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चंदू चैंपियन, इश्क विश्क रीबाउंड बौक्स औफिस पर रही रोती, ‘Munjya’ की धाक बरकरार

जून माह के पहले सप्ताह में प्रदर्शित नए कलाकारों की फिल्म ‘मुंज्या’ का जलवा बौक्स औफिस पर तीसरे सप्ताह भी बरकरार रहा. 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म 108 करोड़ से अधिक कमा चुकी है. जबकि जून के दूसरे सप्ताह 14 जून को प्रदर्शित 150 करोड़ की लागत में बनी कार्तिक आर्यन की फिल्म ‘चंदू चैंम्पियन’ तीसरे सप्ताह भी बौक्स औफिस पर संघर्ष करती रही. ‘चंदू चैम्पियन’ को तो उन का बड़बोलापन और उन की पीआर टीम ने डुबा दिया.

 

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जून माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 21 जनू को एक साथ कई फिल्में सिनेमाघरों में पहुंची, मगर अफसोस हर फिल्म बौक्स औफिस पर धराशाही हो गईं. 21 जून को टिप्स कंपनी निर्मित और निपुण धर्माधिकारी निर्देशित फिल्म ‘इश्क विश्क रीबाउंड’ प्रदर्शित हुई, जो कि 2001 में प्रदर्शित टिप्स कंपनी की ही फिल्म ‘‘इष्क विष्क’’ की सिक्वअल है.2001 में शाहिद कपूर के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘इश्क विश्क ’’ ने जबरदस्त सफलता हासिल की थी.मगर ‘इश्क विश्क रीबाउंड’ की बौक्स औफिस बड़ी दुर्गति हुई. यह फिल्म पूरे सप्ताह में 5 करोड़ रूपए भी नहीं कमा सकी.
इस में से निर्माता के हाथ में बामुश्किल दो करोड़ रूपए ही आए. यही वजह है कि अब इस के निर्माता इस की लागत तक नहीं बताना चाहते, जबकि पहले 60 करोड़ रूपए का दावा किया गया था. फिल्म ‘इश्क विश्क रीबाउंड’ में भी नए कलाकार ही हैं, मगर सभी फिल्म परिवारों की संताने हैं. इस फिल्म में मशहूर संगीतकार राजेश रोशन की बेटी और रितिक रोशन की चचेरी बहन पश्मीना रोशन, बतौर बाल कलाकार कई फिल्में कर चुके जिब्रान खान, ‘तमाशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘थप्पड़’ जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी नैला ग्रेवाल के साथ रोहित सराफ ने अभिनय किया है. मगर अफसोस की बात यह है कि कमजोर कहानी व पटकथा, कमजोर निर्देशन व कलाकारों का स्तरहीन अभिनय इस फिल्म को ले डूबा.
21 जून,तीसरे सप्ताह ही विवादास्पद फिल्म ‘‘हमारे बारह’’ भी प्रदर्शित हुई. अन्नू कपूर, मनोज जोषी जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी इस फिल्म के निर्माता को अपनी फिल्म को सिनेमाघरो में पहुंचाने के लिए मुंबई हाईकोर्ट से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक की लड़ाई लड़ी, मगर बौक्स औफिस पर यह फिल्म पूरे सप्ताह में महज 40 लाख रूपए ही एकत्र कर सकी. इस में से निर्माता के हाथ कुछ नहीं लगा. जबकि निर्माता ने करोड़ों रूपए तो इस फिल्म को सिनेमाघरों में पहुंचाने के लिए वकीलों को दे दिए. फिल्म की लागत पूरी डूब गई. इतना ही नहीं, पता नहीं किस की सलाह पर निर्माता अपनी इस फिल्म को ‘कांस फेस्टिवल’ में मार्केट सैक्शन में ले जा कर भी कई करोड़ रूपए बर्बाद कर दिए पर कोई फायदा नहीं हुआ. यह सब तो ‘क्रिमिनल वेस्टेज औफ मनी’ ही है.
इसी सप्ताह लेखक, निर्माता व निर्देशक मुनींद्र कुमार की फिल्म ‘ए स्ट्रेंजर बौय द हिल’ प्रदर्शित हुई, जिस में पूर्वी मंदादा, दिशांत गुलिया व नूरा तेंजिन जैसे नवोदित कलाकारों ने अभिनय किया है. जब हम ने यह फिल्म देखी थी, तो अति बोर हुए थे. फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है कि इसे दर्शक देखना चाहें. फिल्म को बिना किसी प्रचार के ही निर्माता ने सिनेमाघर में रिलीज कर दिया था.
फिल्म देख कर हम ने जो सोचा था, उस से कहीं ज्यादा दुर्गति इस फिल्म की बौक्स औफिस पर हुई. यह फिल्म 7 दिन में बौक्स औफिस पर 4 लाख रूपए भी नहीं कमा सकी. इसी सप्ताह यानी कि 21 जून से ओटीटी प्लेटफौर्म पर आमीर खान के बेटे जुनैद खान की फिल्म ‘महाराज’ स्ट्रीम हो रही है. अफसोस इसे भी दर्शक नहीं मिल रहे हैं.

जय श्रीराम पर भारी पड़ा जय संविधान

जब से संविधान बना उसी समय से धर्म उस पर हावी होने की कोशिश करता रहा. भारत में धर्म का मतलब मनुस्मृति और कानून का मतलब मंत्र होते हैं. संविधान के अनुसार लोगों को चलाने के लिए कानून बना है. धर्म को मानने वाले ब्राहमण के बताए मंत्रों से देश को चलाना चाहते हैं. जिस में मंदिर में बैठा ब्राहमण समाज के लिए रीतिरिवाज बना सके. मनुस्मृति पर आधारित धर्म अपने अनुसार देश को चलाने के लिए उसे ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना चाहते हैं. संविधान को मानने वाले देश को कानून के हिसाब से चलाना चाहते हैं. इस बात को ले कर संविधान और धर्म में टकराव होता रहता है.

 

पिछले 10 सालों में देश की सरकार धर्म से सरकार चलाने वालों के हाथ में थी. जिस से इस बात का खतरा पैदा हो गया था कि धर्म चलाने वाली सरकार संविधान को खत्म न कर दे. ऐसे में 2024 का लोकसभा चुनाव इसी मुद्दे पर सिमट गया. इस की सब से बड़ी वजह थी कि धर्म को चलाने वाली सरकार ने 400 से अधिक लोकसभा सीटों का अपना लक्ष्य रखा था. 400 से अधिक लक्ष्य का मतलब था कि वह सरकार बनाने के बाद संविधान में बड़ा बदलाव करना चाहती थी. देश को इस बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था.

400 से अधिक सीटें ला कर संविधान बदल कर आरक्षण को खत्म करने की तैयारी सी लग रही थी. इस की वजह यह थी कि धर्म आधारित यह सरकार आरक्षण की समीक्षा और इस के उद्देश्य पर सवालिया निशान पहले ही लगा चुकी थी. ऐसे में जनता को यह समझ आ गया कि 400 सीटों का कारण आरक्षण खत्म करना है. देश को भारत माता की जय और जयश्रीराम के नारे से चलाना है.

 

चुनाव के समय ही सरिता ने अपने लेखों में यह बताया था कि जयश्रीराम और भारत माता की जय पर संविधान हावी होगा.
1 जून को आखिरी मतदान के बाद शाम 5 बजे सभी टीवी चैनलों और अखबारों में एग्जिट पोल के नतीजे छाए हुए थे. जिन में इस बात को दोहराया गया था कि भाजपा 400 से अधिक या इस के आसपास सीटे जीतने में सफल होगी. एग्जिट पोल से इतर ‘सरिता’ ने अपने जून प्रथम के शीर्ष लेख में लिखा ‘संविधान की शक्ति गुलामी और भेदभाव से मुक्ति’ था. लेख में संविधान के महत्व, ताकत और जरूरत को ले कर विस्तार से लिखा गया था. जिस में यह बताया गया था कि देश धर्म से नहीं संविधान से चलेगा. भाजपा को अपनी मनमानी करने वाले बहुमत नहीं मिलेगा.

24 जून को जब सांसदों का शपथ ग्रहण कार्यक्रम था तो आधे सदस्यों के हाथ में न केवल संविधान की किताब थी बल्कि शपथ ग्रहण करते समय ‘जय संविधान’ का नारा भी लगा. आजादी के बाद यह पहला मौका था जब इतनी बड़ी संख्या में सांसदों ने ‘जय संविधान’ का नारा लगा. इस के पहले भारत माता की जय और जयश्री राम जैसे नारे अधिक लगते थे. इस बार जय श्रीराम और भारत माता की जय पर जय संविधान भारी पड़ा. इसी बदलाव की बात सरिता ने अपने अंक में की थी.

बात केवल सरिता के इसी अंक की नहीं है. जनवरी से लेकर जून तक के 8 अंको में सरिता ने जो कुछ कहा वही चुनाव कर विमर्ष बना. जनवरी 2024 से जून 2024 तक सरिता के 8 षीर्ष लेखों पर नजर डाले तो बात और स्पष्ठ होकर समझ सकते है.
सरिता के जनवरी प्रथम अंक में इसकी शुरूआत ‘लोकसभा चुनाव 2024 चुनावी बिसात पर कैसे है मोहरे’ से हुई. इस लेख में चुनाव के मुद्दो और समीकरणों में बात हुई. इसके साथ ही साथ यह भी बताया गया कि चुनावी मुकाबला किस तरह का होगा यह उतना सरल नहीं होगा जितना दिख रहा है.

सरिता के जनवरी द्वितीय अंक का षीर्ष लेख ‘युवा नेताओ को नहीं मिलने वाली सत्ता’ पर केन्द्रित था. आज जब एनडीए की तीसरी बार सरकार बनती है तो मंत्रिमंडल में बूढे चेहरे सामने दिखते है. राजनीति में युवाओं के जिम्मे केवल नारे लगाने और नेताओं के आगे पीछे घूमने के अलावा कोई काम नहीं है. जो युवा सामने दिखते है वह किसी न किसी नेता के पुत्र पुत्री होते है. राजनीति सेे आम युवा गायब है. जनवरी के इस अंक में सरिता ने बात कही वो मंत्रिमंडल गठन में दिखाई दी.

सरिता के मार्च प्रथम अंक के षीर्ष लेख ‘लोकतंत्र सांसे अभी जिंदा है, कोर्ट की खरीखरी’ में यह बताया गया था कि जब तक हमारे संविधान द्वारा दी गई न्याय व्यवस्था कायम है तक तक लोकतंत्र की सासें चलती रहेगी. इस लेख में देश के अंदर फैले निराषा के भाव को खत्म करने की कोषिश की गई और जो सवाल सामने थे उनके जवाब दिए गए.

सरिता के मार्च द्वितीय अंक षीर्ष लेख ‘इंडिया ब्लौक क्या ले रहा आकार’ पर था. जहां पूरा विपक्ष हताश था मीडिया केवल सत्ता की बात कर रहा था. सत्ता के सामने उसे विपक्ष दिख नहीं रहा था वहां इस लेख मे बताया गया कि विपक्ष किस तरह से आगे बढ रहा है. कैसे वह तमाम विरोध के बाद एकजुट होने का काम कर रहा. यह उसकी एकजुटता ही थी कि 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम बताते है कि बहुत दिनों के बाद इतना मजबूत विपक्ष मिला है. लोकतंत्र में जितना सत्ता पक्ष का महत्व है विपक्ष का महत्व उससे अधिक है. एनडीए को करीब 45 फीसदी वोट मिला है. इसका मतलब है कि 55 फीसदी वोट उसके खिलाफ है. इनका प्रतिनिधित्व विपक्ष कर रहा है ऐसे में वह सत्ता पक्ष से बडा है.

अप्रैल प्रथम अंक के षीर्ष लेख में ‘इलैक्टोरल बौंड चुनावी दानपेटी’ का मुद्दा उठाया गया. चुनावी चंदे को जिस तरह से सत्ता के दबाव में उगाहा गया उस की अपनी अलग कहानी है. इस शीर्ष में इस को ठीक तरह से समझाया गया. लोकसभा चुनाव 2024 के पहले सरिता ने अपनी हर स्टोरी में जनता के चुनावी जुड़ाव और जिम्मेदारी को ठीक तरह से समझा और पाठकों को जागरूक किया. यह सरिता के निष्पक्ष लेखन की गारंटी है.

सरिता के मई द्वितीय अंक के शीर्ष लेख ‘एक का फंदा’ में एक देश एक चुनाव, एक टैक्स, एक पार्टी एक नेता को ले कर की गई थी. भारत विविधताओं भरा देश है. यहां ‘कोस कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी’ वाली कहावत है. ऐसे में एक कानून से पूरे देश की परेशानी हल नहीं की जा सकती. योजना बनाते समय क्षेत्र, भाषा और भौगोलिक स्थित का विचार करना पड़ता है. एक ही कोड़े से पूरे देश को हांका नहीं जा सकता है.

पूरे देश में चुनाव का माहौल चल रहा था. मीडिया सीटों के आंकलन में फंसी थी. सरिता ने अपने पत्रकारिता धर्म को उठाते हुए जून प्रथम अंक के में शीर्ष लेख में ‘संविधान की शक्ति गुलामी और भेदभाव से मुक्ति’ संविधान की ताकत को समझाया गया. जनता के सामने वोट देने के मुद्दे जाति और धर्म की जगह संविधान बचाने के होने चाहिए. चुनाव के बाद जो विश्लेषण हो रहे हैं उस से साफ है कि संविधान बचाने का मुद्दा ही चुनाव के केंद्र में था.

जून द्वितीय अंक में जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आने थे उस के पहले सरिता के शीर्ष लेख में ‘जनता का जलजला सरकार धर्म नहीं चलाएगी’ था. जिस का अर्थ यह था कि जनादेश ऐसा होगा कि सरकार धर्म नहीं चला पाएगी. चुनाव परिणामों के बाद जिस तरह से सोशल मीडिया पर एक बड़ा वर्ग अयोध्या को ले कर टिप्पणी कर रहा है उस से साफ हो गया है कि नई सरकार धर्म नहीं चलाएगी. वह अयोध्या जैसे दूसरा सरकारी मंदिर बनाने वाला काम नहीं करेगी.

 

भारत माता की जय पर भारी पड़ा जय संविधान

 

18वीं लोकसभा के सदस्यों का जब शपथ ग्रह्णण शुरू हुआ तो सब से पहले महाराष्ट्र के सांसदों ने शपथ ली. इंडिया ब्लौक के लगभग हर सांसद ने शपथ के बाद ‘जय संविधान’ का नारा लगाया. कांग्रेस नेता राहुल गांधी जब शपथ लेने पोडियम पर पहुंचे तो पहले उन्होंने संविधान की प्रति लहराई और सदन में चारों तरफ उसे दिखाया, फिर हाथ में संविधान की प्रति ले कर अंग्रेजी में शपथ ली. शपथ के बाद उन्होंने ‘जय संविधान’ का नारा भी लगाया.
शपथ के लिए जब राहुल गांधी का नाम पुकारा गया तो कांग्रेस के सदस्य अपने स्थान पर खड़े हो गए और ‘जय संविधान’ के नारे लगाने लगे. उन के शपथ लेने के बाद भी कांग्रेस सदस्यों ने ‘जय संविधान’ के नारे लगाए. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी शपथ लेते वक्त हाथ में संविधान की प्रति ले रखी थी. अमेठी से चुनाव जीते कांग्रेस सांसद किशोरी लाल ने शपथ लेने के बाद ‘लोन्ग लिव इंडिया’ और ‘जय संविधान’ का नारा लगाया. आजाद समाज पार्टी के चन्द्र शेखर आजाद ने भी जय संविधान का नारा लगाया.

 

जय संविधान लोकप्रिय क्यों हुआ

 

2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने संविधान की एक छोटी लाल रंग की किताब हाथ में ले रखी थी. नरेंद्र मोदी और भाजपा के दूसरे नेता अपने हाथ में कमल का फूल ले कर प्रचार करते थे. कमल के इस फूल की खास बात यह थी कि यह रात में भी उजाला करता था. जिस से रात में प्रचार के समय इस की रंगबिरगी रोशनी देखने वाले को अच्छी लगती थी. राहुल ने इस के जवाब में संविधान की प्रति हाथ में ले कर ही प्रचार करते थे. लाल रंग के कवर वाला पौकेट साइज संविधान देखने मे अलग ही रहता था.

संविधान दिखाना पब्लिक को बता रहा था कि अगर इस को बचाना है तो वोट हम को ही देना है. राजनीतिक समीक्षक इस बात को पकड़ नहीं पाए जबकि सरिता ने इस बात को महसूस कर लिया था कि संविधान को बचाने लोग आएंगे ही आएंगे. वही हुआ. असल में हमारे देश में अलगअलग जाति और धर्म के लोग हैं. ऐसे में जयश्रीराम के नारे लगाने वाले वो ही हैं जिन्हें हिंदू राष्ट्र बनाना है. बड़ी संख्या में हिंदू और दूसरे धर्म के लोग जयश्री राम और भारत माता की जय नहीं बोलते.
भारत माता में हिंदू देवी का चित्रण होता है. जयश्री राम विषुद्व धार्मिक नारा लगता है. इस के विपरीत जय संविधान ऐसा नारा है जिस को बोलने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है. अगर दूसरा कोई धार्मिक नारा हो तो उस को दूसरे विरोध भी कर सकते हैं. जबकि जय संविधान का विरोध भी कोई नहीं कर सकता. ऐसे में यह नारा खूब चल रहा है. संविधान हमें बराबरी का हक देता है. यह किसी भी तरह से जाति धर्म नस्ल का भेदभाव नहीं करता. धर्म हमें तोड़ने का काम करता है. संविधान जोड़ने का काम करता है. ऐसे में आज ‘जय संविधान’ पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम कर रहा है. यह संभव है कि धीरेधीरे यह सामान्य अभिवादन का हिस्सा बन जाएगा. जिस के बाद ही जाति और धर्म के विभेद मिट जाएंगे.

क्षितिज के उस पार

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था.

मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’

मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’

‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.

घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था.

मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था.

अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे.

अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था.

खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

नई दिशा : आलोक के पत्र में क्या था?

नीता स्कूल से लौट कर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली, शाम के 6 बजने वाले थे. उस ने किताबें टेबल पर रख दीं और थकी सी पलंग पर बैठ गई.

उसे कमरा बेहद सूना लग रहा था. ‘आलोक आज चला जो गया था. अगर वह कुछ दिन और रहता तो कितना अच्छा लगता पर…’ सोचतेसोचते वह पिछले दिनों की यादों में खो गई.

उस दिन ठंड कुछ ज्यादा थी. घर के अंदर भी ठंड का एहसास हो रहा था. मम्मी धूप में बैठी स्वैटर बुन रही थीं. धीरज जोरजोर से बोल कर सबक याद कर रहा था. नीता टिफिन तैयार कर रही थी कि तभी घंटी बजी.

दरवाजा खोलने मम्मी ही गईं. सामने एक अपरिचित युवक खड़ा था.

‘चाचीजी, नमस्ते. आप ने पहचाना मुझे?’ वह हाथ जोड़ कर बोला.

‘आप…कौन?’ उन्हें चेहरा जानापहचाना लग रहा था.

‘मैं रामसिंहजी का बेटा, आलोक…’ वह बोला.

‘अरे, तुम रामसिंह भैया के बेटे हो. कितने बड़े हो गए हो. तभी तो मुझे लगा मैं ने तुम्हें कहीं देखा है,’  वे हंस कर बोलीं, ‘बेटा, अंदर आओ न.’

वे दरवाजे से एक तरफ हट गईं. आलोक ने बैग कंधे से उतार कर नीचे रख दिया. फिर आराम से सोफे पर बैठ गया. उस ने एक पत्र अपनी जेब से निकाल कर मम्मी को दिया.

‘अच्छा, तो तुम यहां पीएससी की परीक्षा देने आए हो?’ पत्र पढ़ते हुए मम्मी ने पूछा.

‘जी चाचीजी,’ उस ने आदर से कहा.

‘ठीक है. इसे अपना ही घर समझो,’ फिर वे रुक कर बोलीं, ‘अरी, नीता बिटिया, देख कौन आया है और सुन चाय भी बना ला.’

नीता की समझ में कुछ नहीं आया. कौन है, देखने के लिए वह बाहर आ गई.

‘बेटी, यह आलोक है, तेरे बचपन का दोस्त. जानती है एक बार इस ने तेरी चोटी रस्सी से बांध दी थी. मुश्किल से बाल काट कर खोलनी पड़ी थी,’ मम्मी ने हंस कर बताया.

‘मम्मीजी, मुझे तो कुछ याद नहीं, कब की बात है?’ नीता ने पूछा.

‘उस दिन तेरा जन्मदिन था. बड़ी अच्छी फ्रौक पहन, 2 चोटियां कर के तू आलोक को बताने गई थी. आलोक उस समय तो कुछ नहीं बोला. मैं इस की मां के साथ बातों में लगी थी कि तभी इस ने चुपके से तेरी चोटी बांध दी थी,’ मां ने याद दिलाया.

‘अब मुझे याद आ गया,’ आलोक अचानक बोला, ‘नीता, मुझे माफ करना. अब ऐसी गलती नहीं करूंगा.’

नीता शरमा कर अंदर चाय बनाने चली गई.

आज से करीब 12 साल पहले नीता और आलोक के पापा विजय नगर में आसपास रहते थे. कालोनी में उन की दोस्ती की अकसर चर्चा हुआ करती थी.

दोनों की जाति अलगअलग थी पर विचार एक से थे. दोनों परिवारों की स्थिति भी एक जैसी थी. पर नीता के पापा अपने काम के सिलसिले में इंदौर आ बसे. इस शहर में उन का धंधा अच्छा चल निकला. इसलिए वे यहीं के हो कर रह गए.

इतने सालों बाद अब आलोक परीक्षा देने उन के यहां आया था.

सुबह से शाम तक नीता उस का खयाल रखती. इस साल वह भी 12वीं की परीक्षाएं देने वाली थी. आलोक पढ़ाई में तेज था. अपनी पढ़ाई के साथसाथ वह नीता को भी पढ़ाई के गुर सिखलाता. ‘मन लगा कर पढ़ोगी तो जरूर अच्छे नंबर आएंगे,’ वह समझाता. नीता को भी उस की बातें बहुत अच्छी लगतीं.

मम्मी ने आलोक को एक अलग कमरा दे दिया था ताकि वह अपनी तैयारी ठीक से कर सके. वह 2 पेपर दे चुका था. पेपर बहुत अच्छे हुए थे. आलोक का चायनाश्ता, खानापीना, सभी मम्मी ने नीता के हवाले कर दिया था. नीता का जवान दिल जैसे आलोक को पा कर मस्त हो रहा था. रात को घंटों वह आलोक के पास बैठी रहती. मम्मी भी उन की बातों से अनजान रहतीं.

आलोक का आखिरी पेपर 2 दिन बाद था. वह तैयारी करना चाहता था पर नीता ने जिद कर के आलोक और धीरज के साथ पिक्चर जाने का मन बना लिया. फिर दूसरे दिन कमला पार्क में पिकनिक का प्रोग्राम भी बना डाला.

आलोक पिकनिक नहीं जाना चाहता था पर उसे मजबूरन नीता का साथ देना पड़ा. इन 2 दिनों में नीता के मन में आलोक के प्रति एक अजीब आकर्षण पैदा हो गया था. जैसे वह मन ही मन आलोक की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उस दिन आलोक का अंतिम पेपर था. नीता भी उसे खाना दे कर कैमिस्ट्री का कुछ पूछने बैठ गई. रात अधिक हो चुकी थी. उस के मम्मीपापा दूसरे कमरे में बेखबर सो रहे थे. अचानक नीता ने आलोक का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘आलोक, जाने क्यों तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो.’

आलोक भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था. उस का मन हुआ कि वह नीता के बहुत करीब हो जाए. पर तभी वह संभल गया, ‘जिस चाचीजी ने मुझ पर विश्वास किया है, क्या उन्हें समाज के सामने जलील होना पड़ेगा?’ ऐसा सोच कर उस ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया.

‘देखो नीता, यह समय हमारे प्यार करने का नहीं है बल्कि अपनाअपना कैरियर बनाने का है. अगर हम ने इस समय ऐसावैसा कुछ किया तो शायद हमें जीवन भर पछताना पड़े. इसलिए मैं तो कहता हूं कि तुम 12वीं में अच्छी डिवीजन लाओ.

‘मैं भी नौकरी की तैयारी करता हूं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि नौकरी लगते ही सब से पहले पिताजी को तुम्हारे घर भेजूंगा, हमारे रिश्ते की बात चलाने के लिए,’ उस ने नीता को समझाया.

‘हां आलोक, मम्मी भी मुझे डाक्टर बनाने का सपना देख रही हैं. अच्छा हुआ जो तुम ने मुझे सोते से जगा दिया,’ वह शरमा कर बोली.

थोड़ी देर चुप्पी रही. ‘मैं कल पेपर दे कर चला जाऊंगा. मुझे एक इंटरव्यू की तैयारी करनी है. अब तुम अपने कमरे में जाओ. रात बहुत हो चुकी है,’ मुसकराते हुए आलोक बोला.

नीता भी मन में नई दिशा में बढ़ने का संकल्प ले कर अपने कमरे की ओर चल पड़ी

टैलीकौम एक्ट 2023 : आम लोगों की मोबाइल पर सरकार का कड़ा पहरा

शीर्षक पढ़ कर ही किसी का भी चिंतित हो जाना स्वभाविक बात है क्योंकि नए टैलीकौम एक्ट में लोगों की प्राइवेसी पर पहरा बैठाने के तमाम प्रावधान है. खासतौर से व्हाट्सऐप पर जिस के मैसेज तो लोग घर के मेम्बर्स को भी पढ़ाने से बचते हैं. युवाओं की तो कई प्राइवेट चैट व्हाट्सऐप पर ही होती है फिर चाहे वह दोस्तों से की गई हो या बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड से की गई हो.

 

नरेंद्र मोदी की सरकार 4 जून को कमजोर भले ही हुई हो लेकिन इस से उस की मनमानी पर कोई खास फर्क पड़ता हालफ़िलहाल तो दिखाई नहीं दे रहा है. हां उस का तरीका जरुर बदलता नजर आ रहा है. यह भी समझ आ रहा है कि अब उस ने हिंदुत्व का अपना एजेंडा दानपेटी में बंद कर लिया है. क्योंकि उस पर दबाब मजबूत विपक्ष के साथ साथ सहयोगी सैक्यूलर दलों का भी है.

 

यानी सरकार अब कहने और बताने को आम लोगों के भले के काम करेगी और उन की जिंदगी आसान बनाने वाले फैसले लेगी. ये फैसले और काम कैसे होंगे इस का अंदाजा 25 जून को वजूद में आ गए टेलीकाम एक्ट से लगाया जा सकता है जिस में सहूलियत तो कोई नहीं है लेकिन बंदिशें दर्जनों हैं. इन में से एक जिस का हल्ला ज्यादा है वह यह है कि अब कोई भी जना एक पहचानपत्र पर 9 से ज्यादा सिम कार्ड इस्तेमाल नहीं कर सकता और अगर करता पाया जाएगा तो उस पर पहली दफा पकड़े जाने पर 50 हजार रुपए का जुर्माना लगेगा. दूसरी बार भी पकड़ा गया तो जुर्माने की यह राशि 2 लाख रुपए हो जाएगी. फर्जी तरीके से सिम कार्ड लेने पर 50 लाख रुपए का जुर्माना और 3 साल तक की कैद का प्रावधान है. यानी सरकार ने एडवांस में मान लिया है कि वह सिम खरीदी में फर्जीवाड़ा रोकने में नाकाम है.

 

इस प्रावधान या फरमान के कोई माने नहीं हैं. क्योंकि हजार में से एक ही बन्दा मुश्किल से मिलेगा जिस ने एक आईकार्ड पर 2 – 4 से ज्यादा सिम कार्ड रजिस्टर्ड करवाए होंगे. किसी के पास इतना पैसा नहीं है कि वह थोक में 9 सिम कार्ड यानी 9 नंबर रखे और इन के इस्तेमाल के लिए 9 मोबाइल फोन भी ख़रीदे. यह एक बेतुकी बात है क्योंकि आम लोग 2 – 3 से ज्यादा सिम कार्ड इस्तेमाल नहीं करते हैं. हां संगठित रूप से अपराध करने वाले जरुर ऐसा करते होंगे लेकिन इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि जब इस देश में हजार 500 रुपए में फर्जी आईडी आसानी से बन जाती हैं तो अपराधी उन पर ही सिम कार्ड लेंगे और अकसर वे कानून से बचने करते भी यही हैं.

इस पहले प्रावधान से ही समझ आता है कि नए कानून बनाने के पीछे सरकार की मंशा यह दिखाने भर की है वह धर्म, हिंदुत्व, जाति और पोंगापंथ से भी इतर कुछ करना जानती है.

 

9 सिम वाले हल्ले से आम लोगों को कोई सरोकार नहीं लेकिन जिस प्रावधान से होना चाहिए उस पर चर्चा न के बराबर हो रही है वह यह है कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में या युद्ध की स्थिति में किसी एक या सभी दूर संचार सेवाओं का नियंत्रण और प्रबंधन अपने हाथ में ले सकती है. सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या अपराध की रोकथाम के लिए भी सरकार ऐसा कर सकती है. यह कैसे सरकार का डर और आप की हमारी प्राइवेसी पर पहरा है इसे हालिया दो अहम घटनाओं से समझें तो लगता है कि दरअसल में यह तानाशाही ही है.

पहली घटना नई संसद के होहल्ले से ताल्लुक रखती हुई है जब संसद में इंदिरा गांधी वाली इमरजेंसी को ले कर जम कर बवाल मचा. इस बवाल के अपने अलग सियासी माने थे लेकिन आपातकाल में हुआ यही था कि आम लोगों की प्राइवेसी खत्म हो गई थी. डाकघरों में उन की चिट्ठियां खोल कर पढ़ी जा रही थीं, अख़बारों के दफ्तरों में सरकार का अदृश्य कब्जा था. वे वही छाप रहे थे जो सरकार चाह रही थी. और यह सब राष्ट्रीय सुरक्षा वगैरह की आड़ में ही किया जा रहा था.

 

यानी इमरजेंसी और जंग वगैरह की स्थिति में टेलीकाम कंपनियों को सरकारी अफसर और सत्तारूढ़ दल भाजपा चलाएगी, ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी के आपातकाल में डाकघर, रेडियां और अखबार कांग्रेस चला रही थी. लोगों के टेलीफोन भी टेप किए जा रहे थे कि कौन क्या बात कर रहा है. कांग्रेसियों को डर इस बात का सताने लगा था कि कहीं कोई इंदिरा सरकार की बुराई तो नहीं कर रहा और कहीं सरकार गिराने की साजिश तो कोई नहीं रच रहा.

 

दूसरी घटना कुख्यातस्ट्रेलियन हेकर जूलियन असांजे से जुड़ी है जो बीती 26 जून को 14 साल की कैद भुगतने के बाद ब्रिटेन से अपने देश पहुंचा है. जूलियन ने साल 2006 में अपनी वेबसाइट विकीलीक्स के जरिये अमेरिका के कई गोपनीय दस्तावेज लीक कर दिए थे. इस के पीछे उस की अपनी दलीलें थीं. मसलन यह कि हर किसी को बोलने की आजादी होनी चाहिए और जिस तरह सरकारें आम लोगों के बारे में सारी जानकारियां हासिल कर लेती हैं वैसे ही सरकार के बारे में भी आम लोगों को सब कुछ पता होना चाहिए कि आखिर बंद इमारतों में उस के नुमाइंदे और अफसर क्याक्या घालमेल करते रहते हैं. वह हर लेबिल पर ट्रांसपेरेंसी का हिमायती था.

हैकिंग के बाद न केवल अमेरिकी बल्कि दुनिया भर की सरकारें चौकन्नी हो गईं थीं. जूलियन असांजे को अमेरिकी सरकार ने इतना हैरान परेशान कर दिया था कि वह समझौते वाली क़ानूनी डील के लिए भी वहां की अदालत जाने से डर रहा था. मामला अब सुलझ गया है और जूलियन अपने देश आस्ट्रेलिया वापस चला गया है. ( यह लेख आप इसी वेबसाइट पे पढ़ सकते हैं शीर्षक है – जूलियन असांजे – क्या गारंटी कि अब कोई नई खुराफात नहीं करेंगे)
जूलियन असांजे को ले कर अमेरिकी सरकार की परेशानी की तरफ इशारा करते ब्रिटेन के एक प्रमुख अख़बार द गार्डियन के पूर्व सम्पादक एलन रूसब्रिजर ने एक्स पर सटीक ट्वीट किया था कि उन के साथ जो व्यव्हार हुआ वह पत्रकारों और मुखबिरों के लिए भविष्य में चुप रहने की चेतावनी थी और मुझे लगता है कि यह कारगर साबित होगी.

अब यही काम नए टेलीकाम एक्ट भारत में और बड़े पैमाने पर हो रहा है. जहां आम लोगों को खामोश करने सरकार टैलीकौम कम्पनियों का नियंत्रण और प्रबंधन उपर बताए कारण बता कर अपने हाथ में हर कभी ले सकती है. यह इमरजेंसी नहीं तो और क्या है. अब होगा यह कि जब भी जहां से भी लोग सरकार के फैसलों और नीतियों रीतियों के विरोध में अपने हक में आवाज उठाएंगे सरकार टैलीकौम कंपनियों को अपने हाथ में ले लेगी. पंजाब, कश्मीर, मणिपुर और किसान आंदोलन के मामलों में उस का जोर कम चला था इस के बाद भी वह इंटरनैट शट डाउन करने से चूकी नहीं थी.

जानकर हैरत होती है कि दुनिया भर में सब से ज्यादा इंटरनैट शट डाउन भारत में होता है. एक एजेंसी एक्सिस नाउ द्वारा जारी आंकड़ो के मुताबिक साल 2023 में कुल 116 बार शट डाउन किया गया जबकि दुनिया भर के 38 देशों में ऐसा 283 बार हुआ. ऐसा भी पहली बार नहीं है बल्कि भारत लगातार 6 सालों से इंटरनेट बंद करने के मामले में अव्वल है एक चिंतनीय मिसाल मणिपुर की है जहां पिछले साल 5 दिन या उस से ज्यादा वक्त तक चलने वाले शट डाउन की तादाद में 2022 के मुकाबले कोई 30 फीसदी ज्यादा शट डाउन हुआ.

मणिपुर के हालातों से डरी सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का सच लोगों तक पहुंचे. यही कई बार पंजाब और जम्मू कश्मीर में हुआ. सच छिपा कर विश्व गुरु बनने का सपना देखने वाली सरकार की हकीकत का ही नतीजा इसे कहा जाएगा कि मोदी सरकार कमजोर हुई और भाजपा उम्मीद से ज्यादा दुर्गति का शिकार हुई. मोदी सरकार पर से आम लोगों का भरोसा उठा है क्योंकि खुद सरकार अपने ही देश के नागरिकों पर भरोसा नहीं करती.

अब टैलिकौम एक्ट की धारा 1, 2 और 10 से 30 सहित 42 से 44 और 46, 47 से 50 से 58, 61 और 62 के प्रावधान प्रभावी हो गए हैं. इन में सब से ज्यादा घातक धारा वह है जिस के तहतक्ट में वर्णित वजहों के चलते सरकार किसी भी नागरिक के मैसेज इंटरसेप्ट कर सकती है और तो और धारा 20 ( 2 ) के तहत सरकार किसी के भी मैसेज रिसीवर तक पहुंचने के पहले रोक भी सकेगी. इतना ही नहीं सरकार किसी के भी मैसेज देख भी सकती है.
कुछ और छोटे मोटे प्रावधान भी है जिन से कोई ख़ास फर्क लोगों को नहीं पड़ना लगता ऐसा है कि वे सिर्फ मसौदा बढ़ाने के लिए हैं जिस से एक्ट एक्ट जैसा दिखे नहीं तो सरकार की मंशा सिर्फ यह जानने में है कि लोग क्या और कैसे मेसेज एकदूसरे को कर रहे हैं.

अभी इस अधिनियम को लागू हुए चंद दिन ही हुए हैं इसलिए लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि सरकार कैसे उन से उन के मौलिक अधिकार राष्ट्रीय सुरक्षा और अपराध नियंत्रण वगैरह के नाम पर छीन रही है. सच तो यह भी है कि सरकार लोगों के बारे में सब कुछ जानती है मसलन यह कि उन्होंने कब, कितना, कहां पैसा खर्च किया या लिया या दिया. आधार कार्ड जहांजहां लिंक है वहां की जानकारी भी सरकार को रहती है. ऐसे में नागरिक स्वतंत्रता कहां है यह पूछा और सोचा जाना बेमानी है. हैरानी तो इस बात की है कि इस अहम मसले पर विपक्ष भी खामोश है जबकि इस एक्ट की एक बड़ी गाज उस पर भी गिरना है.

 

कहीं आप ‘इमोशनल डंपिंग’ के शिकार तो नहीं, जांचने के लिए करना होगा ये काम

इशिता और अरुण की कहानी पढ़कर यह जानना आसान होगा कि आप   इमोशनल डंपिंग के शिकार तो नहीं   

इशिता को डेट करते हुए अरुण को 6 महीने ही हुए हैं मगर इशिता अरुण की इमोशनल बातों से अब बोर होने लगी है और उस से ब्रेकअप करना चाहती है, मगर वह अरुण की अच्छाइयों के कारण फैसला नहीं ले पा रही है.

 

अरुण को जब कालेज के थर्ड ईयर में इशिता पर क्रश हुआ तो धीरेधीरे दोनों ही एकदूसरे को पसंद करने लगे. फिर कालेज के बाहर मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. अरुण काफी संवेदनशील और चुप सा रहने वाला लड़का था. वह क्लास में भी किसी से ज्यादा बोलता नहीं था. लड़कियों से तो खास दूरी बना कर रहता था. कालेज की कैंटीन में लड़कों के हुजूम के साथ भी हल्लागुल्ला मचाता कभी नजर नहीं आया. खाली पीरियड में कालेज के पीछे वाले बाग़ में घूमता था. अकेला और अपने में खोयाखोया. क्लास में वह चोर नजर से इशिता को बीचबीच में निहारता था. एक दिन इशिता ने उस की यह चोरी पकड़ ली तो वह झेंप गया और इशिता को उस का यही रूप भा गया.

बातचीत शुरू हुईं. फिर दोस्ती और उस के बाद प्यार भी हो गया. अरुण इशिता से अपने घर परिवार की बातें बताते हुए बहुत इमोशनल हो जाता था. अपनी बड़ी बहन की बात करते हुए तो उस के आंसू तक निकल आते थे. वह बड़ी बहन से बहुत अटैच्ड था, जिन को उस के ससुराल वालों ने दहेज के लिए मार डाला था. तब अरुण सिर्फ 17 साल का था. बहन की बेटी तब सिर्फ डेढ़ साल की थी. अब वह अरुण के परिवार के साथ ही रहती है. उस से अरुण का असीम प्रेम है. उस की ढेर सारी बातें अरुण इशिता को बताता है. उस के अलावा अपनी छोटी बहन, छोटे भाई और मातापिता के दुखदर्द की बातें भी अरुण के पिटारे में ढेरों हैं.

इशिता को डेट करते हुए अरुण को 6 महीने हुए हैं मगर अब इशिता अरुण की बातों से बोर होने लगी है और किसी तरह उस से ब्रेकअप करना चाहती है. मगर वह अरुण की अच्छाइयों के कारण फैसला नहीं ले पा रही है. अगर अरुण की दुख भरी लम्बी कहानियों को छोड़ दे तो अरुण में बहुत सारी खूबियां हैं. वह बेवफा नहीं है. इशिता जानती है कि वह कभी उस को धोखा नहीं देगा. टाइम का बहुत पंक्चुअल है. जो कहता है वह करता है. पढ़ाई में बहुत तेज है. बड़ा अधिकारी बनने की उस की तमन्ना है और वह बन भी सकता है. इशिता से बहुत प्यार करता है. उस पर इतना विश्वास करता है कि अपने घर की एकएक बात उस ने इन 6 महीनों में इशिता को बता दी है. इशिता ही उस की एकमात्र दोस्त और प्रेमिका है. अरुण में एक अच्छा पति होने के सारे गुण हैं मगर इशिता को लगता है कि वह अपनी उम्र से बहुत बड़ी उम्र की बातें करता है. वह अन्य लड़कों की तरह खिलंदड़ा नहीं है. उछलकूद नहीं मचाता. जिंदगी को एंजोय नहीं करता. हर वक्त खुद पर एक भारीपन लादे रहता है.

 

जबकि इशिता एक ऐसे परिवार से है जहां लोगों को एकदूसरे की बहुत ज्यादा परवाह नहीं है. सब अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से हंसते खिलखिलाते, दोस्तों के बीच पार्टियां करते व्यतीत कर रहे हैं. उस की मां अपनी किट्टी पार्टियों में, पिता औफिस के यारों दोस्तों में, बड़ा भाई ट्रैकिंग और ट्रैवेलिंग में अपना समय बिताते हैं. उन के पास दुख दर्द की बातें करने का टाइम ही नहीं है. वे आपस में कुछ बातें रात में बस डायनिंग टेबल पर ही करते हैं. वो भी हंसी मजाक की. जबकि अरुण की बातें उन बातों से बिलकुल विपरीत हैं. इशिता भी शुरू में उस की ओर इस वजह से अट्रैक्ट हो गई थी क्योंकि वह दूसरों से अलग लगा. लेकिन अब इशिता को लगने लगा है कि वह शायद पूरी जिंदगी पीड़ित सा, दुखी सा, भावुक सा रहने वाला है. ये तो इशिता के लिए बहुत कष्टदायक हो जाएगा. वह 25 साल में 50 साल जैसे बूढ़े का अनुभव हरगिज नहीं चाहती है.

रिश्ते इमोशनल कनैक्शन पर बनते हैं लेकिन कभीकभी ये रिश्ते असंतुलित हो जाते हैं. खासकर जब एक साथी लगातार अपने और अपनी भावनाओं पर काबू करने की जगह हर छोटीबड़ी बात के लिए अपना इमोशनल दबाव दूसरे पर थोपता है तो यह स्थिति रिश्ते में इमोशनल डंपिंग कहलाती है. इस से रिश्ते में दूसरा व्यक्ति थका हुआ, अनसुना और यहां तक कि खुद को काफी परेशान महसूस कर सकता है.

 

बहुत सारे लोग रिश्तों में इसी तरह के इमोशनल डंपिंग का शिकार हैं मगर वह रिश्ते में इतनी दूर तक आ गए हैं कि अब रिश्ता तोड़ना भी मुमकिन नहीं है. ऐसी कई स्थितियां हैं जो इशारा करती हैं कि आप इमोशनल डंपिंग का सामना कर रहे हैं. आप खुद इस चीज को जांच सकते हैं जैसे –

1. क्या आप का साथी आप के बारे में पूछे बिना लगातार अपनी समस्याओं और चिंताओं के बारे में बात करता है. यह एक रेड फ्लैग है जो बताता है कि रिश्ते में दूसरे की परवाह किए बिना बस एक ही व्यक्ति अपनी चीजें शेयर कर रहा है जो रिश्ते में इमोशनल सपोर्ट में असंतुलन का संकेत देता है.

2. क्या आप का साथी इमोशनल सपोर्ट के लिए पूरी तरह आप पर निर्भर है और बदले में शायद ही आप की कभी कोई परिस्थिति समझता है या आप को सपोर्ट करता है? हेल्दी रिलेशनशिप में दोनों तरफ से इमोशनल सपोर्ट शामिल होता है, न कि एकतरफा.

3. क्या आप अकसर अपने साथी के साथ बातचीत के बाद भावनात्मक रूप से थका हुआ महसूस करते हैं? यह इमोशनल डंपिंग के नकारात्मक प्रभाव की ओर इशारा करता है जिस से आप कमजोर हो जाते हैं और अपनी इमोशनल हैल्थ को खराब कर बैठते हैं.

4. क्या आप को लगता है कि जब आप अपनी भावनाओं को शेयर करने का प्रयास करते हैं तो उन्हें आप के पार्टनर द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है या उन्हें गैरजरूरी या कमतर बता दिया जाता है? यह उपेक्षापूर्ण व्यवहार आप की इमोशनल नीड के प्रति सम्मान और सहानुभूति की कमी को दर्शाता है. यह रिश्ते में एक रेड फ्लैग है.

5. क्या रिश्ते में ऐसा महसूस होता है कि आप लगातार सुनने या सिर्फ देखभाल ही करने वाले हैं जबकि आप का साथी पूरी तरह से इमोशनल डंपर है? एक हहैल्दी रिलेशनशिप समानता और आपसी सहयोग पर बनता है. इस में ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक देखभालकर्ता और दूसरा उस पर निर्भर मरीज है.

इमोशनल डंपिंग से किसी भी रिश्ते पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इमोशनल डंपिंग व्यक्ति और रिश्ते दोनों के लिए हानिकारक परिणाम देता है. एक व्यक्ति को यदि लंबे समय तक यह स्थिति झेलनी पड़े तो रिश्ते के प्रति नाराजगी और असंतोष पैदा हो जाता है जिस से संबंध टूट सकता है. कोई भी नहीं चाहता कि उस का पार्टनर हमेशा दुख भरी बातें ही करता रहे. हमेशा अपना अतीत कुरेद कुरेद कर उस में से नकारात्मक चीजें निकाल कर सामने रखता रहें. ऐसे लोग न तो कभी खुद खुश रहते हैं और न अपने साथी को खुश और सकारात्मक रहने देते हैं.

जिंदगी अतीत में जीने के लिए नहीं है. भविष्य की खुशियां तलाशना, वर्तमान को जिंदादिली से जीना ही असली सुख है. कभीकभी कोई पुरानी बात याद आ गई और उस को पार्टनर से शेयर कर लिया तो ठीक है, पर हर वक्त उन यादों को ओढ़े रखना बेवकूफी है.

कुछ लड़केलड़कियां अपने पुराने टूटे प्रेम को याद करते रहते हैं. जिन की दूसरी शादी हुई वो अकसर अपनी पहली बीवी की बेवफाई के किस्से नई वाली को सुनाने लगते हैं. नई बीवी यह सोच कर सुन लेती है कि कहीं पति को यह न लगे कि वह उस के दुख में शामिल नहीं है. लेकिन ऐसी बातें ज्यादा या हर वक्त हों तो अंततः रिश्तों में कड़वाहट ही घोलती हैं. फिर हैल्दी रिलेशनशिप में दोनों तरफ से इमोशनल सपोर्ट शामिल होता है न कि एकतरफा. अगर ऐसा हो रहा है तो यह आप के रिश्ते में रेड फ्लैग है.

शोशेबाजी के लिए ही कपल कर रहे हैं डेस्टिनेशन वेडिंग या मामला कुछ और

आजकल डैस्टिनेशन वेडिंग का ज़माना है, जिस में भारीभरकम बारातियों की जगह कम गेस्ट्स बुलाए जाते हैं और सुंदर लोकेशन पर शादी की जाती है. जानिए इस बढ़ते ट्रेंड के फायदे क्या हैं और कैसे इस की तैयारियां की जाएं.

 

शाहरुख खान की फिल्म, ‘कुछ कुछ होता है’ का वह डायलौग तो आप सभी को भी याद होगा ‘हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं, शादी भी एक ही बार होती है और प्यार… वो भी एक बार ही होता है…” यानी शादी का दिन वाकई में यादगार होना चाहिए. यही वजह है कि आजकल हर कोई अपने इस खास मौके को डैस्टिनेशन वेडिंग के जरिए यादगार बनाना चाहता है.

बदलते समय के साथ शादियों के आयोजन के स्वरूप में भी बदलाव आ रहा है. जहां आज से 20-30 साल पहले इंटरनैट, सोशल मीडिया और मोबाइल फोन इतने प्रचलित नहीं थे तब शादी की दावतों का आयोजन अलग तरीकों से होता था. उस समय दावतों का आयोजन घर के बड़े कमरे या बाहर के मंडप में होता था जहां मेहमानों के लिए खानेपीने की व्यवस्था की जाती थी. शादी में गाने बजते थे और महिलाएं भी नाचती थीं.

शादी के आयोजन के तरीकों में एक नया बदलाव जो बहुत तेजी से ट्रैंडड कर रहा है वह डैस्टिनेशन वेडिंग का जिस में अब परिवार अपने शहर में ही शादी करने के बजाय डैस्टिनेशन वेडिंग्स को पसंद कर रहे हैं जिस में लोग शादी के लिए घर से दूर किसी खूबसूरत जगह पर जाते हैं, जहां दुल्हन और दूल्हे के अलावा उन के दोस्त, रिश्तेदार व परिवार के लोग मिल कर शादी के समारोह को एंजोय करते हैं.

 

अब लोग शादी को एक इंटिमेट और पर्सनल अफेयर बनाना चाहते हैं. लंबीचौड़ी गेस्ट लिस्ट अब छोटी हो गई है. अब शादियां छोटी और इंटिमेट होने लगी हैं. अब लोगों का फोकस अपने करीबी परिवार और दोस्तों की मौजूदगी में अपने जीवन के इस खास पल के एक्सपीरियंस को यादगार बनाने पर है. अब बिग फैट वेंडिंग यानी 500 से 800 गेस्ट वाली शादियों का ट्रैंड थमने लगा है. अधिकतर शादियों में गेस्ट की संख्या 100 से 150 तक होती है. अगर डैस्टिनेशन वेडिंग पर आने वाले खर्च की बात करें तो यह डैस्टिनेशन वेडिंग की लोकेशन, मेहमानों की संख्या, सर्विसेज और सेलिब्रेशन की कुल अवधि पर भी निर्भर करता है.

डैस्टिनेशन वेडिंग के फायदे

यादगार अनुभव
भारत में शादी के लिए बहुत सारी खूबसूरत लोकेशंस हैं और हर जगह की यूनिक संस्कृति और धरोहर है. जो शादियों को मौडर्न एक्सपीरियंस के साथ ट्रेडिशंस से जोड़ती है.

छोटी गेस्ट लिस्ट और कम खर्च
अब लोग चाहते हैं कि उन की शादी एक पर्सनल अफेयर की तरह ही हो जिस में वे अपने कुछ गिनेचुने नजदीकी दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ अपने जीवन के इस खास मौके को यादगार बनाना चाहते हैं. खर्चों को कम करने का सब से आसान तरीका है अपनी मेहमानों की सूची को सीमित रखना और डैस्टिनेशन वेडिंग इस का बेहतरीन तरीका है.

डैस्टिनेशन वेडिंग यानी वेन्यू के अनलिमिटेड औप्शंस
अगर आप छोटे शहर में रहते हैं तो आप के पास शादी के वेन्यू के लिमिटेड औप्शंस होंगे. ऐसे में डैस्टिनेशन वेडिंग का ट्रैंड आप के लिए कई और भी औप्शंस खोलता है जहां आप को कई यूनीक और खूबसूरत लोकेशंस, स्टनिंग होटल खूबसूरत व्यू के साथ मिलेंगे.

वेडिंग के यादगार पल के साथ छुट्टियों का मजा
डैस्टिनेशन वेडिंग का एक मुख्य आकर्षण यह है कि इस में शादी करने वाले कपल के साथसाथ मेहमानों को भी वेकेशन जैसा आनंद अनुभव होता है. सिर्फ शादी की रात जोड़े को शगुन का लिफाफा पकड़ाने और खाना खा कर घर भागने की जगह मेहमानों को टिक कर शादी के रीतिरिवाजों को एंजोय करने का अवसर मिलता है.
कुल मिला कर डैस्टिनेशन वेडिंग उन जोड़ों के लिए एक बढ़िया विकल्प है जो यह करना चाहते हैं कि उन की शादी वाकई अनोखी और यादगार हो.

 

सफल डैस्टिनेशन वेडिंग की प्लानिंग कैसे करें
सब से पहले आप को डैस्टिनेशन वेडिंग के लिए एक सही लोकेशन की तलाश कर लेनी चाहिए. वेदर कंडीशन, कल्चलर अट्रैक्शन, एक्सैसिबिलिटी और लोकेशन की पौपुलैरिटी ध्यान में रखते हुए आप गोवा, उदयपुर, जयपुर, केरल, जोधपुर और अंडमान आईलैंड जैसी लोकेशंस चुन सकते हैं. कई हिल स्टेशंस भी डैस्टिनेशन वेडिंग के लिए काफी पौपुलर हो रहे हैं.

बजट बना लें
लोकेशन, वेडर्स, डेकोरेशन का निर्णय करने से पहले अपना बजट निर्धारित कर लें. सबकुछ फाइनल करने से पहले एक बार कोस्ट भी जान लें और उसी के आधार पर आगे का फैसला लें.

वैन्यू का चुनाव चुन लें और वेंडर्स बुक कर लें
चाहें आप बीच लोकेशन चुन रहे हैं, गार्डन या पैलेस चुन रहे हैं, याद रखें कि पे करने से पहले एक बार लोकेशन पर जा कर जरूर देखें. फोटोग्राफर, फ्लोरिस्ट चुनने से पहले जान लें कि उन्हें डैस्टिनेशन वेडिंग का आइडिया है या नहीं.

फन एक्टिविटीज प्लान करें
शादी अपनेआप में ही एक मस्ती भरा पल है, लेकिन आप चाहें तो इस में कुछ अच्छी और मजेदार एक्टिविटीज प्लान कर सकते हैं जिस से गेस्ट्स भी मस्ती करेंगे और आप भी फंक्शंस के साथ इसे एंजोय करेंगे.

गेस्ट लिस्ट और होटल फाइनल कर लें
अपनी उस गेस्ट लिस्ट को फाइनल कर लें जो आप के साथ होटल तक जाने वाले हैं और उसी होटल को फाइनल करें जो इतने गेस्ट के रुकने की व्यवस्था कर सकता है. इस बात का भी ध्यान रखें कि एयरपोर्ट या स्टेशन से आने वाले गेस्ट्स के लिए वेन्यू तक पहुंचने के लिए सुविधा हो.

पैकिंग ध्यान से करें
वेडिंग डैस्टिनेशन पर जाने से पहले अच्छी तरह पैकिंग कर लें क्योंकि कोई एक भी चीज छूट गई तो आप का पूरी शादी में मूड खराब हो सकता है. ऐसे में पैकिंग करने से पहले एक लिस्ट बना लें और पैकिंग करने के बाद उस लिस्ट को क्रौस चेक कर लें जिस से कोई भी सामान छूटे नहीं.

मुंबई हाईकोर्ट ने क्यों कहा कि कालेज या काम की जगह पर धार्मिक पहचान दिखाना उचित नहीं

मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हिंदू धर्म के प्रतीकों का प्रदर्शन करना शुरू किया है तब से मुसलमानों और अन्य धर्म को मानने वालों ने भी अपनी धार्मिक पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म का सब से आसान शिकार औरतें होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना है कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.

हाल ही में बौम्बे हाई कोर्ट ने स्कूल और कालेज में बुर्का-हिजाब पहनने की इजाजत की मांग करने वाली याचिका को रद्द करते हुए फैसला दिया कि स्कूल-कालेज में नियमानुसार ड्रैस कोड लागू रहेगा. कोर्ट ने कहा कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज ने कालेज परिसर में जो ‘हिजाब बैन’ लगाया है वह बिलकुल सही है. यह किसी भी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं है बल्कि सभी छात्रों-कालेज पर एक समान नियम लागू हो, इसलिए है.

गौरतलब है कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज की 9 मुसलिम लड़कियों ने कालेज में हिजाब बैन के खिलाफ अदालत में याचिका दाखिल की थी कि इस से उन की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है. उन्होंने कहा कि वे कई सालों से नकाब पहन रही हैं और कालेज में उसे उतारना उन की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है. इस पर जस्टिस एएस चंदुरकर और राजेश पाटिल की बेंच ने कहा कि कालेज को शैक्षणिक संस्थान का संचालन करने का मौलिक अधिकार है. साथ ही कोर्ट ने संस्थान की दलीलों को स्वीकार कर लिया कि ड्रैस कोड सभी छात्राओं पर लागू होता है, चाहे उन का धर्म या जाति कुछ भी हो.

बेंच ने कहा कि हिजाब पहनना एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है या नहीं, यह ऐतिहासिक और तथ्यात्मक रूप से तय किया जाना चाहिए. याचिकाकर्ताओं ने इस तर्क को पुष्ट करने के लिए कोई सामग्री नहीं दी कि हिजाब और नकाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, इसलिए इस संबंध में तर्क विफल हो जाता है. कोर्ट ने कहा कि हमें नहीं लगता कि कालेज द्वारा ड्रैस कोड निर्धारित करना अनुच्छेद 19(1)(ए) (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 25 (धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. अदालत ने कहा कि हमारे विचार में निर्धारित ड्रैस कोड को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 25 के तहत याचिकाकर्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है.

बेंच ने कहा कि कालेज केवल एक ड्रैस कोड निर्धारित कर रहा था. इस तरह के ड्रैस कोड के नियमन को संस्थान में अनुशासन बनाए रखने की दिशा में एक अभ्यास के रूप में माना जाना चाहिए. यह अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) और अनुच्छेद 26 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रशासन के मान्यता प्राप्त मौलिक अधिकार से निकलता है. ड्रैस कोड का पालन करने का आग्रह कालेज परिसर के भीतर है और याचिकाकर्ताओं की पसंद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्यथा प्रभावित नहीं होती है.

कोर्ट ने कहा कि ड्रैस कोड निर्धारित करने के पीछे का मकसद कालेज द्वारा जारी किए गए निर्देशों से स्पष्ट है, जिस के अनुसार इरादा ये है कि किसी स्टूडैंट का धर्म प्रकट नहीं होना चाहिए. पीठ ने कहा कि यह छात्राओं के शैक्षणिक हित के साथसाथ कालेज के प्रशासन और अनुशासन के लिए भी जरूरी है कि यह उद्देश्य हासिल किया जाए. यही कारण है कि स्टूडैंट्स से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने शैक्षणिक कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए उचित निर्देश प्राप्त करने के लिए शैक्षणिक संस्थान में उपस्थित हों. अदालत ने कहा कि ड्रैस कोड के अनुसार छात्राओं से अपेक्षा की जाती है कि वे कुछ औपचारिक और सभ्य पहनें, जिस से उन का धर्म प्रकट न हो.

शिक्षण संस्थानों या कार्यालयों में यदि लोग अपने अपने धर्म के अनुसार कपड़े पहन कर आने लगें तो भारी असमानता पैदा हो जाएगी और उस स्थान पर अराजकता के साथसाथ असुविधा बढ़ जाएगी. एक कार्यालय में एक पंडितजी कैशियर के पद पर आसीन हैं. वे सिर पर चोटी रखते हैं. धोती कुर्ता पहनते हैं, कलावा बांधते हैं और माथे पर हल्दी-चंदन का बड़ा सा तिलक लगाते हैं. उन की वेशभूषा के कारण सब उन को बड़ा श्रेष्ठ समझते हुए उन्हें पंडितजी, पंडितजी कह कर संबोधित करते हैं. पंडितजी को बड़ा गर्व महसूस होता है. वे खूब अकड़ कर चलते हैं. जैसे ब्राह्मण घर में पैदा हो कर उन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है. पूरे औफिस पर रोब ग़ालिब करते हैं. मानों उन से श्रेष्ठ कोई हो ही न. मगर उसी कार्यालय में कुछ दलित कर्मचारी भी हैं, जो उन से नफरत करते हैं. पंडितजी भी उन के बिल लम्बे समय तक अटका कर रखते हैं. जब ऊपर अधिकारी तक शिकायत पहुंचती है, तब जा कर पैसा रिलीज करते हैं. इस से चिढ़ कर दलित स्टाफ भी पंडितजी की कोई बात नहीं सुनता है. मुसलमान स्टाफ भी पंडित की धार्मिक पहचान उजागर करते रहने के कारण उस से नफरत करता है. लेकिन इस सब में नुकसान सिर्फ संस्थान को हो रहा है.

कार्यालय में अगर वह पंडित अपनी धार्मिक पहचान को लपेट कर न आता और बाकी ब्राह्मण स्टाफ की तरह पेंट-शर्ट पहनता तो दलित स्टाफ उस से भी उसी तमीज से पेश आता, जैसे अन्य ब्राह्मण स्टाफ से आता है. अन्य ब्राह्मण स्टाफ और दलित या पिछड़े या मुसलमान या ठाकुर कर्मचारियों के बीच कोई झगड़ा या मनमुटाव नहीं है. सब एकदूसरे से बातचीत हंसीमजाक करते हैं. साथ बैठ कर खाना खाते हैं. बस वो पंडित कैशियर ही उन के बीच एक अलग नमूना सा दिखता है. उस को लगता है कि उस की धार्मिक वेशभूषा उस को बड़ा बना रही है जबकि सच यह है कि वह सफेद भेड़ों के झुंड में एक काली भेंड़ की तरह अलग नजर आता है. उस की वजह से वहां धार्मिक वैमनस्य और नकारात्मकता फैलती है.

इसी तरह सिख समुदाय के लोग अकसर विदेशों में अपनी धार्मिक पहचान पगड़ी और कटार की वजह से वहां की पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं. कई ऐसे समाचार आ चुके हैं जब अमेरिका में सिखों की पगड़ियां उतरवाई गईं. यह निसंदेह उन की धार्मिक आस्था पर चोट करने वाली बात है लेकिन उस देश में सुरक्षा के लिहाज से पुलिस द्वारा ऐसा करना गलत भी नहीं है.

अनेक मुसलिम लड़कियां अपनी धार्मिक आस्था और परिवार व समाज के दबाव में एक उम्र के बाद नकाब ओढ़ने लगती हैं. ऐसा सभी लड़कियां नहीं करती हैं. कोई एक दशक पहले तक भारत में भी नकाब, हिजाब या बुर्के पर कोई सवाल नहीं उठता था. जो मुसलिम लड़कियां बुर्का पहन कर कालेज जाती थीं वे कालेज गेट से अंदर घुसते ही बुर्का उतार कर बैग में रख लेती थीं और छुट्टी के वक्त बाहर आने से पहले फिर पहन लेती थीं, मगर अब वे अपनी इस धार्मिक पहचान को क्लास के अंदर भी खुद से चिपकाए रखना चाहती हैं. इस के पीछे वजह है राजनीति.

मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हर चीज को धर्म से जोड़ा है, धार्मिक पहचान को उजागर करने के लिए बात बात पर जय श्री राम का नारा देना शुरू किया है तब से इसलाम को मानने वालों में भय बढ़ा है. इस भय के कारण उन्होंने भी अपने धर्म की पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म कोई भी हो उस का सब से आसान शिकार औरतें ही होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं और परिवार द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.

सोचिये, यह कितना असुविधाजनक है. एक क्लास में जहां 40-50 छात्रछात्राएं मौजूद हों और गरमी के मौसम में सिर पर सिर्फ एक ही पंखा चल रहा हो वहां शलवार-कुर्ते और दुपट्टे के ऊपर एक और मोटा काला लबादा ओढ़े बैठी लड़की का पढ़ाई में कितना ध्यान लग रहा होगा? अगर यह लड़की किसी साइंस लैब या कैमिस्ट्री लैब में कोई एक्सपेरिमेंट कर रही हो तो वहां यह बुर्का उस की जान के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है? वह आग पकड़ सकता है.

इस के अलावा आंखें छोड़ किसी लड़की का यदि पूरा मुंह नकाब के पीछे है तो अन्य लोगों में उस का चेहरा देखने की उत्सुकता हमेशा होगी. खासतौर पर लड़कों में. यह उत्सुकता उन्हें गलत कार्य के लिए भी उकसा सकती है. यह तो खतरे को न्योता देने जैसा है. जबकि कालेज की अन्य लड़कियां जो नौर्मल कपड़ों में कालेज आती हैं उन के प्रति कोई उत्सुकता लड़कों में पैदा नहीं होती. ढकी हुई चीज को खोल कर देखना तो मानव बिहेवियर है, इस से कैसे मुक्ति मिल सकती है? तो क्यों अपने को ऐसा विषय बना कर रखा जाए जिस में लोगों की दिलचस्पी जागृत हो?

सेना, पुलिस, नेवी या एयरफोर्स हर जगह यूनिफौर्म है. मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट, सब जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में काम करने वालों के लिए एक सी यूनिफौर्म होती है. वकीलों जजों की यूनिफौर्म है. डाक्टरों-नर्सों की यूनिफौर्म है. इन तमाम जगहों पर अपना धार्मिक सिम्बल चिपका कर अलग दिखने की पूरी तरह रोक है. धार्मिक आस्था और धार्मिक दिखावा किसी भी कार्यस्थल पर असमानता और घृणा पैदा करता है. आप की धार्मिक आस्था आप के घर के अंदर तक ही ठीक है.

कुछ लोग गले में रुद्राक्ष की मालाएं डाल कर घूमते हैं और सोचते हैं कि लोग उन्हें बड़े सम्मान से देखते होंगे. कुछ लोग कलाइयों में ढेरों कलावे बांध कर उन का प्रदर्शन करते घूमते हैं. कुछ माथे पर तिलक चिपका कर चलते हैं. ईसाई लोग गले में क्रौस डाल लेते हैं. मेट्रो में अकसर महिलाएं और कभीकभी पुरुष एक छोटे से बैग में माला डाल कर उस का जाप करते देखे जाते हैं. ये सभी सोचते हैं कि ऐसा करने से वे बड़े धार्मिक और संस्कारी नजर आएंगे और लोग उन का सम्मान करेंगे. पर लोग उन्हें उत्सुकता की दृष्टि से देखते हैं. ये सभी लोग सफेद भेड़ों के बीच एक काली भेंड़ की तरह अलग से नजर आते हैं. लोग उन्हें देखते हैं और मुसकराकर मुंह फेर लेते हैं. अधिकांश लोग इस तरह की गतिविधियों को दिखावा ही मानते हैं. सभ्य और शिक्षित लोग समानता में विश्वास करते हैं. सामाजिक समरसता भी तभी आती है जब सब एक जैसे नजर आएं.

अजनबी : बार-बार अवधेश की मां सफर में क्यों डरी हुई थी?

सभी कुछ था वहां, स्टेशनों में आमतौर पर पाई जाने वाली गहमागहमी, हाथों में सूटकेस और कंधे पर बैग लटकाए, चेहरे से पसीना टपकाते यात्री, कुछ के पास सामान के नाम पर मात्र एक बैग और पानी की बोतल, साथ ही, अधिक सामान ले कर यात्रा करने वालों के लिए एक उपहास उड़ाती सी हंसी. कुछ बेचारे इतने थके हुए कि मानो एक कदम भी न चल पाएंगे. कुछ देरी से चल रही ट्रेनों की प्रतीक्षा में प्लेटफौर्म पर ही चादर बिछा कर, अपनी अटैची या बैग को सिरहाना बनाए लेटे हुए या सोये हुए थे. कुछ एकदम खाली हाथ हिलाते हुए निर्विकार, निरुद्देश्य से चले जा रहे थे.

यात्रियों की ऐसी ही विविध प्रजातियों के बीच खड़ी थी मैं और मेरे 2 बच्चे. सफर तो हम भी बहुत लंबा तय कर के आ रहे थे. सामान भी काफी था. तीनों ही अपनेअपने सूटकेस पकड़े हुए थे. किसी पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं था. अवधेश, मेरा बेटा, बहुत सहायता करता है ऐसे समय में. बेटी नीति तो अपना बैग उठा ले, वही बहुत है.

मन में कुछ घबराहट थी. यों तो अनेक बार अकेले सफर कर चुकी थी किंतु पूर्वोत्तर के इस सुदूर असम प्रदेश में पहली बार आना हुआ था. मेरे पति प्रकाश 8 माह पूर्व ही स्थानांतरण के बाद यहां आ चुके थे. बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, इसीलिए स्कूल के सत्र-समापन पर ही हम अब आए थे. मेरी घबराहट का कारण था, यहां आएदिन होने वाले प्रदर्शन, अपहरण, बम विस्फोट और इसी तरह की अराजक घटनाएं जिन के विषय में आएदिन समाचारपत्रों व टैलीविजन में देखा व पढ़ा था. रेलवे स्टेशनों पर पटरियों पर आएदिन अराजक तत्त्व कुछ न कुछ अनहोनी करते थे. किंतु अपनी घबराहट की ‘हिंट’ भी मैं बच्चों को नहीं देना चाहती थी. ‘खामखाह, दोनों डर जाएंगे,’ मैं ने सोचा. अवधेश मेरे चेहरे, मेरे हावभाव से मेरी मनोदशा का एकदम सटीक अनुमान लगा लेता है, इसीलिए प्रयास कर रही थी कि उसे पता न चले कि उस की मम्मी थोड़ी डरी हुई है.

‘‘नीति, बैग ठीक से पकड़ो, हिलाहिला कर क्यों चल रही हो,’’ मैं उस पर झुंझला रही थी. एक बार पहले भी नीति इसी तरह एक सूटकेस को गिरा चुकी थी जिस से उस का हैंडल टूट गया था. बहुत मुश्किल से उसे उठा कर ट्रेन तक ला पाए थे अवधेश और उस के पापा. देखा, तो नीति काफी पीछे रह गई थी, ‘‘थोड़ा तेज चलो न, प्लेटफौर्म नंबर 7 अभी काफी आगे है,’’ मैं ने कहा.

वह कहां चुप रहने वाली थी. झट से बोली, ‘‘चल तो रही हूं, मम्मी. इतने भारी बैग के साथ मैं इस से ज्यादा तेज नहीं चल सकती.’’

‘‘नीति, ला मुझे दे अपना बैग,’’ अवधेश ने कहा.

‘‘ओ वाओ बिग ब्रदर, थैंक्यू,’’ कहते हुए नीति ने बैग वहीं छोड़ दिया.

मुझे बड़ा गुस्सा आया, ‘‘तुम को दिखाई नहीं दे रहा. भैया के पास पहले ही सब से बड़ा सूटकेस है. तुम्हारा बैग भी कैसे पकड़ेगा वह?’’

‘‘ओ मां, आप चिंता न करें, मैं उठा लूंगा,’’ कहतेकहते एक प्रश्नसूचक मुसकराहट से मेरी ओर देखा अवधेश ने. छोटीछोटी बातों पर खीज उठने की मेरी आदत से, तुरंत मेरी घबराहट का अंदाजा लगा लेता है अवधेश. मैं उस की मां हूं, उस की रगरग से वाकिफ हूं. वह भी मेरे हर मूड को, हर अनकही बात को ऐसे समझ लेता है कि कई बार मन एक सुखद आश्चर्य से भर उठता है. कई बार चिढ़ भी जाती मैं, क्यों समझ जाता है यह सबकुछ.

‘‘आप चिंता मत करो, 7 नंबर प्लेटफौर्म पास ही है, धीरेधीरे भी चलेंगे तो 10 मिनट में पहुंच जाएंगे, आप घबराओ मत, मां. बहुत टाइम है हमारे पास,’’ अवधेश बोला.

उस की बातों से कुछ संबल मिला. थोड़ी आश्वस्त हो गई मैं. वैसे तो शाम के 7 ही बजे थे किंतु नौर्थईस्ट इलाके में सूर्यास्त जल्दी हो जाने से इस समय अच्छाखासा अंधेरा हो गया था. सुबह 4 बजे के जगे हम तीनों देहरादून से आ रहे थे. वहां से बस द्वारा दिल्ली, दिल्ली से बाई एअर गुवाहाटी, वहां से एक मारुति वैन में घंटों सफर करने के बाद अब हम खड़े थे एक अन्य रेलवे स्टेशन पर. ‘सिमलगुड़ी’ यह नाम पहली बार ही सुना था. यहां से रात साढ़े 11 बजे की ‘इंटरसिटी’ ट्रेन थी, जोकि सवेरे 5 बजे के आसपास हमें ‘नाजिरा’ पहुंचा देती. वहां छोटा सा कसबा है नाजिरा, प्रकाशजी ने बताया था. वहां तेलखनन से संबंधित गतिविधियां चलती थीं और पिछले 7-8 माह से वे वहां स्थानांतरित थे.

छोटा सा गांव था सिमलगुड़ी. कई ट्रेनें यहां से आतीजाती थीं. महानगरों के आदी हम तीनों को यह स्टेशन एकदम सुनसान सा लग रहा था जबकि ऐसा था नहीं, लोग थे पर लोगों की भीड़ नहीं. रोशनी भी कुछ खास नहीं थी. प्लेटफौर्म नंबर 7 पर एक खाली बैंच देख अवधेश ने सामान रख दिया और हाथ हिला कर हमें जल्दी से वहां आने का इशारा किया. हम दोनों मांबेटी धीरेधीरे अपना सामान लिए पहुंच ही गईं. पुरानी सी बैंच, लकड़ी से बनी, जिस की 5 में से 2 फट्टियां बैठने के स्थान से गायब थीं. और चौथी टांग की तबीयत भी कुछ नासाज लग रही थी. अवधेश ने उपाय सुझाया, ‘‘आप और नीति बैंच के बीचोबीच बैठ जाओ, कुछ नहीं होगा. मैं अपने सूटकेस को नीचे रख कर उस पर बैठ जाऊंगा, ठीक है न, मां.’’

सहमति में मैं ने सिर हिला दिया. वह सामान सैट करने लगा. तीनों ही बहुत थके हुए थे. काफी देर यों ही चुपचाप बैठे रहे और आतेजाते लोगों को देखते रहे.

धीरेधीरे स्टेशन पर खड़ी ट्रेनें एकएक कर अपनेअपने गंतव्य की ओर जा रही थीं. यात्रियों की भीड़ भी छंट रही थी. कुछ समय बाद कुछ ही लोग नजर आ रहे थे वहां. अनजान, सुनसान उस जगह पर बैठी मैं मन ही मन फिर घबराने लगी थी. जो जगह 8 बजे ही इतनी सुनसान लग रही है तो रात साढ़े 11 बजे उस का स्वरूप कैसा होगा, कल्पनामात्र से ही डर रही थी मैं.

कुछ ही देर में वहां 2 युवक आए, कुछ क्षण चारों ओर देखा, फिर हमारी बैंच के समीप ही अपना सामान रखने लगे. एक दृष्टि उन पर डाली. गौरवर्ण, छोटीछोटी आंखें और गोल व भरा सा चेहरा…वहां के स्थानीय लोग लग रहे थे. सामान के नाम पर 2 बड़े बोरे थे जिन का मुंह लाल रंग की प्लास्टिक की डोरी से बंधा था. एक बक्सा स्टील का, पुराने समय की याद दिलाता सा. एक सरसरी नजर उन्होंने हम पर डाली, आंखों ही आंखों में इशारों से कुछ बातचीत की, और दोनों बोरे ठीक हमारी बैंच के पीछे सटा कर लगा दिए. बक्से को अवधेश की ओर रख कर तेजी से वे दोनों वहां से चले गए.

वे दोनों कुछ संदिग्ध लगे. मेरा मन किसी बुरी आशंका से डरने लगा, ‘अब क्या होगा,’ सोचतेसोचते कब मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, पता नहीं. क्या होगा इन बोरों में? कहीं बम तो नहीं? दोनों पक्के बदमाश लग रहे थे. सामान छोड़ कर कोई यों ही नहीं चला जाता. पक्का, इस में बम ही है. बस, अब धमाका होगा. घबराहट में हाथपांव शिथिल  हो रहे थे. बस दौड़ रहे थे तो मेरी कल्पना के बेलगाम घोड़े. कल सुबह के समाचारपत्रों की हैडलाइंस मुझे आज, इसी क्षण दिखाई दे रही थीं… ‘सिमलगुड़ी रेलवे स्टेशन पर कल रात हुए तेज बम धमाकों में कई लोग घायल, कुछ की स्थिति गंभीर.’ हताहतों की सूची में अपना नाम सब से ऊपर दिख रहा था. प्रकाशजी का गमगीन चेहरा, रोतेबिलखते रिश्तेदार और न जाने क्याक्या. पिछले 10 सैकंड में आने वाले 24 घंटों को दिखा दिया था मेरी कल्पना ने.

‘‘मां, देखो, वेइंग मशीन,’’ नीति की आवाज मुझे विचारों की दुनिया से बाहर खींच लाई. कहां थी मैं? मानो ‘टाइम मशीन’ में बैठी आने वाले समय को देख रही थी और यहां दोनों बच्चे बड़े ही कौतूहल से इस छोटे से स्टेशन का निरीक्षण कर रहे थे. कुछ आश्वस्त हुई मैं. घबराहट भी कम हो गई. कुछ उत्तर दे पाती नीति को, उस से पहले ही अवधेश बोला, ‘‘कभी देखी नहीं है क्या? हर स्टेशन पर तो होती हैं ये. वैसे भी अब तो ये आउटडेटेड हो चुकी हैं. इलैक्ट्रौनिक स्केल्स आ जाने से अब इन्हें कोई यूज नहीं करता.’’

सच ही तो कहा उस ने. हर रेलवे स्टेशन पर लालपीलीनीली जलतीबुझती बत्तियों वाली बड़ीबड़ी वजन नापने की मशीनें होती ही हैं. मानो उन के बिना स्टेशन की तसवीर ही अधूरी है. फिर भी किसी फिल्म के चरित्र कलाकार की भांति वे पार्श्व में ही रह जाती हैं, आकर्षण का केंद्र नहीं बन पातीं. किंतु जब हम छोटे बच्चे थे, हमारे लिए ये अवश्य आकर्षण का केंद्र होती थीं. कितनी ही बार पापा से 1 रुपए का सिक्का ले कर मशीन पर अपना वजन मापा करते थे. वजन से अधिक हम बच्चों को लुभाते थे टोकन के पीछे लिखे छोटेछोटे संदेश ‘अचानक धन लाभ होगा’, ‘परिश्रम करें सफलता मिलेगी’, ‘कटु वचनों से परहेज करें’ आदिआदि.

ऐसा ही एक संदेश मुझे आज भी याद है, ‘बुरी संगति छोड़ दें, अप्रत्याशित सफलता मिलेगी.’ मेरा बालमन कई दिनों तक इसी ऊहापोह में रहा कि मेरी कौन सी सहेली अच्छी नहीं है जिस का साथ छोड़ देने से मुझे अप्रत्याशित सफलता मिलेगी, 10वीं की बोर्ड की परीक्षा जो आने वाली थी. खैर, मेरी हर सखी मुझे अतिप्रिय थी. और यदि बुरी होती भी तो मित्रता के मूल्य पर मुझे सफलता की चाह नहीं थी. काफी ‘इमोशनल फूल’ थी मैं या हूं. शायद, इस बार टाइममशीन के ‘पास्ट मोड’ में चली गई थी मैं.

‘‘मां, आप के पास टू रुपीज का कौइन है?’’ नीति की खिचड़ी भाषा ने तेजी से मेरी तंद्रा भंग कर दी.

‘‘कितनी बार कहा है नीति, तुम्हारी इस खिचड़ी भाषा से मुझे बड़ी कोफ्त होती है. अरे, हिंदी बोल रही हो तो ठीक से तो बोलो,’’ मैं झुंझला रही थी, ‘‘पता नहीं, यह आज की पीढ़ी अपनी भाषा तक ठीक से नहीं बोलती,’’ अवधेश मेरी झुंझलाहट पढ़ पा रहा था, बोला, ‘‘अरे मां, आजकल यही हिंगलिश चलती है, आप की जैसी भाषा सुन कर तो लोग ताकते ही रह जाते हैं, कुछ समझ नहीं आता उन्हें. आप भी थोड़ा मौडर्न लिंगो क्यों यूज नहीं करतीं?’’ और दोनों भाईबहन ठहाका मार कर हंसने लगे. मन कुछ हलका सा हो गया.

‘‘अच्छा बाबा, मुझे माफ करो तुम दोनों. मैं ठीक हूं अपने …’’

मेरे वाक्य पूरा करने से पहले ही दोनों एकसाथ बोले, ‘‘प्राचीन काल में,’’ और फिर हंसने लगे.

तभी मैं ने देखा वे दोनों युवक वापस आ रहे थे. हमारे समीप ही वे दोनों अपने सामान पर पांव फैला कर बैठ गए. उन को एकदम अनदेखा करते हुए हम चुपचाप इधरउधर देखने लगे. खैर, कुछ देर सब शांत रहा. फिर वे दोनों अपनी भाषा में वार्त्तालाप करने लगे. एक बात थी, उन की भाषा, बोली, उन का मद्धिम स्वर, सब बड़े ही मीठे थे. मैं चुपचाप समझने का प्रयास करती रही. शायद, उन का ‘प्लान’ समझ आ जाए पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा. आसपास देखा तो स्टेशन पर कम ही लोग थे. गुवाहाटी के लिए खड़ी ट्रेन में अधिकांश लोग यहीं से चढ़े थे. ट्रेन चली गई. एक अजीब सी नीरवता पसर गई थी.

सामने सीढि़यों से उतरते हुए एक सज्जन, कंधे पर टंगा बैग और हाथ में एक बंधा हुआ बोरा लिए इस ओर ही आ रहे थे. 2 बंधे बोरे मेरे पास ही पड़े थे. ‘शायद बोरों में ही सामान भर कर ले जाते हैं ये लोग,’ मैं ने सोचा. तभी वे रुके, जेब से कुछ निकाला और तेजी से हमारी ओर बढ़ने लगे. मैं सतर्क हो गई. पर मेरा संदेह निर्मूल था. वे तो हाथ में एक सिक्का लिए, बड़े ही उत्साह से वजन मापने की मशीन की ओर जा रहे थे. अपना बैग, बोरा नीचे रख धीमे से वे मशीन पर खड़े हो गए. जलतीबुझती बत्तियों के साथ जैसे ही लालसफेद चकरी रुकी वैसे ही उन्होंने सिक्का अंदर डाल दिया जिस की गिरने की आवाज हम ने भी सुनी. अब वे सज्जन बड़ी ही आशा व उत्साह से मशीन के उस भाग को अपलक निहार रहे थे जहां से वजन का टोकन बाहर आता है. 15-20 सैकंड गुजर गए किंतु कुछ नहीं निकला.

पास बैठे युवकों में से एक ने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘की होल दादा?’’ यानी क्या हुआ भाईसाहब. सज्जन ने आग्नेय नेत्रों से पीछे पलट कर देखा पर बोले कुछ नहीं. कुछ समय और गुजरा. टोकन को बाहर न आना था, न आया. दोनों युवक मुंह दबा कर हंस रहे थे. हम तीनों मांबच्चों को कुछ समझ नहीं आया कि हो क्या रहा है.

सिक्का व्यर्थ ही खो देने का दुख था, अपना वजन न देख पाने की हताशा या फिर आसपास के लोगों के उपहास का केंद्र बन जाने की खिसियाहट, इन में से जाने कौन सी भावना के चलते उन्होंने मशीन को भरपूर मुक्का और लात जड़ दी और तेजी से अपना सामान उठा चलते बने. अब की बार दोनों युवकों के साथ नीति व अवधेश भी जोर से हंस पड़े.

एक युवक मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘बाइडो.’’ तभी दूसरे ने उसे हिंदी में बोलने को कहा.

‘‘दीदीजी, यह मशीन मैं 4 बरस से देख रहा हूं,’’ सिक्का लहराते हुए उस ने कहा.

दूसरा बोला, ‘‘हां दीदीजी, हर महीने काम के सिलसिले में 4-5 बार यहां से आनाजाना होता है, पर हम ने इस को काम करते कभी नहीं देखा. लोग सिक्का डालडाल कर इस में दुखी होते रहते हैं.’’

दूसरे युवक की हिंदी पहले युवक से अच्छी थी. दोनों ही हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे.

भय कुछ कम होने लगा. मैं ने उन के नाम पूछे.

‘‘मुकुटनाथ,’’ पहले ने कहा.

‘‘और मेरा, टुनटुन हाटीकाकोटी,’’ दूसरा बेला.

हम तीनों ही हंस पड़े. नीति ने पूछा, ‘‘अंकल, आप तो इतने स्लिम हो फिर टुनटुन नाम क्यों रखा गया आप का?’’

वह समझा नहीं. तब मैं ने बताया कि टुनटुन नाम की एक बहुत मोटी हास्य अभिनेत्री थी, और ‘टुनटुन’ शब्द मोटापे व मसखरेपन का पर्याय ही था हमारे लिए. यह जान कर वह भी मुसकरा दिया.

मैं ने गौर किया, अवधेश थोड़ा सजग हो सीधा बैठ गया था. इतनी जल्दी वह किसी अजनबी से घुलतामिलता नहीं था, शायद अपने पापा की हिदायतें उसे याद हो आई थीं, ‘स्टेशन पर किसी अजनबी से बहुत बात मत करना, एक जगह बैठे रहना, सामान को ध्यान से रखना, कोई पूछे तो कहना कि हम यहीं के हैं. यह पूछने का साहस हम ने कभी नहीं किया कि हमारी शक्लें, बोलीभाषा क्या हमारा परिचय नहीं दे देतीं? आजकल मीठीमीठी बातें कर के लोग दोस्त बन जाते हैं और मौका पाते ही चोरी कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं. सीधेसादे लोगों को वे दूर से ही पहचान लेते हैं.

प्रकाशजी के लिए सारी दुनिया में हम से अधिक सीधासादा (कहना शायद वे बेवकूफ चाहते थे पर कह नहीं पाते थे) और कोई न था और हर व्यक्ति बस हमें ठग लेने की प्रतीक्षा में ही बैठा था. खीज तो बहुत होती थी पर मैं इन सब से…पर एक पति और पिता होने के नाते उन का यह अति सुरक्षात्मक रवैया मैं अच्छी तरह समझती भी थी.

एक और हिदायत याद हो आई, ‘स्टेशन पर पहुंचते ही फोन कर देना, मैं इंतजार करूंगा.’

‘ओह, यहां पहुंचे हुए तो डेढ़ घंटा बीत चुका है, वहां वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे,’ मैं ने अवधेश को याद दिलाया. इधरउधर नजर दौड़ाई कोई पीसीओ नजर नहीं आया, मोबाइल की बैटरी दिन में ‘डाउन’ हो चुकी थी. दोनों बच्चे चुप हो गए. अपने पापा के स्वभाव को जानते थे. समय पर काम नहीं हुआ तो पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता था.

मुकुटनाथ हमें अचानक यों चुप देख कर बोला, ‘‘क्या हुआ, दीदीजी? आप परेशान लग रही हैं.’’

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं, बस घर पर फोन करना था पर कोई बूथ नजर नहीं आ रहा,’’ मैं ने कहा.

‘‘एक टैलीफोन बूथ है तो, किंतु दूर है, स्टेशन के बाहर.’’

पति के क्रोध का कुछ ऐसा डर था कि आव देखा न ताव, पर्स से पैसे निकाले और अवधेश को मुकुटनाथ के साथ भेज दिया. चैन की एक लंबी सांस ली मैं ने. सच, कितनी अच्छाइयां थीं प्रकाशजी में. एक बहुत ही परिश्रमी और सैल्फमेड व्यक्ति थे, कोई दुर्व्यसन नहीं, चरित्रवान और बहुत ही और्गेनाइज्ड… किंतु उन का शौर्ट टैंपर्ड होना, बातबेबात कहीं पर भी चिल्ला देना, सभी अच्छाइयों को धूमिल बना जाता था. बच्चे भी उन से डरते थे.

तकरीबन 10 मिनट गुजर चुके थे अवधेश को मुकुटनाथ के साथ गए. अचानक जैसे मैं नींद से जागी, ‘यह मैं ने क्या किया? बच्चे को एक अजनबी के साथ भेज दिया. अभी कुछ समय पहले जो मुझे संदेहास्पद लग रहे थे उन के साथ?’ कलेजा मुंह को आने का अनुभव उसी क्षण हुआ मुझे. ‘कहीं अवधेश को अपने साथ तो नहीं भगा ले गया वह?’ कल्पना के घोड़े फिर से दौड़ने को तत्पर थे. ‘क्या अवधेश को किडनैप कर लिया है उन्होंने? फिरौती मांगेंगे या कहीं अपने उग्रवादी संगठन में जबरन भरती कर लेंगे. मेरा बच्चा उस संगठन की यूनिफौर्म पहने, माथे पर काली पट्टी और हाथ में स्टेनगन लिए नजर आ रहा था मुझे.’

‘‘मां, कहां खो गईं आप?’’ नीति मेरा कंधा झकझोर रही थी, ‘‘आप का चेहरा अचानक पीला क्यों पड़ गया? तबीयत ठीक है?’’

वह क्या समझती कि कैसा झंझावात चल रहा था भीतर, ‘‘कहां जाऊं, क्या करूं, क्या शोर मचाऊं, कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या मैं भी बाहर जा कर देखूं?’’ पर नीति को एक अन्य अजनबी के साथ छोड़ कर जाने का दुस्साहस नहीं हुआ. यह बेवकूफी मैं ने कैसे कर दी, कोस रही थी स्वयं को मैं.

बाहर से शांत रहने का असफल प्रयास करती मैं देख रही थी, नीति कैसे टुनटुन नाम के उस युवक के साथ खिलखिला रही थी, मशीन पर आनेजाने वालों और उन की प्रतिक्रियाओं पर. उस क्षण उस का वह खिलखिलाना मुझे बेहद अखर रहा था. मन किया कि डांट कर चुप करा दूं. किंतु छठी इंद्रिय संयत रहने को कह रही थी. नीति को बता रहा था टुनटुन कि वह बच्चों को तबला बजाना सिखाता है. और उस का अपना एक म्यूजिकल ग्रुप भी है जो पार्टियों में या अन्य समारोहों में जाता है.

‘‘अंकल, और क्याक्या करते हैं आप?’’ नीति ने पूछा.

‘‘मेरी एक ‘बिहूटोली’ है, बिहू के समय वह घरघर जाती है, गाने गाती है, ‘बिहू’ करती है. पिछले साल फर्स्ट प्राइज भी जीता था हमारी बिहूटोली ने,’’ बड़े उत्साह से वर्णन कर रहा था वह इस बात से अनभिज्ञ कि मैं भीतर ही भीतर क्रोध से धधक रही हूं. अपने क्रोध को दबाते हुए तल्खी भरे स्वर से मैं ने पूछा, ‘‘नाचतेगाते ही हो या कुछ कामधाम भी करते हो?’’

‘‘हां दीदीजी, मैं ने इसी बरस पौलिटैक्निक की परीक्षा पास की है,’’ वह बड़ी विनम्रतापूर्वक बोला.

‘‘और तुम्हारा वह मुकुटनाथ?’’

‘‘दीदीजी, वह चाय की फैक्टरी में काम करता है, त्योहारों में ‘भाओना’ में काम करता है,’’ मेरी कड़वाहट को भांपते हुए वह धीरेधीरे सौम्यता से उत्तर दे रहा था.

‘‘भाओना क्या होता है?’’ नीति ने उत्सुकतापूर्वक पूछा.

‘‘धार्मिक नाटक होता है…’’

नीति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘हांहां अंकल, हमारे होम टाउन में भी होती है ‘रामलीला,’ मैं ने भी देखी है.’’

यहां के लोगों के कलाप्रेमी होने के विषय में मैं जानती थी, किंतु इस वक्त संगीतवंगीत, कलावला सब व्यर्थ की चीजें जान पड़ रही थीं. एक मन हुआ कि उस का गला पकड़ कर चीखचीख कर पूछूं, ‘कहां है मेरा बच्चा? कहां ले गया तुम्हारा साथी उसे?’ क्रोध से जन्मे पागल पशु की नकेल मैं भीतर कस के पकड़े थी. किंतु रहरह कर मेरे स्वर की तल्खी बढ़ जाती.

पूरे 25 मिनट हो गए थे अवधेश को गए. खैर, मेरा संयत रहना ठीक रहा. सामने से अवधेश आ रहा था मुकुटनाथ के साथ. आंखें छलछलाने को हो गईं. फिर संयत किया स्वयं को, कैसे पब्लिक में हम सभ्य समाज के सदस्य अपने इमोशंस को दिखाएं. लोग क्या सोचेंगे, यह फिक्र पहले हो जाती है.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी, अवधेश?’’ भारी सा था मेरा गला.

‘‘कहां मां, देर तो नहीं हुई, यह तो मुकुट दादा शौर्टकट से ले गए वरना और समय लग जाता. हां, पापा से बात हो गई. इसलिए अब आप रिलैक्स हो जाइए. ओ के.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मन ही मन सोच रही थी मुकुटदादा, यह कैसे? फिर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, मुकुटनाथ.’’

‘‘अरे दीदीजी, धन्यवाद किसलिए,’’ शरमा कर बोला वह.

धीरेधीरे उन से बातों की शृंखला जो जुड़ी तो जुड़ती चली गई. दोनों बच्चे उन से घुलमिल गए थे.

उन दोनों युवकों के प्रति मेरे मन में जो कलुषता आ गई थी उसे साफ करने का प्रयास कर रही थी मैं. सच, हम पढ़ेलिखे शहरी लोग महानगरों के कंक्रीट जंगलों में रहतेरहते वैसे ही बन जाते हैं, कंक्रीट जैसे सख्त. किंतु वहां हुए कुछ कटु अनुभव हमें विवश कर देते हैं सरलता छोड़ वक्र हो जाने पर.

निस्वार्थ जैसा शब्द तो महानगरों में अपना अस्तित्व कब का खो चुका था. किसी को निस्वार्थ भाव से या उदारता दिखाते कुछ कार्य करता देख लोग उस की प्रशंसा की जगह उस पर संदेह ही करते हैं. ‘यह कुछ जरूरत से ज्यादा अच्छा बनने की कोशिश कर रहा है, आखिर क्यों? जरूर अपना कोई उल्लू सीधा करना होगा. छोटे गांवों और कसबों में यह निश्छलता अब भी है,’ ये सब सोचते हुए स्वयं पर ग्लानि हो आई.

अब हम और हम से 4 बैंच छोड़ कर एक और परिवार रात को आने वाली इंटरसिटी की प्रतीक्षा कर रहा था. अभी डेढ़ घंटा और बाकी था. प्लेटफौर्म पर डिब्रूगढ़ की ओर जाने वाली गाड़ी आ गई थी. यहां से कोई नहीं चढ़ा. 15 मिनट बाद वह चली गई.

बच्चे टुनटुन और मुकुटनाथ के साथ मिल कर मशीन पर आनेजाने वालों को देख कर अपना मनोरंजन कर रहे थे. सामने से एक स्मार्ट युवक आ रहा था मशीन की ओर. नीति की धीमी आवाज में ‘रनिंग कमैंट्री’ शुरू हो गई. टुनटुन भी साथ दे रहा था.

‘‘हां तो दादा, बैग नीचे रखा?’’

‘‘हां, रखा.’’

‘‘मशीन पर चढ़ा?’’

‘‘हां जी, चढ़ गया.’’

‘‘चरखी रुकी?’’

‘‘बिलकुल नीति बेबी.’’

‘‘सिक्का डाला.’’

‘‘हां, डाल रहा है.’’

‘‘बस, अब यह फंसा…अब देखो क्या होता है?’’

टोकन न आने के कारण मशीन  पर चढ़ा युवक बेचैन हो रहा था. ऊपर खड़ेखड़े ही उस ने जोरों से लैफ्टराइट करना शुरू कर दिया कि शायद झटके से कहीं फंसा हुआ टोकन नीचे आ जाए.

कुछ समय बाद बेहद खीज गया वह और मशीन को दाएंबाएं ढोलक की तरह बजाने लगा. अचानक गश्त करते एक सिपाही को देख मशीन से उतर गया. ज्यों ही सिपाही आगे गया, एक भरपूर किक मशीन को रसीद कर दी उस ने. चारों ओर घूम के भी देखा, कहीं कोई साक्ष्य तो नहीं उस के शौर्य का. तुरंत हम ने मुंह घुमा लिए. हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे हम सभी. ऐसे ही कितने आए, कितने गए. मशीन सभी के सिक्के लीलती रही. किसी को कृतार्थ नहीं किया उस ने हंसतेहसंते समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला. कहां थी मैं, इस अनजान सुनसान प्लेटफौर्म पर, रात के 11 बजे, अनजाने लोग अनजानी जगह. फिर भी घबराहट नहीं, कोई डर नहीं.

‘‘दीदीजी, आप की इंटरसिटी लग गई, देखिए,’’ टुनटुन ने कहा, ‘‘अब आप का सामान गाड़ी में रख देते हैं.’’

‘‘अरे, हम रख लेंगे, आप रहने दीजिए,’’ औपचारिकतावश मैं ने कहा.

बगल में मुकुटनाथ अपनी बोरी को खोल कर उस में से कुछ निकाल रहा था. मेरे पास आया और 2 खाकी भूरे से कागज के बडे़बड़े पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘दीदीजी, यह चायपत्ती है, जहां मैं काम करता हूं न उसी फैक्टरी की. आप को अच्छी लगेगी, ले लीजिए.’’

‘‘अरे नहींनहीं, मुझे नहीं चाहिए,’’ मैं ने पीछे होते हुए कहा.

‘‘ले लीजिए न, दीदीजी,’’ उस ने अनुनय की.

मैं अब मना नहीं कर सकी और पैसे निकालने के लिए पर्स खोलने लगी.

‘‘अरे दीदीजी, नहींनहीं,’’ हाथ जोड़ कर उस ने कहा, ‘‘अपनी दीदीजी से हम पैसा कैसे ले सकते हैं,’’ और तेजी से हमारा सामान उठा कर चल दिया.

टुनटुन और मुकुटनाथ दोनों ने हमारी  सीट के नीचे हमारा सारा सामान सैट कर दिया था. गाड़ी छूटने का समय हो चला था. टुनटुन नीचे उतरा और 2 मिनट बाद फिर हमारे पास आया. पानी की 2 बोतलें और बिस्कुट के पैकेट ले कर. नीति को थमाते हुए वह बोला, ‘‘रात को बच्चों को प्यास लगेगी, दीदीजी, और अब तो रात बहुत हो गई है, कोई पानी वाला, चाय वाला इस समय गाड़ी में नहीं मिलेगा.’’

‘‘ठीक है भैया, अब तुम लोग जाओ,’’ मैं ने कहा.

गाड़ी सरकने लगी थी. ‘नहींनहीं, अंकल’, सुन कर बच्चों की ओर देखा तो पाया मुकुटनाथ दोनों की हथेलियों पर 10-10 रुपए का नोट रख रहा था, ‘‘टौफी खाना, बाबू, ठीक है,’’ उन के सिरों पर हाथ रख कर वह जाने लगा.

‘‘अरे, यह क्या,’’ मैं कुछ और कहती इस से पहले वे नीचे उतर चुके थे.

दोनों बच्चे भावविभोर थे. उन 10-10 रुपए की ‘फेस वैल्यू’ चाहे जो भी हो, इस क्षण में वे नोट नीति व अवधेश के लिए अमूल्य थे. दोनों नीचे खड़े हुए बच्चों को हाथ हिला कर बाय कर रहे थे. ट्रेन धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. मैं ने पाया कि हाथ हिलातेहिलाते दूसरे हाथ से अपनी आंखें भी पोंछ रहे थे. ‘हैं, इतना स्नेह’ मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी. अपने बच्चों की आंखों में भी उदासी साफ देख पा रही थी मैं. बात बदलने के उद्देश्य से बेटे से पूछा, ‘‘इन लोगों की ट्रेन कितने बजे की है, मैं ने तो पूछा भी नहीं?’’

भारी स्वर में अवधेश बोला, ‘‘मां, उन को तो डिब्रूगढ़ की ट्रेन पकड़नी थी जो हम से काफी पहले आ गई थी, लेकिन उन्होंने मिस कर दिया उसे.’’

मैं हैरान थी. ‘‘पर क्यों?’’

‘‘हमारे लिए मां. जब मैं फोन करने उन के साथ गया था तो उन्हें बताया था कि हम पहली बार यहां आए हैं. शायद उन्होंने भांप लिया था कि आप नई जगह पर अकेले घबरा रही हैं. मुकुटदादा ने बोला कि आप सब को ट्रेन में बिठा कर वे स्टेशन के बाहर से डिब्रूगढ़ की बस पकड़ लेंगे. सच, मां, यकीन नहीं होता, इतने अच्छे लोग भी होते हैं.’’

अवाक् थी मैं. आंखें धुंधला गईं. कब मैं उन की ‘दीदीजी’ बन गई थी, पता ही नहीं चला. कैसे बन गए थे वे मेरे आत्मीय, मेरे अपने से अजनबी.

मेरी पत्नी का मुझसे ज्यादा मेरे दोस्त से अट्रैक्शन है, कहीं वह मुझे छोड़ कर चली न जाए, मैं क्या करूं?

सवाल
मेरी शादी को 2 साल हुए हैं लेकिन मेरी पत्नी का मुझ से ज्यादा मेरे दोस्त से अट्रैक्शन है. वह मुझ से बोलती भी है कि तुम्हें अच्छे से रहना नहीं आता जबकि मैं ने उसे शादी से पहले ही बता दिया था कि मैं बहुत साधारण हूं. मुझे इस बात से अंदर ही अंदर घुटन महसूस हो रही है कि कहीं वह मुझे छोड़ कर चली न जाए. मैं उसे बहुत प्यार करता हूं?

जवाब
जिस तरह लड़के इच्छा रखते हैं कि उन की पत्नी बनठन कर रहे, उसी तरह लड़कियों की भी इच्छा रहती है कि उन का पति हैंडसम दिखे ताकि हर कोई उन की तारीफ करे.

यही आप की पत्नी के साथ भी हुआ है कि वे आप के साधारण रहनसहन के कारण दोस्तों के बीच खुद को काफी नीचा महसूस करने के चलते आप के दोस्त के मौडर्न लुक की तरफ आकर्षित हो रही हैं. वैसे किसी के लुक को पसंद करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन उस के कारण आप की उपेक्षा करना बिलकुल भी सही नहीं है जबकि आप उन्हें शादी से पहले ही बता चुके थे कि आप को साधारण रहनसहन पसंद है.

आप अपनी पत्नी को प्यार से समझाएं कि अब तुम्हारी शादी हो गई है और इस तरह की हरकतें शादी के बाद शोभा नहीं देतीं. और रही लुक की बात, तो मैं खुद को बदलने के लिए भी तैयार हूं.

फिर भी उसे समझ न आए, तो सख्ती का रुख अपनाएं ताकि भविष्य में आप इस के खतरनाक परिणामों से बच सकें और इस बात से बिलकुल न घबराएं कि वह आप को छोड़ कर चली जाएगी. आप ने तो उस से सच्चा रिश्ता निभाया है, अगर वह आप की कद्र न करे तो आप उस की चिंता में खुद को दुखी न करें.

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‘‘अरे वाह देवरजी, तुम तो एकदम मुंबइया हीरो लग रहे हो,’’ सुशीला ने अपने चचेरे देवर शिवम को देख कर कहा.

‘‘देवर भी तो तुम्हारा ही हूं भाभी. तुम भी तो हीरोइनों से बढ़ कर लग रही हो,’’ भाभी के मजाक का जवाब देते हुए शिवम ने कहा.

‘‘जाओजाओ, तुम ऐसे ही हमारा मजाक बना रहे हो. हम तो हीरोइन के पैर की धूल के बराबर भी नहीं हैं.’’

‘‘अरे नहीं भाभी, ऐसा नहीं है. हीरोइनें तो  मेकअप कर के सुंदर दिखती हैं, तुम तो ऐसे ही सुंदर हो.’’

‘‘अच्छा तो किसी दिन अकेले में मिलते हैं,’’ कह कर सुशीला चली गई.

इस बातचीत के बाद शिवम के तनमन के तार झनझना गए. वह सुशीला से अकेले में मिलने के सपने देखने लगा.

नाजायज संबंध अपनी कीमत वसूल करते हैं. यह बात लखनऊ के माल थाना इलाके के नबी पनाह गांव में रहने वाले शिवम को देर से समझ आई.

शिवम मुंबई में रह कर फुटकर सामान बेचने का काम करता था. उस के पिता देवेंद्र प्रताप सिंह किसान थे.

गांव में साधारण सा घर होने के चलते शिवम कमाई करने मुंबई चला गया था. 4 जून, 2016 को वह घर वापस आया था.

शिवम को गांव का माहौल अपना सा लगता था. मुंबई में रहने के चलते वह गांव के दूसरे लड़कों से अलग दिखता था. पड़ोस में रहने वाली भाभी सुशीला की नजर उस पर पड़ी, तो दोनों में हंसीमजाक होने लगा.

सुशीला ने एक रात को मोबाइल फोन पर मिस्ड काल दे कर शिवम को अपने पास बुला लिया. वहीं दोनों के बीच संबंध बन गए और यह सिलसिला चलने लगा.

कुछ दिन बाद जब सुशीला समझ गई कि शिवम पूरी तरह से उस की गिरफ्त में आ चुका है, तो उस ने शिवम से कहा, ‘‘देखो, हम दोनों के संबंधों की बात हमारे ससुरजी को पता चल गई है. अब हमें उन को रास्ते से हटाना पड़ेगा.’’ यह बात सुन कर शिवम के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई.

सुशीला इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह बोली, ‘‘तुम सोचो मत. इस के बदले में हम तुम को पैसा भी देंगे.’’

शिवम दबाव में आ गया और उस ने यह काम करने की रजामंदी दे दी.

नबी पनाह गांव में रहने वाले मुन्ना सिंह के 2 बेटे थे. सुशीला बड़े बेटे संजय सिंह की पत्नी थी. 5 साल पहले संजय और सुशीला की शादी हुई थी.

सुशीला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के महराजगंज थाना इलाके के मांझ गांव की रहने वाली थी. ससुराल आ कर सुशीला को पति संजय से ज्यादा देवर रणविजय अच्छा लगने लगा था. उस ने उस के साथ संबंध बना लिए थे.

दरअसल, सुशीला ससुराल की जायदाद पर अकेले ही कब्जा करना चाहती थी. उस ने यही सोच कर रणविजय से संबंध बनाए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के देवर की शादी हो.

इधर सुशीला और रणविजय के संबंधों का पता ससुर मुन्ना सिंह और पति संजय सिंह को लग चुका था. वे लोग सोच रहे थे कि अगर रणविजय की शादी हो जाए, तो सुशीला की हरकतों को रोका जा सकता है.

सुशीला नहीं चाहती थी कि रणविजय की शादी हो व उस की पत्नी और बच्चे इस जायदाद में हिस्सा लें.

लखनऊ का माल थाना इलाका आम के बागों के लिए मशहूर है. यहां जमीन की कीमत बहुत ज्यादा है. सुशीला के ससुर के पास  करोड़ों की जमीन थी.

सुशीला को पता था कि ससुर मुन्ना सिंह को रास्ते से हटाने के काम में देवर रणविजय उस का साथ नहीं देगा, इसलिए उस ने अपने चचेरे देवर शिवम को अपने जाल में फांस लिया.

12 जून, 2016 की रात मुन्ना सिंह आम की फसल बेच कर अपने घर आए. इस के बाद खाना खा कर वे आम के बाग में सोने चले गए. वे पैसे भी हमेशा अपने साथ ही रखते थे.

सुशीला ने ससुर मुन्ना सिंह के जाते ही पति संजय और देवर रणविजय को खाना खिला कर सोने भेज दिया. जब सभी सो गए, तो सुशीला ने शिवम को फोन कर के गांव के बाहर बुला लिया.

शिवम ने अपने साथ राघवेंद्र को भी ले लिया था. वे तीनों एक जगह मिले और फिर उन्होंने मुन्ना सिंह को मारने की योजना बना ली.

उन तीनों ने दबे पैर पहुंच कर मुन्ना सिंह को दबोचने से पहले चेहरे पर कंबल डाल दिया. सुशीला ने उन के पैर पकड़ लिए और शिवम व राघवेंद्र ने उन को काबू में कर लिया.

जान बचाते समय मुन्ना सिंह चारपाई से नीचे गिर गए. वहीं पर उन दोनों ने गमछे से गला दबा कर उन की हत्या कर दी.

मुन्ना सिंह की जेब में 9 हजार, 2 सौ रुपए मिले. शिवम ने 45 सौ रुपए राघवेंद्र को दे दिए. इस के बाद वे तीनों अपनेअपने घर चले गए.

सुबह पूरे गांव में मुन्ना सिंह की हत्या की खबर फैल गई. उन के बेटे संजय और रणविजय ने माल थाने में हत्या का मुकदमा दर्ज कराया. एसओ माल विनय कुमार सिंह ने मामले की जांच शुरू की.

पुलिस ने हत्या में जायदाद को वजह मान कर अपनी खोजबीन शुरू की. मुन्ना सिंह की बहू सुशीला पुलिस को बारबार गुमराह करने की कोशिश कर रही थी.

पुलिस ने जब मुन्ना सिंह के दोनों बेटों संजय और रणविजय से पूछताछ की, तो वे दोनों बेकुसूर नजर आए.

इस बीच गांव में यह पता चला कि सुशीला के अपने देवर रणविजय से नाजायज संबंध हैं. इस बात पर पुलिस ने सुशीला से पूछताछ की, तो उस की कुछ हरकतें शक जाहिर करने लगीं.

एसओ माल विनय कुमार सिंह ने सीओ, मलिहाबाद मोहम्मद जावेद और एसपी ग्रामीण प्रताप गोपेंद्र यादव से बात कर पुलिस की सर्विलांस सैल और क्राइम ब्रांच की मदद ली.

सर्विलांस सैल के एसआई अक्षय कुमार, अनुराग मिश्रा और योगेंद्र कुमार ने सुशीला के मोबाइल को खंगाला, तो  पता चला कि सुशीला ने शिवम से देर रात तक उस दिन बात की थी.

पुलिस ने शिवम का फोन देखा, तो उस में राघवेंद्र का नंबर मिला. इस के बाद पुलिस ने राघवेंद्र, शिवम और सुशीला से अलगअलग बात की.

सुशीला अपने देवर रणविजय को हत्या के मामले में फंसाना चाहती थी. वह पुलिस को बता रही थी कि शिवम का फोन उस के देवर रणविजय के मोबाइल पर आ रहा था.

सुशीला सोच रही थी कि पुलिस हत्या के मामले में देवर रणविजय को जेल भेज दे, तो वह अकेली पूरी जायदाद की मालकिन बन जाएगी, पर पुलिस को सच का पता चल चुका था.

पुलिस ने तीनों को साथ बिठाया, तो सब ने अपना जुर्म कबूल कर लिया.

14 जून, 2016 को पुलिस ने राघवेंद्र, शिवम और सुशीला को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. वहां से उन तीनों को जेल भेज दिया गया.

सुशीला अपने साथ डेढ़ साला बेटे को जेल ले गई. उस की 4 साल की बेटी को पिता संजय ने अपने पास रख लिया.

जेल जाते समय सुशीला के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. वह शिवम और राघवेंद्र पर इस बात से नाराज थी कि उन लोगों ने यह क्यों बताया कि हत्या करते समय उस ने ससुर मुन्ना सिंह के पैर पकड़ रखे थे.

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