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समीक्षा : डेढ़ बीघा जमीन (दो स्टार)

सन 1953 में बलराज साहनी, निरूपा रौय, मीना कुमारी अभिनीत ब्लौकबस्टर फिल्म ‘2 बीघा जमीन’ आई थी. इस में गरीब शंभु, जिस की भूमिका बलराज साहनी ने निभाई थी, को अपनी जमीन को बचाने के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाने को मजबूर होते दिखाया गया था. उस की जमीन पर एक अमीर साहूकार ने जबरन कब्जा कर लिया था.

समाजवादी विषय पर बनी इस फिल्म ने फिल्मों में एक अलग ही ट्रेंड सैट कर दिया था. उस के बाद बौलीवुड में जमीनों पर जबरन कब्जा किए जाने पर अनगिनत फिल्में बनीं और पीड़ित दरदर की ठोकरे खाते हुए भ्रष्ट सिस्टम से लड़तेलड़ते मर गए.
हमारा सिस्टम आज इतना भ्रष्ट हो चुका है कि प्रभावशाली नेता, विधायक, अफसर सब लूटखसोट में लगे हुए हैं, जिसे जो चीज पसंद आ जाती है, वह उस पर कब्जा कर लेता है और पीड़ित का सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ पाता. भई, आखिर सिस्टम जो ठहरा, किस की जुर्रत है कि वह उसे चैलेंज करे?

फिल्म ‘डेढ़ बीघा जमीन’ भी सिस्टम से टकराने पर है. फिल्म में एक मिडिल क्लास के एक आम आदमी को एक विधायक के खिलाफ आवाज उठाते दिखाया गया है. विधायक ने उस की डेढ़ बीघा जमीन पर जबरन कब्जा कर रखा है. उस आम आदमी को अपनी बहन की शादी में भारीभरकम दहेज देना है और वह अपनी डेढ़ बीघा जमीन बेच कर बहन की शादी कराना चाहता है परंतु उसे जमीन तो वापस नहीं मिलती, सीने पर गोलियों की बौछार जरूर मिलती है, विधायक उसे मरवा देता है.

फिल्म में इस आदमी की भूमिका पिछले साल ‘स्कैम 1992’ में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग की छाप छोड़ने वाले प्रतीक गांधी ने निभाई है. इस के अलावा प्रतीक गांधी विद्या बालन के साथ ‘दो और दो प्यार’ में भी नजर आया है.
इस फिल्म की कहानी समाज में फैली दहेज की बुराई को भी दर्शाती है, जहां पर बेटी की शादी के लिए घरवालों को दहेज देने के लिए जमीन से ले कर न जाने क्याक्या दाव पर लगाना पड़ता था. ‘डेढ़ बीघा जमीन’ के माध्यम से कहीं न कहीं प्रतीक गांधी ने उस आम आदमी की कहानी को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है, जिस से हर कोई गुजर रहा है, लेकिन इस के खिलाफ आवाज बहुत कम लोग ही उठाते हैं.

प्रतीक गांधी ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है. उस की पत्नी की भूमिका में खुशाली कुमार ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है. कहानी दिल तो छूती है, क्लाइमैक्स दुखद है. फिल्म से आम आदमी जुड़ाव महसूस करता है. कुल मिला कर यह फिल्म दर्शकों को सिस्टम की क्रूरता के आगे बेबस आम आदमी की लाचारी का बखूबी एहसास कराती है.
फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म में मसालों से परहेज किया गया है, मगर मनोरंजन का भी इस में अभाव है. फिल्म में कोई गीत नहीं है. उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा का इस्तेमाल फिल्म में किया गया है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

 

स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू से नहीं वाइफ फ्लू से डर लगता है

हमें इतना डर स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू और इबोला से नहीं लगता जितना आजकल वाइफ फ्लू से लगता है, लेकिन हमें बचपन से ही सिखाया गया है, मुसीबत से परेशान नहीं होना चाहिए, बल्कि उस के भी मजे लेने चाहिए. वाइफ फ्लू के बारे में भी हम ने महसूस किया है कि बाकी फ्लू तो देरसवेर ठीक हो जाते हैं, लेकिन वाइफ फ्लू का कोई तोड़ नहीं है. इस मामले में हमारा पहला अनुभव ही काफी रोमांचक रहा है. हां, तो हुआ यों कि कुंआरेपन में हमें मूंछें रखने का शौक था, लेकिन सुहागरात को वाइफ ने पहला वार मूंछों पर ही किया और साफसाफ शब्दों में कह दिया कि देखो जी, मूंछें रखना अब भूल जाओ, आज के बाद चेहरे पर मूंछें नहीं होनी चाहिए, समझे न.

हम ने इसे कोरी धमकी समझा और दिनभर दोस्तों के बीच मूंछें ऊंची किए घूमते रहे, लेकिन अगली सुबह सो कर उठने के बाद आईने में मूंछविहीन चेहरा देख कर हम सहम गए और समझ गए कि यह ‘समझे न’ की ही करामात है. हम समझ गए कि वाइफ जो कहती है, उसे कर के भी दिखा देती है, इसलिए इसी में भलाई है कि अब बाकी की जिंदगी श्रीमतीजी का चरणदास बन कर गुजारी जाए. अगली सुबह हम अभी आधे घंटे और सोने के मूड में थे, तभी शादी के पहले की झंकार वाली आवाज की जगह एक गरजती आवाज आई, ‘देखो जी, बहुत आराम हो गया, चलो उठो, नल में पानी आ गया है, पहले पानी भरो, इस के बाद सब्जी लेन भी जाना है.’

फिर थोड़े प्यार से बोली, ‘देखो जी, सब से पहले चाय बना लाओ, साथ ही पीएंगे.’

गरम हवाओं के बाद ठंडी सी फुहार ने हमें राहत पहुंचाई और हम दौड़ते हुए रसोई की तरफ भागे. अब हमारे लिए यह शोध का विषय हो गया कि आखिर वाइफ फ्लू होता क्या है? यह आता क्यों है? इस के लक्षण क्या हैं और इस के वायरस कहां से फैलते हैं? गहन शोध करने पर हम ने पाया कि वाइफ फ्लू को सहन करना पति की सहनशक्ति पर निर्भर करता है.

वाइफ फ्लू से पीडि़त पति के निम्न लक्षण होते हैं :

  1. वाइफ फ्लू की चपेट में आया पति हमेशा डरा सा रहता है.
  2. पति की बोलने की शक्ति क्षीण होती जाती है, परंतु श्रवण शक्ति बढ़ जाती है.
  3. वाइफ फ्लू से पीडि़त पति ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर गुजारने लगते हैं.
  4. जिंदगी में बद से बदतर स्थितियों में भी जीने का जज्बा रखते हैं.
  5. वाइफ फ्लू से पीडि़त पतियों में काम करने की आदत सी पड़ जाती है और उन्हें थकान महसूस नहीं होती है.
  6. कोल्हू के बैल की तरह काम करते हुए वे वाइफ से प्रशंसा पाने के भूखे रहते हैं.
  7. ऐसे पतियों को वैसे तो गुस्सा कम आता है, लेकिन ये मन ही मन कुढ़ते रहते हैं.

वाइफ फ्लू के वायरस के बारे में शोध करने पर कुछ मजेदार बातें सामने आई हैं :

  1. इस फ्लू के वायरस शादीब्याह की जगहों पर बहुतायत से पाए जाते हैं.
  2. कुंआरे लड़कों पर एकदम अटैक करते हैं.
  3. ये वायरस पहले मीठे सपने दिखाते हैं, फिर सपने को साकार करने की ललक जगाते हैं, इस के बाद जिंदगी को रोगी बना देते हैं.
  4. इस वायरस को फैलाने में दुलहन की बहन और सहेलियां मुख्य भूमिका निभाती हैं और भाभियां हवा देती हैं.
  5. ये वायरस आंखों से अंधा बना देते हैं. और अच्छाबुरा सोचने की शक्ति खत्म कर देते हैं.

इस शोध के बाद जब हम ने अपनी स्थिति के बारे में सोचा तब पाया कि हमारी शादी के समय भी जब हमारी भाभी ने हमें इशारे से एक कमसिन, नाजुक सी लड़की को दिखाते हुए, हमारे अरमान जगाए थे, तब हम हवा में ऐसे उछले थे कि सीधे उसी के पास जा कर गिरे थे. लेकिन हम ने अपने दोस्तों को वाइफ फ्लू से जूझते देखा था, इसलिए दूरियां बनाने की कोशिश करने लगे, तब उस ने बड़ी नजाकत के साथ कहा, ‘तुम तो मुझ से ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई चुड़ैल हूं. अरे भौंरा भी मुहब्बत में अपनेआप को कुरबान कर देता है, तो फिर तुम तो इंसान हो, हमारी मुहब्बत की कीमत समझो.’

जिस अंदाज में उस ने ये बातें कही थीं, हम अपना आपा खो बैठे थे और फिर तो हम भंवरे की तरह उस के आगेपीछे घूमने लगे. बस, इस के बाद वह हमारे वायरस लगने से खुश हो गई और गाने लगी, ‘बहारो फूल बरसाओ, मेरे पति को वाइफ फ्लू होने वाला है…’

खैर, जनाब जैसा कि हम ने पहले भी जिक्र किया है कि इस के वायरस सीधे अटैक करते हैं और बचने का कोई मौका नहीं देते हैं तो हमारी शादी तो होनी थी, सो हो गई, और इस के बाद हम वाइफ फ्लू में जकड़ते गए.

हम ने महसूस किया है कि इस वायरस की चपेट में आने पर कुछ उपाय करते रहना चाहिए, जोकि पेनकिलर का काम करेंगे और वायरस का दर्द कम हो जाएगा, फिर पति लोग धीरेधीरे इस के आदी हो जाएंगे.

वाइफ फ्लू से बचने के उपाय

  1. वाइफ फ्लू से पीडि़त पति को अपनी श्रीमतीजी की तारीफ करते रहना चाहिए जिस से कि वायरस को अटैक करने का मौका कम मिल पाए.
  2. पति को श्रीमतीजी की हां में हां मिलानी चाहिए, जो कि ऐंटीबायोटिक्स की डोज का काम करता है, इस में कमी होने पर वायरस को मजबूत होने का मौका मिल जाता है.
  3. जब श्रीमतीजी की सहेलियां या मायके के लोग आएं तब भागदौड़ कर घर के काम करने चाहिए, जब वे लोग पति की तारीफ करें तब कुछ दिन तक वाइफ फ्लू कंट्रोल में रहता है.
  4. जब श्रीमतीजी मेकअप कर के बाजार जाएं तब एक कंधे पर झोला और दूसरे कंधे पर बच्चों को लादने में देरी नहीं करनी चाहिए इस में देरी होने पर श्रीमतीजी के क्रोध के साथ ही वायरस सक्रिय होने लगते हैं.
  5. जब वाइफ किसी सामान को पसंद कर रही हो व मोलभाव कर रही हो, तब बीच में टांग नहीं अड़ानी चाहिए.
  6. श्रीमतीजी के साथ बाजार जाते समय भरपूर पैसे रखने चाहिए और खर्च करने में कंजूसी नहीं दिखानी चाहिए.
  7. पीडि़त पति को अपने बचाव के लिए सुबह से शाम तक अपनी पत्नी के नाम का जाप करते रहना चाहिए.
  8. यदि दिन अच्छा नहीं हो तो औफिस से छुट्टी ले कर श्रीमतीजी की सेवा में दिन गुजार देना चाहिए.

वाइफ फ्लू पर हमारा शोध चरम पर था, तभी श्रीमतीजी की आवाज से हम फिर सहम गए.

‘‘चलो, जल्दी उठो, बहुत आलसी हो गए हो. आज इतवार है, इस का मतलब यह नहीं कि बिस्तर पर पड़े रहोगे.’’

घर के काम करते हुए, कपड़े सूखने डालने और उठाने के लिए हम बारबार छत पर जाते थे. वहां हमारी मुलाकात पड़ोस की मिसेज पिल्लई से हो जाया करती थी. एक दिन उन्होंने प्यार से कहा, ‘मिस्टर निरंजन, तुम बहुत हिम्मतवाला, तुम इतने दिनों से वाइफ फ्लू से बीमार होने के बाद भी कैसे दौड़दौड़ के काम करता. सच में अपुन को तुम्हारे जैसा हसबैंड मांगता…’

मिसेज पिल्लई की सहानुभूतिभरी बातों से हम गद्गद हो गए और बोले, ‘‘आप कोई चिंता नहीं करने का, जब आप बोलेगा, हम हाजिर होगा.’’

अब मिसेज पिल्लई का प्यार हमारे लिए ऐंटीबायोटिक की डोज हो गया था, जो हमें वाइफ फ्लू से निबटने की ताकत दे रहा था और हमारा अधिकतर समय छत पर गुजरने लगा.

एक दिन मिसेज पिल्लई की कामवाली रमिया बाई ने हमारी मुलाकातों वाली बात श्रीमतीजी को बता दी. हमारी श्रीमतीजी की मिसेज पिल्लई से नहीं पटती थी, अब हमारी और मिसेज पिल्लई की मुलाकात ने आग में घी का काम किया. बस, उसी दिन उन्होंने रमिया बाई को हमारी जासूसी और घर के काम के लिए रख लिया और हमें घरेलू कामों से आजाद किया. उस दिन के बाद से हमारा वाइफ फ्लू तो ठीक हो गया, लेकिन उस ने मिस्टर पिल्लई को जकड़ लिया.

तारा उस का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘रुको विवेक…

सुबह तारा जब विवेक  के आगोश से खुद को छुड़ा कर बाहर निकली तो विवेक के प्रति उस के मन में बसी सारी भ्रांतियां भी इस प्यार की गरमाहट में पिघल चुकी थीं और वह एक नई सुबह की किरणों की तरह नए जीवन के सपने बुनने लगी. वह यही सोच रही थी कि आखिर कैसे वह एक अनजाने से ड र के कारण शादी के बाद भी पिछले 6 माह तक प्यार के इन सुनहरे लमहों को नहीं जी पाई थी क्योंकि सुहागरात के दिन ही उस ने अपने पति विवेक को एक ऐसी शर्त में बांध दिया था और उस की परीक्षा लेती रही. इस अनोखी शर्त में बंध कर दोनों इतने दिनों तक एकदूसरे का प्यार पाने के लिए तड़पते रहे.
सुबह की बयार भी तारा के जेहन में उमड़ रही लहरों को जैसे नई गति प्रदान कर रही थी और तारा की नैसर्गिक खूबसूरती में आज अजीब सी रौनक बढ़ आई थी जो पिछले 6 महीने में पहली बार ही दिखाई दी.
इन सुखद अनुभूतियों के साथ तारा उन कड़वी यादों के अतीत में खो गई जिन के कारण वह इतने दिनों तक एक घुटनभरी जिंदगी जीने को बाध्य हो गई थी.
2 बहनों और 1 भाई में सब से बड़ी तारा मम्मीपापा की सब से दुलारी होने के कारण बचपन से ही उसे जो भाता वही करती. अपनी मस्तीभरी जिंदगी में कब उस ने जवानी की दहलीज पर कदम रख दिया, उसे बिलकुल पता ही नहीं चला.
मजे से कट रही थी उस की जिंदगी, आंखों का तारा जो थी वह अपने मम्मीपापा की. उस के मम्मीपापा उसे पलकों पर बिठा कर रखते, वह भी सब पर जान छिड़कती और उन के प्रति अपना हर फर्ज निभाती.
हंसतेखेलते जब उस ने स्नातक की डिगरी अच्छे नंबरों से हासिल कर ली तो एक दिन मम्मी ने पूछा, ‘आगे क्या करने का इरादा है, बेटी?’
कुछ नहीं. बस, यों ही मस्ती करूंगी.’
‘मस्ती की बच्ची, मैं तो सोच रही हूं कि तेरी शादी कर दूं.’
‘नहीं मम्मी, अभी नहीं, क्यों अभी से ही मुझे अपने से दूर करने पर तुली हो?’ रोंआसी सी सूरत बना कर वह मम्मी की गोद में समा गई.
‘तो फिर कर लो कोई नौकरी, नहीं तो पापा तुम्हारी शादी कर देंगे,’ उस के बालों को सहलाते हुए मम्मी बोलीं.
‘नौ…क…री…ओके, डन. मम्मी, मैं आज से ही नौकरी की तैयारी करनी शुरू कर देती हूं. डिगरी में अच्छे अंक तो हैं ही, थोड़ी तैयारी करने पर नौकरी मिल ही जाएगी,’ उस ने चहक कर कहा.
‘तो फिर ठीक है. पर अगर 6 महीने में नौकरी नहीं मिली तो मैं तुम्हारे पापा को मना नहीं कर पाऊंगी,’ मम्मी ने उस के गालों को थपथपाते हुए कहा और अपने कमरे में चली गईं.
मम्मी के जाते ही तारा सोच में पड़ गई कि अब इस समस्या से कैसे निबटे. अखबार में तो कई रिक्तियां प्रकाशित होती हैं. क्यों न किसी अच्छी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया जाए, यही सोच कर उस ने अखबार उठाया तो उस की नजर रिक्तियां कौलम में एक विज्ञापन पर पड़ी, ‘जरूरत है राज्य सरकार में परियोजना सहायक की. आवेदक को स्नातक होना अनिवार्य है और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना चाहिए,’ यह देखते ही उस का चेहरा खिल उठा क्योंकि उस ने स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी, इसलिए उस ने फौरन आवेदन कर दिया.
कुछ ही दिनों में साक्षात्कार का बुलावा आया और वह पापा के साथ साक्षात्कार देने पहुंच गई. साक्षात्कार अच्छा हुआ और उसे उस के लखनऊ से दूर कानपुर में नौकरी की पेशकश की गई तो उस ने फौरन स्वीकार कर लिया कि चलो कम से कम 1-2 साल शादी के झंझट से मुक्ति मिली. थोड़े ही दिनों में उसे नियुक्तिपत्र मिल गया और तमाम औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उस ने नौकरी जौइन कर ली.
अब शुरू हुआ एक ऐसा सिलसिला जिस में सोमवार से शनिवार तक तो नौकरी में निकल जाते, फिर आती एक दिन की छुट्टी. इसलिए शनिवार आते ही तारा सारा काम जल्दीजल्दी निबटा कर दोपहर को ट्रेन पकड़ कर शाम तक लखनऊ हाजिर हो जाती, फिर सोमवार की सुबह इंटरसिटी से कानपुर पहुंच कर सीधे औफिस. यही अब तारा की साप्ताहिक दिनचर्या बन गई थी.
तारा अब अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहती, पर व्यस्तता के कारण वह ऐसा कर नहीं पाती थी. इस तरह उस के जीवन में एक अजीब सा एकाकीपन या यों कहें कि एक खालीपन सा आ गया था जिसे वह चाह कर भी नहीं भर पा रही थी.
दिखने में सुंदर व स्मार्ट होने के कारण औफिस में वह सब की नजरों में चढ़ी रहती. एक दिन उस के एक वरिष्ठ सहयोगी रमेशजी ने उस से कहा, ‘बेटी, औफिस वाले तुम्हारे बारे में तरहतरह की गौसिप करते हैं, अकेली लड़की के बारे में अकसर ऐसी बातें तो होती ही रहती हैं. यदि तुम्हारी शादी हुई होती तो शायद लोग तुम्हारे बारे में ऐसी बातें न करते. तुम्हारी उम्र भी शादी की हो चुकी है. यदि हो सके तो जल्दी से शादी कर के सब का मुंह बंद कर दो.’
रमेशजी की बात सुन कर वह दंग रह  गई कि सामने मीठीमीठी बातें करने  वाले उस के सहयोगी उस के बारे में कैसे गंदे खयाल रखते हैं, पर वह नहीं चाहती थी कि अभी शादी के बंधन में बंधे क्योंकि इसी से बचने के लिए ही तो वह इतनी कष्टपूर्ण जिंदगी जी रही है. पर आखिर होनी को कौन टाल सकता है. समय ने करवट बदली और घर में भी शादी की चर्चा ने जोर पकड़ लिया. आखिरकार पापा ने लखनऊ में ही एक सरकारी अधिकारी विवेक से उस की शादी तय कर दी और उस से कहा कि वह चाहे तो उस से मिल कर अपनी पसंद बता दे. बुरी फंसी बेचारी, आखिरकार उसे हां करनी पड़ी और शादी की तारीख तय हो गई. मिलनेमिलाने के सिलसिले के बाद जब शादी का दिन नजदीक आया तो
1 माह की छुट््टी ले कर वह अपने घर आ गई और शादी की तैयारियों में लग गई. घर में खुशी का माहौल था, घर की पहली शादी जो थी. भाई रोहन और बहन बबली तो हमेशा भागतेदौड़ते, व्यस्त नजर आते थे. घर में जीजाजी आने वाले थे, इसलिए दोनों बहुत खुश थे.
एक दिन तारा के मोबाइल पर   विवेक का फोन आया. फोन उठाते ही विवेक की आवाज आई, ‘जल्दी से तैयार हो जाओ, तारा, तुम्हारे लिए साडि़यां और गहने खरीदने बाजार चलना है.’ 
तारा को एक झटका सा लगा क्योंकि एक तो विवेक ने शादी तय होने के बाद से एक भी बार फोन नहीं किया और आज पहली बार फोन भी किया, वह भी ऐसे जैसे वह उस की होने वाली पत्नी नहीं बल्कि आया हो और कपड़े व गहने खरीद कर वह उस पर कोई उपकार कर रहा है. उसे गुस्सा तो बहुत आया परंतु उस ने कुछ कहने के बजाय बस इतना ही कहा, ‘ठीक है, मैं आधे घंटे में तैयार हो जाती हूं.’
‘ठीक है, तुम तैयार हो कर सहारागंज पहुंचो, मैं 1 घंटे में तुम्हें वहीं मिलूंगा,’ यह कह कर विवेक ने फोन काट दिया.
जिस रूखेपन से विवेक ने फोन पर उस से बात की थी, उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा पर वह कुछ कहने के बजाय जल्दी से तैयार हुई और आटो पकड़ कर सहारागंज पहुंच गई. विवेक उसे वहीं मिल गया. अकेले में पहली मुलाकात, न कोई औपचारिकता और न ही कोई प्यारभरी बात. विवेक ने यह भी नहीं कहा कि चलो पिज्जाहट में चल कर पिज्जा खाते हैं और थोड़ा घूमते हैं. बस, उस ने कहा कि चलो, और दोनों हजरतगंज में खरीदारी करने निकल गए.
अपने दोस्तों से शादी के पूर्व मुलाकातों के कई रोमांटिक किस्से तारा ने सुन रखे थे पर उसे विवेक के इस व्यवहार से झटका लगा, उसे विवेक से ऐसी उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी. खरीदारी के दौरान भी विवेक तारा पर अपनी पसंद लादता रहा और उस ने वही खरीदा जो उसे पसंद था. तारा चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई. बस, वह विवेक के साथ घूमती रही. खरीदारी के बाद वह बेरुखे मन से उसे आटो पर बिठा कर चला गया. न कोई औपचारिकता, न कोई प्यार की बात.
तारा को लगा कि विवेक सचमुच रोमांटिक व्यक्ति नहीं है और उसे उस की पसंदनापसंद का बिलकुल भी खयाल नहीं है. यह सोचते हुए उस के मन में विवेक के प्रति कड़वाहट भर गई. उस ने सोचा कि जब विवेक ऐसा है तो उस के परिवार वाले कैसे होंगे और वह उन के साथ कैसे सामंजस्य बिठा पाएगी. पर अब वह कर भी क्या सकती थी, शादी बिलकुल करीब थी और वह घर में कोई हंगामा खड़ा नहीं करना चाहती थी.
शादी धूमधाम से संपन्न हुई. मम्मीपापा ने बड़े अरमान से अपनी सारी जमापूंजी इस शादी में लगा दी ताकि वर पक्ष को कोई शिकायत न हो. विदाई के वक्त सारा परिवार गाड़ी के आंखों से ओझल होने तक खूब रोया और वह भरे मन से ससुराल पहुंच गई. उस की सोच के विपरीत उस के ससुराल वालों ने पलकें बिछा कर उस का स्वागत किया और फिर शुरू हुई शादी के बाद की रस्मअदायगी.
शादी के पूर्व विवेक से मुलाकात ऐसी कड़वी यादें छोड़ गई थी कि जिस से पार पाना तारा के लिए मुश्किल था. वह दिनभर यही सोचती रही कि पहली मुलाकात से जो प्यार की मिठास घुलनी चाहिए उस ने कड़वाहट का रूप ले लिया और करीब आने के बजाय दिलों की दूरियां बढ़ गई थीं. बारबार उस के दिल में यही खयाल आ रहा था कि जो व्यक्ति उस के आत्मसम्मान का खयाल नहीं रख सकता, उस के साथ वह अपनी पूरी जिंदगी कैसे बिता पाएगी.
इसी बीच, सारी रस्मअदायगी पूरी होतेहोते काफी रात हो गई और सभी रिश्तेदार चले गए. अब विवेक की भाभी ने तारा को छेड़ते हुए सुहागरात के लिए उसे उस के कमरे में पहुंचा दिया और अपने कमरे में चली गईं. अंदर ही अंदर बेचैन तारा इस उधेड़बुन में थी कि ‘आखिर वह ऐसे शख्स, जिस के मन में उस के प्रति जरा सा भी प्यार नहीं है, कैसे उसे अपना सर्वस्व सौंप दे. हिंदू परंपरा में शादी के बाद उस के शरीर पर तो अब विवेक का हक था और वह उसे कैसे रोक सकती है?’ यह सोचते ही उस का चेहरा पीला पड़ने लगा.

इधर, विवेक के कुछ दोस्त उसे घेर कर पहली रात को ही ‘चिडि़या मार’ लेने की हिदायतें और नुस्खे बता रहे थे और विवेक भी सुहागरात के सपने बुनता हुआ रोमांचित हो रहा था. आखिरकार देर रात को उस के दोस्तों ने उसे कमरे में ढकेल दिया और अपनेअपने घर चले गए. विवेक के चेहरे पर तीव्र उत्तेजनाओं का ज्वार स्पष्ट नजर आ रहा था, मन तेजी से कमरे की ओर जाने को बेताब था किंतु शर्म, संकोच, संयम पारिवारिक मूल्यों की जंजीरों ने जैसे उस के पांव जकड़ रखे थे. धीरेधीरे सकुचाते हुए विवेक ने कमरे में प्रवेश किया और दरवाजा बंद कर बिस्तर की ओर बढ़ने लगा. तारा बिस्तर पर सिमटी सी, सकुचाई सी बैठी थी पर उस ने मन ही मन एक दृढ़ फैसला कर लिया था. विवेक ने सब से पहले तारा का घूंघट उठाया और उस का सुंदर चेहरा देख कर बोला, ‘तारा, आज सचमुच तुम बिलकुल चांद सी लग रही हो. आज से मैं तुम्हें तारा नहीं चंदा कहूंगा और तुम्हें संसार की सभी खुशियां देने का प्रयास करूंगा. आज से हम एक नई जिंदगी शुरू करने जा रहे हैं. बोलो, दोगी न मेरा साथ?’
विवेक के प्रति मन में कड़वाहट लिए तारा को जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया. विवेक ढेर सारी बातें करता रहा पर तारा यह सोचने में लगी रही कि आखिर वह विवेक को कैसे सबकुछ कह पाएगी.
अचानक विवेक को शरारत सूझी और दोस्तों की सलाह के अनुसार उस ने अपना हाथ तारा के कंधे पर रखा और फिर कंधे से नीचे सरकाना शुरू कर दिया. जैसे ही विवेक का हाथ नीचे आया, तारा उस का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘रुको विवेक…’
यह सुनते ही विवेक को जैसे सांप सूंघ गया. उस ने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी कि सुहागरात के दिन उसे ऐसा सुनना पड़ेगा परंतु धैर्य से काम लेते हुए उस ने पूछा, ‘क्या बात है, चंदा?’
इतना सुनना था कि तारा शुरू हो गई, ‘विवेक, शायद इस के लिए यह समय सही नहीं है, क्योंकि हम अभी तक एकदूसरे को अच्छी तरह से समझ नहीं पाए हैं और ऐसे में मैं अपनेआप को तुम्हें सौंप नहीं सकती.
‘आज मैं ने एक फैसला लिया है कि हम 1 वर्ष तक जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाएंगे. इस 1 वर्ष के दौरान मैं पूरी तरह से तुम्हें और तुम्हारे परिवार को समझने की कोशिश करूंगी और पूरे समर्पण के साथ तुम्हारे हर सुखदुख की साथी बनूंगी और तुम भी मेरे परिवार के सदस्यों के साथ घुलनेमिलने का प्रयास करोगे.
1 साल बाद यदि हमारा विश्वास अटूट रहा तो फिर हम हमेशा के लिए एक हो जाएंगे, वरना शायद हमारे रास्ते अलगअलग भी हो सकते हैं. ऐसे में मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप कर पछतावे में नहीं रहना चाहती.’
जैसे कोई बदले की भावना से प्रेरित हो कर बंदूक की सारी गोलियां दाग देता है और फिर एक लंबी सांस लेता है, कुछ ऐसे ही तारा एक ही सांस में सबकुछ विवेक को कह गई. तारा की बातें सुन कर विवेक को काटो तो खून नहीं. उस की हालत ऐसी हो गई थी कि उसे न कुछ कहते बनता था न ही सुनते. उस ने हाथ ऐसे हटाया मानो बिजली का झटका लग गया हो. उस समय उस ने कुछ न बोलना ही बेहतर समझा और चुपचाप तकिया उठा कर सोफे पर सोने चला गया.
अगले दिन सुबह जब दोनों कमरे से बाहर निकले तो विवेक की भाभी उन दोनों को छेड़ने लगी पर दोनों ने बिलकुल जाहिर नहीं होने दिया कि उन के बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
तारा इन सब बातों को भूलते हुए घर के काम में लग गई और धीरेधीरे वह परिवार के सारे सदस्यों से घुलमिल गई और उस घर को अपना बना लिया परंतु विवेक के प्रति उस के मन में कड़वाहट वैसी ही बनी रही. दिन में तो सबकुछ ठीक चलता परंतु रात में न सिर्फ उन के बिस्तरों के बीच बल्कि उन के दिलों के बीच की दूरियां भी साफ नजर आतीं.
विवेक ने भी अपने औफिस से छुट्टी ले ली थी इसलिए वह दिनभर घर में ही रहता और बच्चों के साथ खेलता रहता. खेल की आड़ में ही वह कभीकभी तारा के शरीर से छेड़खानी भी कर देता. हालांकि विवेक के छूते ही उस के शरीर में करेंट सा दौड़ जाता पर वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाती.
इसी बीच, तारा कई बार अपने मायके भी गई और विवेक को भी साथ ले गई. विवेक उसे वहां छोड़ आता पर वहां ज्यादा देर रुकता नहीं था. वह रोहन व बबली से भी ज्यादा बातें नहीं करता था. बस, गंभीर बना रहता था. यहां तक कि मम्मीपापा के साथ भी वह औपचारिक ही बना रहता. 1-2 दिन रहने के बाद विवेक आ कर उसे वापस ले आता. विवेक का यह व्यवहार भी तारा को पसंद नहीं आया और उस के मन में विवेक के प्रति कड़वाहट और बढ़ती चली गई.
इसी बीच छुट्टियां बीत जाने के बाद तारा ने फिर से औफिस जौइन कर लिया. सभी सहकर्मियों ने उसे बधाई दी पर तारा उन्हें क्या कहती? बस, मन से उस ने औफिस का काम शुरू कर दिया. दिन तो औफिस में बीत जाता पर रात आते ही तारा के मन में कई तरह के द्वंद्व शुरू हो जाते कि कहीं उस ने शादी कर के कोई गलती तो नहीं कर दी? क्या उसे अब इस रिश्ते से मुक्ति ले लेनी चाहिए जिस रिश्ते में उस के पति का उस में या उस के परिवार के प्रति कोई झुकाव न हो? वह अपनेआप से लड़ती रहती. पर वह अपना गम सुनाए तो किसे. जब उस के दोस्त उस की सुहागरात के बारे में तरहतरह की बातें पूछते और उसे छेड़ते तो तारा बनावटी कहानियां सुना कर सब को शांत कर देती.
इस दौरान, अकसर विवेक से फोन पर बातें भी होतीं पर रिश्तों की कड़वाहट इन बातों में साफ नजर आती. इस बीच वह कई बार लखनऊ भी आई और अपने घर जाने के बजाय सीधे ससुराल गई और ससुराल वालों को कभी इस का एहसास नहीं होने दिया कि उस के और विवेक के बीच कुछ अच्छा नहीं चल रहा. वह पूरे समर्पण के साथ अपने सासससुर की सेवा करती और बच्चों के साथ खेलती. घर के सारे लोग उस के व्यवहार से काफी प्रसन्न थे पर रात को विवेक के कमरे में आते ही कमरे में शांति छा जाती. विवेक ने भी कभी उसे छूने या उस के बिस्तर पर साथ सोने के लिए जबरदस्ती नहीं की.
तारा हमेशा यही सोचती रहती कि जिस तरह से उस ने विवेक के परिवार को अपना लिया है उसी तरह से विवेक भी उस के परिवार को अपना ले और उन के हर सुखदुख में शामिल हो.
यही सोच कर उस ने विवेक की पसंदनापसंद का पता लगा कर उस के अनुरूप खुद को ढालना शुरू कर दिया. जब उसे पता चला कि विवेक को डांस एवं म्यूजिक बहुत पसंद है तो उस ने औफिस के बाद एक डांस एवं म्यूजिक क्लास जौइन कर ली ताकि वह किसी मौके पर उसे सरप्राइज दे सके. और जल्दी ही वह मौका आ गया. विवेक के चाचा के लड़के की शादी में वह गई और उस ने बच्चों के साथ मिल कर खूब डांस व मस्ती की. विवेक को यह सब काफी अच्छा लगा पर वह हमेशा यही सोचता रहता कि आखिर तारा ने उस के साथ ऐसा क्यों किया.
विवेक का जन्मदिन भी करीब आ रहा था और तारा उस के लिए एक और सरप्राइज की योजना बना चुकी थी ताकि वह विवेक को सरप्राइज दे सके. अपनी योजना के अनुसार जन्मदिन के दिन उस ने पहले से ही घर के सारे सदस्यों को लखनऊ के एक रैस्तरां में भेज दिया. विवेक यही सोच रहा था कि तारा ने आज उसे जन्मदिन की बधाई तक नहीं दी. हर साल घर में भी सभी को उस का जन्मदिन याद रहता है पर आज सब बिना बताए अचानक चले कहां गए.
तभी तारा ने विवेक से कहा, ‘विवेक, मेरी सहेली प्रेरणा ने मुझे बुलाया है, क्या तुम मुझे उस के घर छोड़ दोगे?’
‘क्यों नहीं, चलो,’ बिना कुछ पूछे विवेक तारा को बाइक पर बैठा कर चल दिया.
रैस्तरां आते ही तारा ने विवेक से कहा कि चलो रैस्तरां में कौफी पीते हैं. यहां की कौफी बड़ी टेस्टी होती है.
जब विवेक और तारा कौफी का और्डर दे कर इंतजार कर रहे थे तभी पीछे से सारे बच्चों ने शोर मचाते हुए विवेक को घेर लिया और जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘हैप्पी बर्थडे टू यू विवेक चाचा.’
अब विवेक को समझ आया कि इस तूफान के पूर्व शांति का कारण यह था. अब तक सारा परिवार इकट्ठा हो चुका था, सब ने खूब ऐंजौय किया.
विवेक काफी खुश था. इस घटना से उस के मन में तारा के प्रति प्रेम और बढ़ गया. पर वह यह सोचने लगा कि वह कैसे तारा को खुश करे ताकि उस के मन का द्वेष मिटे और दोनों एक खुशहाल जीवन जी सकें. इस तरह शादी के 6 माह बीत गए पर तारा अब तक उस के करीब नहीं आई. तारा का जन्मदिन करीब था. विवेक ने भी सोचा कि वह तारा के जन्मदिन पर कानपुर जा कर उस के जन्मदिन को धूमधाम से मनाएगा.
यही सोच कर वह बिन बताए जन्मदिन के दिन सुबह ही तारा के घर पहुंच गया और उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं और बोला, ‘आज छुट्टी ले लो तारा, हम लोग कहीं घूमने चलते हैं.’
जवाब में तारा ने कहा, ‘नहीं, विवेक, औफिस में काफी काम है और मैं पहले से बता कर भी नहीं आई हूं, इसलिए औफिस तो जाना ही पड़ेगा पर मैं कोशिश करूंगी कि दोपहर तक सारा काम निबटा कर आधे दिन की छुट्टी ले लूं.’
अचानक विवेक के कानपुर आ जाने से तारा अचंभित थी और औफिस में यही सोचती रही कि कहीं यह विवेक की कोई चाल तो नहीं क्योंकि वह तो यहां अकेले रहती है. इसलिए शायद वह इस का फायदा उठाना चाहता हो.
फिर भी अपने वादे के अनुसार वह दोपहर को छुट्टी ले कर घर आ गई और तैयार हो कर विवेक के साथ निकल गई. विवेक ने दिनभर घूमने व शाम को डिनर करने के बाद लखनऊ लौटने के बारे में कहा तो तारा ने फौरन हां कर दी और खुश होते हुए मन ही मन कहा, ‘चलो अच्छा हुआ, आज तो बच गई मैं.’
थोड़े ही दिन में सर्दियां शुरू हो गईं और रात को स्कूटी चलाने के कारण तारा को ठंड लगने से वायरल फीवर हो गया. जब उस ने विवेक को इस बारे में बताया तो वह फौरन कानपुर पहुंच कर तारा को बड़े प्यार से घर ले आया और तुरंत डाक्टर के पास ले गया. उस के चेहरे की घबराहट तारा साफसाफ पढ़ सकती थी. उसे यह एहसास हुआ कि विवेक को उस की चिंता है. उस ने अपने दफ्तर से छुट्टी ले ली और दिनभर तारा के पास ही बैठा रहता और रात को जब सब चले जाते तो वह जा कर सोफे पर सो जाता.
विवेक की प्यारभरी देखभाल से तारा जल्दी ठीक हो गई और कानपुर जाने के लिए तैयार हो गई तो विवेक ने कहा, ‘अभी नहीं, तुम काफी कमजोर हो गई हो, इसलिए थोड़े दिन आराम कर लो फिर चली जाना.’
इस प्यारभरे अनुरोध को वह टाल नहीं सकी. अगले ही दिन विवेक उसे मम्मीपापा से मिलाने ले गया. इस दौरान तारा ने महसूस किया कि विवेक बबली और रोहन के साथ काफी घुलमिल गया है और उन के साथ काफी हंसीमजाक कर रहा है. दूसरी ओर, इस बार मम्मीपापा के साथ भी उस का व्यवहार प्रेमभरा था.
तारा विवेक के चेहरे पर यह परिवर्तन साफ देख पा रही थी. परंतु उस ने सोचा कि अभी तो सिर्फ 6 माह ही बीते हैं, अभी तो वह पूरे 6 माह विवेक को परखेगी तभी उसे सच्चे मन से अपनाएगी.
2 दिन वहां रुकने के बाद विवेक रात को तारा को ले कर अपने घर लौट आया. कड़ाके की सर्दी में बाइक चलाने के कारण विवेक को सर्दी लग गई पर उस ने तारा को कुछ नहीं बताया और सोफे पर सोने चला गया.
तारा विवेक में आए परिवर्तन को ले कर काफी खुश थी और सुनहरे दिनों के सपने बुनते हुए पता नहीं कब उस की आंख लग गई.
रात को जोरजोर से कराहने की आवाज सुन कर उस की आंख खुली तो उस ने देखा कि विवेक ठंड से कंपकंपाते हुए सिकुड़ कर सोफे पर सोया है. यह देखते ही वह घबरा कर उठी और विवेक के पास जा कर उसे रजाई ओढ़ा कर बिस्तर पर लाने लगी तो विवेक ने कहा कि नहीं, मैं यहीं ठीक हूं, सुबह तक ठीक हो जाऊंगा.
तारा ने जबरदस्ती विवेक को बिस्तर पर ला कर लिटा दिया और तेजी से उस के पैर सहलाने लगी. पैर सहलाने से भी जब उस के शरीर की कंपन कम नहीं हुई तो वह बिना सोचेसमझे विवेक के सीने से लिपट गई और उसे जोर से जकड़ लिया. अचानक मिली नारी देह की गरमी से विवेक के शरीर की कंपन ठीक हो गई. आराम मिलते ही उस ने तारा से अलग होने के लिए उस की पकड़ ढीली करने को कहा तो तारा ने अपनी पकड़ और मजबूत करते हुए उसे जोर से जकड़ लिया और बोली, ‘बस, विवेक, तुम्हारे धैर्य का इम्तिहान अब खत्म हुआ, ऐसे ही पड़े रहो, बस.’
अब तक विवेक को आराम मिल चुका था. वह भावुक होते हुए बोला, ‘तारा, बचपन से ही मैं संकोची स्वभाव का हूं, मुझे कभी लड़कियों से बातें या दोस्ती करने का मौका ही नहीं मिला. इसलिए मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि रिश्ते कैसे निभाए जाते हैं. यही कारण है कि मैं तुम से और तुम्हारे परिवार के सदस्यों से ज्यादा घुलमिल नहीं पाया परंतु जब तुम ने मेरे परिवार को अपना बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और मेरी हर पसंदनापसंद का खयाल रखा तो मैं ने सोचा कि जब तुम मेरे लिए इतना बदल सकती हो तो मैं तुम्हारे लिए क्यों नहीं बदल सकता. यही सोच कर मैं ने अपनेआप में बदलाव लाना शुरू कर दिया है.
‘बचपन से मैं ने सदैव ही आगे रहते हुए सभी कार्य किए थे और आगे रहने की इसी होड़ के चलते मुझे किसी की भावनाओं को समझने का मौका नहीं मिला और इसलिए तुम्हारे जज्बातों को न समझने की भूल कर बैठा. वैसे तारा, मैं तुम्हें कभी इग्नोर करना नहीं चाहता था,’ विवेक के स्वर में एक पश्चाताप मिश्रित दुख का भाव था, जिसे तारा ने बखूबी पढ़ लिया.
फिर वह तारा की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘तारा, अभी कम से कम 6 महीने और तुम्हें मुझ से कोई खतरा नहीं है.’
उस की बातें सुन कर तारा अपनी आंखों में शरारत लिए विवेक के गालों को चूमते हुए बोली, ‘तारा नहीं, चंदा, तभी तो आप की चंदा कह रही है कि आप ने अपना इम्तिहान वक्त से पहले ही डिस्ंिटक्शन के साथ पास कर लिया है और इनाम के हकदार बन गए हैं. सच कहूं, विवेक,’ तारा ने सकुचाते हुए कहा, ‘मुझे भी तुम्हारे शादी के पहले के इग्नोरैंस की अपेक्षा बाद की दूरी बहुत खली, पिछले 6 महीने में हर रात मैं ने भी एक परीक्षा दी है, हर रात एक ही प्रश्न ने मेरी नींद उड़ा दी थी.’
‘कौन सा प्रश्न, चंदा?’ विवेक के चेहरे पर प्रश्नमिश्रित आश्चर्य के भाव थे.
तारा ने कहा, ‘यही कि मैं ने जो अनोखी शर्त रखी है वह सही है या गलत?’
यह कह कर विवेक की चंदा विवेक से लिपट गई. अब उन के जीवन में एक नई सुबह की शुरुआत हो चुकी है. और अनोखी शर्त अब जीवन के अनोखे आनंद में जैसे खो सी गई थी.

अड़ियल टट्टू

हमेशा की तरह सुकेश मुंबई के नरीमन पौइंट स्थित अपने औफिस 11:15 बजे पहुंचा जबकि औफिस पहुंचने का समय 10:45 बजे था।
रोज देरी से औफिस पहुंचने के कारण बौस सुकेश से नाराज रहते थे, लेकिन सुकेश, बौस के निर्देशों को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देता था।
महानगर होने की वजह से यहां औफिस पहुंचने का समय दूसरे शहरों से अलग था, क्योंकि मुंबई में 10 बजे सभी के लिए औफिस पहुंचना संभव नहीं था। नरीमन पौइंट के आसपास निम्न व मध्यवर्ग के लोगों के लिए किराए से या खुद के मकान में रहना असंभव था। इसलिए, अपनी सैलरी के हिसाब से कोई कर्मचारी विरार रहता था तो कोई खारगर।
अमूमन, सुकेश औफिस पहुंचते ही चाय पीता था, उस के डेस्क के सामने ही चायकौफी की मशीन लगी हुई थी। वह चाय की चुसकी ले ही रहा था कि तभी एचआर का मसेंजर डाक रिसीव करने वाले कलर्क से बोला, “विभाग में सुकेश सर कहां बैठते हैं, उन्हें चिट्ठी देनी है।” सुकेश अपना नाम सुन कर बोला, “मैं ही सुकेश हूं, दे दो चिट्ठी।”
चिट्ठी पढ़ते ही सुकेश के होश उड़ गए, क्योंकि उसे बैंक की सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था और उस की बर्खास्तगी आज से ही प्रभावी थी। कारण था 5 सालों से वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में लगातार ‘सी’ ग्रेड दिया जाना।
बौस इस हद तक चला जाएगा, सुकेश को उम्मीद नहीं थी। बौस के खिलाफ सुकेश कुछ भी नहीं कर सकता था, फिर भी उस के मन में बौस के प्रति नफरत और क्रोध की चिनगारी भड़कने लगी। सुकेश बौस पर अपशब्दों की लगातार फाइरिंग कर रहा था। जब इस से भी मन नहीं भरा तो उस ने बौस को 2 थप्पड़ जड़ दिए। जब शोरगुल बढ़ गया तो विमल भी चेंबर के अंदर आ गया। विभाग में एचआर विमल ही देखता था।
विमल ने बौस और सुकेश को शांत करवाने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सका। सुकेश का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था। चिल्लाने के कारण वह खांसने भी लगा था, फिर भी वह लगातार बोले जा रहा था। उस के गले के नस तने हुए थे और मुंह से थूक लगातार निकल रहा था। चूंकि, उस के पास अब खोने के लिए कुछ भी नहीं था, इसलिए वह बहुत ज्यादा आक्रामक हो गया था।
अंत में बौस को सिक्योरिटी औफिसर को बुलाना पड़ा। उस के हस्तक्षेप के बाद भी सुकेश बड़ी मुश्किल से चेंबर से बाहर आया, लेकिन, “बौस को मार दूंगा, किसी को नहीं छोङूंगा, कोर्ट जाऊंगा…” आदि उस के द्वारा बड़बड़ाना जारी रहा।
जब ऊर्जा खत्म हो गई और हलक प्यास से सूखने लगा तो हताशा और निराशा की स्थिति में वह अपनी सीट पर बैठ कर पानी पीने लगा। हालांकि, मन के अस्थिर होने की वजह से वह अपने सिर के बालों पर बारबार उंगलियां फिरा रहा था साथ ही साथ चेहरे को दोनों हथेलियों से हलकाहलका दबा भी रहा था।
कुछ देर सुकेश शांत रहा, फिर अचानक से वह विमल से उलझ गया। विमल शांत रहा, चुपचाप सुकेश का अनर्गल प्रलाप सुनता रहा। जब सुकेश की चिल्लाने की तीव्रता कम हुई तो विमल बोला, “भाई, तुम अर्थशास्त्री हो, खुद को विद्वान मानते हो और आज कह रहे हो कि तुम्हें यह नियम पता नहीं था। तुम्हारे इस तर्क को कौन मानेगा, किसी को लगातार 5 बार वार्षिक रिपोर्ट में सी ग्रेड मिलने पर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाता है, यह तुम्हें अच्छी तरह से पता है। मैं विगत 3 सालों से इस खतरे के बारे में तुम्हें बता रहा हूं, पिछले साल बौस से माफी मांगने के लिए भी मैं ने तुम से कहा था। मैं ने यह भी कहा था कि बड़ी मछली हमेशा छोटी मछली को खा जाती है, फिर भी तुम अड़ियल टट्टू बने रहे।”
जब विमल का स्वर तल्ख और तेज हुआ तो सुकेश के जबान पर ताला लग गया। विमल की बातों को सुनने के बाद भी सुकेश का मन और भी अशांत हो गया। कुछ देर तक सामने की वीआईपी लिफ्ट की तरफ निर्लिप्त भाव से एकटक ताकता रहा, फिर अचानक से उठ कर डीजीएम लौ से इस उम्मीद में मिलने चला गया ताकि उसे उस की समस्या का कोई समाधान मिल सके।
डीजीएम लौ ने कहा, “बैंक में वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट की ग्रेडिंग के आधार पर बर्खास्त करने के प्रावधान को 2015 में लागू किया गया था, लेकिन यह अपवाद जैसा है, क्योंकि इस के पहले कभी इस वजह से बैंक की सेवा से किसी को बर्खास्त नहीं किया गया है। चूंकि, इस प्रावधान को अधिकारी संवर्ग की सेवा शर्तों में शामिल किया जा चुका है, इसलिए अदालत में तुम इस केस को शायद ही जीत पाओगे।”
डीजीएम लौ के यहां से लौटते समय सुकेश के कदमों में भारीपन को देखते ही विमल समझ गया कि बात नहीं बनी। विमल मन ही मन सोच रहा था कि कितना वेबकूफ और घमंडी है सुकेश? अर्थशास्त्री है, खुद को विद्वान समझता है, पढ़ाईलिखाई विदेश से की है, फिर भी उस की अक्ल हमेशा घास खाने गई हुई होती है। इतना अकड़ू है कि कभी भी सीधे मुंह बात नहीं करता है। बौस और सुकेश के बीच मनमुटाव का कारण सिर्फ अहम है। मैं…मैं…और सिर्फ मैं… सुकेश की बर्खास्तगी का मूल कारण है।
सुकेश का पिछले 5 सालों से बौस के साथ खटपट चल रहा था। पहले बौस का रोज सुकेश से बकझक होता था, लेकिन जैसे ही बौस को पता चला कि अगर किसी भी कर्मचारी को वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में लगातार 5 सालों तक सी ग्रेड दी जाए तो बैंक उसे सेवा से बर्खास्त कर देता है, बौस ने सुकेश के साथ बहस करना बंद कर दिया और उसे हर साल सी ग्रेडिंग देनी शुरू की।
चूंकि, समीक्षा पदाधिकारी के साथ बौस हमेशा तालमेल बना कर रखते थे, इसलिए बौस की दी हुई ग्रेडिंग को समीक्षा पदाधिकारी भी हमेशा यथावत रखते थे।
बर्खास्तगी के बाद सुकेश को गृह एवं कार ऋण तत्काल प्रभाव से बंद करना होगा या फिर दूसरी नौकरी करनी होगी, ताकि वह हर महीने घर और कार की किस्त और ब्याज जमा कर सके। अभी वह बैंक द्वारा आवंटित मकान में रहता है, उसे भी उसे तुरंत खाली करना पड़ेगा। फर्नीचर, फिक्सचर की कीमत भी उसे बैंक को तुरंत चुकानी होगी।
पत्नी, हाउसवाइफ है, बेटा भी 3 महीने का है, तुरंत नौकरी मिल जाएगी, यह आसान नहीं होगा, क्योंकि निजी और सरकारी नौकरियों की कार्य संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर होता है। साथ में, अब उस पर बर्खास्तगी का कलंक भी लग चुका है।
इंसान जानता है कि इस दुनिया में किसी की कोई औकात नहीं। सभी रंगमंच के पात्र हैं और एक दिन सभी को अपनी भूमिका अदा कर के इस दुनिया से रुखसत होना है। कोई यहां अमर बन कर नहीं आया है। बावजूद इस के, सुकेश ने सिर्फ अपने झूठे दंभ को पोषित करने के चक्कर में अपने परिवार को सड़क पर ले कर आ गया। यह सब सोचतेसोचते विमल का मन बोझिल सा हो गया।

 

इकलौता बेटा : तीन बेटियां हुईं तो मां झल्ला गईं

मां फोन पर सुबक रही थी,”सिर्फ खाना देना होता हेै और शूगर की सुई लगानी होती हेै। यही 2 काम शेैला के लिए भारी पड़ता है। वह इतना भी नहीं करना चाहती। कहती हेै कि मैं थक जाती हूं। मुझ से होता नहीं,” सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आया।
शैला मेरी इकलौती भाभी है। क्या इतनी कमजोर हो गई है कि मां को खाना भी नहीं दे सकती? बुढापे के कारण मां का ठीक से उठनाबैठना नहीं हो पाता था। उन के घुटनों में हमेशा दर्द बना रहता। उस पर उन का भारी शरीर। दो कदम चली नहीं कि हांफने लगती। अब इस स्थिति में शैला उन की सेवा नहीं करेगी तो कौन करेगा? बुढापे में बच्चे ही मांबाप का सहारा होते हैं। माना कि उन के सिर्फ एक ही लडका कृष्णा था और हम 3 बेटियां। उन की सेवा तो हम बेटियां भी कर सकती हैं मगर वे हमारे पास आना नहीं चाहती थीं। वजह वही सामाजिक रूसवाई। लोग कहेंगे कि बेटा के रहते बेटी के यहां रह रही है। बेटा पर तो अधिकार है पर बेटियों के पास किस हक से जाएं?
मां की व्यथा सुन कर मेरा मन बेचैन हो उठा। अगर वे आसपास होतीं तो मैं तुरंत चल कर उन के पास पहुंच जाती। मगर विवश थी। कहां इलाहाबाद कहां चैन्नई। जब तक कृष्णा दिल्ली में था, जाना आसान था। अब संभव नहीं रहा।
‘‘शैला, दिनभर करती क्या है? बच्चों  के स्कूल जाने के बाद उस के पास काम ही क्या रहता होगा?’’ मेरा स्वर तल्ख था।
‘‘सोती रहती है। कहती है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती,” मां बोली।
‘‘तबीयत को क्या हुआ है। जवान है, आप की तरह बूढी नहीं। कृष्णा का रवैया कैसा है?”
‘‘कृष्णा दिनभर औफिस में रहता है। औफिस से आने के बाद वह सीधे शैला के कमरे में जाता है। वही 1 घंटे नाश्तापानी करने के बाद  खुसुरफुसुर करता है। वह तो उलटा मुझे ही दोष देता है।’’
‘‘क्या कहता है?’’
‘‘यही कि मैं बिनावजह शैला से उलझती रहती हूूं।”
72 वर्षीय महिला हैं आप। जरा सा टीकाटिपप्णी कर ही दिया तो इस में बुरा मानने की क्या जरूरत है। क्या वह बूढ़ी नहीं होगी?’’ कह कर मै सोचने लगी कि बुढ़ापे में आदमी अपने शरीर से परेशान हो जाता है। तमाम बीमारियां उसे घेर लेती हैं। जिस की वजह से वह चिडचिडा हो जाता है। मां को हाई ब्लड प्रैशर के अलावा शुगर भी था। न उन में पहले की तरह जोश था न ही स्फूर्ति। कौन कमजोर होना चाहता है। आज का नौजवान जवानी के नशे में कल की नहीं सोचता हेेै। अगर सोचता तो मां की यह हालत न होती। मुझे शैला से ज्यादा कृष्णा पर क्रोध आ रहा था। यह वही कृष्णा था जिसे मां देशी घी का लडडू कहती थीं। हम 3 बहनों में कृष्णा सब से छोटा था। इसलिए उसे मां और हमसब का भरपूर लाड़प्यार मिला। इस की एक सब से बडी वजह यह भी थी कि वह लडका था। 3 लगातार बेटियां हुईं तो मां झल्ला गईं। ऐसे में कृष्णा का आगमन अंधेरे में चिराग की तरह था।
कृष्णा के आने के बाद मां का सारा ध्यान उसी पर टिक गया। हम बहनें उन के लिए पहले ही बोझ थीं अब और हो गईं। वे जबतब हमें डांटती रहतीं। मानों हमें देखना भी नहीं  चाहती हों। कृष्णा को कोई अभाव न हो, इस का हर वक्त उन्हें खयाल रहता। मां के इस रवैये से मेरा मन वेदना से भर जाता। इस के बावजूद भी मैं वही करती जो वह चाहतीं। सिर्फ इसलिए कि वह मुझ से खुश रहें।
घर का सारा काम करना। कृष्णा की सभी जरूरतों को पूरा करना। उस के बाद स्कूल की पढ़ाई करना। यह आसान नहीं था मेरे लिए। मेरा बोझ हलका तब हुआ जब मेरी बाद की दोनों बहनें मेरे काम में हाथ बंटाने लगीं।
आहिस्ताआहिस्ता समय सरकता रहा। फिर एक दिन ऐसा आया जब पापा को मेरी शादी की चिंता हुई।  उस समय पढ़ाई पूरी कर के मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थी। टयूशन व स्कूल की तनख्वाह से बटोरी गई पूंजी और रिश्तेदारों की मदद से मेरी शादी हो गई। पापा ने फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की। वे अपने रुपयों को ले कर हमेशा संशय में रहे। उन की आंखों के सामने हमेशा कृष्णा का ही भविष्य घूमता। लिहाजा, मेरी शादी चाहे जैसे लड़के से हो मगर उन का एक पेैसा खर्च न हो। ऐसा ही हुआ। मैं ने भी इसे कुदरत का फैसला मान कर स्वीकार कर लिया।
इस बीच मकानमालिक ने पापा को मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया। इस मकान में पापा 25 साल रहे। वह भी मामूली किराए पर। एकाएक इस समस्या ने उन्हे विचलित कर दिया। तभी उन्होंने मम्मी से रायमशविरा कर एक छोटा सा मकान खरीद लिया। जाहिर था, इस मकान का वारिस कृष्णा ही बनेगा। पापा अपने इस फैसले से संतुष्ट थे। बाद में मंझली बहन ने भी प्राइवेट स्कूल और टयूशन कर के जो पूंजी जमा की उसी में थोडाबहुत अपना रुपया पापा ने लगा कर उस की भी शादी कर दी। रह गई तीसरी। किसी तरह उसे भी निबटाया।
अब उन के लिए सिर्फ कृष्णा था। कृष्णा ने कोचिंग करने के लिए फीस मांगी तो पापा सहर्ष तैयार हो गए। वहीं जब मैं ने कहा था तो साफ इनकार कर दिया था। कहने लगे कि हमारे पास इतना है ही नहीं कि तुम्हारे लिए कोचिंग करवा सकें जबकि मैं पढने में काफी होशियार थी।
कृष्णा एक नामी कंपनी में इंजीनियर बन गया। उस ने आधुनिक जरूरतों का सारा सामान खरीद लिया। मांपिताजी सभी कृष्णा की तरक्की से खुश थे। पापा को लगा उन का जीवन सार्थक हो गया। जब तक पापा जीवित थे सब ठीकठाक था। एकाएक पापा दिवगंत हुए तो मां को इलाहाबाद छोड़ कर कृष्णा के पास रहना पङा। यहां उन की देखभाल कौन करता? मां, बेटाबहू के पास नहीं रहना चाहती थीं। वजह उन्हें अपने मकान और शहर से लगाव था। मगर इस उम्र में उन की हमेशा देखभाल कौन करेगा? मैं भले ही इलाहाबाद में रहती थी मगर मेरा अपना घर था। रातबिरात उन्हें कुछ होता है तो कौन मदद के लिए आएगा? यही सब सोच कर कृष्णा ने मां को अपने पास बुला लिया। वे बेमन से चली गईं।
अपने शहर का सुख और ही होता है। सब से बड़ी बात सब जानासुना होता है। माहौल के रगरग से वाकिफ होता हेै। बहरहाल, साल में एक बार हमसब बहनें उन से मिलने जरूर जाते। वापसी पर उन की आंखें भीग जातीं। कहती कि मन नहीं लगता,  इलाहाबाद आना चाहती।
मैं कहती, ‘‘वहां अकेले रहना क्या आसान है? उम्र हो चली है। रातबिरात तबीयत बिगडेगी तब कौन होगा? यहां कम से कम कृष्णा है आप की देखभाल के लिए।’’
‘‘कृष्णा बदल गया है,” मां बोलीं।
‘‘इस पर ज्यादा गौर मत किया करो। बदलाव सभी में आता है,” कह कर मैं औटो में बैठने लगी। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा वे तब तक हमें देखती रहीं जब तब औटो उन की नजरों से ओझल नहीं हो गया। मुझे उन की मनोदशा पर तरस आ रहा था।
समय हमेशा एकजैसा नहीं होता। मां सबकुछ पहले जैसा चाहती थी। पर क्या ऐसा हो सकता है? गाङी में बैठने के बाद जब हम बहनें थोङी फ्री हुईं तो मां केा ले कर चर्चा हुई।
‘‘मां, बारबार इलाहाबाद आने को कहती हैं,” मंझली बहन शिवानी बोली। मां मंझली के ज्यादा करीब रही थीं।
‘‘क्या यह संभव है?’’ मैं पूछी।
‘‘चाहे जैसे भी हो उन्हें उन्हीे के पास रहना होगा। इसी में उन की भलाई है।’’
‘‘कैसी बात करती हो, दीदी। तुम्हें मां के प्रति इतना निष्ठुर नहीं होना चाहिए,” शिवानी को बुरा लगा।
‘‘तो रख लो अपने पास। तुम से वह ज्यादा घुलीमिली रहती है,’’ शिवानी को बुरा लगा।
“क्या तुम नहीं रखोगी? क्या वह तुम्हारी मां नहीं है?’’ शिवानी का सवाल बचकाना लगा मुझे।
‘‘सवाल रखने या न रखने का नहीं है। जिम्मेदारी की बात है। बेटे की जिम्मेदारी बनती हेै अपने मांबाप की सेवा की। हम रख कर कृष्णा को और बेलगाम कर देंगे। वह तो चाहेगा कि मां को हमलोग रख लें ताकि निरंकुश जीवन जीए। क्या तुम ने सुना नहीं जब शेैला, मां से कह रही थी कि आप की वजह से हम कहीं आजा नहीं सकते। आप ने हमें बांध कर रख दिया है।’’
‘‘दीदी ठीक कह रही है। मम्मी ने एक बार फोन कर के इस बात का जिक्र मुझ से किया था,” तीसरी बहन सुमन बोली।
कुछ सोचकर शिवानी बोली,”2-2 महीना तो रख ही सकते हैं। इस बहाने उन का मन भी बहल जाएगा।’’
‘‘मैं कब इनकार करती हूं। मगर इस अवस्था में सफर कर के अलगअलग शहरों में आनाजाना क्या उन के लिए आसान हेागा? कौन उन्हें चैन्नई से ले आएगा?‘‘
‘‘मेैं अपने पति से कहूंगी कि वह मां को ले आए,’’ शिवानी बोली।
‘‘बहुत आगे बढ़बढ़ कर तुम बोल रही हो। एक बार कह कर तो देखो, तुम्हारे पति इनकार न कर दें तो कहना। सीधे कहेंगे कि जिस की मां है वह भेजे। मैं क्यों अपनी नौकरी छोड़ कर उतनी दूर जाऊं? मैं बोली।
‘‘सब एकजैसे नहीं होते,’’ शिवानी का इशारा मेरी तरफ था। मेरे पति जमीनी व्यक्ति थे। वहीं शिवानी का पति धर्मपरायण। पता नहीं कैसे नौकरी करते थे। दिनभर उन का ध्यान अंधविश्वास व भगवान पर ही रहता था। क्षणिक भावनाओं में बह कर वे चैन्नई चले भी गए तो यह हमेशा ऐसा संभव होगा? वहीं सुमन का पति एक दम ठेठ प्रवृति का इंसान। जब वह सुमन का नहीं सुनता तो भला सास को लेने क्या जाएगा? साफ कहेगा कि उन के बेटाबहू जानें हम से क्या मतलब। इसलिए सुमन से कोई अपेक्षा करना निरर्थक था। सुमन यही सब सोच कर चुपचाप हमलोगों की गुफ्तगू सुन रही थी।
रात होने को हुआ। हमलोग बात यहीं खत्म कर के अपनेअपने बैड पर सोने चले गए।
सुबह गाङी सतना पहुंची तो शिवानी के साथ सुमन भी उतर गई। सुमन को वहां 2 दिन रुकना था। उस के बाद वह अपने घर लखनऊ चली जाएगी। मैं ने उन से विदा ली। मेरा पडाव 6 घंटे बाद आने वाला था। मैं सोचने लगी कि समय कितना बलवान होता है। कहां हमसब एक ही शहर में रह कर पलेबढे़ और आज 4 लोग 4 जगह के हो गए। मेरा मायका इलाहाबाद था। इसलिए मैं हर वक्त मम्मीपापा के लिए खड़ी रहती थी। बाद में पापा की तबीयत बिगड़ी तो वे दिल्ली चले गए। वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।
योजना के मुताबिक मैं ने कृष्णा को फोन लगाया,”तुम्हें ले जाना हो तो ले जाओ। मेरे पास समय नहीं है,’’उस ने साफसाफ बोल दिया।
“थोड़ा समय निकालो। उन का भी जी बहल जाएगा,’’ मैं ने मनुहार की।
‘‘उन का दिल कहीं नहीं लगेगा। मैं उन के स्वभाव को जानता हूं।”
‘‘अब तुम उन का स्वभाव भी देखने लगे?” मुझे बुरा लगा।
‘‘इतना ही फिक्र है तो रख लो उन को अपने पास हमेशा के लिए।’’
‘‘मैं क्यों रखूंगी। सबकुछ तुम्हें दिया है। अब जब लोैटाने की बारी आई तो हम बहनों पर टाल रहे हो।’’
‘‘तो जैसे चल रहा है चलने दो।’’
‘‘कैसे चलने दूं? बीवी के मोह ने तुम्हें अपने कर्तव्य से विमुख कर रखा हेै।’’
“मुझे अपना कर्तव्य मत सिखाओ। मुझे अच्छे से निभाना आता है।’’
‘‘कुछ नहीं निभा रहे हो। तुम दिनभर औफिस में रहते हो। तुम्हें कुछ पता रहता है क्या? देर शाम घर आते हो तो सीधे अपने बीवी के कमरे में चले जाते हो। कभी मां का हाल पूछते हो? वे बेगानों की तरह एक कमरे में पड़ी रहती हेैं।’’
‘‘मैं ने कब रोका है? क्यों नहीं आ कर हमारे पास बैठती हैं?’’
‘‘क्या बैठेंगी जब बेटाबहू ने मुंह फेर लिया है?’’ मेरे कथन पर मारे खुन्नस के चलते कृष्णा ने फोन काट दिया और तमतमाते हुए मां के कमरे में आया,”आप को ज्यादा खुशी मिलती है अपनी बेटियों से तो कहिए हमेशा के लिए उन्हीं के यहां पहुंचा दूं? दिनभर फोन कर के हमारी बुराई बतियाती रहती हैं।’’
‘‘मैं ने क्या कहा?’’ मां का स्वर दयनीय था।
‘‘बिना कहे इतना सुनने को मिल रहा है।”
‘‘क्या कोई अपने मन की बात भी नहीं कर सकता? तुम्हारी बीवी तो जैसे जबान पर ताला लगा कर आई है। उस का ताला खुलेगा तो सिर्फ तुम्हारे लिए या तो अपने मायके वालों के लिए। ऐसे में यदि मैं अपनी बेटियों से कहसुन लेती हूं तो क्या गलत करती हूं,” मां ने भी तेवर कड़े किए।
‘‘मैं आप से बहस नहीं करना चाहता। आप चाहती क्या हैं?’’ कृष्णा बोला।
‘‘मैं इलाहाबाद जाना चाहती हूूं।’’
‘‘ठीक है। मैं आप को पहुंचाने की व्यवस्था करता हूं। मगर बाद में यह न कहिएगा कि मैं ने अपनी मरजी से आप को इलाहाबाद भेज दिया।’’ मां चुप रहीं।
जिस दिन इलाहाबाद जाने को था मां की आंखें नम थीं। उन्हें अपने 2 पोतों का खयाल आने लगा। बड़ा पोता 8 साल का था। बोला,‘‘दादी, आप इलाहाबाद क्यों जा रही हैं? आप को सुई कौन लगाएगा? खाना कौन देगा?’’ सुन कर मां की आंखें डबडबा आईं ।
शेैला खुश थी कि चली इसी बहाने झंझट छूटा। अंदर से कृष्णा का भी मन मुदित था। क्योंकि वह जानता था कि इलाहाबाद में मैं तो हूं ही। चाहे जैसे भी हो मां के लिए करेगी ही। सिर्फ रुपए भेजने की जरूरत है। वह भेज दिया करेगा। मैं ने भी मन बना लिया था कि जिस मां ने मुझे पेैदा किया उस रिश्ते की लाज उन की अंतिम सांस तक रखूंगी।
पता नहीं क्यों बरबस मेरा ध्यान उस बचपन पर चला गया जब मां ने एक टौफी कृष्णा के लिए मुझ से छिपा कर रखी थी। संयोग से मेरी नजर पङी तो मैें ने अपने लिए मांग लिया, तो मां ने साफ इनकार कर दिया।
बोलीं,‘‘यह मैं ने कृष्णा के लिए रखा है।’’
मैं मायूस दूसरे कमरे में चली गई।

कपल घर बनाने में संंकोच न करें, फैमिली और सोशल प्रेशर को करें दरकिनार

ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर
तो पहले आ के मांग ले, मेरी नज़र तेरी नज़र

रीवा और ईशान को शादी के बंधन में बंधे कुछ ही महीने हुए हैं . रीवा एक मल्टीनेशनल कंपनी में वर्किंग है और ईशान का अपना सफल बिजनेस है .
जब रीवा और ईशान ने एक होने का निर्णय लिया था तभी उनके कानों में घरपरिवार और आसपास के लोगों की खुसफुसाहट पड़ने लगी थी कि अगर ईशान इतना अच्छा कमाता है तो रीवा को भला नौकरी करने की क्या जरूरत है !
रीवा और ईशान दोनों कैरियर के अच्छे मुकाम पर थे और दोनों ने लोगों की बातों को अनदेखा करते हुए अलग घर बसाने का निर्णय लिया !
अगर समाज की सोच के हिसाब से सोचें तो उन्होंने ऐसा निर्णय लेकर बहुत गलत किया लेकिन सही तरीके से समझा जाए तो उन्होंने बहुत सही निर्णय लिया ..
आइए जानते हैं क्यों और कैसे ?

भले ही समाज बदल रहा है और बदलते समय के साथ भारतीय समाज के लोगों की सोच में भी काफी बदलाव आया हो लेकिन आज भी पुरानी सोच के लोगों के मुंह से वर्किंग वुमन के लिए निकलता है “जब पति इतना कमाता है, तो तुम्हें जॉब करने की क्या जरूरत?” सुनने को मिल ही जाता है . लेकिन मॉर्डन ऐज के मैरिड कपल्स रीवा और ईशान ने अपने कैरियर को न छोड़ते हुए अलग घर बसाने का निर्णय लिया !
आप ही सोचिए अगर लड़का अपने करियर को बनाने में मेहनत करता है तो लड़की भी तो उतनी ही मेहनत करती है तो उसकी मेहनत को कम क्यों आँका जाए और उससे जॉब छोड़ने की उम्मीद क्यों की जाए?

पका पकाया नहीं खुद की मेहनत का
हमारे समाज में अधिकांश कपल शादी के बाद पेरेंट्स के बनाए  घर में रहते हैं जहां उन्हें सबकुछ रेडीमेड मिलता है लेकिन वहीं जब रीवा की ईशान की तरह आप अपने घर में अलग रहने का निर्णय लेते हैं तो उस घर में  हर चीज खुद से करते हैं जिससे न केवल कॉन्फिडेंस आता है बल्कि दुनियादारी की समझ आती है और आटेदाल का भाव भी पता चलता है जो हर कपल को सीखना चाहिए .

अलग रहने का एक फायदा यह भी होगा आपको फैमिली, रिलेटिव्स की चूँ चूँ भी नहीं सुननी पड़ेगी और अकेले रहने से नाते रिश्तेदार आपकी वैल्यू करेंगे कि आपने  घर खुद बनाया है.  सास,ननद, देवरानी, जेठानी के ताने देने पर लड़की को नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. वैसे भी आज के जमाने में एक व्यक्ति की कमाई से  ना घर बनाया जा सकता है न चलाया जा सकता है . आज की जरूरत है कि पतिपत्नी दोनों काम करें .

पति पत्नी के बीच प्यार और नजदीकी बढ़ेगी
शादी के बाद हर newly wedded ऐसी प्लानिंग करें कि वे अलग घर में रहें, भले ही वह घर एक कमरे का हो या दो कमरे का या किराये का . यंग कपल की अपनी अलग किचन होनी चाहिए . इससे उनमें अलग रहने का ,जीवन के उतार चढ़ावों का सामना करना आएगा खुद पर गर्व होगा कि वे खुद का घर बना और चला सकते हैं जहां लड़के और लड़की दोनों की भागीदारी होगी . इससे कपल के बीच प्यार और नजदीकी भी बढ़ेगी . पति भी पत्नी की कमाई की वैल्यू करेगा और घर दोनों के खर्चे से चलेगा .

औरतों को मिलेगी अपनी पहचान

लड़कियों के लिए नौकरी या कमाई करना सिर्फ पैसा कमाने का जरिया होने से ज्यादा आत्मसम्मान, इंडिपेंडेंट बने रहने और अपनी पहचान बनाने का जरिया होता है।
यह बात उन परिवारों और समाज को समझने की जरूरत है जिन्हें लगता है कि पति अच्छा कमाता है पत्नी को घर से बाहर जाकर काम करने की क्या जरूरत है !

पति पत्नी दोनों का होगा घर
जब पतिपत्नी दोनों मिलकर शादी के बाद अपना अलग घर बसाएंगे तो वह घर पतिपत्नी दोनों की कमाई से बनेगा और चलेगा . ऐसे में घर दोनों का होगा और लड़कियों की उसका घर ‘कौन सा’ सोचने की समस्या भी दूर होगी .

 

विटिलिगो से निराशा क्यों : मान लीजिए कि दाग अच्छे हैं

सफेद दाग यानी विटिलिगो रोग एक आम बीमारी है, लेकिन इस के बारे में जानकारी बहुत कम है. यहां तक कि मैडिकल पेशे से जुड़े लोग भी इस बीमारी के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाए हैं.

 

हम दसवीं कक्षा में थे. बाकी सहपाठी तो नवीं से प्रमोट हो कर दसवीं में पहुंचे थे, पर एक नया एडमिशन हुआ था. सायरा का. हमारे स्कूल की सभी छात्राएं नीली स्कर्ट, सफेद शर्ट पर नीली टाई और जूता मोजा पहनती थीं, मगर सायरा सफेद शलवार और नीले कुर्ते पर सफेद दुपट्टा ओढ़ती थी. जब पहले दिन वह क्लास में आई, तो क्लास टीचर ने उसे पहली बेंच पर बिठाया. साथ में एक और स्टूडेंट बैठी थी. पहला पीरियड ख़त्म हुआ और जैसे ही क्लास टीचर बाहर निकली, सायरा के साथ बैठी लड़की तुरंत उठ कर दूसरी सीट पर जा बैठी. सायरा चुपचाप अपनी किताब में नज़र गड़ाए रही.

 

दरअसल सायरा को सफेद दाग यानी विटिलिगो नामक रोग था. उस के लगभग पूरे शरीर की चमड़ी सफेद हो चुकी थी, कोहनी, गर्दन और चेहरे के कुछ भागों को छोड़ कर. कुछ जगहों पर सांवला रंग और बाकी जगह सफेद चमड़ी के कारण वह अजीब सी दिखती थी. सायरा पतलीदुबली और बालों की कस कर एक छोटी बनाने वाली लड़की थी. शलवार कुर्ता पहनने की परमिशन स्कूल प्रशासन ने इसलिए दी थी ताकि उस के हाथपैर की चमड़ी कपड़े से ढंकी रहे और सूरज की तेज किरणों से बची रहे. शुरू के दोतीन महीने तक उस की कोई सहेली नहीं बनी. कोई उस के साथ उस की सीट पर भी नहीं बैठना चाहती थी. टीचर की डांट पड़ती तब कोई उस के साथ अनमने मन से बैठ जाती थी.

3 महीने बाद जब क्वाटर्ली पेपर हुए और रिजल्ट आया तो सायरा क्लास में फर्स्ट आई. फिर दोतीन लड़कियां सायरा से बात करने और साथ खाना खाने लगीं. फिर धीरेधीरे पूरी क्लास उस की दोस्त बन गई. सायरा भी सब के साथ घुल मिल गई. वह पढ़ने में बहुत तेज थी. थ्रू आउट फर्स्ट डिवीजन. छमाही के एग्जाम के बाद तो हर लड़की उस के साथ बैठना चाहती थी. आज सायरा एक कामयाब डाक्टर है. उस ने शादी नहीं की. अपने मातापिता और भाईभाभी के साथ रहती है. उस की कमाई उस के भाई और पिता की कमाई से 3 गुना ज्यादा है. वैसे तो वह सुबह से शाम तक मरीजों में व्यस्त रहती है, पर कभीकभी अकेलेपन का अहसास भी होता है. खासतौर पर तब जब वह अपने भैया भाभी के बेडरूम से उन के हंसने खिलखिलाने की आवाजें सुनती है.

निर्मला खत्री चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं. वह मुंबई में रहती हैं. 5 साल पहले उन की शादी हुई थी. दो साल का एक बेटा है उन का. एक दिन अचानक निर्मला के होंठों के आसपास सफेद चकत्ते से उभरे और फिर कोहनी और आंखों के चारों तरफ ये दाग बड़ी तेजी से फैलने लगे. कोई 6 महीने के भीतर ही निर्मला का चेहरा बदरंग हो गया. उन्होंने अनेक डाक्टरों को दिखाया. मगर कोई भी उन दागों को शरीर पर फैलने से रोक नहीं पाया.

निर्मला अवसादग्रस्त हो गईं. किसी से मिलती नहीं थी. नौकरी भी छोड़ दी. ज़्यादातर घर में बंद रहने लगीं. किसी जरूरी कार्यवश बाहर निकलने की मजबूरी हुई तो उन को लगता कि जैसे हर आदमी उन को घूर रहा है. पति से भी कटीकटी रहने लगी थी. लेकिन उन के पति ने उन का हौसला बढ़ाया. यह अहसास जगाया कि उन दोनों के बीच जो प्यार भरी बौन्डिंग है, उस के आगे निर्मला के शरीर के दाग कोई मायने नहीं रखते हैं. उन्होंने निर्मला को अवसाद से निकलने में मदद की. डाक्टर्स के पास ले कर गए. अब एक डाक्टर का इलाज चल रहा है. उस ने निर्मला की काउंसलिंग भी की है. निर्मला अब काफी हद तक नौर्मल हो चुकी हैं. दोनों अपने बच्चे के साथ बीच पर घूमने जाते हैं और पानी में मस्ती करते हैं. साथ मिल कर शौपिंग करते हैं. निर्मला ने दागों को स्वीकार कर लिया है. उन्होंने नौकरी भी ज्वाइन कर ली है.

सफेद दाग यानी विटिलिगो रोग एक आम बीमारी है, लेकिन इस के बारे में जानकारी बहुत कम है. यहां तक कि मैडिकल पेशे से जुड़े लोग भी इस बीमारी के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाए हैं. अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट औफ हैल्थ (एनआईएच) के अनुसार, इस बीमारी से दुनिया की 0.5 फीसदी से 1.0 फीसदी आबादी प्रभावित है. अनेक मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं. कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन की स्थिति 1.5 फीसदी आबादी में हो सकती है.

विटिलिगो नाम की इस बीमारी में त्वचा और कुछ मामलों में बालों का पिगमेंटेशन (गहरा रंग) चला जाता है और ये सफेद हो जाते हैं. यह काले लोगों में जल्दी नज़र आता है. विटिलिगो संक्रामक रोग नहीं है. यानी यह छूने, साथ रहने, साथ खाने या खेलने से नहीं फैलता है. हालांकि, ये ऐसा डिसऔर्डर है जो इस से पीड़ित लोगों के लिए काफी चिंता और परेशानी का कारण बनता है.

इस रोग का अमीरी गरीबी से भी कोई नाता नहीं है. इस के शिकार अमीर भी हैं और गरीब भी. विनी हार्लो, जो दुनिया की जानीमानी मौडल हैं, वे भी विटिलिगो से प्रभावित हैं. वे एक कनाडाई फैशन मौडल हैं और अपने इस रोग के बावजूद रैंप पर कैटवाक करते वक़्त उन के अंदर कभी कोई झिझक या परेशानी नहीं देखी गई.

2018 में, विनी हार्लो विक्टोरिया सीक्रेट फैशन शो में विटिलिगो वाली पहली मौडल बनीं. वह बियोंसे द्वारा निर्देशित एचबीओ विजुअल एल्बम बियोंसे : लेमोनेड (2016) में भी दिखाई दीं. उन्हें 2018 में ‘बीबीसी 100 प्रभावशाली महिलाएं’ में से एक के रूप में सम्मानित किया गया था. बाद में हार्लो ने अमेजन प्राइम वीडियो सीरीज – मेकिंग द कट के दूसरे सीजन में जज के रूप में काम किया.

कोई भी व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, चाहे उस की त्वचा का रंग कुछ भी हो, विटिलिगो से पीड़ित हो सकता है. ये क्रौनिक बीमारी है जिस में त्वचा पर सफेद या पीले धब्बे दिखाई देते हैं, त्वचा के इस हिस्से में मेलेनिन खत्म हो जाता है. मेलेनिन त्वचा के पिगमेंटेशन के लिए जिम्मेदार होता है, जो मेलानोसाइट्स नाम की खास कोशिकाओं से बना होता है. त्वचा को रंग देने के अलावा मेलानोसाइट्स हमारी त्वचा को सूरज की तेज अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाते हैं. लेकिन जब मेलानोसाइट्स ख़त्म हो जाएं तो पिगमेंट चला जाता है और व्यक्ति को विटिलिगो नामक रोग हो जाता है.

ये बीमारी त्वचा के किसी भी हिस्से में हो सकती है, लेकिन आमतौर पर उस हिस्से में पहले शुरू होता है जो सूरज की किरणों के संपर्क में आता है. जैसे – चेहरा, गर्दन और हाथ. यह समस्या काली या सांवली त्वचा वाले लोगों में अधिक दिखती है और ये हर व्यक्ति में अलगअलग हो सकती है.

विटिलिगो के प्रकार

इसे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे और शरीर के किस हिस्से में डिपिगमेंटेशन होती है.

सेगमेंटल : इसे एकतरफा विटिलिगो भी कहा जाता है. यह आमतौर पर कम उम्र में ही दिखाई देता है, जिस में शरीर के केवल एक हिस्से में सफेद धब्बे होते हैं. यह एक पैर, चेहरे के एक तरफ या शरीर के सिर्फ एक तरफ हो सकता है. इस तरह के विटिलिगो से पीड़ितों में से लगभग आधे लोगों को जहां विटिलिगो हुआ है वहां पर बाल झड़ने की शिकायत होती है.

नौन-सेगमेंटल : ये विटिलिगो का सब से सामान्य प्रकार है जो ज्यादातर लोगों को होता है. इस में शरीर के किसी भी हिस्से में सफेद रंग पैच बनने लगते हैं.
एक्रोफेशियल : चेहरे, सिर, हाथ और पैरों को प्रभावित करता है.
म्यूकोसल : मुंह के पास और जननांग म्यूकोसा को प्रभावित करता है.
यूनिवर्सल : यह सब से गंभीर स्थिति है, लेकिन सब से दुर्लभ भी है. यह त्वचा के 80 से 90 फीसदी हिस्से तक फैल जाता है.

 

कौन होता है इस से पीड़ित

इस बीमारी से प्रभावित लोगों के लिए काम करने वाली संस्था ‘विटिलिगो सोसाइटी’ के अनुसार, दुनिया 7 करोड़ लोग इस रोग से पीड़ित हैं और 20 से 35 फीसदी मरीज बच्चे हैं. विटिलिगो आमतौर पर 20 साल की उम्र में दिखाई देना शुरू होता है, हालांकि यह किसी भी उम्र में हो सकता है. ये महिला पुरुष किसी को भी हो सकता है. यह एक औटो इम्यून डिसऔर्डर है केवल एक ‘कास्मेटिक’ समस्या नहीं है.

अब तक यह पता लगाना संभव नहीं हो पाया है कि विटिलिगो का कारण क्या है, लेकिन यह कोई संक्रमण रोग नहीं है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैल सकता. चूंकि इस बीमारी का कारण पता नहीं है इसलिए यह अनुमान लगाना असंभव है कि एक बार विटिलिगो का पहला धब्बा दिखाई देने पर त्वचा का कितना हिस्सा प्रभावित होगा. इस से जो सफेद धब्बे त्वचा पर होते हैं वो स्थाई होते हैं.

इस के लक्षण

विटिलिगो का कोई शारीरिक लक्षण नहीं होता है, अगर दाग को धूप से सुरक्षित न रखा जाए तो ये धूप में जल सकते हैं. इस की वजह से शरीर में दर्द या कोई अन्य परेशानी पैदा नहीं होती है, लेकिन यह प्रभावित व्यक्ति के लिए बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक परेशानी का कारण बन सकते हैं, खासकर अगर सफेद दाग चेहरे, गर्दन, हाथ या जननांगों पर हो जाएं. डाक्टर्स के लिए अभी तक यह अनुमान लगाना कठिन ही है कि यह बीमारी कैसे डेवलप होती है, कुछ लोगों को सालों तक त्वचा के धब्बों में कोई बदलाव नजर नहीं आता, लेकिन कुछ ऐसे भी मामले हैं यहां धब्बे तेजी से फैल जाते हैं.

इस का इलाज क्या है

आमतौर पर स्पैशलिस्ट ट्रीटमेंट के काम्बिनेशन की सलाह देते हैं. जैसे फोटो थेरैपी (अल्ट्रावायलेट लाइट थेरेपी) के साथ दवा और त्वचा पर कार्टिकोस्टेरौइड्स लगाने की सलाह दी जाती है. लेकिन कार्टिकोस्टेरौइड्स सिर्फ 25 फीसदी से कम मरीजों में ही प्रभावी होते हैं और अल्ट्रावायलेट लाइट त्वचा के रंग में असामान्य बदलाव करता है और लंबे समय में ये स्किन कैंसर का खतरा पैदा सकता है.

अमेरिका और यूरोपीय संघ ने नौन-सेगमेंटल विटिलिगो के इलाज के लिए ओपज़ेलुरा नाम की एक दवा को मंज़ूरी दी है, जिस का सक्रिय पदार्थ रुक्सोलिटिनिब है. ये दवा एक मरहम के रूप में आती है और इसे विटिलिगो से प्रभावित हिस्से में सीधे लगाया जाता है. दिन में दो बार इस का इस्तेमाल करने वाले लगभग आधे लोगों ने असरदार सुधार की बात कही है, 6 में से एक मरीज का कहना था कि इस के इस्तेमाल से सफेद धब्बों में पिगमेंटेशन लौट आई है.

हालांकि, इस फार्मूले में कई मतभेद हैं. इस से इम्यून सिस्टम प्रभावित हो सकता है और जहां इसे लगाया जाता है वहां मुंहासे और जलन की समस्या हो सकती है. इस के अलावा, ओपज़ेलुरा की एक ट्यूब की कीमत 2,000 अमेरिकी डौलर है.

इस के अलावा, जर्नल औफ डर्मेटलौजी में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि काली मिर्च के तीखे स्वाद के लिए जिम्मेदार पिपेरिन भी पिगमेंटेशन को बढ़ाता है. इस से त्वचा में मेलानोसाइट्स का उत्पादन तेज होता है.

हालांकि, जो भी चीज मेलानोसाइट्स में वृद्धि का कारण बनती है, उस से मेलेनोमा का खतरा भी बढ़ जाता है, जो त्वचा के कैंसर का सब से घातक रूप है. इसलिए, ये अभी तक साबित नहीं हुआ है कि क्या पिपेरिन का इस्तेमाल लोगों में विटिलिगो के इलाज के लिए इस ख़तरनाक असर के बिना किया जा सकता है.

कई बार सफेद दाग में पिगमेंट वापस भी आ जाता है, खासकर बच्चों के साथ ऐसा होता है.

इस का प्रभाव

विटिलिगो एक ऐसी बीमारी है, जो मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से बहुत अधिक प्रभावित कर सकती है. खासकर जब यह किसी लड़की या महिला को हो जाए, तो वह अवसाद में चली जाती हैं. उन्हें लगने लगता है कि अब उन का जीवन व्यर्थ है.

दुनिया में जहां त्वचा के कोमल, साफ, चमकदार और सफेद रंग को ख़ूबसूरती का पैमाना बना दिया गया है और हजारों क्रीम, लोशन, साबुन, फेसवाश, फेशियल, मसाज, प्लास्टिक सर्जरी आदि सिर्फ इसलिए हैं कि आपकी त्वचा पर कोई दागधब्बा न रहे, ऐसे में जब सफेद दाग पूरे चेहरे की त्वचा का रंग बदलने लगता है और पूरे चेहरे पर धब्बे ही धब्बे पैदा हो जाते हैं, तो लड़कियों का अवसादग्रस्त होना लाजिमी है. जब इंसान का पूरा व्यक्तित्व सिर्फ उस की त्वचा के रंग से नापा जाए तो जाहिर है, ऐसी सोच रखने वाले लोगों के बीच धब्बेदार चेहरा ले कर निकलना आसान नहीं है.

लेकिन इस सोच को अब बदलने की जरूरत है. प्रकृति में बहुत सारे जीव हैं जिन की त्वचा पर अनेक प्रकार के धब्बे और निशान हैं, मगर वे उन के साथ ही हमें क्यूट लगते हैं. अनेक धब्बों और निशानों वाली बिल्लियां, कालीसफेद पट्टियों वाले जेबरे, काले धब्बों वाले चीते, कई रंगो वाले कुत्ते या गायें, हम देखते हैं. उन्हें देख कर आश्चर्य नहीं होता. फिर काली, सांवली या बहुत सफेद या विटिलिगो वाली त्वचा को लेकर इतना आश्चर्य क्यों? सिर्फ त्वचा का रंग या उस की कोमलता हमारे पूरे व्यक्तित्व का पैमाना नहीं है.

इंसान की खूबियां, उस का ज्ञान, उस का कौशल, उस का व्यवहार, उस की भाषा, उस का रहनसहन सब मिल कर उस का व्यक्तित्व निर्धारित करते हैं. चमड़ी पर एक धब्बा पैदा हो गया, सिर्फ इतने भर से बाकी खूबियों को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है. विटिलिगो से पीड़ित व्यक्तियों को घूरना या उन से दूरी बनाना ठीक नहीं है. यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो हाथ मिलाने या साथ बैठने से आप को लग जाएगी. इस कमी को नजरअंदाज कर व्यक्ति की वास्तविक क्षमताओं पर फोकस करना चाहिए.

विटिलिगो से प्रभावित लोगों को भी हर वक्त यह सोच कर परेशान होने की आवश्यकता नहीं है कि हाय उन की खूबसूरती को यह क्या हो गया? खूबसूरती की उम्र महज बीस-पच्चीस साल ही है. उस के बाद सब की त्वचा पर धब्बे, दाने, झुर्रियां पैदा हो जाती हैं. इसलिए जीवन का वह समय जब आप अपनी क्षमताओं, अपने कौशल और ज्ञान का सर्वाधिक प्रयोग कर अपने और समाज के भविष्य को बेहतर बना सकते हैं, अवसादग्रस्त हो कर दुनिया से अलगथलग पड़े रहना बेवकूफी ही है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद, चीन के मुकाबले भारत की गिरती ग्रोथ

भारत और चीन अर्थव्यवस्था के मामले में एक समय साथसाथ चल रहे थे. मगर राम मंदिर आंदोलन के बाद से, देश की जीडीपी चीन के मुकाबले पिछड़ती चली गई, जहां चीन ने धर्म को सत्ता से दूर रखा वहीँ भारत ने इसे केंद्र में.

 

धर्म दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्था को लील रहा है. जिन देशों में सरकारें धर्म को प्रोत्साहित कर रही हैं, वहां की अर्थव्यवस्था बरबादी की ओर जा रही हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान ही नहीं, कुछ अरब देशों सहित अमेरिका और ब्रिटेन तक धर्म के नशे में शामिल हैं. सरकारों की शह से धार्मिक कट्टरपंथी तो नुकसान पहुंचा ही रहे हैं, धर्म को प्रश्रय और प्रोत्साहन की सरकारी नीति भी देशों की गर्त की ओर ले जा रही है.

भारत की दशा भी कुछ वर्षों से ऐसी ही हो रही है. सरकारें विकास के चाहे कितने ही गाल बजा लें, आंकड़ें और हकीकत दुर्दशा की गवाही दे रहे हैं.

जिन देशों ने धर्मों के नागों को नाथ कर रखा, वो देश प्रगति के फर्राटे भर रहे हैं. उन में चीन एक प्रमुख देश है. कम्युनिस्ट नास्तिक होने के बावजूद चीन में बौद्ध, ताओइज्म, ईसाई, इस्लाम आदि धर्म मौजूद हैं और ये शासन सत्ता को दबा झुका कर अपनी मनमर्ज़ी चलाने के हरसंभव प्रयास करते रहते हैं लेकिन सरकार है कि वह उन्हें सिर चढ़ाने के बजाय उन पर उलटे कौड़े बरसाती दिखाई देती है. क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट सरकार सत्ता के लिए धर्मों की मुहताज नहीं है.

दरअसल 1989 के बाद से चीन के मुकाबले भारत की जीडीपी लगातार पिछड़ती रही है. भारत में जब से राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, देश की अर्थव्यवस्था पर ग्रहण शुरू हो गया. शुरू में कहा गया कि 21वीं सदी भारत की होगी लेकिन बाजी तो चीन मार ले गया. अपनी विशाल जनसंख्या का फायदा वह अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में कामयाब दिखाई दे रहा है. इधर भारत अपनी सारी ऊर्जा अयोध्या में मंदिर निर्माण, काशी, मथुरा, केदारनाथ, उज्जैन की परिक्रमा, धारा 370, समान नागरिक संहिता, जैसे कामों में ही लगाता रहा है.

देश में अनगिनत मंदिर और तीर्थस्थल हैं जिन से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हैं. इसी  आस्था का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए भाजपा ने राम मंदिर निर्माण आंदोलन शुरू किया. आस्था के केंद्र से सियासत के समीकरण बनाए गए. जनता को लुभाने के लिए तरहतरह के नारे गढ़े गए.

राम के जीवन दर्शन के लिए सरकार ने रामायण सर्किट बनाया. साथ ही चार धाम रोड प्रोजैक्ट भी तैयार किया गया है. बुद्ध सर्किट को भी सरकार ने और मजबूत बनाया है. इस के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले ही कायाकल्प के बाद केदारधाम का लोकार्पण किया और बद्रीधाम का भी कायाकल्प किया जा चुका है. यही नहीं, जम्मू कश्मीर में सरकार करीब 50 हजार मंदिरों का जीर्णोद्धार कर रही है. मुसलिम देश में भी हिंदू मंदिर बनाया जा चुका है.

उधर चीन ने धर्मों पर अंकुश रखा है. हालांकि धर्मों ने सत्ता पर वर्चस्व की कोशिशें कीं लेकिन सरकारी नीतियों ने उन्हें कामयाब नहीं होने दिया. चीन ने अपनी विशाल आबादी का इस्तेमाल देश की प्रगति में किया है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद से देश निकम्मेपन, बेकारी की ओर बढ़ने लगा. बेकारों की फौज में बढ़ोतरी होने लगी.

राम मंदिर आंदोलन का देश की उत्पादकता, अर्थव्यवस्था से कोई संबंध नहीं रहा. हालांकि सरकारों ने दावे किए कि इस से पर्यटन बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेंगे और अर्थव्यवस्था की रफतार बढ़ेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता. राम मंदिर में मूर्ति स्थापना के समय देश के  लगभग एक दर्जन शहरों से सीधे अयोध्या के लिए फ्लाइटें संचालित की गईं लेकिन खबरें आ रही हैं कि अब वे सभी फ्लाइटें बंद हो चुकी हैं.

अयोध्या में लोगों ने व्यापार की दृष्टि से जमीनें खरीदीं व अन्य तरीकों से निवेश किया, इस उम्मीद से कि मंदिर निर्माण के बाद रामजी नए सिरे ने व्यापार में बढ़ोतरी करेंगे पर टांयटांय फिस्स हो गया.

अकेले राम मंदिर निर्माण में हजारों करोड़ रूपए लग गए. यह पैसा इस देश की जनता की मेहनत की कमाई का था. अगर वहां इतने ही पैसों के 20-30 कारखाने लग जाते तो वहां की गरीब जनता रामजी के लिए जलाए गए लाखों दीयों से तेल बटोरती हुई पुलिस के डंडे नहीं खाती.

मंदिरों का निर्माण हो, तीर्थों का विकास या कौरिडोर बनाने हों, इन में खर्च हजारों करोड़ रूपए सरकार और उस के अंधभक्तों की आत्मसंतुष्टि और पंडों के धंधे चमकाने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं लेकिन इस देश के आम लोगों के किसी काम के नहीं हैं.

1978 में जब से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना और सुधारना शुरू किया, तब से जीडीपी वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है और लगभग 800 मिलियन लोग गरीबी से बाहर निकल आए हैं. इसी अवधि में स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सेवाओं तक पहुंच में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है. 1978 से सुधार के बाद यह दुनिया की चौथी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है. अविश्वसनीय रूप से चीन ने 30 वर्षों में सुधार, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के बराबर काम किया है. यह अविश्वसनीय है क्योंकि केवल तीन दशक पहले चीन इतना गरीब और अलगथलग था.

 

कभी हुआ करते थे बराबर

एक समय था जब भारत जीडीपी में चीन के करीब आ पहुंचा था. 1991 में भारत की जीडीपी करीब 0.27 ट्रिलियन डौलर थी. 28 साल में 11 गुणा बढ़ कर 2.88 ट्रिलियन डौलर हो गई. 1980 में चीन की जीडीपी भारत से सिर्फ 2.5 प्रतिशत अधिक थी जो 75 गुणा बढ़ कर 14.34 ट्रिलियन डौलर हो गई.

राम मंदिर आंदोलन को भी 3 दशक से अधिक समय हो गया. आंदोलन का नतीजा है कि इस दौरान गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों ने हजारों मंदिर, मस्जिद बन गए. ये इतने विशाल, भव्य हैं कि इस की चकाचौंध में लोग रोजीरोटी, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दे भूल गए हैं.

इधर चीन की धार्मिक नीति बड़ी कठिन है. यहां धर्मस्थलों को सरकार से मंज़ूरी लेनी होती है. इस के साथ ही इन की गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण होता है. चीन में मुसलिम भी पाबंदियों के साथ जी रहे हैं.

चीन इतना ताकतवर है, लेकिन इस देश में धर्मों का संसार सब से लाचार है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लगभग 8.5 करोड़ कार्यकर्ता हैं. इन्हें सख्त चेतावनी है कि वो किसी धर्म का पालन नहीं करेंगे. अगर पार्टी का कोई कार्यकर्ता किसी भी धर्म का अनुयायी पाया जाता है तो उसे सज़ा देने का प्रावधान है़.

 

प्रशासनिक मामलों में धर्म से दूरी

चीन में 6.7 करोड़ लोग ईसाई धर्म को मानते हैं. इन करोड़ों लोगों के लिए आधिकारिक चर्च के अलावा दूसरे चर्चों में प्रार्थना करना आसान नहीं है. चीन के पारंपरिक धर्म बौद्ध और ताओइज्म मानने वाले 30 से 40 करोड़ लोग हैं. चीन में धर्मों पर नियंत्रण का एक व्यावसायिक पहलू भी है. मंदिरों में स्थानीय सरकार लोगों की एंट्री पर शुल्क देने पर मजबूर करती है.

चीन में बौद्ध धर्म के बारे में कहा जाता है कि यह एकमात्र विदेशी धर्म है जिस की चीन में सब से ज़्यादा स्वीकार्यता है. चीन में बौद्ध धर्म दूसरी शताब्दी में आया था. चीन के कई हिस्सों में वह एक महत्वपूर्ण ताकत है. ग्रामीण चीन में इस का ख़ास प्रभाव है. लेकिन सरकारों में दखलंदाजी से दूर दिखाई देता है.

इस्लाम चीन में 7वीं शताब्दी में वहां के अरब के व्यापारियों के ज़रिए आया था. आज  इस्लाम यहां अल्पसंख्यक है. एक अनुमान के मुताबिक चीन में डेढ़ करोड़ से ज्यादा मुसलिम हैं. राजनीतिक रूप से चीन में मुसलमानों को अहम भागीदारी है, क्योंकि चीन ने व्यापार के लिए इन का इस्तेमाल करना सीख लिया है. चीन का मुसलिम देशों से अच्छा संबंध है. यहां के लगभग मुसलिम सुन्नी हैं लेकिन इन पर सूफ़ियों का प्रभाव ज़्यादा है. यानी इन में कट्टरता नहीं है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद से भारत में मुसलमानों और मुसलिम देशों के प्रति एक नफरत का माहौल बनाया गया, जिस का नुकसान भारत को आर्थिक और सामाजिक तौर पर उठाना पड़ रहा है. इस का असर जीडीपी पर पड़ना निश्चित था.

 

डेवेलपमैंट में आगे चीन

चीनी सरकार का मानना है कि धार्मिक आस्था वामपंथ को कमजोर करती है. पार्टी का मानना है कि धर्म विचारधारा के आड़े आता है. पार्टी कार्यकर्ताओं को हर नियम मानना पड़ता है. 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में बड़ी थी. आज भी चीन की जीडीपी भारत से 5.46 गुना बड़ी है.

वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन डौलर थी और चीन की 17.7 ट्रिलियन डौलर. चीनी अर्थव्यवस्था को कैसे पीछे छोड़ेगी, यह चुनौती राम मंदिर सरकार के सामने है. इसे पीछे छोड़ने में भारत को ढाई दशक लग जाएंगे.

विश्व के बड़े अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर बहस करना समय की बरबादी मानते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की आर्थिक सलाहकार परिषद में रहे स्टीव हैंके कहते हैं कि भारत समस्याओं से दबा हुआ हैं. ह्यूमन फ्रीडम इंडैक्स में 165 देशों में से भारत 150वें स्थान पर है. यह रैंक व्यक्तिगत, नागरिक और आर्थिक स्वतंत्रता को ले कर हैं. मिसाल के तौर पर कानून के शासन पर दिए गए स्कोर में भारत का रिकौर्ड दुनिया में सब से खराब देशों में से है.

भारत झूठे दावे करता रहा कि 21वीं सदी भारत की होगी लेकिन चीन इस सदी में दुनिया के सब से ताकतवर देशों की पंक्ति में आ खड़ा हुआ. वह दुनिया का सब से बड़ा मैन्युफैक्चरर देश है. भारत में पिछले लगभग तीन दशक में धर्म को पैर पसारने का मौका मिला और ये पैर इस कदर पसारे कि सरकारों के सिर पर आ गए. सरकारें भी पैरों को परे पटकने की बजाय सहलाने लगी.

सरकार की शह से देश में कट्टरवादी ताकतें बेलगाम हो गईं. धर्म की निंदा करने वाले बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और लोकतंत्र व सामाजिक सौहार्द के पक्षधर लोगों पर हमले शुरू हो गए. मौब लिंचिंग की घटनाएं होने लगीं. अनेक उद्योगपतियों का पलायन हुआ. इन सब कारणों से विदेशी निवेश गिरने लगा. पिछले 35 साल में सब से ज्यादा बेरोजगारी है. 30 लाख केंद्र में सरकारी पद खाली पड़े हैं. युवा, किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी परेशान हैं.

घरेलू बचत 35 वर्षों में सब से निचले स्तर पर है, जबकि घरेलू ऋण लगातार बढ़ कर 1970 से ले कर आजतक के सब से ऊंचे स्तर पर है. 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में थोड़ी ही बड़ी थी. तब से भारत की जीडीपी चीन के मुकाबले लगातार गिर रही है.

कुछ समय पहले सरकार ने कहा था कि 25 करोड़ भारतीयों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है. केंद्र सरकार 80 करोड़ गरीब लोगों को 5 किलो गेंहू दे रही है. इस का अर्थ देश में 105 करोड़ लोग गरीब हैं. वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन डौलर थी और चीन की 17.7 ट्रिलियन डौलर.

 

धर्म की राजनीति ने डुबोई लुटिया

दरअसल भाजपा ने 1989 में अपने पालमपुर, हिमाचल प्रदेश संकल्प में अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण का वादा किया. उसी साल दिसंबर में हुए आम चुनाव में भाजपा ने राम मंदिर के निर्माण की बात अपने चुनावी घोषणापत्र में पहली बार कही. नतीजा यह हुआ कि 1984 में दो सीट जीतने वाली भाजपा ने 1989 के चुनाव में 85 सीटें जीत लीं. अब भाजपा का पूरा फोकस राम मंदिर आंदोलन पर हो गया.

भाजपा के पूर्व नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथ यात्रा के रास्ते हिंदुत्व विचारधारा को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में ले आए. उन्होंने देश के बदलते हुए मूड को भांप लिया था. राम जन्मभूमि के आंदोलन ने बिखरे हुए राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़ कर इसे एक हिंदू राष्ट्रवाद के राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया.

इस से मुसलिम अल्पसंख्यकों पर हिंसक हमले बढ़ गए. मुसलिम विरोधी बयानबाजी, राजनीति और नीतियां हिंदुत्व नेताओं, खासकर भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होने लगी. यह उभरते हुए हिंदू राष्ट्रवाद की शुरुआत थी लेकिन भारत की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के लिए घातक थी.

मंदिर मुद्दे पर पार्टी की बढ़ती हुई लोकप्रियता व आडवाणी के बढ़ते कद से तब की जनता दल की सरकार घबरा गई. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भाजपा के बढ़ते असर को कम करने के लिए 1990 में मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा कर दी. मंदिर बनाम मंडल की जंग में जीत भाजपा की हुई. आडवाणी ने सितंबर 1990 में रथयात्रा निकाली ताकि कारसेवक 20 अक्टूबर को राम मंदिर के निर्माण में हिस्सा ले सकें.

1991 में संसद के लिए मध्यावधि चुनाव हुआ तो भाजपा ने 120 सीटें हासिल कीं जो पिछले चुनाव की तुलना में 35 सीटें ज़्यादा थीं. उसी साल उत्तर प्रदेश में पार्टी पहली बार सत्ता में आई. 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद के तोड़े जाने के बाद कल्याण सिंह की सरकार तो गिर गई लेकिन राम मंदिर के मुद्दे से पार्टी को सियासी लाभ मिल चुका था.

इसी दौरान पार्टी की केंद्र में सरकार बनी जिस से पार्टी का मनोबल बढ़ा और अब उसे मंदिर मुद्दे की जरूरत महसूस नहीं हुई. इसीलिए नारे गढ़ने में माहिर भाजपा ने 2004 के चुनाव में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और विकास की बात की. पार्टी चुनाव हार गई. 2009 में पार्टी ने राम मंदिर का मुद्दा फिर सामने रखा.

2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा शासित कई राज्य सरकारों ने धर्म परिवर्तन और गौ हत्या विरोधी जैसे कानून लागू किए. समान नागरिक संहिता, धारा 370 हटाने जैसी धार्मिक कवायदों पर ही अधिक ध्यान दिया गया.

इस दौरान देश में हिंसा के अनेक नए रूप सामने आए. अंतरधार्मिक शादियों और पशुओं की तस्करी रोकने के लिए डराना, धमकाना और यहां तक कि लिंचिंग करना. ये सब भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी बाधाएं साबित हुईं.

 

 धर्मतंत्र से पिछड़ा भारत

दरअसल धर्म पर खर्च किए गए पैसे का संबंध आर्थिकी कार्य, उत्पादन, सर्विस, उपभोग करने के व्यावहारिक कार्य व्यापार से नहीं है. मंदिरों पर किया गया अधिकांश धन ब्लौक हो जाता है. न सरकारों के पास टैक्स के रूप में जा पाता है, न आम जनता के पास रोटेशन हो पाता. यह पूंजीवाद भी नहीं है. धर्मों पर खर्च पूंजी ऐसी आर्थिक प्रणाली नहीं है जिस का लक्ष्य उत्पादन के माध्यम से असीमित लाभ अर्जित किया जा सके.

असल में यह परलोक सुधारने के लिए धूल में फेंक दिया गया धन है, यह निवेश नहीं है जिस से भविष्य में धन कई गुणा बढ़ सके. दुनिया भर की सरकारों के लिए यह सबक हो सकता है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में वहां की सरकार की धार्मिक नीति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. यह बात सरकारों और राजनीतिक दलों को तो समझ में नहीं आएगी लेकिन जनता को जरूर समझ लेनी चाहिए ताकि उसे अपने देश में कैसी सरकार चाहिए, उस पर सही फैसला कर सके. इस में चीन का कोई सानी नहीं है.

Ragging : ये कैसी पापड़ पार्टी दी थी Seniors ने

आज कालेज कैंपस में सन्नाटा पसरा है. 3 छात्रों की पिकनिक के दौरान नदी में डूब जाने से अकस्मात मौत हो गई. सभी होनहार विद्यार्थी थे. हमेशा खुश रहना व दूसरों की मदद करना उन की दिनचर्या थी.

वे हमारे सीनियर्स थे. कालेज का फर्स्ट ईयर यानी न्यू कमर्स को भीगी बिल्ली बन कर रहना पड़ता था. न्यू कमर्स का ड्रैस कोड, रोज शेविंग करना, सीनियर्स को देख कर नजरें चुपचाप कमीज के तीसरे बटन पर ले जाना अनिवार्य लेकिन अघोषित नियम था.

इस नियम को न मानने का मतलब सीनियर्स द्वारा धुनाई के लिए तैयार रहना पड़ता था. इस वजह से हम सब उन नियमों के पाबंद थे.

हमें यह नसीहत भी दी गई थी कि सीनियर्स की डांटफटकार से आदमी के व्यवहार में गजब का आत्मविश्वास पैदा होता है.

इस रैगिंग से जीवन के किसी भी क्षेत्र में निर्णायक निर्णय लेने की क्षमता पैदा होती है. हर प्रकार की झिझक खत्म हो जाती है. किसी इंटरव्यू को फेस करने में नाममात्र भी घबराहट नहीं होती. यहां रैगिंग का पूरा काम अनैतिक होते हुए भी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मजबूत नींव बनाता है.

हम जूनियर्स ने भी खुद को इन अघोषित नियमों के हवाले कर रखा था, वे जो कहते हम हुक्म बजा लाते.

एक दिन एक सीनियर ग्रौसरीशौप में दिखे. परंपरा के मुताबिक मेरी निगाह अपने तीसरे बटन पर थी,‘‘…तो पापड़ खरीद रहे हो?’’

मैं ने निगाह नीची कर के कहा, ‘‘जी सर…’’

बला आई थी और टल गई… सांसें वापस लौटीं… मैं ने लिस्ट में उस शौप का नाम दर्ज कर लिया, भूल से वहां दोबारा नहीं जाना. यह इलाका सीनियर्स का था.

पापड़ की इतनी सी घटना ने सीनियर्स के दिमाग में नया फुतूर भर दिया.

उन्होंने जूनियर्स को अगले दिन शाम 4 बजे इकट्ठा किया और सब को श्मशान घाट चलने को कहा. हम जूनियर्स नीची निगाहें किए मन ही मन सोचने लगे कि अब क्या नई आफत आने वाली है, हम अंदर ही अंदर डर से कांपने लगे. रास्ते में एक सीनियर ने पापड़ खरीदे. श्मशान में 2-3 चिताएं जल रही थीं. लगभग सभी चिताओं की लकडि़यां सुलग रही थीं. चिताओं के दावेदार आग दे कर चले गए थे. वहां सन्नाटा पसरा हुआ था. सीनियर्स ने सब के हाथ में एकएक पापड़ दिया और कहा कि इन्हें चिता में सेंक कर खाना है, समझे.

यह सुन कर हम लोग सन्न रह गए. हमारे संस्कार आड़े आने लगे. हम रोंआसे हो गए. मन में कई विचार आने लगे. आखिर हम भागनेकतराने की तरकीब में दबी जबान में सीनियर्स से पहली बार भिड़ने की हिम्मत जुटा कर कहने लगे, ‘‘हम से यह नहीं होगा, सर.’’

लेकिन सीनियर्स में से ही एक सीनियर ने अपनी शर्ट खोली, जनेऊ उतार कर जेब में रखा, पापड़ मांगा, सेंका और खा लिया.

हम सब भौचक्क उन को देखते रह गए. उन्होंने कहा कि विचार हमारे मन की बाधाएं हैं. हमें जो संस्कार दिए गए हैं, उन से ऊपर उठने की हम कभी सोचते ही नहीं. हमें एक सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है हम उस से जुदा कुछ बनने की, करने की कभी हिम्मत नहीं करते.

अब हम लोगों के पास बचने का कोई रास्ता बाकी नहीं था. इसलिए हम सब ने अपनेअपने पापड़ सेंके और खा लिए.

सीनियर्स ने कहा कि आज यह तुम लोगों की अंतिम परीक्षा थी. तुम सब इस में पास हुए हो. आज से हम सब फ्रैंड हैं.

तब से हम दोस्तों के बीच कोडवर्ड शुरू हो गया, ‘पापड़ पार्टी.’

घर में, कालेज में किसी को खबर नहीं है कि ये ‘पापड़ पार्टी’ बला क्या है.

इस पापड़ पार्टी के बमुश्किल 3 महीने गुजरे हैं और यह हादसा हो गया.

वही श्मशान, वही जगह, वही सीनियर्स…

चिता में लिटाए जाते वक्त लगता था, कमीज न होते हुए भी वे सब तीसरे बटन की ओर देख रहे हैं.

‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

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