20 से 25 साल का हर चौथा हिंदुस्तानी युवा बेरोजगार है. यह एक ऐसा खौफनाक आंकड़ा है जिस में स्वत: तमाम दूसरे डराने वाले आंकड़े आ मिलते हैं. जनगणना रिपोर्ट से हासिल इस आंकड़े के मुताबिक, देश में मौजूद कुल कार्यशक्ति में से 12 करोड़ लोग या 24 करोड़ हाथों के पास करने के लिए कोई रोजगार नहीं है. ये लोग या तो अपने परिवार के दूसरे कमाऊ लोगों पर निर्भर हैं या ऐसे रोजगार में जबरदस्ती लगे हुए हैं जहां वाजिब मेहनताना नहीं मिलता.

आमतौर पर कार्यपालिका के नीतिगत मामलों में कोई हस्तक्षेप न करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने देश में बेरोजगारी की भयावह हो रही समस्या से सही ढंग से न निबट पाने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई है. यही नहीं, देश की सर्वोच्च अदालत ने बेरोजगारी की गहराती समस्या के बीच केंद्र सरकार को याद दिलाया है कि जीविका का अधिकार, जीवन के मूलभूत अधिकार में अंतर्निहित है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी यह राय दक्षिण मध्य रेलवे कैटरर्स एसोसिएशन की अपील पर पिछले दिनों व्यक्त की थी, जिस के ठेके को सरकार ने रद्द कर दिया था.

लेकिन सवाल सिर्फ बेरोजगारी का नहीं है. वास्तव में बड़ी समस्या यह है कि हिंदुस्तान एकसाथ कई तरह की हकीकतों का विरोधाभासी हब बन चुका है. एक तरफ कहा जा रहा है कि हम दुनिया के सब से युवा देश हैं और भविष्य की मानव संसाधन संबंधी तमाम वैश्विक जरूरतों को हम ही पूरा करेंगे. दूसरी तरफ, वर्तमान में हम ही योग्य और कल्पनाशील तकनीशियनों का अभाव झेल रहे हैं. एक तरफ बेरोजगारी हमारी सब से बड़ी समस्या है तो दूसरी तरफ भारत के कौर्पोरेट जगत को 12-14 लाख योग्य कर्मचारियों की अविलंब जरूरत है और लोग हैं कि ढूंढ़े नहीं मिल रहे. जिस तरह देश का हर अच्छा शैक्षणिक संस्थान योग्य फैकल्टी का अभाव झेल रहा है उसी तरह देश की अच्छी कंपनियां योग्य कर्मचारियों की कमी का शिकार हैं. कुशल कर्मचारियों की बैंच स्ट्रैंथ तो शायद ही किसी कंपनी के पास हो.

यह अकारण नहीं है कि देश की वे तमाम आईटी कंपनियां जो विदेशों में काम कर रही हैं, इन दिनों अपने लिए तमाम कर्मचारियों का चयन भी विदेशों में ही कर रही हैं जबकि यह स्थिति उन के लिए कतई लाभदायक नहीं है, न ही वे इस की इच्छुक हैं. मगर क्या करें, मजबूरी है. देश में योग्य युवा मिल ही नहीं रहे. संक्षेप में कहा जाए तो देश में बेरोजगारी के साथसाथ हुनर का भी हाहाकार है. देश में हुनरमंद लोगों की भारी किल्लत है. राजनीतिक दल, सरकारें और विशेषज्ञ सब के सब सिद्धांतत: एक ही बात कर रहे हैं कि देश में सब से बड़ी चुनौती युवा आबादी के लिए नौकरियां पैदा करना है.

बेरोजगारी का परिदृश्य

हद तो यह है कि देश में बेराजगारी बिलकुल नए किस्म के सच निर्मित कर रही है. मसलन, इस समय एक यह विचित्र सच भी उभर कर सामने आ रहा है कि जो वर्ग जितना ज्यादा पढ़ालिखा है उस वर्ग में बेरोजगारी की उतनी ही बड़ी समस्या है. देश में यह आमधारणा है कि कोई तकनीकी कोर्स कर लिया जाए तो कोई न कोई काम मिल ही जाता है. मगर, बेरोजगारी का परिदृश्य इस के उलट आंकड़े पेश करता है. आंकड़े बताते हैं कि कुल पढ़ेलिखे बेरोजगारों में से 16.9 प्रतिशत ऐसे युवा बेरोजगार तकनीकी डिगरी या डिप्लोमाधारी ही हैं. जबकि मैट्रिकुलेशन या सैकंडरी तक की पढ़ाई करने वाले 14.5 प्रतिशत युवा ही बेरोजगार हैं. इस का साफ मतलब है कि हमारे यहां तमाम पढ़ेलिखे किसी काम के नहीं हैं.

हमारे यहां के तमाम पढ़ेलिखे लोग वाकई हुनर के मामले में शून्य हैं. संख्या के हिसाब से तो हर साल हमारे यहां लगभग 27 लाख ग्रेजुएट (अब चीन से भी ज्यादा) तैयार होते हैं मगर सवाल है ये काम के कितने हैं? भारत सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम में जोर देने का मकसद यही है कि बडे़ पैमाने में प्रशिक्षित कामगार तैयार किए जाएं. यही वजह है कि सरकार अगले 10 सालों में 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित किए जाने का बेहद महत्त्वाकांक्षी खाका भी तैयार कर रही है. मगर असली सवाल यह है कि क्या व्यवहार में यह सब फलीभूत हो सकेगा? क्योंकि यहां भी जिस तरह से जानपहचान के लोग हुनरमंद बनाने का ठेका पा रहे हैं, उस से भी इस लक्ष्य पर शक है. ऐसी योजनाएं पहले भी बनती रही हैं और देश में प्रशिक्षणशालाओं का अच्छाखासा जाल भी है, खासकर आइटीआई जैसे संस्थानों का. वास्तव में समस्या तकनीकी संस्थानों की नहीं, बल्कि उन के द्वारा प्रशिक्षित किए गए लोगों की गुणवत्ता का है.

इसे यों भी कह सकते हैं कि असली समस्या बेईमानी की है. बेईमानी सिर्फ शिक्षकों या प्रशिक्षकों की ही नहीं, बेईमानी प्रशिक्षार्थियों या छात्रों की तरफ से भी बड़े पैमाने पर हो रही है. छात्र या प्रशिक्षार्थी पढ़ ही नहीं रहे. उन्हें अभी इस की महत्ता ही नहीं समझ में आ रही. उन्हें लगता है गंभीरता से पढ़नेखिने में लग गए तो जिंदगी का मजा ही क्या? पूर्व मानव संसाधन मंत्री जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि हमारे 20 फीसदी ग्रेजुएट भी नौकरी पाने के लायक नहीं होते. जबकि इनफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन नारायणमूर्ति ने तो इस के भी एक कदम आगे जा कर यहां तक कह डाला था कि आईआईटी से निकलने वाले भी सिर्फ15 प्रतिशत ग्रेजुएट ही नौकरी देने के लायक होते हैं.

अनिश्चितता व असुरक्षा

वास्तव में हमारे छात्रों और प्रशिक्षार्थियों में मेहनत व ईमानदारी का जज्बा ही नहीं है. निसंदेह इस सब में अकेले कुसूरवार वही भर नहीं हैं. समाज की साझी प्रवृत्ति, शिक्षकों की पढ़ाने को ले कर बरती जाने वाली बेईमानी, घरपरिवार का माहौल, समाज का साझा चरित्र और अनिश्चितता व असुरक्षा भी इस सब के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन वजहें कुछ भी हों, अब हमें इस सब से पार तो आना ही होगा. हमें तत्काल यह सुनिश्चित तो करना ही होगा कि नौकरी के इच्छुक लोग काम के लिए तैयार हों और वे कंपनियों के काम के भी हों यानी योग्य हों. इसलिए तमाम सैद्धांतिक खामियों को फिलहाल एकतरफ करते हुए सरकार की कोशिश है कि नौकरी करने के इच्छुक करोड़ों लोगों को तकनीकी प्रशिक्षण दे कर उन्हें हुनरमंद बनाया जाए. यही लोगों के हित में है और देश के हित में भी यही है.

यही कारण है कि पुरानी तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों को एकतरफ रखते हुए भारत सरकार ने अप्रशिक्षित लोगों को हुनर प्रदान करने के लिए बड़े पैमाने पर एक नया कार्यक्रम शुरू किया है. मौजूदा केंद्र सरकार का कहना है कि वह अगले 7 सालों में ऐसे में 40 करोड़ लोगों को हुनरमंद बनाएगी जो काम कर सकते हैं. यह प्रशिक्षण सफलतापूर्वक हासिल करने वाले लोगों को उन के हुनर और प्रशिक्षण के ब्योरे वाले स्किल कार्ड व सर्टिफिकेट दिए जाएंगे. इस से उम्मीद की जा रही है कि न केवल मौजूदा बेरोजगारों के लिए नौकरी पाने की गुंजाइश बढ़ेगी, बल्कि भारत में निर्माण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश करने के लिए विदेशी कंपनियां भी आकर्षित होंगी.

व्यावहारिक प्रशिक्षण का अभाव

भारत के लिए ऐसा करना तुरंत इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि कुशल श्रमिकों की दुनिया में हमारी बहुत ही दयनीय स्थिति है. अगर दुनिया से तुलना की जाए तो भारत में सिर्फ 23 फीसदी श्रमिक ही प्रशिक्षित हैं, जबकि अमेरिका में 52 फीसदी, जापान में 80 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी वर्कफोर्स प्रशिक्षित है. लेकिन भारत में नौकरी देने वालों के लिए सिर्फ यही एक समस्या भर नहीं है. असल में भारत में जो 23 फीसदी लोग कुशल श्रमिकों में गिने जाते हैं उन प्रशिक्षित लोगों में भी गुणवत्ता का बड़ा अभाव होता है. वास्तव में काम के लायक या कहें कि उन्हें व्यावहारिक कुशलता तो नौकरी पर लिए जाने के बाद फिर से प्रशिक्षण दिए जाने पर ही हासिल होती है क्योंकि उन्हें जहां प्रशिक्षण दिया गया होता है वहां उन साधनों का अभाव होता है जिन से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है.

हद तो यह है, किसी इंजीनियरिंग संस्थान से सिविल इंजीनियरिंग में फर्स्ट क्लास डिगरी पाने वाला इंजीनियर भी साइट पर काम के दौरान बगलें झांकता बुद्धू नजर आता है. 100 में 90 फीसदी मौकों में पाया जाता है कि उसे भवन निर्माण की एबीसीडी तक नहीं पता होती. दरअसल, इस की वजह उस का कम अक्ल का होना नहीं होता. इस की वजह यह होती है कि उसे प्रशिक्षण के दौरान कोई व्यावहारिक अनुभव ही नहीं मिला होता. वह सही मानो में कभी भवननिर्माण स्थल पर गया ही नहीं होता है क्योंकि उस के प्रशिक्षक कभी इस की जरूरत ही नहीं समझते. हिंदुस्तान में ज्यादातर कारीगर किसी का नुकसान कर के ही कुछ सीखते हैं. मसलन, प्लंबर को ही लीजिए. किसी तकनीकी संस्थान से प्लंबिंग का डिप्लोमा या सर्टिफिकेट हासिल किए कोई प्लंबर या तो किसी के घर का या किसी भवन निर्माण कंपनी का नल तोड़ कर ही काम सीखता है क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि वास्तव में शिकंजे को कसना कितना है.

हो सकता है उसे क्लासरूम में कभी यह सब पढ़ाया और बताया भी गया हो लेकिन पढ़ कर या सुन कर यह सब नहीं आता. यह सब व्यावहारिक रूप से करने पर ही आता है. यही वजह है कि वह इसे अनुभव लेने के दौरान एकदो बार तोड़ कर ही सीखता है. बिजली का मेकैनिक 2-4 फिटिंग्स बरबाद कर के ही सही फिटिंग करना सीखता है. वास्तव में यह अप्रशिक्षित कामगार होने से भी बुरी स्थिति होती है कि किसी प्रशिक्षित कामगार को काम न आए.

एक और बड़ी बात, ऐसे लोग काम देने वाले की कीमत पर तो काम सीखते ही हैं, कितना सीख पाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस के साथ काम करते हैं. अगर किसी कुशल कारीगर के पास पहुंच गए तब तो ठीक, वरना काम सीखने की यह स्थिति वर्षों बनी रहती है. बड़ी अकथ कहानी है इन नीमहकीम कामगारों की. बेरोजगारी और कुशल श्रमिकों की स्थिति से निबटने के लिए यों तो मोदी सरकार बहुत महत्त्वाकांक्षी योजना के साथ आगे बढ़ रही है लेकिन इस रास्ते में चुनौतियां कई हैं.

जरूरत हुनर की

अगर सरकार बड़ी संख्या में लोगों को हुनरमंद करने में कामयाब हो जाती है तो सब के लिए नौकरी पैदा करना भी एक मुद्दा होगा क्योंकि भारत में करीब 12 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. इस में चिंता का पहलू यह भी है कि आधी से ज्यादा आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इसलिए नौकरी चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले 10 सालों में जिस तरह की नौकरियों की मांग बढ़ी है उसे देखते हुए यह तय है कि भारत के सामने बड़ी चुनौती है. दरअसल, पिछले कुछ सालों से ही नहीं, बल्कि दशकों से देखा जा रहा है कि किन्हीं एकदो क्षेत्रों की तरफ ही हर कोई भागना चाहता है. 90 के दशक के उत्तरार्ध में हर कोई आईटी क्षेत्र में जाना चाहता था, हर कोई कंप्यूटर या ग्राफिक इंजीनियर ही बनना चाहता था. बाद में यह भेड़चाल एमबीए के लिए देखी गई.

सचाई यह है कि हर क्षेत्र में लोगों की मांग का एक आनुपातिक समीकरण होता है. कोई क्षेत्र कितना ही तेजी से विकास करे, वह पूरा समाज नहीं हो सकता. समाज में उस की एक स्थिति के बाद मांग घट जाएगी. लेकिन हमारे यहां भेड़चाल चलते हुए लोग यह सब कभी नहीं सोचते. वास्तव में हमारे यहां नौकरी के चयन में हमारी पसंद से ज्यादा हमारे सोशल स्टेटस का हाथ होता है. नौकरी वही चाहिए जिस से समाज में रुतबा बनता हो. रुचि का कोई मामला नहीं होता. मसलन, कानून क्षेत्र को ही लीजिए. आज की तारीख में यह ऐसा क्षेत्र है जहां रोजगार की बहुत स्मूथ स्थितियां नहीं हैं फिर भी लोग इस क्षेत्र में जाना चाहते हैं क्योंकि इस क्षेत्र की एक सामाजिक हैसियत और छवि है जो कि बेहद पौजिटिव है.

व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो हाल के सालों में सब से ज्यादा नौकरियां भवननिर्माण क्षेत्र में ही पैदा हुई हैं. लेकिन भवननिर्माण क्षेत्र के लिए जरूरी प्रशिक्षित व योग्य लोग नहीं मिलते. नतीजतन, प्रगति धीमी रही है. इसलिए देश के लिए चुनौती है कि वह विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियां पैदा करे, साथ ही साथ, विभिन्न क्षेत्रों में समान सामाजिक रुतबा भी पैदा करे.                  

महिलाओं से ज्यादा पुरुष हैं बेरोजगार

देश में बेरोजगारी की समस्या का एक लिंगभेदी पाठ भी है. वास्तव में तकरीबन 12 करोड़ बेरोजगार लोगों में से पुरुष बेरोजगारों की संख्या, महिला बेरोजगारों से बहुत मामूली ही सही, पर ज्यादा है. जहां कुल पुरुष बेरोजगारों की संख्या करीब 5 करोड़ 82 लाख है. वहीं महिला बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ 79 लाख के आसपास बैठती है. कहने का मतलब पुरुषों के मुकाबले 3 लाख कम महिलाएं बेरोजगार हैं. इस की एक वजह यह है कि हाल के सालों में रोजगार ढांचे का परिदृश्य थोड़ा बदला है. साथ ही, रोजगार की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा फ्रैंडली हुई है. इस में सिर्फ तकनीकी वजह ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इस के पीछे एक बड़ा कारण काम के प्रति महिलाओं का ज्यादा जिम्मेदार रवैया तथा चयन की कम चाह रखना भी है.

नौकरियों का हब बन सकता है भारत

भारत दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब बन पाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि भारत में उत्पादन की ख्वाहिशमंद कंपनियों के लिए कुशल कामगार कितनी सहजता से मिल सकते हैं. कोई भी कंपनी अपने साथ पूंजी ला सकती है, तकनीक ला सकती है, ऊपर के लैवल का एक सीमित अमला ला सकती है लेकिन श्रमिक नहीं ला सकती. फिर चाहे वे कुशल श्रमिक हों या अकुशल. श्रमिक तो उसे लोकल ही चाहिए होंगे, तभी वह सफल हो सकती है यानी मुनाफा हासिल कर सकने लायक उत्पादन कर सकती है. अपनेआप को हब में तबदील करने वाले देश को भी तभी कोई फायदा हो सकता है.

इस लिहाज से देखें तो खासकर उत्पादन के क्षेत्र में अब भारत का दांव सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर है. इसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना के तहत मोदी सरकार देश को दुनिया के मैन्यूफैक्चरिंग हब में बदलना चाहती है. मगर क्या कुशल श्रमिकों के अभाव में ऐसा संभव है? ऐसा कभी नहीं हो सकता. देश बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सके और हुनर आधारित नौकरियां दे सके, इस के लिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर लोगों को हुनर या कौशल का प्रशिक्षण दिया जाए. बिना ऐसे किए न तो हब बनने का सपना पूरा हो सकता है और न ही देश की बेरोजगारी को काबू किया जा सकता है. लेकिन हमें इस बात को भी याद रखना होगा कि यह सब सरकार नहीं कर सकती. इस में सब से अहम भागीदारी लोगों की व्यक्तिगत ईमानदारी और हासिल की गई कुशलता की होगी. तभी भारत उत्पादन का गढ़ बन सकता है.

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