हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक शख्स की पत्नी ने अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने का आरोप लगाते हुए पति के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया. अदालत ने तर्क दिया कि कानून के हिसाब से यह अपराध नहीं है क्योंकि पत्नी अपने पति से विवाहित थी.

न्यायमूर्ति जी एस अहलूवालिया की एकल पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि कानूनी रूप से विवाहित पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं है. इस पर और अधिक विचारविमर्श की आवश्यकता नहीं है. फैसले में कहा गया है कि अगर एक वैध पत्नी विवाह के दौरान अपने पति के साथ रह रही है तो किसी पुरुष द्वारा अपनी ही पत्नी के साथ, जो कि 15 वर्ष से कम न हो, कोई यौन संभोग दुष्कर्म नहीं माना जा सकता.

इस का अर्थ तो यह हुआ कि चूंकि स्त्री पत्नी है इसलिए उस के साथ किसी भी तरह से बनाया गया रिश्ता गलत नहीं हो सकता. वह पति के साथ न रहना चाहे तो भी अदालत उसे पति से बांध कर रखती है. ऐसे फैसलों का औचित्य क्या है? कानून स्त्री को अलग होने की परमिशन क्यों नहीं देता? शादी करने का मतलब यह तो नहीं कि एक स्त्री सात जन्मों के लिए उस पुरुष के साथ बांध दी गई. शादी अगर सही से नहीं निभ रही और पति या पत्नी में से कोई इस रिश्ते से असंतुष्ट है तो क्या उसे अलग होने का हक नहीं?

अकसर अदालतों में तलाक के केस खारिज कर दिए जाते हैं या मामला सुलटाने का प्रयास किया जाता है. पतिपत्नी को साथ रहने को विवश किया जाता है. भले ही वे आपस में कितना भी झगड़ें या एकदूसरे को टौर्चर करें, पत्नी को जितना भी सताया जा रहा हो, मगर कोर्ट का आदेश अकसर तलाक के विरोध में होता है. अगर गाहेबगाहे तलाक केस स्वीकार कर भी लिए जाएं तो उन का फैसला आने में लंबा समय लग जाता है. कई बार तो फैसले आने में सालों लग जाते हैं. केस पेंडिंग पड़े रहते हैं. अकेले मुंबई की पारिवारिक अदालतों में 5,000 से अधिक तलाक के मामले लंबित हैं.

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