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Education और Carrier को लेकर पितापुत्र में मतभेद , हल क्या है

टैक्नालौजी के चलते दुनिया बहुत तेजी से बदल रही  है और एक अनिश्चितता हर किसी के सामने मुंहबाए खड़ी है कि आने वाला वक्त कैसा होगा. इस का असर पिता और पुत्र के रिश्ते पर भी अलगअलग तरीके से पड़ा है

जैसेजैसे टैक्नालौजी जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा बनती जा रही है वैसेवैसे कई सहूलियतों के साथसाथ अनिश्चितताएं भी बढ़ती जा रही हैं. किसी को भी यह अंदाजा नहीं है कि आने वाला वक्त कैसा होगा. दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि लोग, खासतौर से युवा, भविष्य तो क्या वर्तमान को भी ठीक से नहीं देख व समझ पा रहे हैं. हालांकि, कुछ भी समझने के लिए युवा अब किसी पर निर्भर नहीं रह गए हैं, पिता पर तो न के बराबर, इसलिए नहीं कि पिता पर उन्हें भरोसा नहीं बल्कि इसलिए कि उन्हें यह लगता है कि अपनी एजुकेशन और कैरियर के बारे में वे खुद बेहतर फैसला ले सकते हैं.

वह दौर अब गया जिस में पिता यह तय करता था कि बेटे को क्या बनना है. शिक्षा और कैरियर के लिए बेटे की इच्छा, राय या इंट्रैस्ट के कोई माने नहीं होते थे. हाईस्कूल तक आतेआते उसे हुक्म सुना दिया जाता था कि तुम्हें यह या वह बनना है. बेटा भी श्रवण कुमार की तरह तनमनधन से इस हुक्म की तामील में लग जाता था फिर चाहे कामयाब हो या न हो और अकसर उस के हाथ असफलता ही लगती थी.

अगर ऐसा नहीं होता तो देश डाक्टरों, इंजीनियरों (आजकल सरीखे नहीं) और आईएएस अफसरों से भरा पड़ा होता, जबकि सरकारी नौकरियों में क्लर्कों, पटवारियों और शिक्षकों की भरमार है. ये ही अतीत के वे लाडले हैं जिन का कैरियर पिताओं ने तय किया था. भोपाल के वल्लभभवन के एक सरकारी महकमे में कार्यरत एक क्लर्क दिनेश सक्सेना की मानें तो उन के शिक्षक पिता की बड़ी इच्छा थी कि मैं डाक्टर बनूं, जिस से समाज और रिश्तेदारी में उन का नाम ऊंचा हो और वे फख्र से कह सकें कि देखो, मेरा बेटा डाक्टर है.

उस दौर के दूसरे पुत्रों की तरह दिनेश ने दिनरात मेहनत की लेकिन हर बार प्री मैडिकल टैस्ट में नाकाम होते गए. 3 अटैम्प्ट के बाद जब उन्हें और पिता को यह ज्ञान प्राप्त हो गया कि इन से न हो सकेगा तो झख मार कर क्लर्की कर ली. वह भी यों ही बैठेबिठाए नहीं मिल गई बल्कि खूब एडियां रगड़नी पड़ीं और ग्रेजुएशन के बाद 3 साल पापड़ बेलना पड़े. अब दिनेश उन पिताओं की जमात में शामिल हैं जो विधाता की तरह अपने पुत्र की तकदीर नहीं लिख रहे. खुद बेटे ने ही कंप्यूटर इंजीनयरिंग से बीटैक किया और अब बेंगलुरु की एक सौफ्टवेयर कंपनी में 18 लाख रुपए सालाना के पैकेज पर नौकरी कर रहा है.

पिता पुत्र में अपना अक्स देखता है और उस के जरिए अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी करना चाहता है, यह बात या धारणा कोई 3 दशकों पहले ही दम तोड़ चुकी है. अब अपवादस्वरूप भी ऐसा नहीं होता कि पिता बेटे पर शिक्षा या कैरियर को ले कर अड़े कि तुम्हें यह या वह बनना है लेकिन हैरत की बात यह भी है कि कोई पिता अपने बेटे को दुनिया की दौड़ में पिछड़ते नहीं देखना चाहता. इन दिनों सब से बड़ा खर्च संतान की महंगी होती पढ़ाई है जिस में कटौती, बचत या किफायत की कोई गुंजाइश ही नहीं.

यह महज इत्तफाक की बात है कि 3 दशकों में ही टैक्नालौजी जिंदगी का हिस्सा बनी और इसी दौरान घरपरिवारों की बनावट भी बदली. अब दौर एकल परिवारों का है जिन में पिता का रोल फाइनैंसर का ज्यादा हो गया है. कई मानों में बेटे को बाप आउटडेटेड लगने लगा है. धार्मिक मान्यताओं को ले कर हर दौर में पितापुत्र के बीच मतभेद रहे हैं लेकिन अब ये समझौते में तबदील होने लगे हैं. बेटा पूजापाठी पिता की आस्था पर झिकझिक नहीं करता तो पिता बेटे की एजुकेशन और कैरियर में दखल नहीं देता. यह समझौता कोई हर्ज की बात भी नहीं है क्योंकि इस से बेटे को अपनी राह चुनने की आजादी मिल रही है. इस आजादी की अच्छी बात यह है कि अभी तक बहुत ज्यादा नुकसानदेह साबित नहीं हुई है.

दरअसल, बेटा बहुत जल्द आने वाले वक्त और हालात को भांपने लगा है लेकिन अब वह भी गफलत में है. दरअसल, इन दिनों जो बदलाव टैक्नोलौजी में आ रहा है वह क्या गुल खिलाएगा, इस का अंदाजा लगाया ही नहीं जा सकता. अब स्कूली शिक्षा बेमानी होती जा रही है क्योंकि 45 गुणा 325 अब स्कूल में सीखने की जरूरत नहीं है, हर हाथ में मोबाइल से चलने वाला कैलकुलेटर है. कल को मैथमेटिक्स की जटिल इन्वेंश्ने भी एआई सैकंडो में कर देगा तो गणित की विलक्षणता के पैसे किसे मिलेंगे. एआई वाली दुनिया बिलकुल अलग हो सकती है जिस का वैज्ञानिकों को अंदाजा नहीं, तो फिर मांबाप को कैसे होगा. सो, वे अपने पुराने फार्मूले बच्चों पर न थोपें तो ही सही है.

दिक्कत तो यह है कि पिता के पैमाने अभी भी लगभग पुरातन और पौराणिक हैं. पिता आमतौर पर रिस्क उठाने और नया कुछ करने या अपनाने से कतराता है. लेकिन बेटा नहीं, जिसे नो रिस्क नो गेन की पौलिसी ही स्वीकार्य नहीं. मिसाल एक मझोली किराने की दुकान की लें तो पिता को डिजिटल तराजू से भी परहेज था और नएनए सौफ्ट्वेयरों से भी वह बचने की कोशिश करता दिखता रहा.

भोपाल के शाहपुरा इलाके की एक खासी चलती किराने के दुकान का उदाहरण लें तो जब यह तय हो गया कि पिता के साथ पुत्र भी इस कारोबार में हाथ बंटाएगा तो 2-3 साल में ही दुकान का नक्शा बदल गया. बेटे ने लेजर की जगह कंप्यूटर को प्राथमिकता दी जिस से काम आसान होता गया.

इस दुकान में 6 कर्मचारी काम करते हैं जिन की निगरानी के लिए बेटे ने अंदरबाहर सीसीटीवी कैमरे लगवाए और जितना हो सकता था, दुकान का आधुनिकीकरण कर डाला. औनलाइन कंपनियों की तर्ज पर उस ने सामान की होम डिलीवरी भी शुरू करवा दी. अब कोई 40 फीसदी ग्राहक व्हाट्सऐप पर लिस्ट भेजते हैं जिन्हें वक्त रहते सामान घरबैठे मिल जाता है और पेमैंट भी औनलाइन आसानी से हो जाता है

शुरू में पिता इस से सहमत नहीं थे. लेकिन ज्यादा एतराज उन्होंने नहीं जताया क्योंकि बेटा एमबीए था और उन के कहने पर ही कुछ शर्तों पर उस ने बाहर नौकरी करने के बजाय अपना पैतृक व्यवसाय करना मंजूर कर लिया था. 3 साल में ही दुकान का टर्नओवर डेढ़गुना हुआ तो पिता ने भी मान लिया कि अब व्यापार में टैक्नोलौजी इस्तेमाल करना जरूरी हो गया है. इस से अगर लागत बढ़ती है तो आमदनी में भी इजाफा होता है. प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए परंपराएं तो छोडनीतोडनी  ही पड़ेंगी.

कुछ पारिवारिक और सामाजिक  कारणों से नाम न छापने के आग्रह पर यह बेटा, नाम मान लें रोहित, बताता है कि यह दुकान हमारे दादाजी की खड़ी की हुई है. मैं चाहता तो बाहर कहीं नौकरी भी कर सकता था लेकिन उस से यह दुकान बंद हो जाती. हमारे आसपास की कुछ दुकानें इसीलिए बंद हो चुकी हैं और कई बंद होने की कगार पर हैं क्योंकि उन्हें पिछली पीढ़ी ही संभाल रही है जो अपडेट नहीं हो पाती. मेरे पापा न मानते तो मैं भी किसी कंपनी की नौकरी कर लेता लेकिन मैं ने अपने कारोबार का मालिक बनना पसंद किया क्योंकि इस में पैसा भी ज्यादा है और भविष्य भी सुरक्षित है.

बकौल रोहित, ऐसा हर छोटे व्यापार में हो रहा है कि शिक्षित हो गए युवा अपना पैतृक धंधा नहीं संभाल रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने मुताबिक काम करने की आजादी पिता नहीं दे रहे. वे कहते हैं जब तक मैं हूं तब तक कोई बदलाव मत करो. जब मैं मर जाऊं तो जो चाहे करते रहना. यह एक फ़िल्मी और इमोशनल ब्लेकमेलिंग वाली बात है. रोहित कहता है, ‘अगर पिता बेटे को आजादी दे तो वह बेहतर कर दिखा सकता है, फिर बात चाहे शिक्षा की हो, कैरियर की हो या व्यापार की. मौका और आजादी तो नई पीढ़ी को मिलने ही चाहिए.’

बातों ही बातों में रोहित एक संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण सवाल यह खड़ा कर देता है कि जो युवा बजाय पैतृक व्यवसाय हंभालने के, पढ़लिख कर नौकरी की तरफ भाग रहे हैं, क्या वे गलत नहीं कर रहे हैं और क्यों उन के पेरैंट्स चाहते हैं कि बेटा उन का पुश्तैनी कारोबार न संभाले.

दरअसल, यह छोटे और घटिया समझे जाने वाले धंधों में ज्यादा हो रहा है. मसलन, कोई नाई नहीं चाहता कि उस का बेटा लोगों की कटिंग करने और दाढ़ी बनाने जैसा निकृष्ट समझा जाने वाला काम करे. इसलिए उस की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बेटा पढ़लिख कर कहीं छोटीमोटी नौकरी कर ले. धोबी, बढ़ई, लुहार, माली और मोची भी यही चाहते हैं. बिलाशक, यह जाति आधारित बात या विसंगति है जिस का कोई इलाज या समाधान किसी के पास नहीं. लेकिन हो यह रहा है कि इन के बेटे किसी जोमैटो या स्वीगी में डिलीवरी बौय बन कर 10-15 हजार रुपए की ही नौकरी कर पा रहे हैं या इतनी ही सैलरी पर सिक्योरटी गार्ड बने 40-45 वर्ष की उम्र के बाद को ले कर चिंतित और तनावग्रस्त हैं. अग्निवीरों की हालत भी इन से जुदा नहीं कही जा सकती. ये सब के सब सिरे से जातिगत गुलामी नए तरीके से कर रहे हैं. फिर पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या? यह बात न तो पिता सोच रहा और न ही पुत्र सोच पा रहा. उलट इस के, हकीकत यह है कि इन्हें टैक्नोलौजी से और टैक्नोलौजी से इन को एक साजिश के तहत दूर रखा गया.

यहां जरूर दोनों पीढ़ियां द्वंद्व और असमंजस का शिकार लगती हैं. लेकिन अहम बात इस में पिता का रोल है जो चाह कर भी बेटे का भविष्य नहीं संवार पा रहा और बेटा जब अपने ध्वस्त होते सपनों और भविष्य को देखता है तो डिप्रैशन में आ जाता है और यही उस की नियति है.

 

 

  नरेंद्र मोदी ‘मास्को’ बनाम  राहुल गांधी ‘मणिपुर’ 

एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मॉस्को के लिए पंहुचे और दूसरी ओर राहुल गांधी मणिपुर.  एक तरफ राहुल गांधी मणिपुर में पीड़ित  लोगों के आंसू पोंछ रहे हैं और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी मास्को में सर्वोच्च सम्मान ले रहे हैं. यह कैसा संयोग है कि अपने देश मणिपुर में आग लगी हुई है दो समुदाय आपस में हिंसा का रास्ता अपनाए हुए हैं वहां शांति कायम करने की बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रवाना हो गए हैं रूस ….! सारी दुनिया जानती है कि पुतिन के नेतृत्व में यूक्रेन के साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है. यह कैसी विसंगति है, बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नरेंद्र मोदी का यह व्यवहार क्या मानवता के खिलाफ नहीं है.

कांग्रेस ने  कटाक्ष करते हुए कहा – विपक्ष के नेता राहुल गांधी मणिपुर की तीसरी बार यात्रा कर रहे है और पीएम मोदी हिंसा से प्रभावित राज्य का दौरा करने के लिए कुछ घंटों का भी समय नहीं है. कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने पीएम मोदी को गैर-जैविक प्रधानमंत्री करार दिया है.    कांग्रेस नेता राहुल गांधी मणिपुर पहुंच गए और वहां से उन्होंने जो संदेश दिया है वह सरकार के लिए कुछ करने का सन्देश है. केंद्र सरकार को यह नहीं समझना चाहिए कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी की कोई भी गतिविधि सरकार के खिलाफ है उसे यह समझना चाहिए कि यह देश के हित में है और जब सत्ता और विपक्ष एक दृष्टि से काम करेंगे तो देश का भला है.

 

 राहुल का रास्ता या राजमार्ग
राहुल गांधी के दौरे से पहले केंद्र सरकार अलर्ट हो गई और उसके निर्देश पर  मणिपुर के जिरीबाम जिले में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई और ड्रोन के जरिए फोटोग्राफी पर प्रतिबंध लगा दिया गया.

जिरीबाम जिला मजिस्ट्रेट द्वारा रविवार को जारी एक अधिसूचना में कहा गया – सुरक्षा उपायों को बढ़ाते हुए ड्रोन, गुब्बारे या किसी अन्य माध्यम से हवाई फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी पर सख्त प्रतिबंध लगाया गया.

अधिसूचना में इस बात पर जोर दिया गया कि इस आदेश का उल्लंघन करने पर भारतीय न्याय संहिता की धारा 223 और कानून के अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के तहत कानूनी कार्रवाई की जाएगी. हिंसा प्रभावित राज्य में गांधी के एक दिवसीय दौरे की तैयारी के तहत कार्यकारी अध्यक्ष विक्टर कीशिंग और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआइसीसी) के मणिपुर प्रभारी गिरीश चूडांकर सहित कांग्रेस की राज्य इकाई के नेताओं के एक दल ने उन राहत शिविरों का निरीक्षण किया, जहां शंगांधी के जाने की संभावना है.

 

कांग्रेस की मणिपुर इकाई के अध्यक्ष कैशम मेघचंद्र और पार्टी के अन्य पदाधिकारी अपने नेता का स्वागत करने के लिए पहले ही इंफल से जिरीबाम जिले के लिए रवाना हो चुके हैं. इससे पूर्व दिन में मणिपुर के कांग्रेस नेताओं ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के राज्य के दौरे को लेकर चर्चा की.

 राहुल गांधी ने मणिपुर का दौरा किया और जिरीबाम, चुराचांदपुर तथा इंफाल में हिंसा प्रभावित लोगों से मुलाकात कर बातचीत की. वह राज्य के लोगों के साथ पूरा दिन बिताया. कांग्रेस के एक नेता ने कहा, ‘गांधी ने मणिपुर का दौरा कर शांति शांति  की पहल की है। हम आभारी हैं कि उन्होंने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष चुने जाने के बाद प्रदेश का दौरा करने का फैसला किया. राहुल गांधी की तीसरी मणिपुर यात्रा पर सारपूर्ण बात कही – जयराम रमेश ने सारगर्भित बात कही-  ‘गैर-जैविक’ प्रधानमंत्री को हिंसा प्रभावित मणिपुर का कुछ घंटों के लिए भी दौरा करने का समय नहीं मिला है, जबकि लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की पूर्वोत्तर राज्य की यात्रा एक साल से अधिक समय में उनकी तीसरी यात्रा है .

 

दरअसल नेता प्रतिपक्ष बनने और राज्य की दोनों लोकसभा सीटें जीतने के बाद राहुल गांधी पहली बार मणिपुर पंहुचे. कांग्रेस ने सोशल मीडिया मंच एक्स पर एक पोस्ट में कहा, -‘हिंसा के बाद मणिपुर की उनकी यात्रा लोगों के मुद्दों के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाती है.’ पिछले साल तीन मई को मणिपुर में जातीय हिंसा भड़कने के कुछ हफ्ते बाद गांधी ने पहली बार मणिपुर का दौरा किया था. उन्होंने जनवरी, 2024 में राज्य से अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ भी शुरू की थी.

लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी  ने सबसे पहले जिरीबाम उच्च माध्यमिक विद्यालय में स्थापित राहत शिविर का दौरा किया. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के. मेघचंद्र ने संवाददाताओं को बताया- जिरीबाम के लोगों ने गांधी को अपने अनुभवों के बारे में बताया. मेघचंद्र ने कहा – उन्होंने यह भी पूछा कि उन्हें किस चीज की जरूरत है. लड़की ने राहुल गांधी से कहा कि न तो प्रधानमंत्री और न ही मुख्यमंत्री उनसे मिलने आए हैं.उसने गांधी से यह मामला संसद में उठाने का भी आग्रह किया.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा – जिरीबाम में हजारों की संख्या में लोग गांधी का स्वागत करने आए और उनमें से कई लोग उनसे बात करते हुए रो पड़े. मणिपुर के लोगों के आंसू यह संदेश देते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मास्को यात्रा कितना बड़ा  छलावा है . कितना अच्छा होता कि प्रधानमंत्री मणिपुर जाते और वहां की समस्या चुटकियों में खत्म करते. 

 

घर के बाहर लगा नोटिस बोर्ड

हम ने घर के दरवाजे पर खड़े तीनों पुलिस वालों की ओर एक नजर बारीबारी से देखा.

‘‘यों उल्लू की तरह आंखें न घुमा… हमारे साथ थाने चल,’’ नुकीली मूंछों वाले एक कांस्टेबल ने कहा.

‘‘थाने में…’’ हम ने हैरानी से पूछा.

‘‘थाने नहीं तो क्या

हम तुझे होटल ले कर चलेंगे,’’ बड़ी दबंग आवाज में सबइंस्पैक्टर गुर्राया.

‘‘मगर, मेरा कुसूर क्या है?’’ हम ने सवाल किया.

‘‘बताऊं तेरा कुसूर…’’ सबइंस्पैक्टर फिर से गुर्राया.

हमारा कुसूर केवल इतना था कि महेशजी की बात मान कर ‘किराए के लिए खाली’ का बोर्ड लिखवाने के साथसाथ अपने नए मकान के कोने वाली दीवार पर पेंटर से ‘यहां पेशाब करना मना है’ भी लिखवा दिया था. फिर तो मुसीबतों का सिलसिला शुरू हो गया था. दूसरे दिन जब हम किसी किराएदार की राह ताकने को अपने मकान पर पहुंचे तो देखा कि कोने वाली दीवार के पास की धरती बगैर बारिश के गीली थी. जगहजगह लंबीलंबी धारें बनी हुई थीं. हम अभी दीवार पर लिखी मनाही वाली चेतावनी पढ़ ही रहे थे कि एक महाशय जल्दी से आए और हम से थोड़ा हट कर पीठ फेर कर बैठ गए.

‘‘अरेअरे रुको… यह क्या कर रहे हो?’’ हम चिल्लाए.

उन्होंने खुद रुकने के बजाय हमें हाथ से रुकने का इशारा किया और कुछ देर बाद काम निबटा कर मुसकराते हुए हमारे सामने खड़े हो गए.

‘‘आप ने पढ़ा नहीं, यह क्या लिखा है?’’ हम ने दीवार की ओर उंगली उठा कर इशारा किया.

‘‘भाई साहब, आप के इस नोटिस बोर्ड को पढ़ कर ही मुझे एहसास हुआ कि मैं ने काफी देर से यह ‘नेक’ काम नहीं किया. इस नोटिस को पढ़ने के बाद मुझे अपनेआप पर काबू रखना मुश्किल हो गया,’’ उन्होंने दांत निकालते हुए बेशर्मी से कहा. उस दिन हम ने देखा कि न जाने कहांकहां से लोग आआ कर हमारे घर की दीवार की सिंचाई करते रहे. कुछ तो इतने बेशर्म निकले कि रिकशा रुकवा कर हमारी दीवार तर कर गए. शाम को हम ने महेशजी से इस बारे में बात की, तो वह पेंटर से मिलने फौरन ही चले गए. दूसरे दिन हमारी दीवार पर लिखा था, ‘यहां कुत्ते पेशाब करते हैं’. फिर तो दीवार के सामने कई पालतू और आवारा कुत्ते लाइन में लगे अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे.

थोड़े ही फासले पर कुछ साहब टाइप लोग अपने हाथों में कुत्तों की जंजीरें लटकाए गपशप कर रहे थे.

हमें देखते ही एक साहब हमारे करीब आए और बोले, ‘‘जैंटलमैन, आप ने हम लोगों की बहुत बड़ी समस्या हल कर दी है.’’

‘‘जी… क्या…’’ हम ने कुछ न समझते हुए कहा.

‘‘महल्ले वालों को पार्क में कुत्तों को घुमाने पर बहुत एतराज था, मगर आप ने सब का मुंह बंद कर दिया.’’

हमारा दिल चाहा कि उन के हाथ से कुत्ते का पट्टा छीन कर उन के गले में डाल कर उन को दीवार के पास ले जाएं और कहें कि अपने कुत्ते के साथसाथ आप भी अपना शौक पूरा कर लें. मगर कुत्तों और उन के मालिकों की तादाद देख कर मन मसोस कर रह जाना पड़ा. शाम को हम ने फिर महेशजी के घर का दरवाजा खटखटाया. वे उसी समय अपना स्कूटर निकाल कर पेंटर की दुकान की ओर उड़ चले. अगले दिन जब हम ने दीवार पर नजर डाली, तो वहां लिखा था, ‘गधे के पूत, यहां मत मूत’. हम महेशजी की अक्ल पर गर्व कर उठे और इस मुसीबत से छुटकारा पा कर दिल ही दिल में खुश होने लगे.

हम पूरी तरह खुश भी न होने पाए थे कि एक हट्टेकट्टे पहलवान टाइप साहब गुस्से से आंखें लाल किए मुंह से झाग छोड़ते हुए आए और हमारी कमीज का कौलर खींच कर बोले, ‘‘तुम ने मुझे गाली क्यों दी?’’

‘‘पहलवानजी, मैं ने तो आप को कभी देखा तक नहीं. आप को गलतफहमी हुई है,’’ कहते हुए हम ने कौलर छुड़ाने के लिए जोर मारा, तो कौलर चर्र से फट गया. वे साहब हमें कौलर से पकड़ कर खींचते हुए दीवार के पास ले आए और दहाड़े, ‘‘तुम ने मुझे गाली बक कर नहीं, लिख कर दी है,’’ और दीवार पर लिखे नोटिस की ओर इशारा किया. हम ने एक नजर नोटिस बोर्ड पर और दूसरी दीवार के पास ताजाताजा बनी बलखाती लकीर की ओर डाली. उस के बाद उन की ओर देखा और कहा, ‘‘तो आप यहां बैठे ही क्यों थे? पढ़ेलिखे हो कर जाहिलों जैसी हरकत क्यों की?’’

‘‘पढ़ने की फुरसत किसे थी और जब पढ़ा तो देर हो चुकी थी.’’

‘‘आगे से पहले ही पढ़ लिया करना,’’ हम ने कहा.

‘‘आगे से पढ़ने की नौबत ही नहीं आएगी,’’ उन्होंने कहा. फिर पास पड़ा हुआ ईंट का टुकड़ा उठा कर दीवार पर लिखे नोटिस को रगड़रगड़ कर बिगाड़ने के बाद वे चले गए. हम ‘अरेअरे’ कहते रह गए. शाम को महेशजी हमारा हाल और अपने ‘नोटिस’ का कमाल जानने के लिए आए और दीवार पर नजर डालते ही सब समझ गए. उन्होंने हमें स्कूटर के पीछे बिठाया और पेंटर की दुकान की तरफ चल दिए. अगले दिन दीवार पर नया नोटिस था, जिस में ‘इस जगह पर…’ के साथ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी भी लिखी थी.

‘‘अब यहां सब ठीक रहेगा,’’ कह कर महेशजी ने हमारा कंधा थपथपाया.

उसी समय स्कूटर पर सवार कोई अपटूडेट नौजवान आया और स्कूटर को स्टैंड पर लगा कर हमारी और महेशजी की ओर पीठ फेर कर दीवार के पास जा कर चालू हो गया. हम ने महेशजी का कंधा हिला कर उन्हें उस स्कूटर वाले की ‘हरकत’ दिखाई. वह हमारा हाथ थाम कर उस के स्कूटर के पास जा कर खड़े हो गए. वह नौजवान मुसकराता हुआ हमारे पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘क्यों भाई, तुम ने वह चेतावनी नहीं पढ़ी?’’ हम ने सख्ती से पूछा.

‘‘तुम्हें मालूम है कि तुम्हारे खिलाफ कानूनी कार्यवाही हो सकती है. तुम्हें पुलिस के हवाले किया जा सकता है…’’ महेशजी गुर्राए, ‘‘तुम गिरफ्तार किए जा सकते हो.’’

‘‘भाई साहब, मैं खुद पुलिस में हूं,’’ कह कर वह मुसकराया, ‘‘मैं आप से यह जानना चाहता हूं कि अगर आप किसी ऐसे मुलजिम को हमारे पास ले कर आते हैं, तो हम लोग उस के खिलाफ कौन सी धारा लगाएं?’’

महेशजी हमारी तरफ और हम महेशजी की तरफ ताकने लगे. वह पुलिस वाला अपने स्कूटर को ‘किक’ मार कर सवार हो गया और हाथ हिलाते हुए चल दिया.

‘घबराओ नहीं, इस बार ऐसा नोटिस लिखवाऊंगा कि कोई भी आप की दीवार के पास बैठने की जुर्रत नहीं करेगा,’’ कह कर महेशजी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया. अगले दिन दीवार पर नया नोटिस था, ‘यहां पर छिपे हुए मूवी कैमरे से आप की फिल्म उतारी जा रही है’. इस नोटिस ने सचमुच कमाल का काम किया. हम ने कई लोगों को दीवार के पास आते, वहां बैठते और फिर नोटिस पर नजर पड़ते ही एकदम से उठ कर भागते हुए देखा. हम लोगों की बदहवासियों पर मुसकराते हुए महेशजी की अक्ल की दाद देने लगे. ‘‘ऐ भाई… क्या सोच रहा है? दरवाजे को ताला लगा और हमारे साथ थाने चल,’’ एक कांस्टेबल ने हमें पुरानी यादों से झकझोरा.

‘‘मगर, मेरा कुसूर क्या है?’’

‘‘कुसूर पूछता है?’’ सबइंस्पैक्टर ने हमारी ओर देखते हुए कहा, फिर अपने साथ खड़े कांस्टेबल की ओर मुंह फेरा, ‘‘मांगेराम, इस का कुसूर बता तो.’’

‘‘तेरा कुसूर यह है…’’ मांगेराम ने कहा, ‘‘कि तू ब्लू फिल्में बनाता है.’’

‘‘ब… ब्लू फिल्में. यह क्या कह रहे हैं आप?’’ हम ने हैरानी से कहा.

‘‘हम नहीं कहते…’’ दूसरे कांस्टेबल ने गरदन हिलाई.

‘‘तो फिर किसी ने आप को सरासर गलत सूचना दी है,’’ हम ने समझाया.

‘‘अरे, गलती किसी और को पढ़ाना. अपने घर की दीवार पर इतना बड़ा इश्तिहार लगवा रखा है और कहता है कि हमें गलत सूचना मिली है. तू थाने चल, तेरी गलती हम सुधारेंगे,’’ कह कर सबइंस्पैक्टर ने हमें धकेल दिया.

LOVE के साइड इफैक्ट्स

प्यार से भी प्यारा होता है प्यार का एहसास. प्यार करने वालों का अंगअंग इस जादुई एहसास में सराबोर हो जाता है और वे सब के बीच हो कर भी सब से अलग नजर आते हैं.

आइए, पहचानें प्यार करने वालों को :

हर पल होंठों पर मुसकराहट रहती है और यह मुसकराहट इन की आंखों में भी दिखती है.

पलकें भी चमक उठती हैं, सोते में हमारी, आंखों को अभी ख्वाब छिपाने नहीं आते.

हर इंसान अच्छा लगने लगता है, हर चीज में खूबसूरती नजर आती है.

वह अभी इस तरफ से गुजरा है, यह जमीन आसमान सी लगती है.

नींद कम आती है मगर देर तक लेटे रहने का मन करता है.

तबीयत घबराती है जब सुनसान रातों में, हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं.

हर आहट पर दिल धड़क जाता है. आहट सी कोई आए, तो लगता है कि तुम हो,

साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो.

मोबाइल सच्चा साथी, हमदर्द, हमराज बन जाता है.

एक पल भी किसी और के हाथ लग जाए तो राज फाश होने के डर से दिल धड़क जाता है.

मोबाइल के लिए यह कहने को दिल करता है :”मेरे हमसफर मेरे साथ तुम, सभी मौसमों में रहा करो,
कभी दर्द बन कर उड़ा करो, कभी बूंद बन कर गिरा करो.

आदतें, व्यवहार, पसंदनापसंद में बदलाव नजर आता है क्योंकि खुद को प्रेमी के अनुसार ढालने की कोशिश जो होती है,
                                                                     इश्क सुनते थे जिसे हम, वह यही है शायद,
खुद ब खुद दिल में, एक शख्स समा जाता है.

सोशल गैदरिंग से दूर रहते हैं. तनहाई पसंद आने लगती है.

मैं जब उन के खयालों में खो भी जाती हूं, वह खुद भी बात करें तो बुरा लगता है मुझे.

आईने से दोस्ती हो जाती है. झल्ली सी दिखने वाली लड़की भी अपने लुक को ले कर अलर्ट हो जाती है.

ड्रैसेज, ब्यूटी/हेयर ट्रीटमैंट व ऐक्सैसरीज के बारे में अपडेट रहने लगती है. – याद कीजिए कुछकुछ होता है, फिल्म की टौम बौय काजोल में भी ऐसा ही कुछ बदलाव आया था. जरा उलझी लटें संवार लूं, हर अंग का रंग निखार लूं, कि मैं तो सज गई रे, सजना के लिए.

प्यार से लबरेज शख्स बेहद खूबसूरत, बेहद हसीन नजर आने लगता है. बेखबर थे उमर के तकाजों से हम, आज जाना कि सचमुच शबाब आ गया. हर पल वे खोएखोए से रहते हैं.

खुद से बातें करते, खुद में गुम, किसी के साथ होते हुए भी अकेले, पर अकेले में भी तनहा नहीं रहते.

तो ये हैं कुछ निशानियां प्यार करने वालों की. तो करते रहिए प्यार मगर प्यार से.

भारत की विदेश नीति के ताबूत में एक और कील

इटली के शहर अपूलिया में जी-7 की मीटिंग के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जी-7 की मुख्य गोल मेज पर बैठने का मौका तो नहीं मिला और उन्होंने न ही उन्होंने किसी समझौते पर संयुक्त हस्ताक्षर किए लेकिन जी-7 के दिग्गजों के साथ फोटो खिंचवाने और उन से हाथ मिलाने का मौका अवश्य मिला चाहे इस का कोई फायदा कुछ न हुआ सिवा इस के कि एक फोटो में नरेंद्र मोदी सभी आमंत्रित देशों के राष्ट्राध्यक्षों के बीच में खड़े थे. भक्त लोग इस फोटो से बहुत खुश हुए थे.
एक और फोटो जिस की चर्चा करते हुए भक्तों की मंडली इतराई थी वह 15 जून की थी जिस में प्रधानमंत्री कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से हाथ मिला रहे थे. उन के बीच क्या बात हुई या कुछ हुई भी नहीं, यह एक्स के अपने ट्वीट में नरेंद्र मोदी ने नहीं लिखा.
उस के 5 दिनों बाद ही जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व में कनाडा की संसद में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या पर सांसदों ने, जिस में कुछ भारतीय मूल के भी हैं, खड़े हो कर एक कनाडियन नागरिक की मौत पर शोक प्रकट किया. प्रस्ताव स्पीकर ग्रेग फर्गस द्वारा लाया गया था. निज्जर गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का प्रैसिडैंट था और भारतीय सूत्रों के अनुसार खालिस्तान समर्थक था. कनाडा सरकार का कहना है कि इस हत्या में विदेशी हाथ, यानी भारतीय हाथ है.

दिल्ली में हुए जी-20 सम्मेलन के दौरान नरेंद्र मोदी जस्ट्रिन ट्रूडो से बड़ी रूखाई से पेश आए थे और उन्हें 5 दिन अपने हवाई जहाज के खराब होने के कारण यहीं रुकना भी पड़ा था. इस के बावजूद 19 जून को कनाडा संसद में निज्जर संबंधी प्रस्ताव का आना और उसे समर्थक मिलना भारतीय विदेश नीति की असफलता की निशानी ही है.

‘मार डालेंगे’ वाली बात आखिरकार सफल नहीं होती. भिंडरावाले के मरने से खालिस्तान की समस्या हल नहीं हुई. ब्लू स्टार औपरेशन के बावजूद खालिस्तान की मांग खत्म नहीं हुई, उलटे, इंदिरा गांधी को अपनी जान से कीमत चुकानी पड़ी. उन के पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सिख नेता लोगोंवाल से समझौता कर के पंजाब को शांत किया और आज 50 वर्षों बाद भारत का पंजाब दूसरे देशों में बसे सिखों की खालिस्तान की मांग के बावजूद शांत है. अभी हाल में वहां चुनाव हुए. नरेंद्र मोदी की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली.

कनाडा के प्रधानमंत्री से मुलाकात का अर्थ यह तो होना चाहिए था कि कनाडा सरकार खालिस्तान समर्थकों को पूरा कंट्रोल करे. भारत में अपनी 56 इंच वाली कटटर छवि बनाने के लिए बुलडोजरों और एनकाउंटरों की नीति तब ही सफल मानी जा सकती है जब दूसरे देश भी उस छवि का आदर करें. जस्टिन ट्रूडो ने 4 दिन में इस हैंडशेक को ठुकरा कर भारत की विदेश नीति के ताबूत में एक और कील ठोंक दी है.

मुहब्बत: कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत

सरपट दौड़ती बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी. बस में सवार नेहा का सिर अनायास ही खिड़की से सट गया. उस का अंतर्मन सोचविचार में डूबा था. खूबसूरत शाम धीरेधीरे अंधेरी रात में तबदील होती जा रही थी. विचारमंथन में डूबी नेहा सोच रही थी कि जिंदगी भी कितनी अजीब पहेली है. यह कितने रंग दिखाती है? कुछ समझ आते हैं तो कुछ को समझ ही नहीं पाते? वक्त के हाथों से एक लमहा भी छिटके तो कहानी बन जाती है. बस, कुछ ऐसी ही कहानी थी उस की भी… नेहा ने एक नजर सहयात्रियों पर डाली. सब अपनी दुनिया में खोए थे. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें अपने साथ के लोगों से कोई लेनादेना ही नहीं था. सच ही तो है, आजकल जिंदगी की कहानी में मतलब के सिवा और बचा ही क्या है.

वह फिर से विचारों में खो गई… मुहब्बत… कैसा विचित्र शब्द है न मुहब्बत, एक ही पल में न जाने कितने सपने, कितने नाम, कितने वादे, कितनी खुशियां, कितने गम, कितने मिलन, कितनी जुदाइयां आंखों के सामने साकार होने लगती हैं इस शब्द के मन में आते ही. कितना अधूरापन… कितनी ललक, कितनी तड़प, कितनी आहें, कितनी अंधेरी रातें सीने में तीर की तरह चुभने लगती हैं और न जाने कितनी अकेली रातों का सूनापन शूल सा बन कर नसनस में चुभने लगता है. पता नहीं क्यों… यह शाम की गहराई उस के दिल को डराने लगती है…

एसी बस के अंदर शाम का धुंधलका पसरने लगा था. बस में सवार सभी यात्री मौन व निस्तब्ध थे. उस ने लंबी सांस छोड़ते हुए सहयात्रियों पर दोबारा नजर डाली. अधिकांश यात्री या तो सो रहे थे या फिर सोने का बहाना कर रहे थे. वह शायद समझ नहीं पा रही थी. थोड़ी देर नेहा यों ही बेचैन सी बैठी रही. उस का मन अशांत था. न जाने क्यों इस शांतनीरव माहौल में वह अपनी जिंदगी की अंधेरी गलियों में गुम होती जा रही थी. कुछ ऐसी ही तो थी उस की जिंदगी, अथाह अंधकार लिए दिग्भ्रमित सी, जहां उस के बारे में सोचने वाला कोई नहीं था. आत्मसाक्षात्कार भी अकसर कितना भयावह होता है? इंसान जिन बातों को याद नहीं करना चाहता, वे रहरह कर उस के अंतर्मन में जबरदस्ती उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूकतीं. जिंदगी की कमियां, अधूरापन अकसर बहुत तकलीफ देते हैं. नेहा इन से भागती आई थी लेकिन कुछ चीजें उस का पीछा नहीं छोड़ती थीं. वह अपना ध्यान बरबस उन से हटा कर कल्पनाओं की तरफ मोड़ने लगी.

उन यादों की सुखद कल्पनाएं थीं, उस की मुहब्बत थी और उसे चाहने वाला वह राजकुमार, जो उस पर जान छिड़कता था और उस से अटूट प्यार करता था.

नेहा पुन: हकीकत की दुनिया में लौटी. बस की तेज रफ्तार से पीछे छूटती रोशनी अब गुम होने लगी थी. अकेलेपन से उकता कर उस का मन हुआ कि किसी से बात करे, लेकिन यहां बस में उस की सीट के आसपास जानपहचान वाला कोई नहीं था. उस की सहेली पीछे वाली सीट पर सो रही थी. बस में भीड़ भी नहीं थी. यों तो उसे रात का सफर पसंद नहीं था, लेकिन कुछ मजबूरी थी. बस की रफ्तार से कदमताल करती वह अपनी जिंदगी का सफर पुन: तय करने लगी.

नेहा दोबारा सोचने लगी, ‘रात में इस तरह अकेले सफर करने पर उस की चिंता करने वाला कौन था? मां उसे मंझधार में छोड़ कर जा चुकी थीं. भाइयों के पास इतना समय ही कहां था कि पूछते उसे कहां जाना है और क्यों?’

रात गहरा चुकी थी. उस ने समय देखा तो रात के 12 बज रहे थे. उस ने सोने का प्रयास किया, लेकिन उस का मनमस्तिष्क तो जीवनमंथन की प्रक्रिया से मुक्त होने को तैयार ही नहीं था. सोचतेसोचते उसे कब नींद आई उसे कुछ याद नहीं. नींद के साथ सपने जुड़े होते हैं और नेहा भी सपनों से दूर कैसे रह सकती थी? एक खूबसूरत सपना जो अकसर उस की तनहाइयों का हमसफर था. उस का सिर नींद के झोंके में बस की खिड़की से टकरातेटकराते बचा. बस हिचकोले खाती हुई झटके के साथ रुकी.

नेहा को कोई चोट नहीं लगी, लेकिन एक हाथ पीछे से उस के सिर और गरदन से होता हुआ उस के चेहरे और खिड़की के बीच सट गया था. नेहा ने अपने सिर को हिलाडुला कर उस हाथ को अपने गालों तक आने दिया. कोई सर्द सी चीज उस के होंठों को छू रही थी, शायद यह वही हाथ था जो नेहा को सुखद स्पर्श प्रदान कर रहा  था. उंगलियां बड़ी कोमलता से कभी उस के गालों पर तो कभी उस के होंठों पर महसूस हो रही थीं. उंगलियों के पोरों का स्पर्श उसे अपने बालों पर भी महसूस हो रहा था. ऐसा स्पर्श जो सिर्फ प्रेमानुभूति प्रदान करता है. नेहा इस सुकून को अपने मनमस्तिष्क में कैद कर लेना चाहती थी. इस स्पर्श के प्रति वह सम्मोहित सी खिंची चली जा रही थी.

नेहा को पता नहीं था कि यह सपना था या हकीकत, लेकिन यह उस का अभीष्ट सपना था, वही सपना… उस का अपना स्वप्न… हां, वही सपनों का राजकुमार… पता नहीं क्यों उस को अकेला देख कर बरबस चला आता था. उस के गालों को छू लेता, उस की नींद से बोझिल पलकों को हौले से सहलाता, उस के चेहरे को थाम कर धीरे से अपने चेहरे के करीब ले आता. उस की सांसों की गर्माहट उसे जैसे सपने में महसूस होती. उस का सिर उस के कंधे पर टिक जाता, उस के दिल की धड़कन को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करती, दिल की धड़कन की गूंज उसे सपने की हकीकत का स्पष्ट एहसास कराती. एक हाथ उस के चेहरे को ठुड्डी से ऊपर उठाता… वह सुकून से मुसकराने लगती.

नींद से ज्यादा वह कोई और सुखद नशा सा महसूस करने लगती. उस का बदन लरजने लगता. वह लहरा कर उस की बांहों में समा जाती. उस के होंठ भी अपने राजकुमार के होंठों से स्पर्श करने लगते. बदन में होती सनसनाहट उसे इस दुनिया से दूर ले जाती, जहां न तनहाई होती न एकाकीपन, बस एक संबल, एक पूर्णता का एहसास होता, जिस की तलाश उसे हमेशा रहती.

बस ने एक झटका लिया. उस की तंद्रा उसे मदहोशी में घेरे हुए थी. उसे अपने आसपास तूफानी सांसों की आवाज सुनाई दी. वह फिर से मुसकराने लगी, तभी पता नहीं कैसे 2 अंगारे उसी के होंठों से हट गए. वह झटके से उठी… आसपास अब भी अंधियारा फैला था. बस की खिड़की का परदा पूरी तरह तना था. उस की सीट ड्राइवर की तरफ पहले वाली थी, इसलिए जब भी सामने वाला परदा हवा से हिलता तो ड्राइवर के सामने वाले शीशे से बाहर सड़क का ट्रैफिक और बाहरी नजारा उसे वास्तविकता की दुनिया से रूबरू कराता. वह धीरे से अपनी रुकी सांस छोड़ती व प्यास से सूखे होंठों को अपनी जबान से तर करती. उस ने उड़ती नजर अपनी सहेली पर डाली, लेकिन वह अभी भी गहन निद्रा में अलमस्त और सपनों में खोई सी बेसुध दिखी.

उस की नजर अचानक अपनी साथ वाली सीट पर पड़ी. वहां एक पुरुष साया बैठा था. उस ने घबरा कर सामने हिल रहे परदे को देखा. उस की हथेलियां पसीने से लथपथ हो उठीं. डर और घबराहट में नेहा ने अपनी जैकेट को कस कर पकड़ लिया. थोड़ी हिम्मत जुटा कर, थूक सटकते हुए उस ने अपनी साथ वाली सीट को फिर देखा. वह साया अभी तक वहीं बैठा नजर आ रहा था. उसे अपनी सांस गले में अटकी महसूस हुई. अब चौकन्नी हो कर वह सीधी बैठ गई और कनखियों से उस साए को दोबारा घूरने लगी. साया अब साफ दिखाई पड़ने लगा था. बंद आंखों के बावजूद जैसे वह नेहा को ही देख रहा था. सुंदरसजीले, नौजवान के चेहरे की कशिश सामान्य नहीं थी. नेहा को यह कुछ जानापहचाना सा चेहरा लगा. नेहा भ्रमित हो गई. अभी जो स्वप्न देखा वह हकीकत था या… कहीं सच में यह हकीकत तो नहीं? क्या इसी ने उसे सोया हुआ समझ कर चुंबन किया था? उस के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं.

‘क्या हुआ तुम्हें?’ यह उस साए की आवाज थी. वह फिर से अपने करीब बैठे युवक को घूरने लगी. युवक उस की ओर देखता हुआ मुसकरा रहा था.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो?’ युवक पूछने लगा, लेकिन इस बार उस के चेहरे पर हलकी सी घबराहट नजर आ रही थी. नेहा के चेहरे की उड़ी हवाइयों को देख वह युवक और घबरा गया. ‘लीजिए, पानी पी लीजिए…’ युवक ने जल्दी से अपनी पानी की बोतल नेहा को थमाते हुए कहा. नेहा मौननिस्तब्ध उसे घूरे जा रही थी. ‘पी लीजिए न प्लीज,’ युवक जिद करने लगा.

नेहा ने एक अजीब सा सम्मोहन महसूस किया और वह पानी के 2-3 घूंट पी गई.

‘अब ठीक हो न तुम?’ उस ने कहा.

नेहा के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. पता नहीं क्यों युवक की बेचैनी देख कर उसे हंसी आने लगी. नेहा को हंसते देख वह युवक सकपकाने लगा. तनाव से कसे उस के कंधे अब रिलैक्स की मुद्रा में थे. अब वह आराम से बैठा था और नेहा की आंखों में आंखें डाल उसे निहारने लगा था. उस युवक की तीक्ष्ण नजरें नेहा को बेचैन करने लगीं, लेकिन युवक की कशिश नेहा को असीम सुख देती महसूस हुई.

‘आप का नाम पूछ सकती हूं?’ नेहा ने बात शुरू करते हुए पूछा.

‘आकाश,’ युवक अभी भी कुछ सकपकाया सा था.

‘मेरा नाम नहीं पूछोगे?’ नेहा खनकते स्वर में बोली.

‘जी, बताइए न, आप का नाम क्या है?’ आकाश ने व्यग्र हो कर पूछा.

‘नेहा,’ वह मुसकरा कर बोली.

‘नेहा,’ आकाश उस का नाम दोहराने लगा. नेहा को लगा जैसे आकाश कुछ खोज रहा है.

‘वैसे अभी ये सब क्या था मिस्टर?’ अचानक नेहा की आवाज में सख्ती दिखी. नेहा के ऐसे सवाल से आकाश का दिल बैठने लगा.

‘जी, क्या?’ आकाश अनजान बनते हुए पूछने लगा.

‘वही जो अभीअभी आप ने मेरे साथ किया.’

‘देखिए नेहाजी, प्लीज…’ आकाश वाक्य अधूरा छोड़ थूक सटकने लगा.

‘ओह हो, नेहाजी? अभीअभी तो मैं तुम थी?’ नेहा अब पूरी तरह आकाश पर रोब झाड़ने लगी.

‘नहीं… नहीं, नेहाजी… मैं…’ आकाश को समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या कहे. उधर नेहा उस की घबराहट पर मन ही मन मुसकरा रही थी. तभी आकाश ने पलटा खाया, ‘प्लीज, नेहा,’ अचानक आकाश ने उस का हाथ थामा और तड़प के साथ इसरार भरे लहजे में कहने लगा, ‘मत सताओ न मुझे,’ आकाश नेहा का हाथ अपने होंठों के पास ले जा रहा था.

‘क्या?’ उस ने चौंकते हुए अपना हाथ पीछे झटका. अब घबराने की बारी नेहा की थी. उस ने सकुचाते हुए आकाश की आंखों में झांका. आकाश की आंखों में अब शरारत ही शरारत महसूस हो रही थी. ऐसी शरारत जो दैहिक नहीं बल्कि आत्मिक प्रेम में नजर आती है. दोनों अब खिलखिला कर हंस पड़े.

बाहर ठंड बढ़ती जा रही थी. बस का कंडक्टर शीशे के साथ की सीट पर पसरा पड़ा था. ड्राइवर बेहद धीमी आवाज में पंजाबी गाने बजा रहा था. पंजाबी गीतों की मस्ती उस पर स्पष्ट झलक रही थी. थोड़ीथोड़ी देर बाद वह अपनी सीट पर नाचने लगता. पहले तो उसे देख कर लगा शायद बस ने झटका खाया, लेकिन एकदम सीधी सड़क पर भी वह सीट पर बारबार उछलता और एक हाथ ऊपर उठा कर भांगड़ा करता, इस से समझ आया कि वह नाच रहा है. पहले तो नेहा ने समझा कि उस के हाथ स्टेयरिंग पकड़ेपकड़े थक गए हैं, तभी वह कभी दायां तो कभी बायां हाथ ऊपर उठा लेता. उस के और ड्राइवर के बीच कैबिन का शीशा होने के कारण उस तरफ की आवाज नेहा तक नहीं आ रही थी, लेकिन बिना म्यूजिक के ड्राइवर का डांस बहुत मजेदार लग रहा था. आकाश भी ड्राइवर का डांस देख कर नेहा की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. शायद 2 प्रेमियों के मिलन की खुशी से उत्सर्जित तरंगें ड्राइवर को भी खुशी से सराबोर कर रही थीं. मन कर रहा था कि वह भी ड्राइवर के कैबिन में जा कर उस के साथ डांस करे. नेहा के सामीप्य और संवाद से बड़ी खुशी क्या हो सकती थी? आकाश को लग रहा था कि शायद ड्राइवर उस के मन की खुशी का ही इजहार कर रहा है.

‘बाहर चलोगी?’ बस एक जगह 20 मिनट के लिए रुकी थी.

‘बाहर… किसलिए… ठंड है बाहर,’ नेहा ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा.

‘चलो न प्लीज, बस दो मिनट के लिए.’

‘अरे?’ नेहा अचंभित हो कर बोली. लेकिन आकाश नेहा का हाथ थामे सीट से उठने लगा.

‘अरे…रे… रुको तो, क्या करते हो यार?’ नेहा ने बनावटी गुस्से में कहा.

‘बाहर कितनी धुंध है, पता भी है तुम्हें?’ नेहा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘वही तो…’ आकाश ने लंबी सांस ली और कुछ देर बाद बोला, ‘नेहा तुम जानती हो न… मुझे धुंध की खुशबू बहुत अच्छी लगती है. सोचो, गहरी धुंध में हम दोनों बाइक पर 80-100 की स्पीड में जा रहे होते और तुम ठंड से कांपती हुई मुझ से लिपटतीं…’

‘आकाश…’ नेहा के चेहरे पर लाज, हैरानी की मुसकराहट एकसाथ फैल गई.

‘नेहा…’ आकाश ने पुकारा… ‘मैं आज तुम्हें उस आकाश को दिखाना चाहता हूं… देखो यह… आकाश आज अकेला नहीं है… देखो… उसे जिस की तलाश थी वह आज उस के साथ है.’

नेहा की मुसकराहट गायब हो चुकी थी. उस ने आकाश में चांद को देखा. न जाने उस ने कितनी रातें चांद से यह कहते हुए बिताई थीं कि तुम देखना चांद, वह रात भी आएगी जब वह अकेली नहीं होगी. इन तमाम सूनी रातों की कसम… वह रात जरूर आएगी जब उस का चांद उस के साथ होगा. तुम देखना चांद, वह आएगा… जरूर आएगा…

‘अरे, कहां खो गई? बस चली जाएगी,’ आकाश उस के कानों के पास फुसफुसाते हुए बोला. वह चुपचाप बस के भीतर चली आई. आकाश बहुत खुश था. इन चंद घंटों में वह नेहा को न जाने क्याक्या बता चुका था. पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना और जाने से पहले पिता की जिद पूरी करने के लिए शादी करना उस की विवशता थी. अचानक मातापिता की एक कार ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. उसे वापस इंडिया लौटना पड़ा, लेकिन अपनी पत्नी को किसी और के साथ प्रेमालाप करते देख उस ने उसे तलाक दे दिया और मुक्त हो गया.

रात्रि धीरेधीरे खत्म हो रही थी. सुबह के साढ़े 3 बज रहे थे. नेहा ने समय देखा और दोबारा अपनी अमूर्त दुनिया में खो गई. जिंदगी भी कितनी अजीब है. पलपल खत्म होती जाती है. न हम समय को रोक पाते हैं और न ही जिंदगी को, खासकर तब जब सब निरर्थक सा हो जाए. बस, अब अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आधे घंटे का सफर और था. बस की सवारियां अपनी मंजिल तक पहुंचेंगी या नहीं यह तो कहना आसान नहीं था, लेकिन आकाश की फ्लाइट है, वह वापस अमेरिका चला जाएगा और वह अपनी सहेली के घर शादी अटैंड कर 2 दिन बाद लौट जाएगी, अपने घर. फिर से वही… पुरानी एकाकी जिंदगी.

‘‘क्यों सोच रही हो?’’ आकाश ने ‘क्या’ के बजाय ‘क्यों’ कहा तो उस ने सिर उठा कर आकाश की तरफ देखा. उस की आंखों में प्रकाश की नई उम्मीद बिखरी नजर आ रही थी.

‘तुम जानते हो आकाश, दिल्ली बाईपास पर राधाकृष्ण की बड़ी सी मूर्ति हाल ही में स्थापित हुई है, रजत के कृष्ण और ताम्र की राधा.’

‘क्या कहना चाहती हो?’ आकाश ने असमंजस भाव से पूछा.

‘बस, यही कि कई बार कुछ चीजें दूर से कितनी सुंदर लगती हैं, पर करीब से… आकाश छूने की इच्छा धरती के हर कण की होती है लेकिन हवा के सहारे ताम्र रंजित धूल आकाश की तरफ उड़ती हुई प्रतीत तो होती है, पर कभी आकाश तक पहुंच नहीं पाती. उस की नियति यथार्थ की धरा पर गिरना और वहीं दम तोड़ना है वह कभी…’

‘राधा और कृष्ण कभी अलग नहीं हुए,’ आकाश ने भारी स्वर में कहा.

‘हां, लेकिन मरने के बाद,’ नेहा की आवाज में निराशा झलक रही थी.

‘ऐसा नहीं है नेहा, असल में राधा और कृष्ण के दिव्य प्रेम को समझना सहज नहीं,’ आकाश गंभीर स्वर में बोला.

‘क्या?’ नेहा पूछने लगी, ‘राधा और कान्हा को देख कर तुम यह सोचती हो?’ आकाश की आवाज की खनक शायद नेहा को समझ नहीं आ रही थी. वह मौन बैठी रही. आकाश पुन: बोला, ‘ऐसा नहीं है नेहा, प्रेम की अनुभूति यथार्थ है, प्रेम की तार्किकता नहीं.’

‘क्या कह रहे हो आकाश? मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए, शाब्दिक जाल नहीं,’ नेहा जैसे अपनी नियति प्रकट कर उठी.

‘वही तो नेहा, मेरा प्यार सिर्फ नेहा के लिए है, शाश्वत प्रेम जो जन्मजन्मांतरों से है, न तुम मुझ से कभी दूर थीं और न कभी होंगी.’

‘आकाश प्लीज, मुझे बहलाओ मत, मैं इंसान हूं, मुझे इंसानी प्यार की जरूरत है तुम्हारे सहारे की, जिस में खो कर मैं अपूर्ण से पूर्ण हो जाऊं.’’

‘‘तुम्हें पता है नेहा, एक बार राधा ने कृष्ण से पूछा मैं कहां हूं? कृष्ण ने मुसकरा कर कहा, ‘सब जगह, मेरे मनमस्तिष्क, तन के रोमरोम में,’ फिर राधा ने दूसरा प्रश्न किया, ‘मैं कहां नहीं हूं?’ कृष्ण ने फिर से मुसकरा कर कहा, ‘मेरी नियति में,’ राधा पुन: बोली, ‘प्रेम मुझ से करते हो और विवाह रुक्मिणी से?’

कृष्ण ने फिर कहा, ‘राधा, विवाह 2 में होता है जो पृथकपृथक हों, तुम और मैं तो एक हैं. हम कभी अलग हुए ही नहीं, फिर विवाह की क्या आवश्यकता है?’

‘आकाश, तुम मुझे क्या समझते हो? मैं अमूर्त हूं, मेरी कामनाएं निष्ठुर हैं.’

‘तुम रुको, मैं बताता हूं तुम्हें, रुको तुम,’ आकाश उठा, इस से पहले कि नेहा कुछ समझ पाती वह जोर से पुकारने लगा. ‘खड़ी हो जाओ तुम,’ आकाश ने जैसे आदेश दिया.

‘अरे, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?’ नेहा ने अचरज भरे स्वर में पूछा.

‘खड़ी हो जाओ, आज के बाद तुम कृष्णराधा की तरह केवल प्रेम के प्रतीक के रूप में याद रखी जाओगी, जो कभी अलग नहीं होते, जो सिर्फ नाम से अलग हैं, लेकिन वे यथार्थ में एक हैं, शाश्वत रूप से एक…’

नेहा ने देखा आकाश के हाथ में एक लिपस्टिक थी जो शायद उस ने उसी के हैंडबैग से निकाली थी, उस से आकाश ने अपनी उंगलियां लाल कर ली थीं.

‘अब सब गवाह रहना,’ आकाश ने बुलंद आवाज में कहा.

नेहा ने देखा बस का सन्नाटा टूट चुका था. सभी यात्री खड़े हो कर इस अद्भुत नजारे को देख रहे थे. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाती आकाश की उंगलियां उस के माथे पर लाल रंग सजा चुकी थीं. लोगों ने तालियां बजा कर उन्हें आशीर्वाद दिया. उन के चेहरों पर दिव्य संतुष्टि प्रसन्नता बिखेर रही थी और मुबारकबाद, शुभकामनाओं और करतल ध्वनि के बीच अलौकिक नजारा बन गया था.

आकाश नतमस्तक हुआ और उस ने सब का आशीर्वाद लिया.

बाहर खिड़की से राधाकृष्ण की मूर्ति दिख रही थी जो अब लगातार उन के नजदीक आ रही थी… पास… और पास… जैसे आकाश और नेहा उस में समा रहे हों.

‘‘नेहा… नेहा… उठो… दिल्ली आ गया. कब तक सोई रहोगी?’’ नेहा की सहेली बेसुध पड़ी नेहा को झिंझोड़ कर उठाने का प्रयास करने लगी. कुछ देर बाद नेहा आंखें मलती हुई उठने का प्रयास करने लगी.

सफर खत्म हो गया था… मंजिल आ चुकी थी. लेकिन नेहा अब भी शायद जागना नहीं चाह रही थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था… वे सब क्या था? काश, जिंदगी का सफर भी कुछ इसी तरह चलता रहे… वह पुन: सपने में खो जाना चाहती थी.

बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिग्री दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’

‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’

उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया.  खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का.  मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.

वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’

‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’

अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.

सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.

यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.

धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.

एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’

उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’

स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.

बेटी को बीमारी की वजह से चेहरा मुखौटे जैसा लगता है

सारा और राजीव ने अपनी होने वाली बेटी का नाम रखा था स्मिता, यानी मुसकराहट. लेकिन जब उन की नन्ही सी बेटी इस दुनिया में आई तो वह एक ऐसी बीमारी से पीडि़त थी जिस ने उस की मुसकराहट ही छीन ली थी. क्या कोई सर्जन उस के नाम को सार्थक कर पाने में सफल हो सका?

 

‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

 

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

 

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

 

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

 

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

 

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

 

‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

 

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

 

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

 

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

 

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

 

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

 

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

 

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

 

 

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

 

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

 

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

 

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

 

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

 

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

 

 

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

 

‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

 

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

 

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

 

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

 

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

 

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

 

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

 

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

 

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

 

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

 

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

 

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

 

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

 

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

 

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

 

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

 

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

 

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

 

 

स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

 

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

 

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

 

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

 

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

 

‘‘कब?’’

 

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

 

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

 

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

 

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

 

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

 

 

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

 

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

 

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

 

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

 

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

 

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

 

‘‘हां.’’

 

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

 

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

 

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

 

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

 

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

 

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

 

यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फ ोन किया.

 

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

 

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी

प्राउड हिंदू ऋषि सुनक को क्यों नकार दिया ब्रिटेन की जनता ने ?

ब्रिटेन की जनता ने ऋषि सुनक को नकार कर किएर स्टार्मर को देश का नया प्रधानमंत्री चुन लिया है. चुनावों में मिली करारी हार के बाद सत्ता से बाहर हुए ऋषि सुनक ने ब्रिटेन की जनता से माफी मांगते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. भारत में भारतीय जनता पार्टी द्वारा लोकसभा चुनाव से पहले बड़े जोरशोर से लगाया जा रहा ‘400 पार’ का नारा यहां भाजपा के लिए तो कामयाब नहीं हुआ, मगर ब्रिटेन की जनता ने इस नारे को मुख्य विपक्षी पार्टी के पक्ष में जरूर सच साबित कर दिया.

किएर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी को 650 में से 412 सीटों पर जीत हासिल हुई. लेबर पार्टी को अपने इतिहास की बड़ी जीत इस बार मिली है. इस प्रचंड बहुमत के साथ वह ब्रिटेन में एक मजबूत और निर्णायक सरकार बनाएगी. जबकि ऋषि सुनक की अगुआई वाली कंजर्वेटिव पार्टी को महज 121 सीटें ही मिलीं. यानी, 244 सीटों का नुकसान सुनक को उठाना पड़ा है. 1997 के बाद पहली बार अपने इतिहास में कंजर्वेटिव पार्टी को इतना बड़ा नुकसान हुआ है. इस से जाहिर होता है कि ब्रिटेन की जनता ऋषि सुनक से कितनी नाराज थी.

2020 में ब्रेक्सिट आया, जब यूनाइटेड किंगडम ने यूरोपीय संघ से बाहर निकलने का निर्णय लिया. इस का बहुत आर्थिक नुकसान देश को उठाना पड़ा. ब्रेक्सिट के परिणामस्वरूप 2023 तक औसत ब्रिटिश नागरिक की आर्थिक स्थिति लगभग 2,000 पाउंड खराब हो गई और करीब 2 मिलियन नौकरियां कम हो गईं. एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रेक्सिट के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था लगभग 140 बिलियन पाउंड छोटी हो गई है. ब्रिटेन अपनी जर्जर आर्थिक स्थिति से कराह रहा था कि तभी कोविड महामारी ने देश में जानमाल का भारी नुकसान किया. कोविड महामारी के बाद से देश बढ़ती महंगाई और जन समस्याओं से त्राहित्राहि कर उठा.

2022 में जब ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने तो इन समस्याओं से देश को बाहर निकालने का कोई ठोस प्रयास शुरू करने के बजाय वे हिंदू धर्म का प्रचारप्रसार करते और हिंदुत्व का सिंबल बनते ज्यादा नजर आए. वे देश की गिरती अर्थयवस्था को पटरी पर वापस लाने के लिए कुछ भी खास नहीं कर पाए, जिस के चलते ब्रिटेन में कौस्ट औफ लिविंग बढ़ती चली गई जबकि दूसरी ओर सुनक और उन के परिवार की संपत्ति में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई.

 

मिलतीजुलती समानताएं

 

ऋषि सुनक और उन की पत्नी अक्षता मूर्ति ब्रिटेन के किंग चार्ल्स थर्ड से भी ज्यादा अमीर हो गए. आज उन के पास 6,915 करोड़ रुपए की संपत्ति है, जबकि ब्रिटेन के राजा के पास 6,513 करोड़ रुपए की ही संपत्ति है. ऋषि सुनक की ब्रिटेन में एक ऐसे अमीर हिंदू की छवि बन गई जिस के साथ आम आदमी खुद को कनैक्ट नहीं कर पा रहा था. उन की तमाम बातें, जो भारत में मोदी सरकार के क्रियाकलापों से मिलतीजुलती हैं, उन के खिलाफ ब्रिटेन की जनता में आक्रोश का बड़ा कारण बन गईं.

भारत में एनडीए-2 के कार्यकाल के दौरान ऋषि सुनक यहां काफी चर्चित रहे. जी-20 के आयोजन में उन्होंने पत्नी अक्षता के साथ शिरकत की और प्रधानमंत्री मोदी से उन की गहरी निकटता दिखी. ऋषि सुनक खुद को सनातनी हिंदू बताते हुए गर्व महसूस करते हैं. हिंदू त्योहारों, परंपराओं, रीतिरिवाजों का पालन और मंदिर दर्शन को ले कर वे चर्चा में रहते हैं. और ये सभी बातें भारतीय दक्षिणपंथी विचारधारा से मेल खाती हैं. जब वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे तब मोदी सरकार ने उन की खूब प्रशंसा की थी. यह प्रशंसा इसलिए थी क्योंकि ऋषि सुनक ने खुद को प्राउड हिंदू कहा था.

ऋषि सुनक का एक भारतीय कनैक्शन यह भी है कि वे इंफोसिस कंपनी के संस्थापक नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति के पति हैं. ऋषि ने अक्षता मूर्ति से 2009 में बेंगलुरु में शादी की थी. उन की सास सुधा मूर्ति वर्तमान राज्यसभा की सदस्य हैं, उन्हें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरफ से राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था. सुधा मूर्ति ने 14 मार्च को अपने पति एन आर नारायण मूर्ति की उपस्थिति में राज्यसभा सांसद के रूप में शपथ ली थी. तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इस बात की जानकारी अपने एक्स अकाउंट पर पोस्ट कर के दी.

 

चुनावी हार की वजह धर्म

 

ऋषि सुनक की चुनावी हार की समीक्षा करते समय उन के परिवार और उन की पत्नी एवं ससुराल पक्ष के बारे में बात करना आवश्यक है. भारत से उन के संबंध और हिंदू धर्म में उन की गहरी आस्था की चर्चा भी जरूरी है. वे पहले ब्रिटिश एशियाई और पहले हिंदू हैं जो ब्रिटेन में लोकतांत्रिक सत्ता के शिखर तक पहुंचे. साल 2022 में ऋषि सुनक जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे तब भारत में भी काफी चर्चा में रहे. वे जब भारत आए थे तब दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर भी गए थे और मंदिर प्रांगण में पत्नी अक्षता के साथ सिर पर रूमाल बांधे नंगेपैर वाली उन की फोटो सोशल मीडिया व तमाम गोदी चैनलों पर काफी वायरल हुई थी. अक्षरधाम में उन्होंने पत्नी अक्षता के साथ बाकायदा पूजाअर्चना की. इस दौरान उन्होंने सारे देवताओं की मूर्तियों के सामने फूल रखे और घुटनों के बल बैठ कर माथा टेका. वहां के भगवा वस्त्रधारी साधुसंतों के साथ उन के अनेक फोटो वायरल हुए. ये तसवीरें सुनक के सनातनी विचारों को सामने लाईं, जिन का ज्यादा श्रेय उन की पत्नी अक्षता को जाता है.

यह पहली बार नहीं है जब वे हिंदू अवतार में नजर आए. इस से पहले भी वे अकसर मंदिरों में दर्शन, गोपूजा और कलाई पर कलावा बंधवाते हुए नजर आते रहे हैं. सुनक हमेशा अपनी टेबल पर श्रीगणेश भगवान की एक मूर्ति रखते हैं. सुनक को मंदिरों में भोजन खिलाते भी देखा जाता रहा है. इस सब के पीछे उन की पत्नी अक्षता का बड़ा हाथ है जो सनातनी विचारों और तौरतरीकों में पलीबढ़ी हैं. खुद उन की मां सुधा मूर्ति का कथन है, ‘सुनक आज जो कुछ भी हैं मेरी बेटी की वजह से हैं.’

 

ऋषि सुनक का अतीत

 

ऋषि सुनक का जन्म वर्ष 1980 में उषा सुनक और यशवीर सुनक के घर साउथैम्पटन में हुआ था. उन के मातापिता पूर्वी अफ़्रीका के ब्रिटिश उपनिवेशों से ब्रिटेन पहुंचे थे. उन के पिता यशवीर का जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे प्रोटेक्टरेट औफ कीनिया में हुआ था. सुनक के दादाजी का जन्म ब्रिटिश शासन वाले पंजाब में हुआ था. वहां से 1930 के दशक में वे पूर्वी अफ्रीका चले गए और वहीं बस गए. लेकिन जैसेजैसे अफ्रीकी देश ब्रिटिश शासन से आजाद होने लगे, भारतीय समुदाय के लोग ब्रिटेन पहुंचने लगे.

सुनक के दादाजी तंगनयिका में टैक्स अधिकारी थे और ब्रिटेन आने के बाद उन्हें राजस्व विभाग में नौकरी मिल गई थी. सुनक के मातापिता मैडिकल के पेशे में थे. पिता नैशनल हैल्थ सर्विस में फैमिली डाक्टर थे और मां फार्मेसी चलाने लगी थीं. वे धार्मिक लोग थे मगर धर्म उन की निजी आस्था का मामला था, वे उस के प्रदर्शन में विश्वास नहीं करते थे, जबकि, ऋषि सुनक और अक्षता ने अपने धर्म के प्रदर्शन का कोई मौका नहीं छोड़ा.

 

धर्म की राजनीति

 

पिछले साल अगस्त में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के तौर पर ऋषि सुनक का एक बयान भी काफी सुर्ख़ियों में रहा. कथावाचक मोरारी बापू ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में आयोजित कार्यक्रम में कथा सुना रहे थे. उस कार्यक्रम में ऋषि सुनक भी शरीक हुए थे. ऋषि सुनक ने मोरारी बापू की आरती की और मंच से अपनी बातें साझा कीं.

सुनक ने अपनी बात जय सिया राम नारे से शुरू करते हुए कहा, “भारत के स्वतंत्रता दिवस पर मोरारी बापू की कथा में आ कर अच्छा लग रहा है. मैं यहां प्रधानमंत्री की तरह नहीं, हिंदू की तरह आया हूं. मेरे लिए आस्था बेहद निजी है. ज़िंदगी के हर पहलू में यह मुझे दिशा दिखाती है. प्रधानमंत्री होना सम्मान की बात है, लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है. कड़े फैसले लेने होते हैं. मुश्किल हालात का सामना करना होता है. ऐसे में हमारी आस्था हमें साहस और ताकत देती है ताकि देश के लिए अच्छे फैसले लिए जा सकें. जैसे, बापू के पीछे हनुमान हैं. मुझे गर्व है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की मेरी मेज पर भी गणेशजी हैं.”

उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि 10 डाउनिंग स्ट्रीट के बाहर दीवाली पर दीया जलाना मेरे लिए बहुत कमाल का पल था. हिंदू धर्म को ले कर ऋषि सुनक पहले भी बोलते रहे हैं. साल 2020 में जब ऋषि ने वित्त मंत्री पद की शपथ ली थी तब उन्होंने गीता पर हाथ रख कर शपथ ली थी. ऐसे वीडियोज भी हैं जिन में ऋषि सुनक गाय की पूजा करते देखे जा सकते हैं. निश्चित ही ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले हिंदू प्रधानमंत्री थे, मगर वे इन दिनों अपने धर्म को ले कर जिस तरह सीमा लांघ रहे थे, वह शायद ब्रिटेन के लोगों को पसंद नहीं आया.

ब्रिटेन में विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णुता की परंपरा है. ब्रिटिश लोग अपने सामाजिक शिष्टाचार पर गर्व करते हैं. चाय के समय से ले कर स्थानीय पब में मछली और चिप्स खाने जैसी सामान्य बात तक, विनम्रता, शिष्टाचार और सामान्य शिष्टाचार उन की संस्कृति की पहचान है. उदाहरण के लिए, लाइन में खड़े होना, जिसे ब्रिटिश लोग ‘क्यू’ कहते हैं, बहुत गंभीरता से लिया जाता है.

ईसाई धर्म यहां सब से बड़ा धर्म है, हालांकि 2021 की जनगणना के अनुसार, मान्यताओं की विविधता बढ़ रही है, जिस में अधार्मिक लोगों की संख्या प्रत्येक धर्म से अधिक है. 2021 की जनगणना के मुताबिक, इंगलैंड और वेल्स में 46.2 फीसदी आबादी ईसाई हैं, जबकि 38 फीसदी लोग ऐसे हैं जो किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते हैं. बाकी आबादी में से 6.5 फीसदी मुसलिम, 1.7 फीसदी हिंदू, 0.9 फीसदी सिख, 0.5 फीसदी यहूदी और 0.5 फीसदी बौद्ध हैं.

ब्रिटेन के लोग उतने भी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं जितना दुनिया उन्हें बताती है या मानती है. यहां ईसाई धर्म का प्रभुत्व हमेशा रहा है. ऐसे में ऋषि सुनक का खुद को प्राउड हिंदू कह कर सनातनी कर्मकांडों का जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन करना और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के बाद पत्नी अक्षता के साथ विभिन्न हिंदू धार्मिक स्थलों पर जा कर पूजाअर्चना करने की तसवीरों का वायरल होना ब्रिटेन में उन के राजनीतिक लक्ष्य के खिलाफ चला गया.

 

कोकोनट भारतीय

 

एक बात और बताते चलें. इंगलैंड या यूनाइटेड किंगडम में जो भारतीय मूल के लोग बसे हुए हैं वे खुद को कोकोनट कहते हैं. जैसे नारियल ऊपर से भूरा और अंदर से सफेद होता है, तो यह लोग मानते हैं कि उन की त्वचा भले सांवली हो मगर उन का दिल गोरे लोगों की तरह गोरा हो चुका है. मतलब, वो भले भारतीय मूल के हों मगर उन की प्रतिबद्धता ब्रिटेन के प्रति है. जबकि वहां के गोरे इस बात को दिल से नहीं मानते हैं, वे भारतीय मूल के लोगों पर नस्लवादी, रंगभेदी टिप्पणियां करते रहते हैं.

इस के अलावा ब्रिटेन में ईसाईयों और मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से ज्यादा है. ऐसे में एक तो भारतीय मूल का होना और दूसरा हिंदू होना और उस चीज का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों से बारबार बखान करना ऋषि सुनक के लिए चुनाव में माइनस पौइंट बन गया. फिर उन्होंने ब्रिटेन की जनता के हित में कोई खास काम नहीं किया, देश को आर्थिक संकट से उबारने में उन का योगदान कुछ खास नहीं रहा. लिहाजा, ब्रिटेन की जनता ने उन्हें नकार दिया और एक गोरे के हाथ में देश की सत्ता सौंप दी.

चुनावी नतीजों के बाद ऋषि सुनक ने समर्थकों और देश की जनता से माफी मांगी है और कहा है कि इस नतीजे से सीख लेने की जरूरत है. उन्होंने कहा, “आज रात की इस मुश्किल घड़ी में मैं रिचमंड और नौर्थहेलर्टन संसदीय क्षेत्र के लोगों के प्रति शुक्रिया अदा करता हूं, जिन्होंने हमें नियमित रूप से समर्थन दिया. मैं 10 साल पहले जब यहां आ कर बसा था, तभी से आप लोगों ने मुझे और मेरे परिवार को बेशुमार प्यार दिया और हमें यहीं का होने का एहसास कराया. मैं आगे भी आप के सांसद के रूप में सेवा करने को ले कर उत्साहित हूं. ब्रिटिश जनता ने अपना स्पष्ट फ़ैसला सुना दिया है. काफीकुछ सीखने और देखने के लिए है और मैं इस हार की पूरी ज़िम्मेदारी लेता हूं.”

समीक्षा : डेढ़ बीघा जमीन (दो स्टार)

सन 1953 में बलराज साहनी, निरूपा रौय, मीना कुमारी अभिनीत ब्लौकबस्टर फिल्म ‘2 बीघा जमीन’ आई थी. इस में गरीब शंभु, जिस की भूमिका बलराज साहनी ने निभाई थी, को अपनी जमीन को बचाने के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाने को मजबूर होते दिखाया गया था. उस की जमीन पर एक अमीर साहूकार ने जबरन कब्जा कर लिया था.

समाजवादी विषय पर बनी इस फिल्म ने फिल्मों में एक अलग ही ट्रेंड सैट कर दिया था. उस के बाद बौलीवुड में जमीनों पर जबरन कब्जा किए जाने पर अनगिनत फिल्में बनीं और पीड़ित दरदर की ठोकरे खाते हुए भ्रष्ट सिस्टम से लड़तेलड़ते मर गए.
हमारा सिस्टम आज इतना भ्रष्ट हो चुका है कि प्रभावशाली नेता, विधायक, अफसर सब लूटखसोट में लगे हुए हैं, जिसे जो चीज पसंद आ जाती है, वह उस पर कब्जा कर लेता है और पीड़ित का सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ पाता. भई, आखिर सिस्टम जो ठहरा, किस की जुर्रत है कि वह उसे चैलेंज करे?

फिल्म ‘डेढ़ बीघा जमीन’ भी सिस्टम से टकराने पर है. फिल्म में एक मिडिल क्लास के एक आम आदमी को एक विधायक के खिलाफ आवाज उठाते दिखाया गया है. विधायक ने उस की डेढ़ बीघा जमीन पर जबरन कब्जा कर रखा है. उस आम आदमी को अपनी बहन की शादी में भारीभरकम दहेज देना है और वह अपनी डेढ़ बीघा जमीन बेच कर बहन की शादी कराना चाहता है परंतु उसे जमीन तो वापस नहीं मिलती, सीने पर गोलियों की बौछार जरूर मिलती है, विधायक उसे मरवा देता है.

फिल्म में इस आदमी की भूमिका पिछले साल ‘स्कैम 1992’ में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग की छाप छोड़ने वाले प्रतीक गांधी ने निभाई है. इस के अलावा प्रतीक गांधी विद्या बालन के साथ ‘दो और दो प्यार’ में भी नजर आया है.
इस फिल्म की कहानी समाज में फैली दहेज की बुराई को भी दर्शाती है, जहां पर बेटी की शादी के लिए घरवालों को दहेज देने के लिए जमीन से ले कर न जाने क्याक्या दाव पर लगाना पड़ता था. ‘डेढ़ बीघा जमीन’ के माध्यम से कहीं न कहीं प्रतीक गांधी ने उस आम आदमी की कहानी को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है, जिस से हर कोई गुजर रहा है, लेकिन इस के खिलाफ आवाज बहुत कम लोग ही उठाते हैं.

प्रतीक गांधी ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है. उस की पत्नी की भूमिका में खुशाली कुमार ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है. कहानी दिल तो छूती है, क्लाइमैक्स दुखद है. फिल्म से आम आदमी जुड़ाव महसूस करता है. कुल मिला कर यह फिल्म दर्शकों को सिस्टम की क्रूरता के आगे बेबस आम आदमी की लाचारी का बखूबी एहसास कराती है.
फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म में मसालों से परहेज किया गया है, मगर मनोरंजन का भी इस में अभाव है. फिल्म में कोई गीत नहीं है. उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा का इस्तेमाल फिल्म में किया गया है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

 

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