाली दे देते हैं. उस का चरम अपमान हो जाता है और वह मर्दों के अहंकार को भी संतुष्ट करता है. किसी पुरुष से बदला लेना होगा तो बोलेंगे स्त्री को उठा लेंगे, महिला अपमानित करने का माध्यम बन जाती है. गांव में तो बहुत होता था पहले. अमूमन यह देखा गया था कि ये गालियां समाज के निचले पायदान पर रहने वाले लोग ही देते थे लेकिन अब आम पढ़ेलिखे लोग भी देने लगे हैं.

जब भी कोई बहस ?ागड़े में तबदील होने लगती है तो गालियों की बौछार भी शुरू हो जाती है. यह बहस या ?ागड़ा 2 मर्दों के बीच भी हो रहा हो तब भी गालियां महिलाओं पर आधारित होती हैं. कुल मिला कर गालियों के केंद्र में महिलाएं होती हैं. दरअसल, समय के साथ स्त्री, पुरुषों की संपत्ति होती चली गई और उस संपत्ति को गाली दी जाने लगी. गाली दे कर मर्द अपने अहंकार की तुष्टि करते हैं और दूसरे को नीचा दिखाते हैं. महिलाएं परिवार की इज्जत के प्रतीक के तौर पर देखी जाती हैं. इज्जत को बचाना है तो उसे देहरी के अंदर रखिए. महिलाएं समाज में कमजोर मानी जाती हैं. आप किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं, तंग करना चाहते हैं तो उन के घर की महिलाओं- मां, बहन या बेटी को गालियां देना शुरू कर दीजिए. गाली सिर्फ गाली देना ही नहीं है, यह मानसिकता का प्रतीक भी है जो वीभत्स गाली देते हैं और उसे व्यावहारिकता में लाते हैं. इसलिए निर्भया जैसे मामले दिखाई देते हैं.

धर्म है इस सोच का जिम्मेदार

जितने भी धर्म हैं, हिंदू,, इसलाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं, स्त्री नहीं. न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है. न वह पूजापाठ, कथा, हवन कराने वाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है. वह केवल पुरुष की आज्ञा का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है. धर्म का मूल आधार ही पुरुषसत्ता है. स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में वह चाहे कुरान हो, बाइबिल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया.

धर्म की आड़ में कहानियों के माध्यम से स्त्री जीवन को दासी और अनुगामिनी के रोल मौडल दिखा कर उसी सांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है. सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मौडल’ को सामने रख कर सदियों से स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है. पुरुषसत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती. इसलिए धार्मिक आचार संहिता बना कर वह स्त्री की स्वतंत्रता और यौनशुचिता पर नियंत्रण रखती है.

दुनिया का कोई देश या जाति हो, उस का धर्म से संबंध रहा है. सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है. वह पितृसत्तात्मक समाज की बेडि़यों से जकड़ी होती है.

धर्मों में स्त्री सामान्यतया उपयोग और उपभोग की वस्तु है. उस की ऐसी छवि गढ़ी गई है जिस से स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है. धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया. रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है.

स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई. वह पुरुष के श्राप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से स्त्री बन जाती है. पुरुष गर्भवती पत्नी को वनवास दे देता है, पुरुष अपनी इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है. सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्याक्या नहीं कहा गया.

मर्द हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक सम?ाता है.

इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुषसत्ता और धर्मगुरुओं के षड्यंत्र को जान सकें और अपनी शक्ति की पहचान कर सकें. अपने मान की रक्षा के लिए खुद खड़ी हों न कि दूसरों की राह देखें.

मैं पति के साथ घर में सैक्स का आनंद नहीं उठा पाती, क्या करूं?

सवाल

मेरी उम्र 26 साल है. शादी हुए 6 महीने हो गए हैं. परिवार संयुक्त और बड़ा है. ऐसी बात नहीं है कि संयुक्त परिवार से मु?ो कोई तकलीफ है. लेकिन समस्या वैवाहिक जीवन जीने को ले कर है. घर छोटा है. घर में सभी होते हैं. सासससुर, 2 ननदें, एक देवर. घर में जानपहचान वालों का आनाजाना भी बहुत है. हफ्ते के सातों दिन घर के कामों में उलझी रहती हूं. पति से खुल कर बात तक नहीं कर पाती. बस, रात में ही हमें थोड़ी प्राइवेसी मिलती है लेकिन तब भी पति के साथ खुल कर सैक्स एंजौय नहीं कर पाती. कभीकभी मन बहुत बेचैन हो जाता है. दूसरी जगह घर भी नहीं ले सकते क्योंकि पति इतना भी नहीं कमाते. अब आप ही बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

सैक्स संबंध हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. स्वस्थ व जोशीली सैक्स लाइफ हमारे संबंधों को मजबूत बनाती है व जीवन को खुशियों से भरती है. संयुक्त परिवारों में जानबू?ा कर औरतों को दबाने के लिए उन्हें पति से दूर रखा जाता है और वे पति के साथ खुल कर सैक्स एंजौय नहीं कर पातीं. इस के लिए आप को पति से खुल कर बात करनी होगी. सिर्फ आप ही नहीं, आप के पति भी आप की चाह रखते होंगे. बेहतर होगा कि इस के लिए कभी किसी रिश्तेदार के या कभी मायके जाने के बहाने पति के साथ बाहर घूमने जाएं. इस तरह के संबंधों को तो ?ोलना ही होता है, कोई उपाय नहीं मिलता.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

राजनीति पर हावी धर्म

धर्म की इतनी ‘महत्ता’ तो है कि इस का उन्माद पूरे देश या पूरी कौम को अंधा बना सकता है. इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जिन में धर्म के नाम पर लाखों को मारा गया, हजारों घर जलाए गए, औरतों से बलात्कार किए गए, बच्चों को जलती आग में फेंका गया. धर्म का उन्माद जगाना सरल इसलिए है क्योंकि बच्चों के पैदा होते ही धर्म के दुकानदार घरों और परिवारों पर हमला कर देते हैं. और फिर तर्क, तथ्य, अर्थ व धर्म के घिसेपिटे आदेशों के अनुसार बच्चों को पाला जाता है. बड़े हो कर वे अपने बच्चों के साथ वही करने लगते हैं जो उन के साथ किया गया था.

यह आश्चर्य की बात है कि हर पीढ़ी में कुछ लोग ऐसे हुए जिन्होंने धर्म की ज्यादती सहने से इनकार कर दिया और एक अपना ठोस रास्ता अपनाया चाहे उस में उन्हें धर्म का कोप सहना पड़ा. हर समाज ने हर युग में ऐसा किया और इसी का नतीजा है कि आज मानव सभ्यता तरहतरह के नए अनुसंधानों व खोजों का लाभ उठा रही है.

हर देश में, अफसोस है, कुछ लोग बारबार सूई को उलटा घुमाने की कोशिश करते रहते हैं. इस में धर्म का धंधा चलाने वालों का बड़ा फायदा है क्योंकि उन की कमाई इसी पर आधारित है कि धर्म के नाम पर अंधे अपनी सुरक्षा व मानसिक शांति के लुभावने-लच्छेदार वादों पर मोटा दान करें व मोटी दक्षिणा दें.

आज 2024 में 2 युद्ध भयंकर पैमाने पर लड़े जा रहे हैं और दोनों में धर्म ही कारण है. रूस-यूक्रेन युद्ध में और्थोडौक्स क्रिश्चियन चर्च का हाथ है जिस में मास्को स्थित सैंटर अपने से अलग हुए यूक्रेन के सैंटर को सबक सिखाना चाहता है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को मास्को के चर्च के किरिल ने ही युद्ध के लिए उकसाया था.

फिलिस्तीन और इजराइज का युद्ध पुराने इसलामी अरबों और यहूदी-इजराइली युद्धों को दोहरा रहा है. आज पूरा पश्चिम एशिया सुलग रहा है क्योंकि यूरोपीय ताकतों के जाने के बाद इस क्षेत्र के नाम पर खड़े हुए नेताओं ने मसजिदों के सहारे ताकत छीन ली और ऐसी छीनी कि इन देशों की जनता अपनों की ही गुलाम हो गई है.

भारत ने एक बड़ा विभाजन 1947 में धर्म के नाम पर देखा और आज तक उस का जहरीला कैंसर हमारी प्रगति में आड़े आ रहा है. पाकिस्तान अपने पड़ोसी अफगानिस्तान की राह पर चल रहा है जहां सेनाओं के सहारे कट्टर धर्मनेताओं की चलती है.

धर्मों ने शांति फैलाई हो, ऐसा नहीं लगता. शांतिप्रिय बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं ने भी खूब युद्ध किए हैं, भारत में ही नहीं, वहां भी जहां बौद्ध धर्म पहुंच गया था.

आज भारत फिर धर्म की दलदल में धंस रहा है. धर्म राजनीति और परिवार पर हावी हो चुका है. धर्म के नाम पर देश बंट रहा है. हमारी प्राथमिकताएं बदल रही हैं. यूरोप और अमेरिका में भी कुछ देशों में ऐसा ही हो रहा है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की संभावित जीत चर्च की जीत होगी और पक्का है कि ट्रंप के फैसले चर्चों को चलाने वालों की गुफाओं से निकलेंगे.

इस की कीमत समयसमय पर आम लोग देते रहे हैं जिन में धर्म के मानने वाले और उदासीन दोनों शामिल रहे हैं. यह अब गंभीर होता जा रहा है. भारत भी अब अफगानिस्तान और ईरान की राह पर है.

एक और परिणीता : शिवेन दत्त के साथ आखिर क्या हुआ  

शिवेन दत्त के चार्ज लेते ही पूरे दफ्तर में खलबली मच गई कि दादा अडि़यल इनसान हैं. हां, चपरासी और मेकैनिक खुश हैं. दोनों की खुशी की वजह अलगअलग हैं.

चपरासी तो इसलिए खुश हैं कि बाबुओं की तीमारदारी से उन्हें अब कुछ राहत मिलेगी. मेकैनिक खुश हैं कि शिवेन दत्त तकनीकी जानकारी रखते हैं और उन का चयन योग्यता के आधार पर हुआ है, किसी की सिफारिश से नहीं.

दूर संचार विभाग के मैनेजर पद पर आंखें तो बहुत से लोग गड़ाए बैठे थे मगर इन में से एक भी तकनीकी जानकारी नहीं रखता था और विभाग को ऐसे इंजीनियर की तलाश थी जो आज के तेज रफ्तार संचार माध्यमों का सही ढंग से संचालन कर सके. इसीलिए चयन कार्यक्रम में पूरी तरह से पारदर्शिता बरती गई.

दूर संचार विभाग में काम करने वाली महिलाओं का अपना एक संगठन भी था जिस की अध्यक्ष स्वर्णा कपूर थी. वह बोलती कम पर लिखती अधिक थी. आएदिन किसी न किसी पुरुषकर्मी की शिकायत लिख कर वह अधिकारी के पास भेजती रहती थी और पुरुषकर्मी अपना शिकायतीपत्र पी.ए. को कुछ दे कर हथिया लेते थे. कहने का मतलब यह कि स्वर्णा कपूर किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकी.

नई झाड़ू जरा जोरदार सफाई करती है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए सभी पुरुषकर्मी कुछ अधिक चौकन्ने हो गए थे.

शिवेन दत्त ने स्वर्णा कपूर को पहली बार तब देखा जब वह लंबी छुट्टी मांगने उन के पास आई. साड़ी का पल्लू शौल की तरह लपेटे वह किसी मूर्ति की तरह मेज के पास जा खड़ी हुई. शिवेन दत्त खामोशी की उस मूर्ति को देखते ही हतप्रभ रह गए.

स्वर्णा पलकें झुकाए दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘अगर आप छुट्टी मंजूर नहीं करेंगे तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि मैं कभी छुट्टी नहीं लेती हूं.’’

शिवेन दत्त जैसे जाग पड़े, ‘‘तो फिर आज क्यों? और वह भी इतनी लंबी छुट्टी ली जा रही है?’’

‘‘एम.ए. फाइनल की परीक्षा देनी है मुझे.’’

शाम को काम खत्म कर शिवेन जाने लगे तो अपने पी.ए. से पूछ बैठे, ‘‘कब से हैं मिसेज कपूर यहां?’’

‘‘5 बरस तो हो ही गए हैं. पर सर, आप इन्हें मिसेज नहीं मिस कहिए.’’

‘‘शटअप,’’ शिवेन ने डांट दिया.

बचपन में मैनिंजाइटिस होने से स्वर्णा का मुंह टेढ़ा हो गया और जवानी में वह हताश व कुंठित थी, क्योंकि दोनों छोटी बहनों की शादी हो चुकी थी.

स्वर्णा को सितार सिखाने वाली महिला, जिसे पति की जगह दूर संचार विभाग में नौकरी मिली थी, ने स्वर्णा को दूर संचार विभाग में काम करने का रास्ता दिखाया और वह टेलीफोन आपरेटर बन गई.

शिवेन का अपने विभाग पर ऐसा दबदबा कायम हुआ कि हर बात में निंदा करने वाले भी अब उन की बात मानने लगे. यही नहीं, उन्होंने अपनी मेजकुरसी हाल में ही एक ओर लगवा ली ताकि सब को उन के होने का एहसास बना रहे. उन से खार खाने वाले अधेड़ उम्र के सहकर्मी भी उन के विनम्र स्वभाव से दब गए.

3 महीने पलक झपकते ही निकल गए. स्वर्णा जब लौट कर दफ्तर आई तो किसी पुराने मनचले ने फब्ती कसी, ‘‘डिगरी पर डिगरी लिए जाओ, बरात नहीं आने वाली.’’

इस फब्ती से प्रथम श्रेणी में डिगरी हासिल करने का गर्व व खुशी मटियामेट हो गई. स्वर्णा ने एक बार फिर अपने आंसू पी लिए.

शिवेन के पी.ए. ने जा कर जब यह छिछोरा व्यंग्य उन्हें सुनाया तो वह भी तिलमिला पड़े पर वह जानते थे कि स्वर्णा उन से कहने नहीं आएगी.

अगली बार वह स्वर्णा के सामने से गुजरे तो अनायास रुक गए और एक अभिभावक की तरह उन्होंने नम्र स्वर में पूछा, ‘‘पास हो गईं?’’

‘‘जी,’’ स्वर्णा ने गरदन नीची किए ही उत्तर दिया.

‘‘मिठाई नहीं खिलाओगी?’’

‘‘जी, पापाजी से कह दूंगी.’’

अगले दिन स्वर्णा मिठाई का कटोरदान ले कर शिवेन की मेज के सामने जा खड़ी हुई तो वह कुछ झेंप से गए.

‘‘अरे, आप…मैं ने तो यों ही कह दिया था.’’

‘‘मैं ने खुद बनाए हैं,’’ स्वर्णा उत्साह से बोली.

शिवेन ने 1 लड्डू उठा लिया और कहा कि बाकी लड्डुओं को अपने सहकर्मियों में बांट दो.

इस के कुछ दिन बाद ही सरकारी आदेश आया कि रात की ड्यूटी के लिए कुछ टेलीफोन आपरेटर रखे जाएंगे जिन्हें तनख्वाह के अलावा अलग से भत्ता मिलेगा. मौजूदा कर्मचारियों को प्राथमिकता दी जाएगी. स्वर्णा ने रात की शिफ्ट में काम करने का मन बनाया तो मिसेज ठाकुर भी उस के साथ हो लीं. तय हुआ कि रात को आते समय दफ्तर के ही सरकारी चौकीदार को कुछ रुपए महीना दे देंगी ताकि वह उन को घर तक छोड़ जाया करेगा. यह सबकुछ इतना गोपनीय ढंग से हुआ कि विभाग में किसी को पता ही नहीं चला.

स्वर्णा को अपनी जगह न देख कर शिवेन ने पूछताछ की तो पता चला कि स्वर्णा और मिसेज ठाकुर ने शाम की शिफ्ट ली है. उस रात जब दोनों ड्यूटी खत्म कर बाहर निकलीं तो जहां उन का रिकशा और चपरासी खड़ा होता था वहां शिवेन अपनी जीप ले कर खुद खड़े थे. दोनों को जीप में बैठने का आदेश दिया और खुद चालक की सीट पर बैठ कर जीप चलाने लगे. पहले स्वर्णा को उस के घर छोड़ा फिर मिसेज ठाकुर जब अकेली रह गईं तो उन्हें आड़े हाथों लिया.

अपनी सफाई में मिसेज ठाकुर ने सारा सच उगल दिया.

‘‘सर, आप समझने की कोशिश कीजिए. दफ्तर के लोगों ने स्वर्णा का जीना दूभर कर दिया था. कौन क्या कहता है आप को शायद इस का आभास नहीं है.’’

‘‘एक कुंआरी लड़की का रात को बाहर अकेले काम पर जाना क्या ठीक है?’’

‘‘नहीं, मगर यहां उसे कोई छेड़ता तो नहीं है. रामदेवजी बाप की तरह उसे स्नेह देते हैं. मैं उस के साथ हूं. रिकशे वाले को मैं पिछले 15 साल से जानती हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लोगों को रात के समय घर छोड़ने के लिए कल से आरिफ रोज जीप ले कर आएगा,’’ शिवेन बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में मैं आप लोगों के लिए एक वैन का इंतजाम करा दूंगा.’’

कभीकभी शिवेन विभाग में दौरा करने आते तो स्वर्णा से हालचाल पूछ लेते. धीरेधीरे शिवेन स्वर्णा से इधरउधर की भी बातें करने लगे. मसलन, कौनकौन से लेखक तुम्हें पसंद हैं, कहांकहां घूमी हो, क्याक्या तुम्हारी अभिरुचि है.

स्वर्णा उत्तर देने में झिझकती. मिसेज ठाकुर ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘मित्रता बुरी नहीं होती. बातचीत से आत्मविश्वास पनपता है.’’

एक दिन रामदेव ने कहा, ‘‘बेटी, शिवेन को तुम्हारी बड़ी चिंता रहती है,’’ और उस पर गहरी नजर डाल दी.

स्वर्णा संभल गई. अगली बार जब शिवेन उस के पास बैठ कर शहर में लगी फिल्मों की बात करने लगे तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘सर, मेरे पास इतना समय नहीं है कि फिल्में देखती फिरूं.’’

उस की इस बेरुखी से शिवेन शर्मिदा हो चुपचाप वहां से हट गए.

स्वर्णा का मन फिर काम में नहीं लगा. अनमनी सी सोचने लगी कि सब तो उस के चेहरे का इतिहास पूछते हैं, फिर सहानुभूति जताते हैं और उस के अंदर की वेदना को जगा कर अपना मनोरंजन करते हैं. लेकिन इस व्यक्ति ने कभी भी उस से वह सबकुछ नहीं पूछा जो और लोग पूछते हैं.

शिवेन फिर दिखाई नहीं दिए. अगर आते भी थे तो रामदेव से औपचारिक पूछताछ कर के चले जाते थे.

उधर स्वर्णा की बेचैनी बढ़ने लगी. हर रोज उस की आंखें बारबार दरवाजे की ओर उठ जातीं. इतने सरल, स्वच्छ इनसान पर उस ने यह कैसा वार किया. क्या बुरा था. दो बातें ही तो वह करते थे. हंसनामुसकराना जुर्म है क्या. वह तो उस के संग हंसते थे न कि उस पर.

अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझी स्वर्णा को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन बिना किसी को कुछ बताए उस ने एक छोटा सा पत्र लिख कर डाक द्वारा शिवेन को भिजवा दिया.

कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया. फिर एक पत्र उस के घर के पते पर सरकारी लिफाफे में आया जिस में उसे एक नए पद के साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था.

दिल्ली से आए 3 उच्च अधिकारियों ने उस का साक्षात्कार लिया और वह सहायक प्रबंधक के रूप में चुन ली गई.

शिवेन के सामने वाले कमरे में अब उस की मेज लगा दी गई थी. उसे प्रबंधन व नियंत्रण की सारी जानकारी शिवेन स्वयं देने लगे. वह एक चतुर शिष्या की तरह सब ग्रहण करती गई.

ऊपर से भले ही सबकुछ शांत था पर अंदर ही अंदर इस नई नियुक्ति को ले कर दफ्तर में काफी उथलपुथल थी. आतेजाते किसी ने वही पुराना राग छेड़ दिया, ‘‘यार, नया न सही, 4 बच्चों वाला ही सही.’’

स्वर्णा तिलमिला कर रह गई. घर आने के बाद रोरो कर उस ने अपनी आंखें सुजा लीं.

दशहरे पर शिवेन ने 15 दिन की छुट्टी ली तो उन की गैरमौजूदगी में स्वर्णा बिना किसी सहायता के विभाग सुचारु रूप से चलाती रही.

इसी दौरान एक दिन घर पर शिवेन का फोन आया. दफ्तर के बाबत औपचारिक बातें करने के बाद उसे बाजार की एक बड़ी दुकान के बाहर मिलने को कहा. स्वर्णा ने घर में किसी को कुछ नहीं बताया और मिलने चली गई.

शिवेन ने उस की पसंद से अपनी मां और बहन के लिए कपड़ों की खरीदारी की. फिर दोनों एक रेस्तरां में बैठ कर इधरउधर की बातें करते रहे.

बातों के सिलसिले में ही स्वर्णा पूछ बैठी, ‘‘बच्चों के लिए कुछ नहीं लिया आप ने?’’

‘‘नहीं,’’ शिवेन एकदम खिलखिला कर हंस दिए और बोले, ‘‘किस के बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है.’’

स्वर्णा अविश्वास से बोली, ‘‘दफ्तर में तो सब कहते हैं कि आप 4 बच्चों के बाप हैं.’’

‘‘स्वर्णा, मेरी उम्र 36 साल हो गई है पर मैं कुंआरा हूं. अगर एक 30 साल की स्त्री कुंआरी हो तो लोग कहते हैं कि किसी ने उसे पसंद नहीं किया. मगर एक पुरुष अविवाहित रहे तो जानती हो लोग उस के विषय में क्या सोचते हैं…मैं शादीशुदा हूं यही भ्रम बना रहे तो अच्छा है.’’

शिवेन ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था और स्वर्णा जीवन में पहली बार किसी की राजदार बनी थी.

2 दिन बाद शिवेन ने स्वर्णा को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए आमंत्रित किया. इस बार भी वह घर से बहाना बना कर शिवेन के साथ चली गई. यद्यपि इस तरह घर वालों से झूठ बोल कर जाने पर उस के मन ने उसे धिक्कारा था मगर इस खतरे में बाजी जीत जाने का स्वाद भी था.

कोई उसे भी चाह रहा था, यह एहसास होते ही उस के सपने अंगड़ाई लेने लगे थे. वह सुबह उठती तो अपनी उनींदी मुसकान उसे समेटनी पड़ती. कहीं कोई कुछ पूछ न ले.

अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी.

मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’

‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’

स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है. क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’

अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं.

‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’

‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’

मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं.

दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था.

इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला.

सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी.

सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’

हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था.

स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’

स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी.

स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं.

‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’

शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया.

‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’

शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था.

शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी. तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो.

‘‘आज से 20 साल पहले जब  पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे.

‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते.

‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक. मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी.

‘‘ ‘बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’

‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए.

स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

उसके हिस्से की जूठन : आखिर क्यों कुमुद का प्यार घृणा में बदल गया

इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

एक प्याला चाय : किस बात को अन्याय मानती थी मनीषा?

दफ्तर से आते ही मनीषा ने पर्स मेज पर रखा और स्नानघर में घुस गई. जातेजाते उस ने शयनकक्ष में उड़ती नजर डाली. वहां अपने पति अभिनव को किसी पुस्तक को पढ़ने में लीन पा कर वह आश्वस्त हुई. स्नानघर में से निकल कर वह रोज की तरह चाय बनाने को रसोई की ओर बढ़ी. किंतु चाय की ट्रे लिए अभिनव को आते देख उस का माथा ठनका. ठिठक कर उस ने पूछा, ‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’

‘‘बना ली,’’ लापरवाही भरे स्वर में अभिनव ने उत्तर दिया.

असमंजस की मुद्रा में कुछ देर खड़ी रह कर मनीषा ने कदम बढ़ाए. वह अभिनव के पीछे हो ली. उस की समझ में नहीं आया कि इन्होंने चाय आज क्यों बनाई. यह प्रश्न जब उसे फांस की तरह चुभने लगा तो उस ने शयनकक्ष में पहुंचने के पूर्व ही पूछ लिया, ‘‘ऐसी क्या जल्दी हो गई थी आज? आज तो मैं रोज से जल्दी आई हूं.’’

‘‘हां,’’ अभिनव ने मेज पर चाय की ट्रे रखते हुए कहा.

इस ‘हां’ से मनीषा को संतोष न हुआ, ‘‘सिर दुख रहा था क्या?’’

‘‘नहीं तो,’’ अभिनव ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘तो क्या?’’

‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’

‘‘यों ही बना ली.’’

‘‘यों ही बना ली?’’

‘‘हां, मन हो गया. सोचा कि तुम्हारी थोड़ी मदद कर दूं.’’

मदद वाली बात मनीषा को अच्छी न लगी क्योंकि अभिनव ने जब कभी भी ऐसी मदद के लिए हाथ बढ़ाया था, उस ने विनम्रतापूर्वक उसे रोक दिया था. साफ कह दिया था कि मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं है. पिछले 3 माह से अभिनव एक केस में फंस जाने के चलते नौकरी से मुअत्तल हो कर बैठा था. इस स्थिति में बेकार होने के कारण वह मनीषा का हाथ बंटाने को उत्सुक रहता था. किंतु मनीषा ने उसे ऐसी अनुमति कभी नहीं दी थी. स्पष्ट कहती रही थी कि हाथ बंटा कर मुझे लज्जित न करो.

अभिनव ने उसे बारबार समझाने का प्रयास किया था, ‘इस में लज्जित होने की क्या बात है? जब मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, दिनरात घर में ही बैठा रहता हूं. ऐसे में हाथ बंटाने से मन बहलता है.’

किंतु मनीषा ने उस की एक न सुनी थी. उस की तो बस यही रट थी कि यह मुझे अच्छा नहीं लगता. मेरा काम मुझे ही करने दो.

पिछले कुछ दिनों से मनीषा को लग रहा था कि अभिनव जैसे अपराधबोध की भावना से ग्रस्त हो रहा है. मनीषा के नौकरी करने एवं उस के घर में बैठने से यह ग्रंथि उस के मन में निर्मित हो रही थी इसीलिए वह घर के छोटेमोटे कामों को करने लगा था. बच्चों को बस स्टैंड तक छोड़ना, बाजार से सौदा, सब्जी लाना, आटा पिसवाना आदि काम वह बिना कहे ही करने लगा था. इन कामों की ओर उस ने पहले कभी इतना ध्यान नहीं दिया था. वह अपने दफ्तर के काम में ही व्यस्त रहता था. अब तो वह घर के कामों की राह ही देखता रहता था. मनीषा मना करती थी तब भी वह कई काम कर ही डालता था. यह चाय भी मनीषा को इसी प्रयास की एक कड़ी सी लगी थी. इसीलिए वह उद्वेलित हो उठी थी. उसे यही बात कचोट रही थी कि अभिनव अपराधबोध से क्यों ग्रस्त हो रहा है? वह घर में विवशता में बैठा है. इस में उस का क्या दोष है?

वह नौकरी कर के अभिनव पर कोई एहसान नहीं कर रही है. संयोग से उसे नौकरी मिल गई तो वह करने लगी. टाइपिंग का ज्ञान एवं अनुभव इस कठिन समय में काम आ गया. इसी के बोझ से अभिनव दबने लगा, घर के काम में हाथ बंटाने लगा. घर के सब काम तो वह विवाह के बाद से करती ही रही है. यह तो उस की आदत में है. नौकरी करने या न करने से कोई अंतर नहीं पड़ता है. अभिनव इस बात को समझता क्यों नहीं? व्यर्थ की गं्रथि मन में क्यों पाल रहा है? इसी बात का उत्तर पाने के लिए मनीषा ने अभिनव को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया. वह उलाहना देते हुए बोली, ‘‘तुम से कितनी बार कहा कि घर के कामों में मुझे तुम्हारी मदद की बिलकुल आवश्यकता नहीं है.’’

प्याले में चम्मच हिलाते हुए अभिनव मुसकराते हुए बोला, ‘‘मगर मुझे तो लगता है कि तुम्हें मेरी मदद की आवश्यकता है.’’

‘‘ऐसा क्यों लगता है?’’

‘‘क्योंकि तुम दोहरा काम कर रही हो और मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं. इसलिए कुछ तो मुझे करना ही चाहिए.’’

‘‘तुम भले ही और कोई सा भी काम करो मगर मेरा काम मत करो.’’

‘‘क्यों न करूं?’’

‘‘क्योंकि यह मेरा काम है, केवल मेरा. याद है, एक बार तुम्हें रोटी बनाते देख हमारी गुडि़या ने क्या कहा था?’’

‘‘याद है. वह नटखट बोली थी कि पिताजी, आप अब मां हो गए.’’

‘‘फिर भी तुम मेरी मदद करने को उतावले रहते हो?’’

‘‘हां, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ न्याय करना चाहता हूं.’’

‘‘यह न्याय नहीं, अन्याय है.’’

‘‘अन्याय?’’

‘‘हां.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, मनीषा? तुम्हारी ‘महिला मुक्ति आंदोलन’ वालियां तो पुरुषों को इस तरह झुकाना चाहती हैं, और तुम इसे अन्याय कह रही हो?’’

अपने हाथ का प्याला वापस ट्रे में रखते हुए मनीषा ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैं उन में से नहीं हूं. मैं तो परंपरागत भारतीय नारी हूं. मैं अपने मन के सिंहासन से तुम्हें नीचे उतरने नहीं दूंगी.’’

चाय की चुसकी लेते हुए अभिनव ने कहा, ‘‘अच्छा, चाय तो पियो, बातें बाद में होंगी.’’

मनीषा ने अभिनव के पास बैठते हुए कहा, ‘‘नहीं, इस बात का फैसला आज ही हो जाने दो. यह रोजरोज की माथापच्ची मुझे पसंद नहीं.’’

चाय का प्याला मनीषा की ओर बढ़ाते हुए अभिनव बोला, ‘‘अच्छा बाबा, फैसला कर लेंगे.’’

चाय का प्याला हाथ में लेते हुए मनीषा बोली, ‘‘चाय पीने को मन नहीं हो रहा.’’

‘‘क्यों भला, मैं ने बनाई है इसलिए?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो इस में कौन सा गजब हो गया?’’

‘‘गजब हुआ है, तभी तो झगड़ रही हूं. बोलो, जवाब दो, तुम मेरे मन के सिंहासन से यों नीचे क्यों उतरे?’’

‘‘कहां उतरा?’’

‘‘उतरे हो. तुम ने मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचाई है.’’

‘‘बाप रे, एक प्याला चाय बनाने में ठेस पहुंच गई?’’

‘‘हां, यह मात्र चाय नहीं है, दूसरी दिशा में बढ़ाया गया कदम है.’’

अभिनव ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, तुम ने तो एक प्याला चाय में जाने क्याक्या अर्थ ढूंढ़ लिया.’’

चाय की चुसकियां लेते हुए मनीषा ने पूछा, ‘‘कोई गलत अर्थ लगाया क्या?’’

‘‘नहीं, अर्थ तो सही है,’’ अपने प्याले में फिर से चाय डालते हुए अभिनव ने उत्तर दिया.

‘‘बस, तो वादा करो कि भविष्य में इस राह पर कदम नहीं बढ़ाओगे.’’

‘‘नहीं, मनीषा, मैं ऐसा वादा नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों नहीं करोगे?’’

‘‘क्योंकि वक्त का यही तकाजा है.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘देखो, तुम जब पुरुष की तरह नौकरी करते हुए घर का सारा बोझ उठाने लगीं तो मुझ निठल्ले को अब घर में स्त्री की भूमिका निभानी ही चाहिए, यही न्यायोचित है. इस में कोई लज्जा की बात नहीं है. इसलिए घर का सारा काम अब मुझे करने दो. बचपन से परिवार से दूर अकेला रहने के कारण मुझे इन सारे कामों का अच्छा अनुभव है.’’

‘‘जानती हूं.’’

‘‘बस, तो मेरे इस कदम का और कोई अर्थ मत लगाओ.’’

‘‘अर्थ भले ही न लगाऊं, मगर…?’’

‘‘मगर क्या?’’

‘‘अपने मन के सिंहासन पर से उतरते हुए तुम्हें कैसे देखूं?’’

‘‘घर का काम करने से कोई क्या मन के सिंहासन से उतर जाता है?’’

‘‘हां, अभिनव, हां, तुम्हें अपने मन की व्यथा कैसे समझाऊं?’’

‘‘तुम थोड़ी पगली हो.’’

पगली ही सही, मगर तुम्हें मेरी बात रखनी होगी.’’

‘‘व्यर्थ की बातें मत करो, मनीषा.’’

‘‘ये व्यर्थ की बातें नहीं हैं. मेरे मन की व्यथा है. मेरा हित चाहते हो तो यथावत स्थिति रहने दो. मेरी यह विनती स्वीकार कर लो. मेरे नाथ, तुम मेरे मन के सिंहासन पर डटे रहो.’’

भौचक्का सा अभिनव अपनी जीवनसंगिनी को देखने लगा.

मनीषा ने अभिनव के चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ते हुए मोहक मुद्रा में कहा, ‘‘ये आंखें फाड़फाड़ कर मुझे क्यों देख रहे हो? पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘देखा, खूब देखा, मगर आज तुम्हारे भीतर की अनोखी नारी के दर्शन हुए,’’ कहते हुए अभिनव ने मनीषा को बांहों में भर लिया.

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