सुबह से अपने कमरे में बैठेबैठे में उक्ता सी गई थी. करने को कुछ था नहीं और करना भी चाहती है तो शरीर साथ नहीं दे रहा था. नाश्ता मुझे अपने कमरे में ही मिल जाता, फिर थोड़ा आराम कर के मैं अखबार पढ़ती. लगभग 11 बजे मैं अपने वाकर के सहारे बड़ी मुश्किल से कमरे से बाहर बरामदे तक जा पाती.
गठिया के कारण जमीन पर पांव घसीटघसीट कर चलना अब मेरी नियति बन चुकी थी. बस, यही रोज का क्रम था मेरा.
कमरे में मैं ने एक व्हीलचेयर भी रखी हुई थी पर उसे चलाने वाला कोई नहीं था. मैं अपने पांवों को भी चेयर पर नहीं टिका सकती थी. और वाकर ले कर भी मैं उस समय चलती थी जब मुझे कोई देख नहीं रहा होता. मैं 10-15 कदम भी नहीं चल पाती और लडख़ड़ा जाती. फिर चोरीचोरी इधरउधर देखती कि कोई मुझे देख न ले, नहीं तो ताने सुनने पड़ते. इस घर में आए मुझे 6 महीने से अधिक हो गए थे. कहने को मेरे सब थे मगर अपना कोई नहीं था जो मेरे खून के रिश्ते से बंधा हो. भाई सडक़ हादसे में कुछ समय पहले ही गुजर गए थे, भाभी इस घर में अपने बेटे राहुल और बहू रेवती के साथ रहती थी.
बंसी उन का नौकर था जो हमेशा बड़बड़ाता ही रहता था.
मैं नहीं चाहती थी कि किसी पर बोझ बनूं, परंतु सच तो यह है कि वह तो मैं बन ही चुकी थी. अपने जूठे बरतन किचन में रखने जाती तो दूर से ही वह टोक देती, ‘दीदी, आप किचन में मत आया करो.’
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