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योगी ब्रैंड से हिंदुत्व को धार, क्या भाजपा का होगा बेड़ा पार

अब गुजरात गौरव यात्रा से ले कर केरल की जनरक्षा यात्रा तक योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व के ब्रैंड के रूप में भाजपा द्वारा पेश किया जा रहा है. इन राज्यों के चुनावों में सफलता मिली तो 2019 के लोकसभा चुनावों में योगी का बड़े पैमाने पर प्रयोग होगा. हिंदुत्व के हिट होने से रोजगार और विकास की बातें कम होंगी. नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभावों पर चर्चा नहीं हो सकेगी. पार्टी को आशा है कि हिंदुत्व के मुद्दे के बहाने यशवंत सिन्हा जैसे अपनी पार्टी के विरोधी नेताओं की आवाज को दबाया जा सकता है. योगी को हिंदुत्व के ब्रैंड के रूप में प्रयोग कर के भाजपा ने संकेत दे दिया है कि आने वाले चुनाव  वह धर्म के आधार पर ही लड़ना चाहती है. धर्म की लकड़ी की कड़ाही बारबार आग पर चढ़ाई जा सकती है, यह धर्मों का इतिहास स्पष्ट करता है.

गुजरात से ले कर केरल तक भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को धर्म का ब्रैंड एंबैसडर बना कर चुनाव प्रचार में उतार रही है. वह योगी ब्रैंड के सहारे केरल में अपनी जड़ें जमाने के प्रयास में है. भाजपा पहली बार उत्तर प्रदेश के किसी नेता को इतनी प्रमुखता से हिंदी राज्यों के बाहर चुनावप्रचार में उतार रही है. इस की सब से खास वजह योगी आदित्यनाथ की हिंदुत्व वाली छवि और उन का भगवा पहनावा है.

योगी आदित्यनाथ के पक्ष में एक बड़ी बात यह भी है कि गुजरात और केरल दोनों जगहों में उत्तर प्रदेश के लोगों की संख्या काफी है. योगी आदित्यनाथ का भगवा पहनावा हिंदुत्व की कट्टर छवि पेश कर देता है, जिस के बाद भाजपा को किसी और तरह के मुद्दे को उठाने की जरूरत नहीं रह जाती है. अयोध्या आने वाले पर्यटकों में बड़ी संख्या गुजरात और केरल के लोगों की रहती है. यह बात शायद भाजपा के जेहन में नहीं है कि उन दोनों राज्यों में उत्तर प्रदेश से वे लोग गए जो गांवों की गरीबी और जाति व धार्मिक अत्याचारों से पीडि़त व बेहद गरीब थे.

भाजपा ने योगी को चुनाव में स्टारप्रचारक के रूप में प्रयोग करने की रणनीति बना ली है. इस के साथ ही अयोध्या के विकास और वहां पर राम की मूर्ति लगाने की योजना पर भी काम तेज कर दिया गया है.

केरल से अधिक भाजपा के लिए गुजरात महत्त्वपूर्ण है. केंद्र सरकार के 2 बड़े फैसले नोटबंदी और जीएसटी वहां के विधानसभा चुनाव पर असर डाल सकते हैं. गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का राज्य है. गुजरात में भाजपा के बैकफुट पर जाने का प्रभाव सीधे शाह-मोदी की लोकप्रियता पर पड़ेगा. भाजपा अब सरकार में आने के बाद सीधेतौर पर हिंदुत्व की बात नहीं करना चाहती. ऐसे में योगी आदित्यनाथ ऐसा चेहरा है जो बिना कहे हिंदुत्व के मुद्दे को उभार सकते हैं. यही वजह है कि भाजपा योगी को चुनावी तारणहार मान कर उन का चुनावप्रचार में उपयोग कर रही है.

गुजरात में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस से है. गुजरात में भाजपा की सरकार है, ऐसे में वहां सत्ताविरोधी मतों का मुकाबला उसे करना है.

हिंदू जनसंख्या बनेगी मुद्दा

केरल में कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार है. वहां भाजपा घटती हिंदू आबादी को मुद्दा बना रही है. ऐसे में योगी आदित्यनाथ सब से मुफीद चेहरा बन सकते हैं. भाजपा ने केरल में योगी आदित्यनाथ की अगुआई में जनरक्षा यात्रा की शुरुआत की. केरल में योगी को सामने ला कर भाजपा यह बताना चाहती है कि धर्म ही नहीं, हिंदुत्व की रक्षा और केरल में हिंदुओं की घटती संख्या को रोकने के लिए योगी जैसे लोगों की जरूरत है. अयोध्या, योगी और हिंदुत्व को पेश कर भाजपा चुनावी समीकरण को धर्म पर केंद्रित रखना चाहती है. केरल में तिरुअनंतपुरम के एक छद्म संस्थान, सैंटर फौर डैवलपमैंट स्टडीज की रिपोर्ट के आधार पर भाजपा  भ्रम फैला रही है कि मुसलिम आबादी 2030 तक 33 फीसदी और 2035 तक 35 फीसदी बढ़ जाएगी. 1961 में केरल में हिंदुओं की आबादी 61 फीसदी थी. 2011 की जनगणना में यह घट कर 54 फीसदी रह गई है. 1961 में जो मुसलिम आबादी 17 फीसदी थी वह 2011 में 27 फीसदी हो गई है. ये आंकड़े प्रमाणिक नहीं हैं पर भाजपा अपने सोशल मीडिया प्रचारतंत्र के जरिए इन आंकड़ों पर जोरशोर से भ्रम फैला रही है.

सैंसस आंकड़ों के अनुसार, हिंदुओं की वृद्धि 2001-11 के दौरान यदि 16.76 प्रतिशत से गिर कर 18.92 प्रतिशत हुई है तो मुसलिम वृद्धि एकाएक  1991-2001 में 29.52 प्रतिशत से गिर कर 24.60 प्रतिशत हो गई है. यदि मुसलिम जनसंख्या में वृद्धि इसी तरह घटती रही, जिस की संभावना बहुत अधिक है, तो यह मामला सिर्फ हौआ दिखाने का रह जाएगा कि मुसलिम हिंदुओं से ज्यादा हो जाएंगे.

गुजरात में अयोध्या की छवि

भाजपा इस तर्क को आगे बढ़ा रही है कि केरल में धर्मांतरण बड़े पैमाने पर हो रहा है. इस के कारण हिंदुओं की संख्या में कमी हो रही है. धर्मांतरण को भाजपा ने पिछले चुनाव में प्रमुख मुद्दा बनाया था. उत्तर प्रदेश के चुनावों में भी धर्मांतरण और लव जिहाद जैसे मुद्दों ने प्रदेश में हिंदुत्व की लहर को तेज किया था. धर्मांतरण की बात करते हुए भाजपा इस पर चुप्पी साध जाती है कि जो भी धर्मपरिवर्तन कर रहे हैं क्या वे हिंदू जाति व्यवस्था के सताए हुए नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से स्पष्ट है कि भाजपा असल सत्य को छिपा रही है. अब केरल में भाजपा इस मुद्दे को ले कर चुनाव जीतना चाहती है. केरल में अभी तक कांग्रेस और वामदलों के बीच सत्ता की लड़ाई चलती थी.

इस बार भाजपा ने इस मुद्दे को उठा कर चुनावी लड़ाई को त्रिकोणात्मक बना दिया है. वामदल और कांग्रेस इस मसले पर चुप हैं क्योंकि इन दोनों के नेता उसी तरह के हैं जिस से भाजपा के कट्टर चेहरे आए हैं. भाजपा यहां मुखर हो कर अपनी बात को कह रही है. ऐसे में योगी सब से प्रभावी चेहरा बन गए हैं. इस कारण भाजपा योगी को उत्तर प्रदेश से बाहर ले कर जा रही है.

गुजरात के विधानसभा चुनावों में अयोध्या एक प्रमुख मुद्दा रहता है. गुजरात के दंगों की आग अयोध्या से जुड़ी थी. गोधरा कांड में कारसेवकों पर हुआ हमला और उस के बाद वहां भड़की हिंसा आज भी लोगों के दिलोदिमाग पर हावी है. रोजगार और विकास जैसे मुद्दों को पीछे ढकेलने के लिए हिंदुत्व को उभारना ही सब से जरूरी हो जाता है. हिंदुत्व के उभरने से नोटबंदी और जीएसटी के प्रभावों पर चर्चा गौण हो जाती है. योगी आदित्यनाथ के सहारे भाजपा अपने हिंदुत्व के ब्रैंड को हिट करना चाहती है. जिस से चुनाव में दूसरे मुद्दे चर्चा में न आ सकें.

केरल और गुजरात में योगी की लोकप्रियता का अंदाजा भाजपा को है. योगी भले ही केरल की मलयालम और गुजराती बोली में अपनी बात न कह सकें पर वे अपने पहनावे से वहां के लोगों को हिंदुत्व का आभास कराने में पूरी तरह से सफल हो रहे हैं. केरल में भाजपा के स्थानीय नेता हिंदी बोल लेते हैं. वे इस काम में योगी के सब से बड़े मददगार बनेंगे. गुजरात में केरल से अधिक हिंदी बोली के लोग हैं. गुजरात के ज्यादातर शहरों में उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से के लोग ज्यादा हैं, जहां से योगी आते हैं. ऐसे में पूर्वी उत्तर प्रदेश से गुजरात आए लोग बड़ी संख्या में योगी को सुनने आ सकते हैं जो चुनावी माहौल को बेहतर बनाने का काम करेंगे.

केरल और गुजरात के चुनावों में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन से योगी का कद देश की राजनीति में बड़ा होगा. जिस का प्रयोग भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में बखूबी कर सकेगी.

विरोध के स्वर

योगी के बहाने भाजपा केवल पार्टी के बाहर ही मैदान मारने की तैयारी में नहीं है. वह पार्टी के अंदर उठ रहे विरोध के स्वर को भी दबाने में सफल हो रही है. यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे पार्टी के पुराने खेवनहारों के उभरते विरोध के स्वर को भाजपा हाशिए पर डालने के लिए नई पीढ़ी के नेताओं को उभारना चाहती है, जो शाह और मोदी के विरोध की बात मन में भी न ला सकें. हिंदुत्व के ब्रैंड के रूप में भाजपा के पास योगी जैसा कोई नेता नहीं है. योगी प्रखर वक्ता हैं. हिंदुत्व को ले कर वे कट्टरवादी बयान दे सकते हैं. वे अपनी पोशाक से पूरी तरह मीडिया के बीच आकर्षण का केंद्रबिंदु बने रहते हैं. वे युवा और मेहनती होने के कारण ज्यादा से ज्यादा समय तक काम कर सकते हैं. योगी को मुख्यमंत्री बने हुए अभी 6 माह का ही समय हुआ है, फिलहाल उन की छवि भ्रष्टाचार विरोधी बनी है. विकास को ले कर तमाम तरह की योजनाओं के सहारे योगी की छवि को निखारा जा सकता है.

घरेलू हिंसा कानून है सास और बहू दोनों के लिए

मेरे महल्ले में एक वृद्ध महिला अपने घर में अकेली रहती हैं. वे बेहद मिलनसार व हंसमुख हैं. उन का इकलौता बेटा और बहू भी इसी शहर में अलग घर ले कर रहते हैं. एक दिन जब मैं ने उन से इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने जो कुछ भी बताया वह सुन कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए.

उन्होंने बताया, ‘‘मेरे बेटे ने प्रेमविवाह किया था. फिर भी हम ने कोई आपत्ति नहीं की. बहू ने भी आते ही अपने व्यवहार से हम दोनों का दिल जीत लिया. 2 साल बहुत अच्छे से बीते. लेकिन मेरे पति की मृत्यु होते ही मेरे प्रति अप्रत्याशित रूप से बहू का व्यवहार बदलने लगा. अब वह बेटे के सामने तो मेरे साथ अच्छा व्यवहार करती, परंतु उस के जाते ही वह बातबात पर मुझे ताने देती और हर वक्त झल्लाती रहती. मुझे लगता है कि शायद अधिक काम करने की वजह से वह चिड़चिड़ी हो गई है, इसलिए मैं ने उस के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. मगर उस ने तो जैसे मेरे हर काम में मीनमेख निकालने की ठान रखी थी.

‘‘धीरेधीरे वह घर की सभी चीजों को अपने तरीके से रखने व इस्तेमाल करने लगी. हद तो तब हो गई जब उस ने फ्रिज और रसोई को भी लौक करना शुरू कर दिया. एक दिन वह मुझ से मेरी अलमारी की चाबी मांगने लगी. मैं ने इनकार किया तो वह झल्लाते हुए मुझे अपशब्द कहने लगी. जब मैं ने यह सबकुछ अपने बेटे को बताया तो वह भी बहू की ही जबान बोलने लगा. फिर तो मुझे अपनी बहू का एक नया ही रूप देखने को मिला. वह जोरजोर से रोनेचिल्लाने लगी तथा रसोई में जा कर आत्महत्या का प्रयास भी करने लगी. साथ ही, यह धमकी भी दे रही थी कि वह यह सबकुछ वीडियो बना कर पुलिस में दे देगी और हम सब को दहेज लेने तथा उसे प्रताडि़त करने के इलजाम में जेल की चक्की पिसवाएगी. उस समय तो मैं चुप रह गई, परंतु मैं ने हार नहीं मानी.

‘‘अगले ही दिन बिना बहू को बताए उस के मातापिता को बुलवाया. अपने एक वकील मित्र तथा कुछ रिश्तेदारों को भी बुलवाया. फिर मैं ने सब के सामने अपने कुछ जेवर तथा पति की भविष्यनिधि के कुछ रुपए अपने बेटेबहू को देते हुए इस घर से चले जाने को कहा. मेरे वकील मित्र ने भी बहू को निकालते हुए कहा कि महिला संबंधी कानून सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी सास के लिए भी है. तुम्हारी सास भी चाहे तो तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट कर सकती है. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम सीधी तरह से इस घर से चली जाओ. मेरा यह रूप देख कर बहू और बेटा दोनों ही चुपचाप घर से चले गए. अब मैं भले ही अकेली हूं परंतु स्वस्थ व सुरक्षित महसूस करती हूं.’’

उक्त महिला की यह स्थिति देख कर मुझे ऐसा लगा कि अब इस रिश्ते को नए नजरिए से भी देखने की आवश्यकता है. सासबहू के बीच झगड़े होना आम बात है. परंतु, जब सास अपनी बहू के क्रियाकलापों से खुद को असुरक्षित व मानसिक रूप से दबाव महसूस करे तो इस रिश्ते से अलग हो जाना ही उचित है. बदलते समय और बिखरते संयुक्त परिवार के साथ सासबहू के रिश्तों में भी काफी परिवर्तन आया है.

एकल परिवार की वृद्धि होने के कारण लड़कियां प्रारंभ से ही सासविहीन ससुराल की ही अपेक्षा करती हैं. वे पति व बच्चे तो चाहती हैं परंतु पति से संबंधित अन्य कोई रिश्ता उन्हें गवारा नहीं होता. शायद वे यह भूल जाती हैं कि आज यदि वे बहू हैं तो कल वे सास भी बनेंगी.

फिल्मों और धारावाहिकों का प्रभाव:  हम मानें या न मानें, फिल्में व धारावाहिक हमारे भारतीय परिवार व समाज पर गहरा असर डालते हैं. पुरानी फिल्मों में बहू को बेचारी तथा सास को दहेजलोभी, कुटिल बताते हुए बहू को जला कर मार डालने वाले दृश्य दिखाए जाते थे.

कई अदाकारा तो विशेषरूप से कुटिल सास का बेहतरीन अभिनय करने के लिए ही जानी जाती हैं. आजकल के सासबहू सीरीज धारावाहिकों का फलक इतना विशाल रहता है कि उस में सबकुछ समाया रहता है. कहीं गोपी, अक्षरा और इशिता जैसी संस्कारशील बहुएं भी हैं तो कहीं गौरा और दादीसा जैसी कठोर व खतरनाक सासें हैं. कोकिला जैसी अच्छी सास भी है तो राधा जैसी सनकी बहू भी है. अब इन में से कौन सा किरदार किस के ऊपर क्या प्रभाव डालता है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलता है.

आज के व्यस्त समाज में आशा सहाय और विजयपत सिंघानिया की स्थिति देख कर तो यही लगता है कि अब हम सब को अपनी वृद्धावस्था के लिए पहले से ही ठोस उपाय कर लेने चाहिए. कई यूरोपियन देशों में तो व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद शोक मनाने के लिए भी सारे इंतजाम करने के बाद ही मरता है. हमारे समाज का तो ढांचा ही कुछ ऐसा है कि हम अपने बच्चों से बहुत सारी अपेक्षाएं रखते हैं.

हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार, बेटेबहू के हाथ से तर्पण व मोक्ष पाने का लालच इतना ज्यादा है कि चाहे जो भी हो जाए, वृद्ध दंपती बेटेबहू के साथ ही रहना चाहते हैं. बेटियां चाहे जितना भी प्यार करें, वे बेटियों के साथ नहीं रह सकते, न ही उन से कोई मदद मांगते हैं. कुछ बेटियां भी शादी के बाद मायके की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेना चाहती हैं. और दामाद को तो ससुराल के मामले में बोलने का कोई हक ही नहीं होता.

भारतीय समाज में एक औरत के लिए सास बनना किसी पदवी से कम नहीं होता. महिला को लगता है कि अब तक उस ने बहू बन कर काफी दुख झेले हैं, और अब तो वह सास बन गई है. सो, अब उस के आराम करने के दिन हैं. सास की हमउम्र सहेलियां भी बहू के आते ही उस के कान भरने शुरू कर देती हैं. ‘‘बहू को थोड़ा कंट्रोल में रखो, अभी से छूट दोगी तो पछताओगी बाद में.’’

‘‘उसे घर के रीतिरिवाज अच्छे से समझा देना और उसी के मुताबिक चलने को कहना.’’

‘‘अब तो तुम्हारा बेटा गया तुम्हारे हाथ से’’, इत्यादि जुमले अकसर सुनने को मिलते हैं. ऐसे में नईनई सास बनी एक औरत असुरक्षा की भावना से घिर जाती है और बहू को अपना प्रतिद्वंद्वी समझ बैठती है. जबकि सही माने में देखा जाए तो सासबहू का रिश्ता मांबेटी जैसा होता है. आप चाहें तो गुरु और शिष्या के जैसा भी हो सकता है और सहेलियों जैसा भी.

यदि हम कुछ बातों का विशेषरूप से ध्यान रखें तो ऐसी विपरित परिस्थितियों से निबटा जा सकता है, जैसे-

नई बहू के साथ घर के बाकी सदस्यों के जैसा ही व्यवहार करें. उस से प्यार भी करें और विश्वास भी, परंतु न तो चौबीसों घंटे उस पर निगरानी रखें और न ही उस की बातों पर अंधविश्वास करें.

नई बहू के सामने हमेशा अपने गहनों व प्रौपर्टी की नुमाइश न करें और न ही उस से बारबार यह कहें कि ‘मेरे मरने के बाद सबकुछ तुम्हारा ही है.’ इस से बहू के मन में लालच पैदा हो सकता है. अच्छा होगा कि आप पहले बहू को ससुराल में घुलमिल जाने दें तथा उस के मन में ससुराल के प्रति लगाव पैदा होने दें.

बहू की गलतियों पर न तो उस का मजाक उड़ाएं और न ही उस के मायके वालों को कोसें. बल्कि, अपने अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए सहीगलत, उचितअनुचित का ज्ञान दें. परंतु याद रहे कि ‘हमारे जमाने में…’ वाला जुमला न इस्तेमाल करें.

बहू की गलतियों के लिए बेटे को ताना न दें, वरना बहू तो आप से चिढ़ेगी ही, बेटा भी आप से दूर हो जाएगा.

अपने स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दें तथा घरेलू कार्यों में आत्मनिर्भर रहने का प्रयास करें.

समसामयिक जानकारियों, कानूनी नियमों, बैंक व जीवनबीमा संबंधी नियमों तथा इलैक्ट्रौनिक गैजेट्स के बारे में भी अपडेट रहें. इस के लिए आप अपनी बहू का भी सहयोग ले सकती हैं. इस से वह आप को पुरातनपंथी नहीं समझेगी, और वह किसी बात में आप से सलाह लेने में हिचकेगी भी नहीं.

अपने पड़ोसी व रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखने का प्रयास करें.

बेटेबहू को स्पेस दें. उन के आपसी झगड़ों में बिन मांगे अपनी सलाह न दें.

परंपराओं के नाम पर जबरदस्ती के रीतिरिवाज अपनी बहू पर न थोपें. उस के विचारों का भी सम्मान करें.

आखिर में, यदि आप को अपनी बहू का व्यवहार अप्रत्याशित रूप से खतरनाक महसूस हो रहा है तो आप अदालत का दरवाजा खटखटाने में संकोच न करें. याद रखिए घरेलू हिंसा का जो कानून आप की बहू के लिए है वह आप के लिए भी है.

कानून की नजर में

केंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक अंगरेजी अखबार के जरिए यह कहा था कि घरेलू हिंसा कानून ऐसा होना चाहिए जो बहू के साथसाथ सास को भी सुरक्षा प्रदान कर सके. क्योंकि अब बहुओं द्वारा सास को सताने के भी बहुत मामले आ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि हिंदू मैरिज कानून के मुताबिक, कोई भी बहू किसी भी बेटे को उस के मांबाप के दायित्वों के निर्वहन से मना नहीं कर सकती.

क्या कहता है समाज

भारतीय समाज के लोगों ने अपने मन में इस रिश्ते को ले कर काफी पूर्वाग्रह पाल रखे हैं. विशेषकर युवा पीढ़ी बहू को हमेशा बेचारी व सास को दोषी मानती है. युवतियां भी शादी से पहले से ही सासबहू के रिश्ते के प्रति वितृष्णा से भरी होती हैं. वे ससुराल में जाते ही सबकुछ अपने तरीके से करने की जिद में लग जाती हैं. वे पति को ममा बौयज कह कर ताने देती हैं और सास को भी अपने बेटे से दूर रखने की कोशिश करती हैं.

अब ड्रोन्स से घर तक सामान पहुंचाने का काम करेंगी ई-कामर्स कंपनियां

क्या आप जानते हैं कि आपके घर पर जल्द ही ई-कामर्स कंपनियां ड्रोन्स के जरिए सामान की डिलीवरी करने वाली है. सिविल एविएशन मिनिस्ट्री की ओर से तैयार नई नीतियों के ड्राफ्ट में ड्रोन्स से सामानों की डिलिवरी का प्रस्ताव है.

प्रस्तावित नियमों में ड्रोन्स को 5 भागों में बांटा गया है. सबसे हल्का या नैनो ड्रोन 250 ग्राम का होगा. इससे अधिक वजन वाले ड्रोन्स की 4 श्रेणियां होंगी. ये होंगे 250 ग्राम से 2 किलो, 2 से 25 किलोग्राम, 25 से 150 किलोग्राम और 150 ग्राम से अधिक के होंगे. सभी ड्रोन्स को सिर्फ 200 फुट से नीचे ही उड़ान भरने की अनुमति होगी.

अब मानवरहित एयर क्राफ्ट सिस्टम्स को लेकर तैयार किए गए नए नियमों को मंजूरी मिलने के बाद भारत में ड्रोन्स का कमर्शियल प्रयोग किया जा सकेगा. ड्राफ्ट किए गए नियमों के मुताबिक नैनो ड्रोन्स और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा संचालित ड्रोन्स के अलावा अन्य सभी ड्रोन्स को डीजीसीए के तहत रजिस्ट्रेशन कराना होगा. सभी ड्रोन्स को यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर मिलेगा. 250 ग्राम से कम वजन के ड्रोन्स को रजिस्ट्रेशन या लाइसेंसिंग से छूट रहेगी. सबसे हल्के दो कैटिगरिज के ड्रोन्स के अलावा सभी मानवरहित एयरक्राफ्ट को आपरेशन परमिट लेना होगा.

उड्डयन मंत्री जयंत सिन्हा का कहना है कि नए नियमों के मुताबिक तकनीक की उपलब्धता के बाद ‘एयर रिक्शा’ के संचालन को भी मंजूरी दी जाएगी. हालांकि इन नियमों में कुछ इलाकों में उड्डयन सुरक्षा के चलते ड्रोन्स की उड़ानों पर प्रतिबंध रखा जाएगा. घनी आबादी के इलाकों और आपातकालीन आपरेशंस की संभावना वाले इलाकों में इनका संचालन नहीं किया जा सकेगा इसके अलावा एयरपोर्ट से 5 किमी के दायरे में, समुद्री सीमा से 500 मीटर के दायरे में, अंतरराष्ट्रीय सीमा के 50 किमी के अंतर्गत, और दिल्ली के विजय चौक के 5 किमी के दायरे में ड्रोन्स को उड़ाने की मनाही होगी.

धार्मिक अंधविश्वास : धर्म प्रचार के साइड इफैक्ट्स

सोशल मीडिया पर एक वीडियो खूब वायरल हुआ जिसे लोगों ने बेहद दिलचस्पी से देखा. वीडियो में युवती एक समारोह में उभरते युवा धर्मगुरु से सवाल पूछती दिखाई दे रही है. युवती के हावभाव और सवाल दोनों आक्रामक हैं. पहली नजर में देखते ही आभास होता है कि वह धर्म के नाम पर बरबाद होती सामग्री को ले कर व्यथित और आक्रोशित है.

यह वीडियो एक धार्मिक चैनल का हिस्सा है जिस में सिंहासननुमा कुरसी पर बाबा विराजमान हैं और नीचे पांडाल में खासी तादाद में श्रद्धालु बैठे हैं. माइक युवती के हाथ में आता है और वह बाबा से सवाल करती दिखाई दे रही है कि इस साल होली पर एक जगह बहुत बड़ा पेड़ जलाया गया, आखिर क्यों? एक छोटे से पौधे को पेड़ बनने में सालों लग जाते हैं और लोग उसे धर्म के नाम पर कुछ मिनटों में जला डालते हैं. अगर होली जलानी ही है तो कम से कम लकडि़यों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता? आखिर धर्म के नाम पर बरबादी क्यों?

बाबा इस सवाल पर सकपकाए से दिखते हैं, फिर थोड़ा संभल कर युवती का परिचय पूछते हैं. बाबा को सकपकाता देख युवती की हिम्मत बढ़ती है और वह फिर शिव अभिषेक में बड़े पैमाने पर की जाने वाली दूध की बरबादी पर सवाल दाग देती है.

चूंकि सवालों में दम है इसलिए पांडाल में खामोशी सी छा जाती है. इसी बीच, जादू के जोर से युवती का पिता प्रकट होता है और माइक के जरिए बाबा को बताता है कि यह उस की बेटी है जो धर्म के बारे में ऐसे ऊटपटांग यानी निरर्थक सवाल करती रहती है, इसलिए इसे आप की शरण में लाया हूं. युवती का पिता बाबा को जानबूझ कर बताता लगता है कि उस की बेटी कौन्वैंट स्कूल में पढ़ी है. इस पर बाबा ज्ञानियों की तरह मुसकरा कर कहते हैं कि तभी तो ऐसे सवाल कर रही है.

युवती की भड़ास निकल जाने के बाद बाबा थोड़ी श्रापनुमा आक्रामक मुद्रा में आ जाता है. वह युवती से मंदिर जाने के नियम पूछता है और उस के जवाबों की बिना पर मौजूद भक्तों को यह जताने में कामयाब रहता है कि यह नई पीढ़ी है ही नास्तिक और अज्ञानी, इसलिए वह ऐसे बेहूदे सवाल पूछती है. बातचीत के दौरान बाबा टूटीफूटी अंगरेजी का भी उपयोग करता नजर आता है और युवती को ‘यार’ संबोधन इस्तेमाल करने पर डपटता भी है. इस से सिद्ध हो जाता है कि युवती पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता से प्रभावित है, इसलिए नास्तिक सी है और हमारे धर्म व संस्कारों से नावाकिफ है.

अव्वल तो इतने से ही लोग मान जाते हैं कि लड़की नादान है पर युवती की जिज्ञासाओं का समाधान होना चाहिए, इसलिए इस डिबेट के क्लाइमैक्स पर सभी की नजरें बाबा पर ठहर जाती हैं. बाबा बताते हैं कि अगर तुम्हारे मांबाप ने जिंदगीभर लाखों रुपए कमाए हैं तो बुढ़ापे में तुम उन के इलाज पर उन के पैसों को खर्च करोगी या फिर गरीबों को दान दे दोगी. अपने जवाब को विस्तार देते बाबा शाश्वत और सनातनी मुद्दे की इस बात पर आ जाता है कि इस सृष्टि में जो भी कुछ है वह सबकुछ शिव का है. वह हम से कुछ मांगता नहीं, पर यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उस के सबकुछ में से कुछ हम उसे दें और ऐसा कर हम कोई उपकार नहीं करते बल्कि सृष्टि के रचयिता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और पाप की कमाई को पुण्य में तबदील करते हैं.

पांडाल में बैठे भक्त नास्तिक सी युवती को हारते देख तालियां पीटने लगते हैं जो इस बात पर बाबा से सहमत हो जाती है कि अब वह भी शिव अभिषेक करेगी क्योंकि वह उस का महत्त्व नहीं जानती और करने लगेगी तो ध्ीरेधीरे जान जाएगी.

यह वीडियो करोड़ों लोगों ने देखा और बाबा की खोखली तर्कशीलता के कायल हो गए कि क्यों खामखां के सवालों, जिज्ञासाओं और दलीलों में सिर खपाएं, बेहतर तो यही है कि चुपचाप पूरी आस्था से यह मान लें कि सबकुछ ऊपर वाले का है, वही हमें देता है. अब इस में से कुछ पूजापाठ, दानदक्षिणा और चढ़ावे के जरिए उस का उस को लौटा देना कोई गुनाह नहीं, बल्कि पुण्य का काम है. रही बात युवा पीढ़ी की, तो उस के बारे में बाबा ठीक कह रहे हैं कि वह भटकाव का शिकार हैं. वह गंदी फिल्में देखती है, इसलिए उस में धर्म के जरिए सुधार की जरूरत है जो कर्मकांडों से और श्रद्धा, आस्था से आ पाएगा.

मीडिया बना जरिया

मध्य प्रदेश के देवास जिले के एक धार्मिक समारोह का यह वीडियो एक खास मकसद से वायरल किया गया था जिस से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक सस्पैंस और दिलचस्प तरीके से धर्म की उक्त बात ‘तेरा, तुझ को अर्पण’ वाली पहुंचाई जा सके जिस से लोग, खासतौर से युवा, मुंह मोड़ रहे हैं. इस का मकसद कर्मकांड, दानदक्षिणा, पूजापाठ और यज्ञहवन का माहौल बनाए रखना है. धर्मभक्त परेश रावल की फिल्म ‘ओह माई गौड’ का उद्देश्य भी धर्म की पोल खोलना नहीं था, धर्म की पोल खोलने वालों को कुछ तर्क दे कर मुंह बंद कराना था. इस फिल्म में ईश्वर की उपस्थिति दर्शा कर पहले दृश्य से ही यह सिद्ध कर दिया गया था कि ईश्वर तो है चाहे जो तर्क दे दो.

सोशल मीडिया किस तरह धर्मप्रचार का अड्डा या केंद्र बन चुका है, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है. मीडिया व्यावसायिक हो जाए, यह हर्ज की बात नहीं, चिंता की बात मीडिया का धर्म का मुहताज हो जाना है. इस से बड़ी तादाद में लोग गुमराह और अंधविश्वासी हो रहे हैं.

अखबार धर्म संबंधित समाचारों, भविष्यफल और धार्मिक रचनाओं से भरे पड़े हैं तो न्यूज चैनल भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं. कोई दिन ऐसा खाली नहीं जाता जब हिंदीभाषाई चैनल धर्मप्रचार नहीं कर रहे होते. तरस तो तब ज्यादा आता है जब वे धर्म को सनसनी बना कर परोसते हैं कि देखिए, यहां भगवान राम और उन के भाइयों ने शिक्षा ली थी और यह रहा वह पाताललोक, जहां अहिरावण का राज्य था. ये चीजें पूरी शिद्दत से इस तरह से परोसी जाती हैं कि देखने वालों को लगने लगता है कि कुछ न कुछ तो सच इस में है. रामायण में जो लिखा है वह कोई कोरी कल्पना नहीं है.

जबकि, होता कुछ नहीं है. अखबारों का मकसद अपनी प्रसार संख्या और चैनल्स का मकसद अंधभक्तों को आकर्षित करना व सूचना देना होता है. धर्म को शाश्वत बनाए रखने में मीडिया का योगदान बाबाओं से कमतर नहीं, जो बगैर सोचेसमझे बड़े पैमाने पर सामाजिक नुकसान का जिम्मेदार हो चला है जबकि उस की असली जिम्मेदारी सामाजिक जागरूकता लाने की है.

भोपाल में पिछली नवरात्रि के मौके पर एक नामी अखबार ने तो मशहूर राम कथावाचक मुरारी बापू का धार्मिक समारोह, जो हफ्तेभर चला, प्रायोजित कर डाला. शहर के हर चौराहे पर कथावाचक के बड़ेबड़े होर्डिंग्स लगाए गए. अखबार में रोज विज्ञापन और समारोह के बड़ेबड़े समाचार छापे गए. रामकथा के इस धुआंधार प्रचार का नतीजा ही था जो लाखों लोग इस में शिरकत करने को टूट पड़े. करोड़ों रुपए इस आयोजन पर खर्च हुए. एवज में भक्तों को हासिल हुए वे प्रवचन जो सदियों से गुमराह करने के लिए परोसे जा रहे हैं.

कथा स्थल पर इफरात से धार्मिक साहित्य और सामग्री बिके. लोग, खासतौर से औरतें, प्रवचनों के दौरान नाचते नजर आए. यह नजारा सोचने को विवश कर गया कि आखिर इस माहौल का असर क्या होगा और समाज को किस दिशा की ओर मोड़ा जा रहा है.

खतरनाक असर

देश बहुसंख्य हिंदुओं का है जो कहने को ही धर्मनिरपेक्ष हैं. हिंदुओं में यों तो हर रोज कोई न कोई त्योहार होता है पर हर पखवाड़े एक ऐसा त्योहार भी पड़ता है जिसे धूमधाम से मनाया जाता है.

धर्म की गिरफ्त में आते समाज की हालत यह है कि लोग बगैर सोचेसमझे, बेमकसद झूम रहे हैं और कट्टरवाद बढ़ रहा है. सोशल मीडिया पर काम की और उपयोगी बातें कम होती हैं, रामराम, श्यामश्याम ज्यादा होती हैं.

इधर, बाबाओं ने भी रंग बदलते, अपने आयोजनों और प्रवचनों में नईनई बातें कहनी शुरू कर दी हैं ताकि नयापन दिखे. चालाकी दिखाते साधु, संत, बाबा और प्रवचनकर्ता अब सामाजिक सरोकारों पर जोर देने लगे हैं. मसलन, पर्यावरण के लिए पेड़ लगाओ और उन्हें काटो मत व कन्याभ्रूण की हत्या मत करो यह पाप है वगैरावगैरा. ये गौरक्षा की बात करते हैं उस में देवताओं का वास होने की दुहाई दे कर, पर यह नहीं कहते कि गाय का अपना अलग आर्थिक महत्त्व है, वह दूध देती है और उस का चमड़ा व्यावसायिक उपयोग में लाया जाता है. इसी तरह ये भविष्य के लिए पानी बचाने की बात नहीं कहते, बल्कि नदियों को पूजने के लिए उकसाते हैं ताकि पंडों को पैसा मिलता रहे.

हास्यास्पद बात यह है कि इन्हीं आयोजनों में यज्ञहवन के लिए इफरात से लकडि़यां जलाई जाती हैं. यानी धर्म और उस के दुकानदार कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करते. उलटे, यह जताने की कोशिश करते हैं कि उन के भी सामाजिक सरोकार हैं और लोग इस की आड़ में भी धर्म से जुड़े रह सकते हैं.

एक पूरी पीढ़ी दिमागीतौर पर एक बार फिर अपाहिज बनाई जा रही है. कोई वीडियो इसीलिए जानबूझ कर एक साजिश के तहत वायरल किया जाता है कि जिस से लोग लकडि़यां फूंकते रहें. अभिषेक के नाम पर दूध बहाते रहें और यह न पूछें कि आखिर यह बरबादी क्योें? रही बात गरीबों की मदद की, तो इस बाबत प्रवचनों में स्पष्ट कर दिया जाता है कि यह सबकुछ माया और मिथ्या है. हर आदमी अपने कर्मों के मुताबिक फल भुगत रहा है. इस ईश्वरीय व्यवस्था में हस्तक्षेप से कोई फायदा नहीं. गरीबों की मदद ऐच्छिक बात है.

भोपाल में मोरारी बापू ने 7 दिनों तक तरहतरह से यही सुनाया कि सबकुछ करो पर धर्म और संस्कारों को मत छोड़ो. लड़कियां पढ़ें, यह हर्ज की बात नहीं पर उन्हें संस्कारों का ध्यान रखना चाहिए. युवा तकनीकी तौर पर शिक्षित हों पर धर्म को न भूलें, वरना भटकाव का शिकार हो जाएंगे. इन की नजर में संस्कार का एक ही मतलब होता है कि पूजापाठ करो, दक्षिणा देते रहो.

आत्मविश्वास छीनता धर्म

धर्म का प्रचारप्रसार, दरअसल, लोगों से आत्मविश्वास छीन रहा है. रोजमर्राई जीवन में अज्ञात आशंकाएं हावी होती जा रही हैं. लोगों ने मान लिया है कि उन की परेशानियों की वजह उन के कर्म हैं और प्रारब्ध को बदला नहीं सकता. जो लिखा है वह हो कर रहेगा. अब अगर किसी काल्पनिक अनिष्ट से बचना है तो दानदक्षिणा देते रहो और पूजापाठ में लगे रहो.

यह वह दौर है जिस में लोग सब से ज्यादा परेशानियों से जूझ रहे हैं. बेरोजगारी चरम पर है और धर्म के प्रभाव के चलते शिक्षा अपना प्रभाव, महत्त्व व उपयोगिता खो रही है. यदि शिक्षित हो गए तो वह भी ऊपर वाले की मेहरबानी है. आप को रोजगार मिल गया तो यह पूजापाठ और अभिषेकों का फल है. मकान, कार और दूसरी तमाम सुखसुविधाएं धर्म की देन हैं, उन में आप की मेहनत और काबिलीयत का कोई योगदान नहीं.

भेड़चाल चलते लोग कैसे इस सम्मोहन और भ्रम की गिरफ्त में लिए जाते हैं, यह बात कम ही लोग समझ पाते हैं. दरअसल, उन्हें तरहतरह से डराया जाता है. जीवन की नश्वरता और जगत का मिथ्या होना बारबार इतनी और इस तरह से दोहराया जाता है कि लोग अपनी स्वभाविक जिंदगी नहीं जी पा रहे. लोग तर्क नहीं करते, न ही

अब सवाल पूछते हैं कि ऐसा क्यों और ऐसा क्यों नहीं, बल्कि धर्म के ग्लैमर की गिरफ्त में आ कर खुद को ही अज्ञात आशंकाओं से बचाने में भलाई समझते हैं.

यह बड़ा सस्ता सौदा है कि कमाई का कुछ हिस्सा इस माहौल को बनाए रखने वालों को दान में दे दो और भूल जाओ कि इस के नतीजे क्या निकलेंगे और कैसेकैसे निकल भी रहे हैं. मामूली सी परेशानी को झेलने की ताकत खोते लोग तुरंत मंदिर की तरफ भागते हैं. वहां उन्हें सुरक्षा महसूस होती है. वे परेशानी से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. इस से होता यह है कि परेशानी ज्यों की त्यों रहती है जबकि उन में डर की मात्रा बढ़ती जाती है.

आत्मविश्वास खोने के मामले में महिलाएं तो पुरुषों से भी एक कदम आगे हैं. बच्चों की स्कूलबस 10 मिनट भी लेट हो जाए तो वे इस की वजहें समझने की कोशिश नहीं करतीं कि ट्रैफिक ज्यादा होगा, बस खराब भी हो सकती है और मुमकिन है किसी वजह से स्कूल से ही बस देर से चली हो. वे तुरंत बगल वाले मंदिर में बैठी मूर्ति को प्रसाद बोल देती हैं और जब कुछ देर बाद बस आती दिखती है तो भगवान को धन्यवाद देते प्रसाद चढ़ा भी देती हैं. यह एक छोटा सा उदाहरण है वरना तो परेशानी के दायरे के मुताबिक प्रसाद और दानदक्षिणा की राशि बढ़ती जाती है.

यह वह दौर है जिस में लड़कियों की शादी के लिए लड़के मन्नतों के जरिए ढूंढ़े जाते हैं. लड़कों की नौकरियों के लिए ब्रैंडेड बाबाओं के चक्कर काटे जाते हैं. बीमारी का इलाज तो डाक्टर से कराया जाता है पर मनाया भगवान को जाता है कि हे प्रभु, पति को जल्द ठीक कर दो, इतने व्रत रखूंगी और उतने का प्रसाद चढ़ाऊंगी.

इसलिए बढ़ रहा कट्टरवाद

इन छोटीमोटी रोजमर्राई बातों का असर बड़े खतरनाक तौर पर बड़े पैमाने पर देखने में आता है. ये अंधविश्वास, कट्टरवाद की जनक भी हैं. जब कहने को और मांगने को कुछ नहीं होता तो लोगों का धार्मिक चोला दूसरे धर्मों की आलोचना में जुट जाता है.

इसलामिक कट्टरवाद बढ़ रहा है, यह अकसर कहा जाता है क्योंकि इस के भी उदाहरण सहज मिल जाते हैं. अंदरूनी तौर पर बड़े पैमाने पर प्रचार यह होता है कि उदार आधुनिक और वैज्ञानिक सोच के दिखने के चक्कर में हिंदू अपने धर्म, संस्कृति, रीतिरिवाजों और पूजापाठ से कटते जा रहे हैं, इसलिए मुसलमान हावी हो रहे हैं, उन की जनसंख्या बढ़ रही है और वे पांचों वक्त की नमाज पढ़ते हैं, इसलिए उन में एकता है.

पूजापाठ और धर्मांधता बढ़ने और बढ़ाए जाने की एक वजह दूसरे धर्मों से इस तरह बैर करना सिखाया जाना भी है कि एक दिन ऐसा आएगा जब तुम अपने ही देश में बेगाने, बेचारे और अल्पसंख्यक हो कर पहले की तरह गुलाम हो जाओगे.

इसलाम, ईसाई या दुनिया का कोई भी दूसरा धर्म इस मानसिकता का अपवाद नहीं है. अमेरिका में हो रही नस्लीय हिंसा इस की जीतीजागती मिसाल है. वहां डोनाल्ड ट्रंप के सत्तारूढ़ होने के बाद चुनचुन कर एशियाई मूल के लोगों को खदेड़ा जा रहा है, उन की हत्याएं की जा रही हैं. इन में भारतीय भी शामिल हैं. बहुत सपाट लहजे में कहें तो राम, हनुमान या शंकर अमेरिका में भारतीयों की रक्षा कर पाने में असमर्थ हैं. इसी तरह भारत में अफ्रीकी मूल के लोगों को प्रताडि़त किया जा रहा है. दलित और आदिवासी तो यहां के मूल निवासी हो कर भी सामाजिक व धार्मिक प्रताड़ना के शिकार और उपेक्षित हैं.

साबित यह होता है कि चैन कहीं नहीं है. धर्म के नाम पर फसाद हर जगह हो रहे हैं. इस मसले पर कोई किसी से पिछड़ना नहीं चाहता. आत्मविश्वास की कमी लोगों को दुनियाभर में हिंसक बना रही है जिस का जिम्मेदार धर्म ही है जिसे काल मार्क्स ने अफीम का नशा यों ही नहीं कहा था. एक विराम के बाद, प्रचार के जरिए धार्मिक कट्टरवाद फिर सिर उठा रहा है, तो यह दुनियाभर के लिए चिंता की बात है.

पोप, मुल्ले और पंडे बेफिक्र हैं जो इस खेल को धर्मप्रचार व धर्मग्रंथों की आड़ में खेल रहे हैं. उन का मकसद बगैर कुछ करेधरे पैसे बनाना और ऐशोआराम की जिंदगी जीना है. सो, वे तो जी रहे हैं, परेशानी आम लोग उठा रहे हैं जो उन के ग्राहक और मोहरे बने हुए हैं.

एक थीं नूर इनायत खान : जासूसों की दुनिया की जेम्स बांड

नूर इनायत खान का नाम द्वितीय विश्व  हायुद्घ के इतिहास में गुप्तचर के रूप में शहीद होने के कारण स्वर्णाक्षरों में अंकित है. नूर इनायत खान का पूरा नाम नूर उन निसा इनायत खान था. उन के पिता हजरत इनायत खान भारतीय तथा मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के वंशज थे. उन की मां अमेरिकी थीं. नूर 4 भाई बहनों में सब से बड़ी थीं. उन का जन्म 1 जनवरी, 1914 को मास्को में हुआ था. नूर के पिता सूफी मतावलंबी तथा धार्मिक शिक्षक थे. उन्होंने भारत के सूफी मत का पाश्चात्य देशों में प्रचारप्रसार किया. नूर की रुचि अपने पिता की भांति, संगीतकला के माध्यम से पिता की विरासत को आगे बढ़ाने में थी.

पहले विश्वयुद्घ के बाद नूर के पिता परिवार सहित मास्को से लंदन आ गए थे. नूर का बचपन वहीं बीता. नाटिंगहिल के एक नर्सरी स्कूल में उन की पढ़ाई शुरू हुई. 1920 में वे सब फ्रांस में पैरिस के निकट सुरेसनेस में रहने लगे. 1927 में पिता की मृत्यु के बाद 13 साल की छोटी सी उम्र में ही नूर के कंधों पर मां और 3 छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी आ गई.

स्वभाव से शांत, शर्मीली, संवेदनशील नूर ने जीविका के लिए संगीत को माध्यम चुना. वे पियानो पर सूफी संगीत का प्रचारप्रसार करने लगीं. वीणा बजाने में भी वे निपुण थीं. उन्होंने कविताएं, बच्चों के लिए कहानियां लिखीं, साथ ही साथ, फ्रैंच रेडियो में भी वे नियमित रूप से योगदान करने लगीं. 1939 में जातक कथाओं से प्रेरित हो कर उन्होंने ट्वंटी जातका टेल्स लिखी.

लंदन में पुस्तक का प्रकाशन हुआ. द्वितीय विश्वयुद्घ शुरू होने पर वे अपने परिवार के साथ समुद्रीमार्ग से ब्रिटेन के फ्रालमाउथ कार्नवाल आ गईं.

संवेदनशील, शांतिप्रिय, सूफीवाद की अनुयायी नूर को नाजियों द्वारा किए जा रहे कू्रर, बर्बर अत्याचारों से गहरा आघात पहुंचा. उन्होंने अपने छोटे भाई के साथ मिल कर नाजी अत्याचारों के विरुद्घ लड़ने का फैसला किया.

नूर ने 19 नवंबर, 1940 को ब्रिटेन की एयरफोर्स में महिला सहायक के रूप में कार्यभार संभाला. वहां पर उन्होंने वायरलैस औपरेटर का प्रशिक्षण लिया. जून 1941 में बमवर्षक प्रशिक्षण विद्यालय की चयनसमिति के समक्ष सशस्त्र बल अधिकारी पद के लिए आवेदनपत्र प्रस्तुत किया. वहां पर सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर उन की नियुक्ति हो गई.

फ्रैंच भाषा की अच्छी जानकारी होने के कारण ‘स्पैशल औपरेशंस गु्रप’ के अधिकारियों का ध्यान उन की तरफ गया. उन को वायरलैस औपरेशन के द्विभाषी अनुभवी गुप्तचर के रूप में प्रशिक्षित किया गया. जून 1943 में वे डायना राउडेन (कोड नेम पादरी), सेसीली लेफोर्ट (कोड नेम एलिस शिक्षक) के साथ फ्रांस आ गई. उन का कोड नेम मेडेलीन था. वे फ्रांसिस सुततील (कोड नेम प्रोस्पर) के नेतृत्व में काम करने लगीं.

नूर एक चिकित्सकीय नैटवर्क में नर्स के रूप में शामिल हो गईं. वे वेश बदल कर भिन्नभिन्न स्थानों से ब्रिटिश अधिकारियों को महत्त्वपूर्ण सूचनाएं भेजने लगीं. द्वितीय विश्वयुद्घ में वे पहली एशियन महिला गुप्तचर थीं. नूर विंस्टन चर्चिल के विश्वासपात्रों में से एक थीं. उन्होंने 3 महीने से ज्यादा समय तक अपना गुप्त नैटवर्क चलाया. वे ब्रिटेन में नाजियों की गुप्त जानकारी भेजती रहीं. एक कामरेड की गर्लफ्रैंड ने ईर्ष्या के कारण उन की जासूसी की और उन को पकड़वा दिया. 13 अक्तूबर, 1943 को उन्हें जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.

खतरनाक कैदी के रूप में उन को भीषण यातनाओं से गुजरना पड़ा. उन्होंने 2 बार जेल से भागने की कोशिश की लेकिन बंदी बना ली गईं.

गेस्टोपो के पूर्व अधिकारी हैंस किफर ने उन से गुप्त सूचनाएं प्राप्त करने का अथक प्रयास किया लेकिन नूर के मुंह से वे कुछ भी नहीं उगलवा पाए. 25 नवंबर, 1943 को एसओई गुप्तचर जौन रेनशा और लियोन के साथ वे सिचरहिट्टसडिंट्स, पैरिस के हैडक्वार्टर से भाग निकलीं. लेकिन ज्यादा दूर तक भाग नहीं सकीं और पकड़ ली गईं. 27 नवंबर, 1943 को नूर को पैरिस से जरमनी ले जाया गया. वहां उन्हें फोर्जेम जेल में रखा गया. वहां भी अधिकारियों ने उन को कठोर यातनाएं दीं. भेजी गई गुप्त सूचनाओं की जानकारी प्राप्त करने के प्रयास किए, लेकिन नूर ने कोई राज नहीं खोला. 11 सितंबर, 1944 को नूर को 3 और साथियों के साथ जरमनी के डकाऊ यातना शिविर में ले जाया गया.

13 सितंबर, 1944 को चारों के सिर पर गोली मारने का आदेश हुआ. पहले नूर के 3 अन्य साथियों के सिर पर गोली मार कर मौत की नींद सुला दिया गया. उस के बाद जरमनी फोर्स ने नूर को डराधमका कर ब्रिटेन भेजे गए संदेशों के बारे में जानकारी हासिल करनी चाही लेकिन निर्भीक, साहसी नूर ने अंत तक कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. हार कर सिर में गोली मार कर उन की भी हत्या कर दी गई.

अंतिम सांस लेने से पहले नूर के होंठों पर एक शब्द था-स्वतंत्रता. लाख कोशिशों के बावजूद जरमन सैनिक राज उगलवाने की बात तो दूर, उन का असली नाम तक नहीं जान पाए थे. मृत्यु के समय उन की आयु केवल 30 साल की थी. वास्तव में वे एक शेरनी थीं, जिन्होंने आखिरी सांस तक अपना मुंह नहीं खोला.

सम्मान

इस भारतीय महिला गुप्तचर को मरणोपरांत 1949 में जौर्ज क्रौस से सम्मानित किया गया

फ्रांस ने उन्हें अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान क्रोक्स डी गेयर प्रदान किया.

मेंसेंड इन डिस्पैचीज (ब्रिटिश गैलेंटरी अवार्ड).

स्मारक

लंदन के गौर्डन स्क्वैयर में नूर की तांबे की प्रतिमा स्थापित की गई है. यह वह जगह है जहां पर नूर बचपन में रहती थीं. यह पहला अवसर है जब ब्रिटेन में किसी मुसलिम अथवा एशियाई महिला की प्रतिमा स्थापित की गई है. 8 नवंबर, 2012 को प्रतिमा को अनावृत किया गया था. महारानी एलिजाबेथ की द्वितीय बेटी राजकुमारी एनी ने अनावरण किया था. इस प्रतिमा का निर्माण लंदन के कलाकार न्यूमेन ने किया है.

भारतीय मूल की पत्रकार श्रावणी बासु ने नूर की जीवनी को अपनी किताब स्पाई प्रिंसेस यानी जासूस राजकुमारी नूर इनायत खान में संजोने का प्रयास किया है. ब्रिटिश साम्राज्य की विरोधी होने के बावजूद नूर ने ब्रिटेन के लिए जासूसी कर एक अद्वितीय मिसाल कायम की थी.

बच्चों में कुछ इस तरह से डालें पढ़ने की आदत

आजकल सभी मातापिता यह शिकायत करते हैं कि बच्चे स्मार्टफोन, टैबलेट, टीवी या फिर मोबाइल पर गेम्स खेलने में लगे रहते हैं. मंजीत कहते हैं, ‘‘एक हमारा जमाना था जब हम पढ़ते हुए कभी नहीं थकते थे.’’ साथ में बैठी उन की पत्नी फौरन बोल उठीं, ‘‘मुझे तो मीकू, चीकू बहुत पसंद थे.’’

बालपुस्तकों की कमी आज भी नहीं, किंतु आज की पीढ़ी पढ़ने का खास शौक नहीं रखती है. कहीं इस के जिम्मेदार हम ही तो नहीं? पहले इतनी तकनीक हर हाथ में उपलब्ध नहीं होती थी कि बच्चे किताबों के अलावा मन लगा पाते. आजकल गैजेट्स हर छोटेबड़े हाथ को आसानी से प्राप्त हैं.

अपने नन्हे को पढ़ कर सुनाएं :  अपने नन्हेमुन्ने का अपने जीवन में स्वागत करने के कुछ वर्षों बाद ही आप उसे कहानी पढ़ कर सुनाने की प्रक्रिया आरंभ कर दें. इस से न केवल आप का अपने बच्चे से बंधन मजबूत होगा बल्कि स्वाभाविक तौर पर उसे पुस्तकों से प्यार होने लगेगा.

उम्र के छोटे पड़ाव से ही किताबों के साथ से बच्चों में पढ़ने की अच्छी आदत विकसित होती है. प्रयास करें कि प्रतिदिन कम से कम 20 मिनट आप अपने बच्चों के साथ मिल कर बैठें और पढ़ें. पुस्तकों में कोई रोक न रखें, जो आप के बच्चे को पसंद आए, उसे वह पढ़ने दें.

पढ़ने के साथ समझना भी जरूरी :  बच्चा तेजी के साथ किताब पढ़ पाए, यह हमारा लक्ष्य नहीं है, बल्कि जो कुछ वह पढ़ रहा है, उसे समझ भी सके. इस के लिए आप को बीचबीच में कहानी से संबंधित प्रश्न करना चाहिए. इस से बच्चा न केवल पढ़ता जाएगा, बल्कि उसे समझने की कोशिश भी करेगा. आप ऐसे प्रश्न पूछें, जैसे अब आगे क्या होना चाहिए, क्या फलां चरित्र ठीक कर रहा है, यदि तुम इस की जगह होते तो क्या करते. ऐसे प्रश्नों से आप का बच्चा कहानी में पूरी तरह भागीदार बन सकेगा तथा उस की अपनी कल्पनाशक्ति भी विकसित होगी.

बच्चे के रोलमौडल बनें :  यदि आप का बच्चा बचपन से पढ़ने का शौकीन है तब भी घर में किसी रोलमौडल की अनुपस्थिति उसे इधरउधर भटकने पर मजबूर कर सकती है. आप स्वयं अपने बच्चे के रोलमौडल बनें और उस की उपस्थिति में अवश्य पढ़े. चाहे आप को स्वयं पढ़ना बहुत अधिक पसंद न भी हो तब भी आप को प्रयास करना होगा कि बच्चे के सामने आप पढ़ते नजर आएं. क्या पढ़ते हैं, यह आप की इच्छा है, लेकिन आप के पढ़ने से आप का बच्चा यह सीखेगा कि पढ़ना उम्र का मुहताज नहीं होता और हर उम्र में इंसान सीखता रह सकता है.

आसपास देख कर सिखाइए :  छोटे बच्चे बिना पढ़े ही क्रीम की बोतल के नाम, शैंपू के नाम, उन के पसंदीदा रैस्तरां, जैसे डोमिनोज का नाम आदि जान जाते हैं. कैसे? चिह्नों द्वारा. मीनल बताती हैं कि उन की डेढ़ वर्र्र्षीया बिटिया ढेर सारे चिह्न (कंपनियों के लोगो) पहचानती है और उन की कंपनियों के नाम बता देती है तो जब उन के दूसरा बच्चा होने का समय निकट आया, उन्होंने नवजात शिशु की कौट के ऊपर उस के नाम के अक्षर टांग दिए. इस का असर यह हुआ कि न केवल उन की बड़ी बिटिया नाम की स्पैलिंग सीख गई, बल्कि छोटी भी बहुत जल्दी वर्णमाला सीख गई. तकनीकी भाषा में इसे ‘एनवायरनमैंटल पिं्रट’ कहते हैं अर्थात चिह्नों की सहायता से बच्चे, बिना पढ़े ही, भिन्न रैस्तरां, सौंदर्य प्रसाधन, ट्रैफिक सिग्नल, कपड़े, पुस्तकें आदि पहचानने लगते हैं और उन में भेद कर सकते हैं.

नन्हे बच्चों की उत्सुक प्रवृत्ति का लाभ उठाते हुए आप उन्हें न केवल किसी चीज का शाब्दिक अर्थ बल्कि सामाजिक महत्त्व तथा उपयोग भी बता सकते हैं. अपने आसपास की चीजें देख वे प्रश्न करेंगे और आप उत्तर के द्वारा उन्हें कईर् चीजें सिखा सकते हैं.

भिन्न प्रकार की पुस्तकों को बनाएं मित्र :  जब आप का बच्चा पढ़ने लगे, तब आप उसे भिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ने को दें, जैसे अक्षर ज्ञान वाली पुस्तकें, बाल कहानियां, कविताओं की पुस्तकें आदि. साथ ही, वह एक प्रकार की कहानियों को दूसरी से अलग करने में अपने दिमाग में विचारों को बनाना व संभालना सीखेगा.

खेलखेल में :  कई खेलों द्वारा आप अपने छोटे बच्चे को पढ़ने की ओर आकर्षित कर सकती हैं. दिल्ली की प्रेरणा सिंह कहती हैं, ‘‘हर शुक्रवार वे अपनी सोसाइटी में 5 से 7 साल के बच्चों के लिए ‘फन फ्राइडे’ मनाती हैं. यहां वे बच्चों की टोली को अलगअलग टीम में विभाजित कर खेलों द्वारा पढ़ने की ओर उन का रुझान पैदा करती हैं. इस के लिए वे कई खेलों का सहारा लेती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘केवल स्कूली पढ़ाई ही जीवन में काम नहीं आती. जो कुछ हम अपने वातावरण से सीखते हैं, वही हमारा व्यक्तित्व बनता है और जिंदगी में हमारे काम आता है.’’

डिजिटल बनाम प्रिंट

वर्ष 2013 से 2015 तक नाओमि बैरोन द्वारा किए गए शोध में 5 देशों-भारत, जापान, अमेरिका, जरमनी व स्लोवेनिया के 429 विश्वविद्यालयों के छात्रों से जब डिजिटल बनाम कागज की किताबों की तुलना करने को कहा गया तो छात्रों की प्रतिक्रिया थी कि उन्हें कागज की खुशबू भाती है. उन्हें कागज को छूने, देखने, पकड़ने से आभास होता है कि वे पढ़ रहे हैं. पिं्रट उन्हें बेहतर समझ में आता है और अधिक याद रहता है.

सोशल मीडिया का असर

सोशल मीडिया पर ज्ञान तो बहुत है पर सही या गलत, इस का कोई प्रमाण नहीं है. जिस के जो दिल में आता है, वह उस का औडियो या वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर अपलोड कर देता है. बच्चे व किशोर ज्ञान की कमी के कारण इस अधकचरी जानकारी को प्राप्त कर समझते हैं कि उन्हें किताबें पढ़ने की आवश्यकता नहीं है.

बच्चे को सिर्फ अक्षरज्ञान देना नहीं है, बल्कि पुस्तकों जैसे सच्चे मित्र द्वारा सामाजिक ज्ञान के साथ भावनात्मक संबलता भी प्रदान करना है. बच्चा जो पढ़े, जो सीखे, उसे गुने भी. इस के बिना पढ़ना व्यर्थ है.

केवल पढ़ना ही ध्येय नहीं, लिखना भी लक्ष्य होना चाहिए. और अच्छा लिखने के लिए ज्यादा पढ़ना आवश्यक है. अच्छी किताबें बच्चों को ज्ञान के साथ एक नई दुनिया दिखाती हैं, उन्हें सही राह पर चलने की प्रेरणा देती हैं.

खेल ऐसा जो पढ़ने में रुचि जगाए

कुछ आकर्षक खेल जिन के द्वारा आप अपने बच्चों में पढ़ने की अभिरुचि विकसित कर सकती हैं-

हर अक्षर की कठपुतलियां बनाइए. कोई एक शब्द कहिए, जिस की स्पैलिंग बच्चों को कठपुतलियों को उठा कर बनानी है. जो टोली पहले बना देगी, वह जीत जाएगी.

हर टोली में से एक बच्चा आएगा और एक बड़े बोर्ड पर किसी वस्तु की कलाकारी करेगा. दूसरी टीम को उस की स्पैलिंग बतानी होगी.

जिस बच्चे ने जो भी नई कहानी पढ़ी है, वह उसे पूरे समूह को सुनाएगा. कहानी समाप्त होने पर सब तालियां बजाएंगे.

सब बच्चों को एक विषय दिया जाएगा और उस पर उन्हें एक छोटी कहानी बनानी होगी.

बारीबारी से सब बच्चे दी हुई पुस्तक में से कहानीपाठ या कवितापाठ करेंगे.

शोध जो कहता है

करीब 1,500 अभिभावकों, जिन के 8 वर्ष तक की आयु के बच्चे हैं, से लंदन के बुकट्रस्ट द्वारा बातचीत करने पर परिणाम आया कि अभिभावक मानते हैं कि डिजिटल के मुकाबले कागज से बच्चों की दृष्टि को कम खतरा रहता है, उन को कम सिरदर्द होता है और बेहतर नींद आती है.

92 फीसदी लोगों का कागज की किताब में अधिक ध्यान लगता है.

86 फीसदी डिजिटल के मुकाबले प्रिंट को पसंद करते हैं.

45 फीसदी लोगों ने इस बात का भय जताया कि गैजेट के हाथ में आने से बच्चों का स्क्रीनटाइम बढ़ जाएगा.

31 फीसदी को डर था कि गैजेट से बच्चे गलत साइट पर जा कर कुछ अनर्गल भी देख सकते हैं.

बच्चे क्या पढ़ें और किस पर

4 से 6 वर्ष के बच्चों पर किए गए एक शोध में उभर कर आया कि जो बच्चे किताबें पढ़ते थे, वे भी टैब या किंडल या फिर आईपैड हाथ में आने पर उस में पढ़ते नहीं हैं. शोध से यह भी पता चला कि बच्चे के पास जितने गैजेट होंगे, वह उतना ही कम पढ़ेगा. बच्चों को ई-रीडिंग डिवाइस देना उन की पढ़ाई के प्रति रुचि को कम करता है.

अदालतों का वैवाहिक कानूनों में धार्मिक दखल पर अंकुश

सुप्रीम कोर्ट ने अब 18 वर्ष से कम  उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को दुष्कर्म श्रेणी की व्यवस्था दी है. लड़की की शिकायत पर पुलिस पति पर रेप का केस दर्ज कर सकती है. यह फैसला देश के सभी धर्मों व वर्गों पर समानरूप से लागू होगा. मुसलिम पर्सनल ला में 15 वर्ष की लड़की को विवाहयोग्य माना गया है पर लड़की की शिकायत पर अब मामला दर्ज करना होगा. लड़की के विवाह की उम्र अभी तक धर्म तय करता आया है. उसी आधार पर धार्मिक वैवाहिक कानून बना दिए गए. अब उन में संशोधन किए जा रहे हैं.

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की पीठ ने एक पारसी महिला गूलरोख एम गुप्ता की याचिका पर आदेश दिया है जिसे हिंदू युवक से शादी करने के बाद पारसी समुदाय ने पारसी मानने से इनकार कर दिया था. गूलरोख गुजरात हाईकोर्ट गईं तो वहां भी कहा गया कि जब भी महिला अपने धर्र्म से बाहर किसी व्यक्ति से शादी करती है तो उस का धर्म वही हो जाता है जो उस के पति का है.

गूलरोख ने 1991 में विशेष विवाह कानून 1954 के तहत हिंदू युवक से विवाह किया था. गूलरोख को उस के पिता के अंतिम संस्कार में यह कह कर रोक दिया गया कि वह विवाह के बाद पारसी नहीं रही. गुजरात हाईकोर्ट ने गूलरोख की याचिका खारिज कर दी और कहा कि उसे पारसी अग्निमंदिर में प्रवेश नहीं देना सही है. इस पर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. यहां गूलरोख की वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि गुजरात हाईकोर्ट का फैसला संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के खिलाफ है.

इस औरत के सामने समस्या यह है कि वह धर्म को देखे या दांपत्य को? धर्म की वजह से बने ऐसे कानूनों ने दांपत्य की जड़ें खोखली की हैं. परिवारों में जहर घोला है.

धर्म की दखलंदाजी

वैवाहिक कानूनों में धर्म की घुसपैठ के अनगिनत मामले हैं. अगर महिला या पुरुष धर्म बदले बिना शादी करते हैं तो ऐसी शादियां वैध नहीं मानी जाएंगी. ऐसा ही एक मामला मद्रास हाईकोर्ट में आया. कोर्ट ने फैसले में कहा कि एक हिंदू महिला और एक ईसाई पुरुष के बीच शादी तब तक कानूनन वैध नहीं है जब तक दोनों में से कोई एक धर्मपरिवर्तन नहीं करता. महिला के परिजनों द्वारा दाखिल बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश पी आर शिवकुमार और वी एस रवि ने कहा कि यदि यह जोड़ा हिंदू रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहता है तो पुरुष को हिंदू धर्म अपनाना चाहिए और यदि महिला ईसाई रिवाजों के अनुसार शादी करना चाहती है तो उसे ईसाई धर्म ग्रहण करना चाहिए.

अगर वे दोनों बिना धर्मपरिवर्तन के अपनाअपना धर्म बनाए रखना चाहते थे तो विकल्प के रूप में उन की शादी विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत पंजीकृत करानी चाहिए थी.

याचिका दाखिल किए जाने के बाद अदालत में पेश की गई महिला ने अदालत को बताया कि उस ने पलानी में एक मंदिर में शादी की थी. इस पर अदालत ने कहा कि यदि पुरुष ने धर्मपरिवर्तन नहीं किया है तो हिंदू कानून के अनुसार, शादी वैध कैसे हो सकती है.

इसी तरह विवाह के ईसाई कानून 1872 के भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम द्वारा शासित मामले में सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले के अनुसार, पर्सनल ला के तहत चर्च से दिए गए तलाक वैध नहीं होंगे. अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि क्रिश्चियन पर्सनल ला, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट 1872 और डायवोर्स एक्ट 1869 को रद्द कर प्रभावी नहीं हो सकता.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की उस दलील को मान लिया जिस में 1996 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला दिया गया था कि किसी भी धर्र्म के पर्सनल ला देश के वैधानिक कानूनों पर हावी नहीं हो सकते. यानी, कैनन ला के तहत तलाक कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिस में चर्च से मिले तलाक को कानूनी मान्यता दिए जाने की मांग की गई थी. याचिका में कहा गया था कि चर्च से मिले तलाक पर सिविल कोर्ट की मुहर लगनी जरूरी न हो.

दरअसल, मंगलौर के रहने वाले क्लेंरैंस पायस की इस जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने विचारार्थ स्वीकार कर लिया था. ईसाइयों के धर्मविधान के अनुसार, कैथोलिक ईसाइयों को चर्च की धार्मिक अदालत में पादरी द्वारा तलाक या अन्य डिक्रियां दी जाती हैं.

सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया था कि चर्च द्वारा दी जाने वाली तलाक की डिक्री के बाद कुछ लोगों ने जब दूसरी शादी कर ली तो उन पर बहुविवाह का मुकदमा दर्ज हो गया. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट घोषित करे कि कैनन ला यानी धर्मविधान में चर्च द्वारा दी जा रही तलाक की डिक्री मान्य होगी और उस पर सिविल अदालत से तलाक की मुहर जरूरी नहीं है.

बहुचर्चित शाहबानो को भी धार्मिक कानून की ज्यादती की शिकार बनना पड़ा. तलाकशुदा शाहबानो जब सुप्रीम कोर्ट गई तो उसे निर्वाह राशि मिल गई. सर्वाेच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अधिकार को मान्यता दी. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम मामले में इंदौर की रहने वाली 62 वर्षीय शाहबानो को उस के पति मोहम्मद अहमद ने 1972 में तलाक देने के बाद केवल मामूली सी मेहर की रकम वापस की थी. शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई तो कोर्ट ने धारा 125 के तहत फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को शाहबानो को खानाखर्च देने का फैसला सुनाया पर कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों ने इसे शरीयत कानून में दखल मानते हुए तब की राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाया. परिणामस्वरूप, राइट टू प्रोटैक्शन औन डिवोर्स-1986 कानून बना कर फैसला बदल दिया गया.

अगर केंद्र सरकार ने दृढ़ता दिखाई होती तो इसलामिक कानूनों के जरिए महिलाओं के शोषण का मामला सालों पहले ही सुलझ गया होता पर सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई.

केंद्र सरकार मुसलिम महिलाएं (तलाक के अधिकार) बिल-1986 ले कर आई जो कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों को बदल कर मुसलिम महिलाओं को बाकी सभी महिलाओं के अधिकारों से वंचित करता था.

अवैध विवाह

1985 में सरला बनाम यूनियन औफ इंडिया एवं अन्य का मामला सामने आया था. सरला मुद्गल सहित कई अन्य औरतों ने दूसरी शादी करने की मंशा से पुरुषों द्वारा धर्मपरिवर्तन के मामलों को चुनौती दी थी. मीना माथुर के पति जितेंद्र माथुर ने मीना को तलाक दिए बिना इसलाम धर्म स्वीकार कर मुसलिम औरत से शादी कर ली थी. 1992 में गीता रानी के पति प्रदीप कुमार ने भी इसलाम स्वीकार कर दूसरी शादी कर ली थी.

इन सभी याचिकाओं में ऐसे मामलों में रोक लगाने की सुप्रीम कोर्ट से गुहार की गई. इन मामलों में न्यायाधीश कुलदीप सिंह की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत फैसला सुनाते हुए पहली बार पत्नी को तलाक दिए बिना विवाह को अवैध करार दिया था. जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा था कि इस तरह के मामलों पर रोक के लिए अनुच्छेद 44 पर विचार करना चाहिए.

एक एडवोकेट लिली थौमस ने वर्ष 2000 में दूसरी शादी के मकसद से इसलाम कुबूल करने को गैरकानूनी करार देने और हिंदू मैरिज एक्ट में ऐसा संशोधन करने के लिए याचिका डाली थी जिस से कि इसलाम को कुबूल कर लोग हिंदू धर्म के अनुसार ब्याहता को धोखा न दे सकें.

कुछ समय पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे चंद्रमोहन द्वारा इसलाम धर्म अपना कर दूसरी शादी करने का मामला सामने आया था. चंद्रमोहन ने अनुराधा बाली नाम की एक महिला से शादी करने के लिए धर्म बदल लिया और अपना नाम चांद मोहम्मद कर लिया. अनुराधा बाली का नाम फिजा रखा गया. चंद्रमोहन के इस कदम से परिवार के लोग नाराज हुए और उन से रिश्ता तोड़ कर दूरी बना ली. चंद्रमोहन को संपत्ति से वंचित भी कर दिया गया.

बाद में परिवार के बढ़ते दबाव के चलते चंद्रमोहन ने फिजा को तलाक दे दिया और वापस हिंदू धर्म अपना लिया. उधर तलाक दिए जाने से नाराज अनुराधा बाली ने फरवरी 2009 में चंद्रमोहन के खिलाफ बलात्कार, धोखाधड़ी और मानहानि का मामला दर्ज कराया था. हालांकि, बाद में 16 अगस्त, 2012 को फिजा की लाश सड़ीगली अवस्था में उस के घर में मिली थी.

भारत में शादियां सदियों पुरानी धार्मिक किताबों, सड़़ेगले रीतिरिवाजों और रूढि़वादी परंपराओं व उन पर बने कानूनों से होती आ रही हैं. हर धर्म का अपना पर्सनल ला है जिस के अंतर्गत विवाह संपन्न होते हैं. विवाह के इन कानूनों में पतिपत्नी के बीच पंडा, पादरी, मुल्ला और परंपराएं अनिवार्य अंग हैं. विवाह को संस्कार माना गया है, करार नहीं.

पर्सनल धार्मिक कानूनों ने विवाह नाम की संस्था की नींव खोखली कर दी है. विवाह में धर्म की फुजूल उपस्थिति ने औरत की मरजी को हाशिए पर धकेल दिया है. उस के साथ भेदभाव, असमानता, कलह, हिंसा के रास्ते खोल दिए गए. सीधेसीधे 2 मनुष्यों के बीच एक करार के बजाय विवाह को अनावश्यक बाहरी आडंबरों का आवरण ओढ़ा दिया गया.

अब धीरेधीरे कई मामले सामने आ रहे हैं जिन में या तो औैरत ऐसे आवरण को उतार कर फेंक रही है या रूढि़यों से बगावत कर रही है.

साथ ही साथ, सुप्रीम कोर्ट पर्सनल ला को स्त्रियों के लिए अन्याय, शोषण का जरिया नहीं बनने देने के निर्णय सुना रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कुछ ऐसे ही फैसले किए हैं या ऐसे मामले संविधान पीठ को सौंपे हैं.धर्म के नाम पर बने कानून के माध्यम से कैसे एक औरत की जिंदगी न केवल बरबाद की जा सकती है, उसे मरने पर मजबूर भी किया जा सकता है. तीन तलाक का मामला भी धर्म पर आधारित एकपक्षीय था. इस में औरत का पक्ष सुने बिना उसे त्याग देने का एकतरफा फैसला न्याय के सिद्घांत का खुला उल्लंघन था.

औरतों के साथ भेदभाव को ले कर सुप्रीम कोर्ट ने समयसमय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, सरकार को इस दिशा में निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए.

मई 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इस से एक ओर जहां पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है.

कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा था कि इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं के द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.

जब भी धार्मिक पर्सनल कानूनों में बदलाव की बात उठती है, हर धर्म के ठेकेदार इसे धर्म में दखलंदाजी करार देते हुए धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बता कर विरोध पर उतर आते हैं. इन कानूनों में महिलाओं के साथ असमानता, भेदभाव व्याप्त हैं.

अलग धर्म, अलग रीतियां

हमारे देश में अलगअलग धर्मों के  लोग रहते हैं. यहां हर समुदाय के अपने पर्सनल ला हैं. हिंदू मैरिज एक्ट, क्रिश्चियन मैरिज एक् ट 1872, इंडियन डिवोर्स एक्ट 1869, भारतीय उत्तराधिकार नियम 1925. इसी तरह पारसी मैरिज ऐंड डिवोर्स एक्ट 1936, यहूदियों का मैरिज एक्ट है. इन के उत्तराधिकार और संपत्ति कानून भी अलग हैं. मुसलमानों के भी ऐसे ही हैं. हालांकि सभी कानूनों में समयसमय पर सुधार होते रहे हैं लेकिन मुसलिमों का शरीयत कानून तो करीब 100 वर्षों से वैसा ही है.

रूढि़वादी समाज में धर्म जीवन के हर पहलू को संचालित करता रहा है. आज भी धार्मिक रीतिरिवाज वैवाहिक कानूनों के आवश्यक हिस्से हैं. हिंदू विवाह में वैवाहिक वेदी, सप्तपदी, कलश, पंडित और मंत्र जरूरी हैं. दूसरे धर्मों में पादरी जैसे धार्मिक बिचौलिए की उपस्थिति आवश्यक है.

पौराणिक काल से हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इस को इसी रूप में बनाए रखने की कोशिश की गई. हालांकि विवाह पहले पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत ऐसा नहीं रह गया. पवित्र एवं अटूट बंधन वाली विचारधारा अब शिथिल पड़ने लगी है. अब यह जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं, विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वैवाहिक संबंध को तोड़ा भी जा सकता है.

शारीरिक व मानसिक निर्दयता, 2 वर्षों तक त्याग, रतिज रोग, परपुरुष या परस्त्री गमन, धर्मपरिवर्तन, पागलपन, कुष्ठ रोग, संन्यास जैसी दशा में संबंध विच्छेद हो सकता है. स्त्रियों

को द्विविवाह, बलात्कार, पशुमैथुन, अप्राकृतिक मैथुन जैसे आधार पर संबंध विच्छेद करने का अधिकार प्राप्त है.

अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में कई परिवर्तन हुए हैं. अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है चाहे वह किसी जाति का हो. एक विवाह तय किया गया है, दूसरा विवाह अमान्य एवं दंडनीय है. न्यायिक पृथक्करण, संबंध विच्छेद तथा विवाह शून्यता की डिक्री की घोषणा की  व्यवस्था की गई है. प्रवृत्तिहीन तथा असंगत विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है पर इस के लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है.

न्यायालय पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास किया जाए. बाद में संबंध विच्छेद पर निर्वाह व्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है. न्यायालय को इस बात का अधिकार दिया गया है कि वह अवयस्क बच्चों की देखरेख एवं भरणपोषण की व्यवस्था करे.

इस के बावजूद हिंदुओं में विवाह को अब भी संस्कार माना जाता है, जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. पर अब विवाह में लड़ाई, झगड़ा, शोषण भी दिखता है, हत्याएं भी होती हैं. पतिपत्नी में एकदूसरे को नीचा दिखाने की होड़ भी चलती है. विवाह होने पर युवती अपने पिता का घर छोड़ती है, वह अपने मांपिता को ही नहीं, अपना गोत्र, सरनेम और अपनी तरुणता भी छोड़ती है.

समान नागरिक संहिता की मांग

पर्सनल कानूनों में धर्म के आधार पर भेदभाव की वजह से समयसमय पर समान नागरिक कानून की  मांग की जाती रही है. कई बार सुप्रीम कोर्ट के सामने भी ऐसी स्थिति आई जब सरकार से जवाब मांगना पड़ा. समान नागरिक संहिता के निर्माण की मांग 1930 के दशक में उठाई गई थी और बी एन राव की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई. समिति ने 1944 में हिंदू कोड से संबंधित मसविदा सरकार को सौंपा था पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.

आजादी के बाद अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति ने हिंदू कोड बिल में विवाह की आयु बढ़ाने, औरतों को तलाक का अधिकार देने के साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिए थे.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों का दावा है कि यह आधुनिक और प्रगतिशील देश का प्रतीक है. इसे लागू करने से देश धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा.

समान नागरिक संहिता के पक्षधर लोगों की दलील है कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक नागरिक के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का बारबार तर्क रहा है कि कानून बनाना सरकार का काम है, इसलिए कोई इस में हस्तक्षेप नहीं कर सकता. न ही सरकार को कानून बनाने का आदेश दिया जा सकता है पर अगर कोई पीडि़त सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है.

हिंदू विवाह कानून 1955 में लागू हुआ था और अब तक इस में कई संशोधन हो चुके हैं.

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था विवाह नामक संस्था में पत्नी को पति के बराबर आर्थिक अधिकार देने से रोकती रही है. औरतों के प्रति ऐसी सामाजिक जड़ता की कीमत उन्हें ही सब से अधिक चुकानी पड़ती है. दहेज के नाम पर औरतों से उन का संपत्ति से अधिकार छीन लिया गया. ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि बंदोबस्त अभियान व संपत्ति संबंधी कानूनों में बहुत से स्त्रीविरोधी फेरबदल किए गए.

इस का मतलब है कि समाज में आज भी यह धारणा मजबूत है कि शादी होने के बाद लड़की पराई हो जाती है. मायके में वह मेहमान बन कर रह जाती है.

पैतृक संपत्ति में भले ही उसे कानूनन हक हासिल हो गया है पर इस का  इस्तेमाल कितनी महिलाएं करती हैं? सामाजिक तानेबाने की जकड़न व अपने हकों को मांगने वाली जागरूकता की कमी बड़ी बाधाएं हैं.

विवाह और भाग्यवाद

धर्म के बिचौलियों को विवाह के ज्यादा अधिकार दे दिए गए. धर्र्म पर आधारित कानूनों की जंजीरों से आजादी का एकमात्र रास्ता यह है कि विवाह धार्मिक बंधनों से मुक्त हों.

विवाह की बात आती है तो अकसर कहा जाता है कि जोड़ी ऊपर से बन कर आती है. वैवाहिक जीवन भाग्य पर छोड़ दिया गया है.

हालांकि पहले नानी, दादी, ताई, चाची सिखाती थीं पर उन बातों में व्यावहारिकता कम जबकि सेवा, पूजा, भक्ति की बातें अधिक होती थीं. मसलन, पति को परमेश्वर बताया गया. पत्नी उस की दासी बन कर सेवा करने का हुक्म दिया गया. बच्चे पैदा करना और गृहस्थ संभालना कर्तव्य माना गया. इस तरह की बातें इसलिए सिखाईर् जाती रही हैं ताकि धर्म के धंधेबाजों का रोजगार चलता रहे.

दिक्क्त यह है कि समाज का बड़ा तबका विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों को धर्म से जोड़ कर देखता है. कानूनों में धार्मिक दखलंदाजी की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी होती जा रही है.दरअसल, विवाह एक करार है. पतिपत्नी दोनों एकदूसरे के पूरक हैं,

यह बात समाज ने उन्हें नहीं सिखाई. वैवाहिक जीवन को ले कर व्यावहारिक बातें सिखाई जानी बहुत जरूरी हैं. अफसोस यह है कि विवाह संस्था को चलाने के लिए ठोस नियमकायदे और टे्रनिंग देने वाली कोई संस्था नहीं है.

कन्यादान क्यों

धार्मिक अनुष्ठान के बाद कन्या का पिता विवाह संपन्न होने की कीमत के तौर पर अपनी बेटी को दान कर देता है. क्यों?

लिंगभेद हर कानून में है. कानूनन वैवाहिक स्थिति में स्त्री की सुरक्षा का विशेष खयाल रखा गया है. वैवाहिक मुकदमों की प्रकृति देखें तो अकसर वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष पर दहेज प्रताड़ना, शारीरिक शोषण और पुरुष के परस्त्री से अवैध संबंध, मानसिक प्रताड़ना जैसे मामले देखे गए हैं.

असल में स्त्री के प्रति जो सामाजिक सोच बनी हुई है उस से उसे बचाने के लिए कानून में सुरक्षा देने का प्रयास किया गया. वैसे, कई बार अदालत में यह भी साबित हुआ है कि वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को तंग करने के लिए अकसर दहेज के मामले दर्ज कराए जाते हैं. तिहाड़ जेल के महिला सेल में छोटे से बच्चे से ले कर 80-90 साल तक की वृद्धा दहेज प्रताड़ना के आरोपों में बंद हैं.

दहेज का मतलब विवाह के समय वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दी जाने वाली संपत्ति से है. दहेज को स्त्रीधन कहा गया है. विवाह के समय सगेसंबंधियों द्वारा दिया गए धन, संपत्ति एवं उपहार दहेज के अंतर्गत आते हैं. अगर विवाह के बाद पति या  उस के परिवार वालों द्वारा दहेज की मांग को ले कर दूसरे पक्ष को किसी प्रकार का कष्ट, संताप या प्रताड़ना दी जाएं तो स्त्री को यह अधिकार है कि वह उस दहेजरूपी संपत्ति को पति पक्ष से वापस ले ले.

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 27, स्त्री को इस प्रकार की सुरक्षा प्रदान करती है. 1985 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश फाजिल अली ने अपने एक फैसले में कहा था कि स्त्रीधन एक स्त्री की अपनी संपत्ति है. यह संपत्ति पति पक्ष पर पत्नी की धरोहर है और उस पर उस का पूरा अधिकार है. इस का उल्लंघन करना दफा 406 के तहत अमानत में खयानत का अपराध है.

पर सवाल है कि आखिर लड़की को विवाह के समय यह दहेज क्यों दिया जाए?

धर्म के नियमों के अनुसार होने वाली शादियों में कमाई होती है. धर्म के धंधेबाजों के लिए विवाह एक बड़ा उद्योग है. इस में जितनी कमाई होती है उतनी पतिपत्नी या परिवार वालों को वैवाहिक करार के बारे में सिखाने, समझाने में नहीं है.

केआरके ने ट्विटर को धमकाया, एकाउंट चालू करो नहीं तो आत्महत्या कर लूंगा

एक्टर कमाल आर. खान बेशक अपने एक्टिंग करियर से इतनी सुर्खियां नहीं बटोर सके, जितनी वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स की वजह से बटोरते हैं. विवादित बयानों और ट्वीट्स के लिए मशहूर एक्टर कमाल आर खान उर्फ केआरके ने एक बार फिर सोशल मीडिया पर जंग छेड़ दी हैं.

इस बार उन्होंने अपना आफिशियल ट्विटर हैंडल सस्पेंड किये जाने के बाद एक प्रेस रिलीज जारी कर @ट्विटरइण्डिया (@Twitterindia) और उनके स्टाफ से अपना एकाउंट फिर से एक्टिव कराने की गुहार लगाई, साथ ही आत्महत्या करने की धमकी भी दे डाली.

एक्टर कमाल आर. खान ने प्रेस रिलीज जारी कर लिखा, @ट्विटरइण्डिया और स्टाफ महिमा कौल, विरल जैन और तरनजीत सिंह से मेरी रिक्वेस्ट है कि मेरे एकाउंट को 15 दिन के अन्दर रिस्टोर किया जाए. पहले इन्होंने मुझसे लाखों रुपये चार्ज किए और फिर अचानक से मेरा एकाउंट सस्पेंड कर दिया. उन्होंने मुझे धोखा दिया, इसलिए मैं दुखी हूं. अगर उन्होंने मेरा एकाउंट दोबारा से शुरू नहीं किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा और मेरी मौत के जिम्मेदार यही लोग होंगे. हताश केआरके की ओर से.

क्या था पूरा मामला

फिल्मों की समीक्षा के जरिए उनका मजाक बनाने वाले केआरके किसी भी फिल्म की रिलीज से पहले अपना रिव्यू देते थे. हाल ही में केआरके ने आमिर खान की फिल्म ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ का भी रिव्यू दिया था. जहां फिल्म क्रिटि्क्स ने ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ की प्रशंसा की, वहीं केआरके ने इसे बेकार करार दिया. जिसके बाद उनके एकाउंट को सस्पेंड कर दिया गया.

ट्विटर अकाउंट सस्पेंड होने के बाद केआरके ने इसकी भड़ास फेसबुक पर निकाली और कहा कि उन्होंने उस अकाउंट पर मेहनत की थी, तब जाकर उनके 6 मिलियन समर्थक हुए थे. केआरके ने यह भी लिखा कि आमिर के कहने पर अचानक उनका अकाउंट ट्विटर बिना चेतावनी दिए कैसे

आपके लिए खतरे का निशान हैं औनलाइन डेटिंग ऐप्स?

आज देश में बड़ी संख्या में युवा खुद के मजे या अपना साथी ढूंढने के लिए कुछ डेटिंग ऐप्स जैसे टिंडर, ओकेक्यूपिड, हैपन, वीचैट, पैक्टर आदि का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये डेटिंग ऐप्स यूजर्स के सेंसिटिव डेटा को सावधानी से संरक्षित करने के बजाय हमारे फोन से कई तरह के डेटा को चोरी कर रहे हैं.

इस ऐप में यूजर के लोकेशन और उनका नाम उजागर होने का भी खतरा बढ़ता नजर आ रहा है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक 48 प्रतिशत लोग केवल अपने मजे के लिए, 13 प्रतिशत लोग सेक्स के लिए जबकि कुछ लोग वास्तव में सीरियस रिलेशनशिप के लिए इन डेटिंग ऐप्स का इस्तेमाल करते हैं. औनलाइन डेटिंग ऐप्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोग इन डेटिंग प्रोफाइल पर आसानी से सार्वजनिक रूप से अपना पूरा नाम और लोकेशन शेयर करते हैं.

अगर आप भी इस तरह का डेटिंग ऐप्स इस्तेमाल कर रहे हैं तो ये खबर आपके लिए है. घबराइये नहीं क्योंकि आपको ऐसी डेटिंग ऐप्स का इस्तेमाल बंद करने की कोई आवश्यकता नहीं है, जरूरत है तो आपको सतर्क रहने और यह समझने की कि कैसे आप अपने फोन या सिस्टम से जरूरी डेटा के चोरी होने के रिस्क से बच सकते हैं.

जब एक्सपर्ट्स ने 9 पौपुलर डेटिंग ऐप्स टिंडर, बम्बल, ओकेक्यूपिड, बडू, मैंबा, जूस्क, हैपन, वीचैट, पैक्टर और उनसे यूजर्स को होने वाले संभावित खतरों पर रीसर्च की तो उसमें पाया कि 9 में से 4 ऐप्स पर अपराधी, यूजर्स द्वारा दिए गए डेटा के आधार उनके बारे में जानकारियां चुरा रहे हैं. इन जानकारियों से वे यूजर की सोशल मीडिया प्रोफाइल और असली नामों का भी पता लगा रहे हैं.

इस स्टडी में यह भी सामने आया कि 9 में से 8 ऐंड्रायड ऐप्लिकेशन पर साइबर क्रिमिनल्स के लिए काफी ज्यादा सूचनाएं चुराए जाने के लिए उपलब्ध थीं. इसके जरिये अगर कोई आपकी लोकेशन के बारे में जानना चाहता है तो 9 में से 6 ऐप्स यह जानकारी आसानी से बता देती है. केवल ओकेक्यूपिड, बम्बल और बडू यूजर की लोकेशन डेटा को लौक करके रखती हैं. स्टडी मे बताया गया कि थोड़ी सी कोशिश से औनलाइन क्रिमिनल अपने शिकार (यूजर) की सटीक लोकेशन जान सकते हैं.

एक्सपर्ट्स ने कहा, हमने इन ऐप्स के डिवेलपर्स को रिसर्च में पाये गये इन खतरों के बारे में बताया था, जिसके बाद कुछ ऐप्स में से इन कमियों को ठीक कर लिया गया है जबकि कुछ ने जल्द ही इन कमियों को ठीक किए जाने का वादा किया है. हालांकि सभी डिवेलपर ने इन सभी कमियों को ठीक किए जाने का कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया है.

बर्थडे स्पेशल : जानिये शाहरुख खान के बारे में कुछ अनसुनी बातें

आज बौलीवुड के सबसे रोमांटिक एक्टर शाहरुख खान का 52वां जन्मदिन है. बॉलीवुड के इस बेताज बादशाह की मुठ्ठी में करोड़ों लड़कियों का दिल कैद है और उनकी एक झलक पाने के लिए लड़कियां कुछ भी कर गुजरती हैं. उम्र के इस पड़ाव में भी उनका चार्म किसी भी लड़की की धडकनें तेज़ करने के लिए काफी है.

सिर्फ लुक्स के मामले में ही नहीं, शाहरुख अपने व्यक्तित्व और बौद्धिक तत्परता के लिए जाने जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि सिल्वर स्क्रीन पर रोमांस के बादशाह के नाम से जाने जाने वाले शाहरुख असल जिंदगी में रोमांटिक नहीं हैं?

जी हां, शाहरुख के अनुसार भले ही लोगों ने उन्हें सबसे रोमांटिक हीरो होने का खिताब दे दिया है, लेकिन वे असल जिंदगी में बिलकुल भी रोमांटिक नहीं हैं. लेकिन वे अपनी इस छवि को एन्जॉय करते हैं.

इतना ही नहीं, शाहरुख खान दिन में सिर्फ 5 या 6 घंटे की नींद लेना पसंद करते हैं. शाहरुख के अनुसार उन्हें ज्यादा देर तक सोना पसंद नहीं है. वह कैमरे के सामने तरोताजा दिखने के लिए सोते हैं. लेकिन उन्हें देर रात तक जागने की आदत है.

करियर के शुरुआती दौर में शाहरुख ने बहुत मेहनत की है. शाहरुख ने बताया कि लोग उन्हें डांसर के तौर पर जानते थे और शुरुआत में वे शादियों में डांस किया करते थे. जब लोग उनसे पूछते थे कि क्या वे डांसर हैं, तो वे लोगों को बताते थे कि वे बतौर डांसर शादियों में डांस करते हैं.

शाहरुख बताते हैं कि वे खाली समय में समाचार देखना और किताबे पढ़ना पसंद करते हैं. उन्हें किताबें पढ़ना बेहद पसंद है और इससे उन्हें अपने फिल्मी किरदार में ढलने में मदद मिलती है.

भले ही आज शाहरुख खान करोड़ों कमाते हों, लेकिन उनकी पहली कमाई मात्र 50 रूपए थी और ये रूपए उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए खर्च किये थे. वे इन पैसों से आगरा का ताजमहल देखने गए थे.

वे ये भी बताते हैं कि जूही चावला नहीं होती, तो वे आज एक्टर नहीं बनते. क्योंकि उस दौर में कोई भी न्यूकमर के साथ काम करने के लिए हामी नहीं भरता था. लेकिन जूही पहली बार शाहरुख के साथ काम करने के लिए तैयार हुई थीं. जिसके बाद दोनों ने फिल्म ‘राजू बन गया जेंटलमैन’ में काम किया था.

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