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‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

जून का अंतिम सप्ताह बौलीवुड कारोबार : Kalki 2898AD को गलत बौक्स औफिस आंकड़े न बचा सके

बौलीवुड में गलत आंकडें दिखा कर अकसर फिल्में जबरदस्ती हिट दिखाई जाती हैं. ऐसा कर के वे अपना ही नुक्सान कर रहे हैं, जैसा कलकी के साथ हुआ है.

2023 में ‘जवान’ और ‘पठान’ ने जिस तरह से फेक बौक्स औफिस आंकड़े प्रचारित कर अपनी फिल्मों को सफल बताया था, उसी के चलते बाद में शाहरुख खान की ही फिल्म ‘डंकी’ के साथ जो कुछ हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है. इस के बावजूद फिल्म निर्माता व कलाकार आज भी लोगों को मूर्ख ही समझते हैं. इसी का परिणाम है कि 2024 की छमाही के अंतिम सप्ताह यानी कि गुरूवार, 27 जून को प्रदर्शित नाग आश्विन लिखित व निर्देषित तथा प्रभास, अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण व अन्य कलाकारों के अभिनय से सजी 600 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘‘कलकी 2898 एडी’’ को ले कर गलत बौक्स औफिस आंकड़े प्रचारित करने की अजीब सी होड़ लगी हुई है. इस में फिल्म के निर्माता, कलाकार, उन की पीआर और मार्केटिंग टीम के साथ ही चंद ‘समोसा क्रिटिक्स’ भी शामिल हैं.

हकीकत यह है कि नाग आश्विन की हिंदी सहित 5 भाषाओं में प्रदर्शित यह साइंस मैथोलौजिकल फिक्शन फिल्म ‘‘कलकी 2898 एडी’’ पूरी तरह से आतर्किक और रिग्रेसिव फिल्म है. फिल्म की कहानी ‘महाभारत’ काल से 6 हजार साल बाद यानी कि आज से 874 वर्ष बाद के वक्त की है.
फिल्मकार ने अपनी इस फिल्म के माध्यम से गलत तरीके से ‘महाभारत’ को लिखने का प्रयास किया है. यह कहीं नहीं लिखा है कि भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा था कि तुम्हारे माथे की मणि मेरे पास रहेगी और वह अमरत्व सुख भोगते हुए कलकी के रूप में उन के जन्म के समय मणि मिलने पर उन की अश्वत्थामा उन की रक्षा करेंगें. यह पूरी तरह से ‘महाभारत’ काल के खलनायकों का महिमा मंडन कर उन्हें हीरो बनाने का प्रयास है.

‘महाभारत’ की कहानी के अनुसार अश्वत्थामा ने 5 पांडव पुत्रों की सोते समय हत्या करने के साथ ही अभिमन्यू की पत्नी के गर्भ में पल रहे बच्चे की भी हत्या यानी कि भ्रूण हत्या करने का असफल प्रयास किया था.
इस फिल्म में 874 वर्ष के बाद आने वाले काल में औरतों को बंधुआ मजदूर से भी बदतर स्थिति में दिखाया है. जहां औरतों के गर्भ धारण करने पर उन के गर्भ से सिरम निकाल कर उन की व भ्रूण हत्या कर उस सिरम का उपयोग कर खलनायक खुद को जवान बना रहा है तो वहीं भैरव का किरदार निभा रहे प्रभाष को ‘कर्ण’ बता दिया जो कि सुमति के पेट में पल रहे बच्चे की हत्या करना चाहता है. इतना ही नहीं पूरी फिल्म की कहानी, पटकथा और कलाकारों के अभिनय में इतनी गड़बड़ी है कि दर्शक इस फिल्म को देखना नहीं चाहते.
मगर अपने फैन्स क्लब व अन्य तरह के तरीके अपना कर प्रभास ने फिल्म के प्रदर्शन के पहले दिन यानी कि गुरूवार, 27 जून का बौक्स औफिस कलैकशन 95 करोड़ (हिंदी मे साढ़े 22 करोड़, तेलुगु में 65 करोड़ ) जारी कर दिया, जिसे सभी पत्रकारों ने जम कर प्रचारित किया. जो कि पूरी तरह से गलत आंकड़े थे.
प्रभास तेलुगु के सुपर स्टार हैं और वहां पर उन्हें ईश्वर की तरह पूजा जाता है, तो वहां पर बौक्स औफिस पर उन के फैंस ने टिकट खरीदे होंगें, वैसे सूत्र बता रहे हैं कि प्रभास ने खुद ही अपने फैंस क्लब को टिकट खरीदने के लिए पैसे दिए थे. सूत्र दावा कर रहे हैं कि इस फिल्म के लिए प्रभास ने 80 करोड़ रूपए पारिश्रमिक राशि ली है. पर हिंदी के आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है. क्योंकि पहले दिन भी सिनेमाघर खाली पड़े हुए थे.
मजेदार बात यह है कि पहले दिन 85 करोड़ कमाने वाली फिल्म निर्माता के ही अनुसार दूसरे दिन महज 59 करोड़ ही कमा सकी. इतनी बड़ी गिरावट? बहरहाल,निर्माता का दावा है कि पूरे 8 दिन में ‘कलकी 2898 एडी’ ने 414 करोड़ रूपए कमा लिए. यह आंकड़े पूरी तरह से गलत है. फिर भी यदि हम निर्माता के ही आंकड़ो को सच मान लें, तो 414 करोड़ में से निर्माता के हाथ में मुश्किल से 200 करोड़ रूपए ही आएंगे. जबकि फिल्म का बजट 600 करोड़ रूपए है. पहले सप्ताह के निर्माता के आंकड़ों पर चलें तो इस फिल्म का लाइफ टाइम व्यापार भी 600 करोड़ नहीं पहुंचेगा.
फिल्म ‘कलकी 2898 एडी’ की निर्माता व पीआरओ के चमचे फिल्म क्रिटिक्स के अलावा सभी फिल्म क्रिटिक्स ने काफी आलोचना की थी. इस से निर्माता व पीआरओ ने पत्रकारों को धमकाया. इतना ही नहीं मशहूर फिल्म वितरक अक्षय राठी ने तो यहां तक कह दिया कि जिन लोगों ने ‘कलकी 2898 एडी’ को एक से दो स्टार दिया है. उन सभी फिल्म क्रिटिक्स को बैन कर दिया जाना चाहिए. आखिर अक्षय राठी अपने निर्माताओं से अच्छी मनोरंजक व कंटैंट प्रधान फिल्में बनने के लिए क्यों नहीं कहते.
देखिए, सब से बड़ी हकीकत यह है कि कोई भी सिनेमाघर मालिक अपना जीएसटी फार्म मीडिया को नहीं देगा, जिस से बौक्स औफिस के सही आंकड़े लोगों के सामने आ सकें. इसी का फायदा उठा कर यह पीआर और मार्केटिंग टीम अपने गलत आंकड़े प्रचारित कर पूरी फिल्म इंडस्ट्री को बरबादी की ओर ले जाने का ही काम कर रही है. अहम तथ्य यह है कि शुक्रवार, 5 जुलाई को मुंबई के गेईटी सिनेमाघर में महज 10 दर्शकों के चलते दोपहर 12 बजे का शो रद्द करना पड़ा. गेईटी में 1100 दर्शकों के बैठने की व्यवस्था है. यह सच है. इसी तरह देश भर के कई सिनेमाघरों में ‘कलकी 2898 एडी’ के शो पहले दिन से ही रद्द होते आ रहे हैं.

नेताजी ने ही कहा, “आप ने कौन सा सेंट लगा रखा है?”

एक नेताजी बस में यात्रा कर रहे थे. थोड़ा अजीब लगता है लेकिन उस दिन शायद उन की कारें पत्नी के रिश्तेदारों की सेवा में लगी होंगी. यही एक ऐसी जगह होती है जहां किसी मर्द की कोई अपील काम नहीं करती. सो, उस दिन वे बस में यात्रा करने को मजबूर थे. लेकिन उन के पड़ोस वाली सीट पर एक सुंदर स्त्री आ कर बैठी जिस ने निहायत उम्दा सेंट लगा रखा था. वह यों महक रही थी कि नेताजी का ईमान डोलने लगा. वे धीरेधीरे उस के पास सरकने लगे. धीरेधीरे पास सरकने की या अवसर से न चूकने की कला सभी नेताओं को मानो घुट्टी में ही पिलाई जाती है.

सो, नेता सरकसरक कर महिला से एकदम सट गए. बिलकुल दबोच दिया उन्होंने उस बेचारी को. महिला बड़े संकट में फंसी थी. वह उन के अंदर के पुरुष का सम्मान भले न करती हो पर शुद्ध खद्दर और गांधी टोपी का लिहाज उसे था. कहे तो क्या कहे. जब बिलकुल ही सट गए, महिला को सांस लेना दूभर होने लगा तो फिर नेताजी ने ही कहा, ‘क्षमा करें, आप ने यह कौन सा सेंट लगा रखा है? मैं अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं.’ बोलतेबोलते नेताजी ने उस का हाथ अपने हाथ में लिया.

उस महिला ने मीठे स्वर में कहा, ‘जो गलती मैं ने की है उसे आप भी दोहराएंगे?’ नेताजी कुछ समझे नहीं. उन्होंने कहा, ‘मैं कुछ समझा नहीं.’ महिला ने उन के हाथ पर से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या आप पसंद करेंगे कि अन्य लोग आप की पत्नी के इतने करीब आएं, उन के शरीर से बिलकुल सट कर पूछें कि आप ने कौन सा सेंट इस्तेमाल किया है, मैं भी अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं?’

मिर्जापुर सीजन 3 : मिर्जापुर का भौकाल हुआ मटियामेट

फिल्मकार का काम होता है कि वह सरकार का पिछलग्गू बनने या सरकारी नीतियों का महिमा मंडन करने की बनिस्बत समाज में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे सिनेमाई परदे पर चित्रित करे, मगर जब फिल्मकार इस नियम के विरुद्ध जाता है तो वह अनजाने ही अपनी रचनात्मक शक्ति खो बैठता है. उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में बाहुबलियों का बोलबाला है. इन बाहुबलियों ने अपने ताकत व बंदूक की नोक पर ऐसा भौकाल बना रखा है, जिस के चलते आम जनता के साथ साथ राजनेता भी इन के गुलाम सा बने हुए हैं.

धीरेधीरे यह बाहुबली राजनेता बन विधानसभा व संसद में पहुंचने लगे. इसी परिप्रेक्ष्य में करण अंशुमन और पुनीत कृष्णा ने मिल कर एक आपराध, रोमांचक व एक्शन प्रधान सीरीज ‘मिर्जापुर’ की रचना की थी, जो कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के बाहुबलियों की कहानी पर आधारित था.

रितेश सिद्धवानी और फरहान अख्तर निर्मित यह सीरीज 16 नवंबर 2018 से अमेजन प्राइम वीडियो पर जब स्ट्रीम होनी शुरू हुई थी तो देखते ही देखते ही 9 एपीसोड की इस सीरीज में कालीन भईया के किरदार में पंकज त्रिपाठी का भौकाल दर्शकों के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था. इसे जबरदस्त लोकप्रियता मिली. उस के बाद ‘अमेजन प्राइम वीडियो’ पर ही इस का ‘मिर्जापुर सीजन’ दो आया, मगर इस में पहले वाली धार नहीं थी. क्योंकि इस के लेखक व निर्देशक बदल चुके थे. यह दूसरा सीजन 23 अक्टूबर 2020 से स्ट्रीम होना शुरू हुआ था, उस वक्त कोविड महामारी का वक्त भी था, जिस के चलते इसे लोगों ने काफी देखा. इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई बाहुबलियों का मटियामेट कर डाला.
खैर, अब पूरे 4 साल बाद ‘मिर्जापुर’ का सीजन तीन 5 जुलाई से ‘अमेजन प्राइम वीडियो पर ही स्ट्रीम हो रहा है. इस बार अपूर्व धर बडगैयन, अविनाश सिंह तोमर, विजय नारायण वर्मा और अविनाश सिंह लेखक तथा गुरमीत सिंह और आनंद अय्यर निर्देशक हैं.इस बार भी यह सीरीज अपराध,हिंसा, खून खराबा, गाली गलौज के साथ ही सत्ता के इर्दगिर्द घूमता है, मगर इस बार फिल्मकार सत्ता परस्त हो कर ‘भयमुक्त’ (वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी प्रदेश को ‘भयमुक्त’ बनाने के लिए बाहुबलियों के खात्मे की बातें कर रहे हैं.) प्रदेश बनाने की बात करने वाला यह तीसरा सीजन ले कर आए हैं और इस में कालीन भईया या मुन्ना का भौकाल गायब है. गुड्डू पंडित व गोलू अपने ढर्रे पर हिंसा व खून खराबा को अंजाम दे रहे हैं, मगर प्रदेश की मुख्यमंत्री माधुरी यादव ‘भयमुक्त’ प्रदेश बनाने के लिए प्रयासरत हैं, जिस के चलते शरद शुक्ला, दद्दा व छोटे त्यागी के किरदार काफी शिथिल कर दिए गए हैं, जिस से दर्शक इत्तफाक नहीं रख पाता और वह बोर हो जाता है. यह सीरीज काफी निराश करती है. यदि लेखक, निर्देशक व निर्माता सरकार परस्त काम करना चाहते हैं तो उन्हें सरकार की सोच को ले कर डाक्यूमेंट्री बनानी चाहिए. मजेदार बात यह है कि इस सीरीज में प्रदेश की मुख्यमंत्री माधुरी यादव अपने राज्य के गृहमंत्री को विश्वास में लिए बगैर उन के मंत्रालय का काम भी खुद करते हुए नजर आ रही है. क्या ऐसा ही कुछ हमारे देश में नहीं हो रहा है.

तीसरे सीजन की कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पर सीजन दो खत्म हुआ था. सीजन दो के अंत में हम ने देखा था कि अखंडानंद त्रिपाठी उर्फ कालीन भैया (त्रिपाठी) और उन का बड़ा बेटा मुन्ना (दिव्येंदु) दोनों पर हमला होता है. मुन्ना ( द्विवेंदु शर्मा ) मारा गया था, मगर किसी ने कालीन भईया (पंकज त्रिपाठी ) को बचा लिया था. तीसरे सीजन के पहले एपीसोड में लगभग 6 मिनट में अब तक का रीकैप ही है. जिस से पता चलता है कि कालीन भईया को बचा कर शरद शुक्ला (अंजुम शुक्ला ) अपने साथ ले जा कर दद्दा त्यागी (लिलिपुट) के अड्डे पर छिपाया है और वहीं पर उन का इलाज शुरू करवाया गया है.

फिलहाल वह कोमा में हैं. डाक्टर उन्हें कोमा से बाहर लाने के लिए प्रयासरत हैं पर कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) कहां हैं, इस की खबर किसी को नहीं. माधुरी (ईशा तलवार) अपने पति मुन्ना की चिता को आग देने के बाद मुख्यमंत्री के तौर पर प्रदेश को भयमुक्त बनाने और अपने पति की मौत का बदला लेने के लिए अपने राजनीतिक हथकंडे अपना रही है. उधर गुड्डू पंडित व गोलू ने खुद को गद्दी पर बैठा लिया है. बीना त्रिपाठी (रसिका दुग्गल), और गुड्डू पंडित (अली फज़ल) मान चुके हैं कि कालीन भईया की मौत हो गई है. पर गोलू (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) अभी भी कालीन भईया की तलाश में लगी हुई है.
दूसरी तरफ बाहुबलियों के युद्ध का मैदान अब सिर्फ पूर्वांचल तक सीमित न रह कर पूरे प्रदेश तक फैल गया है. पश्चिम, पूर्वांचल से अधिक देने को तैयार है, इसलिए पश्चिम के बाहुबली बार बार बैठक कर पूर्वांचल पर भी अपना हक जताना चाहते हैं. यानी कि ‘नया कौन बनेगा बाहुबली’ का गेम बहुत पुरानी बात हो गई है.
शरद शुक्ला (अंजुम शर्मा) पिता का सपना पूरा करने के लिए मिर्जापुर की गद्दी हथियाने के लिए राजनीति और बाहुबल जोड़ने में लगे हुए हैं. वह मुख्यमंत्री माधुरी से भी हाथ मिला रहे हैं. दद्दा का भी साथ लिए हुए हैं. शरद हर हाल में गुड्डू को हटाना चाहते हैं, जो कि अपनी सनक और डर के दम पर मिर्जापुर की गद्दी पर बने हुए हैं. अब कहानी किस अंजाम पर पहुंचती है, इस के लिए 10 लंबे एपीसोड देखने पड़ेंगें.

अपराध, रोमांच व एक्शन प्रधान सीरीज में रोचकता बनाए रखने के लिए आवश्यकता पाशविकता क्रूरता व दुष्टता तो प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करती है. मगर जब शीतयुद्ध जैसे हालात हों तो क्या होगा? कहानी के केंद्र में बाहुबली अपनी ताकत दिखाने की बजाय शतरंजी चालें चलने में मगन हैं. इस सीजन में लेखक व निर्देशक वर्तमान राज्य सरकार के मुख्यमंत्री के एजेंडे को चलाने के लिए जिस तरह से कहानी को गढ़ा, उस ने ‘मिर्जापुर’ के भौकाल को ही मटियामेट कर डाला. मिर्जापुर की गद्दी पर बैठने के बाद गुड्डू पंडित का किरदार कई दृष्यों में बचकाना सा लगता है.
जब ‘एनीमल’ और ‘किल’ जैसी हिंसात्मक फिल्में दर्शकों के सामने हैं, तो इन फिल्मों के मुकाबले ‘मिर्जापुर सीजन तीन’ काफी कमजोर हो गई है. लेखकों ने तीसरे सीजन में किरदार तो भर दिए, पर किसी भी किरदार का सही ढंग से चरित्र चित्रण नहीं कर पाए. परिणामतः कहानी भी भटकी हुई लगती है. माना कि सीरीज में राजनीति, धोखा, विद्वेष, वासना और ह्यूमर सब कुछ है पर जो रोचकता होनी चाहिए थी उस का घोर अभाव है.

प्रदेश में व्याप्त अराजकता के धूर्त राजनीतिक स्वर एक या दो बार सामने आते हैं, लेकिन कोई दंश नहीं है. कहानी व पटकथा के स्तर पर लेखक भ्रमित हैं. एक तरफ प्रदेश की मुख्यमंत्री ‘भयमुक्त प्रदेश’ बनाना चाहती हैं, तो दूसरी तरफ उन की नजर बाहुबली के गंदे पैसे यानी कि काले धन पर है. इसी तरह शरद शुक्ला के किरदार के साथ भी न्याय नहीं हो पाया. मिर्ज़ापुर की गद्दी का दावेदार बताने वाला शरद शुक्ला (अंजुम शर्मा) एक तरफ कालीन भइया के सामने खुद को उन का भरोसेमंद साबित करने पर तुला है तो दूसरी तरफ सत्ता के साथ भी तालमेल बिठा रहा है. पूरी सीरीज में पहले सीजन में जो कालीन भईया की साजिशें थी, उन का अभाव खलता रहा. दर्शक लगातार सोचता रहता है कि मुन्ना वापस आ जाए.

निर्देशकों ने इसे अधिक यथार्थवादी बनाने के लिए लोकेशनों का चुनाव काफी अच्छा किया है. फिल्मकार ने मिर्ज़ापुर ब्रह्मांड के विस्तारित मानचित्र और पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार और नेपाल में हुए रक्तपात को समझाने के लिए विस्तृत ग्राफिक्स का उपयोग किया है पर वह दर्शक के दिलों तक नहीं पहुंच पाते. फिल्म की साउंड डिजाइनिंग बहुत गड़बड़ है. इसे एडिटिंग टेबल पर कसने की भी जरुरत थी. पंकज त्रिपाठी के लिए 2024 का यह साल बहुत खराब ही जा रहा है. सब से पहले उन की फिल्म ‘मैं अटल हूं’ ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा. फिर नेटफ्लिक्स ने उन की इमेज का फिल्म ‘मर्डर मुबारक’ में कचरा कर दिया और अब इस वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ के तीसरे सीजन ने तो उन की पूरी लुटिया ही डुबा दी. जब ‘मिर्जापुर’ का पहला सीजन आया था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि तीसरे सीजन में कालीन भईया इस गति में पहुंच जाएंगें.

इस सीजन में उन के हिस्से करने को कुछ रहा ही नहीं. वैसे पंकज त्रिपाठी निजी जीवन में अपनों के साथ जैसा कर रहे हैं वैसा अब उन के साथ परदे पर हो रहा है. अन्यथा बिस्तर पर पड़े हुए भी वह अपनी प्रतिभा का जलवा बिखेर सकते थे. गोलू पर निर्भर गुड्डू पंडित के किरदार में अली फजल के अभिनय का वह जलवा बरकरार नहीं रहा, जो उन्हे उत्कृष्ट बनाता है.
एक लड़की के प्यार या उस की बुद्धि या वीरता के तले दबे इंसान के चेहरे पर जो भाव गुड्डू पंडित के चेहरे पर आने चाहिए थे, वह लाने में अली फजल विफल रहे हैं. इस के लिए वह स्वयं दोषी हैं. पहले सीजन में शर्मीली लड़की से तीसरे सीजन में लेडी डान बन चुकी गोलू के किरदार में श्वेता त्रिपाठी भी खरी नहीं उतरती. बीना त्रिपाठी के किरदार में रसिका दुग्गल के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. प्यार और बदले के बीच फंसे हुए छोटे त्यागी के किरदार में विजय वर्मा कुछ दृष्यों में प्रभावित कर जाते हैं. शरद शुक्ला के किरदार में अंजुम शर्मा का अभिनय एक जैसा ही है, उस में कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती. जबकि शरद शुक्ला के किरदार के कई आयाम हैं. मुख्यमंत्री माधुरी के किरदार में ईशा तलवार चुक गईं. रमाकांत पंडित के किरदार मे राजेश तैलंग, राउफ लाला के किरदार में अनिल जौर्ज अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं.

कामवाली : औकात देख कर बात कर, अनपढ़

फरिश्ता कौंप्लैक्स में ममता नगरनिगम के लाल, हरे, काले रंगों के कचरे के बड़े डब्बे लिए एकएक घर की घंटी बजाती कचरा इकट्टा करने रोज की तरह आवाज लगाने लगी.

उसी समय बाकी कामवालियां भी अपनेअपने लगे घरों में साफसफाई करने को आ-जा रही थीं और कुछ रहवासी अपने कामधंधे के लिए घर से निकल रहे थे.

उस व्यस्त फ्लोर पर सभी ने एक बार में अपनेअपने कचरे खुद या अपने घर पर काम करने आई बाई के हाथ बाहर भिजवा दिए और कई सीधा उन डब्बों में अपने वेस्ट डाल अपने घरों के भीतर चले गए.

उस फ्लोर पर एक घर शेष था जिस में अभीअभी कोई नए लोग रहने आए थे. कल भी उन्होंने कचरा उस के जाने के बाद बाहर रखा और पूरा फ्लोर बदबूदार हो गया.

वह कल की तरह आज बिल्डिंग मैनेजर से डांट नहीं खाना चाहती थी, इसलिए ममता ने फिर घंटी बजाई. लेकिन कोई न आया. उस ने उस घर के सामने जा कर जोर से आवाज लगाई.

“दीदी, कचरा हो तो अभी दे दीजिए.”

सुबह के 9 बजे अपनी बदहवास नींद में चूर वे मेमसाहब अपनी नाकमुंह बिचका कर अपने घर के दरवाजे को आधा खोल, कचरे से पिलपिलाती झिल्ली उस के पैर की ओर जोर से फेंक कर झट से अपना दरवाजा बंद कर लेती हैं.

‘ये कचरा बिनने वाले दो कौड़ी के लोग सुबहसुबह हमारी नींद खराब करने को मुंह उठा कर चले आते हैं, गंवार कहीं के,’ वे अपने घर के भीतर बड़बड़ाती रहीं और दरवाजे के इस पार खड़ी ममता उन की बातें सुन हतप्रभ रह गई.

वह सोचती रह गई कि काम तो काम होता है, चाहे वह एअरकंडीशनर कमरे में बैठ कर कंप्यूटर चलाने वाला हो या गटर साफ करने वाला, अपनाअपना पेट पालने परिश्रम तो सभी करते हैं. उन की मेहनत आंकने को वह किसी से नहीं कह रही पर इस तरह से तिरस्कार करना क्या सही है?

उन्हें उसे ऐसा कहते सुन टीस जरूर हुई और एकाएक ममता के कानों के साथ उस की भीगी आंखें उन के आलीशान करीगरी किए हुए दरवाजे पर जा अटकीं और एक पल को उन के कहे एकएक शब्द उस के दिमाग में घूमने लगे. इसी बीच उस की खोई हुई नजरों ने अपने पैरों के बीच कुछ बहता हुआ पाया. उस ने नीचे देखा और अपने जूते झट से अलग कर लिए.

उन के द्वारा प्रतिबंधित की जा चुकी नष्ट न होने वाली पन्नी, जो वर्ल्ड लाइफ फैडरेशन के आंकड़े के अनुसार प्रदेश में रोजाना 20 गायों की मौत का कारण बन रही है, को जोर से फेंकने से वह पूरी तरह से फट गई थी और उस से बदबू मारती उन के घर की सड़ीगली जूठन के साथ डिस्पोजेबल चम्मच, घड़ी के सैल, सैनेटरी पैड आदि साफ टाइल्स पर धरधरा कर जहांतहां फैल गए.

वह अपने दस्ताने पहने हाथों से उन्हें उठा वेस्ट अनुसार नगरनिगम के डब्बो में डाल तो देती है पर तब तक उस से निकल चुका गंदे कचरे का पानी फर्श पर फैल गया.

उस ने खुद को समझाया कि सालों से कुछ घरों से ऐसी ओछी प्रतिक्रिया मिलना उस के लिए तो आम बात थी, फिर इतना दिल से क्यों लगना, जाने दो.

‘एक ही झिल्ली में सब तरह का कचरा नहीं डाला जाता,’ यह बात नगरनिगम के कर्मचारी समयसमय पर खुद आ कर और पंफलेट द्वारा सालों से बतला रहे हैं.

मां तो अनपढ थी फिर भी उन्हें इतनी समझ थी पर इतने बड़े पढ़ेलिखे लोगों को भला यह आसान बात क्यों नहीं समझ आती. जिन्हें सूखा, गीला और प्रकृति के लिए जोखिम वाले सामान के डब्बों के बीच का फर्क नहीं पता.

बिना विभाजन किए किचन का वेस्ट, प्लास्टिक सामान, सैलबैटरीज, बिना लाल क्रौस किए पेपर में लपेट कर पैड-डायपर की अलग झिल्ली, टूटे कांच बिना सोचे कि उन के फेंकने के बाद उस कचरे को कुत्ते, गाय या कचरा बिनने वाले के खोलने पर वो चोटिल हो सकते हैं और न ही अपने घर से होती पर्यावरण को सुरक्षित रखने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी व दिनभर मोबाइल पर उंगलिया चलाने वाली अतिव्यस्त जनता समय के अभाव का बहाना कर सभी कचरा अलगअलग करने में असमर्थ हो एकसाथ ठूंस कर फेंक देती है, जबकि यही जनता सरकार को वायु, जल, मिट्टी के बढ़ते प्रदूषण के लिए बेझिझक कोसने में देर नहीं लगाती.

कचरा तो बिन गया पर गंदगी का वह लसलसा, लारदार पानी जस का तस था.

सफाई वाली तो आ कर जा चुकी और उस का काम कचरा इकट्टा करना है, गंदगी साफ करना नही. एक बार को कर भी दे पर उस के पास तो सफाई का सामान ही नहीं है, बाकी घरों से कचरा लेने के लिए देर भी हो रही है. उसे उस फ्लोर को ऐसे ही गंदगी के बीच छोड़ कर जाने के अलावा कोई रास्ता न सूझा और वह एक के बाद एक दूसरे फ्लोर में कचरा इकट्ठे करने यह सोच कर निकल गई कि जब सफाईवाली दिखेगी तो उस से कह कर यहां सफाई करवा देगी.

वहीं, कुछ घंटों बाद जब वे मेमसाहब सजधज कर, परफ्यूम मार, शौपिंग के लिए मौल को निकलने अपना दरवाजा बंद कर अपनी चिकनी हाई हील्स से लिफ्ट की ओर जाने मुड़ीं नहीं कि वे धम्म से उन मक्खियों से भिनकते अपने द्वारा फेंके कचरे में जा फिसलीं.

तभी सामने वाले घर से काम कर निकलती बाई ने उन्हें फर्श पर से अपने चिपचिपाते हाथों से उठने का बारबार असफल प्रयास करते पाया और दूसरी ओर से उसी समय ममता सफाईवाली को ले कर आ पहुंची.

वे तीनों उन की मदद करने को उन की ओर फुरती से बढ़ने लगीं.

“यह क्या तरीका है गवारों? न सफाई करने की अक्ल है न ही कचरा हटाने की. तुम लोग को नौकरी से नहीं निकलवाया तो मेरा नाम नहीं. रुको वहं, यहा मत आना. वहीं खड़ी रहो. अपने गंदे हाथों से मुझे छूना मत,” वे मेमसाहब गिरती-संभलती बड़बड़ाती हैं.

“हां, तो पड़ी रह वैसी. एक तो मदद कर रहे हैं, और ये अकड़ दिखा रही हैं. देखा था मैं ने, कैसे कचरा फेंक कर दे रही थी सुबह. देख, अब अपने किए पर कैसी लोट रही है.”

“चुप रह, अपनी औकात देख कर बात कर, अनपढ़.”

“हां मानते हैं, आप लोग जैसे बड़े स्कूलकालेज में नहीं गए पर कचरा का विभाजन कर फेंकने की तमीज हमारे पास आप से बहतर है. अनपढ़गंवार आप को हमें नहीं बल्कि हमें आप को कहना चाहिए.”

“दीदी माफ करिएगा,” ममता ने मामला बढ़ता देख उसे चुप करा दिया. जो वह आज सुबह न कह सकती थी, उस तुनकमिजाज बाई ने उसे सुना दिया.

सफाईवाली बिना कुछ कहे वह गंदगी साफ कर ममता के साथ चली गई और वे मेमसाहब अपना सिर झुकाए, अपनी पीठ सरका कर दरवाजे का सहारा लेते अपने महंगे कपड़ों से रिसती हुई बदबूदार लार को अपने साथ घर के भीतर ले जातीं यह सोचती रहीं कि असलियत में गंवार है कौन ?

तलाक की कम दर, क्या शादी में संतुष्टि की गारंटी है, Mr&Mrs Dhoni कैसे कपल लगते हैं

शादी की 15वीं सालगरिह मनाते मिस्टर और मिसेज धोनी की वीडियो शायद आपने भी देखी हो, य दोनों सिंपल कपड़ों में केक काटकर एकदूसरे को खिला रहे हैं, कोई तामझाम नहीं, न पतली लंबी ग्लासेज में ऊपर तक भरी शैंपेन, न फूलों के मंहगे बुके के साथ आते गेस्ट, न फाइव स्टार होटल में डीजे की धुन पर थिरकते नशे में चूर मेहमान.

मैरिज को लेकर इनका कंसैप्ट साफ है, “शादी दो लोगों के बीच होती है इसलिए एनीवर्सरी भी इनके बीच ही होनी चाहिए” और शायद यही वजह है कि महेंद्र सिंह धोनी और साक्षी का रिश्ता हर बीते साल के साथ गहराता चला जा रहा है.

शादी के शोध को समझें
नेशनल लाइब्रेरी औफ मैडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट How Couple’s Relationship Lasts Over Time? A Model for Marital Satisfaction के अनुसार, “डिवोर्स पर जाकर खत्म होनेवाली शादियों में से ज्यादातर में यह पाया गया कि ऐसे कपल्स के रिश्तों में संतुष्टि की भावना खत्म हो गई थी. रिसर्च करने वाले यह जानना चाहते थे कि आखिर इस रिश्ते में आपसी संतुष्टि को पैदा करने वाली या बढ़ानेवाली चीजें क्या हो सकती है? जिसे पता कर पतिपत्नी के रिश्ते में संतोष का प्रतिशत बढ़ाया जा सके. इस शोध में यह भी पाया गया कि रिश्ते की क्वालिटी और इसमें संतुष्टि का भाव पूरी तरह से आपसी प्रेम और वैवाहिक संबंध पर टिका होता है,
यहां पर वैवाहिक संबंध का मतलब है कि पतिपत्नी अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को किस तरह से व्यवस्थित करते हैं, जैसा कि धोनी के मामले में दिखा कि किस तरह धोनी के नहीं रहने पर साक्षी की ओर से कोई शिकायत नहीं रहा, इस केस में पत्नी ने अपने पति के प्रति दायित्वों को पूरा किया वैवाहिक संबंधों के अंतर्गत और भी कई चीजें आई है, जो संतुष्टि के भाव को जन्म देती है जैसे परिवार की जिम्मेदारियों में दोनों की भूमिकाएं, दोनों के पास फ्री टाइम, प्राइवेसी, बढ़िया कम्युनिकेशन और परिवार के बाहर के रिश्ते का आपसी मैनेजमेंट.

ग्लैमरिया चकाचौंध से कैसे बची रही धोनी की शादी
इनकी रिश्ते की सादगी ही इनकी हैप्पी मैरिड लाइफ का पीलर है, इसके लिए इनको प्यार का डिस्पले करने की, एयरपोर्ट पर आतेजाते समय पैपराजी को दिखाने के लिए हाथ थमाने की, पब्लिक प्लेस पर एकदूसरे की तरफ चुम्मियां उछालने की जरूरत नहीं पड़ती. घर के अंदर और बाहर की इनकी तस्वीरें आपको 80-90 के दशक की फैमिलीज की तरह लगती है. सैलिब्रिटी कपल होने के बावजूद रिश्ते पर ग्लैमर की चकाचौंध को हावी नहीं होने देना भी इनके लंबे टिकाऊ रिलेशनशिप का आधार है.

 

कुछ दिन पहले दोनों मुकेश अंबानी के छोटे बेटे की प्रीवैडिंग फंक्शन में पहुंचे थे, इस मौके पर मिसेज धोनी ने शादी का ‘पिछौड़ा’ पहना था, ‘पिछौड़ा’ वह ट्रैडिशनल ड्रैस है जिसे शादी के दिन दुल्हन पहनती है, इसके बाद यह ड्रैस या इसकी चुनरी हर खास मौके पर मैरिड वुमन कैरी करती है. मिसेज धोनी चाहती तो किसी भी सैलिब्रेटी डिजाइनर के शोरूम से एक ड्रैस चूज कर सकती थी लेकिन उन्होंने शादी से जुड़े फंक्शन में अपनी शादी का ‘पिछौड़ा’ पहन अपने रिश्ते की मजबूती पर मुहर लगाई, जो होने वाले दंपति और नई युवा पीढ़ी के लिए मैसेज था, जो पता नहीं इन्हें समझ भी आई हो या नहीं.

शादी में आज सबसे जरूरी है ‘अंडरस्टैडिंग’
यह कपल एकदूसरे को कई मायनों में कंप्लीट करते हैं, 4 जुलाई के 2010 को साक्षी रावत, मिसेज धोनी बन गई. तब से अब तक मिसेज धोनी हर मौके पर पति का साथ देती नजर आई. साल 2015 की बात है साक्षी की पहली प्रैग्नेंसी के आखिरी दिनों में धोनी उनके साथ नहीं थे, यहां तक कि अपनी इकलौती बेटी जीवा धोनी के जन्म के समय में क्रिकेटर एमएस धोनी आईसीसी वर्ल्ड कप 2015 की वजह से भारतीय टीम के कैप्टन के रूप में आष्ट्रेलिया दौरे पर थे.
यहां सवाल उठता है कि हसबैंड के रूप में धोनी का पत्नी से दूर रहने का कौन्फिडेंस कहां से आया ? दरअसल इसका क्रैडिट भी साक्षी धोनी को ही जाना चाहिए, जीवा के जन्म के दिन करीब आ रहे थे और काफी लोगों ने साक्षी के सामने यह सवाल खड़ा किया था कि “आपके पति इस खास वक्त पर आपके साथ क्यों नहीं है?”, तब साक्षी ने कहा था, “क्रिकेट उनकी फर्स्ट प्रायोरिटी है और वह मेरी फर्स्ट प्रायोरिटी है और मैं उनसे मोहब्ब्त करती हूं इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैंने कोई त्याग किया है”

क्या शो औफ शादी के टिके रहने की गारंटी है
मैरिड लाइफ में गिफ्टबाजी करने में कोई हर्ज नहीं, बल्कि इससे रिलेशनशिप की फ्रेशनेस बरकरार रहती है. चौकलेट, फ्लावर्स, टैडीबियर, परफ्यूम, कैंडल लाइट डिनर से रिश्ते की गरमाहट बनी रहती है, जो हर कपल के लिए जरूरी है लेकिन ज्यादा दिखावा कहीं आपके रिलेशनशिप के खोखलेपन को ढकने की कवायद तो नहीं.
कुछ दिनों से क्रिकेटर हार्दिक पांड्या और उनकी पत्नी नताशा स्टोनविक की तलाक की खबरों ने जोर पकड़ रखा है, टी20 वर्ल्ड

 

पैसा और प्यार की दोस्ती की कोई गारंटी नहीं होती
फरवरी 2023 में हार्दिक ने नताशा से हिंदू और इसाई रिच्युअल से दोबारा शादी की थी, जबकि इनकी पहली शादी 2020 में लौकडाउन के दिनों में हुई थी. उदयपुर में हुई इस शादी में हार्दिक की शानोशौकत साफ नजर आ रही थी लेकिन सारी चकाचौंध कुछ महीने में ही गायब हो गई, वजह चाहे जो कुछ भी हो यह तो शत प्रतिशत सत्य साबित हुई कि शादी के जलसे पर करोड़ों लूटाकर भी आपसी प्यार और तालमेल को कायम नहीं किया जा सकता है. नोटों की गड्डियों पर रखी प्यार और विश्वास के इमारत की नींव भरभराकर गिर जाएगी.

क्या तलाक की कम दर, शादी में संतुष्टि की गारंटी है
ग्लोबल इंडेक्स के डेटा पर गौर करें, तो पूरे विश्व में भारत में तलाक का दर सबसे कम है, जो करीब एक प्रतिशत है, वहीं वियतनाम इस मामले में भारत का सबसे करीबी है जहां तलाक का दर 7 प्रतिशत है जबकि पुर्तगाल में डिवोर्स रेट करीब 94 प्रतिशत है. एक प्रतिशत का आंकड़ा वाकई पन्नों पर न के बराबर है लेकिन क्या बाकी के 99 प्रतिशत हसबैंडवाइफ वाकई खुश हैं, क्या उनके बीच संतुष्टि का भाव है, क्या वे पारिवारिक जिम्मेदारी जैसे वैवाहिक बंधन को अच्छी तरह निभा रहे हैं, यह इनमें से एक बड़ा हिस्सा जबरदस्ती अपने विवाह को ढो रहा है ताकि देसी समाज उनको हीन भावना से न देखें. ये आंकड़ा इन 99 प्रतिशत जोड़ों में से बहुतों की पोल खोलता है

. Journal of family medicine and primary care की रिपोर्ट पर गौर करें, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 5 बताती है कि 18 से 49 साल की मैरिड वुमन में से कम से कम 29.3% प्रतिशत ने अपनी मैरिड लाइफ में एक बार वौयलेंस का शिकार हुई है, जो नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की तुलना में थोड़ा कम है, NFHS-4 में यह दर 31.2% थी, इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दुनियाभर की कमसेकम 60% महिलाएं अलगअलग वजहों से घरेलू हिंसा की शिकार हैं. इसलिए भारत की कम डिवोर्स रेट की वजह कमरों के अंदर खुश पतिपत्नी नहीं, बल्कि तकियों में दबी सिसकियां, टीवी के तेज वौल्यूम में दबी पीटने की आवाजें भी हो सकती है.

सामने रखी चीजें भी ढूढ़ते रहते हैं, तो पौपकौर्न सिंड्रोम के शिकार हैं आप

क्या आप का भी पूरा दिन मोबाइल पर कभी कौल, कभी व्हाट्सएप, कभी फेसबुक तो कभी इंस्टाग्राम पर स्क्रोलिंग करते हुए बीतता है और आप को किसी एक काम पर फोकस ही नहीं कर पाने की समस्या हो रही है तो आप का दिमाग पौपकौर्न ब्रेन सिंड्रोम का शिकार हो चुका है.

 

एक रिसर्च के अनुसार जब किसी व्यक्ति का किसी भी चीज को देखने का ध्यान बनाए रखने की क्षमता कम हो जाती है तो वह पौपकौर्न सिंड्रोम का शिकार माना जा सकता है. जहां 2004 में टीवी देखते हुए चैनल बदलने के लिए कोई व्यक्ति ढाई मिनट लगाता था वहीं 2012 में यह टाइम स्पैन कम हो कर सवा मिनट हो गया और आज 2024 में मोबाइल या टीवी की स्क्रीन पर यह स्पैन सिर्फ 47 सैकंड रह गया है यानी महज 47 सैकंड बाद उस का दिमाग दूसरी किसी चीज को देखने या सुनने की मांग करता है.

 

पौपकौर्न ब्रेन के लक्षण
एक्स्पर्ट्स के अनुसार पौपकौर्न ब्रेन के शिकार लोग किसी काम पर फोकस नहीं कर पाते हैं. अगर इस का सही समय पर इलाज न हो तो धीरेधीरे लर्निंग और मैमोरी पर भी नैगेटिव असर पड़ता है. साथ ही, इस से व्यक्ति के इमोशन पर भी असर पड़ता है. पौपकौर्न ब्रेन सिंड्रोम में व्यक्ति का दिमाग अस्थिर रहता है, जिस की वजह से वह जरूरी चीजों को फोकस नहीं कर पाता है.
वहीं कई लोगों में एंग्जायटी की भी परेशानी देखने को मिली है. पौपकौर्न ब्रेन में दिमाग डिजिटल दुनिया की तरह मल्टीटास्किंग और स्क्रोलिंग का आदी हो जाता है और दिमाग काम करने के दौरान वैसे ही रिऐक्ट करता है और आप के विचार पौपकौर्न की तरह इधरउधर घूमने लगते हैं. इस सिंड्रोम का असर दिमाग की कार्यक्षमता पर पड़ता है, जिस की वजह से व्यक्ति को कई बार सामने रखी हुई चीजें भी नहीं मिलती हैं. इस के अलावा व्यक्ति याद की हुई चीजों को तुरंत ही भूल जाता है.

मैंटल हैल्‍थ की दुनिया में ‘पौपकौर्न ब्रेन’ एक नया चिंता का विषय है. 30, 60 और 90 सैकंड की रील्स और शौर्ट्स आप को भले ही कुछ समय का मजा दे रहे हों लेकिन अंत में ये आप को पौपकौर्न ब्रेन का शिकार बना रहे हैं. सिर्फ युवा, बुजुर्ग ही नहीं, टीनएजर्स और बच्चे भी इस का शिकार हो रहे हैं.
2017 में फेसबुक ने एक डेटा शेयर किया था जिस में कंपनी ने बताया था कि रोजाना एक आम यूजर 300 फुट स्क्रीन स्क्रोल करता है और यह एक महीने में 2.7 किलोमीटर हो जाता है. आप को बता दें, यह डेटा जिस समय का है उस समय सोशल मीडिया पर शौर्ट्स और वीडियो का चलन नहीं था, ऐसे में अब यह आंकड़ा पहले के मुकाबले काफी ज्यादा हो गया होगा.

 

 

पौपकौर्न ब्रेन से बचने के तरीके
• एक्सपर्ट के अनुसार इस सिंड्रोम से बचने के लिए व्यक्ति को सब से पहले सोशल मीडिया पर कितना वक्त बिताना है, इस का समय निर्धारित यानी एक टाइमटेबल बनाना चाहिए.
• औफिस में काम के बीच ब्रेक लेते समय मोबाइल यूज करने के बजाय दोस्तों से बात करें. इस सिंड्रोम से बचने के लिए खाना खाते वक्त मोबाइल यूज नहीं करना चाहिए.
• अखबार, पत्रपत्रिकाएं पढ़ने की आदत डालिए. मोबाइल पर डिपेंडेंसी कम कीजिए. अपनी हौबीज पर फोकस कीजिए और उस के लिए समय निकालिए.
• पूरे दिन का एक रूटीन बनाएं, प्रकृति के साथ समय बिताएं.
• जरूरी कार्यों को प्राथमिकता दें, पहले जरूरी कामों को निबटाएं और समयसमय पर नियमित ब्रेक लें.
• पौपकौर्न ब्रेन से बचने के लिए एक समय में एक ही काम करने पर फोकस करें.
• पौपकौर्न ब्रेन से बचने के लिए समयसमय पर डिजिटल डीटौक्स करें, नियमित अंतराल पर डिजिटल डिवाइस से दूरी बनाएं. साथ ही, मल्टीटास्किंग की जगह सिंगलटास्किंग पर फोकस करें.
• व्यायाम के लिए भी समय निकालें. इस के अलावा ऐक्सरसाइज से अपने फोकस को बेहतर करें.

 

‘मैं तुम्हें कभी तंग नहीं करूंगी, बहू

 

बेटे की शादी के कुछ महीने बाद ही सुमित्रा ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. रोजरोज की कलह से परेशान बेटेबहू ने अलग घर ले लिया लेकिन 15 दिन के अंदर ही सुमित्रा को ऐसी खबर मिली जिस से उस के स्वभाव में अचानक परिवर्तन आ गया.

 

खिड़की से बाहर झांक रही सुमित्रा ने एक अनजान युवक को गेट के सामने मोटरसाइकिल रोकते देखा.

‘‘रवि, तू यहां क्या कर रहा है?’’ सामने के फ्लैट की बालकनी में खड़े अजय ने ऊंची आवाज में मोटर- साइकिल सवार से प्रश्न किया.

‘‘यार, एक बुरी खबर देने आया हूं.’’

‘‘क्या हुआ है?’’

‘‘शर्मा सर का ट्रक से एक्सीडेंट हुआ जिस में वह मर गए.’’

खिड़की में खड़ी सुमित्रा अपने पति राजेंद्र के बाजार से घर लौटने का ही इंतजार कर रही थीं. रवि के मुंह से यह सब सुन कर उन के दिमाग को जबरदस्त झटका लगा. विधवा हो जाने के एहसास से उन की चेतना को लकवा मार गया और वह धड़ाम से फर्श पर गिरीं और बेहोश हो गईं.

 

छोटे बेटे समीर और बेटी रितु के प्रयासों से कुछ देर बाद जब सुमित्रा को होश आया तो उन दोनों की आंखों से बहते आंसुओं को देख कर उन के मन की पीड़ा लौट आई और वह अपनी बेटी से लिपट कर जोर से रोने लगीं.

उसी समय राजेंद्रजी ने कमरे में प्रवेश किया. पति को सहीसलामत देख कर सुमित्रा ने मन ही मन तीव्र खुशी व हैरानी के मिलेजुले भाव महसूस किए. फिर पति को सवालिया नजरों से देखने लगीं.

‘‘सुमित्रा, हम लुट गए. कंगाल हो गए. आज संजीव…’’ और इतना कह पत्नी के कंधे पर हाथ रख वह किसी छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगे थे.

सुमित्रा की समझ में आ गया कि रवि उन के बड़े बेटे संजीव की दुर्घटना में असामयिक मौत की खबर लाया था. इस नए सदमे ने उन्हें गूंगा बना दिया. वह न रोईं और न ही कुछ बोल पाईं. इस मानसिक आघात ने उन के सोचनेसमझने की शक्ति पूरी तरह से छीन ली थी.

करीब 15 दिन पहले ही संजीव अपनी पत्नी रीना और 3 साल की बेटी पल्लवी के साथ अलग किराए के मकान में रहने चला गया था.

पड़ोसी कपूर साहब, रीना व पल्लवी को अपनी कार से ले आए. कुछ दूसरे पड़ोसी, राजेंद्रजी और समीर के साथ उस अस्पताल में गए जहां संजीव की मौत हुई थी.

अपनी बहू रीना से गले लग कर रोते हुए सुमित्रा बारबार एक ही बात कह रही थीं, ‘‘मैं तुम दोनों को घर से जाने को मजबूर न करती तो आज मेरे संजीव के साथ यह हादसा न होता.’’

इस अपराधबोध ने सुमित्रा को तेरहवीं तक गहरी उदासी का शिकार बनाए रखा. इस कारण वह सांत्वना देने आ रहे लोगों से न ठीक से बोल पातीं, न ही अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों का उन्हें कोई ध्यान आता.

ज्यादातर वह अपनी विधवा बहू का मुर्झाया चेहरा निहारते हुए मौन आंसू बहाने लगतीं. कभीकभी पल्लवी को छाती से लगा कर खूब प्यार करतीं, पर आंसू तब भी उन की पलकों को भिगोए रखते.

तेरहवीं के अगले दिन वर्षों की बीमार नजर आ रही सुमित्रा क्रियाशील हो उठीं. सब से पहले समीर और उस के दोस्तों की मदद से टैंपू में भर कर संजीव का सारा सामान किराए के मकान से वापस मंगवा लिया.

उसी दिन शाम को सुमित्रा के निमंत्रण पर रीना के मातापिता और भैयाभाभी उन के घर आए.

सुमित्रा ने सब को संबोधित कर गंभीर लहजे में कहा, ‘‘पहले मेरी और रीना की बनती नहीं थी पर अब आप सब लोग निश्चिंत रहें. हमारे बीच किसी भी तरह का टकराव अब आप लोगों को देखनेसुनने में नहीं आएगा.’’

‘‘आंटी, मेरी छोटी बहन पर दुख का भारी पहाड़ टूटा है. अपनी बहन और भांजी की कैसी भी सहायता करने से मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा,’’ रीना के भाई रोहित ने भावुक हो कर अपने दिल की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप सब को बुरा न लगे तो रीना और पल्लवी हमारे साथ भी आ कर रह सकती हैं,’’ रीना के पिता कौशिक साहब ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा.

सुमित्रा उन की बातें खामोश हो कर सुनती रहीं. वह रीना के मायके वालों की आंखों में छाए चिंता के भावों को आसानी से पढ़ सकती थीं.

 

रीना के साथ पिछले 6 महीनों में सुमित्रा के संबंध बहुत ज्यादा बिगड़ गए थे. समीर की शादी करीब 3 महीने बाद होने वाली थी. नई बहू के आने की बात को देखते हुए सुमित्रा ने रीना को और ज्यादा दबा कर रखने के प्रयास तेज कर दिए थे.

‘इस घर में रहना है तो जो मैं चाहती हूं वही करना होगा, नहीं तो अलग हो जाओ,’ रोजरोज की उन की ऐसी धमकियों से तंग आ कर संजीव और रीना ने अलग मकान लिया था.

उन की बेटी सास के हाथों अब तो और भी दुख पाएगी, रीना के मातापिता के मन के इस डर को सुमित्रा भली प्रकार समझ रही थीं.

उन के इस डर को दूर करने के लिए ही सुमित्रा ने अपनी खामोशी को तोड़ते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरा बेटा हमें छोड़ कर चला गया है, तो अब अपनी बहू को मैं बेटी बना कर रखूंगी. मैं ने मन ही मन कुछ फैसला लिया है जिन्हें पहली बार मैं आप सभी के सामने उजागर करूंगी.’’

आंखों से बह आए आंसुओं को पोंछती हुई सुमित्रा सब की आंखों का केंद्र बन गईं. राजेंद्रजी, समीर और रितु के हावभाव से यह साफ पता लग रहा था कि जो सुमित्रा कहने जा रही थीं, उस का अंदाजा उन्हें भी न था.

‘‘समीर की शादी होने से पहले ही रीना के लिए हम छत पर 2 कमरों का सेट तैयार करवाएंगे ताकि वह देवरानी के आने से पहले या बाद में जब चाहे अपनी रसोई अलग कर ले. इस के लिए रीना आजाद रहेगी.

‘‘अतीत में मैं ने रीना के नौकरी करने का सदा विरोध किया, पर अब मैं चाहती हूं कि वह आत्मनिर्भर बने. मेरी दिली इच्छा है कि वह बी.एड. का फार्म भरे और अपनी काबिलीयत बढ़ाए.

‘‘आप सब के सामने मैं रीना से कहती हूं कि अब से वह मुझे अपनी मां समझे. जीवन की कठिन राहों पर मजबूत कदमों से आगे बढ़ने के लिए उसे मेरा सहयोग, सहारा और आशीर्वाद सदा उपलब्ध रहेगा.’’

सुमित्रा के स्वभाव में आया बदलाव सब को हैरान कर गया. उन के मुंह से निकले शब्दों में छिपी भावुकता व ईमानदारी सभी के दिलों को छू कर उन की पलकें नम कर गईं. एक तेजतर्रार, झगड़ालू व घमंडी स्त्री का इस कदर कायाकल्प हो जाना सभी को अविश्वसनीय लग रहा था.

रीना अचानक अपनी जगह से उठी और सुमित्रा के पास आ बैठी. सास ने बांहें फैलाईं और बहू उन की छाती से लग कर सुबकने लगी.

कमरे का माहौल बड़ा भावुक और संजीदा हो गया. रीना के मातापिता व भैयाभाभी के पास अब रीना व पल्लवी के हितों पर चर्चा करने के लिए कोई कारण नहीं बचा.

क्या सुमित्रा का सचमुच कायाकल्प हुआ है? इस सवाल को अपने दिलों में समेटे सभी लोग कुछ देर बाद विदा ले कर अपनेअपने घर चले गए.

अब सिर्फ अपने परिवारजनों की मौजूदगी में सुमित्रा ने अपने मनोभावों को शब्द देना जारी रखा, ‘‘समीर और रितु, तुम दोनों अपनी भाभी को इस पल से पूरा मानसम्मान दोगे. रीना के साथ तुम ने गलत व्यवहार किया तो उसे मैं अपना अपमान समझूंगी.’’

‘‘मम्मी, आप को मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी,’’ रितु उठ कर रीना की बगल में आ बैठी और बड़े प्यार से भाभी का हाथ अपने हाथों में ले लिया.

‘‘मेरा दिमाग खराब नहीं है जो मैं किसी से बिना बात उलझूंगा,’’ समीर अचानक भड़क उठा.

‘‘बेटे, अगर तुम्हारा रवैया नहीं बदला तो रीना को साथ ले कर एक दिन मैं इस घर को छोड़ जाऊंगी.’’

सुमित्रा की इस धमकी का ऐसा प्रभाव हुआ कि समीर चुपचाप अपनी जगह सिर झुका कर बैठ गया.

‘‘सुमित्रा, तुम सब तरह की चिंताएं अपने मन से निकाल दो. रीना और पल्लवी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए हम सब मिल कर सहयोग करेंगे,’’ राजेंद्रजी से ऐसा आश्वासन पा कर सुमित्रा धन्यवाद भाव से मुसकरा उठी थीं.

कमरे से जब सब चले गए तब सुमित्रा ने रीना से साफसाफ पूछा, ‘‘बहू, तुम्हें मेरे मुंह से निकली बातों पर क्या विश्वास नहीं हो रहा है?’’

‘‘आप ऐसा क्यों सोच रही हैं, मम्मी. आप लोगों के अलावा अब मेरा असली सहारा कौन बनेगा?’’ रीना का गला भर आया.

‘‘मैं तुम्हें कभी तंग नहीं करूंगी, बहू. बस, तुम यह घर छोड़ कर जाने का विचार अपने मन में कभी मत लाना, नहीं तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘नहीं, मम्मी. मैं आप के पास रहूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देख, पल्लवी के नाम से मैं ने 1 लाख रुपए फिक्स्ड डिपोजिट करने का फैसला कर लिया है. आने वाले समय में यह रकम बढ़ कर उस की पढ़ाई और शादी के काम आएगी.’’

‘‘जी,’’ रीना की आंखों में खुशी की चमक उभरी.

‘‘सुनो बहू, एक बात और कहती हूं मैं,’’ सुमित्रा की आंखों में फिर से आंसू चमके और गला रुंधने सा लगा, ‘‘करीब 4 साल पहले तुम ने इस घर में दुलहन बन कर कदम रखा था और मैं वादा करती हूं कि उचित समय और उचित लड़का मिलने पर तुम्हें डोली में बिठा कर यहां से विदा भी कर दूंगी. जरूरत पड़ी तो पल्लवी अपने दादादादी के पास रहेगी और तुम अपनी नई घरगृहस्थी…’’

‘‘बस, मम्मीजी, और कुछ मत कहिए आप,’’ रीना ने उन के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘मुझे विश्वास हो गया है कि पल्लवी और मैं आप दोनों की छत्रछाया में यहां बिलकुल सुरक्षित हैं. मुझ में दूसरी शादी करने में जरा भी दिलचस्पी कभी पैदा नहीं होगी.’’

रीना अपने सासससुर के लिए जब चाय बनाने चली गई तो राजेंद्रजी ने सुमित्रा का माथा चूम कर उन की प्रशंसा की, ‘‘सुमि, आज जो मैं ने देखासुना है उस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है, साथ ही गर्व भी कर रहा हूं. एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए,’’ सुमित्रा ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा और आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हारी सोच, तुम्हारा नजरिया… तुम्हारे दिल के भाव अचानक इस तरह कैसे बदल गए हैं?’’

‘‘आप मुझ में आए बदलाव का क्या कारण समझते हैं?’’ आंखें बंद किएकिए ही सुमित्रा बोलीं.

‘‘मुझे लगता है संजीव की असमय हुई मौत ने तुम्हें बदला है, पर फिर वैसा ही बदलाव मेरे अंदर क्यों नहीं आया?’’

‘‘संजीव इस दुनिया में नहीं रहा, ये जानने से पहले मुझे एक और जबरदस्त सदमा लगा था. क्या आप को उस की याद है?’’

‘‘हां, जो लड़का बुरी खबर लाया था वह संजीव का जूनियर था और तुम समझीं कि वह कोई मेरा छात्र है और मेरी न रहने की खबर लाया है.’’

‘‘दरअसल, गलत अंदाजा लगा कर मैं बेहोश हो गई थी. फिर मुझे धीरेधीरे होश आया तो मेरे मन ने काम करना शुरू किया.

‘‘सब से पहले असहाय और असुरक्षित हो जाने के भय ने मेरे दिलोदिमाग को जकड़ा था. मन में गहरी पीड़ा होने के बावजूद अपनी जिस जिम्मेदारी का मुझे ध्यान आया वह रितु की शादी का था.

‘‘कैसे पूरी करूंगी मैं यह जिम्मेदारी? मन में यह सवाल कौंधा तो जवाब में सब से पहले संजीव और रीना की शक्लें उभरी थीं. उन से मेरा लाख झगड़ा होता रहा हो पर मुसीबत के समय मन को उन्हीं दोनों की याद पहले आई थी,’’ अपने मन की बातों को सुमित्रा बड़े धीरेधीरे बोलते हुए पति के साथ बांट रही थीं.

राजेंद्रजी खामोश रह कर सुमित्रा के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

सुमित्रा ने पति की आंखों में देखते हुए भावुक लहजे में आगे कहा, ‘‘मेरे बहूबेटे मुसीबत में मेरा मजबूत सहारा बनेंगे, अगर मेरी यह उम्मीद भविष्य में पूरी न होती तो मेरा दिल उन दोनों को कितना कोसता.’’

एक पल रुक कर सुमित्रा फिर बोलीं, ‘‘असली विपदा का पहाड़ तो रीना के सिर पर टूटा था. मेरी ही तरह क्या उस ने भी उन लोगों का ध्यान नहीं किया होगा जो इस कठिन समय में उस के काम आएंगे?’’

‘‘जरूर आया होगा,’’ राजेंद्रजी बोले.

‘‘अगर उस ने हमें विश्वसनीय लोगों की सूची में नहीं रखा होगा तो यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात है और अगर हमारे सहयोग और सहारे की उसे आशा है और हम उस की उम्मीदों पर खरे न उतरे तो क्या वह हमें नहीं कोसेगी?’’

‘‘तुम्हारे मनोभाव अब मेरी समझ में आ रहे हैं. तुम्हारे कायाकल्प का कारण मैं अब समझ सकता हूं,’’ राजेंद्रजी ने प्यार से पत्नी का माथा एक बार फिर चूमा.

‘‘हमारा बेटा संजीव अब बहू और पोती के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और ये दोनों हमें कोसें ऐसा मैं कभी नहीं चाहूंगी. इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए ही मैं ने अपने को बदल डाला है. कभी मैं राह से भटकूं तो आप मुझे टोक कर सही राह दिखा देना,’’ सुमित्रा ने अपने जीवनसाथी से हाथ जोड़ कर विनती की.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि तुम्हारा यह कायाकल्प दिल की गहराइयों से हुआ है.’’

अपने पति की आंखों में अपने लिए गहरे सम्मान, प्रशंसा व प्रेम के भावों को पढ़ कर सुमित्रा हौले से मुसकराईं.

बरसात में ब्रेन भी होता है बीमार, बचना है तो जानें मानसून डिप्रेशन के बारे में

वैसे तो मानसून के आने पर गरमी थोड़ा कम हो जाती है. लेकिन मौसम चाहे मानसून का हो, गरमी हो या सर्दी, उस का सीधा असर व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है. इस भीषण गरमी और गरमी के साथसाथ मानसून के कारण थकान-चिड़चिड़ाहट भी बढ़ती जा रही है जो मानसून डिप्रेशन की एक बड़ी वजह बन रहा है. आइए जानें, क्या है मानसून डिप्रैशन और इस से कैसे बचें.

यह मशहूर गीत तो आप ने सुना ही होगा, ‘धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग कला न पड़ जाए…’ लेकिन इस साल जिस हिसाब से बारिश और गरमी पड़ रही है, उस से बात सिर्फ रूपरंग की नहीं है बल्कि उस से कहीं आगे बढ़ कर बात मानसिक स्वास्थ्य तक जा पहुंची है. बारिश की वजह से घर से बाहर निकलना तक मुश्किल हो जाता है. इस का शरीर पर ही नहीं, मन पर भी असर पड़ता है.

 

मन में एक भय पैदा हो गया है
कुछ सालों से मौसम का पैटर्न लगातार बदल रहा है. इस से लोग काफी परेशान हैं. हालांकि साइंटिस्टों ने इस की चेतावनी 1900 में ही देनी शुरू कर दी थी कि पेड़ काट कर कंक्रीट के जंगल बनाने का खमियाजा भुगतना ही पड़ेगा. इस की वजह से मौसम में बदलाव होगा ही होगा. अब यह मौसमी बदलाव किसी से संभल ही नहीं सकता. न सरकार संभाल सकती है न व्यक्तिगत स्तर पर कुछ किया जा सकता है. अब मन में यही भाव हो गया है के ये गरमीबरसात तो ले कर डूबेगी. जितनी खबरें एन्वायरमैंट के बारे में आ रही हैं वे सब बड़ी डिप्रैसिंग हैं.

वेदर चेंज किस तरह लोगों के मन में पर प्रभाव डाल रहा
बहुत से लोग बच्चों को ले कर चिंता में हैं. डर यह सता रहा है कि अगर मौसम इसी प्रकार बदलता रहा तो भविष्य कैसा होगा. खासतौर पर उन को ज्यादा परेशानी है जिन्होंने मौसम के बदलाव की वजह से सूखे और बाढ़ का संकट झेला है. मौसम में बदलाव से जिन की जिंदगी पर असर पड़ा है उन की मैंटल हैल्थ ज्यादा खराब हो रही है.

वेदर चेंज के कारण फसलों को नुकसान हो रहा है. कई फसलों की सप्लाई पर असर पड़ता है. फल और सब्जियों के रेट बढ़ने से महंगाई आसमान छूने लगती है. कई लोग चाह कर भी इन को खरीद नहीं पाते हैं. फिश, पशुपक्षी खत्म हो जाएंगे, पानी का स्तर कम हो जाएगा आदि.

 

ऐसे में वो सोचते हैं कि अगर अभी यह हो रहा है तो आगे क्या होगा. लोगों को भविष्य का डर सताने लगता है. यही डर एंग्जायटी में बदल जाता है. मौसम में बदलाव से जिन की जिंदगी पर असर पड़ा है उन की मैंटल हैल्थ ज्यादा खराब हो रही है. लेकिन इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह तो अब आप को सहना पड़ेगा. हमारे मांबाप और पिछली पीढ़ी ने जो गलती की थी, अब उस से बचने का पूरी तरह तो कोई तरीका नहीं है. लेकिन कुछ हद तक सावधानी बरत कर इसे काम किया जा सकता है.

क्या है मानसून डिप्रैशन
मौसम में होने वाले बदलाव का सीधा असर व्यक्ति की मैंटल हैल्थ पर पड़ता है. गरमी, बरसात की वजह से उस का कुछ करने, यहां तक कि खानेपीने तक, का मन नहीं करता. एक बार की बारिश से ही हालत इतनी खराब हो जाती है कि चारों तरफ पानी ही पानी हो जाता है. लोग औफिस जाने में भी कतराने लगते है क्योंकि उन्हें 1 घंटे के रस्ते में 4-4 घंटे जाम में लग जाते हैं. ऐसे में लगता है बाहर जा कर क्या करना है. इसलिए व्यक्ति खुद को एक कमरे में बंद कर लेता है. व्यक्ति अकेला रहने लगता है और एंग्ज़ाइटी का शिकार हो जाता है. इस के अलावा, एकाग्रता की कमी और एनर्जी का स्तर भी लो हो जाता है.

आइए जानें मानसून और गरमी ब्रेन पर किस तरह से असर डालती है
मानसून ब्लूज चूंकि कोई क्लीनिकल डिसऔर्डर नहीं है बल्कि मानसून में चूंकि सूर्य का प्रकाश कम हो जाता है और सर्केडियन रिदम की समस्या के कारण यह दिक्कत ट्रिगर हो सकती है. मानसून के दिनों में यूवी एक्‍सपोजर कम हो जाता है. इस से शरीर में मेलाटोनिनन, सेरोटोनिनन और विटामिन-डी की कमी हो जाती है. सेरोटोनिन की कमी से मूड और भूख प्रभावित होती है. बरसात में कई दिनों तक धूप नहीं दिखती, इस के कारण भी आप की उदासी बढ़ सकती है. असल में जब हमारी आंखें सूर्य के प्रकाश को देखती हैं, तो यह मस्तिष्क को संदेश भेजती हैं जो नींद, भूख, तापमान, मनोदशा और गतिविधि को नियंत्रित करता है. बरसात में यह प्रक्रिया धीमी हो जाती है, जिस के कारण आप अधिक उदासी का अनुभव कर सकते हैं.

इस के आलावा, कुछ लोग ज्यादा गरमी सहन नहीं कर पाते. ऐसे में उन्हें सूरज की रोशनी से परेशानी होने लगती है. ज्यादा तेज धूप लोगों में निराशा की भावना लाती है. दरअसल, ज्यादा गरमी से पसीना आता है. ऐसी स्थिति में शरीर रक्तवाहिकाओं को चौड़ा कर के स्वयं को ठंडा करने की कोशिश करता है. लेकिन गरमी की वजह से ब्रेन में सेराटोनिन और डोपामाइन कैमिकल की मात्रा बढ़ जाती है. इस से हमारे मूड में चेंज आता है. ज्यादा सेराटोनिन होने से लोगों में एंग्जाइटी डिसऔर्डर होने लगता है. ऐसे में चिड़चिड़ापन, गुस्सा आने, चिंतातनाव जैसे विकारों के मामले काफी बढ़ जाते हैं.

मानसून डिप्रैशन के लक्षण

-थोड़ा काम करने पर भी थकान का काफी ज्यादा महसूस होना.
-किसी भी काम में मन न लगना
-घर से बाहर न जाने के बहाने खोजना
-व्यवहार में चिड़चिड़ापन आना
-अकेले रहने का मन करना
-बातबात पर मूड ख़राब होना और गुस्सा आना
-खुदकुशी करने के खयाल आना
-एनर्जी लैवल का कम हो जाना

कैसे बचें
-बरसात के समय बाहर निकलना अवौयड करें. कहीं जाना है, तो थोड़ा पहले चले जाएं.
-बाहर जाएं तो सिर को कवर करें. किसी कैप का इस्तेमाल करें
-छाता ले कर जाएं
-अपनी नींद के पैटर्न को समझें और रोज एक ही समय पर सोएं. नींद का पूरा होना बहुत जरूरी है.
-इस मौसम में वौक पर जाना मुश्किल लग रहा हो, तो कोई बात नहीं, आप घर में ही ऐक्सरसाइज कर लें. इसे अपने डेली रूटीन में शामिल करें
-कम से कम 10 से 12 गिलास पानी जरूर पिएं ताकि बौडी का तापमान सही रहे.
-अच्छे वैंटिलेशन में रहें.
-कपड़ों का चुनाव भी सोचसमझ कर करें. बारिश के हिसाब से ही कपड़ों का चुनाव करें.
-अपनी डाइट का भी धयान रखें. बाहर ज्यादा खाने से बचें. तलाभुना काम खाएं और हरी सब्जियां व फल ज्यादा खाएं. आप की डाइट में फाइबर खूब होना चाहिए.
-डिप्रैशन कम न हो तो डाक्टर की सलाह लें.

पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी को कदम उठाने होंगे. इस वैदर चेंज को कम तो नहीं किया जा सकता लेकिन इस के और ज्यादा बढ़ने से रोका तो जा ही सकता है. पुरानी पीढ़ी वाली गलती आप न दोहराएं. अगर आप को अपने बच्चों के भविष्य का डर सता रहा है तो डिप्रैशन में जाना उस का कोई इलाज नहीं है बल्कि आप अपने स्तर पर उसे रोकने के लिए जो कुछ कर सकते हैं वह करें, जैसे कि खूब पेड़ लगाए और लगा कर छोड़ न दें बल्कि उन्हें बड़ा करें, उन की देखभाल करें. गरमी और बरसात में पानी भरने से रोकने के उपाय करें और हल्ला मचाने व डिप्रैशन में जाने से अच्छा है, उस के लिए हर संभव प्रयास करें.

*

पत्नियों की नजर पतियों पर कम पौकेट पर अधिक होती है

जब तक हम अविवाहित थे यह बात हमारी समझ से परे थी कि पत्नियों की नजर अपने पतियों पर कम उन की पौकेट पर अधिक होती है. तब यह सुन कर ऐसा लगता था मानो पत्नी कोई सुलताना डाकू हो जो पति की जेब पर डाका डाल कर दरियादिली से अपने और अपने बच्चों के ऊपर पैसा लुटाती हो.

जो भी हो, अविवाहित रहते हुए हम कभी भी इस बात से इत्तेफाक न रख सके कि पत्नी की नजर पति की पौकेट पर होती है. तब तो शादी के खयाल मात्र से ही मन में खुशी का बैंडबाजा बजने लगता था. ‘आह, वो ऐसी होगी, वो वैसी होगी’ यही सोचसोच कर मन में लड्डू फूटते रहते थे.

पत्नी का मतलब हमारी दृष्टि में एक सच्ची जीवनसाथी जो पति का खूब खयाल रखती है उस से अधिक कुछ और नहीं था. पत्नी का पौकेटमार होना हमारे लिए सोचना भी पाप था. वह उम्र ही ऐसी थी.

यह सही है कि जब तक नदी में गोता न लगा ले तब तक उस की गहराई की केवल कल्पना की जा सकती है, वास्तविक गहराई नहीं जानी जा सकती. ऊंट को अपनी ऊंचाई का सही आभास तब तक नहीं होता जब तक वह पहाड़ के नीचे से न निकल जाए.

हर मर्द शादी से पहले अपनेआप को बड़ा ऊंचा ऊंट समझता है और जब शादी के पहाड़ के नीचे से गुजरता है तब उसे अपने वास्तविक कद का पता चलता है. बड़ेबड़े हिटलर पत्नी के आगे पानी मांगते हैं जब वह टेढ़ी या तिरछी नजर से देखती है.

हम भी बचपन से अपने को बड़ा पढ़ाकूपिस्सू और कलमघिस्सू समझते रहे. अपनेआप को बड़ा ज्ञानी, ध्यानी समझते रहे. हमें ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया का ज्ञान हम ने ही बटोर रखा है. कोई रचना प्रकाशित हुई नहीं कि बल्लियों उछलने लगते थे.

शादी के बाद जब एक रचना छप कर आई तो श्रीमतीजी पर रोब गालिब करने और अपने लेखक होने की महानता को सत्यापित कराने के लिए उस रचना को महत्त्वपूर्ण सर्टिफिकेट की तरह उन के सम्मुख प्रस्तुत किया. श्रीमतीजी ने पहले तो उस रचना को बड़ी ही उपेक्षित नजर से देखा. इस से हमारा दिल दहल गया. लेकिन हमारा सम्मान रखते हुए 2-3 लाइनें पढ़ीं और फिर पूछा, ‘‘डार्लिंग, इस का कितना पैसा मिलेगा?’’

हम श्रीमती के प्रश्न और प्रश्नवाचक नजर से कुछ असहज हुए और फिर अचकचाते हुए बोले, ‘‘ये तो छापने वाले जानें.’’

यह सुनते ही श्रीमतीजी ने रचना को एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘माल (रचना) तुम्हारा और कीमत जानें पत्रिका वाले, यह भी कोई बात हुई.’’

हम ने श्रीमतीजी को थोड़ा समझाते हुए कहा, ‘‘अभी हम इतने बड़े कालिदास नहीं हुए कि अपनी रचनाओं की कीमत स्वयं तय करें. वे छाप देते हैं, क्या यह कम बड़ी बात है.’’

‘‘टाइमवेस्ट और कुछ नहीं,’’ श्रीमतीजी हमें बालक की तरह नसीहत देती हुई बोलीं.

उस दिन हमें कुछकुछ लगा कि पत्नियां पौकेटमार भी होती हैं, पैसे पर नजर रखती हैं.

उस दिन हमें सचमुच यह भी लगा कि अपुन की औकात क्या है? मन तो हुआ कि सब लिखनापढ़ना छोड़ दें और डिगरी कालेज की लेक्चररी में ही अपनी जिंदगी काट दें. पर लिखने का कीड़ा जिसे काटता है वही जानता है. इस के काटने के दर्द में कितना मजा होता है.

जब भी श्रीमतीजी हमें लिखता हुआ देखतीं तो मुंह बिचका कर निकल जातीं, जैसे हम न जाने कितना घटिया और मनहूस काम कर रहे हों. उस समय श्रीमतीजी की नजर में हम स्वयं को कितना लज्जित महसूस करते, उस का वर्णन करना मुश्किल है. इस अपमान से बचने का हमारे पास एक ही रास्ता बचा था कि श्रीमतीजी की नजरों से बच कर चोरीछिपे लिखा जाए.

एक दिन ऐसा हुआ कि हम ने अपना सीना कुछ चौड़ा महसूस किया. हुआ यह कि 2 रचनाओं के चैक एकसाथ आ गए. इन चैकों की रकम इतनी थी कि श्रीमतीजी की पसंद की साड़ी आराम से आ सकती थी. हम ने श्रीमतीजी को मस्का लगाते हुए कहा, ‘‘लो महारानीजी, तुम्हारी साड़ी आ गई.’’

साड़ी का नाम सुनते ही श्रीमतीजी ऐसे दौड़ी चली आईं जैसे भूखी लोमड़ी को अंगूरों का गुच्छा लटका नजर आ गया हो. आते ही चहकीं, ‘‘कहां है साड़ी? लाओ, दिखाओ?’’

हम ने दोनों चैक श्रीमतीजी को पकड़ा दिए. श्रीमतीजी ने दोनों चैकों की धनराशि देखी और थैंक्यू बोलते हुए हमारे गाल पर एक प्यारी चिकोटी काट ली. हम इस प्यारी चिकोटी से ऐसे निहाल हो गए जैसे हमें साहित्य अकादमी का साहित्यरत्न अवार्ड मिल गया हो.

हमें एकबारगी यह ख्वाब आया कि श्रीमतीजी यह तो पूछेंगी ही कि किन रचनाओं से यह धनराशि प्राप्त हुई है. लेकिन उन्होंने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई. बस, कसी हुई नजर से इतना कहा, ‘‘जहां से ये चैक आए हैं वहीं रचना भेजा करो. मुफ्त वालों के लिए लिखने की जरूरत नहीं है.’’

हम मान गए कि श्रीमतीजी को हमारी रचनाओं से मतलब नहीं, उन की नजर सिर्फ आने वाले चैकों पर है.

इस के बाद जब कभी भी पोस्टमैन आता तो हम से पहले श्रीमतीजी उस के दर्शन के लिए पहुंच जातीं. एक दिन पोस्टमैन की आवाज आते ही श्रीमतीजी रसोई से दौड़ती हुई दरवाजे पर पहुंचीं. हम भी चहलकदमी करते हुए श्रीमतीजी  के पीछेपीछे दरवाजे तक पहुंचे.

पोस्टमैन बोला, ‘‘बाबूजी, आप का मनीऔर्डर है.’’

श्रीमतीजी हमें बिना कोई अवसर दिए तुरंत बोलीं, ‘‘कितने का है?’’

‘‘मैडमजी, 50 रुपए का.’’

‘‘क्या? क्या कहा, 50 रुपए का?’’ श्रीमतीजी ऐसे मुंह बना कर बोलीं जैसे पोस्टमैन से बोलने में गलती हो गई हो.

हम ने स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘‘अरे भाई, ठीक से देखो. आजकल 50 रुपए कोई नहीं भेजता, 500 रुपए का होगा.’’

हमारे कहने पर पोस्टमैन ने एक बार फिर से मनीऔर्डर को देखा. धनराशि अंकों में देखी, शब्दों में देखी. फिर आश्वस्त हो कर बोला, ‘‘बाबूजी, 50 रुपए का ही है.’’

जैसे ही पोस्टमैन ने 50 रुपए का नोट निकाल कर श्रीमतीजी की ओर बढ़ाया तो वे खिन्न हो कर बोलीं, ‘‘यह दौलत इन्हीं को दे दो, बच्चे टौफी खा लेंगे.’’

पोस्टमैन ने व्यंग्यात्मक मुसकराहट के साथ वह 50 रुपए का नोट हमारी ओर बढ़ा दिया. मेरे लिए तो वह 50 रुपए का नोट भी किसी पुरस्कार से कम नहीं था. लेकिन श्रीमतीजी के खिन्नताभरे व्यंग्यबाण और पोस्टमैन की व्यंग्यात्मक हंसी ऐसी लग रही थी जैसे हिंदी का लेखक दीनहीन, गयागुजरा और फालतू का प्राणी हो जिस को कई प्रकार से अपमानित किया जा सकता हो और बड़ी आसानी से मखौल का पात्र बनाया जा सकता हो.

उस दिन श्रीमतीजी की नजर में हम 50 रुपए के आदमी बन कर रह गए थे.

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