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रिचा चड्ढा को मिली फिल्म ‘‘शकीला’’ की बायोपिक फिल्म

इन दिनों बायोपिक फिल्मों की भेड़चाल का हिस्सा बनने के लिए सभी दौड़ लगा रहे हैं. एक तरफ खिलाड़ियों पर बायोपिक फिल्में बन रही हैं, तो दूसरी तरफ कलाकारों पर भी बायोपिक फिल्में बन रही हैं. सिल्क स्मिता के जीवन पर बनी बायोपिक फिल्म ‘‘द डर्टी पिक्चर्स’’ में सिल्क स्मिता का किरदार विद्या बालन ने निभाया था. हालिया प्रदर्शित संजय दत्त की बायोपिक फिल्म ‘‘संजू’’ में संजय दत्त के किरदार में रणबीर कपूर नजर आ रहे हैं.

अब दक्षिण की सर्वाधिक चर्चित अदाकारा रही शकीला खान की जिंदगी पर इंद्रजीत लंकेश एक अति बोल्ड बायोपिक फिल्म ‘‘शकीला’’ बना रहे हैं. जिसमें शीर्ष भूमिका निभाने के लिए रिचा चड्ढा को अनुबंधित किया गया है. इस फिल्म की शूटिंग अगस्त माह से शुरू होगी. दक्षिण भारत में हर फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही शकीला की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गयी. हालात ऐसे हो गए थे कि पुरुष कलाकारों की बनिस्बत शकीला की इज्जत काफी अधिक थी.

सूत्रों की माने तो इस बोल्ड बायोपिक फिल्म से जुड़ने के लिए स्वरा भास्कर और हुमा कुरेशी ने भी काफी प्रयास किए. पर यह फिल्म रिचा चड्ढा के ही हाथ लगी. रिचा चड्ढा बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं, इस बात को वह फिल्म ‘‘गैंग आफ वासेपुर’’ से ही साबित करती आ रही हैं. रिचा चड्ढा महज अभिनय तक सीमित नही हैं. अभिनय व गायन में माहिर रिचा ने एक लघु फिल्म का निर्माण व निर्देशन भी किया है. इन दिनों वह एक किताब लिखने के अलावा एक फीचर फिल्म की पटकथा भी लिख रही हैं.

यह हमारी खुद की ‘धड़क’ है : शशांक खेतान

प्यार के साथ सामाजिक मुद्दो को उकेरने मे फिल्मकार शशांक खेतान को महारत हासिल है. इस बात को वह 2014 में प्रदर्शित अपनी पहली फिल्म ‘‘हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’’ और 2017 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’’ से साबित कर चुके हैं. इन दोनों ही फिल्मों ने बाक्स आफिस पर जबरदस्त सफलता बटोरी थी. इन दोनों ही फिल्मों का मौलिक लेखन खुद शशांक खेतान ने किया था. अब वह अपनी तीसरी फिल्म ‘‘धड़क’’ में प्यार के साथ ही ‘औनर किलिंग’ का ज्वलंत मुद्दा भी लेकर आए हैं, जिसे नागराज मंजुले ने अपनी मराठी भाषा की सफलतम फिल्म ‘‘सैराट’’ में उठाया था और ‘धड़क’’, ‘सैराट’ पर आधारित फिल्म है. इस तरह ‘धड़क’ शशांक खेतान के करियर की पहली फिल्म है, जिसका मौलिक लेखन उन्होंने नहीं किया. मगर शशांक खेतान का दावा है कि यह ‘सैराट’ पर आधारित होते हुए भी नई और उनके अंदाज की फिल्म है.

नागराज मंजुले निर्देशित मराठी भाषा की फिल्म ‘‘सैराट’’ देखने के बाद किस बात ने आपको इतना प्रभावित किया कि आपने उसका रीमेक धड़क के नाम से बनाने की सोची?

किसी एक प्वाइंट को मैं हाईलाइट नहीं कर सकता. जब मैंने अपनी मां के साथ नासिक के थिएटर में ‘सैराट’ देखी, तो मैं शाक्ड रह गया था. फिर मेरे दिमाग में आया कि ‘सैराट’ की कहानी में जिस तरह के रिश्तों, जिस तरह के कंफलिक्ट की बात की गयी है, उस पर मैं भी अपनी बात रखूं. उसके बाद मैंने कहानी लिखनी शुरू की. मुझे खुशी है कि मैंने ऐसी कहानी लिखी, जिसमें ‘रूह’ तो ‘सैराट’ की है, पर कहानी मेरे अपने अंदाज की है. यह हमारी अपनी खुद की ‘धड़क’ है. मेरी राय में हर फिल्म का काम होता है कि वह दर्शक को सोचने पर मजबूर कर दे. ‘सैराट’ ने मुझे इस कदर सोचने पर मजबूर किया कि मैं ‘धड़क’ लेकर आ गया.

सैराट के किस विचार ने आपको उद्वेलित किया?

हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं. हम गर्व से कहते हैं कि हम 2018 में जी रहे हैं. फिर भी हमारे देश में ‘औनर किलिंग’ जैसे कई ऐसे मुद्दे अलग अलग रंगों के साथ हमारे सामने आते जा रहे हैं. इसी बात ने मुझे नई कहानी लिखने के लिए उद्वेलित किया. इसी के साथ फिल्म के दोनों किरदारों के भोलेपन ने भी मुझे प्रेरित किया. दोनों किरदार जिस तरह अपने प्यार को पाने की कोशिश करते हैं, जिंदगी जीने की कोशिश करते हैं, उस बात ने भी मुझे प्रभावित किया.

औनर किलिंग पर आपकी फिल्म ‘‘धड़क’’ क्या कहती है?

फिल्म देखकर दर्शक निर्णय ले, वही ज्यादा बेहतर होगा. पर जातिवाद, उपजातिवाद, धर्म और आपके घर वाले ही आपकी पसंद से खुश ना हो, यह सारे जो मुद्दे हैं, उन सारे मुद्दों पर हमारी फिल्म काफी कुछ कहती है. पर इन सभी मुद्दों के बीच हमारी फिल्म में प्यार के जो सही मायने होते हैं, वह भी चित्रित किया गया है.

सैराट की कहानी महाराष्ट्र के गांव की है. इसे आप धड़क में राजस्थान के उदयपुर शहर ले गए. इसके पीछे कोई खास सोच?

मैं खुद मारवाड़ी हूं. राजस्थान में काफी रहा हूं. दूसरी बात ‘औनर किलिंग’ का मुद्दा हमारे देश के कई राज्यों का काफी ज्वलंत मुद्दा है. इसलिए यह कहानी कहीं भी रखी जा सकती थी. पर मैं राजस्थान से बहुत परिचित हूं. इसलिए मैं कहानी को राजस्थान ले गया.

‘‘धड़क’’ ‘‘सैराट’’ में अंतर?

हमारी फिल्म में मधुकर गरीब है. वह अपने पिता के साथ मिलकर एक रेस्टोरेंट चलाता है. मधुकर के दिमाग में भोलापन और बेधड़क पना भी है, जो कि उदयपुर और राजस्थान के हर बच्चे में होता है. इसी तरह से पार्थवी का किरदार भी बहुत अलग है. पार्थवी राजशाही परिवार से हैं. उनके पिता की बहुत बड़ी कोठी है और राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. जिसके चलते पार्थवी में राजशीपना व निडरता है. यह खूबी राजस्थान के बाहर के लोगों में नहीं आ सकती. इसकी वजह से किरदार में नयापन आने के साथ कंफलिक्ट में भी एक नया अप्रोच आ जाता है. हमारी फिल्म मेवाड़ के इलाके की है, जहां के लोगों में एक अलग तरह की प्राइड होती है. वहां के किसी आम आदमी से भी बात करेंगे, तो आपको अहसास होगा कि उनमें एक रूतबा है. यह बात बहुत ही मायने रखती थी. इसी वजह से मधुकर और पार्थवी को प्रशांत व आर्शी से अलग बना देते हैं.

धड़क में गरीबी अमीरी का कंफलिक्ट है या..?

हमारी फिल्म में गरीबी अमीरी के साथ साथ क्लास का मुद्दा भी है. इसी के साथ फिल्म में कई मल्टीलेयर भी हैं. हमारी फिल्म में क्लास बहुत बड़ा मुद्दा है. जब हम क्लास और आर्थिक क्षमता की बात करते हैं, तो औनर किलिंग का मुद्दा आ ही जाता है. जब किसी इंसान को अपनी क्लास या अपनी आर्थिक क्षमता पर जरूरत से ज्यादा यकीन हो, तो वह अपने आत्मसम्मान को जरूरत से ज्यादा ही गंभीरता से लेता है. इसी वजह से हमारे देश में आज भी क्लास, जाति व धर्म के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है. अब तो हालात इतने बदतर हो गए हैं कि लोग उम्र भी नहीं देखते. बच्चे से बूढ़े तक किसी की भी हत्या की जाती है. इस समसामायिक मुद्दे पर मेरी फिल्म ‘धड़क’ बहुत कुछ कहती है.

आपने किस तरह का रिसर्च किया है?

मैं रिसर्च करते करते फंसता चला गया. मैंने महसूस किया कि इस समस्या की कोई मूल जड़ नहीं है. बल्कि यह समस्या तो हर इंसान के अंदर है. आनर किलिंग की समस्या पहले भी थी. फर्क सिर्फ इतना है कि अब इस मुद्दे को लेकर खबरें छपने लगी हैं. लोग चर्चाएं करने लगे हैं. हकीकत में यह सारी बातें हमारे इंसानी दिमाग में सदियों से पलती आ रही हैं. लोगों के दिलों में भी भेदभाव की भावना डली हुई है. हम किसी एक इसांन या किसी एक क्षेत्र या जाति धर्म को दोषी ठहरा कर इस समस्या का समाधान नहीं निकाल सकते. हम सभी को अपने अंदर झांकते हुए सोचने की जरूरत है कि हम इस भेदभाव को कैसे खत्म करें.

औनर किलिंग या भेदभाव में आर्थिक स्थितियों और राजनीति में से कौन कितना जिम्मेदार है?

दोनों एक दूसरे से आंतरिक रूप से जुडे़ हुए हैं. आर्थिक स्थिति बहुत मायने रखती है. दो अलग जाति या अलग धर्म के लोग यदि आर्थिक रूप से समकक्ष हों, तो भी भेदभाव कम होगा. लेकिन यदि जाति व धर्म अलग हो उसी के साथ उनके बीच गरीबी अमीरी का अंतर हो, तो इनका मिलन संभव नही है. इन सबके उपर राजनीति हमेषा अपना असर डालती है. जाति, धर्म, क्लास और पढ़ाई के स्तर आदि को राजनीति अपने हिसाब से घुमाती रहती है. राजनेता अपनी सोच व अपनी आवश्यकता के अनुसार हर बात को घुमाता रहता है. मेरी समझ के अनुसार क्लास, जाति, धर्म, इकोनोमिक्स, पालीटिक्स यह सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता.

आप मूलतः मारवाड़ी हैं. आपका जन्म कलकत्ता में हुआ. आपकी परवरिश नासिक में हुई और उसके बाद आप मुंबई आ गए. अपनी इस यात्रा के दौरान आपने सारी चीजों को कैसे अनुभव किया?

यह सारी स्थितियां मेरी आंखों के सामने से होकर गुजरी हैं. जब हम बड़े हो रहे थे यानी कि 15 साल के थे, तब औनर किलिंग की चर्चा इतनी नहीं हो रही थी. तब हमें इस बात का अहसास नहीं था कि हम इतने जटिल समाज में रह रहे हैं. पर अब इंटरनेट, न्यूज चैनल व अखबारों के माध्यम से हमें पता चलने लगा है कि हम हमेशा से ऐसे जटिल समाज में रहते रहे हैं. अब तक लोगों को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिल रहा था. लोगों के साथ जो बुरा हो रहा था, उसकी शिकायतें पुलिस स्टेशन में दर्ज नहीं हो रही थीं. उसकी कहानी को अखबारों में जगह नहीं मिल रही थी. तो मैंने बदलाव देखा है. एक वक्त वह था, जब हम बेफिक्र होकर घूमते थे. पर अब हम फूंक फूंक कर कदम रखने लगे हैं.

इन समस्याओं को लेकर तमाम फिल्में पहले भी बनी हैं?

जी हां! पर मुझे लगता है कि तब तक बनती रहनी चाहिए, जब तक समस्या पूरी तरह से खत्म ना हो जाए. किसी समस्या पर 40 साल से फिल्म बन रही हैं, इसके यह मायने नहीं है कि अब उस पर फिल्म नहीं बननी चाहिए. जब तक समस्या जिंदा हो, तब तक उस पर टिप्पणी की जानी चाहिए.

सोशल मीडिया पर लोग सैराट से धड़क की तुलना करते हुए आलोचना भी कर रहे हैं?

सोशल मीडिया पर इस तरह की बातें होती रहती हैं. मुझे इस बात का अहसास है कि लोग मेरी फिल्म ‘धड़क’ की तुलना ‘सैराट’ से करेंगे, मगर बिना फिल्म देखे नकारात्मक बातें करना उचित नहीं है. खैर, इस तरह की बुराईयां मुझे विचलित नहीं कर रही हैं. क्योंकि मैंने ईमानदारी के साथ एक अच्छी फिल्म बनायी है. मैंने ‘सैराट’ की रूह को ‘धड़क’ में रखा है. ‘सैराट’ के सभी अच्छे पहलुओं को अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया है. पर मैं हमेशा आलोचना सुनने के लिए तैयार रहता हूं.

प्यार को लेकर आपकी यह तीसरी फिल्म है. तीनों फिल्मों में आपने प्यार को किस तरह से अलग अलग पाया?

तीनों फिल्मों में प्यार को लेकर बतौर लेखक निर्देशक मैं मैच्योर हुआ हूं. वह मैच्योरिटी मेरी फिल्मों में भी नजर आती रही है. ‘हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’ मेरी पहली फिल्म थी. उसमें भोलापन था और प्यार में कोई कंफलिक्ट नहीं था. उसके बाद मेरी दूसरी फिल्म थी ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’. इस फिल्म में प्यार के साथ नारी उत्थान की बात की गयी. वुमन इम्पावरमेंट की बात की गयी. इसमें मैंने प्यार के साथ यह दर्शाया कि हमें औरतों के साथ किस तरह से पेश आना चाहिए. उन्हें किस तरह का स्थान देना चाहिए. अब अपनी तीसरी फिल्म ‘‘धड़क’’ में मैंने अब तक की सबसे ज्यादा मैच्यौर और संजीदा कहानी कही है.तीनों फिल्में प्यार को ही बयां करती हैं, पर अलग अलग क्षेत्र से हैं, उनके अपने अलग टकराव हैं.

10-12 वर्षो में प्यार को लेकर समाज में जो बदलाव आए हैं, उसे आप किस रूप में देखते हैं?

मुझे नहीं लगता कि प्यार को लेकर कोई बदलाव आया है. हां! अब हम तकनीक की वजह से उस पर बातें ज्यादा करते हैं. सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि अब रिष्तों को लेकर हमारी सहनशीलता में कमी आयी है, जिसके चलते पति पत्नी के बीच पहला झगड़ा होते ही, अलग रहने की बात होने लगती है. जबकि हमारे माता पिता 40-50 साल से सफल वैवाहिक जीवन जीने की मिसाल रख रहे हैं. पर अब जो सहनशीलता की कमी है, उसका सारा दोष हम तकनीक पर डाल रहे हैं. अब समाज इस तरह से विकसित हो रहा है कि वह हमें अहसास करा रहा है कि किसी भी रिष्ते को बरकरार रखने के लिए सहनशीलता की जरूरत नहीं हैं. मैं यह बात पुरूष स्त्री दोनों के लिए कह रहा हूं. मुझे लगता है कि एक सफल रिश्ता बनाने के लिए हर इंसान में सहनशीलता होना बहुत जरूरी है. हां! प्यार को लेकर यह बहुत बड़ा बदलाव जरूर आया है. अन्यथा आज भी इंसान जब प्यार में पड़ता है, तो वह पूरी जिंदगी उसी प्यार में डूबे रहने की बात सोचता है. लोग हर रिश्ते में हमेशा खुशी ही चाहते हैं, मगर जरा सी समस्या आनेपर लोग उस रिश्ते से दूरी बना लेते हैं. आप यह कह सकते हैं कि सहनशीलता की कमी के चलते लोग पलायनवादी होते जा रहे हैं. कुल मिलाकर यदि आप चाहते हैं कि आपका प्यार 50 वर्षो तक चले, तो आपके अंदर सहनशीलता होनी ही चाहिए. हर रिश्ते में मनमुटाव होते रहते हैं.

आप इशान और जान्हवी को किस तरह के कलाकार मानते हैं?

दोनों मेहनती व प्रतिभाशाली कलाकार हैं. दोनों को इमोशन की अच्छी समझ होने के साथ उसे एक्सप्रेस करने का उनका अंदाज भी बहुत अच्छा है. दोनों में अभिनय के साथ साथ नृत्य की प्रतिभा भी है.

कहा जा रहा हैं कि सिनेमा बहुत बदल गया है. आपकी क्या राय है?

सिनेमा बदला है. क्योंकि लोग बदल रहे हैं. पर मेरी राय में हमारा हिंदी सिनेमा बदलना नहीं चाहिए. हम हौलीवुड से प्रभावित होकर जो काम करने लगे हैं, वह गलत है. यदि इसी तरह हम हौलीवुड से प्रभावित होते रहे, तो एक दिन हौलीवुड हमारे सिनेमा पर कब्जा कर लेगा. हमें हमारे देश की पहचान से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसे बेहतर बनाने की कोशिश करते रहना चाहिए. हौलीवुड ने बहुत से देशो के सिनेमा को खत्म किया है. हौलीवुड ने यूरोप के सिनेमा को खत्म कर दिया. क्योंकि वहां के लोगों ने हौलीवुड की तरह फिल्में बनानी शुरू कर दी थी और हौलीवुड से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए. इसलिए हम भारतीय फिल्मकारों को चाहिए कि हम अपने देश की पहचान वाला सिनेमा ही बनाएं, पर उसे बेहतर जरूर करें. भारतीय सिनेमा में अपना अनूठापन है, जिसकी वजह से हम जिंदा हैं. पर इस अनूठेपन को हम हौलीवुड की नकल करके खो रहे हैं, जो कि गलत है. यदि सिनेमा बौलीवुड की तरह बनेगा, तो कमाल का बिजनेस करेगा. पर जब हम उससे अलग हो जाते हैं, तो असफलता ही हाथ लगती है. हमने 2017 में बच्चों की परीक्षाओं के समय ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ रिलीज की थी, जो कि एक साधारण हिंदी फिल्म थी और बाक्स आफिस पर सफलता दर्ज करायी थी. ‘संजू’ भी टिपिकल बौलीवुड फिल्म है. हमें हमारे सिनेमा की जो ताकत है, उसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए.

इसके बाद की क्या योजना है?

2-3 विषयों पर काम चल रहा है.

सोशल मीडिया पर फिल्मों को बहुत ज्यादा प्रमोट किया जा रहा है. क्या इससे बाक्स आफिस पर फर्क पड़ता है?

सच यह है कि हम सभी लोग इस मुद्दे पर कंफ्यूज हैं. हम सभी सोशल मीडिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं. सोशल मीडिया इतनी तेजी से विकसित हो रहा है कि उसे नजरंदाज भी नहीं किया जा सकता. हां! सोशल मीडिया पर फिल्म को प्रमोट करने से फिल्म हर जगह चर्चा में रहती है. पर उसे दर्शक मिलते हैं या नही, यह हमें पता नहीं. मुझे लगता है कि सोशल मीडिया पर फिल्मों को लेकर जितनी बातें होती हैं, उससे दर्शक मिलते हैं या नहीं, यह समझने के लिए 4-5 वर्ष का वक्त लगेगा. मैं खुद सोशल मीडिया पर बहुत कम एक्टिव हूं. मैं सोशल मीडिया की बजाय किताबें पढ़ने और खेलों में ज्यादा समय बिताता हूं.

यानीकि आप खेलते भी हैं?

जी हां! हमारी आल स्टार फुटबाल टीम है. इस टीम में रणबीर कपूर, अभिषेक बच्चन, इशान खट्टर, डीनो मोरिया, वरूण धवन, सुजीत सरकार और मैं भी हूं. हमारा एक क्लब है. यह बंटी वालिया की टीम है. हम सभी हर रविवार को फुटबाल खेलते हैं. इसके अलावा मैं टेबल टेनिस व बैडमिंटन भी खेलता हूं. मैं अपनी तरफ से ज्यादा से ज्यादा समय खेल को देता हूं. खेल मेरी जिंदगी है. इसके अलावा मैं पढ़ता भी बहुत हूं. मैं ज्यादा से ज्यादा फिक्शन पढ़ता हूं. मेरा मानना है कि पढ़ने से ही आपकी कल्पना शक्ति बढ़ती है.

धोनी अपने साथी बल्लेबाजों पर बना रहे हैं दबाव : गौतम गंभीर

टीम इंडिया के इंग्लैंड दौरे की वनडे सीरीज में टीम इंडिया की शर्मनाक हार पर अब विशलेषण शुरू हो गया है. दूसरा मैच हराने के बाद तीन वनडे मैचों की सीरीज के अंतिम और निर्णायक मुकाबले में इंग्लैंड ने टीम इंडिया को 8 विकेट से हराकर सीरीज 2-1 से जीत ली. पहले बल्लेबाजी करने उतरी टीम इंडिया को इंग्लैंड ने 256 रनों पर रोका, जिसके बाद विजयी लक्ष्य को मेजबान टीम ने 44.3 ओवर में जो रूट के शतक और कप्तान इयान मोर्गन की शानदार पारी के दम पर हासिल कर लिया. टीम इंडिया के शर्मनाक प्रदर्शन के दौरान पूर्व भारतीय कप्तान एमएस धोनी की धीमी बल्लेबाजी की गौतम गंभीर ने आलोचना की है.

गंभीर ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा है कि धोनी की धीमी बल्लेबाजी उनके साथी बल्लेबाजों पर दबाव बना रही है. क्रिकबज को दिए इंटरव्यू में गंभीर ने कहा धोनी अपनी पारी की शरुआत से ही बहुत डौट बौल खेल रहे हैं जिसकी वजह से उनके साथी बल्लेबाजों पर दबाव पड़ रहा है.

दरअसल धोनी ने तीसरे वनडे में 66 गेंदों पर केवल 42 रन बनाए जिसमें 4 चौके शामिल थे. धोनी जब क्रीज पर आए तब भारत का 25वां ओवर चल रहा था और टीम इंडिया का स्कोर 3 विकेट के नुकसान पर 125 रन था. उनके साथ कप्तान विराट कोहली क्रीज पर मौजूद थे. ऐसे में धोनी से उम्मीद थी कि वे बड़ी और तेज पारी खेलेंगें लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा.

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गंभीर ने धोनी की इसी पारी पर टिप्पणी की है. इसके अलावा दूसरे वनडे में भी धोनी अपने रंग से बिलकुल उलट नजर आए जब टीम को उन्हें एक फिनिशर के रूप में जरूरत थी जिसके लिए वे जाने जाते हैं. इस मैच में भी धोनी 27वें ओवर में विराट कोहली की जगह बल्लेबाजी करने आए तब सुरेश रैना क्रीज पर थे. भारत का स्कोर 140 रन हो चुका था जबकि भारत 323 रनों का लक्ष्य का पीछा कर रहा था. इस पारी में भी धोनी 59 गेंदों पर केवल 37 रन बना सके और अपनी इस पारी में केवल 2 ही चौके लगा पाए थे.

पहले इतनी डौट बौल नहीं खेलते थे धोनी

गंभीर ने साफ कहा कि उन्होंने एक दो साल पहले तक धोनी को इतनी डौट बौल खेलते नहीं देखा है जिस पर उन्हें निश्चित रूप से काम करने की जरूरत है. जाहिर है कि धोनी अपने सर्वश्रेष्ठ फौर्म में नहीं हैं. आमतौर पर धोनी शुरुआत में समय लेते हैं लेकिन बाद में वे इसकी भरपाई भी कर लेते हैं लेकिन अभी ऐसा हम नहीं देख पा रहे हैं. अगर आप समय लेते हैं तो आपको निश्चित रूप से अंत तक रुकना होगा.

उल्लेखनीय है कि गौतम गंभीर ने कई सालों तक उनकी कप्तानी में बल्लेबाजी भी की है और जब धोनी कप्तान बने थे, उस समय गंभीर भी कप्तानी के प्रबल दावेदार थे.

सरकार की इस रणनीति से बैंक डिफौल्टर्स पर कसेगा शिकंजा

बैंकों को कर्ज न चुकाने वाले प्रवर्तकों को देश से बाहर जाने से रोकने के लिए सरकार ने वित्तीय सेवा सचिव राजीव कुमार की अगुवाई में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई है. यह समिति डिफौल्टरों को देश से भागने से रोकने के उपाय सुझाएगी और साथ ही मौजूदा कानूनों में बदलाव पर भी सुझाव देगी. यह कमेटी ऐसे कारोबारियों पर खासतौर से नजर रखेगी जिनके पास दूसरे देश की नागरिकता भी है. सरकार की इस कोशिश से नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या जैसे प्रकरणों को रोका जा सकेगा.

सूत्रों ने बताया कि समिति की पहली बैठक में दोहरी नागरिकता तथा प्रणाली को ठोस और तर्कसंगत बनाने पर विचार हुआ, जिससे आर्थिक अपराधों में शामिल लोग देश से भाग नहीं पाएं. इस समिति के अन्य सदस्यों में प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो, खुफिया ब्यूरो और भारतीय रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि शामिल हैं. इसके अलावा गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधिकारी भी समिति का हिस्सा हैं.

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जानकारी के मुताबिक, मौजूदा प्रणाली में किसी डिफौल्टर को अपराधी घोषित करने में काफी समय लगता है. ऐसे में समिति ऐसे तरीकों पर विचार कर रही है ताकि ऐसे मामलों में पहले से सतर्क किया जाएगा. इस बारे में कई सुझाव मिले हैं, जिससे ऐसे प्रवर्तकों पर अंकुश लगाया जा सके. इनमें भारतीय नागरिकता छोड़ने और घरेलू कानून में बदलाव के संदर्भ में सुझाव शामिल हैं.

पंजाब नेशनल बैंक में दो अरब डौलर का घोटाला सामने आने के बाद वित्त मंत्रालय ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से 50 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज लेने वालों के पासपोर्ट का ब्यौरा जुटाने को कहा था. इस घोटाले का सूत्रधार नीरव मोदी और उसका मामा मेहुल चोकसी देश से भाग चुके हैं.

इसके अलावा बैंकों से ऋण आवेदन फार्म को संशोधित कर उसमें कर्ज लेने वालों का पासपोर्ट का ब्योरा भी शामिल करने को कहा था. शराब कारोबारी विजय माल्या मार्च, 2016 में देश छोड़कर भाग गया था. माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस अपना कर्ज चुकाने में विफल रही थी.

अकाउंट में मिनिमम बैलेंस ना होने पर पीएनबी ने वसूला करोड़ों रूपये

पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) ने वित्त वर्ष 2018 में न्यूनतम बैलेंस न रखने पर पेनाल्टी के रूप में 151.66 करोड़ रुपये जुटाए  हैं. यह राशि करीब 1.23 करोड़ बचत खातों से जमा हुई है. एक आरटीआई में पूछे गए सवाल के जवाब में यह जानकारी सामने आई है.

पीएनबी ने आरटीआई एक्टिविस्ट चंद्र शेखर गौड़ की ओर से दायर सवाल के जवाब में बताया कि वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान, 1,22,98,784 बचत खातों से कुल 151.66 करोड़ रुपये न्यूनतम राशि न रखने के जुर्माने के तौर पर रिकवर किये गये हैं.

बैंक ने आरटीआई के जवाब में बताया वित्त वर्ष 2018 की पहली तिमाही में बैंक ने 31.99 करोड़ रुपये, दूसरी तिमाही में 29.43 करोड़ रुपये, तीसरे में 37.27 करोड़ रुपये और चौथी में 52.97 करोड़ रुपये जुर्माने के तौर पर वसूले हैं.

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अर्थशास्त्री जयंतीलाल भंडारी ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका पर सवाल उठाया है खासकर कि इस मामले में और कहा, “एक तरफ सरकार ज्यादा से ज्याद लोगों को बैंकिंग सेवा से जोड़ने के लिए अभियान चला रहा है वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बचत खातों में न्यूनतम राशि न होने पर शुल्क वसूल रही है.”

भंडारी ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से पेनाल्टी रेट पर तुरंत ध्यान देने के लिए निवेदन किया है. उन्होंने यह आग्रह गरीब और मध्य वर्गीय लोगों को ध्यान में रखते हुए किया है.

मारा ठुमका

ठुमका एक ऐसी क्रिया है जिस से मन प्रसन्न हो जाता है खासतौर से उस वक्त जब ठुमका कोई नायिका लगाए. अब वह नायिका पूर्व ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी हो या नवोदित हरियाणवी गायिका सपना चौधरी, दर्शकों को इस से खास फर्क नहीं पड़ता और न ही वे ठुमके के राजनीतिकरण में दिलचस्पी लेते हैं.

सपना चौधरी के कांग्रेस में जाने मात्र की अटकलों से एक भाजपा सांसद इतने व्यथित हो उठे कि उन्होंने उम्मीद के मुताबिक यह ताना दे मारा कि कांग्रेस को चुनाव जीतना है या ठुमके लगवाने हैं. यह बात सांसद महोदय विस्मृत कर गए कि मनोज कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘क्रांति’ में ठुमका लगा कर चाल बदलने का दावा करने वाली हेमा मालिनी उन्हीं की पार्टी से मथुरा से सांसद हैं और वे अपना मशहूर डायलौग ‘चल धन्नो आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है’ मंच से जरूर बोलती हैं. ऐसे में सपना के ठुमकों पर उन्हें एतराज क्यों.

बेहतर होगा कि ठुमके के प्रति अपना नजरिया बदलते भाजपाई उसे साहित्यिक या पौराणिक लिहाज से देखें क्योंकि उन का नायक रामचंद्र भी ठुमक कर चलता था.

खिचड़ी सरकार की दरकार

खिचड़ी सरकार का भय दिखा कर भारतीय जनता पार्टी 2019 के आम चुनावों में जीत हासिल करना चाहती है. कर्नाटक विधानसभा और 10 राज्यों में हुए उपचुनावों के परिणामों से यह तो साफ है कि 1977 के बाद कांग्रेस के पर्याय के रूप में खिचड़ी सरकारों का जैसा दौर रहा वैसा ही 2019 के बाद भी संभव है जिस में दालचावल का शोरवा नहीं रहेगा, दाल अलग दिखेगी, चावल अलग. सवाल है कि इस में बुराई क्या है.

कांग्रेस के बाद देश कोई अराजकता में तो नहीं डूबा. कइयों की सहमति से फैसले होते थे. कुछ फैसले ढंग के होते थे, कुछ बेढंगे. इस के विपरीत कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की जबजब अकेली सरकारें बनी हैं तब दाल तो अकेली थी लेकिन चावलों का पता ही नहीं था. यही नहीं, दाल में कंकर ज्यादा थे, दाल कम. दोनों सरकारों ने जनता के हितों से जम कर खेला. अगर अदालतें न होतीं तो देश का लोकतंत्र इंदिरा गांधी के युग में भी और नरेंद्र मोदी के युग में भी हवा हो चुका होता. अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की मिलीजुली सरकारों को मंत्रिमंडल की बैठकों में आम सहमति से फैसले लेने पड़े और वे सही थे. यह देश अपनेआप में एक खिचड़ी है. यह न जरमनी है, न चीन जहां लगभग पूरी जनता एक परंपरा, एक इतिहास, एक बोली और एकतरह के विचारों वाली हो. पर इसी एकतरह में हिटलर और माओ पैदा हुए हैं, जिन्होंने लाखों अपनों को मरवाया और परायों को भी जम कर मारा.

भारत को विभिन्नता चाहिए. भारत को ऐसा एकाधिकार नहीं चाहिए. खिचड़ी सरकारों में 10-15 सांसदों वाली पार्टी भी अपनी बात कह सकती है. आज नरेंद्र मोदी को उन की पार्टी के 50 सांसद भी कुछ कहना चाहें तो कह नहीं सकते. नरेंद्र मोदी ने तो अपने मंत्रिमंडल के मंत्रियों के भी पर कुतर रखे हैं और सारे असंवैधानिक, अनैतिक व अतार्किक फैसले पीएमओ यानी प्राइम मिनिस्टर औफिस कर रहा है.

मोदी के नेतृत्व की यह सरकार न संविधान को मानती है न मानव अधिकारों को. इस ने तो भरी अदालत में यहां तक कह दिया कि हर नागरिक के शरीर पर सरकार का हक है, उस का खुद का नहीं. आज जनता अगर कुछ खुली सांस ले पा रही है तो इसलिए कि देश की राजनीति में कई दालें, सब्जियां, कई तरह के चावल और तरहतरह के मसाले हैं. बढि़या खिचड़ी बनती है. यह स्वादिष्ठ भी होती है और हाजमा भी ठीक रखती है.

गुरुओं की दुकानदारी चलाने के लिए महिमामंडन ‘गुरुगीता’ में

हमारा एक वर्गविशेष प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली को वैकल्पिक प्रणाली के तौर पर प्रस्तुत करता रहता है और उस के प्रति अपनी भावुकतापूर्ण ललक व्यक्त करता है.

गुरुशिष्य प्रणाली के प्रामाणिक दस्तावेज की खोज में ‘गुरुगीता’ नाम की एक पुस्तक पिछले दिनों दिखी. यह इस पुस्तक का 1986 में छपा 5वां संस्करण है. इस से पहले इस का तीसरा संस्करण 1920 में प्रकाशित किया गया था. दूसरा संस्करण 1920 से पूर्व छपा होगा.

यह 221 श्लोकों की पुस्तक है, भारतधर्म महामंडल, वाराणसी से छपी है.

इस में गुरु और शिष्य के संबंधों पर महादेवपार्वती के संवाद के रूप में बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है.

माहात्म्य में ही कह दिया गया है कि इस किताब की एक प्रति दान करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, इस के पाठ से गरीबी दूर होती है, बड़ेबड़े रोग ठीक हो जाते हैं, संपत्तियां प्राप्त होती हैं, बंध्या नारी के पुत्र पैदा हो जाता है और विधवा होने की आशंका दूर हो जाती है, पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा मिल जाता है आदि.

इदं तु भक्तिभावेन पठ्यते श्रूयतेऽथवा, लिखित्वा वा प्रदीयेत सर्वकालफलप्रदम्.

205

इस गुरुगीता को जो भक्तिपूर्वक पढ़ता, सुनता या लिख कर दान करता है, उस की सब प्रकार की कामनाएं पूरी होती हैं.

सर्वपापहरं स्तोत्रं सर्वदारिद्र्यनाशनम्,

अकालमृत्युहरणं सर्वसंकटनाशनम्.

208

यह गुरुगीता सब प्रकार के पापों का नाश करती है, सब प्रकार की गरीबी को दूर करती है, असमय होने वाली मृत्यु का निवारण करती है और सब संकटों को नष्ट करती है.

सर्वशांतिकरं नित्यं वन्ध्यापुत्रफलप्रदम्,

अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यदायकं परम्.

213

इस के पाठ से सब पाप/दुष्ट ग्रह आदि शांत होते हैं, बांझ औरत को भी पुत्र की प्राप्ति होती है, स्त्रियों के विधवा होने की आशंका दूर होती है और परम सौभाग्य की प्राप्ति होती है.

आयुरारोग्यमैश्वर्यपुत्रपौत्रादिवर्धकम्,

निष्कामतस्त्रिवारं वा जपन्मोक्षमवाप्नुयात्.

214

निष्काम भाव से इस का थोड़ा सा पाठ करने पर आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, पुत्र, पौत्र आदि की वृद्धि होती है और इस का 3 बार जप करने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है.

शुचिदेव सदा ज्ञानी गुरुगीताजपेन तु,

यस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते.

220

ज्ञानी मनुष्य गुरुगीता का पाठ करने से सदा पवित्र रहते हैं. ऐसे पवित्र मनुष्यों के दर्शन करने से पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा मिल जाता है.

गुरु का अर्थ

गुरु शब्द का अर्थ बताते हुए गुरुगीता कहती है कि ‘गु’ शब्द का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ शब्द का अर्थ है उसे रोकने वाला :

गुशब्दस्त्वंधकार: स्याद् रुशब्दस्तन्निरोधक:

अंधकारनिरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते.

15

‘गुरु’ शब्द का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ शब्द का अर्थ उस को रोकने वाला. अंधकार को रोकने या दूर करने वाले को ‘गुरु’ कहते हैं.

लगता है गुरुगीता को अपने इस मनगढं़त अर्थ पर स्वयं भी विश्वास नहीं है. इसलिए  उस ने श्लोक 16 में इन्हीं शब्दों को तोड़मरोड़ कर एक नया अर्थ निकाल कर फिर से भरमाने की कोशिश की है :

गकार: सिद्धिद: प्रोक्तो रेफ:

पापस्य दाहक:,

उकार: शंभुरित्युक्तास्त्रियाऽऽत्मा

गुरु: स्मृत:.                       16

‘ग’ 6गकार8 का अर्थ है ‘सिद्धि देने वाला’, ‘र’ 6रकार8 का अर्थ है ‘पापों को दूर करने वाला’ और ‘उ’ 6उकार8 का अर्थ है ‘शिव’  अर्थात गुरु का अर्थ है, सिद्धिदाता शिव पापहर्ता शिव.

एक अन्य श्लोक में कहा है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवो महेश्वर:,

गुरु: साक्षात् पर ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम:.

147

अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु शिव है. गुरु परंब्रह्म है.

लगता है सदियों से गुरुओं के बारे में लोगों को संशय रहा है और हर ग्रंथ में गुरु महिमा इसीलिए गाई गई है कि यह संशय दूर रहे.

गुरु केवल ब्राह्मण

श्लोक नं. 34 कहता है, ‘गुरु’ केवल ब्राह्मण हो सकता है, यह पद उस के लिए गुरुगीता ने आरक्षित घोषित कर रखा है. शिष्य भी ऐरागैरा नहीं बन सकता. वह भी ‘कुलीन’ होना चाहिए. अर्थात यह सारा ऊंची जातियों का खेल है क्योंकि शूद्र के लिए शिक्षा का कहीं विधान ही नहीं है. शूद्र ‘कुलीन’ कैसे हो सकता है? क्षत्रिय व वैश्य शामिल हों तो भी आश्चर्य होगा. प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणों की शिक्षा के लिए बनाई गई थी.

आज यदि उस गुरुशिष्य प्रणाली को निहित स्वार्थी तत्त्व लागू कर या करवा देते हैं तो हमारी शिक्षा की सब समस्याएं, आरक्षण मांगने वालों के आंदोलन, पढे़लिखे बेरोजगारों का संकट आदि पलक झपकते ही खत्म हो जाएंगे, क्योंकि तब पढ़ ही कुछ प्रतिशत जनसंख्या वाली उच्च जातियों के सदस्य सकेंगे. बाकी जब पढ़ ही नहीं पाएंगे, तब कैसा आरक्षण.

शिष्य का अर्थ

शिष्य के लिए जरूरी है कि वह आस्तिक हो अर्थात उस का दिमाग खुला नहीं, बंद होना चाहिए. वह सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो.

शरीरमर्थं प्राणांश्च गुरुभ्यो य: समर्पयन् ,

गुरुभि: शिष्यते योगं स शिष्य इति कथ्यते.

54

गुरु के लिए शरीर, धन और प्राणों तक को अर्पित कर दे क्योंकि वह गुरु से शिक्षा प्राप्त करता है, इसलिए ‘शिष्य’ कहलाता है.

पत्नी भी गुरु को अर्पित

गुरुगीता बात यहीं नहीं खत्म करती, बल्कि यह भी कहती है कि शिष्य अपनी पत्नी भी गुरु को अर्पित करे :

आत्मदाराऽऽदिकं सर्वं गुरवे च निवेदयेत्.

55

अपनी पत्नी आदि सबकुछ गुरु को अर्पित करें.

इस के बाद शिष्य को खानेपीने के बारे में गुरुगीता का आदेश है कि वह गुरु के पैरों का धोवन पिए तथा उस का जूठा बचा खाना खाए :

गुरुपादोदकं पेयं गुरोरुच्छिष्टभोजनम्,

57

गुरु के पैरों को जिस पानी से धोया जाए, उसे पिए तथा गुरु का जूठा बचा खाना खाए.

यह मर्ज दवा से बेहतर है

जो लोग आज प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली को लाने के लिए चिल्ला रहे हैं, क्या उन के बच्चे ये सब करने को तैयार होंगे या यह सिर्फ गरीबों, दबे व कुचले लोगों और सदियों से अधिकारवंचितों के बच्चों के लिए ही प्रस्तावित किया जाएगा?

गुरु के पैर दबाने की गुरुगीता में बहुत महिमा गाई गई है :

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरो: पादसेवनात्,

सर्वतीर्थावगाहस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम्.

169

गुरु के पैर दबाने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं. जितना फल सब तीर्थों में नहाने पर मिलता है, वह सब गुरु के पैर दबाने वालों को मिलता है.

इसी तरह की महिमा गुरु के पैरों का धोवन पीने की भी गाई गई है :

सप्तसागरपर्यंत तीर्थस्नानादिकै: फलम्,

गुरोरंघ्रिपयोबिंदुसहस्रांशेन दुर्लभम्.

161

सात समुद्रों तक जितने तीर्थ हैं, उन में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, गुरु के पैरों की धोवन की एक बूंद पीने से उस से हजारगुना ज्यादा फल प्राप्त होता है.

यद्यपि गुरु को शिव, ब्रह्मा आदि कहा गया है और उसे इंसान के रूप में देखने वाले को नरकगामी घोषित किया गया है तथापि यह कटु यथार्थ है कि वास्तव में वह एक इंसान ही रहता है.

इसीलिए गुरुगीता ने शिष्य को आदेश दिया है कि वह यदि गुरु को कोई बुरा काम करता देखे या गुरु कोई बुरा काम उसी (शिष्य) से करे तो शिष्य का कर्तव्य है कि उस की बाबत कभी मुंह न खोले, उस के बारे में अंधा और गूंगा ही नहीं बना रहे, बल्कि बहरा भी बन जाए :

दुष्कृतं न गुरोर्ब्रूयात्,

परिवादं न शृणुयादन्येषामपि कुर्वताम्. 63

गुरु के कुकर्म की बाबत पर मुंह न खोलें. यदि उस के कुकर्म की चर्चा दूसरे लोग करें भी, तो उस चर्चा के प्रति बहरा बन जाएं, उसे अनसुना कर दें.

गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापि प्रवर्तते,

कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गंतव्यं वा ततोऽन्यत:.

70

जहां कोई गुरु के दुष्कर्म की चर्चा करे, उस की निंदा करे, वहां शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने कानों पर हाथ रख ले या वहां से उठ कर किसी और जगह चला जाए.

गुरु दुष्कर्म करते ही होंगे, तभी तो इन श्लोकों में उन्हें दबाने व छिपाने के लिए इतना जोर दिया गया है. इस से बढ़ कर गुरुशिष्य प्रणाली की विडंबना और क्या हो सकती है?

गुरु ही ईश्वर है

गुरुगीता शिष्य से आशा करती है कि उस का आस्तिकवाद गुरु पर ही केंद्रित हो, ईश्वर पर नहीं.

गुरुमूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरुनाम सदा जपेत्,

गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत्.

66

हमेशा गुरु की मूर्ति का ध्यान करे, सदा गुरु के नाम का जाप करे, सदा गुरु की आज्ञा का पालन करे तथा गुरु के सिवा और किसी का चिंतन न करे.

शिष्य नौकर है

शिष्य सदा गुरु के नौकर (=भृत्य) की तरह ही अपने को समझे-

आज्ञया कुरुते कर्म शिष्यश्च भृत्यवत्.

75

अर्थात गुरु के व्यक्तिगत काम करें, उस के घर के काम करें आदि.

यदि गुरु संतुष्ट है तो शिष्य समझे कि उसे कोटिकोटि जन्मों में किए गए जप, व्रत, तप और कर्मकांड का फल प्राप्त हो गया है.

विष्ठा का कीड़ा

गुरुगीता कहती है कि शिष्य के लिए उचित है कि वह वाणी, मन, शरीर और कर्म के द्वारा गुरु का हित करे, उसे हर तरह से लाभ पहुंचाए. जो शिष्य गुरु का हित नहीं करता, उस के फायदे के लिए यत्न नहीं करता, वह अगले जन्म में टट्टी में कीड़ा बनता है.

इस सारी प्रक्रिया के दौरान पूरी गुरुगीता में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं होता कि गुरु शिष्य को कब और कैसे पढ़ातालिखाता था, और न ही यह स्पष्ट होता है कि शिष्य कभी कुछ पढ़तालिखता था भी या नहीं. इस के बारे में गुरुगीता के 79वें श्लोक में बहुत गोलमोल ढंग से सिर्फ यह लिखा मिलता है कि जैसे कोई मनुष्य खुरपे द्वारा मिट्टी को खोदतेखोदते एक दिन नीचे जल प्राप्त कर लेता है, उसी तरह जो शिष्य गुरुसेवा में लगा रहता है, वह गुरु की सारी विद्या को प्राप्त करने में एक दिन सफल हो जाता है.

पर इस से यह स्पष्ट नहीं होता कि गुरु किस विधि से और क्या पढ़ाता था? शिष्य कैसे सीखता था? उसे लिखना, पढ़ना, गणित आदि गुरु कैसे सिखाता था? कब से कब तक? क्या कोई पाठ्यक्रम भी होता था या नहीं और उसे किस प्रकार व्यवहार में लाया जाता था? शिष्य की योग्यता को सेवा के मीटर से मापने के अतिरिक्त क्या कोई अन्य विधि भी थी? उसे कैसे व्यवहार में लाया जाता था? कौन उस का स्तरीकरण, मानकीकरण और प्रामाणिकीकरण करता था?

गुरुडम का मकड़जाल

गुरुगीता में जिस गुरुशिष्य परंपरा का प्रतिपादन किया गया है और जिस शिक्षाविधि का वर्णन है, वह शिक्षापद्धति के स्थान पर गुरुडम स्थापित करने की ही विधि है.

यदि प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा फिर लागू की जाती है तो शिक्षा का बेड़ा तो गर्क होगा ही.

एकलव्य की त्रासदी

प्राचीनकाल  में भी यही कुछ था. प्राचीनकाल के (महाभारतकालीन) शिष्यों में एकलव्य जैसा वफादार शायद कोई शिष्य नहीं था. उसे गुरु ने शिक्षा देने से इसलिए इनकार कर दिया था कि वह शूद्र था, आदिवासी था. ब्राह्मण गुरु उसे शिक्षा कैसे दे सकता था. शिक्षा के लिए जरूरी था कि शिष्य का पहले उपनयन संस्कार हो. वह संस्कार शूद्र का हो नहीं सकता था. सब धर्मशास्त्रों  ने उस के उपनयन संस्कार का निषेध किया है.

लाचार हो कर एकलव्य जंगल को लौट गया और एक अनगढ़ पत्थर को गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति के रूप में सम्मानित कर के स्वयं ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा. जैसा कहा जाता है, अभ्यास से आदमी पूर्ण हो जाता है, अपने निरंतर अभ्यास से एकलव्य भी धनुष चलाने में प्रवीण हो गया.

जब गुरुजी को यह पता चला कि उन की मूर्ति के प्रति सम्मान रखते व अभ्यास करतेकरते एकलव्य धनुष चलाने में इतना पारंगत हो गया है जितना शायद अर्जुन भी नहीं है, तो प्राचीन गुरुपरंपरा के प्रतिनिधि गुरुद्रोण ने उस विद्या के लिए गुरुदक्षिणा मांग ली जो उस ने उस कथित शिष्य को कभी दी ही नहीं थी और गुरुदक्षिणा भी ऐसी मांगी कि जिस से उस शूद्र की खुद अर्जित विद्या भी अनहोई के समान हो जाए. गुरु ने शिष्य का धनुष चलाने के लिए जरूरी अंग, उस का अंगूठा गुरुदक्षिणा के नाम पर कटवा लिया और एकलव्य का सारा अभ्यास पलभर में सदा के लिए मिट्टी में मिला दिया.

अंगूठा कट जाने पर वह अब पहले की तरह धनुष चलाने के योग्य नहीं रह गया था. इसी गुरु द्रोण के नाम पर भारत सरकार ने श्रेष्ठ कोच के लिए ‘गुरु द्रोणाचार्य पुरस्कार’ स्थापित किया हुआ है. जब उत्तम व श्रेष्ठ ‘गुरु’ का यह हाल है, उस का शिष्य के प्रति इस तरह का अमानवीय, भेदभावपूर्ण और  आपत्तिजनक व्यवहार है, तब छुटभैया गुरुओं के चरित्र की कल्पना आसानी से की जा सकती है.

शिष्य की बेटी, गुरु की दक्षिणा

उपनिषदों में एक ऐसे गुरु के दर्शन होते हैं जो अपने भावी शिष्य की सुंदर व युवा बेटी को अग्रिम दक्षिणा के रूप में ग्रहण करता है और उसे ‘ज्ञान’ बाद में देता है. गुरुदक्षिणा भी युवा लड़की के रूप में और वह भी अग्रिम. इस पर भी तुर्रा यह कि वह गुरु शुरू में ही शिष्य को उस समय की सामाजिक गाली देता है, उसे ‘शूद्र’ कह कर उस का संबोधन करता है.

छांदोग्य उपनिषद (अ. 4) में आता है कि जानश्रुति काफी सामान – गौएं, रथ आदि – रैक्व को देने को तैयार है ताकि वह गुरु उसे अपना शिष्य बना ले और उसे ज्ञान दे. फिर भी वह उसे शिष्य बनाने को तैयार नहीं होता. परंतु जब वह अपनी युवा बेटी उसे पत्नी के तौर पर पेश करता है और कहता है- जायायं (मैं यह अपनी बेटी आप के लिए पत्नी के तौर पर लाया हूं), तब गुरु रैक्व कहता है-

शूद्रानेनैव मुखेनालापयिष्यथा इति.

(अरे शूद्र, इस कन्या के मुख के कारण मैं तुझे ज्ञान देता हूं) अर्थात कन्या का मुख देखते ही ‘गुरुजी’ ज्ञान बघारने को तत्पर हो गए. दूसरे शब्दों में, गुरुजी भावी शिष्य से उस की बेटी दक्षिणा के तौर पर अग्रिम लेते हैं, तब कहीं जा कर ज्ञान देते हैं.

क्या यह गुरुशिष्य संबंध पितापुत्र सा आदर्श संबंध है, जैसा अकसर प्रचार किया जाता है? क्या कोई पिता अपने पुत्र की पत्नी या बेटी इस तरह ग्रहण करता है?

गुरुगीता शिष्य को अपनी पत्नी गुरु को अर्पण करने का आदेश देती है जबकि उपनिषद के मुताबिक, शिष्य अपनी बेटी गुरु की भेंट चढ़ाता है. आखिर, ये सब क्या है?

गुरुपत्नियों से संबंध

गुरुपत्नियां भी यौनशोषण किया करती थीं. हर धर्मशास्त्र में, हर स्मृति में, गुरुपत्नी से संबंध बनाने वाले शिष्य की चर्चा है, कभी उसे गुरुपत्नीगामी कहा गया है तो कहीं गुरुतल्पगामी आदि.

हर स्मृति में ऐसे शिष्य को ही दोषी ठहराया गया है और उसे सख्त से सख्त दंड का भागी बनाया गया है, परंतु कहीं भी उस से गुरु की पत्नी को न दोषी कहा गया है और न उस के लिए किसी दंड का विधान किया गया है.

मनुस्मृति में इस विषय में कई वैकल्पिक विधान किए गए हैं. यदि शिष्य गुरुपत्नी से संबंध बनाए तो उस के लिए विधान है कि उसे लोहे की तपाई हुई शय्या पर लिटाया जाए तथा वह स्त्री की लोहे की बनी व आग में लाल की हुई मूर्ति का उसी तरह आलिंगन करे जैसे उस ने गुरुपत्नी से किया था. उस मूर्ति से तब तक उसे चिपटा कर रखे जब तक कि वह मर न जाए :

गुरुतल्प्यभिभाष्यैनस्तप्ते स्वप्यादयोमये.

सूर्मी ज्वलन्ती स्वाश्लिष्येन्मृत्युना

स विशुद्ध्यति.

(मनुमृति, 11/103).

इस तरह के बर्बर दंडविधान केवल शिष्य के लिए हैं, न कि उस के साथ सहयोग करने वाली गुरुपत्नी के लिए. यदि बलपूर्वक शिष्य ने यह करतूत की होती तो मनुस्मृति वैसा लिख सकती थी, जैसा अन्य कई मामलों में उस ने लिखा है. बलात्कार इस तरह के मामलों में वैसे भी एकदम असंभव व अकल्पनीय था. यह सबकुछ आपसी रजामंदी से या लुभाफुसला कर ही किया जाता था. स्पष्ट है, ये सब काम गुरुपत्नी ही कर सकती थी, अल्पायु व अबोध शिष्य नहीं कर सकता था.

यदि यह कहा जाए कि कुछ शिष्य भी गुरुपत्नियों को फुसला कर या बलपूर्वक उन से शारीरिक संबंध बना लेते थे तो यह भी प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा के माथे पर कलंक ही है.

उस की कथित महानता के बावजूद यदि यह सब होता था तो वह परंपरा आज आदर्श कैसे हो सकती है? क्या गुरुओं, संस्कृति, धर्म, शिक्षा आदि के यही संस्कार थे? यदि वे संस्कार इस तरह की गिरावट भी नहीं रोक सके तो कैसी महानता?

विद्या मुक्ति दिलाती है

प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा के पक्षधर कहते हैं कि प्राचीनकाल की विद्या का लक्ष्य बहुत महान था. ‘सा विद्या या विमुक्तये’

अर्थात विद्या वह होती है जो मुक्ति दिलाए. प्राचीनकाल की विद्या का उद्देश्य आजकल की तरह रोजगार के योग्य बनाना नहीं, बल्कि जन्ममरण के बंधन से मुक्त करना था.

जन्ममरण के इन बंधनों से मुक्त होने की उन्हीं की डींगें कुछ सार्थक हो सकती हैं जिन्होंने दुनियावी बंधनों व विदेशी हमलावरों की गुलामी से अपने को कभी मुक्त रहने या होने में रुचि दिखाई हो. जो लोग हजारों सालों तक कभी इस मुट्ठीभर गिरोह के गुलाम बने रहे तो कभी उस गिरोह के, उन की विद्या उन्हें इन सब से मुक्त क्यों नहीं करवा सकी? इहलोक में इस विद्या ने किस को मुक्त करवाया है? जो विद्या इस लोक में गुलामी से मुक्त नहीं करवा सकी, वह कथित परलोक में किसे और कैसे मुक्त करवाएगी? क्या है कोई प्रमाण ग्रंथों में या किसी के पास कि इस विद्या ने ‘इस’ को मुक्त करवाया है, इस ने ‘उस’ को मुक्त करवाया है?

जो विद्या कुषाणों, शकों, हूणों, तुर्कों, मुगलों, पुर्तगालियों, अंगरेजों आदि से हमें मुक्त न रख सकी, वह विद्या कब और किसे तथा कहां व कैसे मुक्त करती थी या करती है?

हमारी विद्या विमुक्ति के लिए नहीं, पराजय के लिए रही, इस से हम विमुक्त नहीं, विजित हुए:

सा विद्या या विजिताय

(हमारी विद्या हमारे हारते रहने का कारण सिद्ध हुई) अर्थात हमारी विद्या है- हारे को हरिनाम.

रोजगार बनाम भीख

जो लोग प्राचीन विद्या को रोजगार के पीछे न दौड़ने वाली बता कर उस की महानता सिद्ध करना चाहते हैं, हमारा उन से कहना है कि यदि प्राचीन भारत की विद्या रोजगार की उपेक्षा न करती तो अपने यहां न शिष्य भीख मांग कर खाता, न गुरु. वह विद्या विमुक्ति क्या दिलाती जो दूसरों के आगे हाथ फैलाना सिखाती थी?

भीख मांगना रोजगार न होने के कारण इतना महत्त्वपूर्ण बना दिया गया कि मनुस्मृति ने यहां तक कह दिया कि जो ब्रह्मचारी (=विद्यार्थी) निरोग रहते हुए भीख नहीं मांगता वह अवकीर्णिव्रत करे.

अवकीर्णिव्रत में क्या होता है? इस में काने गधे की चरबी से चौरास्ते पर हवन करना होता है.

जैसे शिष्य भीख पर पलता था वैसे ही गुरु. शिष्य भीख मांग कर लाता और माल गुरु के आगे रख देता था तथा बाद में खुद खाता था-

जो पेटपूजा के लिए रोटी नहीं कमा सकता, जो भूख लगने पर हरेक के आगे हाथ फैलाता है, वह विमुक्ति के प्रति कितना गंभीर हो सकता है.

मांग कर खाने वालों, परोपजीवी लोगों को न आत्मसम्मान की चिंता होती है न मानवीय गरिमा की. वे तो मानो परतंत्र, पराधीन और गुलाम बनने के लिए अभिशप्त होते हैं. यही कारण है कि हम सब डींगों के बावजूद हजारों वर्षों तक विजित बने रहे, विमुक्ति तो हम ने बहुत लंबी व निरंतर गुलामी के बाद 1947 में प्राप्त की, वह भी अपनी विद्या के बल पर नहीं, बल्कि आधुनिक जगत में सीखी विद्या के बल पर.

ऐसे में न गुरुशिष्य परंपरा की फिर से स्थापना वांछनीय है, न कथित परलोक में कथिततौर पर विमुक्त करने वाली विद्या ही अपनाने योग्य है, क्योंकि उस से रोजगार की जगह भीख ही पल्ले पड़ती है.

आधुनिक शिक्षा मानवीय समानता पर आधारित है. यह अनेकता में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित है.   परंतु प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा वाली विद्या, एकता में अनेकता पैदा करती है तथा संगठन को विघटन में परिणत करती है.

जनेऊ : जातिभेद का नागपाश

प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा में विद्या की शुरुआत उपनयन (जनेऊ) संस्कार से होती है-

उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेत्.

(मनुस्मृति, 2/69)

अर्थात, गुरु शिष्य का उपनयन संस्कार कर के उसे शिक्षा दे.

उपनयन संस्कार की शुरुआत ही असमानता, भेदभाव और विघटन से ग्रस्त है, क्योंकि हर बच्चे के उपनयन का समय उस की जाति के अनुसार निर्धारित किया जाता है. ब्राह्मण के बालक का गर्भ से 8वें, क्षत्रिय के बालक का गर्भ से 11वें और वैश्य के बालक का गर्भ से 12वें वर्ष में उपनयन करने का विधान है:

जाति के अनुसार हर बालक के जनेऊ (यज्ञोपवीत) की सामग्री भी एकदूसरे से भिन्न होनी चाहिए.

ब्राह्मण के बालक का जनेऊ कपास से बने सूत का होना चाहिए, क्षत्रिय के बालक का यज्ञोपवीत सन की रस्सी का बना हो तथा वैश्य के बालक का यज्ञोपवीत ऊन (भेड़ के बालों) का बना हो.

कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्य,

शणसूत्रमयं राज्ञो, वैश्यस्याविजसौत्रिकम्.

(मनु., 2/44)

यानी जनेऊ की सामग्री भी जन्म पर आधारित जाति के भेदभाव की परिचायक होनी चाहिए ताकि बिना बोले ही वह सामग्री हरेक को ऊंचनीच, भिन्नतावाद और विघटन सिखा व बता दे.

शूद्र के लिए शिक्षा वर्जित

ऊपर हम ने देखा है कि उपनयन संस्कार अर्थात विद्या आरंभ संस्कार केवल 3 जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- के बालकों का होता था. बहुसंख्यक शूद्र जाति के बालकों के उपनयन अर्थात विद्या आरंभ का कहीं कोई विधान उपलब्ध नहीं होता. इस का मतलब स्पष्ट है कि प्राचीन शिक्षा पद्धति और गुरुशिष्य परंपरा के अनुसार शूद्र के लिए विद्या (पढ़नालिखना) वर्जित थी. अछूतों यानी आज के दलितों के लिए तो शिक्षा के पास फटकने की अनुमति भी न थी.

स्वामी दयानंद की अदया

स्वामी दयानंद सरस्वती का कहना है कि मूर्ख को शूद्र कहते हैं. जो पढ़लिख नहीं सकता था, वह शूद्र कहलाता था.

यह सरासर गलतबयानी है. ऐसा नहीं था कि वह पढ़लिख नहीं सकता था, वह अयोग्य था और मूर्ख था, वह शूद्र था, बल्कि वास्तविकता यह थी कि शूद्र को पढ़ने ही नहीं दिया जाता था, उसे अनपढ़ रखा जाता था और जानबूझ कर उसे मूर्ख बनाया जाता था.

जब शूद्र के विद्या आरंभ करने का कोई अवसर ही नहीं है, उस का उपनयन संस्कार ही नहीं है, किसी गुरु के पास उस के जाने का कोई विधान ही नहीं है और उसे पढ़ने दिया ही नहीं जाता, तब स्वामीजी ने उसे किस आधार पर ‘पढ़लिख सकने के अयोग्य’ घोषित कर दिया?

स्पष्ट है कि प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा और शिक्षापद्धति केवल 3 जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के बालकों को पढ़नेलिखने का अधिकार देती है और उन में भी परस्पर जातिगत भेद को हर कदम पर गहरा करती है.

इस तरह प्राचीन शिक्षापद्धति न केवल जातिगत भेदभाव को हवा देती है, बल्कि बहुसंख्यक शूद्र व दलित जातियों के लिए विद्या को वर्जित भी घोषित करती है.

इतना ही नहीं, यह गुरुशिष्य परंपरा का कहना है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों की लड़कियों का उपनयन संस्कार नहीं होना चाहिए, उन को विद्या देने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सवर्ण लड़कियों का विवाह ही उन का विद्या आरंभ संस्कार है, पति की सेवा करना ही गुरुकुल में वास अर्थात विद्याध्ययन है तथा घरबार का कामकाज ही अग्निहोत्र आदि कर्म है.

संक्षेप में, न बहुसंख्यक शूद्रों (स्त्री-पुरुष दोनों) को पढ़ने का अधिकार है, न सवर्ण या असवर्ण लड़कियों को. यह है महान गुरुशिष्य परंपरा और प्राचीन शिक्षा पद्धति.

इस परंपरा के ‘गुरुगीता’ जैसे ग्रंथ ज्ञानियों को नहीं, शोषितों को पैदा करते हैं और गुरुओं के नाम पर शिष्यों की पत्नियां हथियाने  वालों को उकसाते हैं. यदि यह शिक्षा है तो अशिक्षा किसे कहते हैं? यदि यह ज्ञान है तो अज्ञान किसे कहते हैं और यदि इस तरह के लोग गुरु होते हैं तो गुरुकंटाल किन्हें कहते हैं?

निराला है यह स्वाद : नूडल्स कटलेट

नूडल्स कटलेट

सामग्री

– 1 पैकेट नूडल्स

– 1 कप गोभी कसी

– 1/2 कप चीज

– 1 प्याज कटा

– 1-2 हरीमिर्चें

– 3 बड़े चम्मच कौर्नफ्लोर

– तलने के लिए तेल

– नमक स्वादानुसार.

विधि

1 पैकेट नूडल्स बिना मसाले के उबाल लें. इस में गोभी, चीज, प्याज, नमक व हरीमिर्च डाल कर अच्छी तरह मिला कर आटा तैयार कर बराबर भागों में बांट लें. मनपसंद आकार दें. व फिर कौर्नफ्लोर से डस्ट कर गरम तेल में शैलो फ्राई करें.

निराला है यह स्वाद : दही सैंडविच

दही सैंडविच

सामग्री

– 1 कप हंग कर्ड

– 1/2 कप कच्चा नारियल कसा

– 1-2 हरीमिर्चें

– 1 टुकड़ा अदरक

– 4 ब्रैड स्लाइस

– 2 बड़े चम्मच मक्खन

– नमक स्वादानुसार.

विधि

नारियल को मिर्च, अदरक, नमक व दही के साथ महीन पीस लें. इस चटनी को ब्रैड स्लाइस के बीच लगाएं व दूसरा ब्रैड स्लाइस ऊपर रख कर बंद करें. गरम तवे पर मक्खन लगा कर दोनों तरफ से सेंक लें. तिकोना काट कर गरमगरम सर्व करें.

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