सुबह से अपने कमरे में बैठेबैठे में उक्ता सी गई थी. करने को कुछ था नहीं और करना भी चाहती है तो शरीर साथ नहीं दे रहा था. नाश्ता मुझे अपने कमरे में ही मिल जाता, फिर थोड़ा आराम कर के मैं अखबार पढ़ती. लगभग 11 बजे मैं अपने वाकर के सहारे बड़ी मुश्किल से कमरे से बाहर बरामदे तक जा पाती.
गठिया के कारण जमीन पर पांव घसीटघसीट कर चलना अब मेरी नियति बन चुकी थी. बस, यही रोज का क्रम था मेरा.
कमरे में मैं ने एक व्हीलचेयर भी रखी हुई थी पर उसे चलाने वाला कोई नहीं था. मैं अपने पांवों को भी चेयर पर नहीं टिका सकती थी. और वाकर ले कर भी मैं उस समय चलती थी जब मुझे कोई देख नहीं रहा होता. मैं 10-15 कदम भी नहीं चल पाती और लडख़ड़ा जाती. फिर चोरीचोरी इधरउधर देखती कि कोई मुझे देख न ले, नहीं तो ताने सुनने पड़ते. इस घर में आए मुझे 6 महीने से अधिक हो गए थे. कहने को मेरे सब थे मगर अपना कोई नहीं था जो मेरे खून के रिश्ते से बंधा हो. भाई सडक़ हादसे में कुछ समय पहले ही गुजर गए थे, भाभी इस घर में अपने बेटे राहुल और बहू रेवती के साथ रहती थी.
बंसी उन का नौकर था जो हमेशा बड़बड़ाता ही रहता था.
मैं नहीं चाहती थी कि किसी पर बोझ बनूं, परंतु सच तो यह है कि वह तो मैं बन ही चुकी थी. अपने जूठे बरतन किचन में रखने जाती तो दूर से ही वह टोक देती, ‘दीदी, आप किचन में मत आया करो.’
‘मैं तो बस अपने बरतन रखने आ रही थी.’
‘मैं बरतन खुद ही उठा लूंगी, नहीं तो बंसी उठा लाएगा. कहीं चलतेचलते गिर पड़ी तो अस्पताल के चक्कर कौन लगाएगा. आप प्लीज अपने कमरे में ही रहा कीजिए. मुझे सुबहसुबह और भी कई काम होते हैं,’ यह कह कर वह चली जाती.
अब तक में जान चुकी थी कि वह जबान से भले ही तेज हो पर मन की साफ और प्रैक्टिकल थी. वह जैसी बाहर से थी वैसी ही भीतर भी. काश, मैं ने उस का यह गुण पहले ही अपना लिया होता तो आज मेरी यह हालत न होती.
10 बजे से पहले यदि बिस्तर से नीचे मैं पांव रख देती तो बंसी टोक देता, ‘अभी फर्श गीला है. कहीं फिसल गई तो मेमसाहब मुझे डांटेंगी. आप को जो चाहिए, मुझे बताइए, मैं यहीं ले कर आ जाऊंगा.’ यह कह कर वह भी अपना भद्दा सा मुंह बना कर चला जाता.
उन की बातें नश्तर बन कर दिल पर चुभतीं पर मैं कर भी क्या सकती थी. और जाऊं तो जाऊं भी कहां. वक्त जिंदगी की दशा यों बदल देगा, पता न था.
जैसा कि मैं ने पहले बताया, मेरे लिए कमरे से बरामदे तक चलना भी मुश्किल हो गया था. गठिया के कारण पांव के अंगूठे पर उंगलियां टेढ़ीमेढ़ी हो कर चढ़ गई थीं, कमर भी काफी झुक गई थी और बड़ी मुश्किल से मैं सीधा चलने का प्रयास करती. उन के सामने तो मैं बहुत नापतोल कर चलती. इस के अलावा और भी कई रोग शरीर में पनप रहे थे. मैं अपने दुखों को शेयर करती भी तो किस से. इस कालोनी में मैं किसी को जानती भी नहीं थी, थोड़ा चल पाती तो पास के मंदिर तक ही चली जाती. मेरी हालत भी बिगड़ती जा रही थी. मैं बीमारी से ज्यादा उपेक्षा और अकेलेपन का शिकार थी. मैं ने आज तक किस का भला किया था जो मेरे लिए कोई अपना काम छोड़ कर मुझे अस्पताल तक ले जाता, मेरे पास कुछ क्षण बैठता.
रात को एक बार बाथरूम जाने से पहले ही मेरा पेशाब निकल गया और मैं फिसल गई. आवाज सुन कर पहले रेवती आई और फिर बंसी. उन्होंने सारा फर्श साफ किया और मेरे कपड़े बदले. तब से उन्होंने रात के लिए मेरे लिए एक आया रख दी और मुझे डाइपर पहनने के लिए मजबूर होना पड़ा. आया मुझे सुबह ही नहलाधुला कर चली जाती.
लगभग 10 बजे तक सभी लोग अपनेअपने औफिस चले जाते. बस, रह जाती मैं और मेरी तनहाई. न कोई अपना न पराया, न कोई सुध लेने वाला न कोई सुखदुख का साथी, न कोई न रागद्वेष. बस, किसी तरह जिंदगी को ढोए जा रही थी. फिर शिकायत करती तो किस से. मेरा कियाधरा ही तो सामने आ रहा था.
कालेज से रिटायर होने के बाद मुझे ग्रेच्युटी भी काफी मिली और मैं ने जोड़ा भी काफी था. वहीं, मां के मरने के बाद भैयाभाभी ने उन का भी सारा पैसा मेरे नाम कर दिया था. पर यह सब अब मेरे किसी काम का न था. न भाभी मुझ से पैसे लेती और न ही कहीं देने देती. मैं ने उन्हें रुपएपैसों को ले कर सारी उम्र ताने ही तो दिए थे. और अब यह सारा पैसा मेरे भी किसी काम में नहीं आ रहा था. इन हालात में मुझे न तो कोई वृद्धाश्रम में रखने को तैयार था और न ओल्ड एज होम में. काश, मैं ने सोचा होता कि मैं भी कभी बूढ़ी, असहाय हो जाऊंगी, शरीर भी धीरेधीरे मेरा साथ छोड़ देगा. समय रहते अपने लिए कोई घरवर तलाश कर लेती, अपनी जिंदगी से समझौता कर लेती तो आज बात ही कुछ और होती.
राहुल और रेवती से मेरा संबंध लगभग न के बराबर था. उन के लिए मैं इस घर में एक अवांछित सदस्य थी. उन के जाने के बाद ही मुझे थोड़ा सुकून मिलता कि अब मैं स्वतंत्रता से घूम सकती हूं. बाहर बरामदे में मुझे बंसी चाय बना कर दे गया. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपने पैरों को सामने की कुरसी पर जैसेतैसे रखा और सडक़ पर आतेजाते लोगों को देखने लगी. बंसी अपने कमरे में नहाने चला गया.
आज न जाने क्यों रहरह कर मुझे अपना अतीत कचोट रहा था. गुजरे कई वर्षों की छाप ने मुझे ऐसे गर्त कमरे में ढकेल दिया, जहां बहुत अंधेरा था. मैं अकेली बैठी अपनी जिंदगी के किताब के पन्ने पलटती रही और एकएक पड़ाव को जांच रही थी.
मुझे अच्छी तरह याद है, भैया जब भाभी को ब्याह कर घर लाए थे तो भाभी की साड़ी दरवाजे के हैंडल में उलझ कर रह गई और वह शगुन के थाल के साथ ही गिर पड़ी. मम्मी तो बड़बड़ाती हुई एक तरफ चली गई कि यह तो बहुत अपशकुन हुआ पर मैं ने तुनक कर ताना कसा, ‘क्या भैया, आप कैसी भाभी लाए हो जो खुद संभल कर तो चल नहीं सकती, घर क्या खाक चलाएगी,’ और ठहाका मारकर में हंसने लगी. मेरे साथ मेरी सहेलियां और रिश्तेदार भी चुहल में व्यस्त हो गए. भैया कुछ नहीं बोले. वह हाथ पकड़ कर उन्हें उठाने लगे तो मैं ने कहा, ‘उठाओउठाओ, गिरे हुए को उठाना ही तो आप का काम है.’
भैया अपनी पसंद की लडक़ी को ब्याह कर लाए थे, इसलिए वे चुप थे. मम्मी को यह लडक़ी शुरू से ही पसंद नहीं थी, फिर भी भैया का मन रखने के लिए उन्होंने हां कह दी. मैं मां के साथ उन के कमरे में चली गई. एकएक कर के सभी रिश्तेदार भी अपनेअपने घर चले गए और फिर भाभी का किसी ने स्वागत नहीं किया.
सुबह न तो उन को मम्मी ने किचन में ले जा कर कोई रस्म अदा की और न ही ठीक से कोई बात की. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गई. मैं ने किचन में जा कर अपनी चाय बनाई और अपने कमरे में चली गई. किचन से मेरे कमरे का रास्ता ड्राइंगरूम से ही हो कर जाता था. मैं ने जानबूझ कर उन्हें अनदेखा किया.
तब तक भैया भी आ गए थे. उन्होंने भाभी को ऐसे बैठा देख कर तीखे स्वर में कहा, ‘मम्मी, यह क्या है, नई बहू का स्वागत करने का यही तरीका है. वह बेचारी ड्राइंगरूम में बैठी है और आप हैं कि…’
इस से पहले कि मम्मी अपने कमरे से निकल कर आती, मैं ने कहा, ‘वाह भैया, एक ही रात में तुम्हारे तो रंगढंग ही बदल गए. मैं और मम्मी तो जैसे कुछ हैं ही नहीं.’
‘तो इस ने गलत क्या कह दिया. मां ने एक कमजोर सी दलील दी. बात आई गई हो गई. पापा घर की किसी बात में कोई टीकाटिप्पणी नहीं करते थे. पापा तो बस पापा थे. न किसी बात की खुशी न शिकवा न शिकायत. करते भी तो कैसे. तमाम उम्र तो उन्होंने मर्चेंट नेवी में बिता दी. कभी सालछह महीने बाद घर आते तो कभी सालभर बाद. घर के सारे फैसले मम्मी ही लिया करती. मम्मी बहुत सारी बातें उन से छिपा भी लेती थी. पापा का एक ही मकसद था कि रिटायर होने के बाद सुखचैन की जिंदगी बिता सकूं. कुल मिला कर मम्मी ने ही हम भाईबहन को पढ़ायालिखाया था.
मम्मी शुरू से ही तुनकमिजाज और तीखा बोलने वाली थी. अपने गलत उसूलों को सही ठहराने के लिए सौ झूठ का सहारा भी लेना पड़े तो वह पीछे नहीं हटती. और कोई झूठ पकड़ा जाता तो अकेली औरत होने का बहाना बना कर साफ बच जाती.
हर महीने दूधवाले, अखबार वाले, कामवाली बाई और कूड़े वाले कि कोई न कोई गलती निकाल कर उन के पैसे काटना जैसे उन का अधिकार बन गया था. और उन की इतनी कडक़ आवाज के सामने कोई भी बेचारा उन के चुप होने तक अपनी खैर मनाता. आज मैं उन को बेचारा ही कहूंगी क्योंकि उन को काम की जरूरत थी और मैं तो हमेशा मम्मी की ही तरफदारी करती रही. वे सब लोग हमेशा अपने पैसे कटवा कर भी अपना काम करते रहते. मम्मी के सामने भला किसी की क्या मजाल कि अलिफ से बे तक कुछ कह सके.
उन के हावभाव का मुझ पर भी असर तो पढऩा ही था. मैं भी तुनकमिजाज और बदजबान होती गई.
मेरी समझ में भी धीरेधीरे आने लगा कि लोगों से काम करवाना हो तो अपने नारी होने का फायदा उठाओ. मम्मी तो जैसे मेरा रोलमौडल थी.
वक्त गुजरता गया. भैया मुझ से 3 साल छोटे थे. शादी तो पहले मेरी होनी चाहिए थी. पर मम्मी ने उलटी चाल चली. भैया के दहेज में आने वाला समान मेरे लिए जमा करना शुरू कर दिया.
भाभी की महंगी साड़िय़ां, मिक्सर ग्राइंडर, एलईडी, पोर्सलिन का डिनर सेट, चांदी की कटलरी और जाने क्याक्या मेरे लिए समेट कर रख दिया. हमारे घर में रुपएपैसों का अभाव नहीं था, फिर भी मम्मी खर्च करने में बहुत कंजूस थी. आज मम्मी तो नहीं रही, पर उन का कंजूसी से जुड़ा हुआ पैसा किसी काम का नहीं रहा.
भाभी मम्मी के आगे क्या कहती, उन्हें तो इसी घर में रहना था. भैया कभी मम्मी की तारीफ करते तो कभी भाभी की. दरअसल, मम्मी चाहती ही नहीं थी कि बेटाबहू एक हो जाए, कोई न कोई बहाना बना कर अपने सास होने का फर्ज निभाती.
पढ़ाई में तो मैं शुरू से ही तेज थी. एमए इकोनौमिक्स में करने के बाद बीएड किया और पास ही के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. लगभग 3 बजे तक घर आ ही जाया करती थी.
कुछ दिनों में मेरी शादी तय हो गई. मैं भी मम्मी के सारे दांवपेच समझ कर ससुराल आ गई. मेरे पति बैंक में काम करते थे. इस तरह मैं दिल्ली से जयपुर आ गई. मेरे सासससुर के अलावा देवर भी साथ ही रहता था. हमारे कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर जब कल्पना के लोक से धरातल पर आई तो पता चला कि जिंदगी वैसी नहीं है जैसा में समझती थी और जैसा मुझे समझाया गया था. पति के औफिस चले जाने के बाद सारा दिन सासससुर के साथ रहना मुझे अटपटा सा लग रहा था क्योंकि मैं ने कभी यह सीखा ही नहीं था. और न ही मैं सुबह से शाम तक घर के कामों में उलझ सकती थी. मैं ने कभी चूल्हेचौके में जाना सीखा ही नहीं था. मम्मी नौकरों पर निर्भर थी और भाभी के आने के बाद तो हर छोटेबड़े काम मैं उन से ही करवाती.
थकहार कर जब शाम को पति घर आते तो मैं सारे दिन के गिलेशिकवे करती. वे इस बात को हंसखेल कर टाल जाते, ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा, शुरूशुरू में ऐसा ही होता है. थोड़ा एडजस्ट करना सीखो.’ और सुबह उन के औफिस जाने के बाद मैं घंटों मम्मी से बात कर के अपना दुख हलका करती.
मम्मी ने एक दिन रास्ता सुझाया, ‘अभी कुछ दिन और एडजस्ट कर लो, फिर बाद में नौकरी कर लेना. आधा दिन तो यों ही बीत जाएगा और बाकी का आराम में.’
‘मुझे नहीं लगता वे नौकरी के लिए मानेंगे. उन की बातों से लगता है कि उन्होंने शादी अपने मातापिता के लिए की है ताकि कोई तो उन के पास रहे.’
‘ऐसा थोड़ी होता है,’ मम्मी बिफर कर बोली, ‘8 घंटे सोने में जाते हैं, 4 घंटे पति के साथ और सासससुर के लिए 12 घंटे?’ यह कह कर उन्होंने सीधासीधा गणित के साथ समझा दिया, वाह.’
इकोनौमिक्स के स्टूडैंटट मैं थी पर हिसाबकिताब और तर्क में मम्मी का कोई जोड़ नहीं था. मैं खुश हो गई. ‘ठीक है, मैं आज ही इन से बात करती हूं.’
‘यह इन से उन से वाले डायलौग छोड़, सीधासीधा नाम ले कर बुलाया कर और हां, उस की समझ में न आए तो अगली बार जब तुम यहां आओगे तो मैं समझा दूंगी. उसे पत्नी चाहिए या उस के मातापिता की सेवा और बच्चे पैदा करने वाली औरत.’
परंतु आज मानती हूं कि पारिवारिक संबंधों में यह गणित काम नहीं करता. मेरी जिंदगी का सब से खराब पक्ष यह था कि मैं कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले पाती थी. इसलिए हर छोटीबड़ी बातों को मम्मी से शेयर करती. मम्मी ने मुझे यह पहले ही समझा दिया था कि पति से कोई बात मनवानी हो तो अंतरंग पलों में उस से दूरी बना लेना और पास मत आने देना. नारी का संग पुरुष की सब से बड़ी कमजोरी होती है और इसी कमजोरी का फायदा उठाना सीखो.
फिर क्या था. मैं ने सासससुर से भी दूरी बनानी शुरू कर दी और उन की बहुत सारी बातों को अनसुना कर देती. कुछ दिनों पहले मुझे मेरी एक किटी पार्टी की सहेली ने बताया कि जयपुर के पास वनस्थली में एक लैक्चरर की आवश्यकता है. मेरी योग्यताएं उस में पूरी तरह अनुकूल बैठती थीं. मैं ने शाम को पति से इस बारे में बताया तो वे बोले, ‘वनस्थली विद्यापीठ पहुंचने में ही 2 घंटे चाहिए. इतनी दूर रोजाना जाना संभव नहीं है. तुम्हारा सारा दिन इसी भागदौड़ में लग जाएगा, फिर घर कब पहुंचेगी और मम्मी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती.’
‘तो आप ने मुझे नौकर समझ रखा है. पहले बाजार से सामान लाती रहूं, फिर उन की सेवा करती रहूं और सारा दिन किचन में लगी रहूं. ऐसा ही था तो किसी गांव वाली को ब्याह कर लाते,’ मैं तुनक कर बोली. बहुत दिनों से वैसे भी मेरा मन भरा हुआ था.
‘मैं तुम को नौकरी के लिए मना नहीं कर रहा, परंतु इतनी दूर जाने का क्या फायदा. फिर मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं. इस से तो अच्छा है कोई आसपास ही कोई काम कर लो.’
‘वनस्थली यूनिवर्सिटी है. उस में काम करने का मौका बहुत कम लोगों को ही मिलता है. फिर वहां मेरा एक स्टेटस होगा, अच्छा पैकेज होगा.’ मैं ने उन को समझाया.
‘परंतु मुझे यह समझ में नहीं आता,’ कह कर उन्होंने अपना निर्णय सुना दिया.
मैं जलभुन कर रह गई.
समझौता करना तो मम्मी ने सिखाया ही नहीं था और मुझ पर कोई अपना निर्णय थोपे, यह मैं सह नहीं सकती थी. फिर एक दिन वही हुआ जिस का मुझे एहसास था. मेरी सास गठिया के कारण ठीक से चलफिर नहीं पाती थी. एक दिन चलतेचलते वह फिसल गई. मैं ने भी जानबूझ कर उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. चाय बनाई और अपने कमरे को बंद कर के मम्मी से बातें करती रही. बीचबीच में मैं ने ससुरजी के पुकारने की आवाज भी सुनी और अपने दरवाजे पर दस्तक भी.
मैं ने जानबूझ कर सबकुछ अनसुना कर दिया, फिर बातें करतेकरते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. काफी समय बाद मुझे दरवाजे पर तेजतेज आवाज सुनाई दी. मैं हड़बड़ा कर उठी और दरवाजा खोलते ही भडक़ उठी, ‘क्या हुआ, अभी आती हूं न.’
मैं ने दरवाजे पर पति को खड़े देखा. मुझे घूर कर वे देखते हुए बोले, ‘आज तो तुम ने हद ही कर दी. मम्मी फिसल कर नीचे गिर पड़ी है और तुम अपने कमरे में आराम फरमा रही हो. इतना तो कोई गैरों के साथ भी नहीं करता.’
‘तो क्या करूं मैं, अस्पताल ले कर जाऊं क्या? आ तो रही थी. आप को बुलाने की क्या जरूरत थी. ये क्या जतलाना चाहती हैं कि मैं आप के पीछे उन का कोई ध्यान नहीं रखती.’
‘ध्यान रखती होती तो मुझे क्यों आना पड़ता. अब तुम पड़ी रहो अपने कमरे में. मैं मम्मी को ले कर अस्पताल जा रहा है और करती रहो अपनी मम्मी से बातें.’
हमारी गरमागरम बहस हुई और मैं ने अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया. इधर वे मम्मी को ले कर अस्पताल गए उधर मैं ने अपनी मम्मी को सारी रामायण सुना दी और जोरजोर से रोने लगी. मम्मी ने सीधा वही कहा जो मैं सुनना चाहती थी. मैं वापस मम्मी के पास दिल्ली लौट गई. बाद में पता चला कि उन की मम्मी के कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया है. ऐसे समय में मुझे वहां होना चाहिए था परंतु मेरे अहं और जिद ने मुझे वहां जाने नहीं दिया. मम्मी ने तो साफ कह दिया कि ऐसे घर में क्या जाना जहां लोगों की देखभाल करती रहो जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो.
‘तू चिंता न कर बेटी. तेरे लिए कोई दूसरा घरवर देखूंगी. मैं जानती हूं उन से कैसे निबटना है.’ मुझे बहुत बाद में पता चला कि मेरे पति ने मुझ से कई बार संपर्क करने की कोशिश की थी परंतु मम्मी ने कोई न कोई बहाना बना कर उन्हें प्रताडि़त किया था.
फिर न कभी उन्होंने बुलाया, न मेरे पति आए और न मैं वहां गई. काश, मैं वहां चली जाती, उस समय उन के घरसंसार में अपनी एक जगह बना लेती तो उम्र के इस पड़ाव में उपेक्षित और तिरस्कृत हो कर जीवन न बिताना पड़ता. यह शादी 3 महीने भी न चली और हमारा अलगाव हो गया, वह तो होना ही था.
पापा को इस बात का पता बहुत दिनों बाद चला. वे तो चाहते थे कि मैं वापस चली जाऊं परंतु मेरी जिद और अहंकार आड़े आ गया, ऊपर से मम्मी का रौद्र रूप. अपनी इज्जत बचाने के लिए मम्मी ने पासपड़ोस और मिलने वालों से झूठी कहानियां कहीं कि वे सब उन की बार्तों का ही विश्वास करने लगे. वहशी, कपटी, दरिंदा, जंगली, दहेज लोलुप, उग्र स्वभाव का और न जाने क्याक्या मेरे पति को उपमा देने लगी. मैं सब सुनती और मम्मी की बातों में नमकमिर्च लगा कर बता देती.
तलाक के बाद मैं मम्मी के घर आ गई और यहीं एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. घर में रहतेरहते मम्मी ने मुझे यह भी घुट्टी पिला दी थी कि यदि भाईभाभी एक हो गए तो वे हमारी इज्जत करना बंद कर देंगे. और ढलती उम्र में कोई उन को सहारा देने वाला भी नहीं मिलेगा. मैं रोज भाभी को किसी न किसी बात पर नीचा दिखाने की ताक में रहती. कभी जानबूझ कर दाल में नमक ज्यादा डाल देती तो कभी भैया के पैसे छिपा देती. भाभी यह सब शायद जानती थी पर बोलती कुछ नहीं. वह जानती थी कि कुछ भी बोलेंगे तो मम्मी सारा घर सिर पर उठा लेंगी.
उस दिन वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. सुबहसुबह मेरे पास आ कर भैया बोले, ‘जिद्दी, मेरी पैंट तुम ने मशीन में डाली है क्या?’
‘कौन सी पैंट?’ मैं ने अनजान बनते हुए कहा.
दरअसल जब मैं नहाने गई थी तो दरवाजे के पीछे लटका देखा. मुझे शरारत सूझी. उस की पैंट में पैसे देख कर मैं ने उसे मशीन में डाल दी. भैया को जब पता चलेगा तो भाभी की लापरवाही पर उस पर जरूर बरसेंगे.
‘वही जो बाथरूम में दरवाजे के पीछे टंगी थी. तुम नहीं जानतीं आज मेरा कितना बड़ा नुकसान तुम ने कर दिया,’ गुस्से से लाल पीले हो गए भैया आगे बोले, ‘रात को ही मैं ने रेवती को बताया था कि पैंट की जेब में से चैक निकाल लेना. उस का अभीअभी फोन आया है कि वह चैक निकालना भूल गई. और तुम कहती हो कौन सी पैंट. फिर, तुम ने कब से कपड़े धोना शुरू कर दिया. शर्म आनी चाहिए तुम्हें.’
‘भैया, आप मुझ पर उलटासीधा इलजाम लगा रहे हैं. मैं क्यों कपड़े मशीन में डालूंगी. कपड़े धोना तो भाभी का काम है न.’
‘तो फिर मेरी पैंट मशीन में कैसे पहुंची,’ वे आग बबूला हो उठे, ‘अपना घरसंसार तो तुम से संभला नहीं, फिर इस घर में क्यों आग लगा रही हो. मैं तुम्हारे हावभाव को नहीं जानता क्या.’
तब तक मम्मी आ गई, ‘क्या हुआ, क्यों चिल्ला रहा है?’
‘मम्मी, आप बीच में न बोलो, तो अच्छा है. सुबहशाम मैं आप लोगों की शिकायतें और ताने सुनते आया हूं. दीदी को अपने घर बैठा लिया. उस के लिए कोई अच्छा घरवर देख कर विदा करो,’ कह कर वे मशीन से पैंट निकालने लगे और फिर बोले, ‘जानती हो, मैं ने पापा के पुराने शेयर बड़ी मुश्किल से बेच कर 40 हजार रुपए का चैक लिया था. अब क्या कहूंगा पापा से?’
चैक पूरी तरह बरबाद हो चुका था. वे गुस्से में नाश्ता छोड़ कर अपने औफिस चले गए. भैया के इस गुस्से के आगे घर में एक गहरा सन्नाटा छा गया. इस के बाद हमारे घर कई दिनों तक अबोला सा पसर गया. अच्छाबुरा सोचने की शक्ति तो समाप्त ही हो गई थी. मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे भीतर कितना जहर भरा है.
भाभी सुबह घर का काम निबटा कर 8 बजे तक स्कूल चली जाती थी. और मैं 10 बजे तक. घर का नाश्ता भाभी ही बना कर जाती और शाम को 4 बजे तक आ कर बाकी का काम वह ही करती. मेरा इस घर में अब दम घुटने लगा था. आज लगता है जो मेरा था, उसे नकार दिया और जो अपनाया उन्होंने किनारा कर लिया. मुझे दिल्ली के पास ही एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई और मैं बिना किसी से सलाह लिए वहां चली गई.
जब भी दीवालीहोली होती, मैं घर आ जाती. पापा और भैया मेरी शादी पर दबाव डालते रहे. वे कोई न कोई रिश्ता ढूंढ कर मुझे बुलाते रहते और मम्मी उन में कई कमजोरियां निकाल कर मुझे और अच्छे रिश्ते की दिलासा देती रहती. उन में कई रिश्ते विदेशों से भी आए थे, कई बेंगलुरु और मुंबई से थे पर मैं भी हर बार जिद में आ कर दिल्ली के आसपास तक सीमित रही. मैं अब यह नौकरी छोडऩा नहीं चाहती थी.
यूनिवर्सिटी का नाम भी था और ऊपर से मुझे रहने के लिए फ्लैट भी दिया था. देखने में मैं खूबसूरत, पढ़ीलिखी, अच्छी नौकरी करती थी. उम्र भी ज्यादा नहीं थी परंतु इन सब के बावजूद कहीं बात पक्की न हो सकी. कुछ मम्मी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और कुछ को मैं ने मना कर दिया और बाकी जो कसर बची थी वह तलाकशुदा के ठप्पे ने पूरा कर दिया. यौवन एकदम सूना और बेमानी सा लगने लगा. मैं ने जीवन से सीखा तो बहुतकुछ पर महिलाओं के लिए जो सब से बड़ी बात सीखने की है वह है क्षमा. और वह मैं ने सीखी ही नहीं.
दिन बीतते गए. पापा रिटायर हो कर घर आ गए. मेरी उम्र भी 45 के पार होने वाली थी. अब या तो कोई विधुर मिलता या तलाकशुदा जिस के एकदो बच्चे होते. धीरेधीरे सब ने अपने कर्तव्य से इतिश्री मान ली और घर पर बात होना लगभग बंद सा हो गया था.
एक बार दीपावली के बाद मैं भैया के टीका करने लगी तो भाभी ने मेरा अच्छा मूड देख कर कहा, ‘दीदी, एक बात बताऊं आप को, बुरा लगे तो मन से निकाल देना.’
‘तुम जो बोलोगी उलटा ही बोलोगी.’ मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘फिर भी कह दो जो तुम्हारे मन में है.’ सब लोग पास ही बैठे थे.
‘फिर रहने दीजिए,’ कहकर वह चुप्पी साध गई. भैया ने भाभी की तरफ देख कर बोला, ‘अब कह भी दो न, बात तो पूरी कर लो.’
‘मैं तो यह कह रही थी कि अब इस उम्र में जिंदगी से समझौता कर लीजिए. जहां जैसा भी व्यक्ति मिले, मेरा मतलब जो आप के लायक हो तो…’
‘अच्छाअच्छा, अब तुम ही रह गई हो मुझे पढ़ाने के लिए. तुम चिंता न करो, मैं अकेली जिंदगी काट लूंगी पर तुम पर बोझ नहीं बनूंगी. तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक हो.’
भैया का बेटा, जो अब 15 साल का हो चुका था, मेरे इस उग्र व्यवहार को देख कर बोला, ‘बूआ, आप भी तो कोई बात सीधेमुंह नहीं करतीं. हमेशा मम्मी पर गुस्सा करती रहती हैं. गुस्सा तो आप की नाक पर रहता है.’
‘रोहन,’ भाभी खड़ी हो गई, ‘बूआ से ऐसे बात करते हैं क्या? माफी मांगो इन से.’
वह तपाक से बोला, ‘पहले उन से बोलो कि वे आप से माफी मांगें.’ और बड़बड़ाता हुआ उठ कर वह बाहर चला गया.
मैं गुस्से से तिलमिला गई. अब यही हालत रह गई थी मेरी इस घर में. मैं भी उठ कर अपना सामान समेटने लगी.
आज सोचती हूं बात तो भाभी ठीक ही कह रही थी. समय रहते अपनेआप से समझौता कर लेती तो आज यों किसी के पास बेसहारा, लाचार बन कर मुझे जीना न पड़ता. मुझे क्या पता था कि वे कड़वे बोल मुझे इस कदर महंगे पड़ेंगे कि भाभी के पास ही मुहताज हो कर जिंदगी काटनी पड़ेगी. वक्त कब किस करवट अपना रुख बदल ले, कोई नहीं जानता. मैं अपने झूठे और दकियानूसी अहं में जीती रही. जी कम, मरी ज्यादा. मैं ने भी स्थान काल की महिमा भूल कर अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर लिया था पर अब दुखड़ा कहूं भी तो किस से.
वक्त के साथसाथ मम्मीपापा का स्वास्थ्य भी गिरता रहा. एक रूटीन चैकअप के दौरान पता चला कि मम्मी को किडनी का कैंसर है और वह भी अंतिम अवस्था में. फिर क्या था. मैं छुट्टी ले कर घर आ गई और आननफानन मम्मी को अस्पताल में भरती करा दिया. फिर वहां से वह शरीर में नहीं लौटी. पापा इस सदमे से कभी उबर नहीं पाए. सारी उम्र तो उन से दूर रहे और जब पास रहने का समय आया तो वह दूर चली गई और फिर वे एक रात ऐसा सोए कि कभी नहीं उठे.
मेरे लिए तो जैसे सब सहारे ही बंद हो गए. मैं वापस लौट गई और किसी तरह अपनी जिंदगी घसीटती रही. मुझे उन दोनों की मृत्यु का इतना सदमा लगा कि मैं एकदम खामोश हो गई. न कालेज में मेरा मन लगता, न ही घर पर. मैं खोईखोई सी रहने लगी. क्या करूं, कहां जाऊं. तमाम उम्र तो मम्मी के साए में गुजार दी थी. मेरा कोई अपना वजूद तो था ही नहीं और भाईभाभी को मैं ने कभी अपना माना नहीं. बस, ताने देती रही. सो वह सहारा भी लगभग न के बराबर था.
मेरे पास अब सब सुख थे. एक बढिय़ा महंगी कार, सभी सुखसुविधाओं से युक्त अपना घर, अच्छा बैंकबैलेंस, इज्जतदार नौकरी आदि परंतु नहीं था तो कोई मेरा अपना जिस से मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. एक अकेली जिंदगी ढोतेढोते थक चुकी थी मैं. अब तो मेरा वजूद भी खोता जा रहा था. हमारे आपसी रिश्ते भी सिमटने को थे. न मैं ने कोई अपना दोस्त बनाया न संगीसाथी. लेकिन सूरज की रोशनी आखिर कब तक रहती. मेरे इर्दगिर्द अंधेरा तो होना ही था.
धीरेधीरे दिन महीनों में गुजर गए और महीने सालों में. एक दिन मैं दोपहर को क्लास ले रही थी कि अचानक सिर में तेज दर्द उठा और मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. न मुझ से बैठा जा रहा था न ही मैं कुछ सोच पा रही थी. बस, पाषाण बनी खड़ी की खड़ी रह गई. सारा शरीर एकदम से जम गया. और जब होश आया तो अस्पताल में मैं लेटी हुई थी. मैं किसी को भी पहचान नहीं पा रही थी और यह भी नहीं जान पाई कि मैं यहां कैसे आई. बस, कुछ रेंगते हुए साए दिख रहे थे. मैं उन को बस देखती रही. 2 दिनों बाद मैं थोड़ाथोड़ा होश में आने लगी. पता चला कि कालेज के ही लोग मुझे यहां लाए हैं.
मैं ने ध्यान से देखा, भाभी की धुंधली सी आकृति मुझे दिखी जो मेरे पास ही बैठी थी. मुझे देख कर वह मुसकराई और कुछ भी कहने से मना कर दिया. मेरे चेहरे पर एक कोमल स्पर्शभरा हाथ रखा, ‘चिंता न करो भाभी, मैं आ गई हूं. सब ठीक हो जाएगा.’ मेरी आंखों से रुलाई फूट पड़ी.
मुझे प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टर के अनुसार मुझे तब तक डिस्चार्ज नहीं किया जा सकता था जब तक पूरी तरह ठीक न हो जाऊं और इस बात में हफ्ता भी लग सकता है और महीना भी.
मेरे ब्रेन में क्लौट आ गया था. जो अब धीरेधीरे खुलता जा रहा था. भाभी भी कब तक वहां बैठती. शुरुशुरु में तो मेरे कलीग मेरा हालचाल पता करने आते रहे पर अब वे कम से कमतर होते गए. मैं समझ चुकी थी कि मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके हैं. इन हालात में मेरे कालेज ने भी मुझे रिटायर कर दिया. यह मेरे लिए और भी बड़ा धमाका था. दोतीन दिनों बाद जब मेरी हालत बेहतर हुई तो भैया मुझे घर ले आए.
मेरे आने से घर का माहौल तनावपूर्ण हो गया था. बस, मेरे ही बारे में बातें होती रहतीं. मैं ने कई बार भैया को कहते सुना कि मुझे किसी वृद्ध आश्रम या ओल्ड एज होम में भेज देना चाहिए परंतु मैं इस काबिल भी नहीं थी कि ठीक से चलफिर सकूं. फिर मैं भला किस अधिकार से यहां रह सकती थी. सारी उम्र भाभी से ठीक तरह से व्यवहार भी नहीं बनाया. मम्मी के साथ मिल कर झूठे इलजाम लगाती रही. इतनी पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने कभी अपने विवेक से काम ही नहीं लिया. मेरे दिल का बांध टूट गया और मैं सिसकसिसक कर रोने लगी.
भाभी चाहती तो मुझे अस्पताल से ही अलविदा कह सकती थी, वह चाहती तो मुझे इस घर में रहने ही न देती. मेरा अपराध भी अक्षम्य था. परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया. मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई और मुझे कहीं नहीं जाने दिया. इस के लिए शायद उन को भैया के क्रोध का सामना भी करना पड़ा होगा, बेटेबहू को मनाया होगा. मैं यह सब महसूस कर रही थी. मेरी हालत अब ऐसी भी नहीं थी कि घुटने टेक कर उन से माफी मांग सकूं.
मैं ने इस घर में अपना एक अलग ही साम्राज्य बनाने का प्रयास किया था. वह लड़ी भी नहीं और मैं हार गई. मेरा कियाधरा तो मेरे सामने आ ही गया था. ऊपरवाले, यदि कहीं है तो, की लाठी में आवाज नहीं होती पर उस की चोट कहीं भीतर तक आहत करती रहती है. काश, कोई मेरे बीते हुए दिन लौटा दे तो मैं फिर से अपने को सुधार लूं. काश…