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अस्वीकृत दवा की भरमार

भारत में दवाइयों के मिश्रणों की बिक्री काफी अनियंत्रित ढंग से हो रही है. मुंबई, पुणे व लंदन के शोधकर्ताओं को ऐसी दवाइयों की बिक्री के प्रमाण मिले हैं जिन्हें केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की स्वीकृति नहीं मिली है. यह संगठन भारत में औषधियों व चिकित्सा उपकरणों के मानक तय करने वाली संस्था है. शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में 4 औषधि समूहों को शामिल किया था – दर्द निवारक, मधुमेह नियंत्रक, अवसाद की दवाइयां और सायकोसिस की दवाइयां.

अकसर 2-3 दवाइयों को मिला कर मिश्रण तैयार किए जाते हैं जिन्हें फिक्स्ड डोज मिश्रण यानी एफडीसी कहते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एफडीसी की उत्पादन लागत कम होती है, इन का वितरण आसान होता है और मरीजों के लिए इन का सेवन भी आसान होता है क्योंकि एक ही गोली में 2-3 दवाइयां होती हैं. इस के अलावा मिश्रित एंटीबायोटिक के उपयोग से सूक्ष्मजीवों में प्रतिरोध विकसित होने की संभावना भी कम होती है. अलबत्ता विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस संबंध में भी स्पष्ट दिशानिर्देश तय किए हैं कि किन दवाओं के और किन परिस्थितियों में एफडीसी को बाजार में लाया जा सकता है.

शोधकर्ताओं ने वर्ष 2007 से 2012 के दरम्यान एफडीसी की बिक्री का मुआयना किया. उन्होंने यह भी पता किया कि उपरोक्त प्रत्येक श्रेणी के कितने नुस्खे बाजार में हैं, चाहे केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की स्वीकृति प्राप्त हो, न हो.

टीम ने यह भी देखा कि उस ने भारतीय बाजार में जिन 175 नुस्खों का अध्ययन किया, उन में से मात्र 14 एफडीसी यूके में और 22 एफडीसी यूएस में स्वीकृत थे. भारत के बाजार में उपलब्ध कई नुस्खे तो अन्य देशों में प्रतिबंधित थे. जैसे, निमेसुलाइड कई देशों में प्रतिबंधित है मगर भारत में यह कम से कम 15 एफडीसी में मिलाया जाता है और इन में से मात्र 1 ही केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन द्वारा स्वीकृत है.

शोधकर्ताओं का मत है कि देश के कानून में अस्पष्टता की वजह से अस्वीकृत दवाइयों की बिक्री की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है.

भोजन चुराती मछलियां

थाईलैंड के मैन्ग्रोव जंगल में एक मछली रहती है आर्चरफिश. उस के नाम का मतलब है कि वह तीर चलाती है. दरअसल, यह मछली अपने मुंह से पानी की धार मारती है और ऊपर किसी डाल पर बैठे कीट को मार गिराती है. फिर जैसे ही यह कीड़ा पानी में गिरता है, उसे झपट लेती है. मगर पानी में कई और मछलियां भी तो रहती हैं.

आर्चरफिश के साथ उसी प्राकृतवास में एक और मछली रहती है हाफबीक. हाफबीक की संख्या भी आमतौर पर ज्यादा होती है. ये हाफबीक फिराक में रहती हैं कि आर्चरफिश के तीर से पानी में टपके शिकार को झपट लें. ऐसे में आर्चरफिश के तीर बेकार जाएंगे.

इस होड़ को समझने के लिए जरमनी के बैराथ विश्वविद्यालय के स्टीफन शूस्टर के दल ने इन 2 मछलियों की वीडियो शूटिंग की और इन की शरीर रचना का अध्ययन किया. अध्ययन से पता चला कि आर्चरफिश को सही जगह पहुंचने में औसतन 90 मिली सैकंड लगे जबकि हाफबीक को 235 मिली सैकंड.

मगर इस होड़ में आर्चरफिश को एक नुकसान भी है. रात के समय वह कम देख पाती है जबकि हाफबीक लगभग घुप अंधेरे में भी देख लेती है. दरअसल, हाफबीक की देखने की क्षमता उस की पीठ की चमड़ी पर स्थित संवेदी कोशिकाओं की वजह से होती है.

प्लास्टिक कार्ड: सुविधाओं का भंडार या जी का जंजाल

जीवन की आपाधापी में कब शादी के 8 साल बीत गए, नक्षत्रा को पता ही नहीं चला. कंपनी की ओर से आयोजित एक सैमिनार में उसे बेंगलुरु बुलाया गया तो उस ने पति श्याम से साथ चलने को कहा. वह मना नहीं कर पाए और दोनों खुशीखुशी 3 दिनों के लिए बेंगलुरु पहुंच गए. विश्राम के बाद शाम को वे होटल से बाहर निकले तो सामने एक बाजार दिखा. दोनों उस ओर बढ़ गए. जहां विश्व प्रसिद्ध साउथ इंडियन सिल्क साडि़यों की कई दुकानें दिखीं.

नारीमन साड़ी के नाम पर न पिघले, ऐसा कैसे हो सकता था, नक्षत्रा की नजरें ही नहीं, उस के कदम भी बरबस साड़ी की एक दुकान की ओर खिंचे चले गए. दुकान पर 200 से ले कर ढाई लाख रुपए तक की साडि़यां उपलब्ध थीं. साडि़यों की कीमत देख कर एकबारगी तो नक्षत्रा का मन किया कि दुकान से बाहर निकल जाए परंतु श्याम ने कंधे पर हाथ रखा तो उस में थोड़ी हिम्मत जगी और उस ने सेल्समैन से कम रेंज की साडि़यां दिखाने को कहा.

अब स्थिति यह हो गई कि कम रेंज की साडि़यां उसे पसंद नहीं आ रही थीं. काफी जद्दोजेहद के बाद उस ने7 हजार रुपए की एक साड़ी पसंद कर पैक करने के लिए सेल्समैन को कहने ही वाली थी कि श्याम ने कहा कि पहली बार इतनी दूर आई हो तो मम्मी और भाभी के लिए भी एकएक साड़ी ले लो न.

बड़ी मुश्किल से उस ने 7 हजार रुपए की साड़ी खरीदने का मन बनाया था पर श्याम ने तो 21 हजार रुपए का बजट बना दिया. न उन के पास उतनी नकदी थी न ही एटीएम में इतने पैसे और उन्हें 3 दिन वहां रुकना भी था. होटल, खानेपीने, घूमने के खर्चे भी थे, सो अलग. नक्षत्रा ने श्याम को घूरा जो मस्ती से साडि़यों को छू कर उन का आनंद ले रहे थे.

नक्षत्रा ने श्याम से कहा कि कहां से आएंगे इतने पैसे? श्याम ने कहा कि फिक्र मत करो, साडि़यां पसंद करो. नक्षत्रा ने 2 और साडि़यां पसंद कीं और सेल्समैन को पकड़ा दीं. श्याम ने पर्स से क्रैडिट कार्ड निकाला और फटाफट बिल का भुगतान कर साडि़यों का पैकेट नक्षत्रा को पकड़ा दिया.

कई वर्षों से नक्षत्रा यह महसूस कर रही थी कि ग्रौसरी आदि की खरीदारी में दुकानदार खुले पैसे नहीं होने का बहाना बना कर टौफियां पकड़ा देते हैं या बैलेंस रख लेते हैं. आज उसे लगा कि यदि उस ने खरीदारी के लिए अपना डैबिट कार्ड इस्तेमाल किया होता तो अब तक उस के काफी पैसे बच सकते थे और नकदी न ले जाने की सुविधा होती, सो अलग.

नक्षत्रा की तरह न जाने आज कितने लोग हैं जिन के पास बैंक द्वारा दिए गए एटीएम/डैबिट कार्ड  तो होते हैं पर वे इसलिए उपयोग नहीं करते क्योंकि आएदिन एटीएम, डैबिट कार्ड, क्रैडिट कार्ड एवं औनलाइन बैंकिंग आदि में

हो रही धोखाधड़ी से संबंधित खबरें पत्रपत्रिकाओं में छपती रहती हैं. फिर भी प्लास्टिक कार्ड का उपयोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है.

स्थिति यह है कि मार्च 2016 में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, प्लास्टिक कार्ड की संख्या 863 लाख और पौइंट औफ सैल्स यानी पीओएस की संख्या करीब 13 लाख तक पहुंच गई है. इस के द्वारा लेनदेन की संख्या में भी निरंतर इजाफा हो रहा है. सुविधाओं के लालच में इस का अधिकतम इस्तेमाल कहीं हमारे लिए जी का जंजाल न बन जाए, आइए, इस बारे में जानने का प्रयास करते हैं :

क्या है प्लास्टिक कार्ड

आमतौर पर प्लास्टिक कार्ड 3 प्रकार के होते हैं : एटीएम कार्ड, एटीएम सह डैबिट कार्ड और क्रैडिट कार्ड. आधुनिक बैंकिंग का प्रादुर्भाव होते ही सर्वप्रथम ग्राहकों को नकदी भुगतान हेतु वैकल्पिक व्यवस्था देने के तहत एटीएम व्यवस्था की शुरुआत हुई. पहले एटीएम कार्ड से नकदी निकासी के अलावा खाता संबंधित संक्षिप्त विवरण आदि ही प्राप्त किए जा सकते थे परंतु समय ने करवट ली और एटीएम कार्ड में कई सुविधाओं को समाहित करते हुए एटीएम सह डैबिट कार्ड का रूप दे दिया. डैबिट कार्ड से क्रैडिट कार्ड की तरह ही औनलाइन एवं औफलाइन खरीदारी करने के अलावा एटीएम मशीन की सहायता से मनी ट्रांसफर सहित कई अन्य लेनदेन भी किए जा सकते हैं.

क्रैडिट व डैबिट कार्ड में अंतर

बैंक द्वारा एटीएम निकासी या औनलाइन या पीओएस माध्यम से खरीदारी के लिए डैबिट कार्ड जारी किया जाता है. डैबिट कार्ड से आप कोई लेनदेन तभी कर सकते हैं जब आप के बैंक खाते में पैसे हों और लेनदेन करते ही खाते से तत्काल रकम निकल जाती है. क्रैडिट कार्ड के साथ ऐसा नहीं है. व्यक्ति की आय और साख के अनुसार बैंक द्वारा क्रैडिट कार्ड जारी किया जाता है. उस में एक निश्चित राशि की लिमिट दी जाती है जो समयसमय पर बैंक द्वारा घटाईबढ़ाई जाती है. क्रैडिट कार्ड जारी करने के लिए बैंक में आप का खाता हो, यह जरूरी नहीं. क्रैडिट कार्ड जारीकर्ता बैंक के नियम और शर्तों को पूरा करने पर आप को कार्ड जारी कर दिया जाता है.

क्रैडिट कार्ड द्वारा आप अपने कार्ड की लिमिट के भीतर खरीदारी कर सकते हैं. निर्धारित तिथि को उस माह के दौरान की गई खरीदारी की बिलिंग होती है और बिलिंग की तिथि के लगभग 20 दिनों बाद आप को उस राशि का भुगतान बैंक को करना होता है. यदि खरीदारी और भुगतान की तिथि के बीच अंतर की गणना करें

तो ग्राहक को भुगतान हेतु अधिकतम 50 दिनों का समय मिलता है. यदि निर्धारित तिथि के भीतर बिल राशि का भुगतान नहीं किया तो विलंब शुल्क के अतिरिक्त खरीद राशि पर लगभग 40 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज का भुगतान करना पड़ता है, जो ग्राहकों की जेब पर भारी पड़ता है.

प्लास्टिक कार्ड में आगे कार्डधारक का नाम, कार्ड संख्या और वैधता तिथि अंकित होती है और पीछे की ओर एक मैग्नेटिक स्ट्रिप होती है जिस में ग्राहक संबंधित समस्त व्यक्तिगत सूचनाएं होती हैं. उस के नीचे हस्ताक्षर की जगह होती है जहां कार्डधारक को अनिवार्यरूप से हस्ताक्षर करना होता है जिस का मिलान लेनदेन करते समय किया जा सकता है. उस के साथ ही 3 अंकों की सीवीवी संख्या होती है जिस का उपयोग आमतौर पर औनलाइन भुगतान के समय अनिवार्यरूप से किया जाता है. एटीएम मशीन या पीओएस में कार्ड डालते ही मशीन सीधे बैंक के माध्यम से कार्ड जारीकर्ता कंपनी यानी वीजा, मास्टर,मैस्ट्रो या रुपे कार्ड के केंद्रीकृत सर्वर से जुड़ जाता है और आप को बैंक द्वारा निर्धारित सुविधाएं मिल जाती हैं.

लोकप्रिय हो रहे प्लास्टिक कार्ड

भारत एक युवा देश है जहां 70 करोड़ से अधिक जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है. यह पीढ़ी अपना अधिकांश समय मोबाइल फोन और इंटरनैट पर व्यतीत करती है तथा सदैव त्वरित एवं आसान सेवाओं के प्रति आकर्षित होती है. यही कारण है कि भारत में भुगतान के अत्याधुनिक इलैक्ट्रौनिक माध्यमों का प्रचलन दिनप्रतिदिन बढ़ता जा रहा है.

‘डिजिटल इंडिया’ योजना के तहत इलैक्ट्रौनिक भुगतान एवं प्लास्टिक मुद्रा को लोकप्रिय बनाने के प्रत्यक्ष भुगतान को तकनीकी आधारित भुगतान समाधान के साथ जोड़ा जा रहा है. इस का मुख्य उद्देश्य भारत में फैली नकदी आधारित व्यवस्था को हाशिए पर लाना है जो इस समय कालेधन एवं भ्रष्टाचार की मुख्य जड़ बनी हुई है. इस के अलावा, सरकार इलैक्ट्रौनिक अथवा प्लास्टिक मुद्रा के जरिए भुगतान करने वालों को कर में छूट देने पर विचार कर रही है ताकि इस का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित किया जा सके. दूसरी ओर विभिन्न सरकारी योजनाओं में होते भ्रष्टाचार को दूर करने हेतु सरकार चरणबद्ध तरीके से समस्त सरकारी योजनाओं एवं सब्सिडी का भुगतान डीबीटी यानी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण व्यवस्था से जोड़ने की दिशा में भी काम कर रही है.

प्लास्टिक कार्ड पर रियायतें

आमतौर पर औनलाइन और प्लास्टिक कार्ड द्वारा भुगतान पर सुविधा शुल्क, यूजर शुल्क के अलावा वैंडर द्वारा सर्विस प्रभार एवं सरचार्ज का भुगतान किया

जाता है जो क्रैडिट कार्ड के मामले में 12.5 प्रतिशत और डैबिट कार्ड के मामले में 0.5 से 1 प्रतिशत तक होता है. भारत सरकार ने औनलाइन भुगतान को बढ़ावा देने व नकदी भुगतान को कम करने तथा कर अधिकारियों को कर चोरी के मामले पकड़ने में मदद के लिए विभिन्न कदम उठाए हैं जिन के तहत 1-2वर्षों में औनलाइन या प्लास्टिक भुगतान के मामले में विभिन्न प्रभार हटाए जाएंगे. इस से इलैक्ट्रौनिक भुगतान की लागत में कमी आएगी और इस के उपयोग को प्रोत्साहन मिलेगा.

औफर्स की बरसात

कार्ड्स के औफर्स की बात करें तो इस मामले में एचडीएफसी कार्ड और एसबीआई कार्ड फिलहाल आगे दिखते हैं. एचडीएफसी पर फिलहाल चल रहे औफर्स में अपोलो हौस्पिटल और अपोलो क्लीनिक में जांच कराने पर 15 फीसदी की छूट मिलती है. मेकमाईट्रिप पर फ्लाइट बुकिंग पर 800 रुपए कैशबैक और होटल बुकिंग पर 70 प्रतिशत की छूट मिलती है. बिग बाजार में बुधवार को 2,000 रुपए की खरीदारी पर 5 प्रतिशत, पेपरफ्राई पर फर्नीचर, होम डैकोर आदि खरीदने पर 30 प्रतिशत की छूट, गोआईबीबो पर एकतरफा फ्लाइट बुक करने पर 250 रुपए तथा दोतरफा बुक करने पर 500 रुपए की छूट आदि प्रमुख हैं. वहीं, एसबीआई कार्ड रिलायंस ट्रैंड और रिलायंस फ्रैश पर 2,999 रुपए की खरीदारी पर 5 प्रतिशत के कैशबैक के अलावा अन्य कई औफर अपने ग्राहकों के लिए ले कर आया है. इस के अलावा आईसीआईसीआई व अन्य बैंकों द्वारा भी समयसमय पर कई प्रकार की छूट एवं कैशबैक औफर निकाले जाते हैं जिन से ग्राहकों को काफी लाभ मिलता है. कार्ड जारीकर्ता बैंक एसएमएस एवं ईमेल द्वारा अपने ग्राहकों को अपनी योजनाओं के बारे में निरंतर सूचना देते रहते हैं ताकि वे सुविधाओं का लाभ उठा सकें.

सब कुछ औनलाइन

एक समय था जब आप को कुछ भी खरीदना होता था तो आप के लिए बाजार जाना अनिवार्य होता था परंतु आज ग्रौसरी से ले कर मोबाइल फोन तक जरूरत की सारी चीजें औनलाइन उपलब्ध हैं और आसानी से घर पर डिलीवर कर दी जाती हैं जिस के कारण औनलाइन शौपिंग बेहद लोकप्रिय हो रही है. गूगल इंडिया के मुताबिक, 2014 की पहली तिमाही तक भारत में लगभग 35 मिलियन औनलाइन शौपर्स थे लेकिन विगत 2 वर्षों में इन की संख्या में काफी वृद्धि दर्ज की गई है.

भारत में कैश औन डिलीवरी भुगतान का सब से पसंदीदा माध्यम है और ई-कौमर्स का लगभग 75प्रतिशत कारोबार कैश औन डिलीवरी पर होता है. परंतु विगत वर्ष फ्लिपकार्ट, अमेजौन, स्नैपडील जैसी कुछ साइटों द्वारा सिर्फ ऐप आधारित सेल को बढ़ावा देने एवं कैश औन डिलीवरी में कम छूट व अतिरिक्त प्रभार लगाने के कारण लोगों में प्लास्टिक कार्ड के उपयोग के प्रति रुझान तेजी से बढ़ रहा है.

दूसरी ओर, ऐसी वैबसाइट्स डैबिट/ क्रैडिट कार्ड के साथ मार्केटिंग समझौते के तहत समयसमय पर विभिन्न कार्डों पर 5 से 15 प्रतिशत की अतिरिक्त छूट या कैशबैक देती हैं.

आदत न बने आफत

जौइनिंग और वार्षिक शुल्क का रखें ध्यान : क्रैडिट कार्ड के उपयोग में कुछ लगता है नहीं, बस सुविधाएं ही सुविधाएं हैं, ऐसा सोचना गलत है. आज के जमाने में हर सुविधा की अपनी कीमत होती है. इसलिए ग्राहकों को क्रैडिट कार्ड के उपयोग व दुरुपयोग से होने वाले नुकसान की भी जानकारी अवश्य होनी चाहिए वरना यह उपयोगकर्ताओं के लिए मुसीबत का सामान बन सकता है. अधिकांश कार्ड जारीकर्ता बैंक कार्ड जारी करते समय जौइनिंग शुल्क के रूप में 1,000 से 5,000 रुपए तक की राशि लेते हैं और इतनी ही राशि वार्षिक शुल्क भी लेते हैं.

हालांकि कुछ बैंक आजीवन मुफ्त कार्ड भी जारी करते हैं तो कुछ बैंक कार्ड द्वारा एक निश्चित राशि की खरीदारी करने पर वार्षिक शुल्क रिवर्स कर देने की सुविधा देते हैं. इसलिए कार्ड जारी करते समय इन सब बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए और इस प्रकार की छूट हेतु लिखित स्वीकृति के बाद ही कार्ड आवेदन पर हस्ताक्षर करने चाहिए. यदि कार्ड जारीकर्ता बैंक यह दावा करे कि लाइफटाइम फ्री कार्ड है तो भी कार्ड पर लाइफटाइम फ्री लिख कर साइन करना चाहिए और उस की एक प्रति अपने पास रखनी चाहिए ताकि भविष्य में किसी भी प्रकार की परेशानी न हो.

भुगतान न करने पर जुर्माना : प्रत्येक कार्ड की बिलिंग तिथि अलगअलग होती है और लेनदेन की बिलिंग तिथि के 20 दिन बाद तक बिल का भुगतान किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर एसबीआई कार्ड की बिलिंग तिथि हर माह की 13 तारीख है. यदि आप ने 14 जून की खरीदारी की तो उस खरीदारी का बिल13 जुलाई को जैनेरेट होगा और बिल का भुगतान 3 अगस्त को होगा यानी आप को 14 जून की खरीदारी के भुगतान के लिए कुल 50 दिनों का समय मिलेगा. आमतौर पर लोग 50 दिनों में भुगतान करने की बात समझ कर कार्ड बिल का भुगतान नहीं करते जिस के कारण उन्हें बाद में जुर्माना अदा करना पड़ता है. आइए, इसे एक उदाहरण से समझते हैं :

संजीव ने आईसीआईसीआई बैंक कार्ड से जुलाई 2016 में कुल 6,397 रुपए की औनलाइन खरीदारी की जिस की भुगतान तिथि 3 अगस्त थी. परंतु जुलाई के अंतिम सप्ताह में अचानक उसे देश से बाहर जाना पड़ा और जल्दबाजी में वह कार्ड साथ ले जाना भूल गया. वहां पहुंच कर जब उस ने बैंक को भुगतान करने के लिए फोन किया तो आईवीआर सिस्टम ने उस से कार्ड की संख्या मांगी जो उस के पास नहीं थी. इसलिए चाहते हुए भी वह निर्धारित तिथि तक बिल का भुगतान नहीं कर पाया. 8 अगस्त को वापस लौटने पर उस ने बिल को औनलाइन भुगतान कर दिया. परंतु अगस्त के बिल में बैंक ने 6,397 रुपए की बिल राशि पर विलंब शुल्क के 500 रुपए, ब्याज के रूप में 750 रुपए एवं उन पर लागू सेवा कर सहित लगभग 1,500 रुपए पैनल्टी लगा दी. उस ने बैंक के सर्विस सैंटर पर कई फोन और कई ईमेल किए परंतु बैंक की ओर से कोई सुनवाई नहीं हुई और आखिरकार उसे पैनल्टी का भुगतान करना पड़ा जोकि उसे काफी भारी पड़ा. वैसे, कुछ बैंक ग्राहकों द्वारा नियमित रूप से समय पर भुगतान करने पर कभीकभी विलंब शुल्क रिवर्स भी कर देते हैं.

नकदी निकासी पर 3.35 फीसदी ब्याज : आमतौर पर लोग यह समझ बैठते हैं कि खरीदारी के अलावा कार्ड से नकदी निकासी पर भी उसे 50 दिनों की क्रैडिट अवधि मिलती है, परंतु ऐसा नहीं है. भूल कर भी क्रैडिट कार्ड से नकदी निकासी की गलती न करें क्योंकि कार्ड द्वारा नकदी निकालना आप को काफी महंगा पड़ सकता है. आइए, हम एसबीआई प्लैटिनम कार्ड का उदाहरण लेते हैं. 1 लाख रुपए की क्रैडिट लिमिट पर कार्ड द्वारा 30 हजार रुपए की नकदी निकासी की सुविधा प्रदान की जाती है और निकासी की तिथि से ही 3.35 फीसदी मासिक (40.2 फीसदी वार्षिक) दर से ग्राहकों से ब्याज वसूला जाता है. इस के अलावा, सर्विस प्रभार का भार भी ग्राहक को ही वहन करना पड़ता है.

धोखाधड़ी भी है : क्रैडिट कार्ड में डिजिटल लेनदेन होने के कारण आप की कार्ड संख्या, उस की वैधता तिथि, ग्राहक का नाम और सीवीवी संख्या ही आप की पहचान होती है. इस के कारण यदि किसी भी व्यक्ति के पास यह संख्या है तो वह आप के कार्ड पर आसानी से औनलाइन खरीदारी कर सकता है. कई बार तो आप को पता भी नहीं चलता और आप के कार्ड पर औनलाइन खरीदारी हो जाती है. धोखेबाज धोखाधड़ी से आप के कार्ड की संख्या व अन्य जानकारी चुरा कर धोखाधड़ी को अंजाम दे देते हैं जोकि कई बार जेबकतरों से भी आसान होता है क्योंकि इस में धोखाधड़ी करने वालों को आप के पास आने की भी जरूरत नहीं पड़ती. आमतौर पर इलैक्ट्रौनिक/ प्लास्टिक मुद्रा के प्रयोग के बारे में ग्राहकों को पूरी जानकारी न होने के कारण वे अपना पासवर्ड, पिन या अन्य गोपनीय नंबर किसी को बता देते हैं या डायरी या पर्ची में लिख कर रख लेते हैं जिस का फायदा धोखेबाज उठाते हैं और हजारोंलाखों का चूना लगा देते हैं. कई बार ऐसे धोखेबाज मोबाइल नंबर पता लगा कर, नकली बैंक अधिकारी बन ग्राहकों से पासवर्ड या सीवीवी की जानकारी प्राप्त कर या कार्ड की क्लोनिंग द्वारा उन के खाते से सारी रकम निकाल लेते हैं. वहीं, साइबर कैफे या अज्ञात जगह पर नैट बैंकिंग का उपयोग करने से भी ग्राहकों के डेटा के चोरी किए जाने की संभावना रहती है.

सिविल धौंसपट्टी के आगे बेबस : कई बार लोग प्लास्टिक कार्ड के उपयोग के कारण होने वाली धोखाधड़ी की शिकायत पुलिस में करने जाते हैं तो पुलिस आप को इतने चक्कर लगवाती है, सवाल पूछती और दस्तावेज मांगती है कि आप दौड़तेदौड़ते थक जाते हैं और पुलिस में एफआईआर तक दर्ज नहीं कराते. वहीं, कई बार पुलिस एफआईआर तो दर्ज कर लेती है पर कोई कार्यवाही नहीं करती. इसलिए अधिकांश लोग शिकायत करने के बजाय मामले को भूल जाना बेहतर समझते हैं जिस से धोखेबाज न सिर्फ बच जाते हैं बल्कि उन्हें इस तरह के कार्य करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा भी मिलता है. लेकिन सारे पुलिस वाले ऐसे नहीं होते. कई बार पुलिस की तत्परता के कारण कई गिरोहों का भंडाफोड़ भी हुआ है. इसलिए इस तरह के मामले होने पर पुलिस से शिकायत करने में न हिचकें, बल्कि पूरी सूचना सहित लिखित शिकायत करें ताकि इस संबंध में समुचित कार्यवाही की जा सके. कैसे सुरक्षित रहेगा कार्ड का उपयोग

जिस तेजी से प्लास्टिक कार्ड का प्रयोग दिनप्रतिदिन बढ़ रहा है उतनी ही तेजी से प्लास्टिक कार्ड के उपयोग के क्षेत्र में धोखेबाजी की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक कार्ड के उपयोग को अत्यधिक सुरक्षित बनाने की दिशा में कई कदम उठा रहा है. पहले सामान्य क्रैडिट कार्ड का उपयोग किया जाता था जिस में कार्ड क्लोनिंग की संभावना काफी होती थी परंतु अब सभी बैंकों द्वारा अनिवार्यरूप से चिप आधारित कार्ड जारी किया जाता है जिस में क्लोनिंग की संभावना नगण्य होती है. इतना ही नहीं,अब सभी कार्डों को अनिवार्यरूप से ग्राहक के मोबाइल से जोड़ दिया गया है. और बैंक द्वारा न सिर्फ आप को हर लेनदेन के बारे में अलर्ट किया जाता है बल्कि क्रैडिट एवं डैबिट कार्ड को दोहरी पिन आधारित सुरक्षा से जोड़ दिया गया है जिस के कारण अब हर लेनदेन हेतु आप के व्यक्तिगत मोबाइल फोन पर वन टाइम पासवर्ड (ओटीपी) जैनेरेट किया जाता है. इस ओटीपी की प्रविष्टि से ही आप का लेनदेन प्राधिकृत होता है. सब से बड़ी बात तो यह है कि यह ओटीपी केवल कुछ मिनट तक ही वैध होता है.

पहले क्रैडिट कार्ड को केवल स्वाइप करने पर ही आप का लेनदेन हो जाता था परंतु अब चिप कार्ड में भी एटीएम कार्ड की तरह पीओएस में इंसर्ट करने के बाद आप को लेनदेन पिन की प्रविष्टि करनी पड़ती है,तभी आप का लेनदेन प्राधिकृत होता है. अब तो द्वितीय चरण में प्राधिकृत करने की व्यवस्था को और अधिक सुरक्षित बनाने के लिए आने वाले दिनों में बायोमैट्रिक आधारित प्रणाली एवं फिंगर आधारित हार्डवेयर स्मार्टफोन को और अधिक सुरक्षित बनाएंगे. नतीजतन, टच आईडी एवं एंड्रौयड एम मोबाइल सिस्टम पर फिंगर प्रिंट स्कैनर एपीआई के कारण भविष्य में प्लास्टिक मुद्रा के माध्यम से भुगतान सुरक्षित, सुविधाजनक एवं आरामदायक बन जाएगा और तेजी से वास्तविक मुद्रा के विकल्प के तौर पर उभरेगा.

आखिर यही कहा जा सकता है कि भारत जैसे युवा व तकनीकी रूप से सक्षम देश में प्रौद्योगिकी आधारित उत्पादों की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता. परंतु जहां तक प्लास्टिक कार्ड जैसे माध्यमों से वित्तीय लेनदेन की बात है तो हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि सब से पहले हम इन उत्पादों और इन के सुरक्षित उपयोग के बारे में अधिकतम जानकारी अर्जित करें और अत्यधिक सुरक्षित ढंग से इन का प्रयोग करें ताकि हमें किसी प्रकार का वित्तीय नुकसान न हो सके. इतना ही नहीं, इन का प्रयोग करते समय पूरी तरह से सावधानी बरतें और कार्ड संख्या सहित कार्ड से संबंधित कोई जानकारी किसी को न दें, न ही कहीं लिख कर रखें. यहां यह भी जानना जरूरी है कि किसी भी बैंक द्वारा ग्राहक से कार्ड, पिन एवं सीवीवी से संबंधित कोई जानकारी नहीं मांगी जाती. इसलिए यदि फोन पर आप से कोई भी आप को कितना लालच क्यों न दे, आप उसे अपने कार्ड से संबंधित कोई जानकारी नहीं दें बल्कि फोन करने वाले की शिकायत पुलिस स्टेशन के साइबर सैल में अवश्य करें ताकि पुलिस द्वारा उस के खिलाफ कार्यवाही की जा सके.

क्रैडिट कार्ड पर ब्याज

सब से महंगा ऋण आमतौर पर क्रैडिट कार्ड के बकाए पर 1.5 से 2.99 प्रतिशत के मासिक ब्याज का भुगतान करना पड़ता है. यह विभिन्न बैंकों द्वारा अलगअलग चार्ज किया जाता है :

कार्ड जारीकर्ता बैंक कार्ड का नाम                मासिक ब्याज दर

कोटक महिंद्रा       —      बैस्ट प्राइस कार्ड    —      1.5%

एसबीआई   —      यूबीआई एडवांटेज कार्ड   —      1.75%

यूबीआई      —      सिल्वर/क्लासिक कार्ड     —      1.90%

ऐक्सिस      —      इजी गोल्ड क्रैडिट कार्ड    —      1.95%

एसबीआई   —      एडवांटेज प्लस/गोल्ड कार्ड        —      2.25%

डायस —      स्मार्टगोल्ड क्रैडिट कार्ड    —      2.25%

आईसीआईसीआई  —      इंस्टैंट प्लैटिनम कार्ड       —      2.49%

सिटी बैंक    —      कैशबैक/प्रैस्टिज कार्ड       —      2.50%

बैंक औफ बड़ौदा    —      टाइटैनियम/सिग्नेचर/

                प्लैटिनम कार्ड       —      2.60%

कोटक महिंद्रा       —      एक्वा गोल्ड कार्ड    —      2.60%

स्रोत : एडऔनमनी वैबसाइट

स्वास्थ्य बीमा: हर परिवार की जरूरत

कुमार एक मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया हैं. एक निजी संस्थान में नौकरी करते हुए अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद थोड़ा-थोड़ा बचा कर उन्होंने अपनी पुत्री की शादी के लिए लगभग 5 लाख रुपए इकट्ठा किए. एक दिन अचानक उन्हें हार्ट अटैक आया. पूरा इलाज कराने के बाद वे ठीक तो हो गए लेकिन उन की सारी पूंजी अस्पतालों में इलाज तथा महंगी दवाइयों में खर्च हो गई. उन्हें अपनी बेटी की शादी के समय आखिर कर्ज लेना पड़ा.

यह केवल एक कुमार की कहानी नहीं है. देश में ऐसे कुमारों की संख्या लाखोंकरोड़ों में है जब उन्हें बीमार या दुर्घटनाग्रस्त होने पर इलाज पर लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं. वे अपनी बचत की राशि को खर्च कर डालते हैं या इलाज के लिए लोगों के आगे हाथ पसारते हैं. स्वयं कुमार ही नहीं, बल्कि परिवार में किसी भी सदस्य की बीमारी की दशा में भी यही हालत होती है.

किसी परिवार में कुमार जैसी स्थिति न आए, इस के लिए जरूरी है कि पूरे परिवार के लिए स्वास्थ्य बीमा करा लिया जाए. स्वास्थ्य बीमा लेने के बाद परिवार के सदस्यों की बीमारी पर होने वाले खर्च का बीमा कंपनियों द्वारा पुनर्भुगतान कर दिया जाता है.

कई बार कंपनियां अपने निश्चित अस्पतालों के माध्यम से कैशलैस इलाज की सुविधा प्रदान करती हैं जिस से इलाज का खर्चा कंपनी द्वारा सीधे ही अस्पताल को चुका दिया जाता है. बीमा पौलिसी लेने वाले को उस समय कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता है.

स्वास्थ्य बीमा की सुविधा कई कंपनियां प्रदान करती हैं. भारत सरकार ने भी बहुत कम प्रीमियम पर आम नागरिकों को स्वास्थ्य बीमा की सुविधा प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना नाम से उपलब्ध कराई है. इस में दुर्घटना में मृत्यु तथा अपंगता की दशा में 2 लाख रुपए तक की राशि भुगतान की जाती है.

सरकार स्वास्थ्य बीमा को प्रोत्साहित करने हेतु आयकर में धारा 80 डी के अंतर्गत स्वास्थ्य बीमा के लिए चुकाई गई प्रीमियम राशि को व्यक्ति की आय में से कम कर देती है. वर्तमान में सामान्य नागरिकों के लिए स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम के रूप में चुकाई गई 25 हजार रुपए की राशि तथा वरिष्ठ नागरिकों के लिए यह राशि 30 हजार रुपए निर्धारित है. इस राशि तक चुकाए गए प्रीमियम पर आयकर में छूट मिल जाती है. सरकार बजट में प्रीमियम की सीमा समयसमय पर बढ़ाती रहती है.

स्वास्थ्य बीमा अकेले या पूरे परिवार के लिए कराया जा सकता है. पूरे परिवार को शामिल करने के लिए फैमिली फ्लोटर लिया जाता है. आमतौर पर व्यक्ति को फैमिली फ्लोटर ही चुनना चाहिए ताकि एक ही प्रीमियम से पूरे परिवार को स्वास्थ्य बीमा का लाभ मिल जाए. उदाहरण के लिए, यदि एक परिवार के 3सदस्यों ने

2-2 लाख रुपए का स्वास्थ्य बीमा कराया तो प्रत्येक सदस्य को 2 लाख रुपए तक के इलाज के खर्चे की पूर्ति की जाएगी.

इस के विपरीत, यदि परिवार के लिए 4 लाख रुपए का बीमा करा लिया तो प्रत्येक सदस्य के लिए 4लाख रुपए तक के इलाज का लाभ मिल जाएगा. इस का प्रीमियम भी तीनों की पौलिसी के कुल प्रीमियम से सामान्यतया कम ही होगा.

स्वास्थ्य बीमा लेते समय यह ध्यान देना जरूरी है कि बीमा का क्लेम आसानी से मिल सके. बीमा कंपनियां बीमा क्लेम के लिए थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेटर यानी टीपीए की सहायता लेती हैं. कुछ कंपनियों ने टीपीए की सेवाएं आउटसोर्स कर रखी हैं अर्थात टीपीए कंपनी से जुड़ा नहीं होता. वहीं, कुछ कंपनियों का इनहाऊस टीपीए होता है. इनहाऊस टीपीए वाली कंपनियों को स्वास्थ्य बीमा लेते समय प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि ये क्लेम का निबटारा आसानी से करवा सकती हैं. कई बड़े अस्पतालों के माध्यम से ही टीपीए द्वारा कैशलैस इलाज की सुविधा प्रदान कर दी जाती है. इलाज कराते समय ऐसे अस्पतालों को प्राथमिकता देनी चाहिए.

पौलिसी चुनाव में रखें ध्यान

 पौलिसी का चुनाव करते समय बीमा कंपनी के अस्पतालों के नैटवर्क का भी ध्यान रखना चाहिए. इस सूची से आप को अपनी बीमारी तथा अपने क्षेत्र के हिसाब से अच्छे से अच्छे अस्पताल का चुनाव करने की सुविधा होगी. पौलिसी चुनते समय अपनी व अपने परिवार की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों का पता लगाना जरूरी है. पहले से वि-मान बीमारियों तथा पहले से हुई बीमारी, जिस के बाद में होने की संभावना हो,उस का ध्यान रखना चाहिए. इस हेतु बीमा कंपनियां क्रिटिकल इलनैस वाला बीमा देती हैं जिस से उन बीमारियों को कवर कर लिया जाता है.

पौलिसी के लिए बीमा की राशि भी महत्त्वपूर्ण होती है. परिवार के 4 सदस्यों के लिए यदि आप ने 1 लाख रुपए की पौलिसी ली है तो यह राशि काफी कम है. इस में आप को बीमारी की दशा में काफी राशि खुद खर्च करनी पड़ सकती है. इस के विपरीत, यदि आप ने 40-50 लाख रुपए की पौलिसी ले ली है तो यह भी उपयोगी नहीं है क्योंकि इतना खर्च सामान्यतया होगा नहीं, जबकि प्रीमियम आप को इस राशि के हिसाब से चुकाना होगा. आमतौर पर पूरे परिवार के लिए 15-20 लाख रुपए तक की पौलिसी पर्याप्त होती है.

कई ऐसी गंभीर बीमारियां हैं जिन में इलाज के लिए भारी राशि खर्च करनी पड़ सकती है. ऐसी बीमारियों के लिए क्रिटिकल इलनैस राइडर की सुविधा बीमा कंपनियों द्वारा प्रदान की जाती है. ऐसी बीमारियों में हृदयाघात, कैंसर, लकवा, किडनी फेल होना, अंग प्रत्यारोपण आदि शामिल हैं. यदि पौलिसीहौल्डर को ये गंभीर बीमारियां पौलिसी लेने के बाद होती हैं या बाद में पता चलता है तो बीमा कंपनियां इन के लिए एक निश्चित राशि, एकमुश्त भुगतान करती हैं. चाहे इलाज कराएं या नहीं. यह उन लोगों के लिए उपयोगी है जो किसी भी प्रकार का जोखिम नहीं लेना चाहते.

स्वास्थ्य बीमा लेते समय विभिन्न कंपनियों के प्रीमियम राशि की तुलना करनी भी जरूरी है. आजकल कई ऐसे औनलाइन पोर्टल हैं जो विभिन्न कंपनियों के प्रीमियम और सुविधाओं का तुलनात्मक अध्ययन औनलाइन उपलब्ध कराते हैं. उन के प्रीमियम तथा सुविधाओं की तुलना कर के उपयुक्त पौलिसी का चुनाव किया जाना चाहिए.

कुल मिला कर समझबूझ कर पूरे परिवार के लिए कराया गया बीमा जहां बीमारी की दशा में अच्छे इलाज की सुविधा प्रदान करता है वहीं इलाज पर अपनी जिंदगीभर की कमाई के खर्च करने या किसी के आगे हाथ पसारने की समस्या से मुक्त भी करता है. इसलिए स्वास्थ्य बीमा हर परिवार की जरूरत है.    

हे प्रभु, क्या कर दिया

अब मायके जाना आसान नहीं रह जाएगा. प्रभु, ऊपर वाले नहीं, रेल मंत्री ने, 50% किराया बढ़ाने का इंतजाम कर लिया है. एक तरह से रेल टिकट लेना एक लौटरी बन गई है. अब पहले 10% को ही सामान्य दर पर टिकट मिलेंगे, उस के बाद हर 10% को पहले से 10% ज्यादा देने पड़ेंगे और 50% तक अधिक देने पड़ सकते हैं.

यह रेलों के एकाधिकार का दुरुपयोग है. रेलें सस्ती हैं या नहीं यह अंदाजा लगाना आसान नहीं, क्योंकि इस पर सरकारी कब्जा है. कहां बरबादी हो रही है, यह कैसे पता चले? सरकार तो रेल मंत्रालय को पुलिस थानों की तरह से चलाती है, जहां हर मुलाजिम सेवा के लिए नहीं वसूलने के लिए खड़ा होता है. सेवा तो बहाना है. मकसद तो नौकरी सुरक्षित करना है.

रेल किराया बढ़ाना और वह भी इस तरह, बेहद नाइंसाफी है. रेल के एक डब्बे में बैठे 10% को 50% की छूट हो यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है. तत्काल सुविधा के अंतर्गत रेलवे पहले ही कुछ सीटें रिजर्व कर के अतिरिक्त वसूल रही थी. अब खाली ट्रेन में भी केवल 10% ही निर्धारित किराया दें यह मनमानी है और किसी भी तरह से इसे मान्य नहीं समझा जा सकता. रेलों के लिए आज भी सरकार मनमाने दामों पर जमीन वसूलती है. कर से प्राप्त पैसा निवेश करती है, यह नागरिकों की सेवा के लिए है और हर नागरिक को कमाने का बराबर का पैसा देने का हक तो बनता ही है. पहले 10% में आने के लिए तो टिकट बुकिंग कराना पीटी ऊषा की तरह दौड़ लगाना होगा, जिस में भी पदक न मिलने का डर रहे.

इस नियम को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए. हां, कुछ सीटों की 10% की नीलामी हो सकती है ताकि दलालों का हाथ न रहे और जिन्हें रूठ कर मायके आज ही जाना है वे टिकट न मिलने पर फिर स्टेशन से अपने घर पति के पास न लौटें.

मायके गई पत्नी का बेचारा पति

फिल्म ‘बौबी’ के एक मशहूर गाने की एक पंक्ति है, ‘मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो…’ जवाब में हीरो गाता है, ‘तू मायके चली जाएगी मैं दूजा ब्याह रचाऊंगा…’ और इस एक पंक्ति से वह हीरोइन को डराने में फौरन सफल हो जाता है. वहीं, दूसरी ओर, ‘मेरी बीवी की शादी’ फिल्म का गाना, ‘राम दुलारी मायके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई…’ में मायके गई पत्नी के बेचारे पति की दुर्दशा का सच्चा वर्णन है.

हम सभी ऐसे कितने ही चुटकुलों पर हंसे हैं जिन में मायके गई पत्नी के पति की खुशी का जिक्र होता है मानो यही वह एक समय होता है जब पति अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी पाता है लेकिन यह भी एक बहुत बड़ा सत्य है कि यह मौका तभी एक उत्सव की तरह मनाया जा सकता है जब पत्नी खुशी से मायके गई हो और उस की वापसी निश्चित हो. किंतु तब क्या हो जब पत्नी मायके जाने को अपना अधिकार बना ले? मायके जाने की धमकी दे कर पति को अपनी बात मनवाने पर मजबूर करती रहे?

4 जून, 2016 को मुंबई उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला आया है. मामले में न्यायालय की नागपुर बैंच के वी ए नाइक तथा ए एम बदर ने निर्णय दिया कि बिना किसी ठोस कारण केपत्नी ने अपने पति को छोड़ कर 7-8 वर्ष अपने मायके में व्यतीत किए, इस को न्यायालय ने क्रूरता का स्थान दिया और इसीलिए उन की तलाक की अर्जी स्वीकार की.

दरअसल 13 दिसंबर, 2006 को विवाह हुआ और 5 मार्च, 2007 को पत्नी हमेशा के लिए अपने मायके चली गई. शादी के इन 3 महीनों में पत्नी ने पति से उस के मातापिता से अलग घर बनाने की मांग की और इसी जिद को मनवाने हेतु अपने मायके जा कर रहने लगी. जब पत्नी

नहीं मानी तो अगले वर्ष पति ने तलाक की अर्जी डाली, किंतु कोर्ट का निर्णय आतेआते कई वर्ष लग गए.

न्यायालय से तलाक का निर्णय आने में कई वर्षों का समय लगना आम बात है. न्यायालयों से समन, पारिवारिक न्यायालयों द्वारा मध्यस्थता, लिखित बयान, आपत्ति आदि में 2-3 वर्ष का समय लग जाता है. अगले 1-2 वर्ष हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा अंतरिम रखरखाव के निर्णय में, फिर जा कर तथ्यों की सुनवाई होनी प्रारंभ होती है. पारिवारिक न्यायालयों द्वारा यह स्वीकारा गया है कि उच्च न्यायालय लंबे समय से लंबित मामलों के बारे में जांचपड़ताल करते हैं. अर्थात तलाक के मामलों में शीघ्रता से कार्यवाही तलाक की अर्जी डालने के करीब 5 वर्ष बाद ही हो पाती है.

कानून का दुरुपयोग

इस केस में हुए निर्णय से एक बात स्पष्ट है कि पत्नी के मायके जाने में केवल पत्नी को बेचारगी के पलड़े में नहीं रखा जा सकता है. हो सकता है कि नाजायज मांग और उसे मनवाने की जिद के कारण वह मायके जा बैठी हो और ऐसी स्थिति में बेचारा केवल पति होता है जो बिना किसी दोष के सजा भुगतता है. इस में कोई दोराय नहीं है कि भारतीय कानून पत्नियों के प्रति अतिनरम हो गया है. धारा 498ए का कितना गलत उपयोग कर पत्नियां अपने पतियों को बेवजह सताती हैं. जिस ने भी फिल्म ‘दावत-ए-इश्क’ देखी होगी वह इस कानून और इस के दुरुपयोग को भलीभांति समझ सकेगा. दहेज के झूठे इलजाम में फंसा कर पत्नी पति और उस के पूरे परिवार को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है क्योंकि इस केस में जमानत नहीं मिलती है. यह बात पति भी जानते हैं, इसलिए डरते हैं. और पत्नियां भी जानती हैं, इसलिए मनमानी कर सकती हैं.

सुमित की दिल्ली के सरोजिनीनगर मार्केट में साडि़यों की दुकान है. उस की पत्नी को खरीदारी का बेहद शौक था. अपने इस शौक को पूरा करने में वह इस बात का ध्यान भी नहीं रखती थी कि इस बार आमदनी कितनी हुई है. बस, इसी बात को ले कर अकसर झगड़े होने लगे. पत्नी ने मायके को अपना युद्धक्षेत्र बना लिया. मातापिता की वह इकलौती संतान थी सो, उसे पूरा सहयोग मिला. मायके में रहते हुए उस ने सुमित पर खूब जोर डाला. किंतु जब यह तरीका आम होने लगा तब सुमित भी अड़ने लगा. पत्नी ने धारा 498ए के तहत अदालत का दरवाजा खटखटा दिया. नतीजतन, सुमित को उस के मातापिता सहित जेल जाना पड़ा. समाज में बदनामी हुई, सो अलग. दुकान के काम पर भी इस का काफी असर पड़ा.

भारतीय दंड संहिता के तहत यदि पत्नी व्यभिचार के आरोप में पकड़ी जाए तो भी सजा उसे नहीं, केवल उस के प्रेमी को होगी. ऐसे में कोई तेजतर्रार औरत इन कानूनी दांवपेंचों का गलत इस्तेमाल कितनी आसानी से कर सकती है, यह सोचना कठिन नहीं.

करतूत पत्नी की, सजा पति को

मीना  का पति अकसर टूर पर रहता था. उस दौरान वह अपने मायके आ- जाया करती थी. अपने फ्लर्ट स्वभाव के चलते उस ने पड़ोस में एक आशिक बना लिया. एक बार किसी रिश्तेदार ने उन्हें मार्केट में  रंगेहाथों पकड़ लिया. बस, उस ने फौरन बोरियाबिस्तर बांध कर मायके का रुख कर लिया. सारी समस्या वहीं से शुरू हुई, केस कोर्ट पहुंचा. पति तलाक पर आमादा था. किंतु सजा किसी को नहीं हुई. पति का पैसा कोर्टवकीलों के चक्कर

में पानी की तरह बहता रहा. इस बीच न्यायालय ने मीना को पति से मासिक मुआवजा भी दिलवाया और मकान भी. जब 8 वर्ष बीत गए, सारा पैसा निकल गया, मकान भी गया और तलाक फिर भी नहीं हुआ तब झक मार कर पति फिर मीना के साथ रहने लगा.

यदि पत्नी मायके जा कर बैठ गई है तो समाज का दृष्टिकोण पति के प्रति कठोर हो उठता है. पत्नी को असहाय मान कर समाज पति पर दोषारोपण करने में जरा भी नहीं हिचकता. ऊपर से बच्चों का संरक्षण भी आमतौर पर मां को ही मिलता है.

कहां जाए पति?

पत्नी की ज्यादतियों से प्रताडि़त पति कहां जाएं? उन का मायका कहां है? वे अपने मातापिता के साथ रहते हैं तो सासबहू की चक्की में घुन जैसे पिसते हैं. यदि पत्नी की बात मान कर अलग हो जाएं तो भारतीय समाज में अपने मातापिता का भरणपोषण न करने पर गाली सुनें. पत्नी के लिए रूठ कर मायके जाना बहुत सरल है. किंतु पति यदि लड़ाई के बाद अपने घर वालों से मदद ले तो सारा समाज ससुरालियों को बहू का दुश्मन करार देता है.

समाचारों पर ध्यान दें तो पाते हैं कि तलाक का इंतजार सब से खतरनाक समय है. अकसर अपराध या पत्नी या पति का खून इसी समय होता है. पति चाहे सही हो या गलत, विवाहोपरांत झगड़ों में बेचारे पति को ही गालियां सुनने को मिलती हैं, उसी को ब्लैकमेल किया जाता है. और तो और, उसी के पैसों से केस लड़ा जाता है जो न्यायालय स्वयं पत्नी को दिलवाता है.

वर्ष 2012 के नैशलन अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, शादीशुदा मर्दों के मुकाबले शादीशुदा औरतों में आत्महत्या की संख्या काफी कम है. 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या 60 हजार थी तो वहीं शादीशुदा महिलाओं की संख्या 27 हजार रही. इस के अगलेपिछले सालों के आंकड़े भी यही तसदीक करते हैं. ऐसे में मर्दों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए कोई कानून क्यों नहीं है?

बेंगलुरु में वकालत कर रहे धावेश पाहुजा के अनुसार, ‘‘कुछ शिक्षित शहरी स्त्रियों ने ऐसे कानूनों को अपने पतियों और उन के रिश्तेदारों से अपनी मनमानी करने का हथियार बना लिया है.’’

माना कि भारतीय दंड संहिता के नियमकानून स्त्री के अधिकारों की रक्षा हेतु बनाए गए हैं, सवाल यह है कि समाज की कुरीतियों से स्त्री को बचाने के लिए इन कानूनों का उपयोग हो तो सही है किंतु जब स्त्री मायके का सहारा ले कर अपने पति को तंग करने पर आमादा हो जाए तब क्या होगा?

खून करवाता धर्म

त्योहारों में मूक व असहाय जानवरों की बलि चढ़ाने का रिवाज है. इन दिनों कसाइखानों से ले कर मंदिरों की चौखट में खून ही खून बिखरा नजर आता है. ‘अहिंसा परमो धर्म’ के विचाराधारा वाले इस देश में धर्म का सिर्फ एक ही काम है, वह है खून बहाना. कभी पूजापाठ की पीठ पर सवार हो कर तो कभी आतंकवाद की शक्ल में धर्म ने मानवता को खून से लथपथ कर दिया है.

देश में सभी धर्मों के अनुयायी अपनेअपने धर्म को अहिंसक बताने से थकते नहीं हैं. मगर कटु सत्य यह है कि धर्म की वजह से धर्मभीरू लोग जम कर हिंसात्मक तरीके से कहीं अपना तो कहीं दूसरे का खून बहा रहे हैं. मामला धर्म से जुड़ा होने के कारण शासनप्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा नजर आता है. वहीं, दूसरी ओर देश में अनेक रोगी खून के अभाव में दम तोड़ दे रहे हैं.

धर्म की वजह से चल रहे अनेक दकियानूसी कामों में प्रतिवर्ष कहीं स्वयं के खून को चढ़ावे में देने, मातम करने के नाम पर खून बहाने, महिलाओं को भूतही, डायन, टोनही बता कर जान से मार देने एवं स्वयं लाखों निरीह पशु, पक्षियों, जंतुओं की बर्बरतापूर्वक हत्याएं कर दी जा रही हैं. हैरत की बात यह है कि सदियों से चले आ रहे इन जघन्य अपराधों को 21वीं सदी की उच्च शिक्षित पीढ़ी भी खुशी से अपना रही है.

केस-1 : उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में बासगांव कसबा स्थित दुर्गा मंदिर से जुड़ी एक परंपरा है. वहां प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्रि के 9वें दिन श्रीनेत राजपूतों के विवाहित व्यक्ति शरीर के 9 स्थानों से देवी को खून चढ़ाते हैं जबकि अविवाहित शरीर के एक स्थान से खून निकाल कर चढ़ाते हैं.

कसबे के एक बुजुर्ग के अनुसार, 13 दिन के बच्चे तक का खून देवी को चढ़ता है. यह काम वहां 1943 से बदस्तूर जारी है. इस से पहले वहां श्रीनेत राजपूत भैंस, बकरा, सूअर, मुरगा आदि की बलि देवी को चढ़ाते थे. मगर वर्ष 1943 में यहां राम शर्मा आचार्य आए. उन्होंने इस के विरोध में 3 दिन आमरण अनशन किया तो श्रीनेत राजपूतों के पुरखों ने जानवरों की बलि न दे कर अपने खून को देवी को चढ़ाने की परंपरा को शुरू कर दिया.

केस-2 : पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के भीरा थाने के अंतर्गत देवरिया रडा गांव में पड़ोस के ही महेशापुर गांव से एक दलित बिरादरी के घर बरात आई थी. मंडप में फेरे लेते समय वर पक्ष के लोगों ने कहा कि हमारे यहां रिवाज है कि कुलदेवता को भेड़ की बलि देने के बाद उसी के खून से दूल्हा, दुलहन को तिलक लगाया जाता है. इस प्रस्ताव पर लड़की के पिता भड़क गए. यह देख दुलहन को भी गुस्सा आया. लिहाजा, शादी ठुकरा दी गई. मामला भीरा थाने पहुंचा. अंत में दोनों पक्षों में समझौता हुआ और बिना दुलहन बरात वापस चली गई.

केस-3 : उत्तर प्रदेश के मउ जिले के थाना कोतवाली के बल्लीपुर गांव का युवक मनोज कुमार काफी दिनों से बीमार था. उस ने किसी तांत्रिक के कहने पर देवी को अपने ही गले का खून चढ़ाने के लिए गले को किसी धारदार हथियार से रेत दिया. देवी का आशीर्वाद काम न आया. बाद में परिवारजनों ने नाजुक हालत में उसे एक अस्पताल में भरती कराया तब जा कर वह ठीक हो सका.

ये तो कुछ प्रमुख उदाहरण हैं, इन से इतर न जाने कितनी ही रस्में एवं घटनाएं देशभर में घटती हैं जो जानकारी में नहीं आ पाती हैं. प्रतिवर्ष मोहर्रम में मुसलिम धर्मभीरुओं के मातम से हजारों लिटर खून बह जाने की घटनाएं आम हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में करीब 3 मिलियन यूनिट से भी ज्यादा खून की कमी बरकरार है जिसे मात्र 2 प्रतिशत लोग स्वैच्छिक ‘रक्तदान’ दे कर भरपाई कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि रक्तदान का सैल्फ लाइफ पीरियड 35-42 दिनों का होता है. जबकि विभिन्न धार्मिक कारणों से बहाया गया खून तत्काल पूर्णरूप से व्यर्थ हो जाता है.

भेड़चाल में शिक्षित वर्ग

ऐसे समय जब चांद पर आशियाना बनाने की बात की जा रही है और गौड पार्टिकल की खोज हो चुकी है तब इस प्रकार के कर्मकांडों एवं मूढ़ विश्वासों को सुशिक्षित युवाओं द्वार तवज्जुह देना देश के मानसिक दिवालियेपन का द्योतक ही लगता है.

बासगांव के श्रीनेत राजपूत राधेश्याम सिंह बताते हैं, ‘‘चैत्र नवरात्रि के 9वें दिन हमारे वंशज, चाहे जहां हों, कुल देवी को खून चढ़ाने जरूर पहुंचते हैं. यहां तक कि जो लोग विदेशों में नौकरी कर रहे हैं वे भी.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘हम लोग मूलतया श्रीनगर तथा गढ़वाल के रहने वाले हैं. हमारे वंशज राजस्थान में भी बसे हुए हैं. सभी जगह से लोग यहां आते हैं.’’ इस का सीधा मतलब है कि श्रीनेत समाज के पढ़ेलिखे युवाओं की फौज भी खुशी से इस भेड़चाल में शरीक होती है.

सुशिक्षित युवाओं के इस तरह के कर्मकांडों में शामिल होने की यह कोई अकेली घटना नहीं है. इस की अंतहीन फेहरिस्त है. पिछले वर्ष रक्षा मंत्रालय ने सेना में भैंसों के बलि दिए जाने संबंधी कृत्य पर रोक लगाई है. गौरतलब है कि सेना के कुछ यूनिटों में भैंसों की बलि देने की परंपरा रही है जिस में गोरखा रेजीमैंट प्रमुख रूप से है. सेना, जहां पर युवावस्था तक ही सेवाएं ली जाती हैं और बड़े अफसर बहुत ही सुशिक्षित होते हैं, वहां निरीह जानवरों की बलि दिए जाने की बात अत्यंत शर्मसार करने के साथ ही साथ मन को झकझोर देती है.

जीवजंतुओं पर धर्म का सितम

नीलकंठ पक्षी और सर्प को शंकर से, मयूर को सरस्वती से जोड़ने वाले धर्मभीरू हिंदू, इन्हीं का बेरहमी से कत्लेआम करवा रहे हैं. ऊपर से ‘अहिंसा परमोधर्म’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की रट अलग से. आखिर ये सारे जीवजंतु भी तो इसी वसुधा के हैं. नवरात्रि पूजा एवं दशहरा पश्चिम बंगाल में बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है. इसी पूजा में वहां पक्षियों के सफेद पंखों से ढोल सजाने का खास रिवाज है. सो, नवरात्रि के पहले से ही पूरे पश्चिम बंगाल में सफेद पक्षियों की जान पर बन आती है. धर्मभीरुओं की इस अनिवार्य जरूरत एवं उन के द्वारा मोटी रकम अदा करने के कारण पक्षियों के सफेद पंखों को ऊंचे दामों पर बेचा जाता है.

कोलकाता के एक गैर सरकारी संगठन ‘फ्रैंडस ऐंड वाइल्डलाइफ’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, दुर्गापूजा के समय कोलकाता एवं आसपास के इलाकों में हर साल 20 हजार से भी अधिक पक्षी मार दिए जाते हैं. संगठन के मुताबिक, एक ढोल को सजाने के लिए 4-5 पक्षियों को मारना पड़ता है.

इसी तरह मुंबई में, वन्यप्राणी विशेषज्ञों के अनुसार, प्रतिवर्ष नागपंचमी के मौके पर सांपों को दिखाने के लिए सपेरे विभिन्न स्थानों से सांपों को पकड़ते हैं. उस समय करीब देश में 60 हजार सांप मारे जाते हैं. विभिन्न धर्मों की मान्यताओं के चलते प्रतिवर्ष लाखों सूअरों, भैंसों, मोरों, कबूतरों, बकरों, काली मुरगियों व मुरगों की जान पर बन आती है. बहुत सारे तांत्रिक जल में रहने वाली मुरगियों को मिरगी के दौरे की अचूक दवा करार देते हैं.

हिंदू धर्म में मयूरों को मार कर उस के पंख नोच कर रखने पर कभी प्रेतबाधा एवं सांपों के न आने की बात कह कर पूरे देश में लाखों मयूरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. इसी तरह कहींकहीं इसलाम धर्म में काले मुरगे की शहादत को नामर्दी दूर करने की अचूक दवा माना जाता है.

डायन के नाम पर

एक गैर सरकारी संगठन ‘रूरल लिटिगेशन ऐंड एंटाइटलमैंट सैंटर’ के आंकड़ों के अनुसार, देश के विभिन्न राज्यों में 15 वर्षों के अंदर 2,500 से अधिक औरतें डायन और टोनही बता कर मौत के घाट उतार दी गई हैं. अकेले मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में हर वर्ष 10-15 महिलाएं डायन और टोनही बता कर मार डाली जाती हैं. इस तरह के अनेक मामले अदालत की चौखट तक पहुंच भी रहे हैं. अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में 1,268 मामले विभिन्न अदालतों में आए हैं.

नैशनल क्राइम रिकौडर्स ब्यूरो के साल 2014 के आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में 160 औरतें डायन, टोनही बता कर मार दी गईं जिन में सर्वाधिक संख्या झारखंड में 54 है.

राजनेताओं की सरपरस्ती

देश के नुमाइंदों से ऐसे आचरण की अपेक्षाएं होती हैं जो जनताजनार्दन के लिए नजीर बन सकें. मगर यहां तो नुमाइंदे खुद बढ़चढ़ कर ऐसे जघन्य कामों में हिस्सा लिया करते हैं. तभी तो शायद इस तरह के अपराध सभी प्रदेशों में बदस्तूर बढ़ते जा रहे हैं. कुछ वर्ष पहले की बात है, मध्य प्रदेश के पूर्व सपा विधायक किशोर समरीते ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने हेतु कामाख्या देवी के मंदिर में 101 भैंसों की बलि दी थी. लेकिन मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. आश्चर्य की बात तो यह है कि सपा की तरफ से इस जघन्य अपराध पर किशोर समरीते के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई.

कानून है मगर कारगर नहीं

ऐसा नहीं है कि इन अंधविश्वासों के कारण हो रहे खूनखराबे को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है. विडंबना है कि लोग इन कानूनों के बारे में जानते ही नहीं हैं या फिर कानून के सहारे इन पर अंकुश लगाने को आगे नहीं आ रहे हैं.

इस बारे में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता मोनिका आर्या बताती हैं, ‘‘भारतीय दंड विधान के तहत महिलाओं को डायन, टोनही, भूतही बता कर प्रताडि़त करने के लिए कड़ी सजा के प्रावधान हैं. जान से मारने पर धारा 302, किसी भी तरह से जान को खतरा बनाए जाने पर धारा 338, किसी भी तरह का अपराध जो उन के मानसम्मान को ठेस पहुंचाए धारा 354 के तहत कड़ी सजा के प्रावधान हैं. इसी तरह डायन, भूतही, टोनही के नाम पर होने वाली हत्याओं पर रोक लगाने के लिए खासतौर पर ‘विच प्रिवैंशन ऐक्ट’ भी है. निरीह जानवरों को मौत के घाट उतार दिए जाने पर रोक लगाने हेतु ‘प्रिवैंशन औफ कु्रएल्टी टू एनिमल ऐक्ट 1960’ विशेषरूप से लागू है. इस ऐक्ट के तहत 3 माह तक जेल की सजा एवं जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.’’

इस तरह होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाए जाने के संबंध में वे सुझाव देती हुई कहती हैं, ‘‘सरकार एवं संगठनों को सामाजिक चेतना हेतु जनता को शिक्षित करना होगा. मानसिक बीमारियों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उचित चिकित्सा व्यवस्था होनी चाहिए. कई बार जब लोगों को उचित चिकित्सा नहीं मिल पाती है तो थकहार कर ओझाओं के चंगुल में फंस जाते हैं. जिस से झाड़फूंक, तंत्र, मंत्र, एवं बलि प्रथा को बल मिलता है.’’

कैसे होगी रोकथाम

ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए अधिकतम जागरूकता एवं शिक्षा कारगर उपाय हैं. बेहतर यह होगा कि उन्मूलन हेतु सरकार इसे एक मानसिक बीमारी मान कर प्रभावित क्षेत्रों में युद्धस्तर पर सघन अभियान चलाए. ऐसी करतूतों में संलिप्त लोगों पर नियमानुसार कड़ी कार्यवाही की जाए ताकि दूसरे इस का अनुसरण न कर सकें.

दरअसल, ऐसी घटनाओं का प्रमुख कारण धर्म है. धर्म तमाम तरह के अप्रत्याशित लाभों को बढ़ावा देता है, जिस से धर्मभीरू किसी भी तरह के शारीरिक कष्ट झेलने एवं पशुबलि देने को तैयार हो जाते हैं. जबकि सचाई यह है कि कोई भी लाभ बिना किसी भौतिक प्रयासों जैसे श्रम, शिक्षा के बगैर नहीं प्राप्त किया जा सकता है. देश के लोगों को अब तक जो भी शिक्षा मिली है वह आंशिक रूप से मिली है. सो, आवश्यक है कि लोगों को वैज्ञानिक शिक्षा दी जाए. वैज्ञानिक शिक्षा कभी भी किसी मुद्दे पर संशय का सृजन नहीं करती.          

देश में बेरोजगारी और हुनर का हाहाकार

20 से 25 साल का हर चौथा हिंदुस्तानी युवा बेरोजगार है. यह एक ऐसा खौफनाक आंकड़ा है जिस में स्वत: तमाम दूसरे डराने वाले आंकड़े आ मिलते हैं. जनगणना रिपोर्ट से हासिल इस आंकड़े के मुताबिक, देश में मौजूद कुल कार्यशक्ति में से 12 करोड़ लोग या 24 करोड़ हाथों के पास करने के लिए कोई रोजगार नहीं है. ये लोग या तो अपने परिवार के दूसरे कमाऊ लोगों पर निर्भर हैं या ऐसे रोजगार में जबरदस्ती लगे हुए हैं जहां वाजिब मेहनताना नहीं मिलता.

आमतौर पर कार्यपालिका के नीतिगत मामलों में कोई हस्तक्षेप न करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने देश में बेरोजगारी की भयावह हो रही समस्या से सही ढंग से न निबट पाने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई है. यही नहीं, देश की सर्वोच्च अदालत ने बेरोजगारी की गहराती समस्या के बीच केंद्र सरकार को याद दिलाया है कि जीविका का अधिकार, जीवन के मूलभूत अधिकार में अंतर्निहित है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी यह राय दक्षिण मध्य रेलवे कैटरर्स एसोसिएशन की अपील पर पिछले दिनों व्यक्त की थी, जिस के ठेके को सरकार ने रद्द कर दिया था.

लेकिन सवाल सिर्फ बेरोजगारी का नहीं है. वास्तव में बड़ी समस्या यह है कि हिंदुस्तान एकसाथ कई तरह की हकीकतों का विरोधाभासी हब बन चुका है. एक तरफ कहा जा रहा है कि हम दुनिया के सब से युवा देश हैं और भविष्य की मानव संसाधन संबंधी तमाम वैश्विक जरूरतों को हम ही पूरा करेंगे. दूसरी तरफ, वर्तमान में हम ही योग्य और कल्पनाशील तकनीशियनों का अभाव झेल रहे हैं. एक तरफ बेरोजगारी हमारी सब से बड़ी समस्या है तो दूसरी तरफ भारत के कौर्पोरेट जगत को 12-14 लाख योग्य कर्मचारियों की अविलंब जरूरत है और लोग हैं कि ढूंढ़े नहीं मिल रहे. जिस तरह देश का हर अच्छा शैक्षणिक संस्थान योग्य फैकल्टी का अभाव झेल रहा है उसी तरह देश की अच्छी कंपनियां योग्य कर्मचारियों की कमी का शिकार हैं. कुशल कर्मचारियों की बैंच स्ट्रैंथ तो शायद ही किसी कंपनी के पास हो.

यह अकारण नहीं है कि देश की वे तमाम आईटी कंपनियां जो विदेशों में काम कर रही हैं, इन दिनों अपने लिए तमाम कर्मचारियों का चयन भी विदेशों में ही कर रही हैं जबकि यह स्थिति उन के लिए कतई लाभदायक नहीं है, न ही वे इस की इच्छुक हैं. मगर क्या करें, मजबूरी है. देश में योग्य युवा मिल ही नहीं रहे. संक्षेप में कहा जाए तो देश में बेरोजगारी के साथसाथ हुनर का भी हाहाकार है. देश में हुनरमंद लोगों की भारी किल्लत है. राजनीतिक दल, सरकारें और विशेषज्ञ सब के सब सिद्धांतत: एक ही बात कर रहे हैं कि देश में सब से बड़ी चुनौती युवा आबादी के लिए नौकरियां पैदा करना है.

बेरोजगारी का परिदृश्य

हद तो यह है कि देश में बेराजगारी बिलकुल नए किस्म के सच निर्मित कर रही है. मसलन, इस समय एक यह विचित्र सच भी उभर कर सामने आ रहा है कि जो वर्ग जितना ज्यादा पढ़ालिखा है उस वर्ग में बेरोजगारी की उतनी ही बड़ी समस्या है. देश में यह आमधारणा है कि कोई तकनीकी कोर्स कर लिया जाए तो कोई न कोई काम मिल ही जाता है. मगर, बेरोजगारी का परिदृश्य इस के उलट आंकड़े पेश करता है. आंकड़े बताते हैं कि कुल पढ़ेलिखे बेरोजगारों में से 16.9 प्रतिशत ऐसे युवा बेरोजगार तकनीकी डिगरी या डिप्लोमाधारी ही हैं. जबकि मैट्रिकुलेशन या सैकंडरी तक की पढ़ाई करने वाले 14.5 प्रतिशत युवा ही बेरोजगार हैं. इस का साफ मतलब है कि हमारे यहां तमाम पढ़ेलिखे किसी काम के नहीं हैं.

हमारे यहां के तमाम पढ़ेलिखे लोग वाकई हुनर के मामले में शून्य हैं. संख्या के हिसाब से तो हर साल हमारे यहां लगभग 27 लाख ग्रेजुएट (अब चीन से भी ज्यादा) तैयार होते हैं मगर सवाल है ये काम के कितने हैं? भारत सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम में जोर देने का मकसद यही है कि बडे़ पैमाने में प्रशिक्षित कामगार तैयार किए जाएं. यही वजह है कि सरकार अगले 10 सालों में 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित किए जाने का बेहद महत्त्वाकांक्षी खाका भी तैयार कर रही है. मगर असली सवाल यह है कि क्या व्यवहार में यह सब फलीभूत हो सकेगा? क्योंकि यहां भी जिस तरह से जानपहचान के लोग हुनरमंद बनाने का ठेका पा रहे हैं, उस से भी इस लक्ष्य पर शक है. ऐसी योजनाएं पहले भी बनती रही हैं और देश में प्रशिक्षणशालाओं का अच्छाखासा जाल भी है, खासकर आइटीआई जैसे संस्थानों का. वास्तव में समस्या तकनीकी संस्थानों की नहीं, बल्कि उन के द्वारा प्रशिक्षित किए गए लोगों की गुणवत्ता का है.

इसे यों भी कह सकते हैं कि असली समस्या बेईमानी की है. बेईमानी सिर्फ शिक्षकों या प्रशिक्षकों की ही नहीं, बेईमानी प्रशिक्षार्थियों या छात्रों की तरफ से भी बड़े पैमाने पर हो रही है. छात्र या प्रशिक्षार्थी पढ़ ही नहीं रहे. उन्हें अभी इस की महत्ता ही नहीं समझ में आ रही. उन्हें लगता है गंभीरता से पढ़नेखिने में लग गए तो जिंदगी का मजा ही क्या? पूर्व मानव संसाधन मंत्री जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि हमारे 20 फीसदी ग्रेजुएट भी नौकरी पाने के लायक नहीं होते. जबकि इनफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन नारायणमूर्ति ने तो इस के भी एक कदम आगे जा कर यहां तक कह डाला था कि आईआईटी से निकलने वाले भी सिर्फ15 प्रतिशत ग्रेजुएट ही नौकरी देने के लायक होते हैं.

अनिश्चितता व असुरक्षा

वास्तव में हमारे छात्रों और प्रशिक्षार्थियों में मेहनत व ईमानदारी का जज्बा ही नहीं है. निसंदेह इस सब में अकेले कुसूरवार वही भर नहीं हैं. समाज की साझी प्रवृत्ति, शिक्षकों की पढ़ाने को ले कर बरती जाने वाली बेईमानी, घरपरिवार का माहौल, समाज का साझा चरित्र और अनिश्चितता व असुरक्षा भी इस सब के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन वजहें कुछ भी हों, अब हमें इस सब से पार तो आना ही होगा. हमें तत्काल यह सुनिश्चित तो करना ही होगा कि नौकरी के इच्छुक लोग काम के लिए तैयार हों और वे कंपनियों के काम के भी हों यानी योग्य हों. इसलिए तमाम सैद्धांतिक खामियों को फिलहाल एकतरफ करते हुए सरकार की कोशिश है कि नौकरी करने के इच्छुक करोड़ों लोगों को तकनीकी प्रशिक्षण दे कर उन्हें हुनरमंद बनाया जाए. यही लोगों के हित में है और देश के हित में भी यही है.

यही कारण है कि पुरानी तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों को एकतरफ रखते हुए भारत सरकार ने अप्रशिक्षित लोगों को हुनर प्रदान करने के लिए बड़े पैमाने पर एक नया कार्यक्रम शुरू किया है. मौजूदा केंद्र सरकार का कहना है कि वह अगले 7 सालों में ऐसे में 40 करोड़ लोगों को हुनरमंद बनाएगी जो काम कर सकते हैं. यह प्रशिक्षण सफलतापूर्वक हासिल करने वाले लोगों को उन के हुनर और प्रशिक्षण के ब्योरे वाले स्किल कार्ड व सर्टिफिकेट दिए जाएंगे. इस से उम्मीद की जा रही है कि न केवल मौजूदा बेरोजगारों के लिए नौकरी पाने की गुंजाइश बढ़ेगी, बल्कि भारत में निर्माण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश करने के लिए विदेशी कंपनियां भी आकर्षित होंगी.

व्यावहारिक प्रशिक्षण का अभाव

भारत के लिए ऐसा करना तुरंत इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि कुशल श्रमिकों की दुनिया में हमारी बहुत ही दयनीय स्थिति है. अगर दुनिया से तुलना की जाए तो भारत में सिर्फ 23 फीसदी श्रमिक ही प्रशिक्षित हैं, जबकि अमेरिका में 52 फीसदी, जापान में 80 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी वर्कफोर्स प्रशिक्षित है. लेकिन भारत में नौकरी देने वालों के लिए सिर्फ यही एक समस्या भर नहीं है. असल में भारत में जो 23 फीसदी लोग कुशल श्रमिकों में गिने जाते हैं उन प्रशिक्षित लोगों में भी गुणवत्ता का बड़ा अभाव होता है. वास्तव में काम के लायक या कहें कि उन्हें व्यावहारिक कुशलता तो नौकरी पर लिए जाने के बाद फिर से प्रशिक्षण दिए जाने पर ही हासिल होती है क्योंकि उन्हें जहां प्रशिक्षण दिया गया होता है वहां उन साधनों का अभाव होता है जिन से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है.

हद तो यह है, किसी इंजीनियरिंग संस्थान से सिविल इंजीनियरिंग में फर्स्ट क्लास डिगरी पाने वाला इंजीनियर भी साइट पर काम के दौरान बगलें झांकता बुद्धू नजर आता है. 100 में 90 फीसदी मौकों में पाया जाता है कि उसे भवन निर्माण की एबीसीडी तक नहीं पता होती. दरअसल, इस की वजह उस का कम अक्ल का होना नहीं होता. इस की वजह यह होती है कि उसे प्रशिक्षण के दौरान कोई व्यावहारिक अनुभव ही नहीं मिला होता. वह सही मानो में कभी भवननिर्माण स्थल पर गया ही नहीं होता है क्योंकि उस के प्रशिक्षक कभी इस की जरूरत ही नहीं समझते. हिंदुस्तान में ज्यादातर कारीगर किसी का नुकसान कर के ही कुछ सीखते हैं. मसलन, प्लंबर को ही लीजिए. किसी तकनीकी संस्थान से प्लंबिंग का डिप्लोमा या सर्टिफिकेट हासिल किए कोई प्लंबर या तो किसी के घर का या किसी भवन निर्माण कंपनी का नल तोड़ कर ही काम सीखता है क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि वास्तव में शिकंजे को कसना कितना है.

हो सकता है उसे क्लासरूम में कभी यह सब पढ़ाया और बताया भी गया हो लेकिन पढ़ कर या सुन कर यह सब नहीं आता. यह सब व्यावहारिक रूप से करने पर ही आता है. यही वजह है कि वह इसे अनुभव लेने के दौरान एकदो बार तोड़ कर ही सीखता है. बिजली का मेकैनिक 2-4 फिटिंग्स बरबाद कर के ही सही फिटिंग करना सीखता है. वास्तव में यह अप्रशिक्षित कामगार होने से भी बुरी स्थिति होती है कि किसी प्रशिक्षित कामगार को काम न आए.

एक और बड़ी बात, ऐसे लोग काम देने वाले की कीमत पर तो काम सीखते ही हैं, कितना सीख पाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस के साथ काम करते हैं. अगर किसी कुशल कारीगर के पास पहुंच गए तब तो ठीक, वरना काम सीखने की यह स्थिति वर्षों बनी रहती है. बड़ी अकथ कहानी है इन नीमहकीम कामगारों की. बेरोजगारी और कुशल श्रमिकों की स्थिति से निबटने के लिए यों तो मोदी सरकार बहुत महत्त्वाकांक्षी योजना के साथ आगे बढ़ रही है लेकिन इस रास्ते में चुनौतियां कई हैं.

जरूरत हुनर की

अगर सरकार बड़ी संख्या में लोगों को हुनरमंद करने में कामयाब हो जाती है तो सब के लिए नौकरी पैदा करना भी एक मुद्दा होगा क्योंकि भारत में करीब 12 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. इस में चिंता का पहलू यह भी है कि आधी से ज्यादा आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इसलिए नौकरी चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले 10 सालों में जिस तरह की नौकरियों की मांग बढ़ी है उसे देखते हुए यह तय है कि भारत के सामने बड़ी चुनौती है. दरअसल, पिछले कुछ सालों से ही नहीं, बल्कि दशकों से देखा जा रहा है कि किन्हीं एकदो क्षेत्रों की तरफ ही हर कोई भागना चाहता है. 90 के दशक के उत्तरार्ध में हर कोई आईटी क्षेत्र में जाना चाहता था, हर कोई कंप्यूटर या ग्राफिक इंजीनियर ही बनना चाहता था. बाद में यह भेड़चाल एमबीए के लिए देखी गई.

सचाई यह है कि हर क्षेत्र में लोगों की मांग का एक आनुपातिक समीकरण होता है. कोई क्षेत्र कितना ही तेजी से विकास करे, वह पूरा समाज नहीं हो सकता. समाज में उस की एक स्थिति के बाद मांग घट जाएगी. लेकिन हमारे यहां भेड़चाल चलते हुए लोग यह सब कभी नहीं सोचते. वास्तव में हमारे यहां नौकरी के चयन में हमारी पसंद से ज्यादा हमारे सोशल स्टेटस का हाथ होता है. नौकरी वही चाहिए जिस से समाज में रुतबा बनता हो. रुचि का कोई मामला नहीं होता. मसलन, कानून क्षेत्र को ही लीजिए. आज की तारीख में यह ऐसा क्षेत्र है जहां रोजगार की बहुत स्मूथ स्थितियां नहीं हैं फिर भी लोग इस क्षेत्र में जाना चाहते हैं क्योंकि इस क्षेत्र की एक सामाजिक हैसियत और छवि है जो कि बेहद पौजिटिव है.

व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो हाल के सालों में सब से ज्यादा नौकरियां भवननिर्माण क्षेत्र में ही पैदा हुई हैं. लेकिन भवननिर्माण क्षेत्र के लिए जरूरी प्रशिक्षित व योग्य लोग नहीं मिलते. नतीजतन, प्रगति धीमी रही है. इसलिए देश के लिए चुनौती है कि वह विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियां पैदा करे, साथ ही साथ, विभिन्न क्षेत्रों में समान सामाजिक रुतबा भी पैदा करे.                  

महिलाओं से ज्यादा पुरुष हैं बेरोजगार

देश में बेरोजगारी की समस्या का एक लिंगभेदी पाठ भी है. वास्तव में तकरीबन 12 करोड़ बेरोजगार लोगों में से पुरुष बेरोजगारों की संख्या, महिला बेरोजगारों से बहुत मामूली ही सही, पर ज्यादा है. जहां कुल पुरुष बेरोजगारों की संख्या करीब 5 करोड़ 82 लाख है. वहीं महिला बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ 79 लाख के आसपास बैठती है. कहने का मतलब पुरुषों के मुकाबले 3 लाख कम महिलाएं बेरोजगार हैं. इस की एक वजह यह है कि हाल के सालों में रोजगार ढांचे का परिदृश्य थोड़ा बदला है. साथ ही, रोजगार की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा फ्रैंडली हुई है. इस में सिर्फ तकनीकी वजह ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इस के पीछे एक बड़ा कारण काम के प्रति महिलाओं का ज्यादा जिम्मेदार रवैया तथा चयन की कम चाह रखना भी है.

नौकरियों का हब बन सकता है भारत

भारत दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब बन पाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि भारत में उत्पादन की ख्वाहिशमंद कंपनियों के लिए कुशल कामगार कितनी सहजता से मिल सकते हैं. कोई भी कंपनी अपने साथ पूंजी ला सकती है, तकनीक ला सकती है, ऊपर के लैवल का एक सीमित अमला ला सकती है लेकिन श्रमिक नहीं ला सकती. फिर चाहे वे कुशल श्रमिक हों या अकुशल. श्रमिक तो उसे लोकल ही चाहिए होंगे, तभी वह सफल हो सकती है यानी मुनाफा हासिल कर सकने लायक उत्पादन कर सकती है. अपनेआप को हब में तबदील करने वाले देश को भी तभी कोई फायदा हो सकता है.

इस लिहाज से देखें तो खासकर उत्पादन के क्षेत्र में अब भारत का दांव सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर है. इसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना के तहत मोदी सरकार देश को दुनिया के मैन्यूफैक्चरिंग हब में बदलना चाहती है. मगर क्या कुशल श्रमिकों के अभाव में ऐसा संभव है? ऐसा कभी नहीं हो सकता. देश बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सके और हुनर आधारित नौकरियां दे सके, इस के लिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर लोगों को हुनर या कौशल का प्रशिक्षण दिया जाए. बिना ऐसे किए न तो हब बनने का सपना पूरा हो सकता है और न ही देश की बेरोजगारी को काबू किया जा सकता है. लेकिन हमें इस बात को भी याद रखना होगा कि यह सब सरकार नहीं कर सकती. इस में सब से अहम भागीदारी लोगों की व्यक्तिगत ईमानदारी और हासिल की गई कुशलता की होगी. तभी भारत उत्पादन का गढ़ बन सकता है.

मुसलिम और मोदी: कट्टरवाद बनाम उदारवाद

कद और पद के साथ जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं, शख्स का चिंतन भी बदलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  ने केरल के कोझीकोड में भाजपा की नैशनल काउंसलिग की मीटिंग में जब मुसलिम बिरादरी को ले कर अपनी नई सोच सामने रखी तो उन की पार्टी के ही कट्टरवादी नेताओं और दूसरे संगठनों में कसमसाहट दिखने लगी. दरअसल, नरेंद्र मोदी अपनी कट्टवादी ‘गुजरात छवि’ को बदल कर उदारवादी छवि पेश करना चाहते है. लेकिन यह दिखावा भर है, यह हर कोई जानता है क्योंकि नरेंद्र मोदी का रिकौर्ड कुछ और कहता है. वे चुनाव जीतने से पहले विषवमन करते रहे हैं.

जब भारत व पाकिस्तान के बीच संबंधों में युद्ध की तनातनी दिखने लगी. पूरे विश्व की नजरें इन दोनों देशों पर लगी थीं. पाकिस्तान अपनी सड़कों पर जेट फाइटर उड़ा कर युद्ध की चुनौती दे रहा था. उस समय नरेंद्र मोदी मुसलिमों के विकास और उन की शिक्षा की बात कर के कौन सी नई विचारधारा को पेश कर रहे हैं. यह उन के दिल की बात नहीं है, यह बहाना है.  

आज भारत में हर तरफ से इस बात का दबाव बढ़ रहा था कि पठानकोट व उरी के हमलों के लिए पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए.भारत में सभी लोग इस बात से बेहद खफा थे कि पाकिस्तान ने अपने आतंकी संगठनों का सहारा ले कर उरी में भारतीय सेना के जवानों को सोते समय मारा. इस के पहले विपक्ष में रहते हुए खुद नरेंद्र मोदी ने कड़ी कार्यवाही की वकालत तब की कांग्रेस सरकार से कर चुके थे. वर्तमान के गरम माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्वभाव के उलट संयम से काम लेते हुए पाकिस्तान से युद्ध के बजाय दूसरे दबाव बनाने की बात शुरू तो की पर संयुक्त राष्ट्रसंघ से ले कर सिंधु जल समझौता और समझौता ऐक्सप्रैस को ले कर समीक्षा करनी शुरू कर दी. यह कोई समन्वयवादी नीति नहीं है.

यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की बदहाली के मुद्दे को उठा कर वहां की जनता से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की उम्मीद जताई. अपने इस कदम से नरेंद्र मोदी ने केवल देश के अंदर लोगों को चौंकाया है कि कल का कट्टरपंथी आज शांतिप्रिय क्यों बन रहा है.  

इस का कारण देश की राजनीतिक पैंतरेबाजी है. भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद की जब बात करती है तो उस का धार्मिक एजेंडा साफ झलकने लगता है. वह राष्ट्र को कट्टर पौराणिकवादी मानती है. यही कारण है कि केवल मुसलिम ही नहीं, दलित भी, जो पुराणों के दमन के शिकार रहे हैं, इस एजेंडे के साथ खुद को जोड़ नहीं पाते हैं. लगता यही है कि राष्ट्रवाद की आड़ में कट्टरवादी तत्त्व ही धर्म का सहारा ले कर अपनी बात को सामने रखने की कोशिश में लगे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से भाजपा का धार्मिक एजेंडा हाशिए पर चला गया, ऐसा कहीं से सिद्ध नहीं होता.

नरेंद्र मोदी अगर अपने संगठनों के दबाव में आए बिना इसी तरह से अपनी छवि को बदलते रहे तो अपनी मुसलिम विरोधी छवि से छुटकारा पाने में तो सफल हो जाएंगे पर वे भाजपा की मुख्यधारा को तितरबितर कर देंगे. गोमांस और गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ समय से देश में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटीं जो भारत की सर्वधर्म छवि पर धब्बा थीं पर नरेंद्र मोदी इन पर आमतौर पर चुप रहे या देर से बोले, वह भी तब, जब नुकसान हो चुका था. 

गोरक्षा से पहले राष्ट्रवाद और तिरंगा यात्रा के तहत भाजपा ने अपने संकीर्ण एजेंडे को लागू करने का प्रयास किया था. इन मुद्दों को तीखा बनाने के लिए जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटी घटनाओं को पूरे देश ने देखा था. शुरुआत में भाजपा और उस से जुडे़ संगठनों को लगा कि इन मुददों से वे अपने छोटे वोटबैंक को खुश रख सकेंगे. वे यह न भूलें कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में न केवल भाजपा बल्कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार कमजोर हुई है. लोकसभा चुनावों के बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों के पैमाने पर यह बात परखी जा सकती है.

आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा के चुनाव होने हैं. भाजपा को अपनी गिरती लोकप्रियता से डर लग रहा है. इन राज्यों में भाजपा को चुनावी प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है. ऐसे में भाजपा को अपनी नीतियों में बदलाव की जरूरत महसूस हो रही है पर असल में कितना बदलाव आएगा, इस में संदेह है. 

मोदी का मुसलिम प्रेम 

छुआछूत के मुददे पर दलित अलगथलग पड़ते थे तो राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलिम. अब भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह समझ आ रहा है कि बिना दलितों और मुसलिमों को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. अब वे दलितों और मुसलिमों को ले कर नई सोच बना रहे हैं. परेशानी की बात यह है कि उन की बात खुद उन की पार्टी और उस से जुडे़ संगठनों को समझ में आएगी भी कि नहीं.

पाकिस्तान के साथ गरम माहौल के बीच केरल के कोझीकोड में मोदी ने कहा, ‘‘मुसलिमों को अपना समझें. उन को वोटबैंक का माल नहीं समझा जाना चाहिए.’’ यह कहना तो असंभव है पर गलीगली फैले भगवाई दुपट्टा ओढ़े कार्यकर्ताओं को समझाना असंभव है. यह समाज हारना, गुलामी सहना स्वीकार करता है पर अपने धार्मिक, सामाजिक नियमों को नहीं बदलता. नरेंद्र मोदी नई सोच के मसीहा तो हैं नहीं. 

प्रधानमंत्री मोदी ने जनसंघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के कथन को सामने रखते कहा, ‘‘मुसलमानों को न पुरस्कृत किया जाए और न फटकारा जाए, बल्कि उन्हें अपने पांव पर खड़ा कर के मजबूत बनाया जाए. उन्हें अपना समझा जाए, न कि वोटबैंक की वस्तु या फिर नफरत का सामान.’’

प्रधानमंत्री मोदी यहीं नहीं रुकते हैं, आगे कहते हैं, ‘‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने मुसलमानों को करीब आने और उन की तरक्की के लिए यह मंत्र 50 साल पहले दिया था. कुछ लोगों ने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा को समझने में गलती की. कुछ जानबूझ कर अब भी ऐसा कर रहे है.’’ मोदी केवल अपनी बात ही नहीं कर रहे, वे अपनी पार्टी भाजपा और जनसंघ को भी मुसलिमों का समर्थक बता रहे हैं.

यह सच है कि हर विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में फर्क होता है. भाजपा यदि ऐसा सोचेगी तो उस की पूछ जीरो हो जाएगी. ऊंची सवर्ण जातियां केवल अपना हित देखती हैं. न उन्हें देश की चिंता होती है, न समाज की. उन के लिए पूजापाठ और मंदिरमठ मुख्य हैं.

कट्टरता से निकलने की बेचैनी

असल में नरेंद्र मोदी का मुसलिम और दलित प्रेम केवल दिखावटी है. गोरक्षा के नाम पर पहले मुसलिमों और बाद में दलितों के साथ भेदभाव भरा व्यवहार किया गया. इस में राष्ट्रवादी कहे जाने वाले संगठनों का बहुत बड़ा हाथ था. गोमांस के नाम पर कई हिंसककांड हुए जिन में भाजपा नेतृत्व ने चुप्पी साध ली थी. जब ये मसले आगे बढे़ तो प्रधानमंत्री ने 80 फीसदी गोरक्षा संगठनों को फर्जी बता दिया और 20 प्रतिशत को जिम्मेदार ठहरा कर खुद को स्वयं दोषमुक्त कर डाला. दलितों के साथ मुसलिमों की बारी आई. पाकिस्तान के साथ तनावभरे माहौल में भाजपा पर नैतिक दबाव आने लगा. उस पर मुसलिम विरोध का पुराना लैवल लगा है. ऐसे में माहौल को हलका करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपना नया मुसलिम प्रेमराग छेड़ दिया है. भाजपा ही नहीं, नरेंद्र मोदी की राजनीति की धुरी सदा ही मुसलिमविरोधी रही है. गुजरात दंगों से बनी इस छवि को तोड़ कर मोदी अब अपनी नई छवि गढ़ना चाहते हैं पर अब देर हो चुकी है.

भाजपा की राजनीति का तो केंद्रबिंदु ही मुसलिम विरोध रहा है. देश में मंदिरमसजिद विवाद के पहले हिंदू व मुसलिम एकसाथ गंगाजमुनी सभ्यता के साथ रहते थे. अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद देश में सांप्रदायिक माहौल खराब हुआ.

मुंबई का बम विस्फोट ऐसी पहली बड़ी घटना थी जिस ने इस दूरी को आतंकवाद से जोड़ दिया. इस के बाद देश में होने वाली आतंकी घटनाएं

बढ़ने लगीं. देशविरोधी ताकतों को मजहबी दूरी बढ़ाने में मदद मिली. वे इस दूरी के बहाने देश को आतंकवाद के मुहाने पर ले आए. इस देश के अधिकांश मुसलमान इसी देश के दलित, अछूत, पिछड़े हैं जिन्होंने लालच में या गुस्से में इसलाम कुबूल किया है. वृहद भारत के 50 करोड़ मुसलमान मक्का व मदीना से नहीं आए हैं. उन के पुरखे यहीं गंगा, जमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र और कावेरी के किनारों पर रहते थे.

बाधा बनेंगे फायरब्रांड नेता

भाजपा वोट के ध्रुवीकरण का आरोप कांग्रेस और दूसरे दलों पर लगाती है. सच यह है कि खुद भाजपा कांग्रेस और दूसरे दलों की तरह ही वोटबैंक की परिपाटी पर चलती रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में पाकिस्तान व भारत के संबंधों को प्रचार के रूप में प्रयोग किया गया और कांग्रेस पर पाकिस्तान समर्थक होने के आरोप लगे.

सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक के बाद एक इस बात का आभास होने लगा है कि देश की एकता और अख्ांडता के लिए दलित और मुसलिम भी बेहद जरूरी हैं. इन को साथ ले कर चले बिना देश का विकास संभव नहीं है. मुश्किल बात यह है कि यह सच प्रधानमंत्री तो समझ गए पर उन से जुडे़ सैकड़ों फायरब्रांड छुटभैए वक्ता यह बात समझें, तो बात बने.

भाजपा में कई नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए कट्टरता का सहारा ले कर घोर सांप्रदायिक बयान देते हैं ताकि उन को हिंदुत्व की धुरी माना जाए. ये लोग अपने बयानों से भारत व पाकिस्तान के बीच युद्व का माहौल बनाने का भी काम करते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से ऐसे नेताओं में बेचैनी बढ़ेगी. भारत-पाक संबंधों पर नरेंद्र मोदी ने संयम से काम लिया है. पर यह कूटनीति है या कुछ न कर पाने की अक्षमता, कहा नहीं जा सकता. भड़काने का काम केवल पाकिस्तान नहीं कर रहा, भाजपा के कुछ नेता भी कर सकते हैं. ऐसे नेताओं पर काबू पाना होगा. भड़काऊ बयान अब लाभ के बजाय नुकसान भी देने लगे हैं. बिहार चुनाव में इस को देखा जा चुका है.   

आड़े आती गुजरात छवि

नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि आज उन्हें अपनी छवि को उदारवादी बनाने की राह में सब से बड़ा रोड़ा महसूस हो रही है. गुजरात में ‘गोधरा कांड’ और ‘इशरत जहां एनकाउंटर’ के बाद से उन की छवि मुसलिम विरोधी बन गई. उस समय पूरे विश्व के मीडिया ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश किया. हालात यहां तक हो गए कि नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा के लिए वीजा का आवेदन करना विवादों में आ गया था. भारत में राजनीतिक लाभ के लिए कोई नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि को अपने लिए लाभकारी समझता था तो कोई उन की इस छवि का लाभ लेने की फिक्र में था. खुद नरेंद्र मोदी अपनी मुसलिम विरोधी छवि को बनाने में ही खुश थे. चुनावी सभाओं में कई बार ऐसे मौके भी आए जब उन्होंने मंच पर ही मुसलिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने अपनी हिंदूवादी छवि को बनाए रखा. लोकसभा चुनाव में भारत और पाकिस्तान संबंधों में उस समय के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की आलोचना एक मुद्दा बन गई. उस समय प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी ने ‘एक के बदले 10 सिर काटने’ और ‘56 इंच का सीना’ होने वाले तमाम जुमले भी कहे थे. लोकसभा चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने अपनी छवि को बदलने का प्रयास किया. उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंधों को मधुर बनाने के लिए वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. ये कदम पाकिस्तान के कट्टरपंथी लोगों को रास नहीं आ रहे थे. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ने लगे और आज हालात युद्ध के मुहाने पर पहुंच गए. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपनी छवि को बदलते हुए सुलह और विकास की नीति को आगे बढ़ाया वह दोनों देशों में कट्टरवादी लोगों को रास नहीं आ रही.

मेरे पति को नौकरी से निकाल दिया गया. अब समस्या यह है कि उन्हें अपनी पोजीशन और योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा.

सवाल

मैं 30 वर्षीय विवाहिता व किशोरवय बेटे की मां हूं. आजकल मैं अपनी एक पारिवारिक समस्या से बेहद परेशान हूं. मैं सरकारी स्कूल में अध्यापिका हूं, जबकि पति आजकल बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं. वे जिस प्राइवेट कंपनी में काम करते थे वहां से अचानक उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. कहा गया कि कंपनी आर्थिक मंदी से जूझ रही है. अब समस्या यह है कि उन्हें अपनी पोजीशन और योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा. वे पहली कंपनी में जितनी तनख्वाह पाते थे उतनी ही तनख्वाह पर काम करना चाहते हैं. उन्हें खाली बैठे 2 महीने हो गए हैं.

मैं उन से कहती हूं कि तनख्वाह कुछ कम भी मिलती है तो कोई बात नहीं. नौकरी जौइन कर लें. पर वे मानते ही नहीं. कहते हैं लोग आगे बढ़ना चाहते हैं और मैं पीछे जाऊं? उन्हें कैसे समझाऊं?

जवाब

आप अपने पति को इस बात के लिए राजी करें कि यदि उन्हें मनमाफिक काम मिलता है, कंपनी अच्छी है, तो तनख्वाह को ज्यादा तवज्जो नहीं देनी चाहिए.

मेहनत करेंगे तो आगे बढ़ने का अवसर भी मिलेगा. नौकरी करते हुए इस से बेहतर नौकरी के लिए प्रयास कर सकते हैं. पर निरंतर कुछ समय और खाली बैठे रहे तो जहां उन का आत्मविश्वास कम होगा, वहीं बेहतर नौकरी मिलना और दूभर हो जाएगा.

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