4 जून के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पब्लिक मीटिंग में हिस्सा नहीं लिया है. उन की मीटिंग बहुत ही कम और चुने हुए लोगों के बीच हो रही है, जिन में से ज्यादातर उन की विचारधारा वाले हैं. भाजपा की हार के बाद जो सवाल उठ रहे हैं उन का सामना करने की हालत में प्रधानमंत्री खुद को सहज महसूस नहीं कर रहे. विदेशों में भी वे चुने हुए लोगों के बीच ही जा रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में पहली विदेश यात्रा में इटली गए.
वहां इटली की प्रधानमंत्री जौर्जिया मेलोनी ने नरेंद्र मोदी को 50वें जी7 शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए बुलाया था. आमतौर पर नरेंद्र मोदी जिस देश में जाते थे वहां भारत के रहने वालों से पब्लिक मीटिंग करते थे. इटली में उन की फोटो इटली की प्रधानमंत्री जौर्जिया मेलोनी के साथ दिखी. पब्लिक के बीच की कोई फोटो नहीं दिखी जिस में यह दिख रहा हो कि नरेंद्र मोदी इटली में रहने वाले भारतीयों से मिले हों.
अपनी दूसरी विदेश यात्रा में नरेंद्र मोदी रूस गए. रूस और यूक्रेन के बीच जंग शुरू होने के बाद नरेंद्र मोदी की यह पहली रूस यात्रा थी. यूक्रेन और रूस के बीच युद्व को रुकवाने को ले कर सोशल मीडिया पर नरेंद्र मोदी को ले कर तमाम तरह के मीम्स वायरल हुए हैं. बारबार यह कहने की कोशिश की गई कि यूक्रेन-रूस युद्व रुकवाने में मोदी प्रभावी भूमिका अदा कर सकते हैं. सचाई में यह युद्व अभी भी जारी है.
दूसरी तरफ, नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी देश और विदेशों में पब्लिक के बीच लोगों से मिल रहे हैं. दिल्ली में बस के चालकों से मिले. उन्होंने अपनी तीसरी भारत जोड़ो यात्रा ‘डोजो’ के नाम से शुरू करने की बात कही है. लोकसभा चुनाव के बाद नेताओं में सब से सक्रिय राहुल गांधी ही नजर आ रहे हैं. ऐसे में यह बात भी साफ हो गई है कि जनता को केवल राहुल गांधी से ही उम्मीद नजर आ रही है. जम्मूकश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में इंडिया ब्लौक राहुल गांधी के कारण मजबूत खड़ा हो गया है. एनडीए के घटक दलों में कश्मीर से ले कर महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार में अंसतोष बढ़ता जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में खींचतान
एक तरफ लोग उन से यूक्रेन-रूस युद्व रुकवाने की उम्मीद कर रहे हैं, दूसरी तरफ एनडीए और भाजपा में आपसी लड़ाई अब खुल कर सामने आ रही है. नरेंद्र मोदी इस लड़ाई को रुकवाने में असफल साबित हो रहे हैं. लोकसभा चुनाव में भाजपा को सब से बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में लगा जहां वह समाजवादी पार्टी से 4 सीटें कम पा कर दूसरे नंबर की पार्टी बनी. भाजपा को लोकसभा चुनाव में 33 सीटें मिलीं जबकि सपा को 37 सीटें मिलीं. सपा को 32 सीटों का लाभ हुआ और भाजपा को 32 सीटों का नुकसान हुआ. उस की 64 सीटों से घट कर 32 सीटें रह गईं.
जिस तरह से एक बरसात में ही अयोध्या के सड़क और मंदिर निर्माण की पोल खुल गई उसी तरह एक ही हार में भाजपा का पूरा अनुशासन तारतार हो गया. डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, सहयोगी अपना दल की नेता और मंत्री अनुप्रिया पटेल, डाक्टर संजय निषाद जैसे नेताओं ने पार्टी की हार के लिए आरक्षण, बुलडोजर कार्रवाई और उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा किया.
केशव प्रसाद मौर्य ने कहा, ‘संगठन सरकार से बड़ा होता है. पार्टी की हार के लिए सरकारी अमला जिम्मदार है जिस ने संगठन के लोगों को महत्त्व नहीं दिया.’ अनुप्रिया पटेल ने ओबीसी आरक्षण को ले कर उत्तर प्रदेश सरकार से कहा कि सरकारी नौकरियों में सही तरह से आरक्षण का पालन नहीं किया गया. 69 हजार शिक्षकों की भरतियों को ले कर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले से अनुप्रिया पटेल की बात पर मोहर लगा दी.
भाजपा के दूसरे सहयोगी नेता डाक्टर संजय निषाद ने कहा कि, ‘बुलडोजर गरीबों के घरों पर भी चल रहा है. ऐसे में उन से वोट की उम्मीद कैसे की जा सकती है. गरीबों का घर उजाड़ोगे तो वे हमें उजाड़ देंगे.’ उत्तर प्रदेश में सरकार के खिलाफ बगावत दबी नजर में दिख रही है. 10 सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव के नतीजे आग में घी का काम करेंगे. नरेंद्र मोदी इन को संभाल नहीं पाएंगे.
दबाव बनाने लगे मोदी के हनुमान
लोक जनशक्ति पार्टी के नेता, केंद्र सरकार में मंत्री और अपने को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान एनडीए के सुर से सुर नहीं मिला रहे. वक्फ बिल, जातीय गणना और आरक्षण को ले कर उन की राय में विरोध के स्वर फूटते सुनाई दे रहे हैं. इसे नियंत्रण में करने के लिए भाजपा ने औपरेशन लोटस शुरू कर दिया है. भाजपा की निगाह लोक जनशक्ति पार्टी के सांसदों के साथ ही साथ चिराग पासवान के चाचा पशुपति पारस पर भी है.
पशुपित पारस पटना से ले कर दिल्ली में भाजपा के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं. चिराग को नियंत्रण में लाने के लिए भाजपा पशुपति को भाव देने लगी है. 22 अगस्त को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल पारस से मिलने उन के पटना वाले घर गए. गृह मंत्री अमित शाह से पारस की मुलाकात हो गई. भाजपा ने यह कदम तब उठाया जब लोजपा (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान केंद्र सरकार से जुड़े कुछ संवेदनशील मामलों पर सार्वजनिक मंच पर टिप्पणी करने लगे.
असल में चिराग पासवान की कुछ गतिविधियां भाजपा को पसंद नहीं आ रही हैं. लोजपा (रामविलास) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की रांची में बैठक हुई थी. उस में चिराग ने झारखंड सहित कुछ अन्य राज्यों में भी स्वतंत्र ढंग से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. भाजपा नहीं चाहती है कि झारखंड में राजग के वोटबैंक में बिखराव हो. इस से पहले लैटरल एंट्री को ले कर चिराग के रुख से भी भाजपा हैरान रह गई थी. चिराग ने ठीक उसी समय लैटरल एंट्री का विरोध किया जब इंडिया अलायंस के सभी दल एक सुर से इस का विरोध कर रहे थे.
इसी तरह एससीएसटी आरक्षण के लिए उपवर्गीकरण के बारे में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के विरोध में चिराग की अतिसक्रियता भी भाजपा को नहीं भा रही है. एससीएसटी के आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने की सुप्रीम कोर्ट की सलाह की केंद्र सरकार समीक्षा ही कर रही थी कि चिराग ने इस मामले में भी टिप्पणी की जो भाजपा को ठीक नहीं लगी.
चिराग पासवान की दिक्कत यह है कि वे एससीएसटी और मुसलिम बिरादरी को नाराज नहीं कर सकते. उन को लगता है कि अगर इन वर्गों के मुद्दों पर वे भाजपा के साथ खड़े दिखेंगे तो यह वोट उन की पार्टी से छिटक जाएगा जिस का राजनीतिक नुकसान उन की पार्टी को उठाना पड़ेगा. वे जानते हैं कि जब उन की पार्टी वोट नहीं पाएगी, उस के लोग चुनाव नहीं जीतेंगे तो भाजपा भी उन की परवा नहीं करेगी. ऐसे में वे भाजपा के साथ रहते एससीएसटी और मुसलिमों का साथ देना चाहते हैं. वेभाजपा पर अपना एहसान जताना चाहते हैं कि उन का साथ देने से यह वोट उन से दूर जा रहा है.
जदयू में भी हो रहा है खदबद
एनडीए की एक और सहयोगी जदयू में भी भाजपा के साथ संबंधों को ले कर माहौल खराब हो रहा है. पार्टी नेता के सी त्यागी ने राष्ट्रीय प्रवक्ता पद से इस्तीफा दे दिया है. अब राजीव रंजन यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. के सी त्यागी लंबे समय से जदयू का प्रमुख चेहरा रहे हैं. एक तरफ जदयू के नेता नरेंद्र मोदी की हां में हां मिला रहे थे दूसरी तरफ के सी त्यागी के कुछ बयान अलग आ रहे थे. असल में एससीएसटी और मुसलिमों को ले कर जदयू और भाजपा के विचारों में टकराव है. जदयू के लिए अपने इस वोटबैंक के खिलाफ जाना आसन नहीं है. इस से पार्टी की राजनीतिक जमीन के खिसकने का खतरा है.
ऐसे में पार्टी के अंदर असंतोष बढ़ रहा है. वैसे तो के सी त्यागी ने अपने इस्तीफे की वजह व्यक्तिगत बताई है पर इस के राजनीतिक प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता. के सी त्यागी के इस्तीफे के पीछे कई और कारण छिपे हुए हैं, जिन में उन के बयानों के कारण पार्टी के भीतर और बाहर उत्पन्न हुए मतभेद शामिल हैं. इस कारण पार्टी के भीतर असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई और यह स्थिति धीरेधीरे गंभीर हो गई.
के सी त्यागी के बयानों के कारण सिर्फ जदयू ही नहीं, बल्कि एनडीए के भीतर भी मतभेद की खबरें सामने आईं. खासकर विदेश नीति के मुद्दे पर, उन्होंने इंडिया गठबंधन के नेताओं के साथ सुर मिलाते हुए इजराइल को हथियारों की आपूर्ति रोकने के लिए एक साझा बयान पर हस्ताक्षर कर दिए. यह कदम जदयू नेतृत्व को असहज करने वाला था और इस से पार्टी के भीतर और बाहर विवाद बढ़ गया.
इस के अलावा के सी त्यागी ने एससीएसटी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर बिना पार्टी से चर्चा किए बयान जारी कर दिया. लैटरल एंट्री के मुद्दे पर भी उन्होंने अपनी व्यक्तिगत राय को पार्टी की आधिकारिक राय के रूप में पेश किया. के सी त्यागी की विदाई से जदयू ने भाजपा पर दबाव बनाने का प्रयास किया है. इस से उस ने अपनी छवि एससी, एसटी, ओबीसी और मुसलिमों के बीच सुधारने का प्रयास भी किया है.
जम्मूकश्मीर की जदयू इकाई ने नीतीश कुमार से अपील की है कि वे केंद्र में सरकाए के साथ गठबंधन पर विचार करें. नीतीश कुमार की जदयू ने जम्मूकश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में ताल ठोकने का ऐलान किया है. राज्य की जदयू इकाई ने केंद्र सरकार से जम्मूकश्मीर के लिए राज्य का दर्जा बहाल कराने की भी मांग करने का फैसला लिया है. जदयू के राज्य महासचिव विवेक बाली ने कहा, ‘जम्मूकश्मीर में भाजपा के कृत्यों ने हमें अपने राष्ट्रीय नेता नीतीश कुमार से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में हमारी भागीदारी पर पुनर्विचार करने की अपील करने के लिए मजबूर किया है. जदयू कश्मीर में इसलामी विद्वानों को मुख्यधारा में वापस लाने की कोशिश कर रही है लेकिन भाजपा कथित तौर पर इन प्रयासों में बाधाएं पैदा कर रही है.’
जदयू ने जम्मूकश्मीर में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. जदयू का कहना है कि वह राज्य की ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है और संगठन को लगातार मजबूत कर रही है. इस तरह की मांग से एनडीए के कुनबे पर संकट के बादल छा रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि जैसे केंद्र की नरेंद्र मोदी वाली एनडीए की सरकार के जाने का वक्त आ गया है.
महाराष्ट्र में बढ़ रही चुनौतियां
महाराष्ट्र में भाजपा को अपेक्षित सफलता न मिल पाने में कई अन्य कारणों के अलावा सांगठनिक असंतोष ने भी बड़ी भूमिका निभाई है. इस का प्रभाव महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा. जनसंघ काल के बाद भाजपा की स्थापना मुंबई में ही हुई थी. स्थापना के बाद से ही भाजपा को राज्य में प्रमोद महाजन एवं गोपीनाथ मुंडे जैसे 2 युवा चेहरे मिले. महाजन की पहल पर ही यहां के उभरते क्षेत्रीय दल शिवसेना से गठबंधन की शुरुआत हुई. दोनों दलों ने मिल कर यहां की मजबूत जनाधार वाली कांग्रेस से टक्कर ले कर 1995 में पहली बार अपनी सरकार बनाई.
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार का कारण जातीय समीकरण रहे. जो हालत उत्तर प्रदेश में थी वही महाराष्ट्र में भी भाजपा की रही. चुनाव परिणाम आने के बाद खुद उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने माना कि वे सोयाबीन एवं कपास उत्पादक किसानों तक पहुंच बना पाने में नाकाम रहे. प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले हार का ठीकरा जातिवाद की राजनीति को दे रहे हैं. जबकि महाराष्ट्र में भाजपा नेता माली, धनगर एवं वंजारी जैसे अन्य पिछड़ा वर्गों को साथ ले कर मजबूत मराठा नेताओं को चुनौती देते रहे थे.
भाजपा एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री एवं अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री बना कर भी मराठा आरक्षण आंदोलन से उपजी मराठों की नाराजगी दूर नहीं कर सकी, जबकि ये दोनों प्रमुख मराठा चेहरों में से एक हैं. उलटे, इन दोनों को साथ लाने से भाजपा के ही विधायकों में असंतोष पैदा हुआ क्योंकि इन दोनों के साथ आने से मंत्रिमंडल विस्तार में भाजपा विधायकों का ही हक मारा गया. विधायकों से नीचे के स्तर पर भी असंतोष पनप रहा है. जम्मूकश्मीर से ले कर महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश तक एनडीए में अंसतोष बढ़ रहा है, जो इस बात का संकेत है कि एनडीए के अंत की शुरुआत हो चुकी है.