‘तेते पांव पसारिए, जैती लंबी सौर’ इस का मतलब है ‘अपने पैरों को उतना ही फैलाना चाहिए जितनी लंबी चादर हो.’ हमारे समाज में इस कहावत का खास मतलब था. हमारा समाज अपनी आर्थिक व्यवस्था को इस के अनुसार ही चलाता था. बाजारवाद के नए दौर में यह कहावत अब भी है पर हाशिए पर चली गई है. सोशल स्टेटस के चक्कर में जनता बाजारवाद के झांसे में फंस चुकी है. बाजार लोगों की जरूरत का सामान तैयार कर के बेचने का काम करता है और बाजारवाद पहले महंगा सामान बनाता है उस के बाद जनता के बीच उस की जरूरत को पैदा करता है.
मंदिर में दर्शन की व्यवस्था में पैसे वालों को अलग महत्त्व दिया जाता है. बड़े मंदिरों में जहां आम आदमी को दर्शन करने में 10 से 15 घंटे तक का इंतजार करना पड़ता है वहां पैसे दे कर वीवीआईपी दर्शन करने वालों को 1 घंटे में ही दर्शन करने को मिल जाता है. पैसे वालों की देखादेखी अब मध्यवर्ग के लोग भी वीआईपी दर्शन के लिए अलग से पैसा देने लगे हैं. इस से मंदिरों की कमाई बढ़ रही है. वीआईपी दर्शन भी ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है.
बाजारवाद के प्रभाव में लोग अपनी जरूरत से इतर ‘स्टेटस सिंबल’ के लिहाज से खरीदारी करते हैं. आर्थिक व्यवस्था को ले कर पूरी थ्योरी बदल गई है. आज के दौर में पैर सिकोड़ने की जगह पर नई चादर लेने की थ्योरी चल रही है. भले ही इस के लिए लोन या कर्ज क्यों न लेना पड़े. जिस समाज में कर्ज लेने को बुरा माना जाता था आज वहां कर्ज ले कर दिखावा करने को लोग स्टेटस सिंबल मान रहे हैं. सोशल स्टेटस के लिए लोग कर्ज लेने से नहीं घबरा रहे, भले ही इस के कुछ भी परिणाम हों. मध्यवर्ग को पैसे वाले ऊंचे लोगों की वजह से खर्च करना पड़ता है.
दीपक अपने बेटीबेटे और पत्नी के साथ गांव छोड़ कर शहर में रहने आया था. उस की सोच यह थी कि यहां रह कर खुद नौकरी करेगा और बच्चों को पढ़ालिखा कर बड़ा करेगा, जिस से बच्चे बड़े हो कर अच्छी नौकरी कर सकेंगे. उस के बाद उन की जिंदगी अच्छी कटेगी. शहर में आ कर यहां के रहनसहन को देख कर पत्नी और बच्चे अपने आसपास के लोगों से मुकाबला करने लगे थे. दीपक ने जब अपने लिए बाइक ली थी तो उस के गांव में सब बहुत खुश थे. दीपक पहला आदमी था जिस ने बाइक ली थी. अब शहर में सब के पास कार थी. दीपक के बच्चे और पत्नी चाहते थे कि वह कार ले. दीपक कहता था कि उस की छोटी सी नौकरी में कार लेने का पैसा नहीं है. यह बात उस के घर के लोगों को अच्छी नहीं लगती थी. इस वजह से घर का माहौल तनावभरा सा हो गया था.
एक दिन दीपक के घर आते ही उस की पत्नी ने चाय का कप टेबल पर रखते बताया, ‘‘जानते हो पड़ोस वाले वर्माजी आर्टिगा गाड़ी ले आए हैं.’’ पत्नी ने बात यही खत्म नहीं की, आगे बोली, ‘‘पूरे 17 लाख की गाड़ी खरीदी और वह भी कैश में.’’
दीपक हांहूं करता रहा. आखिर पत्नी का धैर्य जवाब दे गया. वह बोली, ‘‘हम लोग भी अपनी एक गाड़ी ले लेते हैं, तुम मोटरसाइकिल से दफ्तर जाते हो क्या अच्छा लगता है? सभी लोग गाड़ी से आएं और तुम बाइक चलाते हुए वहां पहुंचो, कितना खराब लगता है. तुम्हें न लगे पर मु झे तो लगता है.’’
दीपक बोला, ‘‘देखो, घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाईलिखाई के बाद इतना नहीं बचता कि गाड़ी लें. फिर आगे भी बहुत खर्चे हैं. उस के लिए कुछ न कुछ बचत करना जरूरी होता है. कभी अचानक कोई जरूरत पड़ जाए तो किस के सामने हाथ फैलाते रहेंगे.’’ दीपक ने धीरे से पत्नी की बात का जवाब दिया.
‘‘बाकी लोग भी तो कमाते हैं, सभी अपने शौक पूरे करते हैं. तुम से कम वेतन पाने वाले लोग भी स्कोर्पियो से चलते हैं, तुम जाने कहां पैसे फेंक कर आते हो.’’
‘‘अरे भाई, सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ में ही दे देता हूं, अब तुम जानो कहां खर्च होता है. मैं तो अपने लिए केवल मोटरसाइकिल में पैट्रोल भरवाने के पैसे ही रखता हूं और हां, गाड़ी लेने की सोचने से पहले तो महंगा होता पैट्रोल लेने की सोचना होगा,’’ दीपक ने कहा.
‘‘मैं कुछ नहीं जानती, तुम गांव की जमीन बेच दो. यही तो समय है जब घूमघाम लें. हम भी जिंदगी जी लें. कुछ शौक पूरे कर लें. हमें तो अब अड़ोसीपड़ोसी लोगों के साथ बैठने में शर्म आती है. सभी अपने शौक के बारे में बताते हैं. होटल जाते हैं. बच्चे घूमने जाते हैं. नए खिलौने, नए मोबाइल लेते हैं. कितने बड़ेबड़े एलईडी टीवी दीवारों पर लगे हैं. घर में एसी है. हमारे यहां कुछ भी नहीं है.
‘‘मरने के बाद क्या जमीन ले कर जाओगे? बेकार ही पड़ी है. दूसरे लोग खापी रहे हैं और हम लोग यहां गरीबों की तरह से जी रहे हैं. तुम मेरी बात मान लो, गांव की जमीन बेच लो. वैसे भी, अब वहां कौन रहने जा रहा है.’’
पत्नी ने एक तरह से अपना फैसला सुना दिया. दीपक के सामने दूसरा रास्ता नहीं था. उस ने भरे मन से सहमति में सिर हिला दिया. कुछ ही देर में सारे महल्ले में यह खबर फैल गई कि दीपा अब जल्द ही गाड़ी लेने वाली है. दीपा अब अपने पड़ोसी से बड़े मौडल वाली कार खरीदने के लिए तैयारी कर रही थी. उस के लिए उसे अपनी पैतृक जमीन बेचने से भी कोई गुरेज नहीं था.
महंगे मौडल की गाड़ी है
शान की सवारी
गाड़ी लेना ही सोशल स्टेटस नहीं है. गाड़ी के मौडल के हिसाब से सोशल स्टेटस देखा जाने लगा है. अगर आप के पास 3 से 4 लाख वाली कोई कार है तो यह सोशल स्टेटस का हिस्सा नहीं है. सोशल स्टेटस के लिए हर किसी को अपने पड़ोसी, नातेरिश्तेदार और दोस्तों से बड़ी गाड़ी चाहिए भले ही जहां आप रह रहे हों वहां बड़ी गाड़ी रखने की जगह न हो या आप के शहर के ट्रैफिक में उस के चलने की जगह न हो. लेकिन आप को महंगी एसयूवी गाड़ी ही चाहिए. आज चार पहिया बाजार को देखें तो एसयूवी सब से ज्यादा बिकने वाली गाडि़यों में शामिल है.
बाजारवाद ने बैंक के लोन सिस्टम को इस तरह का बना दिया कि आप के लिए ये गाडि़यां खरीदना सरल हो गया है. भले ही कुछ दिनों बाद आप इन को अफोर्ड न कर सको. पहले जहां 4 से 5 लाख की कार को ही स्टेटस सिंबल सम झा जाता था, आज यह रेंज 20 लाख को पार कर गई है. इस से कम कीमत वाली कार पर चलना शान नहीं सम झा जाता.
जिस तरह से एक जमाने में राजा और रजवाड़े अपनी शानशौकत के लिए बग्घी पर चलते थे, आज के दौर में महंगी एसयूवी गाडि़यां उसी तरह की हो गई हैं. जरूरत से अधिक ये दिखावे के लिए प्रयोग होने लगी हैं. गाडि़यां बनाने वाली कंपनियां भी इस बात को सम झ गई हैं. अब एक ही गाड़ी के कईकई मौडल एकसाथ लौंच किए जाने लगे हैं. इन को बेस मौडल और अपर मौडल के नाम से जाना जाता है. खरीदार बेस मौडल को लेने के लिए शोरूम में जाता है और वहां सेल्समैन उस को अपर मौडल की ऐसी खूबियां बताता है कि ग्राहक जेब से अधिक की गाड़ी ले कर आता है. कार हो या बाइक, सभी की कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ है.
पहले साधारण स्कूटर 12 से 15 हजार में मिल जाता था. ‘हमारा बजाज’ के नारे के साथ बजाज स्कूटर सब से अधिक पसंद किया जाता था. इस के इंजन की पावर कम थी. 90 के दशक में ‘एक्टिवा’ लौंच हुई. उस की कीमत साधारण स्कूटर से तीनगुना अधिक थी. 100 सीसी पावर वाले इंजन के साथ 50 हजार रुपए से शुरुआत हुई. आज यह स्कूटर एक लाख के करीब कीमत तक पहुंच चुका है. सस्ते स्कूटर बाजार से बाहर हो गए हैं, उन का बनना तक अब बंद हो चुका है. यही हालत मोटर बाइक की है. 100 इंजन वाली हीरो होंडा ने बाइक के बाजार को बदल दिया. इस के चलते राजदूत, यजदी जैसी गाडि़यां बाजार से बाहर हो गईं.
मोटर बाइक के शौकीन लोगों ने महंगी मोटर बाइक के बाजार को बढ़ावा दिया. 25 से 30 हजार में मिलने वाली बुलैट अब 2 लाख की कीमत में मिलने लगी है. इस रेंज में और भी कई मोटर बाइक्स बाजार में बिक रही हैं. मध्यवर्ग के जो लोग कार अफोर्ड नहीं कर पा रहे, वे दिखावे के लिए महंगी मोटर बाइक लेने लगे हैं.
लखनऊ के महानगर और अलीगंज इलाके में पुरानी कारों की खरीदफरोख्त का बाजार है. यहां पहले कुछ पुरानी गाडि़यां खड़ी दिखती थीं. कोरोना की तालाबंदी से बिजनैस और नौकरियों को जो नुकसान हुआ उस से चारपहिया गाडि़यां चलाने की हालत लोगों में नहीं रह गई. अब ये गाडि़यां पुराने कार बाजार की शोभा बन गई हैं. इन को खरीदने वाले लोग भी नहीं मिल रहे. 5-6 साल पहले नए मौडल की कोई पुरानी कार जैसे ही यहां बिकने आती थी, उस के ग्राहक पहले से ही लाइन में होते थे.
सोशल स्टेटस के कारण बढ़ गए प्राइवेट स्कूल
यह कहानी दीपक और उस की पत्नी दीपा की ही नहीं है. उन के जैसे तमाम लोगों की है. सोशल स्टेटस के मारे तमाम लोग ऐसा करते हैं. केवल कार और घर ही नहीं, बच्चों की पढ़ाई भी सोशल स्टेटस का हिस्सा बन गई है. अशोक प्राइवेट जौब करते हैं. उन के मित्र दिनेश सरकारी विभाग में कमाई वाली पोस्ट पर नौकरी कर रहे हैं. दोनों की दोस्ती भी है और पड़ोसी भी हैं. दिनेश ने अपने बच्चे का एडमिशन अच्छे प्राइवेट स्कूल में कराया. महंगी फीस है. गाड़ी घर से बच्चे को लेने और छोड़ने आतीजाती है. अशोक ने अपने बच्चे का एडमिशन सरकारी स्कूल में कराया. जहां फीस न के बराबर है और वह खुद बच्चे को छोड़ने व लेने जाता है.
अब यह बात दिनेश और अशोक के बीच सोशल स्टेटस का मुद्दा बन गई. अशोक और दिनेश के बीच धीरेधीरे एकदूसरे से मिलना कम होने लगा. जब भी किसी दोस्त के यहां आनाजाना होता, अशोक उस से कटने लगा था. कारण यह था कि दिनेश मिलते ही पूछता ‘बच्चे कहां पढ़ रहे हैं?’ जैसे ही अशोक बताता कि सरकारी स्कूल में, दिनेश उस का मजाक उड़ाते कहता, ‘‘तुम अपने बच्चे का भविष्य बेकार कर रहे हो. किसी अच्छे स्कूल में डालो.’’ अशोक को यह बुरा लगता. धीरेधीरे दोनों की दोस्ती टूट गई. अशोक अब दिनेश से मिलना ही नहीं चाहता था. सरकारी स्कूल और प्राइवेट स्कूल के बीच फीस का फासला बहुत होता है. यह अशोक की क्षमता के बाहर था.
सोशल स्टेटस के कारण ही शिक्षा का बाजारीकरण हो गया. आज गांवगांव तक प्राइवेट स्कूल पहुंच गए हैं. मुफ्त पढ़ाई, किताबें और स्कूली ड्रैस के बाद भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों की संख्या बेहद कम हो गई है. शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ता जा रहा है. दूसरी तरफ जनता सोशल स्टेटस के चक्कर में प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ा रही है और महंगी शिक्षा का रोना भी रो रही है. 10वीं और 12वीं कक्षाओं की पढ़ाई कराने वाले 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में उपलब्ध सीटों से कम बच्चे पढ़ने आ रहे हैं. यही नहीं, धीरेधीरे राज्य शिक्षा बोर्ड के स्कूल बंद होते जा रहे हैं. अब सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड से संबद्ध स्कूल बढ़ने लगे हैं.
समाज के बड़े तबके के लोगों के बच्चों के सरकारी स्कूलों में न पढ़ने से वहां अब केवल कमजोर वर्ग के बच्चे ही पढ़ाई कर रहे हैं. इस वजह से वहां पढ़ाई का स्तर गिरता जा रहा है. उत्तर प्रदेश में अदालत ने यह आदेश दिया कि सरकारी सेवा और जनप्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा जाए, तभी सरकारी स्कूलों का स्तर ठीक हो सकेगा. यह आदेश ठंडे बस्ते में पड़ा है.
आईआईएम और आईएचएम की फीस तब बढ़ी जब देश में बाजारवाद उफान पर पहुंच गया और माना जाने लगा कि यह पढ़ाई नहीं, एक तरह का इन्वैस्टमैंट है. बच्चों पर पैसे लगाइए और उस का कैरियर अच्छा हो जाएगा. जब यहां से शिक्षा पास करने वाला बच्चा प्लेसमैंट में ही लाखों के पैकेज हासिल कर लेगा तो लाखों रुपए का इन्वैस्टमैंट कर सकते हैं तो फिर गरीब अभिभावक भी कर्ज ले कर मोटी फीस चुकाने लगे. फिर स्टूडैंट लोन का भी चलन बढ़ने लगा. सम झ लीजिए कि जिस रोज स्टूडैंट लोन का कौन्सैप्ट आया था, उसी रोज से शिक्षा के बाजारीकरण की शुरुआत हो चुकी थी.
इस के बाद तेजी से प्राइवेट इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेज खुलने लगे. बच्चे में डाक्टरी या इंजीनियरिंग पढ़ने की क्षमता है या नहीं, कोई बात नहीं. पास में पैसे हैं या नहीं, लेकिन फिर भी आप का बच्चा इंजीनियर या डाक्टर बन सकता है. अब तो डाक्टरी पढ़ने में एक करोड़ से अधिक का खर्चा आ रहा है. रूस और चीन के मैडिकल कालेज में यहां के लोग पढ़ने जाने लगे हैं. रूस और यूक्रेन युद्ध के दौरान यह बात सामने आई. प्राइवेट कालेजों के फीस स्ट्रक्चर को दिखा कर सरकार कहती है कि हम ही क्यों सस्ते में पढ़ाएं. लिहाजा, सरकारी हो या प्राइवेट, उच्चशिक्षा हर जगह इन्वैस्टमैंट बन गई है.
शिक्षा के महंगे होने के कारण वही अपने बच्चों को इंजीनियर या डाक्टर बनाएंगे जिन के पास पैसा है. समस्या यह है कि 10-15 हजार की नौकरी कर के लोग 50 लाख का स्टूडैंट लोन ले कर
10 वर्षों तक कर्ज उतारते रहेंगे. जो बच्चे आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से पढ़ाई पूरी कर निकल रहे हैं उन को भी पहले जैसा सैलरी पैकेज नहीं मिल रहा है. इस के बाद भी वे ऊंची शान के लिए ईएमआई पर महंगी कार और मकान ले रहे हैं. लखनऊ में एक अच्छे फ्लैट की कीमत एक करोड़ के आसपास है. 15 सौ स्क्वायर फुट जमीन की कीमत 75 लाख रुपए के आसपास है. मध्यवर्ग के वेतन पाने वाले लोगों के लिए यह सपना सा है. अपने सपने को पूरा करने के लिए वह गलत काम करने की सोचता है या फिर गांव के खेत और जमीन बेचता है.
प्राइवेट अस्पतालों में
पैदा होते महंगे बच्चे
बच्चों की शिक्षा ही नहीं, बच्चों का पैदा होना भी सोशल स्टेटस का हिस्सा बन गया है. सरकारी अस्पतालों में डिलीवरी में अधिकतर मुफ्त और अधिक से अधिक 10 से 15 हजार का खर्च आता है. लेकिन जब प्राइवेट अस्पताल में जब डिलीवरी होती है तो खर्च 1 लाख तक का आ जाता है. यह भी एक तरह का स्टेटस सिंबल बन गया है. अगर आप ने अपनी बहू या पत्नी की डिलीवरी किसी सरकारी अस्पताल में करवाई तो हमेशा यह शिकायत रहेगी कि उस को प्राइवेट नर्सिंग होम या अस्पताल क्यों नहीं भेजा. प्राइवेट अस्पताल जब डिलीवरी के खर्च बताते हैं तो उस में कमरे में एसी, अटैच बाथरूम, टीवी जैसी सुविधाओं के पैसे भी शामिल होते हैं. वे बच्चे और मां के मसाज के लिए फिजियोथेरैपिस्ट या दूसरे जानकार लोगों को बुलाने का भी काम करते हैं.
यह खर्च केवल डिलीवरी के समय का है. वैसे देखा जाए तो बच्चे के डिलीवरी तक पहुंचने का खर्च भी कम नहीं होता है. जिस दिन मातापिता को यह पता चलता है कि बच्चा पेट में आ गया, वे डाक्टर के पास जाते हैं. इस के बाद से ही डाक्टर की फीस, टैस्ट, दवा के नाम पर हजारों रुपए खर्च होने लगते हैं. डाक्टर की फीस कम से कम 1 हजार रुपए हो गई है. पूरे 9 माह के खर्च जोड़े जाएं तो 2 से 3 लाख का खर्च होता है. ऐसे में आज के दौर में बच्चे महंगे हो गए हैं. इन में भी जरूरत से अधिक दिखावे का चलन है. डाक्टर को अपने अस्पताल ऐसे बनाने पड़ते हैं जिन को बाहर से ही देख कर मरीज पर प्रभाव पड़े और वह महंगी फीस देने से पीछे न हटे.
जिन लोगों के नौर्मल गर्भ नहीं ठहरता उन के खर्च और भी अधिक होते हैं. आईवीएफ के जरिए बच्चों को पैदा करने में 10 से 15 लाख तक का खर्च आ जाता है. आज भी हमारे समाज में बां झपन एक श्राप जैसा है. जिस औरत के बच्चे नहीं होते उस को बां झ कहा जाता है. उस को श्रापित माना जाता है. उस के साथ भेदभाव किया जाता है. कई जगहों पर सुबह उस को देखने को लोग बुरा मानते हैं. इस कारण हर औरत यह चाहती है कि उस के बच्चा जरूर हो. बां झपन के तमाम कारण होते हैं. आज के समय में देर से हो रही शादियां, कैरियर का तनाव, खानपान और प्रदूषण के चलते आदमी और औरत दोनों में कोई परेशानी होने से भी बां झपन होने लगी है. ऐसे में आईवीएफ के जरिए बच्चे पैदा करने का काम हो रहा है. अगर लोग चाहें तो बच्चे को गोद भी ले सकते हैं, लेकिन सोशल स्टेटस और सामाजिक दबाव के कारण वे बच्चा गोद लेने की जगह पर आईवीएफ के जरिए बच्चा पैदा करने का प्रयास करते हैं, जिस में खर्चे अधिक हैं.
नौर्मल शौपिंग बनाम मौल्स की शौपिंग
लखनऊ के मशहूर अमीनाबाद बाजार में माताबदल पंसारी की दुकान है. एक समय में पूरे उत्तर प्रदेश में यह मशहूर थी. किराने का हर सामान यहां मिल जाता था. न रेट को ले कर कोई दिक्कत होती थी न ही वजन और क्वालिटी को ले कर. ग्राहक और दुकान के बीच सुखदुख का रिश्ता भी था. जो अपने बेटेबेटी की शादी का सामान लेता था तो वह शादी का कार्ड भी देता था. सामान की लिस्ट दुकान पर दे दी जाती थी, कुछ देर बाद सारा सामान पैक हो कर तैयार मिलता था. पैसे कुछ कम हुए तो भी कोई दिक्कत नहीं होती थी. यही हालत बरतन बेचने वाले कन्हैयालाल प्रयागदास और ज्वैलरी बेचने वाले लाला जुगल किशोर और खुनखुनजी की होती थी.
समय बदला, ग्राहक और दुकानदार के बीच का रिश्ता बदला. छूट का लालच दे कर मौल्स ने अपना कारोबार फैलाया. मौल्स में ग्राहक और दुकानदार के बीच कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं रह गया है. मध्यवर्ग को पता है कि मौल्स में उस का बजट बिगड़ा जा रहा है. वह 500 रुपए का सामान लेने जाता है और 2 हजार का ले कर आता है. लेकिन पैसे वाले ऊंचे लोग खरीदारी करने मौल्स में जा रहे हैं. इस कारण वह भी वहां खरीदारी करना अपनी शान सम झता है. मौल्स में बिल चुकाते समय अगर एक रुपया भी आप के पास कम हो जाए तो हजारों की खरीदारी के बाद भी आप को छूट नहीं मिलेगी. साधारण दुकानों पर आप हक और अधिकार से बिना इस तरह का पैसा चुकाए सामान ला सकते हैं.
रैस्तरां और होटल
दिखावे की जगहें
हमारे रोजमर्रा के जीवन में दिखावा खानेपीने की चीजों पर भी भारी पड़ गया है. मध्यवर्ग इस दिखावे में सब से आगे है. इसी वजह से वह परेशान रहता है. पहले जब खानेपीने की बात होती थी तो यह देखा जाता था कि स्वाद कहां सब से अच्छा है. अब यह देखा जाता है कि इंटीरियर कहां सब से अच्छा है. किस रैस्तरां का प्रचारप्रसार सब से अधिक है. यहां भी ब्रैंड से ब्रैंड का टकराव होने लगा है. लखनऊ में शर्मा चाय की दुकान है. बहुत मशहूर है. चाय, बंद मक्खन और समोसा यहां मिलता है. यहां 15 रुपए की चाय मिलती है. लोकल लैवल पर देखें तो शर्मा की चाय ब्रैंड है. कीमत भी कम है. लेकिन पैसे वाले ऊंचे लोग ‘स्टारबग’, ‘सबवे’ और ‘बरिस्ता’ जैसी जगहों पर जा कर जिस सुख की अनुभूति पाते हैं वह शर्मा चाय में नहीं मिलती.
मध्यवर्ग के लिए ‘स्टारबग’ और ‘सीसीडी’ की कौफी उस की जेब पर भारी पड़ती है. वहां की 250 रुपए की कौफी में ऐसा कौन सा स्वाद है जो
50 रुपए वाली नौर्मल कौफी में नहीं होता. लेकिन दिखावे और सोशल स्टेटस के लिए ‘स्टारबग’ का जो रुतबा है वह नौर्मल कौफी का नहीं होता. सोशल स्टेटस की सब से बड़ी वजह सोशल मीडिया का बढ़ना है. पहले किसी चीज को दिखाने के लिए लोगों तक जाना पड़ता था.
अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप के स्टेटस पर फोटो के पोस्ट होते ही लोग देख लेते हैं. अपने गुणगान करने के लिए फेसबुक और इंस्टाग्राम पर रील डालने का प्रचलन बढ़ गया है. अब आप साधारण खानेपीने की दुकानों पर जा कर वहां के फोटो पोस्ट करेंगे तो उस का प्रभाव नहीं पड़ेगा. वहीं जब आप ‘स्टारबग’, ‘सबवे’ और ‘बरिस्ता’ या महंगे होटल के फोटो पोस्ट करेंगे तो आप के जानने वालों को लगेगा कि आप कितने अमीर हैं. पिछले 5-6 सालों में मध्यवर्ग के बीच यह दिखावा बड़ी तेजी से बढ़ा है. वह खुद को पैसे वाले ऊंचे लोगों से कमतर नहीं देखना चाहता. यही वजह है जिस के कारण यह वर्ग असंतुष्ट और तनाव में रहता है.
पर्यटन : घूमना कम,
दिखावा ज्यादा
पैसे वाले ऊंचे लोग घूमने के लिए विदेशों में जाते हैं. मध्यवर्ग महंगे देशों में नहीं जा पाता तो वह आसपास की सस्ती जगहों, जैसे बैंकौक, पटाया, नेपाल जैसे देशों में अपनी यात्रा करता है. जो विदेश को अफोर्ड नहीं कर पाता वह देश के अंदर के गोवा, मनाली, कूल्लू, नैनीताल जैसे पर्यटन क्षेत्रों में घूम लेता है. पर्यटन में उस का उद्देश्य दिखावा अधिक होता है. उस का प्रयास रहता है कि अधिक से अधिक जगहों पर उस की फोटो हो जाए, जिस से वह यह दिखा सके कि पर्यटन वह भी करता है. इस के अलावा अब वह फाइवस्टार होटल से नीचे में नहीं रुकता. पहले लोग धर्मशाला या छोटे होटल में रुकते थे. उन का मानना था कि वे वहां होटल देखने नहीं बल्कि पर्यटन के लिए आए हैं. ऐसे में होटल कम से कम खर्च वाला हो.
अब यह धारणा बदल गई है. पर्यटन करने गए लोग कार किराए पर ले लेते हैं. अधिक से अधिक जगहों पर केवल फोटोशूट करते हैं और महंगे होटलों में रुक कर अपनी फोटो पोस्ट करते हैं. पर्यटन के सीजन में किसी भी शहर में जाएं तो महंगे होटल पहले से भरे मिलते हैं. कुछ वर्षों पहले तक सस्ते होटल पहले भरे मिलते थे, महंगे खाली रहते थे. महंगे होटलों में रुकना दिखावा बन गया है. मध्यवर्ग का आदमी अपने घर में भले ही कैसे रहता हो पर जब वह घूमने जाता है तो महंगे होटल में जाता है. अगर हवाईजहाज से यात्रा हो रही हो तो हवाईजहाज में बैठते ही सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट हो जाती है. वहीं अगर बस या ट्रेन से यात्रा हो तो उस का जिक्र नहीं किया जाता.
ब्यूटीपार्लर नहीं सैलून
एक दौर था जब नौर्मल ब्यूटीपार्लर में महिलाएं जाती थीं. अब अमीर महिलाओं की देखादेखी मध्यवर्ग की महिलाएं भी ब्यूटीपार्लर की जगह सैलून में जाने लगी हैं. सैलून भी ऐसेवैसे नहीं, ब्रैंडेड होने चाहिए. ब्यूटी प्रोडक्टस बनाने वाली कंपनी ने इसी चलन को देखते हुए 20 साल पहले लैक्मे ब्यूटी सैलून का विस्तार छोटेछोटे शहरों में करना शुरू किया. नौर्मल ब्यूटीपार्लर से दोगुनीतीनगुनी महंगी सर्विस होने के बाद भी महिलाएं लैक्मे सैलून में जाने लगीं. आज के दौर में लैक्मे ने नौर्मल ब्यूटीपार्लर को बाजार से बाहर कर दिया है. अब ब्रैंडेड सैलून हर शहर में दिखने लगे हैं.
एक वक्त था जब इस बात की कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि महिला और पुरुष एक ही पार्लर और एक ही जिम में जा सकते हैं. पैसे वाले ऊंचे लोगों की होड़ में मध्यवर्ग की महिला और पुरुष भी यूनिसैक्स सैलून में जाने लगे हैं. जिम वालों ने पहले महिला और पुरुष की अलगअलग शिफ्ट शैड्यूल की थी. लेकिन जब उन्होंने देखा कि महिलाएं पुरुषों के साथ जिम करने में कोई दिक्कत नहीं अनुभव कर रहीं तो अब सब के लिए एकसाथ जिम करने का रास्ता खोल दिया. अब मध्यवर्ग की महिलाएं भी अमीर महिलाओं की तरह से मसाज कराती हैं. यह बात और है कि पैसे वाले अमीर लोगों से मुकाबला करने में उन की आर्थिक कमर टूट जाती है.
घर से अधिक इंटीरियर जरूरी
घर बनाने में भी मध्यवर्ग को पैसे वाले ऊंचे लोगों की वजह से खर्च करना पड़ता है जो उन के बजट में नहीं होता. गांव से निकल कर शहर रहने आए लोग यहां कालोनी में जब मकान बनाते हैं तो वे यह सोचते हैं कि बगल वाले से उन का घर अच्छा बने. इस के लिए घर के साथ ही साथ घर के बाहर लौन, बालकनी, छत और घर के अंदर का इंटीरियर सब अलग होना चाहिए. आज घर बनाने से अधिक बजट इस पर खर्च किया जाने लगा है. बाथरूम, टाइल्स, फौल्स सीलिंग, पानी के नल, लाइट के लिए सोलर सिस्टम, एसी प्लांट तक का प्रयोग मध्यवर्ग के लोग करने लगे हैं. घर बनाने में महंगी किस्म की ब्रैंडेड टाइल्स और पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा है. इन की लगातार देखभाल करने के लिए बाहर से लोगों को बुलवाया जाता है.
बाथरूम और किचन में सब से अधिक दिखावा किया जाने लगा है. नौर्मल किचन की जगह पर मौड्यूलर किचन बनने लगा है, जिस की वजह से घर की कीमत बढ़ने लगी है. लखनऊ में ऐसे किचन और बाथरूम के साथ साधारण इलाके में 1,200 वर्ग फुट के एक मंजिला मकान की कीमत 90 लाख रुपए से शुरू होती है. मध्यवर्ग के सामने सब से अधिक दिक्कत होती है क्योंकि वह पैसे वाले लोगों से अपने रहनसहन की तुलना करता है. इस के लिए वह जितना संभव होता है, अपना प्रयास करता है. अब वह चादर बड़ी करने की फिराक में रहता है, जो कई बार उस के लिए भारी पड़ता है. दिखावा केवल यहीं तक सीमित नहीं है.
घर में अब साधारण किस्म के टीवी नहीं दिखते. बड़ेबड़े एलईडी टीवी घरों में होते हैं. जिन की कीमत 40 से 50 हजार के बीच होती है. एक घर में पहले एक टीवी होता था. वहां बैठ कर पूरा परिवार एकसाथ देखता था. आज लोगों के कमरेकमरे में टीवी होता है. जहां वे अकेले अपने मनपंसद के कार्यक्रम देखते हैं. मध्यवर्गीय परिवारों में यह दिखावा तेजी से बढ़ रहा है. फर्नीचर में भी ब्रैंडेड फर्नीचर का प्रयोग किया जाने लगा है. जो साधारण फर्नीचर से काफी महंगा होता है. पैसे वालों से मुकाबले में मध्यवर्ग ने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. यही उस की सब से बड़ी परेशानी बन गई है. इसी में वह हमेशा परेशान रहता है.
शादीविवाह में बढ़ गया दिखावा
शादीविवाह, बर्थडे पार्टी भी इस के दायरे में आ गई हैं. बड़े लोगों की देखादेखी अब शादियां होटल और रिसौर्ट में होने लगी हैं. पहले घर, फिर धर्मशाला, मैरिज हौल, लौन और अब होटल व रिसौर्ट में शादियों का चलन होने लगा है. बड़े लोग दूसरे शहरों में जा कर डैस्टिनेशन मैरिज करने लगे हैं. यह चलन अब मध्यवर्ग भी अपनाने लगा है. इस से शादी आयोजन के खर्च बढ़ गए हैं. लखनऊ के अगर किसी रिसौर्ट में 30 दिन रुक कर शादीविवाह करना है तो 18 से 20 लाख रुपए तक का खर्च 250 से 300 लोगों का हो जाता है. शादी की सजावट और जयमाला की थीम के चलते बहुत सारे खर्च बढ़ जाते हैं.
शादी में दिखावे का असर है कि अब उस के इवैंट बढ़ गए हैं. पहले जहां केवल शादी में ही ज्यादा खर्च होता था, अब इंगेजमैंट, गोदभराई, तिलक, वरीक्षा (रोका) शादी और रिसैप्शन जैसे कई फंक्शन होने लगे हैं. हर फंक्शन खास हो गया है क्योंकि सब की फोटो और वीडियोग्राफी होती है. शादी की वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी का खर्च एक लाख से 3 लाख के बीच होने लगा है. कुछ लोग शादी में सैलिब्रिटी गैस्ट बुलाने लगे हैं. इन का खर्च अलग होता है. जैसे फिल्मों और टीवी सीरियल में शादी होती दिखाई जाती है वैसे ही अब मध्यवर्ग के लोग शादी करने लगे हैं.
बढ़ते खर्चे, घटती कमाई
कैसे हो मुकाबला
मध्यवर्ग के पास अमीर लोगों जैसी कमाई है नहीं. ऐसे में वह कैसे अमीरों का मुकाबला करे, यह सोचने वाली बात है. अगर दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की बात करें तो वहां 2 बैडरूम फ्लैट का किराया 40 से 50 हजार रुपए महीने होता
है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से निकले बच्चों का वेतन 70 से 80 हजार रुपए महीने का नहीं होता. अगर ऐसे फ्लैट वे खरीदना चाहें तो 2 करोड़ से ऊपर पैसा खर्च करना पड़ता है. ऐसे में 40 से 50 हजार रुपए तो केवल रहने में निकल गए. इस के बाद कम से कम 12 से 15 लाख कीमत वाली कार चाहिए होती है. लखनऊ जैसे शहरों में औसतन वेतन 50 से 60 हजार का होता है. यहां
2 बैडरूम फ्लैट का किराया 20 से
25 हजार का होता है. कुल मिला कर जहां वेतन ज्यादा है वहां खर्चे भी अधिक हैं. यही कारण है कि युवावर्ग के पास अच्छा वेतन पाने के बाद भी बचत के लिए कोई खास पैसा नहीं होता है.
अगर एक परिवार में पति, पत्नी और एक बच्चा है तो घर के खर्च नौकरानी का वेतन और दूसरे खर्च मिला कर 25 से
30 हजार रुपए प्रतिमाह खर्च हो जाता है. बच्चे के स्कूल का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह पड़ जाता है. बड़े शहरों में इंटरनैशनल स्कूल में प्राइमरी में बच्चे की फीस डेढ़ से 2 लाख सालाना तक आ जाती है. यह खर्च भी इस कारण है क्योंकि मध्यवर्ग भी अमीर लोगों की देखादेखी काम करना चाहता है. छोटे शहरों में तमाम इंटरनैशनल ब्रैंड के स्कूलों की चेन मौजूद है.
पैसे वाले अमीर बन रहे
रोल मौडल
समाज में ऐसे लोगों की चर्चा अधिक होती है जो कम समय में पैसे वाले बन जाते हैं. ऐसे ही लोगों में एक नाम अशनीर ग्रोवर का है. ‘फिनटेक स्टार्टअप भारत पे’ के
वे कोफाउंडर
रहे हैं. अशनीर 90 मिलियन डौलर की संपत्ति के मालिक हैं. भारतीय रुपए में उन की संपत्ति 700 करोड़ की बताई जाती है. अशनीर ‘शार्क टैंक इडिया’ के एक एपिसोड के लिए 10 लाख रुपए लेते हैं. अशनीर को महंगी गाडि़यों का शौक है. ढाई करोड़ की मर्सिडीज, 2 करोड़ की पोर्श कैमेन जैसी कारों के साथ तमाम महंगी गाडि़यां हैं. अशनीर दिल्ली में रहते हैं. पंचशील पार्क के पास उन का आलीशान घर है जिस की कीमत 30 करोड़ बताई जाती है. यहां वे मातापिता, पत्नी और 2 बच्चों के साथ रहते हैं. इस के अलावा अशनीर की लाइफस्टाइल और रहनसहन भी चर्चा में रहता है.
पहले बड़े लोगों की सादगी की चर्चा होती थी. टाटा और बिड़ला की जब बात होती थी तो उन की सादगी का उदाहरण दिया जाता था. वे अपनी कमाई समाजसेवा में लगाते थे. टाटा ने कैंसर से लड़ाई में जो योगदान दिया वह एक उदाहरण है. कभी इस बात की चर्चा नहीं हुई कि टाटा के पास कितने चार्टर्ड विमान हैं. आज के दौर में गौतम अडानी की चर्चा ही इस बात पर होती है कि उन के पास महंगे किस्म के चार्टर्ड विमानों का पूरा जखीरा है.
बिजनैस मैगजीन फोर्ब्स ने 2021 के भारत के 100 अमीर लोगों की सूची जारी की. इन की कुल संपत्ति 775 अरब डौलर बताई गई. इस सूची में 92.07 अरब डौलर के साथ मुकेश अंबानी पहले नंबर पर हैं. अडानी ग्रुप के मुखिया गौतम अडानी 74.08 अरब डौलर के साथ दूसरे नंबर पर हैं. कोरोना के जिस दौर में मध्यवर्ग जीनेमरने के लिए संघर्ष कर रहा था, वहां इन अमीर लोगों की संपत्ति में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई. देश के 100 अमीर लोगों का धन 50 फीसदी से अधिक बढ़ गया. 257 अरब डौलर की बढ़त के साथ यह अब 775 अरब डौलर हो गया है.
ऐसे अमीरों की समाज में कमी नहीं है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि पैसे वालों को देख कर होड़ लगाने की रेस से मध्यवर्ग को बचना चाहिए. उस के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी कमाई से न केवल अपने खर्च उठाए बल्कि भविष्य के लिए बचत भी करे. मध्यवर्ग का सामाजिक ढांचा भी पहले जैसा मजबूत नहीं रहा जहां घरपरिवार, मित्र, रिश्तेदार जरूरत पड़ने पर मदद कर देते थे. आज मध्यवर्ग के लोग खुद अपनी हालत से परेशान हैं. वे दूसरे की मदद कैसे करें?
युवावर्ग यह न सोचें कि अभी बचत करने की क्या जरूरत है, बल्कि उसे अभी से ही बचत करनी शुरू कर देनी चाहिए. नौकरी के शुरुआती दौर में जिम्मेदारियां कम होती हैं. ऐसे में वे मनचाही बचत कर सकते हैं. सोशल स्टेटस छलावे में न फंसें. उतने ही पैर फैलाएं जितनी लंबी चादर हो.