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नेमप्लेट

“मम्मा, मैं ने अंकित को टिकट और विजिटिंग वीज़ा मेल कर दिया है, आप को लेने एयरपोर्ट आ जाऊंगी. बस, आप जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ.”

“पहले से कुछ बताया नहीं, कैसे जल्दी आ जाऊं. पहली बार तेरे घर आना है, कुछ तो तैयारियां करनी होगी”

“कैसी तैयारी, पापड़ बड़ी कोई खाता नहीं. इंडियन कपड़े मैं पहनती नहीं. बाकी सबकुछ अटलांटा में मिलता है, मां. बस, सुबह उठना और तैयार हो कर फ्लाइट में बैठ जाना.”

आशना का यह कहना था कि निधि ने तैयारियां शुरू कर दीं. बच्चों का क्या है, कुछ भी बोलेंगे. वो मां है, वो तो बेटी के लिए उस की पसंद की सारी चीज़ें ले कर जाएगी. बेटे अंकित से उस की पसंद की मिठाइयां मंगाईं तो एक साल पहले की सारी तैयारियां याद हो आईं. कैसे घर को दुलहन सा सजाया था, घर के हर दरवाज़े पर आम के पल्लव का तोरण लगाया था. बहू के आने और बेटी को विदा करने के सफ़र में हर बार पति की कमी कितनी खली थी पर खुद को संभालती हुई ऐसे तैयारी की कि उस की ज़िंदगी में जो खुशी का मौका आया है उसे ऐसे न जाने देगी, फिर अचानक सबकुछ बदल गया.

उस सुबह की याद आते ही उस का दिल कांप जाता है मगर आज उसी बेटी ने स्वयं उसे प्यार से बुलाया तो जरूर कोई न कोई अच्छी बात होगी. यही सब सोचती उस के बचपन में पहुंच गई.

‘प्रैक्टिस मेक्स मैन परफैक्ट, क्यों मम्मा. प्रैक्टिस मेक्स ह्यूमन परफैक्ट क्यों नहीं?’

मात्र 10 वर्ष की थी जब स्कूल से आते ही बैग फेंक कर वह जटिल प्रश्नों के बौछार कर रही थी और उस के पास कोई उत्तर न था सिवा समझाने के. ‘इस में क्या है, मतलब से मतलब रखो न.’

‘मतलब यह है कि वुमन परफैक्ट नहीं होती. पूरा पक्षपात है पर जाने दो, तुम नहीं समझोगी.’

‘अरे बाबा, ये पुरानी बातें हैं. तुम्हारा जमाना अलग है, मेरी बन्नो. खुश रहा करो.’

‘व्हाट बन्नो, मैं कभी बन्ना-बन्नी नहीं बनूंगी, मम्मा. ये सब अपने बेटे को बना लो.’

अंकित जो उस से 5 साल बड़ा था, चुपचाप मां और बहन की बातें सुन रहा था और मां के अरमानों पर पानी फिरता देख कह उठा-

‘मैं बनूंगा बन्ना और बन्नी भी ला दूंगा, मम्मा.’

‘मेरा बच्चा,’ बोल कर निधि ने उसे सीने से लगा लिया. वाकई कभीकभी अंकित के लिए फिक्रमंद हो जाती थी. वैसे तो दोनों बच्चों को उस ने एक सा पालनपोषण दिया मगर बेटी अपने अधिकार के प्रति खूब सजग थी और बेटा उतना ही शांत था. यह शायद नए जमाने की नई लहर ही थी.

बच्चों के बचपन की की बातें चलचित्र सी आंखों में घूम गईं. सच ही कहते हैं- होनहार बीरबान के होत चिकने पात. बेटे ने जो कहा, कर दिखाया. सचमुच उस के पसंद की बहू ले आया जो नौकरी के साथ घर की देखभाल भी करती है. उस के आने के बाद कभी लगा ही नहीं कि वह किसी पराए घर की परवरिश है. शायद बेटे का उस के प्रति लगाव ही ऐसा था कि बहू ने भी सास पर अपना खूब लाड़ लुटाया.

पिता के किडनी फेलियर से हुई असमय मृत्यु ने ही अंकित को जिम्मेदार बना दिया था. उस ने परिवार का बिजनैस बखूबी संभाला. इस के विपरीत आशना हमेशा उस से रूठीरूठी ही रही. घर से दूर ही रही. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए होस्टल गई, फिर उस का आनाजाना मेहमानों की तरह होता रहा. मां होने के नाते वह अपनी विद्रोही बेटी को खूब पहचानती थी. वह जितनी ही जहीन पढ़ाई में थी उतनी ही कड़वी जबान की भी स्वामिनी थी. मगर निधि के अंदर एक विश्वास था कि सारी कड़वाहट मिठास में बदल जाएगी जब उसे प्यार होगा. मगर प्यार के लिए भी तो उसे खुद को तैयार करना होगा.

दो वर्ष पहले सब से बड़ी खुशी भी उस ने ही दी कि उस की नौकरी एक इंटरनैशनल कंपनी में लग गई है. बेसिक तनख्वाह 60 लाख रुपए सालाना है. ऊपर से कुछ वैरिएबल अमाउंट और बोनस अलग. उस का अमेरिकन वीज़ा भी प्रोसैस हो गया है. इस बात पर पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. आज भी महीने के 60 हजार रुपए में घर चलाने वाली गृहिणी की बेटी अगर साल के 60 लाख से ऊपर कमाने लगे तो वाकई अपनी पैदाइश पर गर्व होने लगता है.

उस की अप्रत्याशित सफलता से उस के प्रति निधि का रवैया ही बदल गया. उस के स्वतंत्र विचारधारा व नई सोच के प्रति आदर का भाव पैदा होने लगा. बेटी के दिमाग में कुछ तो बात होगी जो उसे इतने सम्मानित कंपनी में इतना अच्छा जौब मिला है और साथ ही, उस ने एक और खुशखबरी दी कि अपने ही सहपाठी अविनाश को जीवनसाथी बनाने का फैसला किया. इस बात पर निधि को लगा जैसे उस की लौटरी निकल गई. उसे तो यकीन ही नहीं था कि कभी उस की बेटी शादी के लिए किसी को पसंद भी करेगी. वह तो कब से इस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी. खूब धूमधाम से शादी कराने की ठानी.

गोवा में डैस्टिनेशन वैडिंग की तैयारी की. होटल बुक कर एडवांस दे दिया गया. रिश्तेदारों ने अपने हवाई टिकट बुक कर लिए. कपड़े बन गए. शादी को बस एक हफ्ता रह गया था. आशना औफिस से छुट्टी ले कर घर आ गई. रातदिन दोनों लवबडर्स की तरह फ़ोन पर बातें करने लगे. शुभकार्य था, तो घर को भी लाइट और तोरण से सजा लिया. जब 90 प्रतिशत तैयारियां हो गईं और अगली सुबह हलदी व लेडीज संगीत के लिए गोवा की फ्लाइट पकड़नी थी तो आशना ने शादी से इनकार कर दिया.

निधि को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. आखिर इस की वजह क्या हो सकती है. सबकुछ ठीक जा रहा था मगर अचानक कहीं उस से कोई भूल तो नहीं हुई है जो बेटी हत्थे से उखड़ गई है. न तो शादी के लिए तैयार है और न ही इस विषय में कुछ सुनना चाहती है. हिम्मत कर पूछ बैठी, ‘मेरे बच्चे, बताओ तो सही, आख़िर ऐसी क्या बात हो गई जो ये…’

‘कुछ भी नहीं. तुम सोचो, कुछ हुआ ही नहीं.’

‘सुन बच्चे, अगर हमारी ओर से लेनदेन में कोई कमी रह गई  तो बता, मैं उन लोगों से माफ़ी मांग लूंगी?’

‘तुम सचमुच बिना रीढ़ की हो, मां. अभी तक लगता था पर बगैर बात माफ़ी का क्या मतलब है. शादी वो लोग नहीं, मैं टाल रही’ हंसती हुई बोली तो कुछ तसल्ली हुई और फिर कहा, ‘एक और बार कारण पूछा तो घर छोड़ दूंगी मैं और लौट कर कभी नहीं आऊंगी.’

‘हां, पर मेहमान जो परसों से आने लगेंगे उन्हें क्या कह कर रोकूं?’

‘बोल दो, कोई मर गया.’

‘छीछी,  ऐसी मनहूस बातें नहीं कहते.’

‘क्या फर्क पड़ता है, मम्मा. कोई पहले मरे या बाद में. पापा सारी ज़िंदगी अपने घरवालों के पीछे मरते रहे. तुम ने बगैर उफ किए सारे त्याग किए. पहले कैरियर का त्याग, फिर मायके का, दादी के लिए पोते की ख्वाहिश में अबौर्शन करा कर शरीर का त्याग, फिर पापा के बिजनैस ट्रिप के बहाने खुद को शराब में डूबोने से किडनी खराब होने पर उन की असमय मृत्यु पर अपने श्रृंगार का त्याग. माफ़ करना, तुम्हें देख कर मुझे यही प्रेरणा मिली है कि मैं अपना जीवन त्याग के बिना बिताऊं. और यही मेरा अंतिम निर्णय है.’

निधि उस के इस रूप से परिचित तो थी ही, उसे तो यही आश्चर्य हो रहा था कि आखिर वह अविनाश से शादी के लिए मानी कैसे. जननी से ज्यादा अपनी जायी को और कौन समझता. इस विद्रोहिनी को अपने हाथों ही बड़ा किया था. यही सब सोचती कब सुबह हो गई, पता न लगा. मालूम होता था रात आंखों में कट गई. ‘फ्लाइट में सो लेगी’ यह सोच कर बचीखुची पैकिंग की और हार्ट्सफील्ड – जैक्सन अटलांटा इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर उतरी, तो बेटी के हाथ प्रैम पर थे.

एक बार को लगा कि शायद गलती से किसी बच्चे के प्रैम को पकड़ लिया है मगर उस ने बोला, “तेरे बेटे से फास्ट हूं मैं. शादी उस ने पहले की पर तुझे नानी मैं ने पहले बनाया. कैसा लगा मेरा सरप्राइज़, मम्मा.” 

निधि निशब्द थी. कुछ सूझ न रहा था, तो आंखें बहने लगीं.

“आई हेट टियर्स,” कह कर हंस पड़ी.

उफ, सचमुच अपने बाप पर गई है. उसे जो करना है वही करेगी. दूसरे क्या सोचते हैं, इस से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. “तुम ने शादी कब की, कुछ बताया नहीं?”

“नहीं की, बाकी बातें घर पर करेंगे, मौम.”

उस ने कार में न केवल उस का सामान लोड किया बल्कि बच्चे को कार सीटर के बेल्ट में बिठा कर उस का हाथ पकड़ कर कार के अंदर बैठाया. एक नई मां का ऐसा ऐक्टिव रूप निधि के लिए दुनिया का आठवां अजूबा था.

घर पहुंच कर उस ने बगैर किसी मदद के खुद ही बच्चे को और उस के सामान को निकाला और निधि मूकदर्शक सी अपलक उसे निहारती रह गई. मन की बात मन में दबाए बेटी के घर में प्रवेश किया तो एकदम करीने से सुसज्जित घर में एक हाउसहैल्पर के अलावा और कोई न था.

आखिरकार हिम्मत कर पूछ बैठी, “इस का पिता कौन है, कहां है?”

“मां, इस का पिता वही शख्स है जिस से मैं ने प्यार किया था. मगर उसे अपने ऊपर अधिकार नहीं दिया वरना मुझ से कम तनख्वाह पाने वाला, मुझ से कम आईक्यू वाला अपने कैरियर में मुझ से आगे निकल अपने दोस्तों में शान से मेरे बच्चे का बाप कहलाने का गौरव पाता.”

“बेटू, सिर्फ़ इतनी सी बात के लिए तुम ने शादी नहीं की?”

“चिल्ल ममा, इतनी सी बात नहीं है. शरीर के कुछ हिस्सों के सिवा मुझ में उस में क्या अंतर है, बोलो? सिर्फ़ इतने के लिए मैं उसे छाती पर नहीं बिठा सकती थी.”

“फिर उस का ही बच्चा क्यों?” इस बार निधि ने तीर निशाने पर लगाया.

“मैं ने उस से प्यार किया था.”

एक इस बात से निधि को तसल्ली हुई कि बेटी चाहे जितने भी विरोधी नारे लगा ले मगर उस ने मन को मलिन नहीं किया था. उस का कहना किसी हद तक सही था. कई पीढ़ियों से महिलाएं अकेली, अपने दम पर घरगृहस्थी खींचती हुई अपनी मेहनत पर दूसरे का यशगान करती नहीं थकती हैं. अपने खूनपसीने से सजाए आशियाने पर पति के नाम की नेमप्लेट खुशीखुशी बरदाश्त करती हैं तो स्वेच्छा से अपनी ही नेमप्लेट के साथ जीना कोई गलत तो नहीं. उस की बेटी के घर, बैंक बैलेंस और यहां तक कि बच्चे पर सिर्फ़ और सिर्फ़ उस की नेमप्लेट थी.

लेखिका – आर्या झा

पड़ोस की एक भाभी मुझे बहुत सैक्सी लगती हैं

सवाल :

हाल ही में मेरे पड़ोस में एक फैमिली शिफ्ट हुई है जिस में सिर्फ हसबैंडवाइफ ही हैं. मैं उन्हें भैया और भाभी कह कर बुलाता हूं. भैया सुबह औफिस जाते हैं तो देररात ही घर लौटते हैं. कभीकभी वे अपने औफिस के काम से 2-3 दिनों के लिए शहर से बाहर भी चले जाते हैं. भाभी अकसर मेरे घर आती रहती हैं और मेरी मम्मी से काफी देर बात करती हैं. वे दिखने में सैक्सी हैं और उन का फिगर कमाल का है. वे बातबात पर मुझे छेड़ती हैं तो कभी मुझ से मेरी गर्लफ्रैंड के बारे में पूछती हैं. मेरा उन के साथ संबंध बनाने का बहुत मन करता है पर मुझे डर लगता है कि कहीं वे गुस्सा हो कर मेरी मम्मी को यह सब न बता दें. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब :

आजकल के युवाओं को अपने से बड़ी उम्र की महिलाएं बेहद पसंद आती हैं पर आप जो सोच रहे हैं वह गलत है. अगर वे आप से थोड़ीबहुत मस्तीमजाक करती हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि आप उन के साथ संबंध बनाने के बारे में सोचने लग जाएं.

आप को यह बात पता होना चाहिए कि वे शादीशुदा हैं और आप का एक भी गलत कदम आप के साथसाथ उन के लिए भी मुसीबत खड़ी कर सकता है. अगर आप की मम्मी या उन के पति को इस बारे में पता लग गया तो मोहल्ले में दोनों परिवारों की बदनामी हो सकती है, साथ ही उन का सुखी वैवाहिक जीवन उम्रभर के लिए खराब हो सकता है.

आप को इस समय सिर्फ अपने कैरियर पर ध्यान देना चाहिए और ऐसे खयालों को अपने मन में नहीं लाना चाहिए. किसी के प्रति ऐट्रैक्शन होना सामान्य सी बात है पर किसी शादीशुदा महिला को ले कर आप खयाली पुलाव बनाने लगें, यह कतई उचित नहीं है।

बिलबिलाता देशभक्त

हमारा देशभक्त मित्र बड़ा परेशान नजर आ रहा था. मौसम तो सुहावना था लेकिन वह पसीनापसीना हो रहा था. उस के अंदर का दर्द किसी सुलगे हुए विस्फोटक के समान चेहरे पर झलक रहा था. किसी भी क्षण भयंकर विस्फोट हो सकता था. विस्फोट से कौन नहीं डरता? हम सावधान थे लेकिन  हमारा जिज्ञासु मन मान नहीं रहा था, वह जल्दी से जल्दी विस्फोट का परिणाम जानने को उत्सुक था. इस के लिए हम ने खुद उत्प्रेरक बनने का काम किया और आग में घी डालते हुए अपने परमप्रिय देशभक्त मित्र से कहा, “मित्र, क्या हुआ? अपनी सरकार के होते हुए भी चेहरे पर यह गुस्सा, यह परेशानी, तोबातोबा.”

जैसे कि उम्मीद थी, हमारा देशभक्त मित्र एकदम से फट पड़ा, “क्या खाक अपनी सरकार है? किस मुंह से कह दें कि यह अपनी सरकार है?”

“अरे इसी चौखटे से चौड़े मुंह से कह दो जो तुम्हारे पास है,” हम ने मित्र को चिढ़ाते हुए कहा.

यह सुन कर उस का मुंह तो बना लेकिन इस समय उस के अंदर का लावा इतना बलवती था कि वह खुद को बोलने से रोक नहीं पा रहा था. वह बिलकुल चोंच को आगे करते हुए कागा की तरह बोला, “अरे हम ने तो यह सरकार इसलिए बनवाई थी कि कश्मीर में आतंकवाद का बिलकुल सफाया हो जाए. लेकिन वहां तो उलटा हो रहा है. आएदिन आतंकवादी हमारे जांबाज सैनिकों को शहीद कर के तिरंगे में लपेट कर भेज रहे हैं.

पहले तो कश्मीर घाटी ही आतंकवाद से त्रस्त और ग्रस्त थी, अब तो आतंकवादी जम्मू क्षेत्र को भी निशाना बना रहे हैं और कुछ लोग उन का साथ भी दे रहे हैं.”

“देखो मित्र, बात तो तुम्हारी सही है लेकिन सरकार अपना काम तो कर रही है.”

हमारी बात पूरी होने से पहले ही देशभक्त मित्र तिड़क उठा, “क्या खाक काम कर रही है? आतंकवाद तो उस से रोका नहीं जा रहा.”

“देखो, तुम्हारी सरकार ने अनुच्छेद 370 का खात्मा कर दिया. पत्थरबाजी भी खत्म ही हो गई और अब क्या चाहिए तुम्हें?”

देशभक्त मित्र ने झल्लाकर सिर खुजाया. अभिनय तो उस ने ऐसा किया जैसे सिर के बाल ही नोंच लेगा. फिर हमारी तरफ आग उगलती नजरों से देख कर बोला, “बस, तुम्हें इतने से ही चैन है. हम जैसे देशभक्त से पूछो हमारे दिल पर क्या गुजर रही है? हमारा एक सैनिक शहीद होता है, हमारा कलेजा टुकड़ेटुकड़े हो जाता है. मैं तो कहता हूं कि एकएक आतंकवादी को जहन्नुम पहुंचा दिया जाए.”

“अरे भाई, तुम्हारे वोट से चुनी हुई सरकार आतंकवादियों के खिलाफ ‘ जीरो टौलरेंस’ की नीति तो अपनाये हुए है और इस के तहत आतंकवादियों को चुनचुन कर मारा भी जा रहा है.”

देशभक्त मित्र हमारी बात सुनकर कड़क कर बोला, “मैं जानता था, तुम्हारे अंदर देशभक्ति नाम की कोई चीज है ही नहीं. तुम्हें सैक्युलरिज्म के कीड़े ने काटा हुआ है. तुम क्या समझोगे देशभक्ति का जज्बा?”

“अरे मित्र, फिर तुम ही समझा दो न, क्या किया जाना चाहिए?” हम ने उस की राय जानने की कोशिश की.

वह तड़प कर बोला, “यह बताओ, यह जो हमारी सेना के पास नाग, त्रिशूल, अग्नि और भी न जाने कौनकौन सी मिसाइलें हैं, क्या उन्हें शोकेस में सजा कर रखने के लिए बनाया हुआ है? और वे जो फ्रांस से अरबों रुपयों के राफेल लड़ाकू विमान खरीदे हैं, उन जंगी जहाजों को क्या जंग लगाने के लिए खरीदा गया है?”

देशभक्त मित्र की जंगीजबान सुन कर हम सहम गए. हम ने कहा, “मित्र, तुम तो किसी पाकिस्तानी कट्टरपंथी की भाषा बोल रहे हो, आखिर कहना क्या चाहते हो?”

“तुम नहीं समझोगे. तुम सैक्युलर कभी नहीं समझोगे देशभक्ति की भाषा. अरे हम और हमारी सरकार दुनियाभर में ढोल पीटते घूमते हैं कि पाकिस्तान ‘आतंकवाद की फैक्ट्री’ है. फिर इन मिसाइलों और लड़ाकू विमानों से आतंकवाद की उस फैक्ट्री को तबाह क्यों नहीं कर डालते?”

” लेकिन मित्र, ऐसा करने के लिए तो बहुतकुछ सोचना पड़ता है और उस से भी बड़ी बात यह है कि ऐसा करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए.”

हमारा देशभक्त मित्र मुंह बिचकाते हुए बोला, “यही तो दुख की बात है. हम भी सोचते थे उन के पास 56 इंच का सीना है लेकिन किस काम का. अमेरिका को देखो, 26/11 के हमले के बाद उस ने देश के देश तबाह कर दिए. सद्दाम हुसैन को सरेआम फांसी पर लटका दिया. कर्नल गद्दाफी को मौत की नींद सुला दिया और ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुस कर मारा. जब अमेरिका ऐसा कर सकता है तो हम क्यों नहीं?”

हम ने यह सुन कर अपनी हंसी को दबाया. हमारा मित्र भारत की तुलना अमेरिका से कर रहा था. हम ने अपने देशभक्त मित्र को और चिढ़ाते हुए कहा, “जहां तक 56 इंच के सीने की बात है तो हम तो इतना ही कहेंगे भाई, हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और होते हैं. देखो इजराईल को, उस ने अपने दुश्मनों को कैसा सबक सिखाया?”

इजराईल का नाम सुनते ही हमारे देशभक्त मित्र का सीना गर्व से चारगुना चौड़ा हो गया. चेहरे पर मुसकान की लकीर खिंच गई. वह जोश के साथ बोला, “बिलकुल सही. अब पकड़ा न, तुमने बात का सही सिरा. इजराईल की बात ही कुछ और है. हमें भी इजराईल की तरह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए.”

“लेकिन मित्र, हमारा देश तो शांति का मसीहा है. हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय नियमों और कानूनों का सम्मान करता है. हमारा देश बम और गोली की बात नहीं करता. देखा नहीं, मोदी जी अपनी रूस यात्रा के दौरान पुतिन को कैसे शांति का पाठ पढ़ा कर आए हैं? आस्ट्रिया में तो उन्होंने यह तक कह दिया कि हम ने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिए हैं. और तुम भी हर समय ‘ओम शांति, ओम शांति’ का पाठ जपते रहते हो, फिर क्रांति कैसे हो?”

हमारे द्वारा शांति का यह व्याख्यान सुन कर देशभक्त मित्र कुलबुलाया, “सही कहते हो, मित्र. जो दूसरों को शांति का पाठ पढ़ाए, वह तो खुद एक मक्खी भी नहीं मार सकता, आतंकवादियों के खात्मे की बात तो बहुत दूर. अब तो पीओके को पाने की रहीसही कसर भी खत्म. हमारी सरकार तो तब कुछ नहीं कर पाई जब 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के 40 से ज्यादा जवान शहीद कर दिए थे. तब तो दुनिया भी हमारे साथ थी. तब हमारे दिल के घावों पर ‘झंडू बाम’ लगाते हुए यह बताया गया था- ‘समय हमारा होगा, जगह हम चुनेंगे, फैसला हम करेंगे.’ लेकिन आंखें पथरा गईं, कान बहरे हो गए, न वह समय आया और न आएगा.”

“अरे मित्र, इतने निराश क्यों होते हो? तुम्हारी देशभक्त सरकार ने पाकिस्तान के बालाकोट में कितनी बहादुरी से सर्जिकल स्ट्राइक कर के 300 आतंकवादियों को मौत की नींद सुला दिया था और उस समय तुम भी तो कितनी मस्ती से नाचे थे? याद है न तुम्हें, क्यों?”

मित्र को न जाने क्यों ऐसा लगा जैसे मैं उस के जले पर नमक छिड़क रहा हूं. वह कुछ मायूस सा हो कर बोला, “अब तो वह सब भी झूठ का एक पुलिंदा लगता है. वह तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नाटक भर लगता है. अगर हम ने पाकिस्तान के 300 आतंकवादी मारे होते तो हम तो इतने ढिंढोरची हैं कि सारी दुनिया में उस का वीडियो दिखादिखा कर मोदी के विजयी गान गा रहे होते और सारी दुनिया में हल्ला काट रहे होते- अरे, 56 इंच का सीना है हमारा, 56 इंच का.”

“इस का मतलब तो यह हुआ कि अब तुम भी यह स्वीकार करते हो कि बालाकोट में केवल कुछ पेड़ गिराए गए थे?” इस संवेदनशील मुद्दे पर हम ने देशभक्त मित्र की राय जानने की कोशिश की.

वह बोला, “अब तो मुझे भी यही शक होने लगा है. आखिर सेना तो वही करेगी जो उस को आदेश दिया जाएगा. दम होता तो रावलपिंडी पर बम गिराने का हुक्म देते.”

हम को लगा कि देशभक्त मित्र सरकार की आलोचना में सरकार के विरोधियों से भी आगे निकल रहा है. शायद यह उस के मन की पीड़ा थी जिसे वह आग की तरह उगल रहा था. हम ने उस को थोड़ी सांत्वना देते हुए कहा, “मित्र, अपनी सरकार को ले कर इतने उदास न हो. देखो, तुम्हारी सरकार ने आतंकवादियों के हितैषी और अलगाववादी नेता यासीन मलिक, इंजीनियर शेख अब्दुल राशिद, अमृतपाल सिंह आदि को जेलों में डाल रखा है.”

“हम देशभक्तों को यही तो परेशानी है कि इन अलगाववादियों और आतंकवाद के पैरोकारों को जेल में डाल ही क्यों रखा है, इन्हें अब तक जहन्नुम पहुंचाया क्यों नहीं? जेल में जा कर इंजीनियर राशिद बारामूला से और अमृतपाल खडूर साहिब से सम्मानित संसद सदस्य बन गए हैं. इन का हश्र तो ओसामा बिन लादेन जैसा होना चाहिए था. ऐसी ढुलमुल नीति से देश नहीं चला करते.”

हम ने सोचा यह नाग सा बिलबिलाता देशभक्त है. यह सारी सीमाएं लांघ रहा है. जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की मौत मांग रहा है. इसे न संविधान की चिंता है और न कानून का डर. इसे सबक सिखाना जरूरी है. हम ने धोबी पाट लगाते हुए कहा, “मित्र, तुम बड़े देशभक्त बने फिरते हो. अपनी ही सरकार की जम कर आलोचना कर रहे हो. इतने बड़े देशभक्त हो तो जैसे ये आतंकवादी अपने मिशन के लिए जान गंवा देते हैं, तुम भी देशभक्ति दिखाते हुए उन का मुकाबला करो. उन के खिलाफ आंदोलन करो, जेल जाओ, गोली खाओ. पाकिस्तान से आतंकवादी जान हथेली पर ले कर आते हैं, तुम भी जान हथेली पर ले कर पाकिस्तान जाओ और वहां ‘आतंकवाद की फैक्ट्री’ में पनप रहे आतंकवादियों को ढेर कर आओ. तब होगी तुम्हारी  जांबाजी और देशभक्ति की परीक्षा कि चलो, तुम ने कुछ कर के दिखाया.”

यह सुनते ही देशभक्त मित्र बौखला गया. वह हम से नाराज होते हुए बोला, “अरे, ये कैसी बातें करते हो? आतंकवादियों से लड़ना तो सरकार का काम है. तुम तो हमें ही मरवा डालोगे. तुम फालतू की बात करते हो. तुम्हें सैक्युलरिज्म के कीड़े ने काटा है. तुम से बातें करना ही बेकार है. तुम जैसे सैक्युलरिस्ट के पास बैठ कर अपना दिमाग खराब ही नहीं करना चाहिए. तुम क्या जानो देशभक्ति क्या होती है? ”

ऐसा कहते हुए बौखलाया हुआ हमारा देशभक्त मित्र वहां से पैर पटकता हुआ दफा हो गया. उस के जाने पर हम ने चैन की एक गहरी सांस ली.

हम जानते थे, देशभक्तों की दुनिया निराली होती हैं, इस प्रजाति के जीव बोलते बहुत हैं, करते कुछ नहीं.

भरापूरा परिवार

मनमोहन जी गंभीर बीमार हुए. विदेश में रह रहे बेटाबहू अपनी व्यस्ताओं के कारण देखरेख के लिए आ न सके तो वहीं से देखभाल के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया.

नर्स मोना 32 वर्ष की सुशील, सभ्य और स्नेही महिला थी. वह सुबह 7 बजे आती और शाम को 7 बजे चली जाती. बेहद विनम्र और जिंदादिल महिला. पति कुछ वर्षों पहले सड़क दुर्घटना में छोड़ कर जा चुका था. घर में केवल बुजुर्ग सासससुर और एक 10 साल की बेटी थी.

मनमोहन जी मोना के मृदु व्यवहार के कायल हो गए. ऐसा लगता था मानो क्रोध पर विजय पाई हो उस ने.

मोना की स्नेहभरी देखभाल और दवाइयों के असर से मनमोहन जी की तबीयत में सुधार होने लगा था. बेटा प्रतिदिन शाम को वीडियोकौल कर उन के हालचाल जान अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री कर लेता था. जैसेजैसे मनमोहन जी की तन की तबीयत में सुधार आ रहा था, मन की तबीयत उदास होती जा रही थी. वजह थी स्वस्थ हो जाने के पश्चात उसी अकेलेपन को झेलना.

पिछले एक महीने से मोना ऐसे हिलमिल गई थी जैसे उन की अपनी ही बेटी हो. इतवार के दिन वह अपनी बेटी साध्वी को भी साथ ले आती थी. उस की प्यारी व भोली बातों से रविवार बड़ा सुकूनभरा कटता था.

मनमोहन जी चाहते थे मोना यहीं रह जाए लेकिन वह होममेड नहीं, नर्स थी. उस के जाने के खयाल भर से बुढ़ापे का अकेलापन उन की बेचैनी बढ़ा देता. जब तक मोना घर में रहती, यह बड़ी सी इमारत घर लगने लगती. शाम को उस के जाने के बाद यही घर भुतहा बंगला बन डराने को दौड़ता.

खैर, चाहने से क्या होता है?

वह दिन भी आ गया जिस दिन मोना का उस घर में अंतिम दिन था. मनमोहन जी पूरी तरह स्वस्थ हो चुके थे. देखभाल के खर्च और मोना के कार्य का भुगतान उन का बेटा औनलाइन कर चुका था.

सुबह से ही मनमोहन जी का दिल बड़ा भारी था. ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अपनी ही बेटी को विदा कर रहे हों.

इतवार था, सो, साध्वी भी आई थी साथ.

शनिवार को उस के लिए लाई ड्रैस, चप्पल, खिलौने, मिठाई बड़े प्यार से उस का दुलार करते हुए मनमोहन जी ने उसे थमाईं. साध्वी यह सब लेने के लिए झिझकी और अपनी मम्मी की तरफ देखा. मम्मी की नजरों की अनुमति मिलते ही उस ने सब उत्साह से लपक कर अपनी छोटी सी गोद में समेट लिया.

उसे यों चहकता देख मनमोहन जी बड़े खुश हुए, फिर मोना की ओर देख कर एक थैला उस के हाथों में भी थमा दिया.

“इस में क्या है अंकल जी?” मोना ने अपनी उसी चिरपरिचित कोमल आवाज में पूछा.

“तुम्हारे लिए सूट,” मनमोहन जी ने मुसकराते हुए कहा.

“लेकिन अंकल जी, इस की क्या जरूरत थी?

“साध्वी के लिए कितना कुछ ले आए आप और मैं अपने काम के पैसे भी ले चुकी,” मोना ने प्रेमभरे शिकायती लहजे में कहा.

जरूरत नहीं थी बेटा. यह तो, बस, एक बूढ़े पिता का अपनी बेटी के लिए स्नेह समझो, तुम,” कहते हुए मनमोहन जी ने आशीर्वादभरा हाथ मोना के सिर पर फेरा.

यह देख कर मोना की पलकें भारी हो आईं.

सब सामान उठा दोनों मांबेटी जाने को तैयार हुईं तो अचानक मोना ठहरी और मुड़ कर मनमोहन जी को देखा. उन की आंखों में आंसू थे.
पांच मिनट दोनों तरफ बिछोह की पीड़ा रिसती रही.

मोना चल कर मनमोहन जी के पास आई और उन के गले लग गई.

यह देख साध्वी भी खुद को रोक न सकी और दौड़ कर उन दोनों को अपनी नन्ही आगोश में लपेट लिया.

यह शायद संसार का सर्वोत्तम सुंदर दृश्य था.

जब आंसू बहने से थक गए तो मोना ने अपने पर्स से अपना कार्ड निकाला और मनमोहन जी को देते हुए कहा, “अंकल जी, बीमार वृद्धों की देखभाल करना मेरा जौब है. किसी हौस्पिटल में नौकरी करने के बजाय अमीर अकेले बुजुर्गों की देखभाल कर अधिक पैसे कमा लेती हूं मैं.

“इस नौकरी से मुझे 2 फायदे हुए हैं- एक तो पति के जाने के बाद मजबूत आर्थिक संबल मिला और दूसरा, आप जैसे बड़ों का भरभर आशीर्वाद व प्रेम.

“मेरे दामन में इतने आशीर्वाद हैं कि कभीकभी खुद पर नाज होने लगता. जिन भी अकेले वृद्धों की मैं ने देखभाल की है उन से पारिवारिक रिश्ते बन गए हैं. सभी सुबह अपनेअपने जरूरी काम निबटा कर मेरे घर आ जाते हैं और आपस में खूब हंसीमजाक, बातें कर के पूरा दिन बिता कर शाम को खाना खा कर चले जाते हैं. इस से मेरे बुजुर्ग हो चुके सासससुर को भी साथ मिल जाता है. सुबह मेरे ड्यूटी और साध्वी के स्कूल चले जाने के बाद वे भी अकेले रह जाते हैं, इस तरह सभी अकेले बुजुर्ग आपस में अपने सुखदुख बांट कर अपना परिवार बनाए हुए हैं.

“क्या आप भी इस परिवार का हिस्सा होना चाहेंगे?”

मनमोहन जी ने कार्ड हाथ में लिया और फिर मोना को जीभर आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम कितनी नेकदिल इंसान हो, बेटी.

“तुम्हें जन्म देने वाले धन्य हैं जिन्होंने सचमुच एक मनुष्य को जन्म दिया है. जरूर बनूंगा तुम्हारे परिवार का हिस्सा, जरूर,” कहतेकहते मनमोहन जी का गला रुंध हो आया.

“तुम्हारे नहीं, हमारे परिवार का हिस्सा बोलो. दद्दू और मम्मी तो रोजाना शाम को आती ते हैं लेकिन मैं जल्दी आ जाती हूं. अटेंडेंस मैं ही लेती हूं सब की,” साध्वी बोली थी.

साध्वी की इस बालसुलभ बात ने तीनों के चेहरे पर प्यारी सी मुसकान ला दी और तीनों फिर से गले लग गए.

यह सचमुच संसार का सब से सुंदर पल था.

कुछ नेह से अधूरे लोग अपने स्नेह से एक दूसरे के जीवन में प्रेम खुशियों को भर रहे थे.

यह सचमुच एक पूरा, भरापूरा परिवार था.

मेंटिनैंस

“तुम सुनना नहीं चाहते और मैं यहां के लोगों की बातें सुनसुन कर थक गई हूं,  मुझे अब नीचे उतरते भी डर लगता है कि कब कोई मुझ से कुछ कह न दे.’’ मैं किचन में काम करतेकरते पति सक्षम को सुनाने के उद्देश्य से जोरजोर से बोलती जा रही थी पर किचन के सामने ही डायनिंग टेबल पर बैठे सक्षम मेरी हर बात को अनसुना कर के अपना पूरा ध्यान पेपर में लगाए थे मानो आज उसे न्यूजपेपर पर रिसर्च करनी हो.

‘‘तुम्हें सुनाई दे रहा है न कि मैं क्या बोल रही हूं,’’ अपनी बात का उधर कोई असर न होते देख मैं एकदम उस के पास जा कर जोर से बोली, “सक्षम, पेपर हटाओ सामने से, सुनाई पड़ रहा है न तुम्हें कि मैं क्या कह रही हूं.’’

और कोई चारा न देख कर सक्षम ने पेपर हटाया और अनजान बनते हुए बोला, ‘‘हूं, क्या कहा, मैं सुन नहीं पाया.’’

‘‘सक्षम, नाटक मत करो, तुम ने सब सुन लिया है. मुझे, बस, अपनी बात का जवाब चाहिए,’’ मैं एकदम सामने सोफे पर बैठती हुई बोली.

‘‘तो उत्तर यह है कि मैं एक भी पैसा नहीं दूंगा जब तक कि मेरा स्कूटर नहीं मिल जाता. जिस को जो करना है, कर ले.’’

यह कह कर सक्षम अपनी तौलिया उठा कर बाथरूम में चले गए. मैं अकेली ही बैठी बड़बड़ाती रही, ‘कैसे समझाऊं इन्हें, 2 बच्चों के बाप होने के बाद भी कुछ सुनने को तैयार नहीं. जब पिता का ही यह अड़ियल रवैया है तो बच्चे आगे चल कर क्या करेंगे.’ खैर, अभी तो फिलहाल ब्रेकफास्ट की तैयारी करती हूं वरना दुकान जाने में देर हो जाएगी, यह सोचते हुए मेरे कदम किचन की ओर बढ़ गए.

इंसान जब दिमागी तौर पर अशांत हो तो उस का शरीर तो काम करता है पर मन कहीं औेर ही होता है. सो, मेरे हाथ तो परांठे बना रहे थे पर मन आज से 15 वर्ष पहले जा पहुंचा जब मैं संयुक्त परिवार में बहू बन कर आई थी जिस में सासससुर, जेठजिठानी, भतीजेभतीजी सभी थे. कुछ वर्षों बाद जब मेरे भी 2 बच्चे हो गए तो सब के दिलों के दायरे बड़े होने के बाद भी जगह कम पड़ने लगी. यों भी आजकल के परिवारों में पतिपत्नी तो क्या, बच्चों को भी अपना पर्सनल स्पेस चाहिए होता है, फिर यहां तो बड़े ही 6 जने थे, ऊपर से 4 किशोर होते बच्चे.

वक्त की जरूरत को समझते हुए 5 वर्षों पहले ससुरजी ने उसे यह छोटा सा 3 बीएचके फ्लैट खरीद्वा कर एक तरह से दोनों बेटों को अलगअलग कर दिया. सासससुर ने समयसमय पर दोनों के साथ ही रहना तय किया. कहना न होगा इस बंटवारे से सब को अपना पर्सनल स्पेस मिला था. सो, सभी खुश थे.

अब नए फ्लैट में एक तरह से उस की नईनवेली गृहस्थी बस रही थी. सो, सासुमां ने अपने दिल के दरवाजे खोलते हुए कहा था, ‘बेटा, तुझे इस घर में से जो चाहिए हो, वो ले जा.’ वह सिर्फ जरूरतभर का सामान ले कर इस छोटे से फ्लैट में शिफ्ट हो गई थी.

अपना घर जिस का सपना हर लड़की देखती है, उसे उस ने और सक्षम ने बड़े मन से सजाया था. बहुत बड़ी तो नहीं, 12 फ्लैट की 3 मंजिली छोटी सी सोसाइटी थी. हर फ्लोर पर 4-4 फ्लैट थे. सभी परिवार अच्छे और मिलनसार थे.

सक्षम कट्टर हिंदूवादी हैं, बातबात पर उन का हिंदुत्व जागता रहता है, अपने धर्म के अलावा सारे धर्म उन्हें बेकार लगते हैं. जबतब मेरी उन से इस बात पर बहस हो जाती है. अपने इसी हिंदुत्व के कारण फ्लैट खरीदते समय सक्षम ने सब से पहले सुनिश्चित किया कि पूरी सोसाइटी में सभी परिवार हिंदू ही हों.

मेरी सोसाइटी की सभी महिलाओं से कुछ ही समय में गहरी दोस्ती हो गई थी. मैं ने यहां की किटी पार्टी भी जौइन कर ली थी ताकि सभी सदस्यों से भलीभांति परिचय हो सके. सक्षम एक तो बहुत कम मिलनसार हैं, दूसरे, सुबह से शाम तक दुकान पर काम करने के बाद उन के पास इस सब के लिए समय भी नहीं रहता.

सक्षम यों तो बहुत सुलझे हुए इंसान हैं पर बिजनैसमैन होने के कारण पैसे के मामले में बहुत कंजूस हैं, पैसों के मामले में उन्हें घर के छोटेछोटे खर्चों का भी हिसाब चाहिए होता है. एकएक पैसा उन की जेब से बहुत मुश्किल से निकलता है. बच्चों के खर्चों को ले कर भी अकसर टोकाटाकी होती रहती. मुझे भी कहां कभी सक्षम का यह व्यवहार अखरा, हमेशा यही सोचती कि आज पैसा बचेगा तभी तो जुड़ेगा और कल काम आएगा. बच्चों को भी पैसे की अहमियत तभी समझ आएगी जब उन के खर्चों पर अंकुश लगाया जाएगा पर पिछले कुछ दिनों से तो सक्षम का यह बनिया स्वभाव ही मेरे लिए अपमान का कारण बनता जा रहा है.

जिस सोसाइटी की महिलाएं 5 सालों से दिन में दस बार मुझ से मिलने आती थीं, मेरे साथ फोन पर गपें लगाती थीं, वे आज मुझे देख कर मुंह फेर लेती हैं. पिछले एक साल से यही सब झेलझेल कर मैं पेरशान हो गई हूं. अभी मैं इसी झंझावात में उलझी थी कि डोरबेल की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, दरवाजा खोला तो सामने अध्यक्ष की कार साफ करने वाला लड़का हाथ में रजिस्टर लिए खड़ा था. मैं ने रजिस्टर हाथ में ले कर पढ़ा तो लिखा था, ‘कल रविवार को सुबह 10 बजे सोसाइटी की होने वाली मीटिंग में आप आमंत्रित हैं.’ रजिस्टर पर साइन कर के मैं वापस किचन में आ गई.

अब तक सक्षम तैयार हो कर नाश्ते के लिए डायनिंग टेबल पर आ गए थे. नाश्ता लगाते हुए रविवार की मीटिंग के बारे में मैं ने सक्षम को सूचना दी तो सक्षम बोले, “कोई जरूरत नहीं जाने की, करतेधरते तो कुछ हैं नहीं, जब देखो तब मीटिंग ही करते रहते हैं ये लोग और जब से इस मुल्ला को अध्यक्ष बनाया है तब से पूरी सोसाइटी का कबाड़ा हो गया है. क्या पूरी सोसाइटी में कोई हिंदू ऐसा नहीं था जिसे अध्यक्ष बनाया जाता. इन को इतना मानसम्मान देने की जरूरत नहीं है, एक दिन हमारे ही सिर चढ़ कर नाचेंगे.”

“जिन्हें तुम मुल्ला कह रहे हो वे सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं, इस सोसाइटी के सभी लोगों से अधिक योग्य और समझदार तभी तो सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनाया गया है उन्हें. तुम्हारे अलावा किसी को भी उन से कोई भी समस्या नहीं है. 4 सालों से गुप्ता जी थे तो अध्यक्ष, कुछ करते ही नहीं थे और तैयब जी ने तो एक साल में ही सोसाइटी का कायाकल्प कर दिया है. इतनी पुरानी होने के बाद भी यह सोसाइटी कितनी अच्छी लगने लगी है. देखा नहीं, पिछली मीटिंग में जब सैकंडफ्लोर के वर्मा जी और फर्स्टफ्लोर के गुप्ता जी आपस में इतने अधिक भिड़ गए थे कि बात हाथापाई तक पहुंचने ही वाली थी वे तैयब जी ही थे जिन्होंने न्यूट्रल भाव से सारे मामले को रफादफा कर दिया था. यही नहीं, उन की पत्नी सलीमा जी तो मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी हैं. कितनी सुंदर और केंद्रीय विद्यालय से रिटायर प्रिंसिपल हैं वे.”

“तुम तो ऐसे उन का पक्ष ले रही हो जैसे वे तुम्हारे रिश्तेदार हों. अरे, साले पूरे देश में तो दंगा कराते रहते हैं, यहां क्या खाक मामले सुलटाएंगे. मैं तो नहीं जाऊंगा और न मेरे पास इतना फ़ालतू टाइम है कि उस मुल्ला की बातें सुनूं. तुम्हें जाना हो तो चली जाना. यों भी स्कूटर वाली घटना के बाद की लगभग सभी मीटिंग्स तुम अकेली ही अटेंड करती हो.

अपना अदालती फरमान सुना कर सक्षम दुकान चले गए पर मेरा मन बेहद अशांत हो गया. ‘कैसे सुलझाऊं इस अजीब सी समस्या को’ यह सोचते हुए मुझे एक साल पुरानी वह घटना याद आ गई जो इस फसाद की जड़ थी. उस दिन सुबहसुबह सक्षम दुकान जाने के लिए निकले थे कि नीचे पार्किंग के कोने में 3 साल से खड़े अपने पुराने स्कूटर को जगह पर न देख कर भन्ना गए और सीधे सोसाइटी के अध्यक्ष शफीक उल्ला तैयब जी के पास जा पहुंचे,

‘यहां 2 साल से मेरा स्कूटर खड़ा था, वह अब अपनी जगह पर नहीं है. लगता है चोरी हो गया.’

‘अरे जैन साहब, नाराज क्यों होते हो, आइए, अंदर आइए, बैठ कर बात करते हैं,’ तैयब जी ने बड़े विनम्र भाव से कहा. सक्षम गुस्से में कुछ नहीं देखते, सो, आवेश में बोले, ‘क्या बैठ कर बात करते हैं, सोसाइटी का मेंटिनैंस हर महीने देते हैं, फिर भी स्कूटर चोरी हो गया?’

‘मियां कैसी बात करते हैं, आप जानते हैं कि सोसाइटी मेंटिनैंस चार्ज केवल 500 रुपए प्रतिमाह है जिस में सभी फ्लैट्स की साफसफाई और लाइट जैसी आवश्यक जरूरतें ही पूरी हो पाती हैं. मैं सोसाइटी का अध्यक्ष हूं, गार्ड नहीं जो आप के स्कूटर के लिए जवाबदेह होऊं. ले गया होगा कोई कबाड़ा समझ कर, आप भी तो उसे कबाड़ में ही देते न?’ अब तैयब जी का स्वर भी तल्ख हो चुका था, साथ ही, शोरशराबा सुन कर सोसाइटी के अन्य लोग भी आ चुके थे.

‘यह मियांवियां क्या होता है, मैं सक्षम हूं, आप मेरा नाम लीजिए. आप कुछ नहीं कर सकते तो ठीक है जब तक मेरा स्कूटर नहीं मिलेगा मैं एक भी पैसा मेंटिनैंस के नाम पर नहीं दूंगा.’ यह कह कर सक्षम कार स्टार्ट कर के दुकान चले गए थे और पीछे छोड़ गए थे लोंगों की तमाम तरह की बातें. मुझे तो शाम को पूरा घटनाक्रम पता चला जब फर्स्टफ्लोर पर रहने वाली मिसेज शर्मा ने शिकायती लहजे में सारे वाकए को मिर्चमसाला लगा कर सुनाया.

उस समय मैंने सोचा था कि शाम को सक्षम को समझा दूंगी. पर रात को दुकान से वापस आने के बाद सक्षम इतने थके होते हैं कि किसी विशेष मुद्दे पर उन से बात नहीं की जा सकती. अगले दिन सुबह नाश्ते के समय जब मैं ने बात करने की कोशिश की तो सक्षम बिफर गए, ‘किस बात का मेंटिनैंस देते हैं हम, आज पुराना स्कूटर गया है, कल कार चली जाएगी तब भी ये यही कहेंगे. मुझे पहले मेरा स्कूटर चाहिए, उस के बाद ही कोई पैसा दूंगा. वैसे भी, मुझे तो लगता है कि अध्यक्ष, सचिव और कोषाध्यक्ष मिल कर गड़बड़घोटाला करते हैं. अब इस बारे में तुम भी मुझ से कोई बात नहीं करोगी,’ कह कर सक्षम नाश्ता करने लगे.

‘सक्षम, समझने की कोशिश तो करो, हम यहां रहते हैं, यहां के लोगों से कट कर नहीं रह सकते. वक्तजरूरत पर यही लोग काम आएंगे. फिर तैयब जी तथा अन्य पदाधिकारी अपना इतना समय देते हैं, तभी अपनी सोसाइटी साफसुथरी और मेन्टेन रह पाती है. वे कोई अपने लिए तो नहीं मांगते मेंटिनैंस, सोसाइटी के लिए ही न. वैसे भी फ्लैट का तो कल्चर भी यही होता है कि इंसान को केवल अपने नहीं बल्कि सब के हिसाब से चलना पड़ता है. फिर उस सैकंडहैंड खरीदे स्कूटर को तुम ने पिछले 4 वर्षों से हाथ तक नहीं लगाया है. वह तो खड़ेखड़े ही कबाड़ हो गया था. तुम भी तो उसे किसी को देने की ही बात कर रहे थे न. तो ले गया कोई बेचारा,’ मैं ने सक्षम को समझाते हुए कहा.

‘हमें किसी की जरूरत नहीं है. ये लोग कभी किसी के सगे नहीं हो सकते. देश के सभी दंगों में इन का ही हाथ होता है. मैं ने सबकुछ देखभाल कर अपना फ्लैट लिया था. रिसेलिंग वालों ने सब गड़बड़ कर दिया और 2 मुल्लों को सोसाइटी में बसा दिया. मेरा वश चले तो मैं अपनी इस सोसाइटी में किसी भी मुल्ले को नहीं रहने देता. और ये मूर्ख सोसाइटी वाले जिन्होंने उसे ही अध्यक्ष बना दिया और कोई मिला ही नहीं इन्हें. तुम्हारी फिलौसफी तुम अपने पास रखो. जब तक मेरा स्कूटर नहीं मिलता, मैं एक भी पैसा नहीं देने वाला,’ कह कर सक्षम अपना बैग ले कर दुकान चले गए. बस, उस दिन से ले कर आज तक मैं सोसाइटी मैंबर्स की उपेक्षा झेल रही थी और इस बात को अब लगभग एक साल होने जा रहा था. हर मीटिंग में सक्षम अपना वही घिसापिटा जुमला दोहरा देते हैं, ‘स्कूटर मिलेगा तो ही मेंटिनैंस दूंगा और तो ही मीटिंग में आऊंगा.’

3 महीने पहले की बात है. एक दिन जब मैं और सक्षम सुबह मौर्निंग वाक कर के लौट रहे थे कि सोसाइटी के कुछ लोगों ने हमें घेर लिया. मैं तो डर ही गई थी कि कहीं झगड़ा न हो जाए पर तैयब जी आगे आए और प्यार से सक्षम के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘बेटा, आज मुझे अपने स्कूटर के कागज ला कर दे देना ताकि मैं आज थाने जा कर रिपोर्ट कर दूं और पुलिस अपनी कार्यवाही कर सके.’ उस दिन पहली बार मैं ने सक्षम का स्याह चेहरा देखा. वे कनखियों से मुझे देखने लगे क्योंकि स्कूटर का तो कोई भी कागज हमारे पास नहीं था, हम ने तो खुद ही उसे सैकंडहैंड खरीदा था और अपने नाम पर उसे करवाने में 2,400 रुपए लग रहे थे और बिना वजह इतने रुपए खर्च करना सक्षम को पसंद नहीं था. सो, इतने दिनों से स्कूटर अपने पहले मालिक के नाम पर ही चल रहा था.

‘जी, मैं भिजवाता हूं,’ कह कर किसी तरह सक्षम ने अपना पीछा छुड़ाया और घर आ गए. पहली बार सक्षम ने स्कूटर के मुद्दे पर कोई बात नहीं की. कुछ दिनों तक सक्षम ने स्कूटर के बारे में कोई भी बात नहीं की. इसी तरह जिंदगी चल रही थी और मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि सक्षम को कैसे समझाऊं.

एक रात जब सक्षम घर लौटे तो बहुत बेचैन से लग रहे थे. पिछले कुछ दिनों से बहुत थकान का अनुभव भी कर रहे थे. पर डाक्टर के पास जाने से कतरा रहे थे. रात को 2 बजे तो स्थिति इतनी बेकाबू हो गई कि सक्षम को तुरंत डाक्टर के पास जाने की जरूरत लगने लगी. हमारे दोनों बच्चे बाहर पढ़ रहे थे और मैं अकेली थी. तैयब जी की पत्नी मेरी अच्छी दोस्त थीं और ड्राइविंग भी अच्छी तरह कर लेती थीं, सो, मैं ने उन्हें फोन पर सक्षम के बारे में बताया.

चूंकि वे हमारे फ्लोर के जस्ट नीचे वाले फ्लोर पर ही रहते थे सो 2 मिनट में वे आ ही गए और जल्दी से हम सक्षम को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. सच कहूं तो मैं तो इतनी बदहवास सी हो गई थी कि कुछ समझ नहीं आ रहा था. तैयब जी और सलीमा जी ने ही हौस्पिटल की सारी औपचरिकताएं पूरी कीं और सक्षम को एडमिट करवाया. तैयब जी और सलीमा जी तब तक मेरे साथ रहीं जब तक कि उसी शहर में रहने वाले सक्षम के बड़े भाई नहीं आ गए.

अगले दिन सक्षम की सारी रिपोर्ट्स आ गई थीं जिन में सक्षम को हेपेटाइटिस बी हुआ था, हीमोग्लोबिन का लैवल बहुत कम था और डाक्टर्स ने ब्लड चढ़ाने की जरूरत बताई थी. सुबहसुबह तैयब जी, सलमा तथा सोसाइटी के कुछ अन्य लोग चायनाश्ता और दोपहर का खाना ले कर हौस्पिटल आ गए. जब उन्हें पता चला कि सक्षम को ब्लड की जरूरत है तो सभी ने अपनेअपने लैवल से प्रयास किए. बड़ी मुश्किल से तैयब जी के ही एक रिलेटिव का ब्लड ग्रुप सक्षम के ग्रुप से मैच हुआ और सक्षम को चढ़ाया गया. 10 दिनों तक हौस्पिटल में रहने के बाद जब 11वें दिन सक्षम को डिस्चार्ज किया गया तो सक्षम बहुत खुश थे.

घर आते ही सलीमा चाय बना कर ले आई थीं. यही नहीं, मेरे घर की पूरी साफ़सफाई भी करवा दी थी उन्होंने. आज सक्षम ने भी सलीमा जी के हाथ की चाय पी और उन्हें थैंक्यू भी कहा. कुछ देर बैठ कर सब चले गए और मैं काम में व्यस्त हो गई. शाम को घंटी बजी, मैं ने दरवाजा खोला तो सलीमा और तैयब जी सोसाइटी के अन्य मैंबर्स के साथ केक ले कर खड़े थे. मैं चौंक गई,

“केक, क्योंकैसे?”

“आज क्या है, बताओ जरा…सब भूल गईं क्या?” सलीमा ने मुसकराते हुए कहा.

“आज, 20 जून. ओहो, हमारी शादी की 25वीं सालगिरह. अरे, सक्षम की बीमारी के चक्कर में मुझे तो कुछ याद ही नहीं रहा.”

सलीमा ने मुझे चेंज करने को कहा और टेबल पर केक व साथ लाया कुछ नाश्ता लगा दिया. जैसे ही हम दोनों केक काटने लगे तो सलीमा जी ने दोनों बच्चों को वीडियोकौल पर ले लिया. दोनों ही बड़े खुश हो गए. काफी देर तक गपें लगा कर जब सब जाने लगे तो सक्षम तैयब जी की तरफ मुखतिब हो कर बोले,

“आप लोगों को हमारे कारण बहुत परेशानी उठानी पड़ी.”

‘‘बेटा, इस में परेशानी की क्या बात है. हम सब एक परिवार हैं. 25वीं सालगिरह बारबार नहीं आती, इसलिए अच्छे मन से सैलिब्रेट करो.

बीमारीहारी तो आतीजाती रहती है.” तैयब जी की बातों से हम दोनों का ही मन प्रसन्न हो गया.

कुछ दिनों के आराम के बाद सक्षम ठीक हो गए. सोसाइटी की बात होने पर सक्षम अब प्रतिरोध करने के स्थान पर शांत हो जाया करते थे और एक दिन सक्षम स्वयं ही एक साल  का 6,000 रुपया मेंटिनैंस ले कर तैयब जी के पास पहुंच गए और बोले, “सर, आप ठीक ही कह रहे थे कि स्कूटर को मैं भी कबाड़ में ही देता. इसलिए उस मुद्दे को भूल कर आप यह राशि रखिए, साथ ही, सोसाइटी के लिए यदि मैं कुछ और भी कर सकता हूं, तो प्लीज बताइएगा.’’

मैं बहुत खुश थी कि भले ही सक्षम को यह देर में समझ आया पर आया तो कि आप के शहर में परिवार में कितने ही सदस्य हों परंतु आवश्यकता पड़ने पर सब से पहले पड़ोसी ही काम आता है. इसलिए आसपड़ोस से हमेशा बना कर रखनी चाहिए, साथ ही, हिंदू, मुसलमान सब की रगों में बहने वाले खून का रंग एक ही होता है.

फ्लैट में रहते समय छोटीछोटी बातों को इग्नोर कर के, सब के हिसाब से चलना चाहिए. फिर जहां हम निवास करते हैं वहां की सुविधाओं के उपभोग के लिए निर्धारित राशि देना हर निवासी का दायित्व है. साथ ही, जो लोग सोसाइटी के लिए काम करते हैं उन पर आक्षेप लगाने के स्थान पर उन्हें सहयोग करना चाहिए.

किसानों को रिझाने में जुटी भाजपा

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद 18 जून को मोदी वाराणसी पहुंचे जहां उन्होंने सब से पहले किसान सम्मेलन को संबोधित किया. साथ ही, उन्होंने 20 हजार करोड़ रुपया 17वीं पीएम किसान निधि के रूप में किसानों के खाते में ट्रांसफर किया. किसानों को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, “मैं ने किसान, नौजवान, नारीशक्ति और गरीब को विकसित भारत का मजबूत स्तंभ माना है. अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत मैं ने इन्हीं के सशक्तीकरण से की है. सरकार बनते ही सब से बड़ा किसान और गरीब परिवारों से जुड़ा फैसला लिया गया है. देश में गरीब परिवारों के लिए 3 करोड़ नए घर बनाने हों या फिर पीएम किसान सम्मान निधि को आगे बढ़ाना हो… ये फैसले करोड़ोंकरोड़ों लोगों की मदद करेंगे.”

कार्यक्रम के दौरान उन्होंने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की 30 हजार से अधिक महिलाओं को कृषि सखी के रूप में प्रमाणपत्र भी प्रदान किए. बकौल प्रधानमंत्री, पीएम किसान निधि योजना के तहत अब तक 11 करोड़ से अधिक पात्र किसान परिवारों को 3.04 लाख करोड़ रुपए से अधिक का लाभ मिल चुका है.

19 जून को किसानों के हित में मोदी सरकार ने एक और काम किया. मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 14 खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को मंजूरी दे दी. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को बताया कि धान, रागी, बाजरा, ज्वार, मक्का और कपास समेत 14 खरीफ सीजन की फसलों पर एमएसपी को लागू कर दिया गया है. जिस के फलस्वरूप किसानों को एमएसपी के रूप में लगभग 2 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे. धान का नया एमएसपी 2,300 रुपए होगा जो पहले से 117 रुपए ज्यादा है. उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का तीसरा कार्यकाल किसानों के कल्याण के लिए निरंतर कार्य करेगा.

अचानक मोदी सरकार किसानों के प्रति इतनी दयालु होती क्यों नजर आ रही है? वह सरकार जो अब तक किसानों की मांगों पर कान भी नहीं धर रही थी. वह सरकार जो किसानों के आंदोलन को अपने क्रूर दमनात्मक रवैए से कुचल देने पर उतारू थी, वह सरकार जिस ने किसानों की राह में बड़ेबड़े कीलकांटे और सीमेंट की दीवारें खड़ी कर उन्हें अपनी बात कहने के लिए दिल्ली के अंदर आने नहीं दिया, वह सरकार जिस के मंत्री ने आंदोलनरत किसानों को अपनी गाड़ियों से कुचल कर मारा और तोहफे में लोकसभा चुनाव का टिकट पाया. वह सरकार जिस के कानों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हुए 700 किसानों ने अपनी जान दे दी. आखिर, ऐसी कठोर सरकार का दिल किसानों के प्रति इतनी ममता कैसे उंडेलने लगा?

दरअसल इस की वजह है लोकसभा चुनाव का परिणाम, जिस के जरिए किसानों ने न सिर्फ अपनी ताकत का एहसास भारतीय जनता पार्टी को करा दिया है, बल्कि यह भी समझा दिया है कि उन की बात न सुनी गई तो वे आगे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मूल समेत उखाड़ फेंकेंगे.

अब की लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को काफी करारा जवाब दिया है. खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसानों ने तो भाजपा के पैरोंतले जमीन खींच ली. उत्तर प्रदेश में तो भाजपा को इतना बड़ा धक्का पहुंचा कि अपने बलबूते केंद्र की सत्ता पर आसीन होने और अपनी तानाशाही कायम करने का उन का सपना छन्न से टूट गया.

उत्तर प्रदेश जहां की 80 सीटों पर भाजपा जीत का दावा ठोंक रही थी, राम मंदिर उद्घाटन के बाद भी उस को मात्र 37 सीटें ही मिलीं जबकि समाजवादी पार्टी ने 42 सीटें जीत लीं. उत्तर प्रदेश की करारी शिकस्त ने ही भाजपा को सहयोगियों की बैसाखियों पर झूलने के लिए मजबूर किया. इस में सब से बड़ी भूमिका निभाई उत्तर प्रदेश के किसानों ने और उस के बाद व्यापारियों ने, जिन के कामधंधे मोदी सरकार की गलत नीतियों ने बिलकुल चौपट कर दिए हैं.

सिर्फ ये 3 राज्य ही नहीं, इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे देश से भाजपा के हक में कोई अच्छा फैसला जनता ने नहीं दिया. जबकि धर्म का ढोलतमाशा खूब हुआ, मंदिर महिमा के बखान के साथ मुसलमानों को भी जम कर गरियाया गया. ‘अब की बार 400 पार’ का स्लोगन ले कर भाजपा ने चुनावप्रचार किया, लेकिन जनता ने उस को 240 सीटों पर ही रोक दिया. जबकि यही भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में अकेले 303 सीटों पर जीत कर आई थी और अपने दम पर सरकार बनाई थी. मगर इस बार भाजपा को 63 सीटों का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है, जिस का मुख्य कारण किसान हैं. लिहाजा, अब किसानों को साधना जरूरी है.

भाजपा ने एनडीए के अन्य घटक दलों के सहयोग से किसी तरह सरकार तो बना ली है लेकिन इस ‘खिचड़ी’ सरकार में भाजपा की ताकत और फैसले लेने की क्षमता पहले की तरह नहीं है. कुछ ही समय बाद देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में यदि किसानों को नहीं पटाया गया तो बहुत बड़ा खमियाजा पार्टी को भुगतना पड़ेगा. इसी के मद्देनजर पार्टी ने अपनी स्थिति पर मंथन शुरू कर दिया है.

गौरतलब है कि 3 काले कृषि कानूनों को ले कर भाजपा के खिलाफ देश में बड़ा आंदोलन चला. ऐसे कानून जिन में अपने अमीर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की नीयत से मोदी सरकार ने किसानों को उन की ही जमीनों पर उन्हें मजदूर बनाने के सारे इंतजाम कर डाले थे. इस के खिलाफ सालभर से ऊपर दिल्ली की सीमा पर कई राज्यों के किसान धरने पर बैठे रहे. इस विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस की कड़ी कार्रवाई, मौसम की मार, कड़ाके की ठंड और बारिश के बीच बारबार पुलिस द्वारा मारनेभगाने की कोशिशें, जिस के चलते सैकड़ों बुजुर्ग और युवा किसानों की जानें गईं. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कहना था कि विरोध प्रदर्शन के दौरान लगभग 700 किसानों की मौत हुई है.

किसानों को जबरदस्त तरीके से प्रताड़ित करने के बाद जब सरकार ने देखा कि किसान सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लड़नेमरने पर उतारू हैं मगर आंदोलन ख़त्म करने को तैयार नहीं हैं तो किसानों के गुस्से को देखते हुए मोदी सरकार ने अपने 3 काले कृषि कानून वापस तो ले लिए, लेकिन किसानों का गुस्सा शांत करने या उन से माफी मांगने का कोई उपक्रम नहीं किया क्योंकि सरकार भारी अहंकार और दंभ में थी. नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी. ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का वोट शेयर जो 2019 में 39.5 फीसदी था, गिर कर 35 फीसदी हो गया. इस के अलावा किसानों के विरोध के चलते भाजपा को 40 सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पंजाब में गुरदासपुर और होशियारपुर की 2 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह कुल 13 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई. पंजाब में भाजपा की अलोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में चुनावप्रचार शुरू होने के बाद से ही उस के उम्मीदवारों को विरोध का सामना करना पड़ा. भाजपा के प्रति लोगों में इतनी नफरत थी कि कई गांवों में तो भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए आने से ही रोक दिया गया. तो कई जगह भाजपा उम्मीदवार और उन के समर्थकों को दौड़ादौड़ा कर गांव वालों ने पीटा.

हरियाणा में भी भाजपा की हार पंजाब जैसी ही रही. पिछले लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी ने राज्य में सभी 10 सीटों पर कब्जा कर के क्लीन स्वीप किया था, लेकिन इस बार वह सिर्फ 5 सीटें ही जीत पाई. पंजाब के बाद हरियाणा के किसानों ने 2020-21 के विरोध प्रदर्शनों में सब से जोरदार भागीदारी की थी. पंजाब की तरह हरियाणा में भी ग्रामीण जनता ने भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए गांवों में घुसने नहीं दिया.

लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी में हरियाणा के हजारों किसानों ने मोदी सरकार को उस के अधूरे वादों की याद दिलाने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर मार्च भी किया था. तब भी हरियाणा सरकार ने सख्त कदम उठाते हुए किसानों को शंभू बौर्डर पार करने से रोक दिया था.

दिलचस्प बात यह है कि केंद्र द्वारा कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान पश्चिमी जिलों में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा, मगर लोकसभा चुनावों में पासा पलट गया. गन्ना उत्पादक प्रमुख जिले मुजफ्फरनगर में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा, केंद्रीय मंत्री और लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता संजीव बालियान तक अपनी सीट जीतने में विफल रहे और 24,000 से अधिक वोटों से चुनाव हार गए. काशी की धरती पर भाजपा का ध्रुवतारा बने नरेंद्र मोदी मात्र डेढ़ लाख वोटों से ही विजयी हुए जबकि कई अन्य नेताओं का प्रदर्शन उन से कई गुना बेहतर रहा.

इस डैमेज कंट्रोल के लिए अब कवायद शुरू हो चुकी है. काशी के घाट से प्रधानमंत्री मोदी ने किसान सभा को संबोधित किया, कृषि सखी के तौर पर अनेक महिलाओं को सम्मानचिन्ह भेंट किए और किसानों के खातों में सम्मान निधि डालने की घोषणा की. उन को लग रहा है कि शायद देश का भोला किसान इस झुनझुने से बहल जाएगा और राज्यों के विधानसभा चुनावों में फिर भाजपा की झोली वोटों से भर देगा. मगर मोदी सरकार अब भ्रम में न रहे क्योंकि उस ने अपने 10 सालों के शासनकाल में देश के किसानों की जो दुर्दशा की है, वह इतने भर से ठीक होने वाली नहीं है.

आज किसानों की समस्याएं देशभर में सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़ी हैं. मोदी काशी के मंच से भले पीएम सम्मान निधि की घोषणा कर गए, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या वह पैसा किसानों के खाते में पहुंच रहा है? यह किस ने देखा? 20 हजार करोड़ रुपए की सम्मान राशि सुनने में बहुत बड़ी धनराशि मालूम पड़ती है, बड़ी आकर्षक बात लगती है, मगर एक किसान को इस में से क्या मिलता है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है.

पीएम किसान निधि योजना 2019 से चल रही है. इस के तहत किसानों को साल में 3 बार 2-2 हजार रुपए उन के बैंक खाते में दिए जाते हैं. यानी, एक किसान को साल में मात्र 6 हजार रुपए ही सरकार दे रही है. मगर ये 6 हजार रुपए भी प्राप्त करने में किसानों की एड़ियां घिस जाती हैं. उत्तर प्रदेश के देवरिया का एक किसान 2 साल से किसान निधि का पैसा पाने के लिए दौड़ रहा है.

वह कहता है, “कृषि विभाग के अधिकारी और कर्मचारी कार्यालय में मिलते ही नहीं हैं. बैंक जाओ तो वो कहते हैं कि कृषि विभाग से लिखवा कर लाओ, या पहले केवाईसी करवाओ. किसान सम्मान निधि के लिए 2 सालों से दौड़ रहे हैं, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो रहा है और अधिकारी एकदूसरे पर काम करने का ठीकरा फोड़ते हैं. मेरे साथ बहुत सारे किसान हैं जो इसी तरह परेशान हैं. अधिकारी उन्हें बहाने बना कर इधर से उधर टरकाते रहते हैं.

“सरकार को क्या लगता है कि तीनचार महीने में 2 हजार रुपए एक किसान को दे देने से वह आत्मनिर्भर बन जाएगा? उस के घर में खुशहाली आ जाएगी? उस के बच्चों के पेट भर जाएंगे? या उस के परिवार की अच्छी शिक्षादीक्षा हो जाएगी? 2 हजार रुपए भागदौड़ कर के अगर मिल भी गए तो वह ऊंट के मुंह में जीरा मात्र है.”

किसानों की समस्या यह है कि उन की फसलों के उचित दाम उन्हें नहीं मिल रहे हैं. चना सहित सभी दालें बहुत कम कीमत पर बिकती हैं. जो अनाज सरकार खरीदती है उस में से दलाल अपना बड़ा हिस्सा मार लेता है. देश में तिलहन और दलहन की खेती के बावजूद सरकार तेल और दालें बाहर से मंगवाती है. मगर इस की उपज बढ़ाने के लिए न तो किसानों को प्रोत्साहित करती है और न कोई आर्थिक मदद देती है. मोदी सरकार अगर किसानों की इतनी हितैषी बन रही है तो क्यों नहीं उन को अच्छे बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्र आदि कम दाम पर उपलब्ध कराती? छोटे जोत वाले किसानों के लिए ब्याजमुक्त ऋण उपलब्ध कराना सरकार का काम है, जिस की तरफ मोदी सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया. अपने अमीर उद्योगपतियों, व्यापारियों के अरबोंकरोड़ों रुपए के कर्ज चुटकियों में माफ करने वाली मोदी सरकार अन्नदाता का एक लाख रुपए का कर्ज भी माफ नहीं करती है.

देशभर का किसान कभी सूखे का सामना कर रहा है, कभी बाढ़ से अपनी फसलें बरबाद होते देख रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार लगातार बिजली के दाम बढ़ाती जा रही है. अव्वल तो बिजली आती नहीं, जो मिलती है उस के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. आखिर फसलों की सिंचाई कैसे हो? छोटा किसान तो आज भी मौसम की बारिश के आसरे ही बैठा है. बारिश समय पर हो जाए तो ठीक, वरना कर्ज का बोझ और बढ़ जाता है, क्योंकि बच्चों के भूखे पेट को एक वक्त की रोटी तो देनी ही है. जिस दिन सरकार सम्मान निधि की घोषणा कर रही थी उसी दिन आई चाइल्ड पौवर्टी पर यूनीसेफ एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत दुनिया के सब से खराब देशों में एक है जहां बच्चों को उचित आहार नहीं मिल रहा है. निश्चित ही ये बच्चे गरीब किसान और मजदूर वर्ग के ही हैं. खुद मोदी सरकार पूरे गरूर के साथ यह दावा करती है कि वह 80 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन बांट रही है. यानी, 80 करोड़ गरीब सरकार की दी गई भीख पर जिंदा हैं.

देशभर में जिस तरह एक्सप्रैसवे का जाल बिछाया जा रहा है उस से सब से अधिक पीड़ित देश का किसान ही है. इन एक्सप्रैसवे पर उस की बैलगाड़ी तो कभी नहीं चलेगी, इस पर तो मोदी सरकार के करीबी व्यापारियों, उद्योगपतियों और अमीरों की चमचमाती गाड़ियां ही दौड़ेंगी, मगर इन एक्सप्रैसवे का जाल पूरे देश में बिछाने के लिए किसानों की जमीनें जबरन अधिग्रहीत की जा रही हैं. उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के शक्तिपीठ एक्सप्रैसवे की बात करें तो यह एक्सप्रैसवे 12 जिलों से हो कर गुजरेगा. इस हाइवे से राज्य के करीब 12,589 किसानों को नुकसान होगा, जिस में बीड के परली चुनाव क्षेत्र के 700 किसान भी शामिल हैं. कहा जा रहा है कि राज्य की 27 हजार एकड़ जमीन इस हाईवे में चली जाएगी. मराठवाड़ा में प्रभावित कृषिभूमि कई सिंचाई नहरों, नदियों, कुओं, तालाबों की वजह से सिंचित और उपजाऊ है. इस सारी उपजाऊ जमीन को यह एक्सप्रैसवे खा जाएगा और किसान के हिस्से फांके आएंगे.

देश की सेना में नेताओं और व्यापारियों के बेटे नहीं बल्कि इन्हीं किसानों के बेटे जाते हैं. देश का पेट भरना हो या देश की रक्षा करनी हो, उस की सारी जिम्मेदारी हमारा किसान ही ढोता है. मगर सरकार उसे क्या दे रही है? सेना में जा कर देश पर अपनी जान न्योछावर करने का जज्बा रखने वाले किसानपुत्रों को 4 साला अग्निवीर बना कर मोदी सरकार ने उन के राष्ट्रप्रेम के जज्बे की जो तौहीन की है उसे किसान कभी माफ नहीं करेगा.

क्या पुरुषों को भी मेनोपौज होता है? एक्सपर्ट से जानें

आजकल परिवारों में ऐसे पुरुष आमतौर से देखने को मिलते हैं जिन की उम्र 45 वर्ष के आसपास है और जो काम व घर, दोनों जगह चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं और सुस्त जीवन व्यतीत करते हुए जीवन की नकारात्मकताओं के बारे में बात करते रहते हैं. ये वही लोग हैं जो कुछ वर्षों पहले तक बहुत खुशमिजाज हुआ करते थे और हंसीमजाक करते रहते थे. जो लोग रात में जोश से भरे होते थे, आज उन का जोश ठंडा पड़ चुका है. उन के साथ ऐसा क्या हो गया है? इस का कारण जानने की फिक्र कोई नहीं करता बल्कि सभी लोग उन से दूरी बना लेते हैं और अंत में स्थिति यहां तक बिगड़ जाती है कि उन्हें मनोवैज्ञानिक के पास ले जाना पड़ता है.

ये लोग काम में अच्छा प्रदर्शन करने के दबाव (काम संबंधी तनाव) में होते हैं, उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा और उन के कैरियर की चिंता होती है, जिस के लिए उन्हें ज्यादा पैसे कमाने और ज्यादा बचत करने की जरूरत होती है. उन्हें अपने वृद्ध होते मातापिता और उन की बीमारियों आदि की भी चिंता होती है. यह सभी घरों की आम कहानी है और ये पुरुष इस उम्र में जिस पीड़ा से ग्रसित हैं, उसे ‘पुरुषों का मेनोपौज’ या ‘एंड्रोपौज’ कहा जाता है.

30 साल की उम्र में पुरुषों में हार्मोन (टेस्टोस्टेरोन) धीरेधीरे कम होना शुरू हो जाते हैं. आमतौर से टेस्टोस्टेरोन हर साल एक प्रतिशत कम होते हैं. जब तक वो 45 वर्ष की आयु तक पहुंचते हैं, तो टेस्टोस्टेरोन में कमी के लक्षण कम ऊर्जा, मूडस्विंग और कामेच्छा में कमी के रूप में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने लगते हैं. इसलिए इस समय पुरुषों को मनोवैज्ञानिक की नहीं, बल्कि उन्हें समझने वाले परिवार व उन के एंड्रोपौज को नियंत्रित करने के लिए विशेषज्ञ सुझाव की जरूरत होती है.

मेनोपौज उम्र बढ़ने पर महिलाओं के जीवन में प्राकृतिक रूप से होने वाली एक घटना है, लेकिन मेनोपौज से केवल महिलाएं ही नहीं गुजरती हैं, बल्कि पुरुष भी इस चरण से गुजरते हैं, जिसे पुरुषों का मेनोपौज या एंड्रोपोज कहा जाता है. ‘पुरुषों के मेनोपोज’ का सिद्धांत, जिसे एंड्रोपौज या लेट-औनसेट हाईपोगोनैडिज्म कहा जाता है, वास्तविक है, हालांकि यह महिलाओं के मेनोपौज से बिलकुल अलग है. महिलाओं के मेनोपौज में प्रजनन हार्मोन में स्पष्ट और बहुत तेजी से कमी आती है, जो आमतौर से 50 वर्ष के आसपास होता है. वहीं पुरुषों के मेनोपौज में टेस्टोस्टेरोन का स्तर धीरेधीरे कम होता है, जिस की शुरुआत 30 से 40 वर्ष की आयु के बीच होती है.

क्या पुरुषों को मेनोपौज से गुजरना पड़ता है?

मेनोपोज हार्मोन कम हो जाने के कारण महिलाओं का प्रजननकाल समाप्ति पर होता है. माहवारी बंद होने के साथ यह प्राकृतिक रूप से होता है. लेकिन पुरुषों में हार्मोन का स्तर धीरेधीरे कम होता है. हालांकि, कुछ पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन अचानक कम होते हैं और एंड्रोपौज के लक्षण प्रकट होते हैं.

एंड्रोपौज को ‘पुरुषों का मेनोपौज’ भी कहते हैं, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है. मेनोपौज का मतलब माहवारी का बंद होना है, लेकिन पुरुषों को माहवारी नहीं हुआ करती है, इसलिए उन के लिए एंड्रोपौज शब्द का उपयोग करना चाहिए.

यह मुख्यतया मध्य आयु में या बुजुर्गों में तब होता है जब टेस्टोस्टेरोन का उत्पादन और प्लाज़्मा का घनत्व कम हो जाता है. पुरुषों के यौनकार्य में टेस्टोस्टेरोन का घनत्व काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो लगभग 10.4 mmol/L (10 मिलीमोल/लीटर) होता है, हालांकि यह अलगअलग पुरुषों में अलगअलग होता है. पुरुषों के टेस्टोस्टेरोन स्तर में 40 साल की उम्र के बाद हर साल औसतन एक प्रतिशत की कमी आ जाती है. ज्यादातर वृद्ध पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य होता है, केवल 10-25 प्रतिशत के स्तर को कम माना जाता है.

लेट औनसेट हाईपोगोनैडिज्म

कुछ मामलों में ‘पुरुषों का मेनोपौज’ जीवनशैली या मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण नहीं बल्कि हाईपोगोनैडिज्म के कारण होता है. इस स्थिति में टेस्टिस बहुत कम या फिर बिलकुल भी हार्मोन नहीं बनाते.

हाईपोगोनैडिज्म कभीकभी जन्म से होता है, जिस के कारण यौवन विलंब से प्राप्त होने और टेस्टिस छोटे होने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं. यह बाद में भी हो सकता है, जो खासकर उन लोगों को होता है, जो मोटापे या टाईप 2 डायबिटीज़ से पीड़ित हैं. इसे लेट-औनसेट हाईपोगोनैडिज्म भी कहते हैं और इस की वजह से ‘पुरुषों के मेनोपौज’ के लक्षण उत्पन्न होते हैं. लेकिन यह एक बहुत विशेष मैडिकल स्थिति है. लेट औनसेट हाईपोगोनैडिज्म का निदान उन लक्षणों और परीक्षणों के आधार पर किया जा सकता है जिन का उपयोग टेस्टोस्टेरोन का स्तर मापने के लिए करते हैं.

लक्षणः

इस के सब से आम लक्षण हैं-

● यौनेच्छा और यौनकार्य में कमी
● थकान और ऊर्जा में कमी
● मूड में परिवर्तन, चिड़चिड़ापन और अवसाद
● मांसपेशियों और शक्ति में कमी
● शरीर में ज्यादा फैट
● हड्डियों का घनत्व कम होना, जिस के कारण ओस्टियोपोरोसिस हो सकता है
● संज्ञानात्मक परिवर्तन, जैसे ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई या स्मृति की समस्याएं

व्यक्तिगत या जीवनशैली की समस्याएं

उपरोक्त लक्षणों के लिए जीवनशैली एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी जिम्मेदार होती हैं. उदाहरण के लिए यौनेच्छा में कमी, इरेक्टाईल डिस्फंक्शन, और मूड में परिवर्तन, तनाव, अवसाद और चिंता के कारण हो सकते हैं.
इरेक्टाईल डिस्फंक्शन के अन्य कारणों में धूम्रपान या हृदय की समस्याएं शामिल हैं जो मनोवैज्ञानिक समस्या के साथ हो सकती हैं. यह ‘मिड-लाईफ क्राइसिस’ के कारण भी हो सकता है जब पुरुषों को लगता है कि वो अपने जीवन के आधे पड़ाव पर पहुंच चुके हैं. उन्होंने अपनी नौकरी या व्यक्तिगत जीवन में क्या हासिल किया या क्या खो दिया, इस की चिंता उन्हें अवसाद की ओर ले जाती है.

कारण

इस का प्राथमिक कारण टेस्टोस्टेरोन के उत्पादन में धीरेधीरे कमी होना है. महिलाओं में हार्मोन का परिवर्तन अचानक होने के बजाय पुरुषों में यह परिवर्तन दशकों में धीरेधीरे होता है.

इस स्थिति को बढ़ाने वाले अन्य कारणों में मोटापा, पुरानी बीमारी (जैसे डायबिटीज़), विशेष दवाएं, और जीवनशैली, जैसे धूम्रपान और अत्यधिक मदिरा सेवन शामिल हैं.

कई अन्य कारण जिन की वजह से एंड्रोपौज के लक्षण समय से पहले प्रकट हो सकते हैं, उन में शामिल हैं-

● डायबिटीज
● धूम्रपान
● मदिरा सेवन
● तनाव
● चिंता या अवसाद

यदि इन में से कोई भी लक्षण महसूस हो तो डाक्टर से परामर्श लेना चाहिए. इन लक्षणों का कारण कुछ गंभीर समस्याएं हो सकती हैं.

निदान व इलाज

निदान में लक्षणों का मूल्यांकन और टेस्टोस्टेरोन का स्तर मापने के लिए खून की जांच की जाती है. यदि युवा पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य से कम है, तो यह एंड्रोपोज का संकेत हो सकता है. जांच का सब से अच्छा समय सुबह होता है क्योंकि टेस्टोस्टेरोन का स्तर पूरे दिन बदलता रहता है. लक्षणों के अन्य कारणों में थायरायड की समस्याएं या अवसाद हैं.

पुरुषों में कम टेस्टोस्टेरोन के इलाज की ओर पहला कदम जीवनशैली में परिवर्तन है. इस में स्वस्थ वजन बनाए रखना, बेहतर आहार, नियमित व्यायाम, तनाव प्रबंधन, और पर्याप्त नींद लेना शामिल है. अगर किसी को मानसिक स्वास्थ्य की कोई समस्या है, तो उसे एंटीडिप्रेसेंट या चिंता को नियंत्रित करने की दवाओं से लाभ मिल सकता है.

लक्षण बने रहने पर डाक्टर से संपर्क करना चाहिए, जो टेस्टोस्टेरोन रिप्लेसमेंट थेरैपी का परामर्श दे सकते हैं. टेस्टोस्टेरोन रिप्लेसमेंट थेरैपी (टीआरटी) उन पुरुषों के लिए लाभदायक है, जिन में टेस्टोस्टेरोन का स्तर बहुत कम और लक्षण गंभीर होते हैं. हालांकि टेस्टोस्टेरोन थेरैपी के अपने जोखिम और साइड इफैक्ट हैं, जिन में कार्डियोवैस्कुलर समस्याएं और प्रोस्टेट की समस्याएं शामिल हैं, इसलिए इन के लिए डाक्टर से नियमित निगरानी कराते रहना चाहिए.

पुरुषों में मेनोपौज वास्तव में होता है, हालांकि यह महिलाओं के मुकाबले बिलकुल अलग होता है. एंड्रोपौज के लक्षण पुरानी बीमारी के साथ भी हो सकते हैं. इसलिए किसी भी लक्षण को उम्र बढ़ने का सामान्य हिस्सा न समझें. यदि कोई भी लक्षण महसूस हो, तो फौरन अपने डाक्टर से संपर्क करें. वो इस के लिए सब से अच्छे इलाज का परामर्श दे सकते हैं.

लेखक – डा. विकास जैन

(डा. विकास जैन, मणिपाल हौस्पिटल, द्वारका में यूरोलौजी विभाग में एचओडी एवं कंसल्टैंट हैं.)

सीनियर सिटीजन में किट्टी का बढ़ता चलन 

किट्टी पार्टी एक तरीके का गेटटुगेदर है. यहां बहुत सारी महिलाएं और पुरुष एक घर में उपस्थित होते हैं. वहां कुछ गेम खेले जाते हैं और कुछ प्राइस दिए जाते हैं. साथ में, जिस के घर में पार्टी होती है वह कमेटी भी डालते हैं. इस से जरूरतमंद सदस्य की फाइनैंस संबंधी प्रौब्लम सौल्व होती हैं. ये पार्टियां मनमुताबिक घर और बाहर होटल्स में भी आयोजित की जाती हैं.

इस तरह की किट्टी में हर कपल शामिल होना चाहिए. एक उम्र में आ कर पतिपत्नी दोनों को समझना चाहिए कि उन का पार्टनर एकदूसरे के बराबर है. न ही कोई कम है न ही कोई ज्यादा. जीवनभर आप ने चाहे कुछ भी किया हो, जैसे कि पत्नी ने पति से लड़ाई की हो, पति ने पत्नी पर रोब मारा हो लेकिन जीवन की इस संध्या में जो जैसा है उसे वैसा ही प्यार से स्वीकार करो और साथ में एंजौय करने के लिए किट्टी पार्टी जैसे तरीके अपनाओ.

किट्टी दरअसल तम्बोला का एक खेल होता है जिसे पैसे के साथ या बिना पैसे के खेला जाता है. आमतौर पर शहरी पाश्चात्य संस्कृति की महिलाओं के बीच इस तरह की पार्टी का आयोजन किया जाता है जिन में महिलाएं एकत्रित हो कर समय बिताने के लिए तम्बोला के साथ चायनाश्ता और कुछ गपशप करती हैं. बारीबारी से एकदूसरे के घरों में जाती हैं और इस तरह के आयोजन करती हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ महिलाएं ये किट्टी पार्टी करती हैं बल्कि अब तो महिलाओं के साथ पुरुष भी इस में शामिल होते हैं.

सीनियर सिटीजन किट्टी के फायदे 

सोशल सर्कल बनेगा : रिटायर होने के बाद सोशल सर्कल काफी कम  हो जाता है. अगर हो तो भी पुराने दोस्तों से मिलना धीरेधीरे कम हो जाता है. ऐसे में किट्टी डाल लेने से अपने एरिया के काफी लोगों से जानपहचान हो जाती है. अगर चाहें तो अपने डिपार्टमैंट के कुछ लोगों के साथ यह कपल किट्टी डालें. पहले भले ही आप ने अपनी बीवी को अपना औफिस चाहे कभी न दिखाया हो लेकिन अब उन्हें अपने सर्कल से मिलवाने और दोस्ती करवाने का यह एक अच्छा मौका भी हो सकता है. आप चाहें तो इस तरह के कई ग्रुप बना लें जैसे कि अपनी सोसाइटी का, पुराने दोस्तों का, औफिस के लोगों का, रिश्तेदारों के साथ भी इस तरह की किट्टी डाल सकते हो.

टाइम पास होगा : कहते हैं न खली दिमाग शैतान का. बस, कुछ ऐसा ही है. रिटायरमैंट के बाद खाली बैठे कितना टीवी देखेंगे. घूमफिर कर पतिपत्नी किसी न किसी बात पर उलझ ही पड़ेंगे. लेकिन अगर महीने में 4-5 किट्टी इस तरह की डाल लेंगे, तो उस की प्लानिंग में ही टाइम बीत जाएगा. महीने में कुछ दिन किट्टी के बहाने घर से बाहर निकलेंगे तो लगेगा कि जैसे आप पूरे महीने ही बिजी हैं.

किट्टी को सीनियर सिटीजन क्लब के नाम से चलाएं 

आप चाहें तो अपनी किट्टी को एक क्लब का नाम दे कर भी शुरू कर सकते हैं. आज जहां बच्चे नौकरीपढ़ाई आदि के लिए घर से दूर रहते हैं, वहां अकेले रहने वाले सीनियर सिटीजन की भी कमी नहीं है. ऐसे में अगर कभी कोई जरूरत है, कोई बीमारी आदि के लिए हौस्पिटल जाना है या इस तरह का कोई भी काम है तो किट्टी के सभी मैंबर्स एकदूसरे की मदद करें ताकि बच्चों को भी चिंता न हो और आप को भी पता हो की इमरजैंसी में ग्रुप पर एक मैसेज करते ही मदद मिल जाएगी.

कपल को एकदूसरे के करीब आने का मौका मिलेगा 

किट्टी के बहाने ही सही पर अब काफी हद तक उन के टौपिक औफ़ इंट्रैस्ट तो एक ही होंगे. किट्टी के बारे में बात करतेकरते वे एकदूसरे से जुड़ जाएंगे. आपस में टाइम स्पैंड करेंगे. इस उम्र में एकदूसरे की जरूरतें भी पता चलेंगी. कई बार आप को लगता होगा कि पत्नी तो बेकार ही हर वक्त अपनी बीमारियों का रोना रोती रहती है लेकिन जब आप किट्टी में देखेंगे कि इस उम्र की लगभग सभी महिलाएं इन परेशानियों का सामना कर रही हैं, तो आप को भी अच्छी तरह से अपनी पत्नी की तकलीफें समझ आएंगी.

खुद को फिट रखना जरूरी लगने लगेगा 

किट्टी में जाएंगे, वहां लोगों से मिलेंगे तो पता चलेगा कि रिटायरमैंट के बाद ज़िंदगी ख़त्म नहीं हुई  बल्कि एक नई ज़िंदगी बांहें फैलाए आप का इंतज़ार कर रही है. वहां जा कर आप का मन नएनए कपड़े, फैशन की चीजें लेने का करेगा. मन में खुद आएगा कि चलो, कुछ नया ले लेते हैं, हर बार सूट ही क्यों पहनना. चलो, इस बार कोई अलग से ड्रैस ट्राई करती हूं आदिआदि. मिसेज जिंदल ने भी तो कितनी अच्छी ड्रैस पहनी थी, फिर मैं क्यों न पहनूं. मेरी तो फिगर भी उन से अच्छी है. आप को इस तरह सजतासंवरता देख पति भी खुश होंगे और वे भी अपने लिए शौपिंग करने से पीछे नहीं हटेंगे. बाकी लोगों को देख आप भी औनलाइन ऐक्सरसाइज आदि शुरू कर सकते हैं. अपनी फिटनैस को ले कर सजगता बढ़ेगी तो खानेपीने पर भी धयान देंगे.

फैस्टिवल पर बच्चों का न आना नहीं खलेगा 

कई बार बच्चे अगर फैस्टिवल पर नहीं आ पाते, तो आप का मन उदास हो जाता है कि अब क्या करेंगे. जब बच्चे ही नहीं हैं तो कैसा फैस्टिवल. लेकिन आप चाहें तो एक कैटरर बुक कर के अपने घर किट्टी रख सकते हैं. अब घर सजाने का मन भी करेगा और घर में रौनक भी हो जाएगी. बच्चे बहुत खुश होंगे कि चलो, मम्मीपापा भी एंजौय कर रहे हैं.

कपल में सहयोग की भावना बढ़ेगी 

पूरी ज़िंदगी भले ही आप ने कभी किचन में पत्नी का हाथ न बंटाया हो पर अब तो किट्टी आप दोनों की है तो उस की तैयारियां भी साथ मिल कर ही करनी होंगी. इस से आप दोनों में सहयोग की भावना बढ़ेगी. एकदूसरे के सहयोग के साथ किचन में काम करने को एक बार ट्राई जरूर करें. यकीन मानें, इस का आनंद ही कुछ और होगा. यह काफी रोमांटिक भी हो सकता है आप दोनों के लिए.

धयान दें 

-किट्टी में एकदूसरे की बुराई न करें.
-किट्टी को घरेलू झगड़े निबटाने का प्लेटफौर्म न बनाएं.
-आप हैसियत में किसी से ज्यादा हैं तो किट्टी को अपने शो-औफ करने का अड्डा न बनाएं.
-अगर आप अपने साथी की इमेज बना कर चलेंगे, तो आप की इमेज भी बेहतर बनेगी क्योंकि आप दोनों एकदूसरे से जुड़े हैं.
-मदद करेंगे तो मदद मिलेगी भी. यह याद रखना, आज सामने वाले को जरूरत है तो कल आप को भी जरुरत हो सकती है. इसलिए मदद करने से कभी पीछे न हटें.
-इस बात का हमेशा धयान रखें कि किट्टी भी परिवार की तरह है. वहां आप की बात से किसी को ठेस न पहुंचे.

रामदेव की दवाई पर कोर्ट का वार, क्या सचमुच था कोरोनिल का इलाज?

यह किसी आजाद देश और नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ही संभव है कि कोई गेरुआ वस्त्र धारी बाबा मानवीय संकट के समय रातोंरात ‘कोरोनिल’ नामक कोविड-19 महामारी के दौरान दवाई ले आता है और बड़ेबड़े दावे करने लगता है, और देश का स्वास्थ्य मंत्रालय मौन रहता है. आंखों पर पट्टी बांध कर लूटने की छूट दी जाती है. विज्ञापन प्रकाशित होते हैं मगर इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया जाता. क्या सिर्फ नरेंद्र मोदी की सत्ता में दबाव, प्रभाव, और संपर्क के कारण पूरी व्यवस्था रामदेव के इस कृत्य को देखते रह गई जिस में उन्होंने स्वयं बताया था कि कोरोनिल बेच कर उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए हैं.

इस घटनाक्रम को ध्यान से देखने वाले समझ सकते हैं कि देश में कानून और व्यवस्था नाम की चीज़ कितनी है. और बाबा रामदेव जैसे लोगों को मौका मिलता है तो वह रुपये के कारण कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं और दोनों हाथों से लूटते हैं. ये देश की जनता को बेवकूफ बनाने का काम करते हैं और मजे की बात यह है कि गेरुआ कपड़ा पहन कर अपने आप को ‘बाबा’ घोषित कर संसार में इज्ज़त भी पाते रहते हैं. अब जब न्यायालय ने इस सब को संज्ञान लिया है तो लगभग 3 साल बाद रामदेव के गले में मानो घंटी बंध गई है.

कौन बाधेगा गले में घंटी?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने योग गुरु रामदेव को कोविड-19 के इलाज के लिए ‘कोरोनिल’ के इस्तेमाल से संबंधित कुछ आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट हटाने का निर्देश दिया है. न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने कहा कि वह रामदेव के खिलाफ चिकित्सकों के कई संघों द्वारा दायर याचिका को स्वीकार कर रहे हैं. न्यायाधीश ने कहा कि कुछ आपत्तिजनक पोस्ट और सामग्री को हटाने के निर्देश दिए जाते हैं.

अदालत ने कहा कि अगर निर्देश का पालन नहीं किया जाता है, तो सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ इस सामग्री को हटा देगा. प्रतिवादी को 3 दिनों में उन ट्वीट को हटाने के निर्देश दिए जाते हैं. अदालत ने कहा कि अगर निर्देश का पालन नहीं किया जाता है, तो सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ इस सामग्री को हटा देगा. यह याचिका रामदेव, उन के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण और पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ चिकित्सक संघों द्वारा दायर 2021 के मुकदमे का एक हिस्सा है.

न्यायमूर्ति भंभानी ने पक्षकारों को सुनने के बाद 21 मई को इस मुद्दे पर आदेश सुरक्षित रख लिया था. मुकदमे के अनुसार, रामदेव ने ‘कोरोनिल’ के संबंध में अप्रमाणित दावे करते हुए इसे कोविड-19 की दवा बताया था, जबकि इसे केवल रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की दवा के तौर पर लाइसेंस दिया गया था. चिकित्सक संघों ने आरोप लगाया कि रामदेव द्वारा बेचे जाने वाले उत्पादों की बिक्री को बढ़ाने के लिए गलत सूचना के आधार पर अभियान चलाया गया, जिस में ‘कोरोनिल’ भी शामिल है. दरअसल, अगर देश में कानून का राज है तो ऐसे बाबाओं पर कानून का अंकुश लगाया जाना चाहिए और गले में घंटी बांध कर देश को बताना होगा कि आप को इन के धोखे से बचना है और अब यह जेल में रहेंगे.

अपने लिए न सही : हिम्मत जुटाती बहू की मन आंदोलित करती कथा

‘‘देखो मम्मा, शालू जो भी बनाए, तुम चुपचाप खा लिया करो. जब कोई उस की बनाई चीज न खाए तो उसे बहुत दुख होता है,’’ अजय ने अपनी धुन में वह सब कह दिया जो मैं कभी अपने पति के मुंह से नहीं सुन पाई थी और जिसे सुनने की चाह सदा मेरे मन में रही.

अपनी पत्नी की भावनाओं का अजय को कितना खयाल है. सही तो है, 4 सदस्यों का यह घर है ही कितना बड़ा कि जिस में कोई किसी की भावनाएं न समझ पाए और उन का आदर न कर पाए.

मेरे सामने चटपटी सब्जी, करारी पूरियां, साथ में हलवा और भरवां करेले की सब्जी परोसी हुई थी. सबकुछ स्वादिष्ठ और खुशबूदार था.

जीवन कितना छोटा सा है. कभीकभी इतना छोटा कि बरसों पुरानी बातें, जिन का मानस पटल पर गहरा प्रभाव छूट चुका होता है, कभी पुरानी लगती ही नहीं. लगता है जैसे कल ही सबकुछ घटा हो.

‘देखो मंदा, तुम्हारे मायके में चटपटी, करारी चीजें खाई जाती होंगी, मगर इस घर में इतना करारा और मिर्चमसालेदार खानापीना नहीं चलता,’ अभी मुझो ब्याह कर घर में आए मात्र 2 ही दिन हुए थे तब सासुमां का आदेश मेरे कानों में पड़ा था.

इन 2 दिनों में मैं वह सब कहां देख पाई थी कि मेरे ससुराल वाले कितना तीखा या हलका खाते हैं. अगर मुझे कुछ दिन यह देखनेपरखने का अवसर दिया गया होता तो मुझ से ऐसी भूल न होती. मुझे तो डोली से उतरते ही पति विजय ने रसोई में यह कहते धकेल दिया था, ‘देखो मंदा, मां और बाबूजी खानेपीने में बहुत एहतियात बरतते हैं. अगर खाना इन की इच्छा का न हो तो मां बहुत चिढ़ जाती हैं, पता नहीं क्यों, इन्हें खाना अच्छा न होने पर बहुत गुस्सा आता है.’ उस वक्त मैं ने सिर्फ ‘जी’ कह कर गरदन झुका दी थी.

25-26 साल हो गए उस घटना को, तरोताजा हैं आज भी वे तेवर, वे अंदाज, जिन के द्वारा मुझे मेरी औकात समझाई गई थी.

‘औकात’ शब्द शायद शालीन न लगे परंतु आज भी यह उतना ही सत्य है जितना 25-26 साल पहले मेरी अवस्था पर सटीक बैठता था. अपनी ‘औकात’ या अपना ‘स्थान’ मैं इस घर में कभी भी समझ नहीं पाई थी कि मैं क्या हूं. मेरी हैसियत क्या है, किस पर मेरी क्या मरजी चल सकती है? कौन मेरे अधिकार में है? किस से मन की कहूं और वह मुझे समझे, मैं ने कभी नहीं जाना.

‘यह गुलाबी रंग की साड़ी क्यों उठा लाई, मां को यह रंग अच्छा नहीं लगता. लाल रंग की लानी थी न’, जब मैं मायके से आई थी तब भाई द्वारा उपहार में दी गई साड़ी पर विजय ने कटाक्ष करते हुए कहा था. मारे डर के मैं वह साड़ी कभी नहीं पहन पाई क्योंकि सासुमां को उस रंग से चिढ़ है. अब क्यों चिढ़ है, यह मैं ने कभी नहीं पूछा.

मेरे बेटा हुआ और उस के बाद दूसरी संतान का मुंह मैं ने नहीं देखा, क्योंकि सासुमां को बच्चों की लाइन लगाना पसंद न था. ‘शेर का एक ही होता है,’ ऐसा उन का मानना था. उन का एक ही था, इसलिए मेरा भी एक ही रहा.

मैं सोचती हूं कि मैं ने अपना जीवन अपने मुताबिक कब जिया और वे अपना जीवन जीने के बाद मेरा जीवन भी जीती रहीं. पति कब मेरे पास बैठें, मुझ से बात करें, इस पर भी सदा उन्हीं का राज रहा.

‘आज महिला समिति की मीटिंग है, शाम को देर हो जाएगी, समय पर अपने पिताजी को चायनाश्ता और खाना खिला देना. अजय की पोशाक मैं जातेजाते लेती जाऊंगी, उसे भी समय से दूध पिला देना. चलो विजय,’ कहते हुए मांबेटा खटखट करते कब निकल जाते, पता ही न चलता था. मैं आया बनी घर का सारा काम करती रहती, क्योंकि मन में स्वामिनी जैसा भाव तो कभी जागा ही नहीं था.

अजय मुझे अपना बच्चा कम मालिक ज्यादा लगता था. एक अदृश्य दीवार सदा मुझे अपनी संतान और अपने बीच महसूस होती. अधिकार की भावना मुझ में कभी जागी ही नहीं थी और न ही अजय मुझे मां जैसी अहमियत देता था.

अजय जब 15-16 वर्ष का था तब मेरे ससुर का देहांत हो गया था. मौत वह शाश्वत सचाई है जिसे कभी कोई बदल नहीं पाया. भला पिताजी के देहांत पर मेरा क्या जोर था जो मांबेटा अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारते रहे. गमगीन खड़े विजय के कंधे पर हाथ रख कर मैं ने जरा पुचकारना चाहा था, सांत्वना देनी चाही थी, तब वह मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े थे, ‘बाप मरा है मेरा, कोई गली का कुत्ता नहीं मरा जो मुझे रोने से रोक रही हो.’

यह सुन कर तो मैं अवाक रह गई थी, ‘अरे, इस घर में बाकी सब तो मेले में आए हैं न. जिस का मरा, बस उसी का मरा है. बेटा, मैं हूं न तेरे साथ,’ सासुमां का बेटे से लिपट कर रोना, मानो मुझे ही अपराधिनी बनाता गया, जैसे मरने वाला मेरा कुछ भी नहीं लगता था, जैसे मैं इस घर की कुछ थी ही नहीं. समझ ही न पाती थी कि मैं क्या करूं, क्या न करूं.

अवसाद और आक्रोश से मन सदा भरा रहता, नसें तनी रहतीं. हर पल का तनाव धीरेधीरे मेरे स्वास्थ्य पर अपना प्रभाव दिखाने लगा. अकसर खाना खाने के बाद मुझे उलटी हो जाती, मन जलता रहता. जब हालत ज्यादा बिगड़ती तभी डाक्टर को दिखाया जाता. डाक्टर बताता कि पेट में तेजाब की मात्रा बढ़ जाने से ऐसा होता है. नतीजतन, तली चीजें तो मेरे लिए धीरेधीरे जहर ही बन गईं. खट्टा और चटपटा भोजन मुझ से छूट गया.

आज लगभग 10 साल हो गए, मैं परहेज पर हूं. भारी भोजन खा ही नहीं पाती, सिर्फ देख कर ही संतोष कर लेती हूं. सासुमां आज भी हर चीज पर बड़े ठाट से अधिकार जमाए राज कर रही हैं.

मैं ने जब घर के सदस्यों की गणना की तब अपना नाम उन के साथ नहीं जोड़ा था. मैं घर की 5वीं सदस्या हूं मगर मेरा होना, न होना एकसमान ही तो है. इसीलिए तो कहा था कि घर में मात्र 4 सदस्य हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का आदर करते हैं. यदि इस 5वीं सदस्या की कोई एहमियत होती तो पूरी और चटपटा भोजन मेरे सामने नहीं परोसा जाता.

सासुमां अपने पोते के लिए अपनी पसंद की बहू लाईं. मेरी पसंद, नापसंद किसी ने पूछी ही नहीं. मेरे बेटे ने भी नहीं. बस, सूचित भर कर दिया गया कि फलांफलां तारीख को शादी है.

शादी की सारी खरीदफरोख्त सासुमां और अजय ने ही मिल कर की. अपनी बहू को मैं ने पहली बार शादी के बाद ही देखा.

‘‘मम्मा,’’ शालू ने कहा तो सहसा मेरी तंद्रा टूटी. पता नहीं क्यों आंखें भर आई थीं. शादी के काम से थक गई तो बुखार ने आ जकड़ा था, वरना शादी के 15-20 दिनों बाद तक भी मैं ने अपनी बहू को रसोई में काम नहीं करने दिया था. उस से ज्यादा बातचीत भी नहीं की थी. सच कहूं तो मौका ही नहीं मिला था.

‘‘अरे, यह क्या? अजय आप के सामने यह क्या रख गए? हद हो गई,’’ कहते हुए शालू ने आननफानन अजय को भी वहीं बुला लिया. फिर बोली, ‘‘मम्मा क्या यह सब खाएंगी? आप को क्या पता नहीं कि वे एसिडिटी की मरीज हैं, बावजूद इस के इन्हें बुखार भी है.’’

अपनी बहू के इन शब्दों पर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘दादीमां ने कहा, दे आओ, तो मैं दे आया,’’ कहते हुए अजय कुछ हिचकिचाया था. वह फिर बोला, ‘‘आज तुम ने पहली बार खाना बनाया है न.’’

‘‘तो क्या आप मम्मा को जहर खिला देंगे? यह पूरी, खट्टा, तले करेले, क्या मैं मम्मा के लिए कुछ और नहीं बना सकती हूं?’’ बहू बोली.

अजय की नजर में तो मेरा महत्त्व कभी इतना था ही नहीं. शायद इसी वजह से वह परेशान था कि मेरी इतनी परवा क्यों और किसलिए. मेरे मन के भीतर की बच्ची, जो शरीर के बूढ़ा हो जाने के बाद भी परिपक्व नहीं हो पाई थी, वात्सल्य को सदा तरसती ही रही थी, स्नेह से भीग गई थी.

मेरी बहू ने झपट कर वह थाली उठाई और बाहर चली गई. हक्काबक्का सा अजय मेरी ओर देखता रहा.

‘‘मम्मा, आप की खिचड़ी, उठिए.’’ कहते हुए शालू ने मु?ो सहारा दे कर बैठाया. मेरे सामने तौलिया बिछा कर बड़े स्नेह से चम्मच भर कर खिलाने लगी. पूरी उम्र की पीड़ा न जाने कहां से एकत्रित हो कर मेरे गले में आ अटकी थी, सो मैं भावातिरेक में मुंह ही न खोल पाई.

‘‘अरे, खा लेगी खुद, यह कोई बच्ची है क्या. चल, इधर आ, पंडिताइन आई है, उस की थाली निकाल दे. महरी का हिस्सा भी अभी तक नहीं निकाला. कब से समझ रही हूं. तू सुनती क्यों नहीं,’’ कहती हुई सासुमां दनदनाती हुई भीतर चली आई थीं.

‘‘पहले मम्मा को खिचड़ी खिला दूं, दादी मां, फिर आप जो कहेंगी…’’

‘‘अरे, आज पहले दिन खाना बनाया तो यह क्या अनापशनाप बनाने बैठ गई? यह खिचड़ी क्यों बनाई. सारी उम्र यही बनाते रहने का इरादा है क्या. यह बीमारी का भोजन बना कर सब अपशकुन कर दिया,’’ शालू की बात काटते हुए सासुमां बोलीं.

‘‘इस में अपशकुन वाली क्या बात है, दादीमां? बीमारी की हालत में भी मम्मा…’’

‘‘अगर एक दिन तेरे हाथ का बना खा लेगी तो यह मर नहीं जाएगी. तू ने किस से पूछ कर खिचड़ी बना ली,’’ सासुमां ने फिर शालू की बात काटते हुए कहा.

‘‘दादीमां,’’ कहते हुए जोर से चीखी मेरी बहू, ‘‘शुभशुभ बोलिए.’’

सासुमां के सामने शालू के इतनी ऊंची आवाज में बोलने पर मैं, मेरे पति विजय और मेरा बेटा अजय अवाक रह गए थे.

‘‘खिचड़ी जैसी मामूली चीज बनाने के लिए भी क्या मुझे आप की इजाजत लेनी पड़ेगी और वह भी अपनी बीमार सासुमां के लिए. यह सब क्या है, पापा? अजय, आप बोलिए न कुछ,’’ शालू ने खिचड़ी का डोंगा एक तरफ रख कर इन दोनों से पूछा, जिन से मैं भी कभी कुछ न पूछ पाई थी.
‘‘तुम दादी के सामने ऐसे कैसे बोल…’’

‘‘और वे जो मम्मा के लिए इस तरह बोल रही हैं? यह आप की मां हैं या घर में पलती कोई नौकरानी. इतने दिन से मैं सब देखसुन रही हूं. किसी को मम्मा की परवा ही नहीं है. पापा, आप समझइए न अपने बेटे को, जितनी इज्जत आप अपनी मां की करते हैं, कम से कम अजय को उतनी तो अपनी मां की करनी चाहिए,’’ अजय की बात काट कर शालू बोली तो मेरे पति चौंक गए. कभी वे अपनी मां का मुंह देखते तो कभी अपनी बहू का और कभी मेरा, जो कोई दोष न होने पर भी स्वयं को दोषी मान रही थी, क्योंकि मेरी ही वजह से सारा बवाल उठ खड़ा हुआ था न.

मेरी बहू मेरी तरह बेजबान गाय नहीं है, यह जान कर मु?ो खुशी भी हो रही थी, मगर बेवजह अशांति से मु?ो घबराहट भी होने लगी थी.
‘‘देखा, अजय, कितनी जबान चलती है तेरी औरत की. संभाल इसे वरना उम्रभर पछताएगा. देखा तू ने, कैसे यह मेरे सामने बोल रही है,’’ सासुमां पूरी ताकत से दहाड़ी.

‘‘शालू, तुम चलो अपने कमरे में,’’ अजय ने पत्नी की बांह पकड़ते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ने किया क्या है जो दादीमां इतनी हायतोबा मचा रही हैं? यह मेरी जबानदराजी कैसे हो गई, पापा? आप ही बताइए.’’

इस चक्रव्यूह में मेरी बहू हड़बड़ा गई थी.

‘‘कल यह कहां गई थी, जरा पूछ इस से? पूरी शाम बाहर बिता कर आई है,’’ सासुमां ने पैंतरा बदलते हुए कहा.

‘‘हैं,’’ कहते हुए निरीह गाय सी शालू मेरा मुंह देखने लगी, जैसे इस अप्रत्याशित आरोप के बाद उस ने कुछ याद करने का प्रयास किया हो.

‘‘कौन आया था इसे लेने, जरा पूछ? बिना मुझ से पूछे यह कहां गई थी?’’

‘‘वह मेरी बूआ का बेटा था, दादीमां. आप पूजा कर रही थीं, इसलिए मैं मम्मा से कह कर चली गई थी,’’ कहते हुए सवालिया भाव लिए शालू ने मुझे देखा. उस ने अपनी सुरक्षा में वे दो शब्द मुझ से चाहे जो मेरी सुरक्षा में कभी किसी ने नहीं कहे थे.

‘‘तुम दादीमां से बिना पूछे कहां गई थीं?’’ कहते हुए अविश्वासभरी आंखों से अजय ने पत्नी को देखा.

शालू हैरान थी कि बात कहां से कहां चली आई थी. सासुमां अधिकार अपने हाथ से निकल जाने का डर सह नहीं पा रही थीं, इसीलिए मेरी बहू के चरित्र पर लांछन लगाने से भी बाज नहीं आई थीं. अजय, जिसे मैं कभी गोद में ले कर लाड़प्यार नहीं कर पाई थी, उसी अजय पर मैं आकंठ क्रोध में डूब गई. कैसा पुरुष है अजय, पत्नी को कैसी नजरों से घूरने लगा है, कान का कच्चा कहीं का, जैसा बाप वैसा बेटा. इस ने सारे संस्कार अपनी दादी से पाए हैं.

‘‘कहां गई थीं तुम?’’ अजय ने फिर सवाल किया.

स्वयं को ‘मर्द’ प्रमाणित करने का यही तो एक आसान तरीका है न उस के पास. यही तरीका उस के पिता ने भी अनेक बार अपनाया था. मुझे प्रताडि़त करा कर सासुमां का चेहरा दर्प से खिल जाता था, चमक उठता था, मानो कह रही हों कि देखा न, बड़ी चली थी मेरा बेटा हथियाने. चैन से जीना है तो चुपचाप मेरी चाकरी कर वरना चोटी पकड़ घर से बाहर निकलवा दूंगी.

‘‘किस के साथ गई थी तू?’’ कहते हुए अजय का हाथ मेरी बहू पर उठ गया.

मैं समझ ही नहीं पाई कि मुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई. तेज बुखार में भी शरीर ने मेरा साथ देने से इनकार नहीं किया. मैं ने झपट कर शालू को अपनी गोद में खींच कर अजय को परे धकेल दिया और कहा, ‘‘हाथ काट कर फेंक दूंगी जो इसे मारा. जानवर कहीं के, बापबेटा दोनों एकजैसे नामर्द.’’

यह सुन कर बापबेटा अवाक रह गए थे. ‘नामर्द’ शब्द पता नहीं मेरी जीभ से कैसे फिसल गया. मैं फिर बोली, ‘‘पत्नी के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकते थे तो इस के साथ फेरे लेने क्यों चल पड़े थे? तुम्हारी यही मर्दानगी है कि बिना सोचे समझे पत्नी पर शक करो?’’

यह सुन कर तो सासुमां को काठ मार गया, जैसे सब हाथ से निकल गया.

‘‘इज्जत चाहते हो तो इज्जत देना सीखो, अजय. उसी नक्शेकदम पर मत चलो जिस पर चल कर तुम्हारा बाप सारी उम्र न खुद चैन से जिया और न मुझे ही जीने दिया,’’ मैं कहे जा रही थी और शालू मेरी छाती में समाई थरथर कांप रही थी.

‘‘बस, मेरी बच्ची, बस, डर मत. मैं हूं तेरे साथ.’’

फूटफूट कर रो पड़ी शालू. मुझ से लिपट कर अस्फुट शब्दों में पूछने लगी, ‘‘मम्मा, मम्मा, मैं आप के सामने ही तो गई थी. वह मेरी बूआ का बेटा था. आप से पूछ कर ही तो गई थी न मैं.’’

‘‘हां, बेटा, तू मुझ से पूछ कर ही गई थी,’’ कहते हुए मैं ने अजय की आंखों में देख कर उत्तर दिया.

मैं ने शालू को कस कर बांहों में जकड़ लिया. अवाक था अजय, जैसे विश्वास ही न कर पा रहा हो कि मैं ही उस की वह डरीसहमी मां हूं जो कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करती थी और आज उसे और उस के पिता को भी ‘नामर्द’ शब्द से सुशोभित कर रही थी.

‘‘किसी चीज को उतना ही खींचना चाहिए जितनी वह खिंच सके. ज्यादा खींचने पर वह टूट जाती है या पलट कर प्रहार करती है, समझे तुम.’’

अजय चुपचाप सुनता रहा.

कमरे में शांति छा गई. मात्र शालू रोती रही. सासुमां चली गईं, उन के पीछेपीछे मेरे पति और फिर अजय भी चले गए.

‘‘चुप हो जाओ, शालू, बस,’’ मैं ने शालू को पुचकारा. फिर अपनी प्यारी बहू का चेहरा सामने किया. इस से पहले मैं ने उसे इतनी पास से कहां देखा था. ऐसा लगा जैसे वह मेरी अजन्मी संतान है जिस की चाह मैं सदा मन में पाले रही. अजय के बाद एक बेटी की चाह, जिसे सासुमां ने पूरा नहीं होने दिया था.

‘‘मम्मा, मैं ने ऐसा क्या कर दिया जो…’’

‘‘तुम ने ऐसा कुछ नहीं किया, बेटी. बस, यह मेरी ही शराफत थी जिस का असर तुम पर भी पड़ा. लाओ, मुझे अपने हाथ का बना खाना तो खिलाओ,’’ मैं ने उस की बात काटते हुए खिचड़ी के डोंगे की तरफ इशारा किया.

आंसू पोंछ कर शालू ने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया, बोली, ‘‘मम्मा, आप जब अच्छी हो जाएंगी तब मैं आप को बढि़या पकवान बना कर खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरे लिए तो यही पकवान हैं, बेटे. तुम्हें मेरी इतनी चिंता है और इस खिचड़ी के लिए तुम ने क्याक्या नहीं सुना और मैं ने क्याक्या नहीं देखा.’’

रोतेरोते मुसकरा दी वह, फिर बड़े स्नेह से मुझे खिचड़ी खिलाने लगी. मैं सोचने लगी कि अकारण ही मैं ने अपना जीवन डरडर कर बिता दिया.

क्यों मैं वह हिम्मत पहले नहीं जुटा पाई जो आज अनायास ही जुटा ली? पहले वह सब क्यों नहीं कह पाई जो आज इतनी दृढ़ता से कह दिया.

खातेखाते मेरा मन असीम तृष्णा से भर गया. प्यार से मैं ने शालू का माथा चूम लिया. देर से ही सही मैं ने कुछ कह पाने का साहस तो जुटाया, अपने लिए न सही अपनी बहू के लिए ही सही.

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