मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हिंदू धर्म के प्रतीकों का प्रदर्शन करना शुरू किया है तब से मुसलमानों और अन्य धर्म को मानने वालों ने भी अपनी धार्मिक पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म का सब से आसान शिकार औरतें होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना है कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.
हाल ही में बौम्बे हाई कोर्ट ने स्कूल और कालेज में बुर्का-हिजाब पहनने की इजाजत की मांग करने वाली याचिका को रद्द करते हुए फैसला दिया कि स्कूल-कालेज में नियमानुसार ड्रैस कोड लागू रहेगा. कोर्ट ने कहा कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज ने कालेज परिसर में जो ‘हिजाब बैन’ लगाया है वह बिलकुल सही है. यह किसी भी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं है बल्कि सभी छात्रों-कालेज पर एक समान नियम लागू हो, इसलिए है.
गौरतलब है कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज की 9 मुसलिम लड़कियों ने कालेज में हिजाब बैन के खिलाफ अदालत में याचिका दाखिल की थी कि इस से उन की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है. उन्होंने कहा कि वे कई सालों से नकाब पहन रही हैं और कालेज में उसे उतारना उन की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है. इस पर जस्टिस एएस चंदुरकर और राजेश पाटिल की बेंच ने कहा कि कालेज को शैक्षणिक संस्थान का संचालन करने का मौलिक अधिकार है. साथ ही कोर्ट ने संस्थान की दलीलों को स्वीकार कर लिया कि ड्रैस कोड सभी छात्राओं पर लागू होता है, चाहे उन का धर्म या जाति कुछ भी हो.
बेंच ने कहा कि हिजाब पहनना एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है या नहीं, यह ऐतिहासिक और तथ्यात्मक रूप से तय किया जाना चाहिए. याचिकाकर्ताओं ने इस तर्क को पुष्ट करने के लिए कोई सामग्री नहीं दी कि हिजाब और नकाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, इसलिए इस संबंध में तर्क विफल हो जाता है. कोर्ट ने कहा कि हमें नहीं लगता कि कालेज द्वारा ड्रैस कोड निर्धारित करना अनुच्छेद 19(1)(ए) (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 25 (धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. अदालत ने कहा कि हमारे विचार में निर्धारित ड्रैस कोड को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 25 के तहत याचिकाकर्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है.
बेंच ने कहा कि कालेज केवल एक ड्रैस कोड निर्धारित कर रहा था. इस तरह के ड्रैस कोड के नियमन को संस्थान में अनुशासन बनाए रखने की दिशा में एक अभ्यास के रूप में माना जाना चाहिए. यह अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) और अनुच्छेद 26 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रशासन के मान्यता प्राप्त मौलिक अधिकार से निकलता है. ड्रैस कोड का पालन करने का आग्रह कालेज परिसर के भीतर है और याचिकाकर्ताओं की पसंद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्यथा प्रभावित नहीं होती है.
कोर्ट ने कहा कि ड्रैस कोड निर्धारित करने के पीछे का मकसद कालेज द्वारा जारी किए गए निर्देशों से स्पष्ट है, जिस के अनुसार इरादा ये है कि किसी स्टूडैंट का धर्म प्रकट नहीं होना चाहिए. पीठ ने कहा कि यह छात्राओं के शैक्षणिक हित के साथसाथ कालेज के प्रशासन और अनुशासन के लिए भी जरूरी है कि यह उद्देश्य हासिल किया जाए. यही कारण है कि स्टूडैंट्स से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने शैक्षणिक कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए उचित निर्देश प्राप्त करने के लिए शैक्षणिक संस्थान में उपस्थित हों. अदालत ने कहा कि ड्रैस कोड के अनुसार छात्राओं से अपेक्षा की जाती है कि वे कुछ औपचारिक और सभ्य पहनें, जिस से उन का धर्म प्रकट न हो.
शिक्षण संस्थानों या कार्यालयों में यदि लोग अपने अपने धर्म के अनुसार कपड़े पहन कर आने लगें तो भारी असमानता पैदा हो जाएगी और उस स्थान पर अराजकता के साथसाथ असुविधा बढ़ जाएगी. एक कार्यालय में एक पंडितजी कैशियर के पद पर आसीन हैं. वे सिर पर चोटी रखते हैं. धोती कुर्ता पहनते हैं, कलावा बांधते हैं और माथे पर हल्दी-चंदन का बड़ा सा तिलक लगाते हैं. उन की वेशभूषा के कारण सब उन को बड़ा श्रेष्ठ समझते हुए उन्हें पंडितजी, पंडितजी कह कर संबोधित करते हैं. पंडितजी को बड़ा गर्व महसूस होता है. वे खूब अकड़ कर चलते हैं. जैसे ब्राह्मण घर में पैदा हो कर उन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है. पूरे औफिस पर रोब ग़ालिब करते हैं. मानों उन से श्रेष्ठ कोई हो ही न. मगर उसी कार्यालय में कुछ दलित कर्मचारी भी हैं, जो उन से नफरत करते हैं. पंडितजी भी उन के बिल लम्बे समय तक अटका कर रखते हैं. जब ऊपर अधिकारी तक शिकायत पहुंचती है, तब जा कर पैसा रिलीज करते हैं. इस से चिढ़ कर दलित स्टाफ भी पंडितजी की कोई बात नहीं सुनता है. मुसलमान स्टाफ भी पंडित की धार्मिक पहचान उजागर करते रहने के कारण उस से नफरत करता है. लेकिन इस सब में नुकसान सिर्फ संस्थान को हो रहा है.
कार्यालय में अगर वह पंडित अपनी धार्मिक पहचान को लपेट कर न आता और बाकी ब्राह्मण स्टाफ की तरह पेंट-शर्ट पहनता तो दलित स्टाफ उस से भी उसी तमीज से पेश आता, जैसे अन्य ब्राह्मण स्टाफ से आता है. अन्य ब्राह्मण स्टाफ और दलित या पिछड़े या मुसलमान या ठाकुर कर्मचारियों के बीच कोई झगड़ा या मनमुटाव नहीं है. सब एकदूसरे से बातचीत हंसीमजाक करते हैं. साथ बैठ कर खाना खाते हैं. बस वो पंडित कैशियर ही उन के बीच एक अलग नमूना सा दिखता है. उस को लगता है कि उस की धार्मिक वेशभूषा उस को बड़ा बना रही है जबकि सच यह है कि वह सफेद भेड़ों के झुंड में एक काली भेंड़ की तरह अलग नजर आता है. उस की वजह से वहां धार्मिक वैमनस्य और नकारात्मकता फैलती है.
इसी तरह सिख समुदाय के लोग अकसर विदेशों में अपनी धार्मिक पहचान पगड़ी और कटार की वजह से वहां की पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं. कई ऐसे समाचार आ चुके हैं जब अमेरिका में सिखों की पगड़ियां उतरवाई गईं. यह निसंदेह उन की धार्मिक आस्था पर चोट करने वाली बात है लेकिन उस देश में सुरक्षा के लिहाज से पुलिस द्वारा ऐसा करना गलत भी नहीं है.
अनेक मुसलिम लड़कियां अपनी धार्मिक आस्था और परिवार व समाज के दबाव में एक उम्र के बाद नकाब ओढ़ने लगती हैं. ऐसा सभी लड़कियां नहीं करती हैं. कोई एक दशक पहले तक भारत में भी नकाब, हिजाब या बुर्के पर कोई सवाल नहीं उठता था. जो मुसलिम लड़कियां बुर्का पहन कर कालेज जाती थीं वे कालेज गेट से अंदर घुसते ही बुर्का उतार कर बैग में रख लेती थीं और छुट्टी के वक्त बाहर आने से पहले फिर पहन लेती थीं, मगर अब वे अपनी इस धार्मिक पहचान को क्लास के अंदर भी खुद से चिपकाए रखना चाहती हैं. इस के पीछे वजह है राजनीति.
मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हर चीज को धर्म से जोड़ा है, धार्मिक पहचान को उजागर करने के लिए बात बात पर जय श्री राम का नारा देना शुरू किया है तब से इसलाम को मानने वालों में भय बढ़ा है. इस भय के कारण उन्होंने भी अपने धर्म की पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म कोई भी हो उस का सब से आसान शिकार औरतें ही होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं और परिवार द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.
सोचिये, यह कितना असुविधाजनक है. एक क्लास में जहां 40-50 छात्रछात्राएं मौजूद हों और गरमी के मौसम में सिर पर सिर्फ एक ही पंखा चल रहा हो वहां शलवार-कुर्ते और दुपट्टे के ऊपर एक और मोटा काला लबादा ओढ़े बैठी लड़की का पढ़ाई में कितना ध्यान लग रहा होगा? अगर यह लड़की किसी साइंस लैब या कैमिस्ट्री लैब में कोई एक्सपेरिमेंट कर रही हो तो वहां यह बुर्का उस की जान के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है? वह आग पकड़ सकता है.
इस के अलावा आंखें छोड़ किसी लड़की का यदि पूरा मुंह नकाब के पीछे है तो अन्य लोगों में उस का चेहरा देखने की उत्सुकता हमेशा होगी. खासतौर पर लड़कों में. यह उत्सुकता उन्हें गलत कार्य के लिए भी उकसा सकती है. यह तो खतरे को न्योता देने जैसा है. जबकि कालेज की अन्य लड़कियां जो नौर्मल कपड़ों में कालेज आती हैं उन के प्रति कोई उत्सुकता लड़कों में पैदा नहीं होती. ढकी हुई चीज को खोल कर देखना तो मानव बिहेवियर है, इस से कैसे मुक्ति मिल सकती है? तो क्यों अपने को ऐसा विषय बना कर रखा जाए जिस में लोगों की दिलचस्पी जागृत हो?
सेना, पुलिस, नेवी या एयरफोर्स हर जगह यूनिफौर्म है. मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट, सब जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में काम करने वालों के लिए एक सी यूनिफौर्म होती है. वकीलों जजों की यूनिफौर्म है. डाक्टरों-नर्सों की यूनिफौर्म है. इन तमाम जगहों पर अपना धार्मिक सिम्बल चिपका कर अलग दिखने की पूरी तरह रोक है. धार्मिक आस्था और धार्मिक दिखावा किसी भी कार्यस्थल पर असमानता और घृणा पैदा करता है. आप की धार्मिक आस्था आप के घर के अंदर तक ही ठीक है.
कुछ लोग गले में रुद्राक्ष की मालाएं डाल कर घूमते हैं और सोचते हैं कि लोग उन्हें बड़े सम्मान से देखते होंगे. कुछ लोग कलाइयों में ढेरों कलावे बांध कर उन का प्रदर्शन करते घूमते हैं. कुछ माथे पर तिलक चिपका कर चलते हैं. ईसाई लोग गले में क्रौस डाल लेते हैं. मेट्रो में अकसर महिलाएं और कभीकभी पुरुष एक छोटे से बैग में माला डाल कर उस का जाप करते देखे जाते हैं. ये सभी सोचते हैं कि ऐसा करने से वे बड़े धार्मिक और संस्कारी नजर आएंगे और लोग उन का सम्मान करेंगे. पर लोग उन्हें उत्सुकता की दृष्टि से देखते हैं. ये सभी लोग सफेद भेड़ों के बीच एक काली भेंड़ की तरह अलग से नजर आते हैं. लोग उन्हें देखते हैं और मुसकराकर मुंह फेर लेते हैं. अधिकांश लोग इस तरह की गतिविधियों को दिखावा ही मानते हैं. सभ्य और शिक्षित लोग समानता में विश्वास करते हैं. सामाजिक समरसता भी तभी आती है जब सब एक जैसे नजर आएं.