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एक वही लमहा

लेखिका – डा. कविता सिन्हा

धीरेधीरे मल्लिका का मन सौरभ के प्रति एक अजीब लिजलिजे एहसास से भरता चला गया था. उस सौरभ के प्रति जिसे कुछ ही दिनों में उस ने अपने जीवन की सब से बड़ी उपलब्धि मान लिया था. सचमुच, सौरभ ने क्या कुछ नहीं दिया था उसे. खूबसूरत बंगला, कारें, घर में टीवी, फ्रिज और जितनी भी ऐशोआराम की चीजें हो सकती थीं, सबकुछ.

उसे तो यह भी छूट थी कि जब जी चाहे अपनी इच्छा के अनुसार वह कोई भी चीज, कभी भी खरीद सकती थी. सिर्फ लाकर से पैसे निकालने की देर थी. और तत्काल लाकर में जरूरत भर पैसे उपलब्ध न हों तो क्रेडिट कार्ड तो था ही उस के पास.

किसी भी औरत को आखिर इस से अधिक चाहिए भी क्या था.

लेकिन मल्लिका ने तो ऐसी जिंदगी की कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह तो अपने पति के साथ उस हवा में उड़ान भरना चाहती थी जिस में दुनिया भर के सारे सुगंधित फूलों की खुशबू का समावेश हो. जहां यदि भूखा भी रहना पड़े तो भी सांसों में भरी खुशबू से मन इस कदर भरा रहे कि भूख का एहसास ही न हो.

सौरभ से जब शादी तय हो गई तब वह कितना फूटफूट कर रोई थी. रहरह कर अमर टीस बन कर उस के अंतस को बेचैन करता रहा था. सच पूछे उस से कोई तो अमर के पास उस के लिए वह सारा कुछ था जिस की आकांक्षा उस ने पाल रखी थी और अगर कुछ नहीं था तो वह सारा कुछ जो सौरभ के पास था, यानी अमीरी भरा जीवन जीने का सामान.

अमर कालिज का सब से मेधावी छात्र था. देखने में औसत सौंदर्य के अमर का पहनावा भी साधारण ही था. किंतु उस के पास जो सब से बड़ी पूंजी थी वह थी उस का प्रेम से लबालब भरा हृदय. और स्वाभिमानी ऐसा कि अपने स्वाभिमान की कीमत पर यदि जरूरी हो तो मौत को भी गले लगा ले.

कई बार अभाव के क्षणों में मल्लिका ने उस की मदद करने की भी कोशिश की थी, मगर उलटे मल्लिका को ही वह खरीखोटी सुना गया था, ‘क्या समझती हो तुम खुद को? अगर इतनी ही दौलत है तुम्हारे पास तो जाओ, वातावरण में पसरी पूरी हवा को खरीद कर ला दो मेरे लिए. मैं ने बड़ेबड़े रईसों के बारे में सुना है कि जमाने भर की दौलत उन के पास थी फिर भी अपने लिए कतरा भर सांस का जुगाड़ नहीं कर पाए वे. कान खोल कर सुन लो मल्लिका, यह सच है कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता पर यह भी उतना ही सच है कि मेरा प्यार कभी भी तुम्हारी दौलत का मोहताज नहीं हो सकता.’

आज मल्लिका के पास दौलत का अंबार था. मगर नहीं था तो अमर जैसा साथी, जिस के बल पर वह अपने जीवन के उन सारे एहसासों को अपने जेहन में समेट सकती थी जिस के लिए आज उस का एकएक पल लालायित था.

उस के पिता ने जब सौरभ से उस की शादी की बात चलाई थी तब हठात वह तय नहीं कर पाई थी कि ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए…हां, मन में अमर का प्यार समुद्र की लहरों की तरह हिलोरे जरूर मार रहा था. इसी बुनियाद पर अपने भीतर पूरी शक्ति समेट कर उस ने तय किया था कि अपनी यह नई समस्या वह अमर के सामने रखेगी, इस पूरे भरोसे के साथ कि उस का अमर उसे इस समस्या से जरूर छुटकारा दिला देगा.

मल्लिका यह भी जानती थी कि उस के पापा को अपने अमीर होने का जबरदस्त गुमान है और गरीबोें के प्रति उन की संवेदना पूरी तरह शून्य है. कई बार बातोंबातों में वह कह भी चुके थे, ‘भई, यह गरीब लोग ठीक मदारी के हाथों में नाचने वाले बंदर की तरह होते हैं. बस, थोड़े सिक्के उछाल दो, फिर जैसा चाहो, नचवा लो.’

मल्लिका के उस भरोसे को तब जबरदस्त झटका लगा था जब अमर ने ऐन वक्त पर यह कह कर पासा पलट दिया था, ‘नहीं मल्लिका, अभी तो मैं बिलकुल भी इस स्थिति में नहीं हूं कि अपना घर बसा पाऊं. मेरी सब से पहली जरूरत तो अपनी पढ़ाई पूरी करना है, फिर कोई नौकरी, उस के बाद ही मैं अपने आगे के जीवन के बारे में कोई फैसला ले सकता हूं.’

मल्लिका का जी तो चाहा था कि सामने खड़े अमर का कालर पकड़ कर पूछे कि फिर मेरे साथ जो तुम ने वादे किए थे वे महज दिल्लगी थे तुम्हारे लिए? पर वह ऐसा नहीं कर सकी. वह तो भरोसा टूटने की पीड़ा से इस कदर आहत थी कि कुछ कहने का साहस ही उस में नहीं बचा था. वह कुछ पल खामोश आंखों से अमर को देखती रही फिर तेजी से भागती हुई सामने खड़ी टैक्सी में जा बैठी थी.

सौरभ के साथ विवाह के लिए मल्लिका ने मूक सहमति दे दी. उसे औरत की उस नियति को स्वीकार करना पड़ा था जिस के बारे में कहावत प्रचलित है कि औरत तो गाय होती है, उसे जिस खूंटे से चाहो बांध दो.

सौरभ की हो कर मल्लिका उस के साथ विदा हो गई और जब कुछ दिनों तक उस ने पति को पूरी तरह अपने मन के मुताबिक महसूस किया तो उसे लगा था कि सौरभ की पत्नी बन कर उस ने कोई भूल नहीं की थी. उन कुछ दिनों तक तो सौरभ चौबीसों घंटे सिर्फ और सिर्फ मल्लिका के सुपुर्द रहा था. मल्लिका अगर कह देती कि वह आकाश से तारे तोड़ लाए तो शायद हाथ तारों की ओर कर के सारी उम्र उछलता ही रह जाता.

उन चंद दिनों में सौरभ ने मल्लिका को निहाल कर के रख दिया था. अब तो जागती आंखों का सपना हो या बंद आंखों का सपना, जिस अमर को वह चौबीस घंटे अपनी धड़कनों में लिए फिरा करती थी उस की परछाईं तक कहीं नजर नहीं आती उसे.

वह सारा सुख और वे सारी खुशियां उस के जीवन में जैसे किसी मेहमान की तरह आई थीं. काश, उन लमहों को अपने संपूर्ण जीवन के लिए मल्लिका संजो कर रख पाती. पर नहीं, मेहमान तो मेहमान ही होते हैं, कुछ दिनों के लिए घर की रौनक, उस के बाद मेला के उजड़ जाने के बाद की स्थिति.

सचमुच, सौरभ उस के जीवन से ऐसे गुम हुआ जैसे मुंडेर पर बैठा कोई पक्षी. गाहेबगाहे मन हुआ तो आ कर मुंडेर पर चहचहा जाए और मन नहीं तो उस का दर्शन भी दुर्लभ.

सौरभ अपने कारोबार में इस तरह जुट गया कि उसे अपने घर या मल्लिका की कोई सुध ही नहीं रही. हां, उस ने इतना इंतजाम जरूर किया था कि मल्लिका यदि आधी रात को भी किसी वस्तु की इच्छा जाहिर करे तो वह वस्तु उस के सामने उपस्थित हो जाए. लेकिन एक औरत के जीवन में जो स्थान पुरुष का होता है वह दुनियाजहान के भौतिक साधन पूरा नहीं कर सकते.

दरअसल, शादी के पहले मल्लिका को इस बात की जानकारी थी कि सौरभ व्यवसाय जगत का बादशाह है और वह मुकाम उस की दिनरात की मेहनत का नतीजा था. आज वह एक ऐसे खिलौनों की फैक्टरी का मालिक है जिस की पहचान देश भर में है. सैकड़ों मजदूर और कर्मचारी उस की फैक्टरी में काम करते हैं.

शादी के बाद एक दिन मल्लिका को अपनी बांहों में भर कर सौरभ ने कहा था, ‘डार्लिंग, शादी के बाद मैं तुम्हें कोई खास तोहफा नहीं दे पाया. बस, एक नई फैक्टरी का छोटा सा उपहार तुम्हें दे रहा हूं जिस का नाम मैं ने ‘मल्लिका इंटरप्राइजेज’ रखा है.’’

अपने नाम से फैक्टरी खोले जाने की बात सौरभ के मुंह से सुन कर वह एकबारगी किलक भरे शब्दों में बोल पड़ी थी, ‘सच, इतना बड़ा तोहफा? ओह सौरभ, आई कांट विलीव इट.’

‘ठीक है, कल हम साइट पर चल रहे हैं. जब अपनी आंखों से देख लोगी तब तो तुम्हें भरोसा हो जाएगा न.’’

उन दिनों उसे जो फैक्टरी या अन्य तरह के तोहफे सौरभ से प्राप्त होते थे, तत्काल तो रोमांचित करने के लिए काफी हुआ करते थे लेकिन साल दो साल बीततेबीतते ही उसे ऐसा महसूस होने लगा कि जितने भी भौतिक सुखों से सराबोर तोहफे उसे सौरभ से प्राप्त हुए थे सभी बस, एक इंद्रजाल की भूमिका में थे.

अब सौरभ अपने कारोबार के सिलसिले में जब भी घर से बाहर निकलता तो कब दोबारा लौट कर आएगा इस का कोई निश्चित समय नहीं होता. कभीकभी तो बगैर बताए ही वह कईकई दिनों तक घर से गायब रहता था. जैसे उस के लिए मल्लिका महज घर में सजाई जाने वाली खूबसूरत सी गुडि़या जितनी ही हैसियत रखती हो कि जब चाहा, जिस तरह दिल चाहा उस से खेल लिया, फिर घर में सजा कर निश्ंचिंत हो गए.

कई बार खिन्न मन से मल्लिका ने कहा भी, ‘‘सौरभ, आखिर आप जिस दौलत को कमाने के लिए दिनरात भाग- दौड़ कर रहे हैं वह किस के लिए? मुझे कोई फैक्टरी नहीं चाहिए. मुझे तो सिर्फ आप की जरूरत है. सुकून की जिंदगी जीने के लिए जरूरी तो नहीं कि इनसान दुनिया भर की दौलत जमा करने के लिए पागलों की तरह उस के पीछे भागता फिरे.’’

सौरभ धैर्य से मल्लिका की बातों को सुनता रहा फिर मुसकरा कर बोला, ‘‘देखो, मल्लिका, आज का युग प्रतियोगिता का है और इस में आगे बढ़ने के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. तुम समझती क्यों नहीं कि दो रोटी, तन ढकने के लिए कपड़े और सिर छिपाने के लिए छप्पर तो एक भिखारी को भी नसीब हो जाता है. तुम क्या यही चाहती हो कि हमारा जीवन भी उन भिखारियों जैसा हो? अरे, मैं तो इतनी ऊंचाई तक पहुंचना चाहता हूं, जहां से हाथ बढ़ा कर तारों को भी अपनी मुट्ठी में कैद कर लूं. चाहे इस के लिए मुझे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.’’
‘‘इस का मतलब यह तो नहीं कि आप अपनी बीवी और घरगृहस्थी से भी दूर हो जाएं.’’

‘‘बीवी…घरगृहस्थी…अरे, बीवी तुम नहीं होती तो कोई और भी हो सकती थी. और फिर पत्नी होती ही क्या है? पति को देहसुख देने वाली एक वस्तु ही न. वह जब भी मुझे फुरसत होती है, तुम उपलब्ध करा ही देती हो. बदले में जितना तुम्हें मिलना चाहिए उस से कहीं अधिक तो दे ही रखा है मैं ने तुम्हें.’’

इतना सुनना था कि मल्लिका के बदन में जैसे आग लग गई. वह फुफकारती हुई बोली, ‘‘तो तुम्हारी नजर में पत्नी और एक रखैल में कोई अंतर नहीं?’’

अचानक सौरभ का लहजा बदल गया, ‘‘अब तुम तो बेवजह बात को तूल दे रही हो. देखो, मैं मर्द हूं और मर्दों के लिए घरपरिवार से अलग भी एक दुनिया होती है, जिस में उस की अपनी समझ और सोच तथा समाज में कैसे वह अधिक से अधिक तरक्की कर सके, इस की चिंता होती है. खैर, यह सब बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी. अभी मेरे पास 5 घंटे का समय है…आओ, इन सब बातों को भूल कर हम समय का सदुपयोग कर लें.’’

मल्लिका ने घड़ी की ओर देखा था. रात के 10 बज रहे थे. अभी घंटा भर पहले तो सौरभ आया था और सुबह 5 बजे की फ्लाइट से उसे वापस भी जाना था. उस ने सौरभ से पूछा था, ‘‘तो आ कब रहे हो?’’

‘‘डार्लिंग, तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे मेरे बारे में कुछ जानती ही नहीं हो,’’ सौरभ मुसकराते हुए बोला, ‘‘तुम जानती तो हो ही कि न कहीं मेरा जाना निश्चित होता है और न ही लौटना.’’

इस के बाद सौरभ अपनी लिजलिजी मर्दानगी से मल्लिका को परिचित कराने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने बिस्तर पर जो खर्राटे लेने शुरू किए तो सुबह के 4 बजे ही अलार्म की आवाज पर अलसाए ढंग से उठ पाया था.

आज के हालात देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि मल्लिका को अब उस की कल्पना तक से कितनी नफरत होने लगी थी. शुरूशुरू में तो सौरभ ऐसा बिलकुल भी नहीं था लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया वह मल्लिका के लिए महज एक पति की औपचारिकता भर बन कर रह गया था कई बार मल्लिका के मन में यही आता कि वह घर छोड़ कर ही भाग जाए, पर जाए भी तो कहां. औरत के लिए तो 2 ही जगह होती हैं, या तो मायका या फिर ससुराल. रही बात मायके की तो वहां भी वह चंद दिन ही रह सकती थी. ऐसे में नियति तो उस की ससुराल से ही जुड़ी होती है.

उस दिन मल्लिका अपनी कार से शौपिंग के लिए बाजार की ओर जा रही थी कि तभी सड़क के किनारे टैक्सी से उतर रहे अमर पर उस की नजर पड़ी. कुछ पल के लिए तो वह अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं कर पाई थी कि वह उस का वही अमर है जिस के साथ कभी कितनी तरह के सपने उस ने संजोए थे.

कार रोक कर मल्लिका, अमर को आवाज लगाती हुई उस की ओर चल दी. उधर अपने नाम के संबोधन के साथ ही अमर चौंक कर मल्लिका की ओर देखने लगा. इस के साथ ही उस के होंठों से निकला, ‘‘अरे, मल्लिका, तुम?’’

फिर तो दोनों आमनेसामने खड़े कुछ पल तक निशब्द एकदूसरे को आश्चर्य से देखते ही रह गए. आखिर चुप्पी मल्लिका ने ही तोड़ी थी, ‘‘अमर, भई वाह, तुम तो पहचान में ही नहीं आ रहे हो. लगता है कोई लाटरीवाटरी निकल आई है तुम्हारी.’’

‘‘हां, यही समझ लो,’’ अमर बोला, ‘‘दरअसल, सेल टैक्स आफिसर के पद पर यहां मेरी नौकरी लग गई है, अभी एक सप्ताह ही तो हुआ है ज्वाइन किए.’’

‘‘आई सी, तो रहनासहना कहां हो रहा है?’’

‘‘अभी तो बस, फुटपाथी हूं. एक होटल में शरण ले रखी है और किसी किराए के मकान की खोज में हूं.’’

‘‘लो, इस शहर में मेरे रहते तुम किराए के मकान में रहोगे? चलो, आओ, मेरी गाड़ी में बैठो.’’

‘‘अभी? अभी तो मैं ड्यूटी पर जा रहा हूं. वैसे पता बता दो, मैं शाम तक किसी वक्त आ जाऊंगा.’’

‘‘वेल, तो मैं इंतजार करूंगी. हां, यह मेरा विजिटिंग कार्ड है, गेट पर दरवान को दिखा देना, वह तुम्हें मेरे पास ले आएगा.’’

शाम को आफिस से निकल कर अमर सीधे मल्लिका के बंगले पर पहुंच गया. उसे खाली हाथ आया देख मल्लिका शिकायती लहजे में बोल पड़ी, ‘‘यह क्या? और तुम्हारा सामान?’’

‘‘सामान क्या, एक ब्रीफकेस भर है. होटल में पड़ा है.’’

‘‘मैं ने तो तुम्हारे रहने का यहां इंतजाम कर दिया है. चाहो तो देख लो,’’ और इसी के साथ अमर का हाथ पकड़ कर वह खींचती हुई उसे आउट हाउस में ले गई.

अंदर प्रवेश करने के साथ ही अमर भौचक रह गया. बस, कहने को ही वह आउट हाउस था वरना तो एक पूरे परिवार की सारी सुविधाओं से लैस था. उसे देख कर अमर बोला था, ‘‘सौरी मल्लिका, इस का किराया तो मैं अफोर्ड नहीं कर पाऊंगा. वैसे भी मैं अकेली जान हूं, इतने बड़े फ्लैट की मुझे क्या जरूरत. खैर, बताओ, चाय पिला रही हो या…’’

अमर की बात बीच में ही काट कर मल्लिका ने अपने ड्राइवर सुलेमान को बुलाया और बोली, ‘‘साहब को ले कर इन के होटल जाओ और इन का सामान ले कर फौरन वापस आओ.’’

इस के बाद अमर की ओर मुड़ कर मल्लिका बोली, ‘‘मैं तुम्हें चाय भी पिलाऊंगी, नाश्ता भी कराऊंगी और खाना भी, लेकिन पहले तुम सुलेमान के साथ जा कर अपना सामान ले आओ. रही बात किराए की तो मैं तुम से उतना ही चार्ज करूंगी जितना तुम अफोर्ड कर सको.’’

मल्लिका के आलीशान ड्राइंगरूम में दोनों आमनेसामने बैठे चाय पी रहे थे. तभी मल्लिका बोल पड़ी, ‘‘अमर, तुम कह रहे थे न कि तुम्हारी अकेली जान के लिए आउट हाउस बहुत बड़ा है. अब यह बताओ कि मेरे इस बंगले के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं,’’ अमर बोला था.

‘‘अरे बुद्धू, जब मैं इतने बड़े बंगले में औरत हो कर अकेली रह सकती हूं, फिर तुम इस आउट हाउस में कैसे नहीं रह सकते.’’

‘‘क्या कहा…तुम और अकेली. और तुम्हारे पति? वह भी तो रहते हैं यहां.’’

‘‘हां, मगर किसी मेहमान की तरह. खैर, तुम चाय पिओ, धीरेधीरे सब समझ जाओगे. रही बात किराए की, तो जब मुझे पैसे की जरूरत होगी ले लूंगी.’’

इस के बाद देर तक दोनों आपस में बातें, हंसीठिठोली करते रहे थे. रात का भोजन भी दोनों ने साथ ही लिया था. खाने के बाद भी वे एकदूसरे से बीते दिनों की बातें करते रहे. आहिस्ताआहिस्ता जब दोनों की ही आंखों में नींद की खुमारी उतरने लगी तो मल्लिका उठ कर अपने बंगले में चली गई. फिर तो यह सिलसिला रोज की दिनचर्या ही हो गया. पर मल्लिका के मन में हर क्षण यह संशय भी बना रहता कि सौरभ को पता चलेगा तो पता नहीं उन की क्या प्रतिक्रिया हो.

एक सप्ताह बाद सौरभ लौट कर आया तो मल्लिका ने डरतेडरते अमर के बारे में बताया. तब सौरभ चहक कर बोला, ‘‘चलो, अच्छा हुआ. अब तो तुम्हें यह शिकायत नहीं रहेगी कि तुम से कोई बातचीत करने वाला नहीं है. मैं भी अब निश्ंिचत हो कर अपना काम कर सकूंगा. यह चिंता तो नहीं रहेगी कि घर में अकेली तुम असुरक्षित हो.’’

सौरभ की टिप्पणी पर मल्लिका हैरान रह गई थी. वह समझ नहीं पाई कि उस का पति आखिर किस मिट्टी का बना है. सौरभ को इस बात की भी फिक्र नहीं कि अपनी पत्नी को वह किसी गैर मर्द के सुपुर्द कर के चहक रहा है.

अभी मल्लिका इसी सोच में उलझी थी कि सौरभ बोल पड़ा था, ‘‘अरे भई, अपने दोस्त से मिलवाओ तो सही.’’

‘‘क्या? इस समय?’’

‘‘तो क्या हुआ, साढ़े 10 ही तो बजे हैं न,’’ सौरभ बोला, ‘‘अरे भई, हम मर्दों के लिए तो यही समय होता है कुछ सोचने, कुछ करने का. अच्छा, तुम रहने दो, मैं ही जा कर तुम्हारे दोस्त को बुला लाता हं.’’

सौरभ जब लौटा तो अमर उस के साथ था.

आते ही बड़े उल्लास भरे शब्दों में मल्लिका से सौरभ बोला, ‘‘लो भई, आ गए तुम्हारे अमर साहब. अब जल्दी से कुछ खानेपीने का इंतजाम करो.’’

मगर मल्लिका अपनी जगह ज्यों की त्यों खड़ी ही रह गई थी.

‘‘क्यों, क्या सोचने लगीं. अरे, आज हमें अपनी दोस्ती को सेलीबे्रट करने दो और सेलीब्रेशन के लिए शराब से अच्छा साथी और क्या हो सकता है? क्यों अमर साहब?’’

‘‘पर अमर तो शराब पीता ही नहीं है,’’ अमर के बोलने से पहले ही मल्लिका बोल पड़ी.

‘‘क्या, शराब नहीं पीते?’’ और जोर का ठहाका लगाया था सौरभ ने, फिर बोला, ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. इन के लिए गरम दूध और मेरे लिए…’’

मल्लिका बगैर कोई हस्तक्षेप किए वहां से हट गई और जब दोबारा वहां आई तो ह्विस्की की ट्रे के साथ. उस का मन धड़क रहा था कि पता नहीं शराब पीने के बाद सौरभ, अमर के साथ कैसा सुलूक करे, इसलिए एहतियातन वह भी वहीं बैठ गई थी.

लेकिन जैसा उस ने सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि जैसेजैसे शराब घूंट के रूप में हलक से नीचे उतरती गई वैसेवैसे सौरभ की जबान मीठी होती चली गई. पहले उस ने अमर का पूरा परिचय लिया था फिर अंतिम पैग के साथ अपना दोस्त मान लिया और कहा कि अब आप को मैं आप नहीं तुम कहूंगा. आज से हम दोस्त जो हो गए. हां, एक अनुरोध मैं जरूर आप से करूंगा कि मेरी गैरमौजूदगी में बेचारी मल्लिका बोर होती रहती है. तुम इस का खयाल रखना.

मल्लिका या अमर के मन में सौरभ से मिलने से पहले जो एक अनजाना खौफ था, वह पूरी तरह निकल गया था. इस के बाद तो जैसे अमर और मल्लिका स्वच्छंद आकाश में विचरण करने वाले पक्षी के जोड़े ही हो गए. लेकिन ऐसा भी नहीं कि उन की अपनी जो सीमा थी, उस का कुछ खयाल ही न हो उन्हें.

सौरभ आता भी तो वह कभी कुछ नहीं बोलता. दरवान के बताने पर कि मेम साहब तो अमर बाबू के साथ कहीं गई हैं, उस पर कोई असर नहीं होता. एक तरह से अमर के आ जाने से सौरभ को सुकून ही मिला था.

अमर की नौकरी लगे अभी 6 महीने भी नहीं बीते थे कि एक दिन जब वह आफिस से लौटा तो एक चमचमाती लाल रंग की मारुति में सवार हो कर आया. कार को ले जा कर सीधे मल्लिका के पोर्टिको में पार्क कर, वहीं से उस ने जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया और वह तब तक हार्न बजाता रहा जब तक कि मल्लिका भागती हुई बाहर नहीं आ गई.

मल्लिका ने अमर को ड्राइविंग सीट पर बैठे देखा तो बोल पड़ी, ‘‘भाई, बहुत सुंदर गाड़ी है. कहां से उड़ा लाए?’’

ड्राइविंग सीट पर बैठेबैठे ही अमर का ठहाका गूंज पड़ा था, ‘‘भई वाह, अब मैं आप को चोर भी लगने लगा हूं. खैर, कार चोरी की ही सही, जाइए, जल्दी से तैयार हो जाइए. थोड़ा सैरसपाटा हो जाए.’’

‘‘पहले उतरो तो सही. चल कर बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘नो, आज तो घूमनाफिरना और चायखाना सब बाहर ही होगा.’’

‘‘ओके,’’ बोल कर अभी मल्लिका मुड़ने को हुई ही थी कि अमर की आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘मैं घड़ी देख रहा हूं. बस, 5 मिनट में आ जाओ.’’

और सचमुच मल्लिका 5 मिनट भी नहीं बीते कि आ कर आगे की सीट पर बैठ गई थी. उस के कार में बैठते ही अमर ने कार स्टार्ट कर दी और फिर कुछ ही देर में कार हाइवे पर तेज रफ्तार से दौड़ने लगी.

‘‘हां अमर, तुम ने बताया नहीं कि यह कार किस की है?’’

‘‘अपनी है यार, और किस की हो सकती है. एक क्लाइंट ने गिफ्ट की है. उस का करोड़ों का मामला मेरे पास रुका हुआ था. उसे क्लियर करवा दिया और बस, उस ने यह कार गिफ्ट कर दी.’’

‘‘गिफ्ट या रिश्वत?’’

‘‘अब तुम जो समझो लेकिन आज का जमाना इन गिफ्टों का ही तो है.’’

मल्लिका आश्चर्य से बोली, ‘‘यह तुम कह रहे हो अमर. मैं तो सोच भी नहीं सकती कि तुम्हारे जैसा आदर्श- वादी कभी रिश्वत की बात सोच भी सकता है.’’

‘‘आदर्शवादी, माई फुट. अब रहने भी दो इन बातों को मल्लिका, इतने अच्छे माहौल को फुजूल की बातों में जाया करने से बेहतर है कि हम दोनों कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं,’’ और फिर पास के ही एक बड़े से रेस्तरां में गाड़ी रोक दी थी अमर ने.

रात 9 बजे के आसपास दोनों सैरसपाटे के बाद वापस लौटे थे. फिर मल्लिका, अमर से यह कह कर कि वह फ्रेश हो कर उस के पास आ जाए, आज खाना दोनों साथ ही खाएंगे, अपने बंगले में चली गई.

अंदर किचन में अमर की पसंद की चीजें बनातेबनाते मल्लिका इस बदले हुए अमर के बारे में सोचती रही. प्रत्यक्ष अपनी आंखों से सबकुछ देखने के बावजूद मल्लिका को यह यकीन कर पाने में कठिनाई हो रही थी कि उस के अपने अमर ने सचमुच में रिश्वत ली है.

10 बजतेबजते खाना बन कर तैयार हो गया था लेकिन अमर अभी तक वापस नहीं आया था. फिर भी वह बैठ कर उस की प्रतीक्षा करने लगी थी.

घड़ी की सुई अपनी रफ्तार में बढ़ती हुई 11 पर पहुंची तो मल्लिका के सब्र का बांध टूट गया और वह तेजी से आउट हाउस की ओर बढ़ गई.
आउट हाउस का दरवाजा खुला हुआ था. अमर पर नजर पड़ने के साथ ही मल्लिका को लगा जैसे वह आकाश से जमीन पर आ गिरी हो. अमर ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा आराम से शराब की चुस्की ले रहा था और उस की उंगलियों के बीच जलती सिगरेट फंसी थी.

अमर की नजर मल्लिका पर पड़ी तो एक पल को वह हड़बड़ा गया, लेकिन तुरंत खुद को सामान्य करता खड़ा हो कर बोला, ‘‘अरे, मल्लिका, मैं तो खुद आने वाला था…खैर, आ ही गई हो तो आओ, बैठो न. तुम लोगों की सोसाइटी में शराब पीना तो आम बात है. इस समय तुम मेरा साथ दो तो यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात होगी.’’

मल्लिका ने घूरते हुए उस की ओर देखा था, फिर बोल पड़ी थी, ‘‘छी, तुम्हें शर्म नहीं आती, मेरे पास ऐसा घटिया प्रस्ताव रखते हुए. अमर, तुम बदल गए हो…पूरी तरह बदल गए हो. मुझे तो लगता ही नहीं कि तुम वही पहले वाले अमर हो.’’

‘‘हां, मल्लिका, तुम ठीक कह रही हो,’’ होंठों पर व्यंग्य भरी मुसकान ला कर अमर बोला, ‘‘मैं सचमुच वह पहले वाला अमर नहीं रहा. पर सच बात तो यह है कि अगर मैं ने खुद को बदला नहीं होता तो आज यह अमर तुम्हारे सामने भी नहीं होता, सड़कों पर एडि़यां रगड़रगड़ कर दम तोड़ चुका होता,’’ और फिर अपने साथ हुए एकएक अत्याचार को मल्लिका के सामने वह उगलता चला गया था…

‘‘जानती हो, मेरी योग्यता पर्याप्त हो कर भी मेरा साथ नहीं निभा पाई थी. हर बार मैं प्रतियोगिता परीक्षाओं में भाग लेता, लिखित में सफल भी होता लेकिन साक्षात्कार में छांट दिया जाता. धीरेधीरे समय गुजरता गया और मेरी सरकारी नौकरी की उम्र भी उसी गति से पीछे छूटती जा रही थी. हार कर मैं ने चपरासी पद के लिए भी आवदेन किया पर वहां भी पता चला कि उस पद पर नियुक्ति के लिए 25 से 30 हजार रुपए की मांग की जा रही है.

‘‘मैं एक गरीब किसान का बेटा ठहरा, सो उतने रुपए भी कहां से दे सकता था. जायदाद के नाम पर मात्र 2 एकड़ जमीन और एक झोंपड़ीनुमा घर था. मैं चाहता तो कुछ जमीन बेच कर उस नौकरी को हासिल कर सकता था लेकिन बारबार मेरा आदर्श आड़े आ जाता था. इस के बाद भी संघर्षों का लंबा सिलसिला जारी रहा था. इसी दौरान मैं ने सेल टैक्स अफसर के लिए लिखित परीक्षा पास कर ली और जब मौखिक परीक्षा में शामिल होने का बुलावा आया तो मेरे एक दोस्त ने समझाया था, ‘देख अमर, अपने आदर्श के सहारे तो तू जीवन में कभी भी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकेगा. अरे, 2 एकड़ जमीन तो है न तेरे पास. उसे बेच कर ढाई 3 लाख रुपए तो आ ही जाएंगे. मेरे एक दोस्त के चाचा बोर्ड के मेंबर हैं. तू कहे तो मैं उन से बात कर के देखता हूं लेकिन इतना तय है कि बगैर रिश्वत के नौकरी मिलने से रही.’

‘‘‘तो तू क्या चाहता है, मैं रिश्वत दे कर नौकरी प्राप्त करूं? क्या इसीलिए मैं ने दिनरात मेहनत कर के पढ़ाई की है? मेरे इन प्रमाणपत्रों का कोई मूल्य ही नहीं?’

‘‘‘अमर, हमारे देश का आज जो सिस्टम है उस में तेरे इन कागज के टुकड़ों का सचमुच कोई मूल्य नहीं है. अगर मूल्य है तो सिर्फ कागज के नोटों का. देख यार, समझने की कोशिश कर. आज दौड़ का जमाना है और इस दौड़ में वही जीत सकता है जिस की जेब में खनक हो. अरे, तेरे बाबूजी ने कितने सपने देखे होंगे, तुझे पढ़ाने के क्रम में. सोचा होगा कि कल को मेरा बेटा जब किसी अच्छी नौकरी में आ जाएगा तब सारी दुखतकलीफ समाप्त हो जाएंगी. क्या तू नहीं चाहता कि तेरे बाबूजी का सपना पूरा हो?

‘‘‘मेरी राय है कि तुझे किसी भी तरह इस नौकरी को हासिल कर ही लेना चाहिए. यार, धारा के विरुद्ध तैरने वाले लोग अधिकतर डूब जाया करते हैं, इसलिए समझदारी इसी में है कि धारा के साथ तैरते हुए खुद को किनारे लगा ले. अरे, एक बार यह नौकरी तेरे हाथ आ गई न, तो समझ ले कि कुछ ही दिनों में अपनी गई हुई जमीन से कई गुना अधिक जमीन हासिल कर लेगा.’

‘‘इस नौकरी के चक्कर में मेरी 2 एकड़ जमीन तो बिक ही गई साथ में घर भी गिरवी रख दिया. अब जब मैं ने अपने पिता की सारी जायदाद इस नौकरी के लिए दांव पर लगा दी तो उस को वापस लाने के लिए इस भ्रष्ट सिस्टम से मुझे हाथ तो मिलाना ही था.’’

इस प्रकार अपने अतीत को शब्द दर शब्द मल्लिका के सामने बयान कर आवेश में अमर बोला था, ‘‘मैं क्या था मल्लिका और क्या हो गया. मेरे पास एक ही तो पूंजी थी, आदर्श और ईमानदारी की. उस पूंजी को भी मैं ने इस सिस्टम के दलालों के हाथों बेच दिया. आज जो अमर तुम्हारे सामने खड़ा है, यह वह अमर नहीं है जो कभी खुद को सितारों के बीच स्थापित करने के लिए ऊंची छलांग लगाया करता था. मैं मर चुका हूं मल्लिका, पूरी तरह मर चुका हूं और तुम्हारे सामने जो यह हाड़मांस का अमर खड़ा है उस के सीने में न तो दिल है न धड़कन और न ही कोई संवेदना. बस, एक लाश बन कर रह गया हूं मैं.’’

उस की कहानी सुन कर मल्लिका की आंखें भी सजल हो गईं. जब उस ने देखा कि अमर फिर से पैग बनाने जा रहा है तो आगे बढ़ कर उस ने उस से गिलास छीन लिया और मेज पर रखती हुई बोल पड़ी, ‘‘नहीं, मैं तुम्हें अब एक बूंद भी पीने नहीं दूंगी. तुम अपना गम भुलाने के लिए शराब का सहारा लेते हो तो लो, आज मैं तुम्हारा सहारा बनने को तैयार हूं. मैं हर तरह से खुद को तुम्हारे आगे समर्पित करती हूं,’’ और इस के साथ वह किसी बेल की तरह अमर से लिपट गई थी.

अमर अपने होशोहवास में नहीं था. ऊपर से वर्षों की उस की चाहत मल्लिका सदेह उस के आगोश में थी. मौका भी था और माहौल भी. एक बार संयम का बांध टूटा तो दोनों उस के प्रवाह में दूर तक बहते चले गए. जब तंद्रा टूटी तो अमर को लगा कि जैसे उस के आदर्श के दामन पर एक और धब्बा लग गया. एक ऐसा धब्बा जिसे शायद कई जन्म ले कर भी वह मिटा नहीं पाएगा. फिर तो एक झटके से मल्लिका की देह से अलग हो कर वह सीधे अपने बेडरूम में चला गया और बिना कुछ बोले अंदर से दरवाजा बंद कर लिया.

इधर मल्लिका को ऐसा लग रहा था जैसे जीवन में पहली बार उस ने कोई बड़ी जीत हासिल की है. अचानक जब दरवाजा बंद होने की आवाज उस के कानों में समाई तो जैसे उस के प्राण ही हलक को आ गए थे, एक तो अमर नशे में था, ऊपर से ठहरा वह घोर संवेदनशील इनसान. कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी थोड़ी देर पहले वाली घटना को अपना गुनाह मान कर किसी प्रायश्चित्त को अंजाम देने की ठान ले.

इस सोच के साथ ही भाग कर मल्लिका उस के बेडरूम के दरवाजे को बेतहाशा पीटने लग गई. तभी उस के कानों में बाहर से आती कार के हार्न की आवाज समाई. वह समझ गई कि सौरभ लौट आया है. तत्काल किसी फैसले की स्थिति पर न पहुंचते हुए भी उस के पैर अपने आप बंगले की ओर दौड़ पडे़ थे.

मल्लिका एक पत्नी की जिम्मेदारी को किसी मशीन की तरह पूरी करती रही. देह से वह सौरभ के पास थी लेकिन उस का मन अमर में अटका रहा. सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. वह जानती थी कि सुबह का सूरज सौरभ के लिए अकसर निमंत्रण समान ही होता है. सचमुच, सुबह जल्दीजल्दी तैयार हो कर सौरभ निकल गया.

इस के बाद अभी वह अमर के पास जाने की सोच ही रही थी कि तभी दरवाजे से अंदर आते अमर पर उस की नजर पड़ी. उसे देख कर राहत की सांस ली मल्लिका ने कि चलो, अमर सहीसलामत तो है.

अमर के उतरे हुए चेहरे को देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मल्लिका का मन कांप उठा था. अमर के चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई फैसला कर के आया है.

जमीन की तरफ घूरते हुए अमर ने बगैर होंठ खोले एक चाबी मल्लिका की ओर बढ़ा दी थी. मल्लिका की नजर जब चाबी पर पड़ी तो जैसे एक तरह का पागलपन उस पर सवार हो गया और वह चीखचीख कर बोली, ‘‘हांहां, चले जाओ यहां से, अभी चले जाओ, पर एक बात मैं जरूर पूछना चाहूंगी कि तुम अपने मुंह से सिर्फ इतना कह दो कि मुझे प्यार नहीं करते.’’

अमर मायूस आंखों से सिर्फ उस का चेहरा ही देखता रह गया.

‘‘अमर, कल वाले जिस हादसे को तुम पाप समझ रहे हो, मेरे लिए तो बस, वे ही चंद लमहे पूरे जीवन की उपलब्धि हैं. नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी तुम्हें यहां लाने की या तुम से पुन: वही कालिज के दिनों वाली आत्मीयता बढ़ाने की. खैर, तुम जाना चाहते हो तो जाओ पर याद रखना, तुम मेरे भीतर हमेशा जीवित रहोगे.’’

इस के बाद अमर खुद पर काबू नहीं रख पाया और उस ने मल्लिका को ऐसे अपनी बांहों में जकड़ लिया जैसे अब शायद मौत भी उन दोनों को जुदा नहीं कर पाएगी.

Vascular Day : वैस्कुलर डिजीज से बचना है तो पैरों को सुरक्षित रखें

भारत में जिस रफ्तार से डायबिटीज की संख्या बढ़ रही है, वह चिंता की बात है. लोग अकसर शरीर के बाकी अंगों का ध्यान रखते हैं और पैरों की देखभाल को भूल जाते हैं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए.

 

शरीर है तो बीमारियां भी होंगी. बीमारियां भी ऐसीऐसी कि नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. ऐसी ही एक बीमारी है वैस्कुलर डिजीज. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए ही वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया की तरफ से दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नैशनल स्टेडियम में राष्ट्रव्यापी वाकथोन का आयोजन किया गया, जिस में लोगों को वैस्कुलर से संबंधित बीमारियों के बारे में बताया गया. कुल मिला कर संदेश यही था कि इस डिजीज के बारे में लोग जानें और जागरूक रहें व लोगों को जागरूक करें भी.

 

क्या है वैस्कुलर डिजीज
वैस्कुलर डिजीज रक्त वाहिनियों (आर्टरी और नसों) की बीमारियों को संदर्भित करता है. आर्टरी खून को दिल से दूर और नसें खून को वापस दिल तक पहुंचाती हैं. कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम का काम शरीर में कोशिकाओं और अंगों को पोषक तत्व, औक्सीजन, हार्मोन व अन्य महत्वपूर्ण पदार्थ पहुंचाना है.

 

Closeup side view of female doctor massaging legs and calves of a senior female patient with visible varicose veins.

वैस्कुलर डिजीज के लक्षण
वैस्कुलर डिजीज के लक्षण कई प्रकार के हो सकते हैं, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि किस अंग में रक्त संचार बाधित हो रहा है. पैरों में दर्द या ऐंठन, चलने या गतिविधि करने पर दर्द, जिसे इंटरमिटेंट क्लोडिकेशन कहा जाता है ,पैरों में ठंडापन या सुन्नता जो रक्त प्रवाह कम होने के कारण होता है, पैरों में घाव या अल्सर जो ठीक नहीं हो रहे हैं. पैरों में नीलापन या काला पड़ना जो रक्त संचार में कमी के कारण होता है. नसों में सूजन जिसे वैरिकोज वेन्स कहते हैं. यदि आप को ऐसे लक्षण दिखें तो तुरंत किसी डाक्टर को दिखाने की जरूरत है.

वैस्कुलर डिजीज से बचाव के उपाय
स्वास्थ्यवर्धक आहार: फलों, सब्जियों, साबुत अनाज और कम वसा वाले प्रोटीन से भरपूर संतुलित आहार लें. कोलेस्ट्रोल और संतृप्त वसा की मात्रा कम करें.
धूम्रपान से बचें: धूम्रपान धमनियों को सख्त कर सकता है और रक्त संचार को प्रभावित कर सकता है. इसे छोड़ना वस्कुलर स्वास्थ्य में सुधार के लिए महत्वपूर्ण है.
नियमित व्यायाम: नियमित शारीरिक गतिविधि रक्त प्रवाह को बेहतर बनाने और धमनियों में रुकावट को कम करने में मदद कर सकती है.
स्वास्थ्य की निगरानी: यदि डायबिटीज, उच्च रक्तचाप या उच्च कोलेस्ट्रोल है तो नियमित रूप से स्वास्थ्य जांच कराएं और डाक्टर द्वारा सुझाई गई दवाएं समय पर लें.
स्ट्रैस मैनेजमैंट: तनाव को नियंत्रित करना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि तनाव रक्तचाप को बढ़ा सकता है.
दवाएं और उपचार: वैस्कुलर बीमारियों के उपचार में एंटीप्लेटलेट, एंटीकोएगुलेंट, और कोलेस्ट्रोल कम करने वाली दवाएं शामिल हो सकती हैं. कुछ मामलों में सर्जरी या एंजियोप्लास्टी की आवश्यकता हो सकती है.
वजन नियंत्रण: स्वस्थ वजन बनाए रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिक वजन और मोटापा वैस्कुलर समस्याओं का जोखिम बढ़ा सकते हैं.
वैस्कुलर डिजीज के कारण शरीर के किसी अंग को भी काटना पड़ सकता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार हर वर्ष वैश्विक स्तर पर एक मिलियन यानी 10 लाख से अधिक अंग विच्छेदन होते हैं. ऐसी स्थिति में सही समय पर इलाज और देखभाल कर के इसे रोका जा सकता है. भारत में लगभग 40-50 प्रतिशत अंग विच्छेदन डायबिटीज की जटिलताओं के कारण होते हैं. डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और उच्च कोलेस्ट्रोल जैसी बीमारियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं और इन बीमारियों के बढ़ने का एक बड़ा कारण खराब जीवनशैली बताया जा रहा है.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ
वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया के अध्यक्ष डाक्टर पी सी गुप्ता कहते हैं, “समय रहते यदि इस बीमारी का पता चल जाए तो लोगों को अंग विच्छेदन से बचाया जा सकता है. इस के लिए सब से पहले खुद को जागरूक रखना पड़ेगा और थोड़ा भी लक्षण दिखे तो इसे नजरअंदाज न करें.
वैस्कुलर सोसाइटी औफ इंडिया के सचिव व वैस्कुलर सर्जन डा. तपिस साहू ने बताया, “भारत में जिस रफ्तार से डायबिटीज की संख्या बढ़ रही है, वह चिंता की बात है. लोग अकसर शरीर के बाकी अंगों का ध्यान रखते हैं और पैरों की देखभाल को भूल जाते हैं, तो ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए. आईसीएमआर के 5 साल के डेटा देखें तो 15 से 30 मिलियन लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए जीवनशैली में सुधार और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आवश्यक है. समय पर सही इलाज और देखभाल कर के वैस्कुलर डिजीज की जटिलताओं से बचा जा सकता है और अंग विच्छेदन की संभावना को कम किया जा सकता है.”

डा. तपिस साहू आगे कहते हैं,” पैरों को स्वस्थ रखें और चलनाफिरना न छोड़ें. डायबिटीज, धूम्रपान, उच्च रक्तचाप और कोलेस्ट्रोल को नियंत्रण में रखें क्योंकि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पैरों का सुरक्षित होना बहुत जरूरी है. वैस्कुलर डिजीज से बचने के लिए जीवनशैली बहुत महत्वपूर्ण है. आप अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं, फलों, सब्जियों और साबुत अनाज से भरपूर संतुलित आहार लें. धूम्रपान और शराब का सेवन बिल्कुल न करें. जो लोग डायबिटीज, उच्च रक्तचाप या उच्च कोलेस्ट्रोल से पीड़ित हैं उन्हें संतुलित आहार लेना चाहिए और अपनी दवाइयां नियमित रूप से लेनी चाहिए ताकि धमनियों की रुकावटों से उत्पन्न होने वाली जटिलताओं से बचा जा सके”.

जुलाई माह के चौथे सप्ताह में कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

बौलीवुड के लिए आज भी दक्षिण भारतीय सिनेमा के साथ ही हौलीवुड सिनेमा हौव्वा बना हुआ है. जिस सप्ताह दक्षिण की कोई बड़ी फिल्म हिंदी में भी प्रदर्शित होने वाली होती है या जिस सप्ताह हौलीवुड की कोई फिल्म प्रदर्शित होने वाली होती है, उस सप्ताह हिंदी की कोई फिल्म प्रदर्शित नहीं होती, यानी कि उस सप्ताह बौलीवुड पलायन कर जाता है.

जुलाई माह के चौथे सप्ताह यानी कि 26 जुलाई को हौलीवुड फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ प्रदर्शित हुई तो बौलीवुड ने अपनी फिल्में नहीं प्रदर्शित की. केवल निर्माता कुलदीप उमर सिंह ओस्तवाल ने अपनी नीरज सहाय निर्देशित फिल्म ‘द यूपी फाइल्स’ ही प्रदर्शित की. इस फिल्म में योगी आदित्यनाथ यानी कि अभय सिंह का किरदार मनोज जोशी ने निभाया है. वह भी इसलिए कि इन्हें डर नहीं था. यह फिल्म उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बायोपिक फिल्म ही है, जिस में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन के कामों का महिमा मंडन किया गया है.

निर्माता को यकीन था कि उत्तर प्रदेश सरकार से मिली सब्सिडी पर बनी उन की इस सरकार परस्त फिल्म को हर दर्शक देखना चाहेगा. मगर अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ. सच तो यह है कि इस फिल्म में सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर इस कदर गलतियां हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद इस फिल्म को देखने के बाद अपना माथा पीट लिया होगा.

ऐसे में इस फिल्म को दर्शक कहां से मिलते?  जानकारी के अनुसार फिल्म ‘द यूपी फाइल्स’ पूरे सप्ताह भर में एक करोड़ रुपए भी बौक्स औफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई. यों तो फिल्म के पीआर ने खबर भेजी थी कि फिल्म ने 3 दिन में ही 9 करोड़ कमा लिए. मगर फिल्म के निर्माता ने फिल्म की लागत और बौक्स औफिस के आंकड़ों पर चुप्पी साध रखी है. यह पहली बार है जब किसी फिल्म के निर्माता ने विक्कीपीडिया पर अपनी फिल्म के पेज पर फिल्म की लागत व बौक्स औफिस की कमाई न बताई हो.

26 जुलाई को ही मार्वल स्टूडियो की फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ प्रदर्शित हुई. भारत में यह फिल्म अंग्रेजी के साथ ही हिंदी, तमिल, तेलुगु, मलयालम व कन्नड़ भाषा में प्रदर्शित हुई. सभी को पता है कि फिल्म ‘द एंड’ के बाद से मार्वल स्टूडियो की सभी फिल्में बौक्स औफिस पर असफल होती रही हैं. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार मार्वल स्टूडियो फिलहाल 500 करोड़ बिलियन के नुकसान में है. इसलिए इस बार उस ने दो अलगअलग सीरीज के लोकप्रिय किरदारों ‘डेडपुल’ और वुल्वरिन’ को एक साथ ला कर नई फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ ले कर आए.

इस फिल्म की लागत 200 मिलियन डौलर है. मार्वल स्टूडियो के अनुसार उन की फिल्म ने पूरे विश्व में एक सप्ताह के अंदर 630 मिलियन डौलर कमा लिए. भारत में यह फिल्म सिर्फ 94 करोड़ रूपए ही कमा सकी. इस फिल्म में एक्शन दृश्यों और गालीगलौज के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में कहानी का घोर अभाव है.

सरकार परस्त फिल्म ‘एक्सीडेंट आर कौंसपिरेसीः गोधरा’ 15 दिन में सिर्फ एक करोड़ 47 लाख ही बौक्स औफिस पर कमा सकी. सैक्स व एक्शन से भरपूर फिल्म ‘बैड न्यूज’ भी 15 दिन में सिर्फ 57 करोड़ कमा सकी. इस में से निर्माता की जेब में 25 करोड़ ही जाएंगे जबकि फिल्म की लागत 80 करोड़ रुपए है. फिल्म डिजास्टर हो चुकी है.

इसी के चलते ‘बैड न्यूज’ के निर्माता करण जोहर ने निर्माणाधीन दो एक्शन फिल्मों को हमेशा के लिए बंद कर दिया. करण जोहर एक फिल्म सलमान खान और एक फिल्म कार्तिक आर्यन के साथ बना रहे थे. यह दोनों ही फिल्में एक्शन प्रधान थीं, पर अब यह फिल्में नहीं बनेंगी. भारतीय दर्शक सैक्स व एक्शन नहीं देखना चाहता. इसी का खामियाजा हौलीवुड फिल्म ‘डेडपुल एंड वुल्वरिन’ को भी भुगतना पड़ रहा है.

जब मिले व्हाट्सऐप पर इन्विटेशन कार्ड तो क्या करें

भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को आजकल के वैवाहिक आमंत्रण पत्रों में आउटडेटेड बना दी गईं ये मधुर पंक्तियां कम ही दिखती हैं, क्यों ? इस सवाल का सीधा सा जबाब यह है कि अब बुलावे में पहली सी आत्मीयता और लगाव नहीं रह गए हैं. शादी में बुलाना कम से कम 80 फीसदी मामलों में बेहद व्यावहारिक व्यावसायिक और औपचारिक होता जा रहा है और लगभग से अब सबकुछ डिजिटल हो गया है. पहले वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका जिन को दी या भेजी जाती थी वे सलैक्टेड होते थे यानी उन्हें बुलाना ही होता था.

वैवाहिक आमंत्रण पत्रिका आते ही घर में हलचल सी मच जाती थी. वरवधू के मातापिता और दादादादी और दर्शानाभिलाशियों सहित स्वागत को उत्सुक लोगों के नाम पढ़ कर उन के पारिवारिक इतिहास और भूगोल के चीरफाड़ की रनिंग कमैंट्री होती थी, उन से खुद के रिश्ते संबंध या परिचय जो भी हो, का बहीखाता खुलता था और फिर तय होता था कि इस शादी में कौनकौन जाएगा और मेजबान के अपने यानी मेहमान के प्रति किए गए और दिए गए व्यवहार के हिसाब से क्या गिफ्ट दिया जाएगा. यानी बात जैसे को तैसा या ले पपडि़या तो दे पपडि़या वाली कहावतों को फौलो करती हुई होती थी कि अगर उन के यहां से कोई हमारे यहां की शादी में आया था तो हमें भी जाना चाहिए और उन के यहां से जो व्यवहार या तोहफा आया था लगभग उसी मूल्य और हैसियत का हमें भी देना चाहिए.

बढ़ते शहरीकरण और सिमटती रिश्तेदारी के चलते अब और भी बहुत सी चीजें गुम हो गई हैं. उन की व्याख्या करने को यही एक पहलू पर्याप्त है कि 20 फीसदी अपवादों को छोड़ दिया जाए तो शादी का कोई भी इन्विटेशन जाने की बाध्यता नहीं रह गई है. अब घर पर कार्ड देने वही आता है जो वाकई में आप की गरिमामयी उपस्थिति आशीर्वाद समारोह में चाहता है. यह जाहिर है नजदीकी रिश्तेदार या अभिन्न मित्र होता है जिस से एक नियमित संपर्क भी आप का होता है. वह आप को डिजिटली तो कार्ड भेजेगा ही साथ में एक बार से ज्यादा फोन कर याद भी दिलाएगा और मुमकिन है कार्ड कूरियर से भी भेजे और उस के साथ में मिठाई का डब्बा भी हो तो यहां जाने के लिए आप को सोचना नहीं पड़ता. लेकिन अगर डिजिटली बुलाने वाले चाहे वे नए हों या पुराने के निमंत्रण में न नेह हैं और न ही उस ने रूबरू हो कर मानस के राजहंस और प्रियवर जैसा कोई आत्मीय संबोधन देते भूल न जाना जैसा मार्मिक और भावनात्मक आग्रह किया हुआ होता है तो जाहिर है उस ने एक औपचारिकता भर निभा दी है.

नया कोई ऐसा करे तो बात ज्यादा अखरती नहीं लेकिन कोई पुराना करे तो ईगो आड़े आना स्वाभाविक बात है. बुलाने के साथसाथ जाने न जाने के पैमाने भी बदल रहे हैं. मसलन अब इन्विटेशन कार्ड में सिर्फ वेन्यू गौर से देखा जाता है कि घर से कितने किलोमीटर दूर किस डायरैक्शन में जाना पड़ेगा. कार्ड के बाकी मसौदे से कोई खास मतलब जाने वाले को नहीं रहता. यानी यह उत्साहहीनता और औपचारिकता दोतरफा है जो एक उल?ान तो मन में पैदा कर ही देती है कि जाएं या न जाएं और जाएं तो गिफ्ट क्या ले जाएं. हालांकि जमाना नगदी वाले लिफाफों का है इसलिए यह सिरदर्दी कम तो हुई है.

अहम सवाल जाएं या नहीं इस का फैसला इन पौइंट्स से तय करें –

१. अगर सिर्फ व्हाट्सऐप पर कार्ड डाल दिया गया है तो जाना कतई जरूरी नहीं क्योंकि बुलाने वाले की मंशा अगर वाकई बुलाने की होती तो वह कार्ड पोस्ट करने के पहले या बाद में एक बार फोन करता या मैसेज में छोटा ही सही आग्रह जरूर करता.

२. मुमकिन यह भी है वह वाकई बुलाना चाह रहा हो लेकिन भूल गया हो या इतनी समझ और व्यावहारिकता उस में न हो कि फोन भी कर ले. ऐसे में यह देखें कि आप के उस से संबंध कैसे हैं. कई बार संबंध बेहद औपचारिक और परिचय तक ही सीमित होते हैं और केवल इसी आधार पर बेटे या बेटी की शादी का इन्विटेशन कार्ड दे दिया जाता है. मसलन बुलाने वाला आप की कालोनी या अपार्टमैंट का बाशिंदा हो सकता है जिस से कभीकभार चलतेफिरते दुआसलाम या बातचीत हो जाती है जिस के बारे में आप यह तो जानते हैं कि ये थर्ड फ्लोर पर कहीं रहने वाले शर्माजी हैं लेकिन पीएन शर्मा हैं या एनपी शर्मा हैं इस में कन्फ्यूज हों तो ऐसी शादी में जाना जरूरी नहीं.

३. औफिस कुलीग भी अकसर इसी तरह कार्ड देते हैं कि आप आएं न आएं इस से उस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. यहां आप को तय करना है कि आप उस से कैसे संबंध रखना चाहते हैं. अगर बढ़ाना चाहते हैं तो जाना हर्ज की बात नहीं. यह भी अहम है कि कार्ड देते वक्त उस ने आग्रह कैसे किया था और दोबारा कभी याद दिलाया या नहीं. ४. जाने न जाने का एक पैमाना यह भी सटीक है कि पिछले एक साल में आप उस के घर कितनी दफा गए या वह कितनी बार आप के घर आया था. अगर इस का जवाब एक बार भी नहीं में है तो जाना बाध्यता नहीं.

५. बुलाने वाले से आप की कितनी बार फोन पर बात हुई या होती है इस से भी जाने न जाने की उलझन हल हो सकती है. इस के अलावा इस बात से भी तय कर सकते हैं कि आप उस के घर में किसकिस को जानते हैं और उस के अलावा किसी मैंबर को जानते भी हैं या नहीं. ठीक यही बात उस पर भी लागू होती है. पारिवारिक परिचय प्रगाढ़ हो यह भी आजकल जरूरी नहीं है लेकिन इतना तो हो कि जब आप जाएं तो असहज महसूस न करें कि घर के मुखिया के सिवा किसी को जानते ही नहीं. असल में नई दिक्कत यह खड़ी हो रही है कि जानपहचान और रिश्तेदारी का दायरा सिमट रहा है.

शादी के आमंत्रण पहले की तरह थोक में और आत्मीयता से नहीं आते हैं लेकिन जैसे भी आएं, जब आ ही जाते हैं तो मन में जाने न जाने को ले कर दुविधा पैदा हो जाती है. यही कार्ड जब व्हाट्सऐप पर आते हैं तो तय करना मुश्किल हो जाता है कि मेजबान सचमुच आमंत्रित कर रहा है या सिर्फ सूचना दे रहा है जिस के कोई माने आप के लिए नहीं होते. जमाना ज्यादा से ज्यादा शेयर और लाइक का है. अकसर फेसबुक और व्हाट्सऐप ग्रुप में कोई भी शादी का कार्ड डाल देता है कि आप सभी पधारना और वरवधू को आशीर्वाद देना.

इस तरह के बुलावे पर हालांकि कोई ध्यान नहीं देता. हां, बधाई आशीर्वाद और शुभकामनाओं की झड़ी ऐसे लग जाती है मानो ग्रुप के सदस्यों ने उस भतीजी या भतीजे को गोद में खिलाया हो. यह सब आभासी और बनावटी है. इस से बचना ही बेहतर होता है. लेकिन बुलाने वाला नया हो या पुराना उसे व्हाट्सऐप पर ही शुभकामनाएं देने की औपचारिकता और शिष्टाचार निभाना न भूलें.

बजट नहीं मंदिरों की चढ़ावा

 सरकार का बजट अब मंदिरों में चढ़ावे की तरह होता जा रहा है. भक्त बड़ी मेहनत से सैकड़ों मीलों का सफर कर, पैदल चल कर मंदिर पहुंचते हैं. वे धूप, पानी, वर्षा में लाइनों में खड़े होते हैं और जब चढ़ावा चढ़ा कर उस भगवान से कुछ मांगने का समय आता है तो भक्त को कुछ सैकंड ही दिए जाते हैं और चढ़ावे का माल एक बड़े ढेर में बेदर्दी से फेंक दिया जाता है. फिर भी भक्त बाहर आ कर कहते हैं कि दर्शन बहुत अच्छे हुए, मनोकामना अवश्य पूरी होगी, घर धनधान्य से भर जाएगा. सरकारी टैक्स देने के लिए नागरिक बड़ी मेहनत करते हैं.

काम के लिए रोजाना घंटों लंबी दूरी तक चलते हैं, 8-10 या 12 घंटे खटते हैं और फिर जब जो हाथ में मिलता है उस का बड़ा हिस्सा चढ़ावे के रूप में सरकार को टैक्स में देते हैं. बदले में भक्त सरकार का गुणगान करते हैं और आम नागरिक सरकार को कोसते हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का 7वां और बैसाखी वाली नरेंद्र मोदी की तीसरी बार की सरकार का पहला बजट बेहद उबाऊ और उसी लफ्फाजी से भरा था जैसी मंदिरों में भक्तों को आशीर्वाद के रूप में दी जाती है. वहीं, ऐसा भी नहीं लगा कि चुनावी झटके में राम मंदिर में आए ‘क्रैक’ और अयोध्या की सड़कों को ठीक करने का कोई संकल्प इस बजट में है.

यह एक खोखली सरकार का खोखला बजट है जिस के हर शब्द में, हर प्रपोजल में बाबुओं व अफसरों की पंडों की तरह चूसने की स्कीमें तो हैं पर नागरिकों को देने के नाम पर भक्तों को मिलने वाले थोथे आश्वासन ही हैं. सरकार ने इन्कमटैक्स स्लैब में जो बदलाव किया है वह नाममात्र का है, 650 से 1,500 रुपए तक की छूट का, कैपीटल गेन्स टैक्स बढ़ा दिया गया है. आयात करों में कुछ मामूली रियायतें दी गईं, कुछ पर बढ़ाई गईं. जब मंत्रों के बीच स्वाहा करने की बात आएगी तो पता चलेगा कि फाइनैंस एक्ट में संशोधनों में कहां कितने मगरमच्छों के अंडे हैं. पर पक्का है जैसे कांवडि़यों को मीलों चलने के बाद अपना पानी मंदिरों की नालियों में बहा देना होता है, वैसे ही नागरिकों का पैसा सरकारी गंदगीभरी गंगा में जाएगा जिस में डुबकी तो लगानी होगी ही और फिर कुछ चर्मरोग स्वीकारने होंगे.

सरकार का टैक्स देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि से हर साल ज्यादा बढ़ रहा है जिस का मतलब है कि आजकल भक्त चढ़ावा ज्यादा चढ़ा रहे हैं और अपने आराध्य के सामने गिड़गिड़ाने का समय तक कम होता जा रहा है. सरकार को टैक्सों से चढ़ावा 38,40,170 करोड़ रुपए पाने का अनुमान है. सरकार को सीधा इन्कम टैक्स से चढ़ावा 11,87,000 करोड़ रुपए, जीएसटी से 10,61,899 करोड़ रुपए, कंपनियों पर टैक्स से चढ़ावा 10,20,000 करोड़ रुपए, पैट्रोलडीजल आदि की एक्साइज से चढ़ावा 3,19,000 करोड़ रुपए और आयातित सामान पर लगे टैक्स से चढ़ावा 2,31,745 करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद है. ये सब सरकारी पंडों में बंटेगा.

टोकरी भर कर प्रसाद चढ़ाने के बाद वापस लेने के लिए भक्त को 2-3 बताशे ही मिलते हैं या 2 फूल जो एक घंटे में मुरझा जाते हैं. सरकार हर काम पर वैसे ही कुंडली मारे बैठी है जैसे पंडे हर अच्छेबुरे काम में आ धमकते हैं. वे जन्म पर चढ़ावा पाते हैं, मरने पर सारा सामान ले जाते हैं और जी भर खाते हैं. भगवा सरकार इस बार भी पंडों की टैक्स प्रथा को मजबूत कर रही है और आधा पैसा पंडों की सुखसुविधाओं में जाएगा.

यह न समझें कि इस तरह के बजट की सिर्फ आलोचना ही होती है. चर्च, मसजिद, गुरुद्वारों और हर रोज नए बन रहे विशाल मंदिरों के दुकानदारों की तरह सरकार के वकील बहुत घूमते रहते हैं जो हर साल के बजट को विलक्षण, अद्भुत, विकास की चाबी, तार्किक, उदार और न जाने क्याक्या कहते हैं, वही शब्द जो अंधभक्त अपनी धर्म की दुकान के बारे में कहते हैं. नाइका कंपनी की फाल्गुनी नायर कहती हैं कि यह बजट बाजार को तेज करेगा, बराबरी का विकास होगा, सामाजिक स्तर सुधरेगा.

कैसे, इस के लिए बजट के पौराणिक ग्रंथ में भगवान नरेंद्र और देवी निर्मला के लिखवाए गए बहुत से वादे हैं, जैसे सब से ज्यादा लाखों में टैक्स देने वालों को 17,500 रुपए की महान बचत होगी, स्किल डैवलपमैंट के लिए 500 बड़ी कंपनियां इन्टर्न रखेंगी, बिहार और आंध्र प्रदेश (जिन की कृपा पर भगवान नरेंद्र व देवी निर्मला मंदिर में विराजमान हैं) को पैसा ज्यादा मिलेगा और वहां सोने के फूल कल से बरसने लगेंगे. बजट पर कोई भी प्रतिक्रिया देना बेकार है. यह असल में जेब से पैसा निकालने के तरीकों के बारे में बताता है.

यह उम्मीद न करें कि रंगदार बाजार में स्थायित्व रखते हैं, वे सिर्फ लूट में कोई और हिस्सेदार न बन पाए, इस का प्रयास करते हैं. राहुल का राहुलबाण कांग्रेस सांसद व लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हो रही बहस में लीडर औफ अपोजीशन के तौर पर जो भाषण दिया वह बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए गए 2:30 घंटे के लंबे भाषण के मुकाबले कुछ कम, लगभग 2 घंटे, जरूर था लेकिन था बहुत ही सटीक. उन का यह कहना कि हिंदू हिंसक है और फिर कहना कि नहीं है, दोनों विवादास्पद भी हैं, गलत भी और सही भी. दोमुंही बात वैसे तो हर धर्म की एक पहचान होती है पर हिंदू धर्म का तो यह एक विशेषण है.

हम शांति के पैगंबर होने का दावा करते हैं पर दूसरी ओर जो 2 महाकाव्य हमारे जीवन का मूलमंत्र बने हैं, उन में हिंसा की भरमार है. दोनों में उसी तरह के धनुष का उपयोग भरा पड़ा है जो अग्निपुराण में धनुष से किया गया युद्ध श्रेष्ठ माना गया है और बाहुयुद्ध अधमाधम होता है. धनुर्वेदस्याधिकारिणी में धनुष की शिक्षा बाकायदा ब्राह्मण आचार्यों द्वारा देने का प्रावधान है जो केवल ‘ब्राह्मण वृत्तिवाले शिष्य’ को दी जा सकती है. हिंसक पाठ पढ़ाने में भी वर्ण बीच में आ जाता है और उसी धनुर्वेद में कहा गया है कि सिर्फ क्षत्रिय को तलवार, वैश्य को भाला और शूद्र को गदा रखने का अधिकार है.

ऐसे में यह कहना कि हिंदू हिंसक है, गलत नहीं है. कट्टरपंथियों के शुरू के नेताओं ने इन धर्मग्रंथों को पढ़ कर हिंसक पाठ पढ़ाने शुरू किए थे पर न आम जनता को धनुष चलाना सिखाया न तलवार, न भाला. वे केवल शूद्रों वाली लाठी का इस्तेमाल कर सकते थे. हर गांव में जमींदार के पास लठैत ही होते थे. वह खुद तलवार रखता था और शूद्र या वैश्य को भी न धनुष देने देता था न तलवार. अग्निपुराण में शूद्र केवल शिकार के समय भाला इस्तेमाल कर सकता था. हिंदू धर्मग्रंथों से परे आदिवासी हर तरह के अस्त्र इस्तेमाल करते थे पर उन्हें पहाड़ों में धकेल कर भुला दिया गया था.

राहुल गांधी का दूसरी तरफ यह कहना कि ‘हिंदू हिंसक नहीं’ गलत नहीं है क्योंकि देश की 80 फीसदी जनता तो हमेशा इन ग्रंथों के तथाकथित ज्ञान से दूर रही है. उस ने तो वह माना है जो गांव या राज्य का पुजारी या उस के इशारे पर चलने वाला राजा कहता था. फिर भी हिंसा नहीं थी, यह कहना गलत है. चूंकि देश की अधिकांश जनता को हथियार रखने का अधिकार नहीं था, अहिंसा का पाठ भी काम आया. जब हिंसा करने का हक न हो, तो अहिंसा के नाम पर भीख मांगना और धर्म के सहारे दान में पैसा पाना एक अच्छी तरकीब थी. जिन धर्मों या उपधर्मों ने भारतभूमि में शांति का पाठ पढ़ाया, उन्होंने अपनी शांति की बात मनवाने के लिए भरपूर हिंसा का इस्तेमाल किया.

अहिंसा परमोधर्म का नारा तो बहुसंख्यक जनता के लिए था जिसे हिंसा के आगे घुटने टेकने पड़े थे, जेब खाली करनी पड़ी थी, घरबार लुटते देखना पड़ा था. हिंसा का प्रयोग आम जनता के लिए केवल शिकार के वक्त जरूरी है. मांस खाने वाले पाले हुए पशुओं को मारते हैं, इसलिए उसे हिंसा कहना गलत होगा. हिंसा में लूटने का भाव छिपा है. वर्तमान में राहुल गांधी ने एक प्याले में तूफान लाने की कोशिश की है जिस का, वैसे, फर्क नहीं पड़ने वाला पर हिंदूदलित, हिंदूमुसलिम हिंसा शायद कम हो जाए. फूट डालो राज करो लोकसभा चुनावों में पड़ी चपत के बाद 13 विधानसभा उपचुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी को एक बार फिर झटका लगा है.

भाजपा ने 13 की 13 सीटों पर चुनाव लड़ा था. पैसे की उस के पास कोई कमी नहीं थी, चुनाव आयोग उस की जेब में पहले जैसा था, मीडिया पहले की तरह काफी गुणगान कर ही रहा था पर फिर भी 13 में से वह केवल 2 सीटें ही जीत पाई. भारतीय जनता पार्टी के नेता व प्रधानमंत्री कुछ महीने पहले 2027 की नहीं, 2047 की बात करने लगे थे, लेकिन अब वे सकते में हैं कि यह क्या हो रहा है. रोचक बात यह है कि जैसे लोकसभा चुनावों में हिंदू धर्म की इकलौती ठेकेदार बनी भारतीय जनता पार्टी अयोध्या की सीट हार गई थी, इस बार उत्तराखंड में बद्रीनाथ की विधानसभा सीट हार गई.

असल में 2014 के बाद जो एक के बाद एक जीत भाजपा को मिलती रही, वह गैरभाजपा पार्टियों के विभाजन के कारण हो रहा था. कट्टरपंथी पार्टियां आमतौर पर जीतती इसलिए हैं कि उन को चलाने वाले साजिश और प्लानिंग अच्छी तरह कर लेते हैं और वे विरोधी खेमे में फूट डलवा लेते हैं. रामायण कथा में रावण और बाली के घरों में फूट डलवाई गई और महाभारत की कहानी में कुरुवंश के घर में. तभी उन की जीत हुई जिन्हें हम आज भी पूज रहे हैं और जिन के धर्म पर भक्त अपना तनमनधन देते हैं व दूसरे की जान लेने को तैयार रहते हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इंडिया ब्लौक बना कर गैरभाजपा वोटों का बंटवारा रोक दिया है और खमियाजा भाजपा को भुगतना पड़ रहा है. जनता तो हमेशा ही भाजपा को अल्पमत देती रही है. और अब विपक्षी वोट एक को पड़ रहे हैं, कईयों को नहीं. भाजपा को जल्दी ही अपने धर्मग्रंथ फिर खंगालने पड़ेंगे जिन में घरों, परिवारों, समाजों, जातियों के नाम पर तोड़फोड़ करने के पाठ बारीकी से समझाए गए हैं. सत्ता के अंहकार में भाजपाई नेताओं ने इन ग्रंथों को समझाना और पढ़ना कम कर दिया था. अब 2-3 हारों के बाद वे फिर जब इन महान ग्रंथों की कहानियां पढ़ेंगे तो उन्हें, पक्की बात है कि फिर तरीके मिलेंगे कि क्या कहकह कर दूसरे पक्ष में फूट डलवाई जा सकती है. आखिर कृष्ण द्वारा गीता का ज्ञान कुरुवंश में फूट डलवाने के लिए ही तो दिया गया था. इसे पढ़ कर इंडिया ब्लौक को तोड़ना मुश्किल न होगा.

टीनएजर्स भी हो रहे हैं हाई ब्लडप्रैशर का शिकार

हाई ब्लडप्रैशर या उच्च रक्तचाप की बीमारी आमतौर पर 40 पार के लोगों में या बुजुर्गों में देखी जाती थी. बच्चों में इस का असर नहीं होता था और न ही कभी डाक्टर बच्चों का ब्लडप्रैशर नापते थे. लेकिन अब यह सोच बदल रही है. बच्चों में भी अब हाई ब्लडप्रैशर की समस्या तेजी से बढ़ रही है. मोटापे के कारण बच्चे हाई ब्लडप्रैशर का शिकार हो रहे हैं. ब्लडप्रैशर अधिक होने की वजह से उन को दिल की बीमारियां भी घेर रही हैं. हृदय की सतहों की मोटाई भी ज्यादा हो रही है. नाडि़यों में बैड कोलैस्ट्रौल जम रहा है जिस से खून का बहाव बाधित हो रहा है. बच्चों में आंखों की रोशनी घट रही है.

दिल्ली के एम्स में ऐसे 60 बच्चों की जांच की गई जो मोटापे से पीडि़त थे. इस जांच के बाद सामने आया कि 60 में से 40 फीसदी यानी 24 बच्चे हाई ब्लडप्रैशर के शिकार हैं. इन सभी बच्चों की उम्र 18 वर्ष से कम थी. इन 24 बच्चों में से 68 प्रतिशत बच्चों में ब्लडप्रैशर का असर हार्ट पर भी नजर आया. कुछ बच्चों में और्गन फेल्योर के लक्षण भी देखे गए. हाई ब्लडप्रैशर एक साइलैंट किलर है. इस का सब से ज्यादा असर हमारे दिल पर पड़ता है. अगर ब्लडप्रैशर को नियंत्रित न रखा गया तो इस से अचानक हार्ट अटैक या ब्रेन हेमरेज होने का खतरा रहता है.

बच्चों में हाई ब्लडप्रैशर 2 टाइप के होते हैं- प्राइमरी हाई ब्लडप्रैशर और सैकंडरी हाई ब्लडप्रैशर. प्राइमरी हाई ब्लडप्रैशर टीनएजर्स और एडल्ट्स में ज्यादा कौमन है. यह अकसर लाइफस्टाइल फैक्टर्स की वजह से होता है, जैसे बहुत ज्यादा नमक और मसालों के सेवन से यह समस्या पैदा होती है. अगर मातापिता में से किसी को हाई ब्लडप्रैशर की समस्या है तो कई बार बच्चों में भी इस के लक्षण दिखते हैं. ये लक्षण मोटापे की वजह से जल्दी नजर आते हैं. सैकंडरी हाई ब्लडप्रैशर के सामान्य कारण हैं, किडनी डिसऔर्डर, हाइपरथाइरौडिज्म, हार्मोनल से जुड़ी समस्याएं, हार्ट या ब्लड वैसल्स डिसऔर्डर, नींद से जुड़े डिसऔर्डर, स्ट्रैस लेना अथवा कुछ मैडिसिन के साइड इफैक्ट्स. कोरोनाकाल में जब बच्चे घरों में बंद हुए तो उन के पास करने को बस दो या तीन काम ही थे – औनलाइन पढ़ाई करना, मोबाइल फोन पर समय बिताना और खाना.

उस दौरान चूंकि मातापिता दोनों ही घर पर रहे इसलिए महिलाओं ने और कहींकहीं तो पुरुषों ने भी अपनी पाककला का खूब प्रदर्शन किया. खूब तेल, घी, नमक, मसाले वाला खाना लोगों के घरों में बना और बच्चों ने खूब लुत्फ उठाया. यहां तक कि बर्गर, पिज्जा, रोल, चाउमीन जैसे बच्चों को लुभाने वाली चीजें भी मांओं ने खूब बनाबना कर खिलाईं. फिजिकल एक्टिविटी की कमी नतीजा यह हुआ कि बच्चों का वजन इस दौरान खूब बढ़ा. खेलकूद और शारीरिक एक्टिविटी न होने से एक्स्ट्रा एनर्जी शरीर में फैट के रूप में जमा होती गई.

इस से नाडि़यों में खून का प्रवाह बाधित हुआ और इस की वजह से बच्चों में हाई ब्लडप्रैशर की समस्या पैदा हुई. अब जबकि कोरोना को गए डेढ़ साल से ऊपर हो रहा है मगर खेल के मैदान में अभी भी बच्चों की संख्या उस तरह नहीं बढ़ी है जैसी कोरोनाकाल से पहले हुआ करती थी. खेल को ले कर बच्चे आलसी हो गए हैं. उन्हें मोबाइल फोन पर गेम खेलने में मजा आता है. शारीरिक एक्टिविटी न होने से बच्चे हाई ब्लडप्रैशर का शिकार हो रहे हैं. पढ़ाई और कंपीटिशन का स्ट्रैस इन दिनों बच्चों पर हावी है. हर मांबाप की इच्छा है कि उन का बच्चा एग्जाम में 90 प्रतिशत से अधिक नंबर लाए. मांबाप की इच्छाओं का भारी दबाव बच्चे ?ोल रहे हैं. वे आधा दिन स्कूल में पढ़ते हैं, फिर ट्यूशन में और उस के बाद घर में.

अन्य गतिविधियां करने के लिए उन के पास समय नहीं बचता है जिस से वे स्ट्रैस से मुक्त हो सकें. यह स्ट्रैस ब्लडप्रैशर बढ़ाता है. फास्ट फूड का चलन इस तेजी से भारत में बढ़ा है कि अब भुट्टा, गन्ने का जूस, बेल का शरबत, भेलपुड़ी जैसी चीजें तो बच्चे चखना ही नहीं चाहते हैं. उन को सिर्फ मेक्डोनाल्ड, पिज्जा हट, सबवे जैसी जगहों पर फास्ट फूड खाने में आनंद आता है. फास्ट फूड में पड़ने वाला सोडियम साल्ट, अजीनोमोटो, नमक, चीज, मैदा और बटर शरीर में जा कर जमता है और बच्चों में मोटापा बढ़ता है. अब तो स्कूलकालेज की कैंटीन से भी देसी चीजें गायब हो चुकी हैं.

कढ़ी चावल, राजमा चावल, पूरी सब्जी या वेज थाली की जगह पिज्जा, रोल, समोसे, फिंगर चिप्स, चीज सैंडविच, नूडल्स, पैटीज, कोल्ड ड्रिंक आदि ने ले ली है. स्कूलकालेज की कैंटीन्स में बच्चे इसी तरह का खाना खा रहे हैं और वजन बढ़ा रहे हैं. खेलकूद, पीटी, व्यायाम जैसी चीजें स्कूली गतिविधियों से बाहर हो चुकी हैं. लिहाजा, बच्चों में किडनी, लिवर, ब्रेन और दिल की बीमारियां बढ़ रही हैं. हैल्दी डाइट जरूरी बहुत जरूरी है कि हम समय रहते चेत जाएं. फास्ट फूड से बच्चों को अलग करें.

इस के साथ ही दिन में कम से कम 2 घंटे उन को खेलने के लिए मैदान में भेजें. हाइपरटैंशन का सब से आसान और सटीक इलाज है हैल्दी लाइफस्टाइल और नियमित दवाएं. हैल्दी डाइट से हाइपरटैंशन को कंट्रोल किया जा सकता है. बच्चों को डेली डाइट में ताजे फल, सब्जियां, साबुत अनाज और लो फैट डेयरी प्रोडक्ट्स दें. नमक और सैचुरेटेड फैट का इस्तेमाल खाने में कम करें. खुद भी रैगुलर ऐक्सरसाइज करें और बच्चों को भी इस की आदत डलवाएं. इस के साथ ही पूरी नींद लेना बहुत जरूरी है.

8 से 10 घंटे की नींद बच्चे को ऊर्जावान और हैल्दी बनाती है. लाइफस्टाइल में बदलाव ला कर ही हम अपने बच्चों को ऐसी खतरनाक बीमारियों से बचा सकते हैं. बच्चों का समयसमय पर हैल्थ चैकअप कराना बहुत जरूरी हैं. आंख की रोशनी कम होने की शिकायत बच्चा करे तो सिर्फ चश्मा ही नहीं बनवाएं बल्कि उस के शुगर और बीपी की जांच भी करवाएं. खाने में नमक की मात्रा कम करें और बच्चे का वजन कंट्रोल में रखें. अगर बच्चे में सिरदर्द, दिल की धड़कन बढ़ने या नाक से खून आने जैसे लक्षण दिखें तो फौरन उस का ब्लडप्रैशर चैक करवाएं. ये लक्षण अधिक रक्तचाप या उच्च रक्तचाप का संकट बताते हैं, जिस के लिए तत्काल चिकित्सा या देखभाल की आवश्यकता होती है. इस में लापरवाही न करें.

अंधविश्वास : तांत्रिकों के चक्कर में फंस कर अपनों का खून

21 मई को मुजफ्फरनगर में एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई. अपने ऊपर आए कथित साए से छुटकारा पाने के लिए सगी चाची ने अपनी मां के साथ मिल कर एक महीने के अंदर अपने देवर के 2 बच्चों की हत्या कर दी. दोनों हत्यारिन महिलाओं ने एक तांत्रिक के कहने पर इस जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया था. दरअसल 7 साल के बच्चे केशव के मर्डर केस में मृतक की चाची अंकिता और उस की मां रीना को दोषी पाया गया. चाची ने तांत्रिक के कहने पर एक नहीं बल्कि दो बच्चों की बलि देने का जुर्म कबूल किया. उस ने तांत्रिक भगत रामगोपाल व अपनी मां रीना के कहने पर घर में नीचे अकेला देख कर केशव को दूसरे कमरे में ले जा कर पुराने दुपट्टे से गला दबा कर उसे मार दिया था.

इस के बाद एक कागज के टुकड़े पर लाल रंग से लिख कर छत पर डाल दिया जिस से घर वालों को लगे कि यह किसी ऊपरी साए का काम है. एक माह पहले केशव के छोटे भाई 4 वर्षीय अंकित उर्फ लक्की की भी उसी ने गला दबा कर हत्या की थी, जबकि घरवालों को लगा था कि वह बीमारी से मरा है. जांच के दौरान पुलिस को शव के पास से तंत्रमंत्र का कुछ सामान और एक कागज में कुछ लिखा नजर आया था. पुलिस ने लिखावट का मिलान किया तो मृतक की चाची से लिखावट का मिलान हुआ. उस के बाद कड़ाई से पुलिस ने पूछताछ की तो महिला ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. पुलिस ने इस खौफनाक हत्याकांड में चाची और उस की मां को जेल भेज दिया.

अंधविश्वास के चक्कर में हत्यारिन बनी मां हाल ही में (25 जनवरी, 2024) हरिद्वार में हर की पौड़ी पर तंत्रमंत्र के चक्कर में फंस कर एक मां ने ही 7 साल के बेटे को डुबो कर मार डाला. दरअसल एक तांत्रिक ने कहा था कि हरिद्वार में गंगा की धार में बच्चे को डुबकी लगवाने से उस का ब्लड कैंसर ठीक हो जाएगा. मां ने तांत्रिक की बात सुनी और अपने बीमार बच्चे को हरिद्वार में गंगा की डुबकी लगाने लगी जिस से सांस घुटने से बच्चे की मौत हो गई. जब बच्चे को पानी से निकाला गया तो वह मर चुका था. सामने बच्चे का शव पड़ा था और महिला जोरजोर से पागलों की तरह हंस रही थी. बच्चे की मौत की खबर से अफरातफरी मच गई. उस के मातापिता समेत 3 लोगों को हिरासत में ले लिया गया.

मासूम के साथ की दरिंदगी 3 अक्तूबर, 2023 को पंजाब में एक 4 वर्षीय बच्चे की हत्या करने का मामला सामने आया था. मृतक बच्चे की पहचान रवि राज के रूप में हुई. बच्चे की मां ने पुलिस को बताया कि उस के 3 बच्चे हैं जोकि बैड पर सो रहे थे और वे दोनों पतिपत्नी फर्श पर सो रहे थे. रात में करीब 2 बजे जब उस की आंख खुली तो उस ने देखा, उस का बेटा रवि बिस्तर पर नहीं है और वहां पर एक मोबाइल फोन गिरा था. उन्होंने बच्चे को ढूंढ़ने की कोशिश की. इतने में वहां पुलिस आ गई और बताया कि कुछ दूरी पर एक बच्चे का शव पड़ा हुआ है.

उन्होंने जब जा कर देखा तो शव उन के बेटे का ही था जिस की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी. पुलिस ने सीसीटीवी कैमरे खंगाले. इस जांच के दौरान सामने आया कि पड़ोस में रहने वाला व्यक्ति उन के बच्चे को ले कर जा रहा था. बच्चे की हत्या तांत्रिक के कहने पर देवीदेवताओं की पूजा और बलि चढ़ाने के लिए की गई थी. आरोपी की पहचान अरविंदर कुमार (23) के रूप में हुई. पुलिस द्वारा बच्चे के खून से लथपथ कपड़े व हत्या में इस्तेमाल चाकू को भी जब्त कर लिया गया. रायगढ़ में काला जादू के शक में बेटे ने की पिता की हत्या छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में एक नाबालिग लड़के ने तांत्रिक के कहने में आ कर अपने ही पिता की हत्या कर दी. तांत्रिक ने पिता पर जादूटोना करने का शक जताया था.

इसी शक में बेटे ने अपने साथियों के साथ मिल कर पिता को मार डाला और लाश में पत्थर बांध कर नदी में फेंक दिया. यह मामला 1 अगस्त, 2022 को सामने आया. आरोपी ने हत्या के पीछे वजह बताते हुए कहा कि उस की पत्नी का भाई इस हत्याकांड में शामिल था. घर में सब लोगों की तबीयत खराब होती थी. इसलिए वह एक तांत्रिक के पास गया और तांत्रिक ने उस को खत्म करने के लिए कहा. ये सारी घटनाएं एक ही हकीकत की तरफ इशारा करती हैं. हकीकत यह है कि तंत्रमंत्र के छलावे में आ कर इंसान अपना ही बड़ा नुकसान कर बैठता है.

तांत्रिक और बाबा लोग अपनी बातों के जाल में लोगों को ऐसे फंसा लेते हैं कि इंसान का दिमाग कुंठित हो जाता है. उस के सोचनेसमझने की शक्ति चली जाती है और वह अपनों के खून से ही अपने हाथ रंग लेता है. सच तो यह है कि अंधविश्वास एक ऐसा जाल है जिस में इंसान फंसता ही चला जाता है और उस की शुरुआत कहीं न कहीं किसी बाबा, तांत्रिक या आस्था के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाने वालों से होती है.

इसलिए आप भी अपनी परेशानी से छुटकारा पाने के लिए किसी तांत्रिक के संपर्क में हैं तो जरा सावधान हो जाइए. तांत्रिकों ने अंधविश्वास का ऐसा भ्रम फैला रखा है जिस में भोलेभाले, परेशान लोग आसानी से फंस रहे हैं. परेशान लोगों की पीड़ा खत्म करने के लिए तंत्रमंत्र के माध्यम से लोगों को चूना लगाया जा रहा है. कभी इलाज के नाम पर तांत्रिक किसी की अस्मत लूट रहे हैं तो कभी लाखों रुपए की ठगी कर लेते हैं और कभी किसी की हत्या कराई जाती है. लोगों को इस जंजाल की जानकारी तब होती है जब तांत्रिक उन से करतूतें करवा कर किनारा कर लेता है. औनलाइन जाल में भी फंसाते हैं बाबा और तांत्रिक आजकल औनलाइन का जमाना है और तांत्रिक बाबा इस तकनीक का भी इस्तेमाल कर लोगों को अंधविश्वास के जाल में फंसा रहे हैं.

इस के एवज में वे उन से मोटी रकम वसूल करते हैं. राजधानी दिल्ली की अगर बात करें तो यहां 2-3 हजार से ज्यादा बाबा या तांत्रिक अपने धंधे को स्वतंत्र रूप से संचालित कर रहे हैं. ये बाबा काला जादू और चमत्कारी शक्तियों की मदद से लोगों को उन का खोया हुआ प्यार, नौकरी ढूंढ़ने में मदद, बीमारियों से नजात और घर खरीदने में मदद के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं. इन बाबाओं के नाम भी उन के काम से ही मिलताजुलता होता है, जैसे बाबाजी, वशीकरण गुरुजी, बंगाली बाबा, तांत्रिक बाबा खान बंगाली आदि.

इन्होंने अपने बिजनैस को औनलाइन भी फैला रखा है. बाकायदा उन की अपनी वैबसाइट है, फोन नंबर है जिस के जरिए वे लोगों को उन की परेशानियों से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं और लोगों से पैसे ऐंठते हैं. ये लोग यूट्यूब के जरिए भी पैसे कमा रहे हैं. अपने यूट्यूब चैनल में ये खोया हुआ प्यार वापस मिलना, दुश्मनों से छुटकारा, जमीन में गड़ा हुआ धन का पाना, सौतन से छुटकारा, जमीनी विवाद सुलझाना, मनचाहा प्यार पाना संबंधी वीडियो डालते रहते हैं और लोगों को अंधविश्वास के जाल में फंसाते रहते हैं.

कुछ यूट्यूब चैनल तो ऐसे भी हैं जिन के पास लाखों की संख्या में सब्सक्राइबर्स (ग्राहक) हैं. काला जादू और वशीकरण के नाम पर ये बाबा ‘निराश’ लोगों को इस कदर बेवकूफ बनाते हैं कि वे तुरंत ही उन की चिकनीचुपड़ी बातों में आ जाते हैं और बाबा को अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं. ये सिर्फ झोलाछाप बाबा और तांत्रिक नहीं हैं जो प्यार और वैवाहिक समस्याओं के जादुई समाधान प्रदान करते हैं बल्कि कई पढ़ेलिखे और इंग्लिश बोलने वाले ज्योतिषी भी हैं जो इस तरह का दावा करते हैं. जागरूकता जरूरी हमारे देश की सब से बड़ी विडंबना यह है कि यहां अंधविश्वासों और अंधविश्वासियों की कमी नहीं है.

लोग बहुत जल्द छलावों में फंसते हैं. जिंदगी में थोड़ी सी उथलपुथल हुई नहीं कि चल दिए तांत्रिकबाबा के पास. यही बाबा मौके का फायदा उठाते हैं और आस्था के नाम पर डरा कर, तंत्रमंत्र का जाल बना कर लोगों को अपनी गिरफ्त में कर लेते हैं और उन से मोटी रकम वसूल करते हैं. इस तरह का जाल फैलाने वाले बाबाओं पर लगाम लगाने की जरूरत है और इस के लिए सब से जरूरी है लोगों का जागरूक होना. जब तक हम नहीं चाहेंगे, कोई हमारे दिमाग से नहीं खेल सकेगा. बस, हमें अपना दिमाग खुला रखना है. जिंदगी में जैसा भी समय आए, सोचसमझ कर फैसले लेने हैं और तांत्रिकों के रूप में लूटने वाले लुटेरों से सावधान रहना है.


	

अंधेरे उजाले

सुदेश अपनी पत्नी तनवी के साथ एक होटल में ठहरा था. होटल के अपने कमरे में टीवी पर समाचार देख वह एकदम परेशान हो उठा. राजस्थान अचानक गुर्जरों की आरक्षण की मांग को ले कर दहक उठा था. वहां की आग गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, दनकौर, दादरी, मथुरा, आगरा आदि में फैल गई थी.

वे दोनों बच्चों को घर पर नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आए थे. तनवी दिल्ली अपने अर्थशास्त्र के शोध से संबंधित कुछ जरूरी किताबें लेने आई थी. सुदेश उस की मदद को संग आया था. 1-2 दिन में किताबें खरीद कर वे लोग घर वापस लौटने वाले थे लेकिन तभी गुर्जरों का यह आंदोलन छिड़ गया.

अपनी कार से उन्हें वापस लौटना था. रास्ते में नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद का हाईवे पड़ेगा. वाहनों में आगजनी, बसों की तोड़फोड़, रेल की पटरियां उखाड़ना, हिंसा, मारपीट, गोलीबारी, लंबेलंबे जाम…क्या मुसीबत है. बच्चों की चिंता ने दोनों को परेशान कर दिया. उन के लिए अब जल्दी से जल्दी घर पहुंचना जरूरी है.

‘‘क्या होता जा रहा है इस देश को? अपनी मांग मनवाने का यह कौन सा तरीका निकाल लिया लोगों ने?’’ तनवी के स्वर में घबराहट थी.

वोटों की राजनीति, जातिवाद, लोकतंत्र के नाम पर चल रहा ढोंगतंत्र, आरक्षण, गरीबी, बेरोजगारी, बढ़ती आबादी आदि ऐसे मुद्दे थे जिन पर चाहता तो सुदेश घंटों भाषण दे सकता था पर इस वक्त वह अवसर नहीं था. इस वक्त तो उन की पहली जरूरत किसी तरह होटल से सामान समेट कर कार में ठूंस, घर पहुंचना था. उन्हें अपने बच्चों की चिंता लगातार सताए जा रही थी.

फोन पर दोनों बच्चों, वैभव और शुभा से तनवी और सुदेश ने बात कर के हालचाल पूछ लिए थे. नौकरानी से भी बात हो गई थी पर नौकरानी ने यह भी कह दिया था कि साहब, दिल्ली का झगड़ा इधर शहर में भी फैल सकता है… हालांकि अपनी सड़क पर पुलिस वाले गश्त लगा रहे हैं…पर लोगों का क्या भरोसा साहब…

आदमी का आदमी पर से विश्वास ही उठ गया. कैसा विचित्र समय आ गया है. हम सब अपनी विश्वसनीयता खो बैठे हैं. किसी को किसी पर भरोसा नहीं रह गया. कब कौन आदमी हमारे साथ गड़बड़ कर दे, हमें हमेशा यह भय लगा रहता है.

सामान पैक कर गाड़ी में रखा और वे दोनों दिल्ली से एक तरह से भाग लिए ताकि किसी तरह जल्दी से जल्दी घर पहुंचें.

बच्चों की चिंता के कारण सुदेश गाड़ी को तेज रफ्तार से चला रहा था. तनवी खिड़की से बाहर के दृश्य देख रही थी और वह तनवी को देख कर अपने अतीत के बारे में सोचने लगा.

शहर में हो रही एक गोष्ठी में सुदेश मुख्य वक्ता था. गोष्ठी के बाद जलपान के वक्त अनूप उसे पकड़ कर एक युवती के निकट ले गया और बोला, ‘सुदेश, इन से मिलो…मिस तनवी…यहां के प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय में अर्थशास्त्र की जानीमानी प्रवक्ता हैं.’

‘मिस’ शब्द से चौंका था सुदेश, एक पढ़ीलिखी, प्रतिष्ठित पद वाली ठीकठाक रंगरूप की युवती का इस उम्र तक ‘मिस’ रहना, इस समाज में मिसफिट होने जैसा लगता है. अब तक मिस ही क्यों? मिसेज क्यों नहीं? यह सवाल सुदेश के दिमाग में कौंध गया था.

‘और मिस तनवी, ये हैं मिस्टर सुदेश कुमार…यहां के महाविद्यालय में समाज- शास्त्र के जानेमाने प्राध्यापक, जातिवाद के घनघोर आलोचक….अखबारों में दलितों, पिछड़ों और गरीबों के जबरदस्त पक्षधर… इस कारण जाति से ब्राह्मण होने के बावजूद लोग इन की पैदाइश को ले कर संदेह जाहिर करते हैं और कहते हैं, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है वरना इन्हें किसी हरिजन परिवार में ही पैदा होना चाहिए था.’

अनूप की बातों पर सुदेश का ध्यान नहीं था पर ‘कुमार’ शब्द उस ने जिस तरह तनवी के सामने खास जोर दे कर उच्चारित किया था उस से वह सोच में पड़ गया था.

अनूप ने कहा, ‘है तो यह अशिष्टता पर मिस तनवी की उम्र 28-29 साल, मिजाज तेजतर्रार, स्वभाव खरा, नकचढ़ा…टूटना मंजूर, झुकना असंभव. इन की विवाह की शर्तें हैं…कास्ट एंड रिलीजन नो बार. पति की हाइट एंड वेट नो च्वाइस. कांप्लेक्शन मस्ट बी फेयर, हायली क्वालीफाइड…सेलरी 5 अंकों में. नेचर एडजस्टेबल. स्मार्ट बट नाट फ्लर्ट. नजरिया आधुनिक, तर्कसंगत, बीवी को जो पांव की जूती न समझे, बराबर की हैसियत और हक दे. दकियानूस और अंधविश्वासी न हो.

अनूप लगातार जिस लहजे में बोले जा रहा था उस से सुदेश को एकदम हंसी आ गई थी और तनवी सहम सी गई थी, ‘अनूपजी, आप पत्रकार लोगों से मैं झगड़ तो सकती नहीं क्योंकि आज झगडं़ूगी, कल आप अखबार में खिंचाई कर के मेरे नाम में पलीता लगा देंगे, तिल होगा तो ताड़ बता कर शहर भर में बदनाम कर देंगे…पर जिस सुदेशजी से मैं पहली बार मिल रही हूं, उन के सामने मेरी इस तरह बखिया उधेड़ना कहां की भलमनसाहत है?’

‘यह मेरी भलमनसाहत नहीं मैडम, आप से रिश्तेदारी निभाना है…असल में आप दोनों का मामला मैं फिट करवाना चाहता हूं…वह नल और दमयंती का किस्सा तो आप ने सुना ही होगा…बेचारे हंस को दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ी थी…आजकल हंस तो कहीं रह नहीं गए कि नल और दमयंती की जोड़ी बनवा दें. अब तो हम कौए ही रह गए हैं जो यह भूमिका निभा रहे हैं.

‘आप जानती हैं, मेरी शादी हो चुकी है, वरना मैं ही आप से शादी कर लेता…कम से कम एक बंधी हुई रकम कमाने वाली बीवी तो मुझे मिलती.

अपने नसीब में तो घरेलू औरत लिखी थी…और अपन ठहरे पत्रकार…कलम घसीट कर जिंदगी घसीटने वाले…हर वक्त हलचल और थ्रिल की दुनिया में रहने वाले पर अपनी निजी जिंदगी एकदम रुटीन, बासी…न कोई रोमांस न रोमांच, न थ्रिल न व्रिल. सिर्फ ड्रिल…लेफ्टराइट, लेफ्ट- राइट करते रहो, कभी यहां कभी वहां, कभी इस की खबर कभी उस की खबर…दूसरों की खबरें छापने वाले हम लोग अपनी खबर से बेखबर रहते हैं.’

बाद में अनूप ने तनवी के बारे में बहुत कुछ टुकड़ोंटुकड़ों में सुदेश को बताया था और उस से ही वह प्रभावित हुआ था. तनवी उसे काफी दबंग, समझदार, बोल्ड युवती लगी थी, एक ऐसी युवती जो एक बार फैसला सोचसमझ कर ले तो फिर उस से वापस न लौटे. सुदेश को ढुलमुल, कमजोर दिमाग की, पढ़ीलिखी होने के बावजूद बेकार के रीतिरिवाजों में फंसी रहने वाली अंधविश्वासी लड़कियां एकदम गंवार और जाहिल लगती थीं, जिन के साथ जिंदगी को सहजता से जीना उसे बहुत कठिन लगता था, इसी कारण उस ने तमाम रिश्ते ठुकराए भी थे. तनवी उसे कई मानों में अपने मन के अनुकूल लगी थी, हालांकि उस के मन में एक दुविधा हमेशा रही थी कि ऐसी दबंग युवती पतिपत्नी के रिश्ते को अहमियत देगी या नहीं? उसे निभाने की सही कोशिश करेगी या नहीं? विवाह एक समझौता होता है, उस में अनेक उतारचढ़ाव आते हैं, जिन्हें बुद्धिमानी से सहन करते हुए बाधाओं को पार करना पड़ता है.

कसबे में तनवी का वह निर्णय खलबली मचा देने वाला साबित हुआ था. देखा जाए तो बात मामूली थी, ऐसी घटनाएं अकसर शादीब्याह में घट जाया करती हैं पर मानमनौवल और समझौतों के बाद बीच का रास्ता निकाल लिया जाता है. तनवी ने बीच के सारे रास्ते अपने फैसले से बंद कर दिए थे.

तनवी की शादी जिस लड़के से तय हुई थी वह भौतिक विज्ञान के एक आणविक संस्थान में काम करने वाला युवक था. बरात दरवाजे पर पहुंची. औपचारिकताओं के लिए दूल्हे को घोड़ी से उतार कर चौकी पर बैठाया गया. लकड़ी की उस चौकी के अचानक एक तरफ के दोनों पाए टूट गए और दूल्हे राजा एक तरफ लुढ़क गए. द्वारचार के उस मौके पर मौजूद बुजुर्गों ने कहा कि यह अपशकुन है. विवाह सफल नहीं होगा. दूल्हे राजा उठे और लकड़ी की उस चौकी में ठोकर मारी, एकदम बौखला कर बोले, ‘ऐसी मनहूस लड़की से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगा. इस महत्त्वपूर्ण रस्म में बाधा पड़ी है. अपशकुन हुआ है.’

क्रोध में बड़बड़ाते दूल्हे राजा दरवाजे से लौट गए. ‘मुझे नहीं करनी शादी इस लड़की से,’ उन का ऐलान था. पिता भी बेटे की तरफ. सारे बुजुर्ग भी उस की तरफ. रंग में भंग पड़ गया.

बाद में पता चला कि चौकी बनाने वाले बढ़ई से गलती हो गई थी. जल्दबाजी में एक तरफ के पायों में कीलें ठुकने से रह गई थीं और इस मामूली बात का बतंगड़ बन गया था.

तनवी ने यह सब सुना तो फिर उस ने भी यह कहते हुए शादी से इनकार कर दिया, ‘ऐसे तुनकमिजाज, अंधविश्वासी और गुस्सैल युवक से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगी.’

तनवी के इस फैसले ने एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया. लड़के वालों को उम्मीद थी कि लड़की वाले दबाव में आएंगे. अपनी इज्जत का वास्ता देंगे, मिन्नतें करेंगे, लड़की की जिंदगी का सवाल ले कर गिड़गिड़ाएंगे.

तनवी के पिता और मामा लड़के के और उन के परिवार वालों के हाथपांव जोड़ने पहुंचे भी, किसी तरह मामला सुलटने वाला भी था पर तनवी के इनकार ने नई मुसीबत खड़ी कर दी. पिता और मामा ने तनवी को बहुत समझाया पर वह किसी प्रकार उस विवाह के लिए राजी नहीं हुई.

उस ने कह दिया, ‘जीवन भर कुंआरी रह लूंगी पर इस लड़के से शादी किसी भी कीमत पर नहीं करूंगी. नौकरी कर रही हूं. कमाखा लूंगी, भूखी नहीं मर जाऊंगी, न किसी पर बोझ बनूंगी. उस का निर्णय अटल है, बदल नहीं सकता.’

कसबे में तमाम चर्चाएं चलने लगीं…लड़की का पहले से किसी लड़के से संबंध है. कसबे के किन्हीं परमानंद बाबू ने इस अफवाह को और हवा दे दी. बताया कि जिस कालिज में तनवी नौकरी करती है, उस के प्रबंधक के लड़के के साथ वह दिल्ली, कोलकाता घूमतीफिरती है. होटलों में अकेली उस के साथ एक ही कमरे में रुकती है. चालचलन कैसा होगा, लोग स्वयं सोच लें. कसबे के भी 2-3 युवकों से उस के संबंध होने की बातें कही जाने लगीं. दूसरे के फटे में अपनी टांग फंसाना कसबाई लोगों को खूब आता है.

पत्रकार अनूप तनवी का रिश्ते में कुछ लगता था. उस विवाह समारोह में वह भी शामिल हुआ था इसलिए उसे सारी घटनाओं और स्थितियों की जानकारी थी.

‘बदनाम हो जाओगी. पूरी जाति- बिरादरी में अफवाह फैल जाएगी. फिर तुम से कौन शादी करेगा?’ मामा ने समझाना चाहा था.

सुदेश ने अनूप से शंका प्रकट की, ‘ऐसी जिद्दी लड़की से शादी कैसे निभेगी, यार?’

‘सुदेशजी, इस बीच गुजरे वक्त ने तनवी को बहुत कुछ समझा दिया होगा. 28-29 साल कुंआरी रह ली. बदनामी झेल ली. नातेरिश्तेदारों से कट कर रह ली. इन सब बातों ने उसे भी समझा दिया होगा कि बेकार की जिद में पड़ कर सहज जीवन नहीं जिया जा सकता. सहज जीवन जीने के लिए हमें अपना स्वभाव नरम रखना पड़ता है. कहीं खुद झुकना पड़ता है, कहीं दूसरे को झुकाने का प्रयत्न करना पड़ता है. इस सिलसिले में तनवी से बहुत बातें हुई हैं मेरी. उसे भी जिंदगी की ऊंचनीच अब समझ में आने लगी है.’

अनूप के इतना कहने पर भी सुदेश के भीतर संदेह का कीड़ा हमेशा रेंगता रहा. एक तरफ तनवी का दृढ़निश्चयी होना सुदेश को प्रभावित करता था. दूसरी तरफ उस का अडि़यल रवैया उसे शंकालु भी बनाता था.

अपनी सारी शंकाओं को उस दिन रिश्ता पक्का करने से पहले सुदेश ने अनूप के सामने तनवी पर जाहिर भी कर दिया था. तनवी सचमुच गंभीर थी, ‘मैं जैसी हूं, आप जान चुके हैं. विवाह का मतलब मैं अच्छी तरह जानती हूं. बिना समझौते व सामंजस्य के जीवन को नहीं जिया जा सकता, यह भी समझ गई हूं. मेरी ओर से आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’

‘विवाहित जिंदगी में छोटीमोटी नोकझोंक, झगड़े, विवाद होने स्वाभाविक हैं. मैं कोशिश करूंगा, तुम्हारी कसबाई घटनाओं को कभी बीच में न दोहराऊं…उन बातों को तूल न दूं जो बीत चुकी हैं.’

‘मैं भी कोशिश करूंगी, जिंदगी पूरी तरह नए सिरे से, नई उमंग और नए उत्साह के साथ शुरू करूं…इतिहास दोहराने के लिए नहीं होता, दफन करने के लिए होता है.’

मुसकरा दिया था सुदेश और अनूप भी खुश हो गया था.

अचानक तनवी ने कुछ पूछा तो अतीत की यादों में खोया सुदेश उसे देख कर हंस दिया.

उन की शादी को पूरे 8 साल गुजर गए थे. 2 बच्चे थे. शुभा 7 साल की, वैभव 5 साल का. ऐसा नहीं है कि इन 8 सालों में उन के बीच झगड़े नहीं हुए, विवाद नहीं हुए. पर पुराने गड़े मुर्दे जान- बूझ कर न सुदेश ने उखाड़े न तनवी ने उन्हें उखड़ने दिया. जीवन के अंधेरे- उजाले संगसंग गुजारे.

कंट्रोवर्सी हिंदू धर्म को प्रचारित करने का नया हथकंडा

भाजपा सहित सभी हिंदू संगठन इस से आहत हैं कि यह पोल भी क्यों खोली जा रही है. यशराज फिल्म्स निर्मित व सिद्धार्थ पी मल्होत्रा निर्देशित इस फिल्म को पुष्टिधर्म संप्रदाय, बजरंग दल, हिंदू महासभा व प्रज्ञा ठाकुर की तरफ से गुजरात हाईकोर्ट में घसीटा गया. हिंदू धर्म व सनातन धर्म के प्रति लोगों को नया मुद्दा लडऩेझगडऩे को देने के लिए बजरंग दल, भाजपा और हिंदू महासभा संगठनों से जुड़े लोगों ने मुंबई के बीकेसी में स्थित ‘नेटफ्लिक्स’ के दफ्तर पर हमला बोला था. यह तब है जब आसाराम बापू व उन के बेटे के अलावा ‘डेरा सौदा’ के गुरमीत राम रहीम को उन के औरतों से कुकर्मो के कारण जेल भेजा जा चुका है. फिल्म ‘महाराज’ का विरोध करने के लिए अदालत जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई जबकि सौरभ शह की किताब ‘महाराज’ को पुरस्कृत भी किया गया था. इस तरह का विरोध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना है. यह 1952 के सिनेमेटोग्राफी एक्ट को खत्म करने की शुरुआत तो नहीं है?

19वीं सदी में जब भारत पर ब्रिटिश शासन था, उसी दौर में ‘महाराज लाइबेल केस’ घटित हुआ था. 5 अप्रैल, 1862 को बौम्बे सुप्रीम कोर्ट (वर्तमान में मुंबई हाईकोर्ट’) ने उस वक्त मुंबई में वैष्णव संप्रदाय की बड़ी हवेली/मंदिर के मुख्य पुजारी यदुनाथ ब्रजरतन महाराज द्वारा पत्रकार व समाज सुधारक करसनदास मूलजी के खिलाफ दायर 50 हजार रुपए के मानहानि केस पर फैसला सुनाते हुए करसनदास मूलजी के पक्ष में फैसला दिया था.

क्या है ‘महाराज लाइबेल केस 1862’

वैष्णव पुष्टिमार्ग की स्थापना 16वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य द्वारा की गई थी और यह कृष्ण को सर्वोच्च मान कर पूजा करता है. संप्रदाय का नेतृत्व वल्लभ के प्रत्यक्ष पुरुष वंशजों के पास रहा, जिन के पास महाराजा की उपाधियां थीं. धार्मिक रूप से वल्लभ और उन के वंशजों को कृष्ण की कृपा के लिए मध्यस्थ व्यक्ति के रूप में आंशिक देवत्व प्रदान किया गया है और कहा गया कि ये महाराज भक्त को तुरंत कृष्ण की उपस्थिति प्रदान करने में सक्षम हैं. 19वीं सदी में महाराज यदुनाथ ब्रजरतन महाराजजी ने अपने तरीके से वैष्णव पुष्टि मार्ग संप्रदाय का न सिर्फ प्रचार किया, बल्कि बड़ी हवेली/मंदिर के लिए अटूट धन जमा कर मंदिर के सभी पुजारियों का महत्त्व खत्म कर खुद ही निरंकुश शासक की तरह काम करने लगे.

महाराज यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने भगवान कृष्ण की स्तुति वाले एक भजन की कुछ पंक्तियों का भावार्थ अपने तरीके से धर्म के अंधभक्तों व धर्मावलंबियों को समझाया कि मोक्ष पाने के लिए हर नारी को अपना तन स्वेच्छा से महाराज को समर्पित करना चाहिए और उन्होंने महाराज के ‘चरण सेवा’ नाम से प्रथा की शुरुआत की.

इस प्रथा के तहत संप्रदाय से जुड़ी हर अविवाहित को विवाह करने से पहले महाराज यदुनाथ की चरण पादुकाओं को निकाल कर उन के साथ यौन संबंध बनाना होता है. यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने तो हर पुरूष को यही सिखाया कि उन्हें अपनी पत्नियों को भी ‘चरण सेवा’ के लिए भेजना चाहिए. ‘चरण सेवा’ मंदिर के पीछे हवेली के बड़े हौल में होती थी. इस प्रथा का आनंद लेने के लिए कोई भी पुरुष एक मोटी रकम या सोने का जेवर चढ़ावा में दे कर हवेली में बनी खिड़कियों से चुपचाप ‘चरण सेवा’ प्रथा का नयन सुख ले सकता था. इसे वर्तमान परिस्थिति में आप ‘पोर्न फिल्म’ देखने की संज्ञा दे सकते हैं.

फिल्म की कहानी

कहानी के अनुसार गुजरात के कच्छ गांव में जन्मे करसनदास मूलजी बचपन से ही ‘महिलाएं घूंघट क्यों ओढ़ती हैं?’ या ‘क्या देवता उन की भाषा बोल सकते हैं?’ जैसे सवाल पूछना शुरू करता है. करसन की मां की मौत के बाद उस के पिता करसनदास को बौम्बे (वर्तमान मुंबई) में उस के मामा और विधवा मौसी (स्नेहा देसाई) के पास छोड़ जाते हैं. जहां पढ़लिख कर करसनदास पत्रकार के रूप में दादाभाई नौरोजी (सुनील गुप्ता) जैसे प्रगतिशील पुरुषों के साथ काम करते हुए दादाभाई नौरोजी के अखबार में समाज सुधारक लेख लिखते हैं.

मसलन, वे अपने लेख में विधवा विवाह की वकालत करते हैं. करसनदास मूलजी स्वयं वैष्णव संप्रदाय से हैं. वे धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी अंधविश्वास में विश्वास नहीं करते हैं. करसन की सगाई किशोरी (शालिनी पांडे) से होती है. वे किशोरी की पढ़ाई पूरी होने पर उस से शादी करने वाले हैं. किशोरी यदुनाथजी ब्रजरातन महाराज (जयदीप अहलावत) की भक्त है. होली के त्योहार वाले दिन यदुनाथ ब्रजरातन महाराज जी, भगवान कृष्ण को रंग लगाने के बाद होली खेलने का ऐलान करते हैं. उस के बाद वे किशोरी को ‘चरण सेवा’ समारोह के लिए चुनते हैं.

करसनदास हवेली के अंदर किशोरी को यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख कर हर बाधा को पार कर यदुनाथ व किशोरी तक पहुंच जाता है. मगर उस वक्त किशोरी, जिसे मोक्ष मिलने की आशा है, यदुनाथ के साथ यौन संबंध बनाए बिना करसन के साथ चलने से इनकार कर देती है. यदुनाथ कहते हैं कि वे किसी भी लडक़ी के साथ जबरन कुछ नहीं करते. यदुनाथ, कृष्ण भजन की पंक्ति व गीता के एक श्लोक को संस्कृत में पढ़ कर हिंदी में उस की मनमानी ढंग से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मोक्ष पाने के लिए भगवान को तनमनधन सबकुछ समर्पित करना होता है. तन का समर्पण ही ‘चरण सेवा’ है.

करसन, किशोरी संग विवाह करने से इनकार करने के साथ ही ‘चरण सेवा’ प्रथा पर भी सवाल उठाता है. करसनदास की राय में यह तो नारी का शोषण है. फिर ‘चरण सेवा’ और यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के कुकर्म के खिलाफ आवाज उठाने का निर्णय लेता है. यदुनाथ महाराज की ‘चरण सेवा’ के खिलाफ करसन लेख लिखता है, पर दादाभाई नौरोजी अपने अखबार में छापने से मना कर देते हैं. उन की राय में वे ‘बड़ी हवेली’ के पुजारी यदुनाथ के खिलाफ कुछ भी नहीं छापेंगे. तब करसन गुजराती भाषा में ही अपना अखबार ‘सत्य प्रकाश’ निकाल कर उस में पुजारी यदुनाथ ब्रजरतन व ‘चरण सेवा’ प्रथा के विरोध में लगातार लेख छापना शुरू करता है.

करसन अपनी तरफ से समाज को शिक्षित करने की कोशिश करता है, लेकिन उस के समुदाय के लोग महाराज को अपने परिवार की महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कोई बुराई देखने के बजाय उस दिन घर पर खुशी में मिठाई बनाते हैं. इधर यदुनाथ दबाव बनाते हैं, जिस के चलते करसन के पिता भी उसे त्याग देते हैं. सभी दबाव असफल होने के बाद यदुनाथ ब्रजरतन महाराज, अदालत में करसन के खिलाफ 50 हजार रुपए का मानहानि का मुकदमा करते हैं. अदालत में करसन दास को पराजित करने के लिए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने महिलाओं से कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराने से ले कर उन्हें अपनी आलोचना करने से रोका. यह बात अदालत के अंदर उजागर होती है. अदालत के अंदर वादी ने 31 गवाह पेश किए, जबकि प्रतिवादी ने 33 गवाह पेश किए. बौम्बे सुप्रीम कोर्ट 5 अप्रैल, 1862 को करसन दास मूलजी के पक्ष में निर्णय देते हुए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज पर क्रिमिनल केस करने की बात कही.

पहले 14 जून को फिल्म प्रदर्शित होने वाली थी

यशराज फिल्मस निर्मित व सिद्धार्थ पी मल्होत्रा निर्देषशित फिल्म ‘महाराज’ को नेटफ्लिक्स 14 जून से अपने प्लेटफौर्म पर बिना किसी प्रमोशन व शोरगुल के चुपचाप स्ट्रीम करने वाला था. 13 जून को यशराज फिल्मस ने अंधेरी, मुंबई स्थित अपने स्टूडियो में ही पत्रकारों को बुला कर फिल्म ‘महाराज’ दिखाई. यहां मुंबई में पत्रकार इस फिल्म को देख रहे थे, उसी वक्त गुजरात और राजस्थान में मजबूत जड़ें रखने वाले हिंदू वैष्णव समुदाय, पुष्टिमार्ग संप्रदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाते हुए गुजरात हाईकोर्ट में फिल्म को बैन करने की गुहार लगाई और अदालत ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी.

फिल्म देख चुके पत्रकारों को आश्चर्य हुआ कि फिल्म के प्रदर्शन पर रोक क्यों लगाई गई. इन सभी को तो फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा था. हंसी इस बात पर आ रही थी कि सौरभ शाह की जिस पुस्तक ‘महाराज’ को 2013 में पुरस्कृत किया गया, उसी पर बनी फिल्म का विरोध हो रहा है. उधर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने भी फिल्म को रोकने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया. 13 जून को ही गुजरात के साथ मुंबई की अदालत में भी मुकदमे चले और दोनों जगह इस फिल्म पर रोक लगा दी गई थी.
गुजरात हाईकोर्ट ने 18 जून को फिर सुनवाई करने का आदेश दिया था. यशराज फिल्मस और नेटफ्लिक्स ने अपना पक्ष रखने के लिए मुकुल रोहतगी सहित 26 एडवोकेट की एक फौज खड़ी कर दी. आखिरकार, गुजरात हाईकोर्ट की न्यायाधीष ने 21 जून को फिल्म में कुछ भी अपत्तिजनक न होने की बात कह इसे प्रदर्शित करने का आदेश सुना दिया.

अदालत में सुनवाई के दौरान क्याक्या हुआ?

नेटफ्लिक्स और यशराज फिल्मस की तरफ से पक्ष रखते हुए वरिष्ट वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत से कहा है कि हम इतिहास को बदल नहीं सकते, फिर चाहे वह किसी को पसंद आए या न आए.

याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि ब्रिटिश काल की अदालत ने मानहानि मामले का फैसला किया था और हिंदू धर्म की निंदा की थी. उस फैसले में भगवान श्रीकृष्ण के साथसाथ भक्ति गीतों और भजनों के खिलाफ भी गंभीर निंदनीय टिप्पणी की गई थी लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सब ब्रिटिशकाल में हुआ था.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि ‘‘याचिकाकर्ता की मांग बिलकुल बेतुकी है.” उन्होंने कहा, “फिल्म को बैन करने और इस के सैंसरशिप सर्टिफिकेट को रद्द करने की याचिकाकर्ताओं की दोनों मांग बेतुकी हैं. याचिकाकर्ता को तो यह भी नहीं पता कि यह फिल्म ओटीटी पर स्ट्रीम होगी, जिस के लिए सैंसर प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होती. इस याचिका की कार्रवाई पूरी तरह से मनगढ़ंत और आर्टिफिशियल है.”

मुकुल रोहतगी ने आगे कहा, “याचिकाकर्ताओं में से एक अहमदाबाद के बिजनैसमैन हैं. उन्होंने उस किताब के खिलाफ तो कभी कोई कदम नहीं उठाया, जिस पर यह फिल्म आधारित है. या फिर इंटरनैट पर इस विषय पर ढेर सारे कंटैंट हैं, लेकिन उन्होंने वहां भी विरोध में कोई कदम नहीं उठाया. फिल्म बनाना, उस का निर्माण करना या उसे एक स्टेज पर दुनिया के सामने रखना कोई छोटी बात नहीं है. इस में बहुत सारा पैसा और मेहनत लगती है.’’

वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने तर्क देते हुए आगे कहा, ‘‘1862 के मानहानि केस में अदालत ने जो भी फैसला लिया था, वह कानूनी इतिहास है. फिल्म इसी पर आधारित है. अब चाहे हमें वह फैसला पसंद हो या न हो, हम कानूनी इतिहास को मिटा तो नहीं सकते. याचिकाकर्ता को फैसले में इस्तेमाल की गई भाषा पर आपत्ति है पर इस तर्क के लिए आप फिल्म पर तो रोक नहीं लगा सकते. ब्रिटिशकाल में भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानी को फांसी दी गई. यह भी अदालत का फैसला था. जाहिर तौर पर हमें यह पसंद नहीं है लेकिन यह इतिहास का हिस्सा है.’’

‘बैंडिट क्वीन’ पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दिया हवाला

मुकुल रोहतगी ने जिरह के दौरान बैंडिट क्वीन फिल्म का भी हवाला दिया. उन्होंने अदालत से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म में विवादास्पद दृश्यों के बावजूद कलात्मक स्वतंत्रता को बरकरार रखा था. सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में समाज की वास्तविकता को सिनेमा के माध्यम से दिखाने के तर्क को भी स्वीकार किया था.

धार्मिक भावनाओं के आहत होने का आरोप

याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया कि यदि फिल्म को प्रदर्शित करने की अनुमति दी जाती है तो धार्मिक भावनाएं गंभीर रूप से आहत होंगी. इस से संप्रदाय विशेष के अनुयायियों के खिलाफ हिंसा भडक़ने की संभावना है. मगर सच यह है कि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है.

फिल्म में नारीशोषण के विरोध के साथ धर्म का महिमामंडन

हकीकत में फिल्म ‘महाराज’ देखने पर एहसास होता है कि यह फिल्म इतिहास के एक पन्ने को उठाते हुए जहां ‘चरण सेवा’ जैसी कुप्रथा का विरोध कर नारी शोषण के खिलाफ बात जरूर करती है, वहीं यह फिल्म हिंदू व सनातन धर्म का महिमामंडन भी करती है. जब करसनदास मूलजी, यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के कुकर्मों के बारे में अपने गुजराती अखबार ‘सत्य प्रकाश’ में लेख छापते हैं तो धर्मावलंबियों को गुस्सा दिलाने व उन्हें करसनदास के खिलाफ भडक़ाने के लिए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज मंदिर के दरवाजे बंद करा देते हैं क्योंकि उन दिनों हजारों लोग सुबह भगवान कृष्ण की आरती का हिस्सा बनने व कृष्ण के दर्शन करने के बाद ही कुछ खातेपीते थे. तब करसनदास मूलजी ने मंदिर के सामने मौजूद पेड़ के नीचे भगवान कृष्ण की बड़ी तसवीर रख कर उस की आरती कर लोगों से प्रसाद ग्रहण कर खाने के लिए कहता है. अब यहां भगवान का अपमान कहां है? यह तो हिंदू धर्म व कृष्ण भगवान का महिमामंडन ही है. शायद इतनी हिम्मत यशराज फिल्म्स के निर्माताओं की नहीं है कि वे पूरे तौर पर हिंदू या किसी धर्म की भूल-गलतियों की ओर जनता का ध्यान खींच सकें. ‘सरिता’ ने स्वयं 1945 से ही इस तरह के मुकदमों को झेला है जिन में कभीकभार कट्टरपंथी जजों ने कड़ा रुख अपनाया पर अपीलों में हर बात साबित हो गई.

हिंदू धर्म की आड़ में यौनशोषण बंद कहां?

धार्मिक व आध्यात्मिक गुरुओं पर यौनशोषण के गंभीर आरोपों को कभी भी माफ नहीं किया जा सकता. फिल्म में तो 19वीं सदी की सत्य घटना का चित्रण है जबकि यह सब 21वीं सदी में भी लगातार जारी है. आसाराम बापू व उन के बेटे भी धर्म की आड़ में नारियों का यौनशोषण व हत्याओं के मामले में ही जेल के अंदर हैं. तो वहीं ‘डेरा सौदा’ के गुरमीत राम रहीम सिंह भी धर्म की आड़ में अपने कुकर्मों के चलते जेल के अंदर हैं.

कुछ समय पहले फिल्मकार प्रकाश झा धर्मगुरुओं के कुकर्मों की पोल खोलने वाली वैब सीरीज ‘आश्रम’ और ‘आश्रम 2’ भी ला चुके हैं. नेटफ्लिक्स या यशराज फिल्मस को भी ‘महाराज’ में करसनदास मूलजी का किरदार निभा कर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत कर रहे परफैक्शनिस्ट अभिनेता के रूप मे मशहूर आमिर खान के बेटे जुनैद खान जिस तरह से हिंदू राष्ट्रवादियों के निशाने पर आए, उस से जुनैद खान के कैरियर को नुकसान जरूर हुआ है.

वे पहले से ही भाईभतीजावाद का आरोप झेलते आए हैं. यों भी जुनैद खान अभी अति नौसिखिया अभिनेता हैं. उन्होंने अपने कैरियर की पहली फिल्म में ही इस चुनौतीपूर्ण किरदार को निभाना स्वीकार कर हिम्मती काम किया.

सोशल मीडिया ट्रोलिंग बनाम बौलीवुड

‘महाराज’ को ले कर बहुसंख्यक समुदाय के चंद लोगों ने जिस तरह सोशल मीडिया पर फिल्म ‘महाराज’ की ट्रोलिंग की, उसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भगवा समर्थक बौलीवुड के खिलाफ नाराजगी पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा बढ़ी है.

इस के लिए एक तरफ पिछले 10 वर्षों से देश की सरकार का रवैया जिम्मेदार है, तो वहीं कुछ फिल्मकार व उन के प्रचारक भी जिम्मेदार हैं. हर फिल्मप्रचारक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सही ढंग से करने के बजाय जबरन फिल्म को ले कर हिंदूमुसलिम कंट्र्रोवर्सी खड़ा करता रहता है जबकि अब तक कंट्र्रोवर्सी से किसी भी फिल्म को फायदा नहीं हुआ है.

क्या मैं गलत हूं

नंदिनी रसोई में बरतनों को बेवजह पटक रही थी. शिवा के लिए नंदिनी का यह व्यवहार नया नहीं था. जब भी जिंदगी में कोई मुश्किल आती थी, नंदिनी अपना गुस्सा ऐसे ही रसोई में निकालती थी.

दोनों बच्चे कर्ण और सिया अभी स्कूल से नहीं लौटे थे. शिवा बहुत देर तक बाहर ड्राइंगरूम में बैठ कर सिगरेट सुलगाता रहा था. उसे लग रहा था कि नंदिनी शायद बाहर आ कर एक बार तो उस से बात करेगी. मगर जब नंदिनी बाहर नहीं आई तो शिवा अपनी कार उठा कर बेवजह सड़कों पर घूमने लगा था.

शिवा को नंदिनी का व्यवहार समझ नहीं आ रहा था. शिवा की जितनी भी ऊपर की कमाई थी, सब का नंदिनी को पता था. तब तो नंदिनी शिवा से कभी कुछ नहीं कहती थी.

हर करवाचौथ पर नंदिनी को शिवा कोई न कोई गहना गढ़वा कर देता था. हर साल गरमी की छुट्टियों में शिवा और उस का परिवार घूमने जाता था. दोनों बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते थे. नंदिनी कोई अनपढ़, गंवार महिला नहीं थी. उसे अच्छे से पता था कि ये गहने और महंगे शौक़ शिवा के वेतन में पूरे नहीं हो सकते हैं.

मगर नंदिनी तब यह ही बोलती ‘अरे शिवा, तुम क्या कोई अनोखा काम कर रहे हो? सब करते हैं और यह तो सरकारी नौकरी के साथ मिलने वाला एक इंसैंटिव हैं.’

मगर आज जब शिवा औफिस पहुंचा तो पता चला कि उस के ऊपर इन्क्वायरी बैठ गई है. शिवा जब अपने बौस विनोद कपूर के पास गया तो वे बोले, “तुम्हें देखसमझ कर रिश्वत लेनी चाहिए थी. इस में मैं कुछ नहीं कर सकता हूं क्योंकि मेरे साइन तो तुम्हारे अप्रूवल के बाद ही होते हैं.”

शिवा को समझ आ गया था कि इस चक्रव्यूह में वह अकेला है. उस ने आवाज़ को भरसक नरम बनाते हुए कहा, “सर, मगर आप तो सब जानते हैं कि जो भी हर फाइल को पास कराने पर मिलता था, उस में सब का हिस्सा होता था.”

विनोद रूखे स्वर में बोले, “मगर तुम्हारी नौकरी बचाने के चक्कर में मैं खुद को तो मुसीबत में नहीं डाल सकता न.”

शिवा थके कदमों से बाहर निकला. दफ़्तर के सब लोग उसे घूरघूर कर देख रहे थे जैसे उस ने किसी का खून कर दिया हो.

शिवा चिल्लाचिल्ला कर कहना चाहता था कि इस हमाम में सब ही नंगे हैं मगर तुम लोग अब तक परदे से ढके हुए हो.

बाहर रामदीन और सुखपाल आराम से बैठ कर गुटका खा रहे थे. शिवा को देख कर भी वे दोनों चपरासी न खड़े हुए और न ही उन्होंने सलाम ठोका. शिवा को समझ आ गया कि इन्हें भी पता चल गया है.

शिवा को घर जल्दी देख कर उस की पत्नी नंदिनी त्योरियां चढ़ाते हुए बोली, “क्या किसी टूर पर जाना है? इतने थके हुए क्यों लग रहे हो?”
शिवा ने नंदिनी से बुझे स्वर में बोला, “मेरे खिलाफ इन्क्वायरी बैठ गई है. मुझ पर मुकदमा चलेगा तब तक के लिए मुझे सस्पैंड कर दिया गया है.”

नंदिनी बोली, “ओह, क्या होगा हमारा अब? सारी दुनिया रिश्वत लेती है मगर तुम ने ऐसा क्या किया कि पकड़े गए? खर्चे कैसे चलेंगे?

“और शिवा, जब तुम्हें पता था कि ऐसा भी हो सकता है तो क्या जरूरत थी, हम तो कम में भी काम चला लेते,” नंदिनी ऐसे बोलते हुए रसोई में चली गई और बरतनों को पटकने लगी थी.

शिवा यों ही बेवजह घूम रहा था, उसे होश तब आया जब उस की कार घुर्रघुर्र कर के एक मोड़ पर रुक गई. शिवा ने देखा, डीजल खत्म हो गया था. वह ऐसे ही कार में बैठा रहा. मन ही मन शिवा को लग रहा था, कोई तो घर से फ़ोन करेगा.

मगर जब रात के 9 बजे तक कोई फ़ोन नहीं आया तो शिवा ने किसी तरह से कार में डीजल भरवाया और कार घर की दिशा में  मोड़ दी.

जब शिवा घर पहुंचा तो घर पर मौन पसरा हुआ था. शिवा को बहुत तेज़ भूख लग गई थी. सुबह से उस ने कुछ नहीं खाया था. रसोई में लाइट जला कर देखा तो कुछ नहीं मिला. मजबूरीवश शिवा ने बैडरूम की लाइट जलाई और नंदिनी से कहा, “नंदिनी, आज खाना नहीं बनाया क्या?”
नंदिनी अपनी सूजी हुई आंखें मलते हुए बोली, “यहां पर हमारे ऊपर इतनी बड़ी मुसीबत आ गई है और तुम्हें खाने की पड़ी है.”

शिवा गुस्से में बोला, “नौकरी से सस्पैंड हुआ हूं, मरा नही हूं कि खाना ही नहीं बनाया.”

“तुम ने बच्चों को भी भूखा ही सुला दिया है. चलो, जल्दी से पुलाव बना दो.”

शिवा ने बच्चों के कमरे में लाइट जलाई तो देखा दोनों बच्चे कर्ण और सिया जगे हुए थे. सिया अपने पापा को देख कर बोली, “पापा, मम्मी आज बहुत उदास थीं, इसलिए  खाना नहीं  बना पर बिस्कुट खाने के बाद भी बहुत भूख लगी हुई है.”

शिवा ने खुद ही  पुलाव बना लिया था.

शिवा ने नंदिनी से भी कहा, “तुम भी थोड़ाबहुत खा लो, नंदिनी.”

नंदिनी बोली, “मेरे गले से तो नहीं उतरेगा खाना, मुझे तो यह सोचसोच कर फ़िक्र हो रही है कि जब सब को पता चलेगा तो क्या होगा?”

शिवा बोला, “तुम, बस, बच्चों की फ़िक्र करो. किस से क्या कहना हैं, मैं खुद बोल दूंगा.”

खाने के बाद शिवा जब बिस्तर पर लेट गया तो नंदिनी शिवा से बोली, “भैया से कल बात कर लेना. उन की पहचान में कुछ अच्छे वकील भी हैं.

मुझे तो सपने में भी भान नहीं था कि तुम दूसरों का गला काट कर ये पैसे लाते हो.”

शिवा सबकुछ सुनता रहा और उस का सिर जब दर्द से फटने लगा तो वह बाहर ड्राइंगरूम में बैठ गया.

रात  के 2 बजे जब शिवा अंदर गया तब तक नंदिनी सो चुकी थी.

सुबह अचानक नंदिनी की बड़बड़ से शिवा की आंखें खुलीं.

“बच्चे स्कूल चले गए हैं, तुम कब तक पड़े रहोगे?”

शिवा उबासी लेते हुए बोला, “मैं कल पूरी रात ठीक से सो नहीं पाया था. एक कप चाय बना दो.”

शिवा निरुद्देश्य पहले इधरउधर घूमता रहा और फिर एक वक़ील से सलाह लेने पहुंच गया था.

वकील से शिवा को कोई आशाभरा जवाब नहीं मिला था. शिवा का बिलकुल मन नहीं था कि वह नंदिनी के मायके वालों से  मदद ले.”

जब शिवा 3 बजे घर पहुंचा तो देखा नंदिनी के भाईभाभी और मातापिता आए हुए हैं. शिवा ने नंदिनी की तरफ शिकायती नज़रों से देखा. पर नंदिनी नज़रे चुराते हुए रसोई में चली गई. नंदिनी के बड़े भाई शिवा से बोले, “अब आगे क्या सोचा है?”

शिवा बोला, “क्या सोचूंगा? जब तक मामला कोर्ट में हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता हूं. आधा वेतन मिलता रहेगा, अब उस से ही काम चलाना पड़ेगा.”

नंदिनी की मां रोंआसी सी बोली, “अरे मेरी बेटी कैसे काम चलाएगी?”

नंदिनी का बड़ा भाई बोला, “शिवा, थोड़ा स्मार्टली काम किया होता तो आज यह नौबत न आती. कल मैं तुम्हें सुखदेव के पास ले चलूंगा. उन्होंने ऐसे बहुत से केस निबटाए हैं.”

नंदिनी के पिता बोले, “अरे भई, मैं तो पहले से ही कहता हूं कि ऊपर की कमाई  हराम होती है. अब भुगतो, कोर्टकचहरी के चक्कर अलग.”

नंदिनी रोते हुए बोली, “पापा, मैं ने तो कभी शिवा से कुछ नहीं मांगा. मुझे तो पता ही नहीं था कि वे ये सब करते हैं.”

शिवा नंदिनी को जलती आंखों से देख रहा था.

नंदिनी के घर वालों के जाने के बाद शिवा बोला, “नंदिनी, तुम ने झूठ क्यों बोला?”

“क्या तुम्हारे ये महंगे शौक मैं अपने वेतन में पूरा कर पाता. नहीं, कभी नहीं. तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को यह अच्छे से पता था मगर अब जब मेरे ऊपर इन्क्वायरी बैठ गई है तो तुम सब पल्ला झाड़ रहे हो.”

नंदिनी भी रूखे स्वर में बोली, “मर्द तो वो होता है जो बाहर की बातें, बाहर ही सुलटा ले.”

“अब जब घर में तुम यह समस्या ले कर आए हो तो मैं भी तो किसी से कहूंगी न. इस में तुम अपनी ईगो पर क्यों ला रहे हो? एक बार भैया से मदद ले लोगे तो कोई छोटे नहीं हो जाओगे.”

शिवा को अच्छे से पता था, नंदिनी से बहस करना बेकार हैं. वह कार ले कर बाहर निकल गया.

कार चलाते हुए वह मन ही मन सोच रहा था कि इतना तो अभी भी है उस के पास कि अगर एक साल  वेतन न भी मिले तो भी वह अपना और अपने परिवार का एक साल तो आराम से खर्च चला सकता है. मगर हां, ऐशोआराम पर थोड़ी कटौती करनी पड़ेगी. यह सोचतेसोचते उस ने घर की दिशा में कार दौड़ाई तो देखा, महक तेज़ कदमों से चली जा रही थी.

शिवा ने कार रोकते हुए कहा, “महक, घर ही जा रही हो न, कर्ण और सिया को पढ़ाने? मैं भी वहीं जा रहा हूं. चलो, कार में बैठ जाओ.”

महक शिवा के दोनों बच्चों को ट्यूशन देती थी. दो साल पहले तक महक और उस का पति संकल्प सामने वाले फ्लैट में रहते थे. संकल्प किसी  फ्रौड में पकड़ा गया था और तब से गायब  ही था. महक और संकल्प  ने लव मैरिज की थी, इसलिए महक एकदम अकेली  पड़  गई थी. उस मुश्किल समय में शिवा ने ही महक का साथ दिया था. महक की एक स्कूल में नौकरी दिलवाई, फिर महक के लिए एक छोटे से घर को किराए पर भी अपनी गारंटी पर दिलवा दिया था.

महक कितनी भी मुश्किल दौर से गुजरी थी मगर उस के होंठों पर सदा ही मुसकान बनी रहती थी. सब से बड़ी बात, महक ने कभी भी शिवा से कोई आर्थिक मदद नहीं ली थी. पूरे 2 साल तक महक चट्टान की तरह खड़ी रही, मगर कभी भी उस ने विक्टिम कार्ड नहीं खेला. न महक ने कभी संकल्प को किसी बात के लिए दोष दिया. जिंदगी ने जो भी दिया उसे स्वीकार कर के महक आगे बढ़ती चली गई थी. पिछले एक साल से महक ट्यूशन भी देती थी जिस से उस के खाली समय का सदुपयोग तो होता ही था, साथ ही, महक को अतिरिक्त आर्थिक लाभ भी हो जाता था.

महक के बारे में शिवा अधिक नहीं जानता था मगर महक के जिंदगी जीने के नजरिए को  शिवा  बेहद पसंद करता था.

कार से उतरते हुए महक ने सौंधी मुसकान के साथ शिवा को धन्यवाद दिया.

शिवा भी महक के पीछेपीछे चला गया. महक दोनों बच्चों को बड़ी लग्न और मेहनत से पढ़ाती थी.

महक जैसे ही पढ़ा कर जाने लगी, नंदिनी दनदनाती हुई आई और बोली, “महक, अगले महीने से हम इतनी फ़ीस नही दे पाएंगे.”

महक ने प्रश्नवाचक नज़रों से शिवा की तरफ देखा तो नंदिनी बोली, “थोड़ी निजी बात है.”

महक ने अपने घुंघराले बालों को कानों के पीछे करते हुए कहा सौंधी हंसी के साथ कहा, “कोई बात नहीं, अगर एकआध महीने की बात हैं तो मैं एडजस्ट कर लूंगी. सिया और कर्ण मेरे अपने बच्चे ही तो हैं.”

नंदिनी कंधे उचकाते हुए बोली, “न जाने कितना समय लगेगा.”

महक जाने लगी तो शिवा उस के पीछेपीछे जाते हुए बोला, “आइए, मैं आप को छोड़ देता हूं.”

महक बोली, “अरे आप क्यों इतनी तकलीफ उठा रहे हैं?”

शिवा बोला, “क्योंकि मैं अपनी नौकरी से सस्पैंड हो चुका हूं. खाली हूं, यों ही घूमता रहता हूं, तुम्हें ही छोड़ देता हूं. कम से कम तुम जल्दी तो पहुंच जाओगी. जब तक केस चलेगा तब तक मैं समाज और अपने परिवार की नज़रों में अपराधी हूं.”

महक थोड़ा सा अचकचा गई मगर फिर संभलते हुए बोली, “अरे, तो क्या हुआ, उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आतेजाते रहेंगे.”

शिवा उदास हंसी हंसते हुए बोला, “हां, मगर नंदिनी के हिसाब से मैं ही दोषी हूं इन सब चीज़ों का.”

महक बोली, “एक बात पूछूं अगर आप को बुरा न लगे?”

शिवा बोला, “जरूर पूछो?”

महक झिझकते हुए बोली, “क्या आप सच में दोषी हैं?”

शिवा बोला, “हां हूं, मगर इस बात के लिए क्या अब फांसी पर चढ़ जाऊं? मैं अपने परिवार को सब सुविधाएं देना चाहता था. मेरे परिवार में सब को पता था, मगर तब सब लोग मज़े कर रहे थे. आज हरकोई मुझे दोष दे रहा है.”

महक धीमे स्वर में बोली, “आप खुद को दोष मत दें, अगर कोई समस्या आई है तो उस का कोई न कोई समाधान भी अवश्य होगा.”

शिवा व्यंग्य करते हुए बोला, “अरे, तुम भूल गई हो कि मैं ही ग़लत हूं.”

महक बोली, “गलत आप नहीं हैं, आप की सोच है. समस्या आई है तो स्वीकार करें और उस पर काम करें, खुद को या दूसरों को दोषी मानने से इस का समाधान नहीं हो पाएगा.”

महक ने शिवा के लिए कौफी बनाई और अपने एक परिचित वकील से बात भी करवाई. करीब 2 घंटे बाद जब शिवा महक के घर से निकला तो वह खुद को हलका महसूस कर रहा था.

शिवा पूरी रात महक के बारे में सोचता रहा और न जाने रात के किस पहर में उस की आंख लग गई थी.

अब शिवा का यह रोज़ का नियम हो गया था कि वह सुबह उठ कर बच्चों को तैयार करता, फिर नहाधो कर वकीलों के चक्कर काटता मगर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था. मगर अब इन वकीलों के चक्कर में महक भी शिवा के साथ खड़ी रहती थी. इस मुश्किल समय में नंदिनी ने नहीं बल्कि महक  शिवा के साथ खड़ी थी.

अगर शिवा रात में नंदिनी के करीब भी आने की कोशिश करता तो नंदिनी उसे झिड़क देती, “तुम्हें शर्म नहीं आती, अभी भी तुम्हें ये सब सूझ रहा है.”

शिवा कैसे अपनी पत्नी को यह समझाता कि मर्द के शरीर की क्षुधा ये सब नहीं जानती है. शिवा को अपने ऊपर ही बेहद गुस्सा आता मगर वह क्या करे, अनजाने में ही वह महक की तरफ खिंचा जा रहा था. आज भी महक के निकलने के बाद शिवा कार उठा कर चल पड़ा और महक से बोला, “महक, तुम्हें घर पर ड्रौप कर देता हूं.”

महक मुसकराते हुए बैठ गई और शिवा से उस के कोर्ट केस के बारे में बात करने लगी.

कार से उतरते हुए महक ने शिवा से कहा, “आज आप खाना खा कर ही जाइए.”

खाना बेहद स्वादिष्ठ और प्यार से परोसा गया था. शिवा को महक में एक ऐसा साथी नज़र आने लगा जो उसी की तरह अकेला है.

शिवा महक से बोला, “महक, क्या तुम्हें भगवान से शिकायत नहीं होती कि तुम्हें इतना संघर्ष करना पड़ रहा है?”

महक बोली, “मुझे तब यह शिकायत होती अगर मेरे अंदर हिम्मत और साहस का अभाव होता. बुजदिल लोग ही अपनी परिस्थिति की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं. मैं बहुत खुश हूं, जो भी है जैसा भी है, मैं डटी हुई हूं.”

शिवा लालसाभरी नज़रों से देखते हुए महक से बोला, “क्या कभी अकेलापन नहीं लगता तुम्हें?”

महक बोली, “शिवा, मैं इतनी मजबूर न पहले थी और न अब हूं कि एक छोटा सा तूफान मुझे तिनके की तरह उड़ा कर किसी के भी घर के आंगन में पटक दे.”

शिवा न जाने कैसे भावुक हो उठा और उस ने महक की गोद में सिर रख दिया, “महक, मुझे भी अपनी तरह बहादुर बना दो.”

महक  भी शिवा को खुद से दूर नहीं कर पा रही थी. शिवा ने महक का जब साथ दिया था जब कोई उस के लिए नहीं था. आज महक की बारी थी. यहीं नहीं, महक ने अपनी जमापूंजी भी शिवा के सामने रखते हुए कहा, “केस तो अभी लंबा चलेगा, तुम इन पैसों से छोटामोटा व्यापार डाल लो.”

महक का विश्वास देख कर शिवा अभिभूत हो उठा. धीरेधीरे ही सही, शिवा का व्यापार 2 साल में इतनी कमाई देने लगा जितनी शिवा को अपनी नौकरी से होती थी.

अब नंदिनी और शिवा के रिश्तेदारों का भी मुंह सीधा हो गया था. नंदिनी के तानों में अब पहले जैसा जहर नहीं रह गया था. मगर शिवा का मन अब अपने सब रिश्तों के लिए बर्फ़ की तरह ठंडा हो गया था.

जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ गई थी मगर शिवा खुद को अब महक से अलग नहीं कर पा रहा था. शिवा अब, बस, रातभर सोने के लिए ही अपने घर जाता था.

आज रात को नंदिनी ने फिर से पारिवारिक अदालत लगाई हुई थी. तमाम गवाह शिवा के खिलाफ गवाही दे रहे थे. महक का चरित्र हनन हो रहा था और महक को चालू औरत का संज्ञान दिया जा चुका था.

शिवा को जब सफाई देने के लिए रिश्तों के कठघरे में बुलाया गया तो शिवा ने बिना किसी ग्लानि के कहा, “हां, मै गलत हूं मगर, बस, एक सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक ढांचे के नजरिए से. जब मैं एकदम अकेला था तब उस चालू औरत ने ही मुझे सहारा दिया था, मुझे जीने के लिए उपाय सुझाया था. जब आप लोगों ने मुझे अपराधी मान ही लिया है तो मैं बिना किसी कोर्ट मुकदमे के नंदिनी को इस रिश्ते से आजाद करता हूं. मगर पूरे परिवार की जिम्मेदारी मेरी ही है.”

नंदिनी लगातार दोषारोपण कर रही थी. बच्चे भी शिवा को जलती नजरों से देख रहे थे.

जब सांझ के धुंधलके में शिवा ने महक के घर का दरवाजा खटखटाया तो उस ने बिना किसी सवाल के उसे अपना लिया था. इस रिश्ते का न कोई नाम था न ही कोई सामाजिक मान्यता पर इज्जत और विश्वास के धागे से बंधा हुआ यह रिश्ता अपनी नींव इन खोखले रिश्तों के बीच धीरेधीरे  बना रहा था.

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