फिल्म ‘बौबी’ के एक मशहूर गाने की एक पंक्ति है, ‘मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो…’ जवाब में हीरो गाता है, ‘तू मायके चली जाएगी मैं दूजा ब्याह रचाऊंगा…’ और इस एक पंक्ति से वह हीरोइन को डराने में फौरन सफल हो जाता है. वहीं, दूसरी ओर, ‘मेरी बीवी की शादी’ फिल्म का गाना, ‘राम दुलारी मायके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई…’ में मायके गई पत्नी के बेचारे पति की दुर्दशा का सच्चा वर्णन है.

हम सभी ऐसे कितने ही चुटकुलों पर हंसे हैं जिन में मायके गई पत्नी के पति की खुशी का जिक्र होता है मानो यही वह एक समय होता है जब पति अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी पाता है लेकिन यह भी एक बहुत बड़ा सत्य है कि यह मौका तभी एक उत्सव की तरह मनाया जा सकता है जब पत्नी खुशी से मायके गई हो और उस की वापसी निश्चित हो. किंतु तब क्या हो जब पत्नी मायके जाने को अपना अधिकार बना ले? मायके जाने की धमकी दे कर पति को अपनी बात मनवाने पर मजबूर करती रहे?

4 जून, 2016 को मुंबई उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला आया है. मामले में न्यायालय की नागपुर बैंच के वी ए नाइक तथा ए एम बदर ने निर्णय दिया कि बिना किसी ठोस कारण केपत्नी ने अपने पति को छोड़ कर 7-8 वर्ष अपने मायके में व्यतीत किए, इस को न्यायालय ने क्रूरता का स्थान दिया और इसीलिए उन की तलाक की अर्जी स्वीकार की.

दरअसल 13 दिसंबर, 2006 को विवाह हुआ और 5 मार्च, 2007 को पत्नी हमेशा के लिए अपने मायके चली गई. शादी के इन 3 महीनों में पत्नी ने पति से उस के मातापिता से अलग घर बनाने की मांग की और इसी जिद को मनवाने हेतु अपने मायके जा कर रहने लगी. जब पत्नी

नहीं मानी तो अगले वर्ष पति ने तलाक की अर्जी डाली, किंतु कोर्ट का निर्णय आतेआते कई वर्ष लग गए.

न्यायालय से तलाक का निर्णय आने में कई वर्षों का समय लगना आम बात है. न्यायालयों से समन, पारिवारिक न्यायालयों द्वारा मध्यस्थता, लिखित बयान, आपत्ति आदि में 2-3 वर्ष का समय लग जाता है. अगले 1-2 वर्ष हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा अंतरिम रखरखाव के निर्णय में, फिर जा कर तथ्यों की सुनवाई होनी प्रारंभ होती है. पारिवारिक न्यायालयों द्वारा यह स्वीकारा गया है कि उच्च न्यायालय लंबे समय से लंबित मामलों के बारे में जांचपड़ताल करते हैं. अर्थात तलाक के मामलों में शीघ्रता से कार्यवाही तलाक की अर्जी डालने के करीब 5 वर्ष बाद ही हो पाती है.

कानून का दुरुपयोग

इस केस में हुए निर्णय से एक बात स्पष्ट है कि पत्नी के मायके जाने में केवल पत्नी को बेचारगी के पलड़े में नहीं रखा जा सकता है. हो सकता है कि नाजायज मांग और उसे मनवाने की जिद के कारण वह मायके जा बैठी हो और ऐसी स्थिति में बेचारा केवल पति होता है जो बिना किसी दोष के सजा भुगतता है. इस में कोई दोराय नहीं है कि भारतीय कानून पत्नियों के प्रति अतिनरम हो गया है. धारा 498ए का कितना गलत उपयोग कर पत्नियां अपने पतियों को बेवजह सताती हैं. जिस ने भी फिल्म ‘दावत-ए-इश्क’ देखी होगी वह इस कानून और इस के दुरुपयोग को भलीभांति समझ सकेगा. दहेज के झूठे इलजाम में फंसा कर पत्नी पति और उस के पूरे परिवार को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है क्योंकि इस केस में जमानत नहीं मिलती है. यह बात पति भी जानते हैं, इसलिए डरते हैं. और पत्नियां भी जानती हैं, इसलिए मनमानी कर सकती हैं.

सुमित की दिल्ली के सरोजिनीनगर मार्केट में साडि़यों की दुकान है. उस की पत्नी को खरीदारी का बेहद शौक था. अपने इस शौक को पूरा करने में वह इस बात का ध्यान भी नहीं रखती थी कि इस बार आमदनी कितनी हुई है. बस, इसी बात को ले कर अकसर झगड़े होने लगे. पत्नी ने मायके को अपना युद्धक्षेत्र बना लिया. मातापिता की वह इकलौती संतान थी सो, उसे पूरा सहयोग मिला. मायके में रहते हुए उस ने सुमित पर खूब जोर डाला. किंतु जब यह तरीका आम होने लगा तब सुमित भी अड़ने लगा. पत्नी ने धारा 498ए के तहत अदालत का दरवाजा खटखटा दिया. नतीजतन, सुमित को उस के मातापिता सहित जेल जाना पड़ा. समाज में बदनामी हुई, सो अलग. दुकान के काम पर भी इस का काफी असर पड़ा.

भारतीय दंड संहिता के तहत यदि पत्नी व्यभिचार के आरोप में पकड़ी जाए तो भी सजा उसे नहीं, केवल उस के प्रेमी को होगी. ऐसे में कोई तेजतर्रार औरत इन कानूनी दांवपेंचों का गलत इस्तेमाल कितनी आसानी से कर सकती है, यह सोचना कठिन नहीं.

करतूत पत्नी की, सजा पति को

मीना  का पति अकसर टूर पर रहता था. उस दौरान वह अपने मायके आ- जाया करती थी. अपने फ्लर्ट स्वभाव के चलते उस ने पड़ोस में एक आशिक बना लिया. एक बार किसी रिश्तेदार ने उन्हें मार्केट में  रंगेहाथों पकड़ लिया. बस, उस ने फौरन बोरियाबिस्तर बांध कर मायके का रुख कर लिया. सारी समस्या वहीं से शुरू हुई, केस कोर्ट पहुंचा. पति तलाक पर आमादा था. किंतु सजा किसी को नहीं हुई. पति का पैसा कोर्टवकीलों के चक्कर

में पानी की तरह बहता रहा. इस बीच न्यायालय ने मीना को पति से मासिक मुआवजा भी दिलवाया और मकान भी. जब 8 वर्ष बीत गए, सारा पैसा निकल गया, मकान भी गया और तलाक फिर भी नहीं हुआ तब झक मार कर पति फिर मीना के साथ रहने लगा.

यदि पत्नी मायके जा कर बैठ गई है तो समाज का दृष्टिकोण पति के प्रति कठोर हो उठता है. पत्नी को असहाय मान कर समाज पति पर दोषारोपण करने में जरा भी नहीं हिचकता. ऊपर से बच्चों का संरक्षण भी आमतौर पर मां को ही मिलता है.

कहां जाए पति?

पत्नी की ज्यादतियों से प्रताडि़त पति कहां जाएं? उन का मायका कहां है? वे अपने मातापिता के साथ रहते हैं तो सासबहू की चक्की में घुन जैसे पिसते हैं. यदि पत्नी की बात मान कर अलग हो जाएं तो भारतीय समाज में अपने मातापिता का भरणपोषण न करने पर गाली सुनें. पत्नी के लिए रूठ कर मायके जाना बहुत सरल है. किंतु पति यदि लड़ाई के बाद अपने घर वालों से मदद ले तो सारा समाज ससुरालियों को बहू का दुश्मन करार देता है.

समाचारों पर ध्यान दें तो पाते हैं कि तलाक का इंतजार सब से खतरनाक समय है. अकसर अपराध या पत्नी या पति का खून इसी समय होता है. पति चाहे सही हो या गलत, विवाहोपरांत झगड़ों में बेचारे पति को ही गालियां सुनने को मिलती हैं, उसी को ब्लैकमेल किया जाता है. और तो और, उसी के पैसों से केस लड़ा जाता है जो न्यायालय स्वयं पत्नी को दिलवाता है.

वर्ष 2012 के नैशलन अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, शादीशुदा मर्दों के मुकाबले शादीशुदा औरतों में आत्महत्या की संख्या काफी कम है. 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या 60 हजार थी तो वहीं शादीशुदा महिलाओं की संख्या 27 हजार रही. इस के अगलेपिछले सालों के आंकड़े भी यही तसदीक करते हैं. ऐसे में मर्दों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए कोई कानून क्यों नहीं है?

बेंगलुरु में वकालत कर रहे धावेश पाहुजा के अनुसार, ‘‘कुछ शिक्षित शहरी स्त्रियों ने ऐसे कानूनों को अपने पतियों और उन के रिश्तेदारों से अपनी मनमानी करने का हथियार बना लिया है.’’

माना कि भारतीय दंड संहिता के नियमकानून स्त्री के अधिकारों की रक्षा हेतु बनाए गए हैं, सवाल यह है कि समाज की कुरीतियों से स्त्री को बचाने के लिए इन कानूनों का उपयोग हो तो सही है किंतु जब स्त्री मायके का सहारा ले कर अपने पति को तंग करने पर आमादा हो जाए तब क्या होगा?

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