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सिनेमा से ही बदलाव आता है: अक्षय कुमार

बौलीवुड में अक्षय कुमार एक मात्र ऐसे कलाकार हैं, जो लगातार व्यावसायिक फिल्मों के साथ साथ लीक से हटकर विषयों व सच्चे घटनाक्रमों पर आधारित फिल्में भी करते आ रहे हैं. फिर चाहे वह ‘एयरलिफ्ट’ हो या ‘रूस्तम’ या ‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’ हो या ‘पैडमैन’. अब वह सत्य घटनाक्रम यानी कि ‘सारागढ़ी के युद्ध’ पर फिल्म ‘‘केसरी’’ लेकर आ रहे हैं. अनुराग सिंह निर्देशित फिल्म ‘‘केसरी’’ होली के अवसर पर 21 मार्च को सिनेमा घरों में पहुंच रही है.

सारागढ़ी के युद्ध पर आधारित फिल्म ‘‘केसरी’ ’को आप महज एक युद्ध वाली फिल्म मानते हैं?

हकीकत में यह फिल्म ‘‘युद्ध’’ पर आधारित ही है. पर यह इमोशनल बहुत है. यह फिल्म 21 सिख जवानों की कहानी है. जो कि जानते थे कि उनकी मृत्यू निश्चित है. उस वक्त उनके पास वहां से भागने का मौका था, पर इन सैनिकों ने भागने की बजाय अपनी मातृभूमि के लिए दुश्मनों से लड़कर अपनी जान न्यौछावर करने का विकल्प अपनाया. वह जानते थे कि दस हजार अफगान सैनिकों से उन 21 जवानों के लिए लड़ना संभव नही है, पर उन्होंने अपनी तरफ से अफगान सैनिकों को किले के अंदर घुसने से रोकने के लिए लड़ा. अफगान सैनिक सोच रहे थे कि सैनिकों की नई खेप आने से पहले ही हम आधे घंटे के अंदर इन 21 जवानों को खत्म कर देंगे. मगर ईश्वर सिंह के नेतृत्व में इन 21 जवानों ने निर्णय ले लिया था कि हम इन्हें किसी भी सूरत में अंदर घुसने नहीं देंगे. वह सुबह नौ बजे से लेकर शाम के छह बजे तक लड़े. जब वह अंदर घुसे तभी सैनिकों का दूसरा दल आ गया और अफगान सैनिकों को वहां से भागना पड़ा था. मेरी सोच कहती है कि इसमें एक सैनिक के माइंड सेट और उसकी मानसिक सोच की कहानी है. हम लोग युद्ध की बात समझते हैं पर एक सैनिक के दिमाग में क्या चल रहा होता है, इसके बारे में हम नहीं जानते. हमारी फिल्म ‘केसरी’ दषर््ाकांे को उस यात्रा पर भी ले जाती है कि उस वक्त जवानों ने अपने दिमाग में क्या सोच रखा था.

फिल्म के निर्देशक अनुराग सिंह ने इस बात को लेकर काफी शोध किया. मैं तो चाहूंगा कि आप बड़े शब्दों में लिखें कि मैं अपली करता हूं कि हर माता पिता अपने बच्चों को यह फिल्म जरुर दिखाए. क्योंकि यह आपका अपना इतिहास है. आपके अपने वतन के इतिहास का हिस्सा है. इतिहास हर बच्चे को देश के भविष्य के बच्चों को पता होना चाहिए कि कैसे यह 21 जवान लड़े थे. यह दुःख की बात है कि ‘सारागढ़ी के इस युद्ध’ का हमारी इतिहास की किताबो में जिक्र ही नही है. हमारे इतिहास में अब तक छात्रों को यह पढ़ाया नहीं गया. आज हमें अचसर मिला कि मैं इस कहानी को फिल्म के माध्यम से लोगों के सामने लेकर आउं, जिसे मैंने पूरी इमानदारी के साथ अंजाम दिया है.

आप शायद न जानते हो मगर जब मैने फिल्म ‘‘एयर लिफ्ट’’ बनायी, उस वक्त इस कहानी के बारे में किसी को नहीं पता था. उस वक्त तक एक खबर छपी थी. मगर आज ‘एयरलिफ्ट’ को लेकर एक लाख लेख कई पन्ने भरे जा चुके हैं. अब धीरे धीरे ‘सारागढ़ी’ पर भी कई लेख आ गए है. मैं चाहता हूं कि सारागढ़ी के युद्ध पर ज्यादा से ज्यादा लेख छपें. इन 21 जवानों की कथा इतिहास के पन्नों में हमेशा हमेशा के लिए अमर रहे.

तो क्या आप मानते हैं कि एक सैनिक किसी भी युद्ध को महज हथियार के बल पर नहीं बल्कि अपनी दिमागी सोच यानी कि अपने माइंड सेट की वजह से जीतता है?

जी हां! आपने एकदम कटु सत्य को पकड़ा है. मैं मानता हूं कि यदि एक सैनिक अपने मन में निश्चय कर ले तो फिर उसे हराना बहुत मुश्किल है.

आपने एयरलिफ्ट, रूस्तम या केसरी जैसी सत्य घटनाक्रमों पर आधारित फिल्में करते हैं. तब आपके उपर कितना दबाव रहता है. दूसरे लोग जब इसी तरह की फिल्में करते हैं, तो उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं?

देखिए हम जितनी कोशिश कर सकते हैं उतनी इमानदार कोशिश करते हुए सच को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाते हैं. अब जैसे कि आप फिल्म ‘‘केसरी’ को लें. तो इस फिल्म के निर्देशक व लेखक अनुराग सिंह ने काफी शोध करके इसकी पटकथा लिखी. मैं इस फिल्म का सारा श्रेय उन्हे ही देता हूं. देखिए,मैं हर साल चार फिल्में करता हूं तो स्वाभाविक तौर पर हर फिल्म पर मैं उतना ध्यान नहीं दे सकता. इसलिए मेरी हर फिल्म के लिए सारा रिसर्च करने वाले निर्देशक या लेखक ही होते है. पर हम जिम्मेदारी से ही काम करते हैं. हम किसी की फिलिंग को हर्ट करने का प्रयास कभी नहीं करते. वैसे भी देखा जाए तो कोई भी फिल्मकार या कलाकार किसी की फींलिंग को हर्ट नहीं करता फिर भी कई बार अनजाने में ऐसा हो जाता है. अगर वह माफी मागते हैं तो उसे माफ कर आगे बढ़ना चाहिए. यह नहीं कि उसको हम खींचते रहे. ‘केसरी’के निर्माण से पहले कई किताबें पढ़ी गयी काफी शोध किया गया.

कहानी ‘सारागढ़ी युद्ध’ की है, तो फिर पर फिल्म का नाम ‘केसरी’ रखने के पीछे सोच क्या रही?

केसरी का रंग बहादुरी का, शौर्य का, वीरता का प्रतीक है. यह कलर आफ वार है. इसलिए इससे बेहतर नाम सूझा ही नहीं.

फिल्म‘‘केसरी’’के एक्शन दृश्य को लेकर क्या कहना चाहेंगे?

इस फिल्म का एक्शन बहुत अलग है. हमने इसमें सिख, सरदारों का जो मार्शल आर्ट का फार्म है-गटका’, उसका उपयोग किया है, जिसके लिए हमें ट्रिनंग भी लेनी पड़ी. उस वक्त की लड़ाई गटका से लड़ी गयी थी. सरदारों को पकड़ना मुशिक्ल था. वह घूम घूम कर अपने शत्रु पर वार करते थे. उनकी तलवार ही बीस से बाइस किलो की होती थी. उनकी पगड़ी ही सवा किलो की वजन की होती थी.

आपके करियर में एक खास बात नजर आती है कि आप जिस विषय वाली फिल्म से जुड़ते हैं, वह जल्द बन जाती हैं, जबकि दूसरे लोग सिर्फ योजना बनाते रह जाते हैं. ‘सारागढ़ी के युद्ध’पर तीन दूसरे फिल्मकार पिछले चार वर्षों से भी अधिक समय से फिल्म बना रहे हैं, पर अब तक नहीं बना पाए. आप ‘केसरी’ लेकर आ गए. इसी तरह स्पेस पर भी दो फिल्में चार साल से बन रही हैं पर नही बन पायी. आपने स्पेस फिल्म ‘मंगल यान’’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं?

शायद मैं लक्की हूं दूसरो की फिल्में क्यों रूक जाती हैं, पता नही.मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अच्छे लोग मिल जाते हैं और हम तीन माह कें अंदर फिल्म पूरी कर लेते हैं.

गत वर्ष आपकी दो महत्वपूर्ण  फिल्में ‘‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’’ और ‘‘पैडमैन’’ आयी. दोनों ही फिल्में औरतों की सुरक्षा व उनके आत्म सम्मान से जुड़ी फिल्में रही. इन फिल्मों के प्रदर्शन के बाद कोई खास प्रतिक्रिया मिली हो जिसने आपके दिल को भी छू लिया हो.

मैं एक किस्सा बताना चाहूंगा, जो कि पंजाब में रह रहे मेरे एक दोस्त के साथ घटी थी. एक रात डेढ़ बजे मेरे दोस्त की बेटी ने अपनी मां से कहा कि मेरे पीरियड शुरू हो गए हैं. और मैं सैनेटरी पैड लाना भूल गयी. डेढ़ बजे सैनेटरी पैड कैसे आए. क्योंकि 24 घंटे खुली रहने वाली दवा की दुकान उसके घर से 18 किलोमीटर दूर थी. मेरे दोस्त ने जब अपनी बेटी की बात सुनी तो वह तुरंत घर से निकलकर गया और अपनी बेटी को सैनेटरी पैड लाकर दिया. एक पिता अपनी बेटी को सैनेटरी पैड लाकर दिया.उसने मुझे बताया कि उसे यह प्रेरणा मेरी फिल्म ‘‘पैडमैन’’ की वजह से ही मिली थी. मेरं दोस्त ने मुझसे कहा- अक्षय वह दिन है और आज का दिन है, मेरी बेटी अपने मन की हर बात मुझसे करती है. मेरी बेटी मुझसे बहुत प्यार करती है. यह होता है फिल्म का असर. मैं बहुत खुश हूं कि अब बडे शहर में इसको लेकर टैबू नही रहा. अब लोग इस पर खुलकर बात करने लगे हैं. यह जो बदलाव है, वह मेरी या आपकी नहीं बल्कि सिनेमा की ताकत है. सिनेमा से ही बदलाव आता है.

हम बौलीवुड वाले हौलीवुड से इतना डरे हुए क्यों रहते हैं. सभी हौलीवुड फिल्म ‘‘अवेजर’’ को लेकर सहमें हुए हैं?

उनकी फिल्मों का बजट बहुत बड़ा है. उस तरह की फिल्में भारत में नहीं बन रही हैं, इसलिए एक डर तो रहेगा.वह हमारा काफी बिजनेस खा जाते हैं. हमारे पास उस स्तर की फिल्में बनाने के लिए नहीं है. यदि हमें उनकी तरह बजट मिले तो हम उन्हे डरा दें. जिस बजट में उनकी फिल्में बनती हैं. उसके एक प्रतिशत के बजट में हम फिल्म बनाकर लाभ कमाते हैं. हमें सीधा देखना चाहिए. मैं यह मानता हूं कि उनकी फिल्मों में इमोशन कम होता है और हमारी फिल्मों में इमोशन बहुत होता है.

चांदनी चैक,दिल्ली से चुनाव लड़ने की खबरें भी रही है?

बिलकुल गलत खबर है. यदि ऐसा होता तो मैं खुद ही बता देता.

पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के संग आपकी काफी नजदीकियां हैं?

नही.. मेरी नजदीकियां अच्छे कार्य से है.

आप ऐतिहासिक फिल्म ‘‘पृथ्वीराज चैहाण’’ कर रहे हैं?

हां डां.चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में यह फिल्म कर रहा हूं. इस साल के अंत में हम इसकी शूटिंग शुरू करेंगे. निर्देशक से बात हुई. वह बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं.

आपकी रूचि इतिहास में कितनी है?

इतिहास, रामायण, महाभारत की कहानियां सुनने में मजा आता है. शूरवीर वाली कहानी सुनने में बहुत मजा आता है.

आने वाली फिल्में?

‘मंगलयान’, ‘सूर्यवंशी’ कौमेडी फिल्म ‘हाउसफुल 4’, ‘पृथ्वीराज चैहाण और एक हौरर फिल्म कर रहा हूं

‘हेराफेरी 3’ भी कर रहे हैं?

नहीं..हेरा फेरी 3 नहीं कर रहा.

 

साजिश की शिकार शिक्षा

शिक्षा के संवैधानिक अधिकार का कचरा करने के लिए तरहतरह की साजिशें रची जा रही हैं. इन में से एक है बिना परीक्षा लिए बच्चों को अगली कक्षा में भेज देना, जहां वे दूसरे छात्रों से पिछड़े नजर आएं और फिर स्कूल आना बंद कर दें. शिक्षा के संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत निजी स्कूलों को 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों को देनी होती हैं और इन का कुछ खर्चा सरकार देती है, बाकी स्कूल उठाता है यानी वह दूसरे बच्चों की फीस में से उसे पूरा करता है.

यह प्रयोग अपनेआप में ही बेकार हैं. भारत में समानता असमानता की खाई में सिर्फ पैसा ही नहीं है, जन्म से तय जाति भी है जिस में बहुत से लोगों को छूने, उन से लेनदेन करने और उन के साथ बात करने पर भी पाबंदी है. उन के बच्चे जब दूसरे तबके या अमीरों के बच्चों के साथ बैठते हैं तो कक्षाओं में न दिखने वाली दीवारें खिंच जाती हैं.

ऐसे अलगथलग पड़े बच्चों के पास न अच्छे कपड़े होते हैं न किताबें. उन के घरों का वातावरण भी पढ़ाईलिखाई का नहीं होता. ऐसे बच्चों के मातापिता अपनी संतानों को कखग या एबीसी पढ़वा कर कुछ खास खुश नहीं होते. उन्होंने, दरअसल, सपने में भी पढ़ाई की कीमत नहीं जानी थी. उन के आसपास  के जो बच्चे पढ़लिख भी गए, वे भी वैसे के वैसे ही रह गए.

पढ़ाई का फायदा वहां है जहां विद्यार्थियों को तकनीकी कामों से जोड़ा जाए. हमारे प्राइवेट स्कूलों का डिजाइन बच्चों को सिर्फ सरकारी नौकरी के लिए तैयार करना होता है. स्कूलों और यहां तक कि आर्ट्स कालेजों तक में ऐसा कुछ नहीं पढ़ाया जाता जिस से पैसा कमाने के किसी काम को करने में कोई सुविधा होती हो. इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेजों में ही व्यावहारिक ज्ञान मिलता है, वह भी बाद में चमकाया जाता है जब फैक्टरियों के फ्लोरलैवल या अस्पतालों में काम करना होता है. थोड़ी सी तकनीकी शिक्षा अकाउंटैंसी में है पर वह भी सिर्फ इसलिए कि सरकार ने टैक्स जमा करने के पेचीदा कानून बना रखे हैं.

गरीबों के बच्चे ऊंचे स्कूलों में जा कर बैठ जाते हैं पर जब उन का मखौल उड़ाया जाता है, उन को हिकारत की नजरों से देखा जाता हैं, उन्हें अध्यापक नजरअंदाज करते हैं क्योंकि वे उन के पास ट्यूशन पढ़ने जाने से रहे, तो वे पढ़ाई को ही नकार देते हैं. आप उन्हें पास करें या न करें, वे सब पढ़ने वाले नहीं हैं. हां, कुछ सिरफिरे जरूर होंगे जो इन खाइयों को पार कर लेंगे.

इस पूरी समस्या का कोई आसान हल नहीं है. फिलहाल तो उस्ताद के शागिर्द बन कर छोटे कारखानों में काम करना ही एक उपाय दिख रहा है पर चाइल्ड लेबर यानी बालश्रम वे विरोधी उसे भी न करने देंगे, यह पक्का है.

आईना

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्यों कर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

अस्पताल रह कर चारू लौटी तो अपने ही कमरे में कैद हो कर रह गई. परेशान हो गया था अनुराग. एक दिन मैं ने फोन किया तो बेचारा रो पड़ा था.

‘‘अच्छीभली हमारे घर आई थी. मायके में सारा घर चारू ही संभालती थी. मैं इस सच को अच्छी तरह जानता हूं. हमारे घर आई तो चाय का कप बनाते भी उस के हाथ कांपते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, मौसी?’’

‘‘उसे दीदी से दूर  ले जा. मेरी बात मान, बेटा.’’

‘‘मम्मी तो उस की देखभाल करती हैं. बेचारी चारू की चिंता में आधी हो गई हैं.’’

‘‘यही तो समस्या है, अनुराग बेटा. शोभा तेरी मां हैं तो मेरी बड़ी बहन भी हैं, जिन्हें मैं बचपन से जानती हूं. मेरी बात मान तो तू चारू को कहीं और ले जा या कुछ दिन के लिए मेरे घर छोड़ दे. कुछ भी कर अगर चारू को बचाना चाहता है तो, चाहे अपनी मां से झूठ ही बोल.’’

अनुराग असमंजस में था मगर बचपन से मेरे करीब होने की वजह से मुझ पर विश्वास भी करता था. टूर पर ले जाने के बहाने वह चारू को अपने साथ मेरे घर पर ले आया तो चारू को मैले कपड़ों में देख कर मुझे अफसोफ हुआ था.

‘‘मौसी, आप क्या समझाना चाहती हैं…मेरे दिमाग में ही नहीं आ रहा है.’’

‘‘बस, अब तुम चिंता मत करो. तुम्हारा 15 दिन का टूर है और दीदी को यही पता है कि चारू तुम्हारे साथ है, 15 दिन बाद चारू को यहां से ले जाना.’’

अनुराग चला गया. जाते समय वह मुड़मुड़ कर चारू को देखता रहा पर वह उसे छोड़ने भी नहीं गई. 6-7 महीने ही तो हुए थे शादी को पर पति के विछोह की कोई भी पीड़ा चारू के चेहरे पर नहीं थी. चूंकि मेरे दोनों बेटे बाहर पढ़ते हैं और पति शाम को ही घर पर आने वाले थे इसीलिए हम दोनों उस समय अकेली ही थीं.

‘‘चारू, बेटा क्या लेगी? ठंडा या गरम, कुछ नाश्ता करेगी न मेरी बच्ची?’’

स्नेह से सिर पर हाथ फेरा तो मेरी गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. मैं प्यार से उसे सहलाती रही.

‘‘ऐसा लगता है मौसी कि मैं मर जाऊंगी. मुझे बहुत डर लगता है. कुछ नहीं होता मुझ से.’’

‘‘होता है बेटा, होता क्यों नहीं. तुम्हें तो सब कुछ आता है. चारू इतनी समझदार, इतनी पढ़ीलिखी, इतनी सुंदर बहू है हमारी.’’

चारू मेरा हाथ कस कर पकड़े रही जब तक पूरी तरह सो नहीं गई. एक प्रश्नचिह्न थी मेरी बहन सदा मेरे सामने, और आज भी वह वैसी ही है. एक उलझा हुआ चरित्र जिसे स्वयं ही नहीं पता, उसे क्या चाहिए. जिस का अहं इतना ऊंचा है कि हर रिश्ता उस के आगे बौना है.

शाम को मेरे पति घर आए तब उन्हें मेरे इस कदम का पता चला. घबरा गए वह कि कहीं दीदी को पता चला तो क्या होगा. कहीं रिश्ता ही न टूट जाए.

‘‘टूटता है तो टूट जाए. उम्र भर हम ने दीदी की चालबाजी सही है. अब मैं बच्चों को तो दीदी की आदतों की बलि नहीं चढ़ने दे सकती. जो होगा हो जाएगा. कभी तो आईना दिखाना पड़ेगा न दीदी को.’’

चारू की हालत देख कर मैं सुबकने लगी थी. चारू उठी ही नहीं. सुबह का नाश्ता किया हुआ  था. खाना सामने आया तो पति का मन भी भर आया.

‘‘बच्ची भूखी है. मुझ से तो नहीं खाया जाएगा. तुम जरा जगाने की कोशिश तो करो. आओ, चलो मेरे साथ.’’

रिश्ते की नजाकत तो थी ही लेकिन सर्वोपरि थी मानवता. हमारी अपनी बच्ची होती तो क्या करते, जगाते नहीं उसे. जबरदस्ती जगाया उसे, किसी तरह हाथमुंह धुला मेज तक ले आए. आधी रोटी ही खा कर वह चली गई.

‘‘सोना मत, चारू. अभी तो हम ने बातें करनी हैं,’’ मैं चारू को बहाने से जगाना चाहती थी. पहले से ही खरीदी साड़ी उठा लाई.

‘‘चारू, देखना तुम्हारे मौसाजी मेरे लिए साड़ी लाए हैं, कैसी है? तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. तुम्हारी साडि़यां देखी थीं न शादी में, जरा पसंद कर के दे दो. यही ले लूं या बदल लूं.’’

चारू ने तनिक आंखें खोलीं और सामने पड़ी साड़ी को उस ने गौर से देखा फिर कहने लगी, ‘‘मौसाजी आप के लिए इतने प्यार से लाए हैं तो इसे ही पहनना चाहिए. कीमत साड़ी की नहीं कीमत तो प्यार की होती है. किसी के प्यार को दुत्कारना नहीं चाहिए. बहुत तकलीफ होती है. आप इसे बदलना मत, इसे ही पहनना.’’

शब्दों में सुलह कम प्रार्थना ज्यादा थी. स्नेह से माथा सहला दिया मैं ने चारू का.

‘‘बड़ी समझदार हो तुम, इतनी अच्छी बातें कहां से सीखीं.’’

‘‘अपने पापा से, लेकिन शादी के बाद मेरी हर अच्छाई पता नहीं कहां चली गई मौसी. मैं नाकाम साबित हुई हूं, घर में भी और नातेरिश्तेदारों में भी. मुझे कुछ आता ही नहीं.’’

‘‘आता क्यों नहीं? मेरी बच्ची को तो बहुत कुछ आता है. याद है, तुम्हारे मौसाजी के जन्मदिन पर तुम ने उपमा और पकौड़े बनाए थे, जब तुम अनुराग के साथ पहली बार हमारे घर आई थीं. आज भी हमें वह स्वाद नहीं भूलता.’’

‘‘लेकिन मम्मी तो कहती हैं कि आप लोग अभी तक मेरा मजाक उड़ाते हैं. इतना गंदा उपमा आप ने पहली बार खाया था.’’

यह सुन कर मेरे पति अवाक् रह गए थे. फिर बोले, ‘‘नहीं, चारू बेटा, मैं अपने बच्चों की सौगंध खा कर कहता हूं, इतना अच्छा उपमा हम ने पहली बार खाया था.’’

शोभा दीदी ने बहू से इस तरह क्यों कहा? इसीलिए उस के बाद यह कभी हमारे घर नहीं आई. आंखें फाड़फाड़ कर यह मेरा मुंह देखने लगे. इतना झूठ क्यों बोलती है यह शोभा? रिश्तों में इतना जहर क्यों घोलती है यह शोभा? अगर सुंदर, सुशील बहू आ गई है तो उस को नालायक प्रमाणित करने पर क्यों तुली है? इस से क्या लाभ मिलेगा शोभा को?

‘‘तुम, तुम मेरी बेटी हो, चारू. अगर मेरी कोई बेटी होती तो शायद तुम जैसी होती. तुम से अच्छी कभी नहीं होती. मैं तो सदा तुम्हारे अपनेपन से भरे व्यवहार की प्रशंसा करता रहा हूं. लगता ही नहीं कि घर में किसी नए सदस्य का आगमन हुआ था. अपनी मौसी से पूछो, उस दिन मैं ने क्या कहा था? मैं ने कहा था, हमें भी ऐसी ही बहू मिल जाए तो जीवन में कोई भी कमी न रह जाए. मैं सच कह रहा हूं बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, मेरा विश्वास करो.’’

मेरे सामने सब साफ होता गया. शोभा अपने पुत्र और पति के सामने भी खुद को बहू से कम सुंदर, कम समझदार प्रमाणित नहीं करना चाहती.

दूसरी सुबह ही मैं ने पूरा घर चारू को सौंप दिया. मेरे पति ने ही मुझे समझाया कि एक बार इसे अपने मन की करने तो दो, खोया आत्मविश्वास अपनेआप लौट आएगा. बच्ची पर भरोसा तो करो, कुछ नया होगा तो उसे स्वीकारना तो सीखो. इस का जो जी चाहे करे, रसोई में जो बनाना चाहे बनाए. कल को हमारी भी बहुएं आएंगी तो उन्हें स्वीकार करना है न हमें.

चाय बनाने में चारू के हाथ कांप रहे थे. वह डर रही थी तो मैं ने उस का हौसला बढ़ाने के लिए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ कमी होगी तो हम पूरी कर लेंगे. तुम बनाओ तो सही. बनाओ, शाबाश.’’

मेरे इस अभियान में पति भी मेरे साथ हो गए थे. उन्हें विश्वास था कि चारू अच्छी हो जाएगी. शाम को घर आए तो पता चला कि 15 दिन की छुट््टी पर हैं. पूछा तो हंसने लगे, ‘‘क्या करता, आज शोभा का फोन आया था. कहती थी 2 दिन के लिए यहां आना चाहती है. उसे मैं ने टाल दिया. मैं ने कह दिया कि कल से बनारस जा रहे हैं हम, मिल नहीं पाएंगे. इसलिए क्षमा करें.’’

‘‘अच्छा? यह तो मैं ने सोचा ही न था,’’ पति की समझदारी पर भरोसा था मुझे.

‘‘अब चारू के बहाने मैं भी घर पर रह कर आराम करूंगा. चारू नएनए पकवान बनाएगी, है न बिटिया.’’

‘‘मेरी खातिर आप को कितना झूठ बोलना पड़ रहा है.’’

15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. सब बदल गया, मानो हमें बेटी मिल गई हो. सुबह नाश्ते से ले कर रात खाने तक सब चारू ही करती रही. मेरे कितने काम रुके पड़े थे जो मैं गरदन में दर्द की वजह से टालती जा रही थी. चारू ने निबटा दिए थे. घर की सब अलमारियां करीने से सजा दीं और बेकार सामान अलग करवा दिया.

घर की साजसज्जा का भी चारू को शौक है. फैब्रिक पेंट और आयल पेंट से हमारा अतिथि कक्ष अलग ही तरह का लगने लगा. नई सोच और नई ऊर्जा पर मेरी थक चुकी उंगलियां संतुष्ट एवं प्रसन्न थीं. काश, ऐसी ही बहू मुझे भी मिल जाए. क्या दीदी को ऐसा नहीं लगता? फिर सोचती हूं उस की उंगलियां थकी ही कब थीं जो बहू में सहारा खोजतीं. उस ने तो आज तक सदा अभिनय किया और दांवपेच खेल कर अपना काम चलाया है. मेरी बनाई पाक कला पर बड़ी सहजता से अपना नाम चिपकाना, बनीबनाई चीज और पराई मेहनत का सारा श्रेय खुद ले जाना दीदी का सदा का शौक रहा है. भला इस में मेहनत कैसी जो वह थक जाती और बहू का सहारा उसे मीठा लगता.

अनुराग का फोन अकसर आता रहता. चारू उस से बात करने से भी कतराती. पूछने पर बताने लगी, ‘‘बहुत परेशान किया है मुझे अनुराग ने भी. कम से कम इन्हें तो मेरा साथ देना चाहिए. मेरा मन नहीं है बात करने का.’’

एक दिन चारू बोली, ‘‘मौसी, मैं अपने मायके पापा के पास भाग जाना चाहती थी लेकिन डरती हूं कि पापा को मेरी हालत देख कर धक्का लगेगा. उन्हें भी तो दुखी नहीं करना चाहती.’’

‘‘इस घर को अपने पापा का ही घर समझो, मैं हूं न,’’ भावविह्वल हो कर मेरे पति बोले थे. बरसों से मन में बेटी की साध थी. चारू से इन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों किसी भी विषय पर अच्छी खासी चर्चा कर बैठते.

‘‘बहुत समझदार और बड़ी सूझबूझ वाली है चारू, इसीलिए तुम्हारी बहन के गले में कांटे की तरह फंस गई. यह तो होना ही था. भला शोभा जैसी औरत इसे कैसे बरदाश्त करती?’’ मेरे पति बोले.

15 दिन बाद अनुराग आया और उस के सभी प्रश्नों के उत्तर उस के सामने थे. मेरे घर की नई साजसज्जा, दीवार पर टंगी खूबसूरत पेंटिंग, सोफों पर पड़े सुंदर कुशन, मेज पर सजा स्वादिष्ठ नाश्ता, सब चारू का ही तो कियाधरा था.

‘‘पता चला, मैं क्यों कहती थी कि चारू को मेरे पास छोड़ जा. कुछ नहीं किया मैं ने, सिर्फ उसे मनचाहा करने की आजादी दी है. पिछले 15 दिन से मैं ने पलट कर भी नहीं देखा कि वह क्या कर रही है. जो लड़की मेरा घर सजासंवार सकती है, क्या अपने घर में निपट गंवार होगी? क्या एक कप चाय भी वह तुम्हें नहीं पिला पाती होगी? अपनी मां का इलाज कराओ अनुराग, चारू तो अच्छीभली है. जाओ, जा कर मिलो उस से, अंदर है वह.’’

शाम तक अनुराग हमारे ही साथ रहा. घर जाने का समय आया तो हम दोनों का भी मन डूबने लगा. अपने मौसा की छाती से लग कर चारू फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘नहीं बिटिया, रोना नहीं. तुम्हारा अपना घर तो वही है न. अब तुम्हें उसी को सजानासंवारना है. जब भी याद आए, मत सोचना तुम्हारे पापा का घर दूर है. नहीं तो एक फोन ही घुमा देना, हम अपनी बच्ची से मिलने आ जाएंगे.’’

हाथ में पकड़ी सुंदर टाप्स की डब्बी इन्होंने चारू को थमा दी.

‘‘पापा के घर से बिटिया खाली हाथ नहीं न जाती. जाओ बच्ची, फलो- फूलो, खुश रहो.’’

दोनों चले गए. हम उदास भी थे और संतुष्ट भी. पूरी रात अपने कदम का निकलने वाला नतीजा कैसा होगा, सोचते रहे. सुबहसुबह इन्होंने शोभा दीदी के घर फोन किया.

‘‘दीदी, हम बनारस से लौट आए हैं. आप आइए न, कुछ दिन हमारे पास,’’ और कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद हंसते हुए फोन रख दिया.

‘‘सुनो, अब तुम्हारी बहन परेशान हैं. क्या उन्हें भी बुला लें. कह रही हैं, चारू अनुराग के साथ कुछ दिनों के लिए टूर पर गई थी और अब लौटी है तो मेमसाहब के रंगढंग ही बदले हुए हैं. कह रही हैं कि अपना और अनुराग का नाश्ता वह खुद ही बनाएंगी.’’

हैरान रह गई मैं, ‘‘तो क्या बहू की चुगली दीदी आप से कर रही हैं. उन्हें शर्म है कि नहीं?’’

मेरे पति खिलखिला कर हंस पडे़ थे. हमारा प्रयोग सफल रहा था. चारू संभल गई थी. अब भोगने की बारी दीदी की थी. कभी न कभी तो उसे अपना बोया काटना ही पड़ता न, सो उस का समय शुरू होता है अब.

अब अकसर ऐसा होता है, दीदी आती हैं और घंटों चारू के उसी अभिनय को कोसती रहती हैं जिस के सहारे दीदी ने खुद अपनी उम्र गुजारी है. कौन कहे दीदी से कि उसे आईना दिखाया जा रहा है, यह उसी पेड़ का कड़वा फल है जिस का बीज उस ने हमेशा बोया है. कभी सोचती हूं कि दीदी को समझाऊं लेकिन जानती हूं वह समझेंगी नहीं.

भूल जाता है मनुष्य अपने ओछे कर्म को. अपने संताप का कारण कभीकभी वह स्वयं ही होता है. जरा सा संतुलन अगर रिश्तों में शोभा भी बना लेने का प्रयास करती तो न वह कल औरों को दुखी करती और न ही आज स्वयं परेशान होती.

करामात

प्यारे मियां 13 वर्ष के थे. वह मेरे साथ ही नवीं कक्षा में पढ़ते थे. पढ़ते तो क्या थे, बस, हर समय खेलकूद में ही उन का मन लगा रहता. जब अध्यापक पढ़ाते तो वह खिड़की से बाहर मैदान में झांकते रहते, जहां लड़के फुटबाल, कबड्डी या गुल्लीडंडा खेलते होते.

अपनी इन हरकतों पर वह रोज ही पिटते थे, स्कूल में और घर पर भी. उन के पिता बड़े कठोर आदमी थे. खेलकूद के नाम से उन्हें नफरत थी. उन के सामने खेल का नाम लेना भी पाप था. वह चाहते थे कि प्यारे मियां बस दिनरात पढ़ते ही रहें. अगर वह कभी खेलने चले जाते तो बहुत मार पड़ती थी. यही कारण था कि प्यारे मियां स्कूल में जी भर कर खेलना चाहते थे. अंत में वही हुआ जो होना था. वह परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाए. पिता ने जी भर कर उन्हें मारा.

प्यारे मियां हर खेल में सब से आगे थे. स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था. उन का शरीर भी बलिष्ठ था. एक दिन उन की मां उन्हें पीर साहब के पास ले गईं. पीर साहब नगर से बाहर एक खानकाह में रहते थे. नगर के लोग उन के चमत्कारों की कहानियां सुनसुन कर उन के पास जाया करते थे. कोई किसी रोग का इलाज कराने जाता, कोई संतान के लिए और कोई मुकदमा जीतने के लिए. पीर साहब किसी को तावीज देते, किसी को फूंक मार कर पानी पिलाते. पीर साहब का खलीफा हर आने वाले से 11 रुपए ले लेता था.

प्यारे मियां की मां को भी पीरों पर बड़ा विश्वास था. उन का कहना था कि पीरों में इतनी शक्ति होती है कि वह सबकुछ कर सकते हैं. जिसे जो चाहे दे दें और जिसे चाहें बरबाद कर दें.

मां ने पीर साहब से हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘इस का पढ़ाई में मन नहीं लगता. आप कुछ कीजिए.’’

पीर साहब ने आंखें बंद कीं. कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘‘मुर्गे के खून से एक तावीज लिखा जाएगा. काले रंग का एक मुर्गा लाओ. 40 दिन लड़के को हम अपना फूंका हुआ पानी पिलाएंगे.’’

अगले दिन प्यारे मियां के गले में तावीज पड़ गया.

प्यारे मियां रोज पीर साहब का दम किया हुआ पानी पी रहे थे.

मां खुश थीं कि अब वह खेलकूद में अधिक ध्यान नहीं देते थे. कक्षा में चुपचाप बैठे रहते. घर जाते तो कमरे में जा कर पड़ जाते. वह कुछ थकेथके से लगते थे. उन्हें हलकाहलका बुखार रहने लगा था और खांसी भी.

मैं ने उन की मां को समझाया, ‘‘पीर साहब और तावीज के चक्कर में न पड़ें. प्यारे मियां का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है. उन्हें डाक्टर को दिखाएं.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बेटा, हमारा पीर साहब पर विश्वास है. तुम ने देखी नहीं उन की करामात. प्यारे से खेलकूद सब छुड़वा दिया. वही प्यारे को ठीक भी कर देंगे.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘प्यारे मियां का खेलकूद में इतना ध्यान देना कोई गंभीर बात नहीं थी. अगर उन्हें खेलकूद से इतनी सख्ती से न रोका जाता तो वह भी केवल इतना ही खेलते जितना और सब लड़के. अधिक प्रतिबंध लगाने का प्रभाव उलटा ही हुआ. जितना उन्हें खेल से रोका गया वह उतना ही खेल के दिवाने होते गए. दोष आप का है. और फिर पीर साहब का चक्कर. आप देखतीं नहीं कि प्यारे मियां बीमार हैं? इसी कारण वह खेलकूद भी नहीं रहे हैं.’’

परंतु मां ने मेरी बात अनसुनी कर दी.

एक दिन प्यारे मियां को खांसी के साथ खून आया. उन्हें डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने तपेदिक का रोग बताया. उसी डाक्टर से पीर साहब भी अपना इलाज करा रहे थे. 40 दिन तक फूंका हुआ पानी पिला कर पीर साहब ने अपनी तपेदिक की बीमारी के कीड़े प्यारे मियां के शरीर में पहुंचा दिए थे. यह भी उन की करामात थी.

प्यारे मियां के मांबाप सिर पीट रहे थे. वे अपनेआप को और अपने अंध- विश्वास को बारबार कोस रहे थे.

तानी ने पिलाया पानी

भारत के शतरंज के खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. इस खेल में भारत की ओर से सिरमौर रहे मासूम चेहरे के इस खिलाड़ी को लोग आज भी प्यार से ‘विशी’ कह कर बुलाते हैं. वैसे, जब ये किशोर अवस्था में थे तो इन्हें ‘लाइटनिंग किड’ कहा जाता था.आज विश्वनाथन आनंद जैसा ही एक ‘लाइटनिंग किड’ दोबारा सुर्खियों में है.

नाम उस का तानी है और उम्र महज 8 साल, पर शतरंज में वह अच्छे अच्छों को पानी पिला रहा है. उस ने हाल ही में न्यूयौर्क स्टेट चैस चैंपियनशिप में ट्रौफी जीती है.लेकिन तानी के साथ एक ऐसी कहानी भी जुड़ी है जो उसे दूसरे नन्हे खिलाड़ियों से अलग करती है. सच कहें तो उस का यहां तक का सफर इतना आसान नहीं रहा है.दरअसल, तानी एक नाइजीरियाई रिफ्यूजी है जो न्यूयौर्क के मैनहेटन में एक शेल्टर होम में रहता है. उस का परिवार साल 2017 में नाइजीरिया से भाग आया था और तकरीबन एक साल से न्यूयॉर्क में रह रहा है.

तानी के पिता कायोदे एडेवुमी एक कैब ड्राइवर हैं. वे बताते हैं कि नाइजीरिया में जब बोको हरम के आतंकवादियों ने उन के जैसे ही ईसाई लोगों पर हमला किया, तब वे वहां से निकल आए थे. वे किसी भी अपने को खोना नहीं चाहते थे. फिलहाल नाइजीरिया बहुत सी समस्याओं से जूझ रहा है. वहां के बहुत से लोग इतने गरीब हैं कि वे कर्ज में डूबे हुए हैं और अपना कर्ज चुकाने के लिए बेटियों तक का सौदा कर देते हैं. बोको हरम ने भी नाक में दम किया हुआ है.

वहां से आतंकी वारदातों की खबरें आती ही रहती हैं. ऐसे में वहां से लोगों का अपनी जान बचा कर भागना रोजमर्रा की बात है.ऐसे ही एक परिवार के तानी ने एक साल पहले ही शतरंज खेलना सीखा है और अब तक वह 7 ट्रौफी अपने नाम कर चुका है. वह फिलहाल मई में होने वाली एलिमेंट्री नैशनल चैंपियनशिप के लिए तैयारी कर रहा है. अपने शतरंज प्रेम को ले कर उस ने बताया, ”मैं सब से कम उम्र का ग्रैंडमास्टर बनना चाहता हूं.”तानी की यह तमन्ना जरूर पूरी होनी चाहिए क्योंकि इस कमउम्र खिलाड़ी ने साबित कर दिया है कि चाहे हालात आप के कितने भी खिलाफ क्यों न हों, लेकिन अगर आप में हुनर है और कुछ करने का जज्बा है तो फिर मंजिल कितनी भी मुश्किल हो, आप उसे पा ही लेंगे.

एरिक्सन के कर्ज को चुकाने में मुकेश ने की अनिल की मदद

कर्ज के बोझ तले दबे रिलायंस कम्यूनिकेशन ने एरिक्शन के बकाया 550 करोड़ रुपये का भुगतान ब्याज समेत कर दिया है. अनील अंबानी की कंपनी आरकौम के इस कर्ज को चुकाने में उनके भाई मुकेश अंबानी और भाभी नीता अंबानी अहम किरदार रहें. आपको बता दें कि दोनों कंपनियों के बीच चल रहे इस कर्ज के विवाद की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही थी. कोर्ट ने अनिल अंबानी को एक तय वक्त में बकाया का भुगतान करने के आदेश दिए थे, ऐसा ना करने पर अनिल अंबानी को जेल भी जाना पड़ सकता था. लंबे समय से चल रहे इस मामले में वो अदालत की अवमानना के दोषी करार दे गए थे जिसके बाद ये खबर उनके लिए किसी राहत से कम नहीं, वो जेल जाने से बच गए.

एरिक्सन के बकाये की भुगतान के बाद अनिल ने अपने बड़े भाई और भाभी के प्रति आभार जताते हुए कहा, ‘मैं अपने आदरणीय बड़े भाई मुकेश और भाभी नीता के इस मुश्किल वक्त में मेरे साथ खड़े रहने और मदद करने का तहेदिल से शुक्रिया करता हूं. समय पर यह मदद करके उन्होंने परिवार के मजबूत मूल्यों और परिवार के महत्व को रेखांकित किया है. मैं और मेरा परिवार बहुत आभारी हैं कि हम पुरानी बातों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ चुके हैं और उनके इस व्यवहार ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया है.’

आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने रिसायंस कम्यूनिकेशन के प्रमुख अनिल अंबानी को जानबूझ कर उनके आदेश की अवमानना करने और एरिक्सन के बकाये का भुगतान नहीं करने पर आदालत द्वारा दोषी करार दिए गए थे.

एरिक्सन का भुगतान करने के बाद आरकौम ने रिलायंस जियो के साथ 2017 में दूरसंचार संपत्तियों की बिक्री के लिए किए गए करार भी खत्म कर दिया है. आपको बता दें कि ये करार 17,000 करोड़ का था. दोनों समूहों ने सोमवार को इस करार को निरस्त करने की घोषणा करते हुए कहा कि सरकार और ऋणदाताओं से मंजूरी मिलने में देरी और कई तरह की अड़चनों यह समझौता समाप्त किया जाता है.

ऐसी भी होती हैं औरतें

सी तापुर जिले के गांव नेवादा प्रेम सिंह में भगौती प्रसाद अपने परिवार के साथ रहते थे. उन के परिवार में पत्नी रामबेटी के अलावा 3 बेटियां और एक बेटा था. रीना उन की सब से बड़ी बेटी थी. उन के पास खेती की अच्छीखासी जमीन थी, जिस की वजह से परिवार खुशहाल था.

भगौती प्रसाद ने 25 साल पहले अपनी बड़ी बेटी रीना की शादी सीतापुर के ही गांव माखूबपुर के रहने वाले विश्वनाथ उर्फ बबलू से कर दी थी. बबलू टैंपो चलाता था.

कालांतर में रीना 2 बच्चों की मां बनी. दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे. बबलू पत्नी की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देता था, जिस से रीना कुंठित सी हो गई थी. रीना की बहन गुडि़या का विवाह सीतापुर शहर के मोहल्ला सुंदरनगर के अवधेश से हुआ था. अवधेश भी टैंपो चालक था.

अवधेश था तो 3 बच्चों का बाप, लेकिन शरीर से हृष्टपुष्ट था. उस का रीना के घर आनाजाना लगा रहता था. अवधेश को अपनी पत्नी से वह प्यार नहीं मिल पाता था, जिस की उसे चाहत थी. रीना को वह पहले से ही पसंद करता था, इसलिए जब तब उस से मिलने आ जाता था.

एक दिन अवधेश रीना के घर गया तो विश्वनाथ घर पर ही था. वह विश्वनाथ से बोला, ‘‘मुझे यहां पास में ही काम मिल रहा है, इसलिए मुझे यहीं रहना पड़ेगा. अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं कुछ दिन के लिए तुम्हारे घर में रह सकता हूं?’’

इस से पहले कि विश्वनाथ कुछ बोलता, रीना बोल बोल पड़ी, ‘‘जीजा, इस में पूछने वाली क्या बात है. इसे अपना ही घर समझो और जब तक चाहो, रहो.’’

मजबूरी में विश्वनाथ को रीना की हां में हां मिलानी पड़ी, ‘‘रीना सही कह रही है. तुम बेहिचक यहां रह सकते हो.’’

इस के बाद अवधेश खाना खा कर अपने घर लौट गया.

इस के अगले ही दिन वह बैग में कपड़े वगैरह ले कर रीना के घर पहुंच गया. यह करीब 3 साल पहले की बात है. काम तो अवधेश का बहाना था, असल में उसे रीना के नजदीक आना था. विश्वनाथ सुबह घर से निकल जाता था और कभी देर शाम तो कभी देर रात तक घर लौटता था.

रीना के जवान हो चुके दोनों बेटे भी काम से निकल जाते थे. घर में रह जाते थे विश्वनाथ और रीना. रीना को अवधेश पति से ज्यादा अच्छा लगता था. अवधेश खाना खाने के लिए दोपहर को भी घर पहुंच जाता था. उस के घर आने के समय रीना दरवाजे पर खड़ी हो कर उस का इंतजार करती थी.

एक दिन रीना जब इंतजार करतेकरते थक गई, तो अंदर जा कर चारपाई पर लेट गई. कुछ देर बाद दरवाजा खटखटाने की आवाज आई तो रीना ने दरवाजा खोला. अवधेश आया था. उसे अंदर आने को कह कर वह लस्तपस्त सी चारपाई पर जा लेटी.

अवधेश ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ रीना, इस तरह सुस्त क्यों पड़ी

हो? लगता है, अभी नहाई नहीं हो.’’

रीना ने धीरे से कहा, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं है, कुछ अच्छा नहीं लग रहा.’’

अवधेश ने जल्दी से झुक कर रीना की नब्ज पकड़ ली. उस के स्पर्श से रीना के शरीर में हलचल सी मच गई, आंखें अजीब से नशे से भारी हो गईं. आवाज जैसे गले में ही फंस गई. उस ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘तुम तो ऐसे नब्ज टटोल रहे हो जैसे डाक्टर हो.’’

‘‘रीना, मैं बहुत बड़ा डाक्टर हूं.’’ अवधेश ने हंस कर कहा, ‘‘देखो न, नाड़ी छूते ही मैं ने तुम्हारा रोग भांप लिया. बुखार, हरारत कुछ नहीं है. बात है कि विश्वनाथ सुबह ही काम पर चला जाता है और देर शाम को घर लौटता है.’’

रीना के मुंह का स्वाद जैसे एकाएक कड़वा हो गया. वह तुनक कर बोली, ‘‘शाम को भी लौटे या न लौटे, मुझे क्या फर्क पड़ता है.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही हो, कितना खयाल रखता है तुम्हारा.’’ अवधेश ने उसे कुरेदा.

‘‘क्या खाक खयाल रखता है?’’ कहते उस की आंखों में आंसू छलक आए.

यह देख अवधेश व्याकुल हो उठा. कहने लगा, ‘‘रोओ मत, नहीं तो मुझे बहुत दुख होगा. तुम्हें मेरी कसम उठो और अभी नहा कर आओ. तुम्हारा मन थोड़ा शांत हो जाएगा.’’

अवधेश के बहुत जिद करने पर रीना को उठना पड़ा. वह नहाने की तैयारी करने लगी तो अवधेश चारपाई पर लेट गया. रीना के बाथरूम में जाने के बाद अवधेश का मन विचलित हो रहा था. रीना की बातें उसे कुरेद रही थीं. उस से रहा नहीं गया, उस ने बाथरूम की ओर देखा तो दरवाजा खुला हुआ था.

अवधेश का दिल एकबारगी जोर से धड़क उठा. उस ने एक बार चोर नजरों से बाहर की ओर देखा. सन्नाटा देख कर उस ने धीरे से दरवाजा बंद कर दिया और कांपते पैरों से बाथरूम के सामने जा कर खड़ा हो गया. रीना उन्मुक्त भाव से बैठी नहा रही थी. निर्वसन रीना के शरीर की चकाचौंध से अवधेश की आंखें फटी की फटी रह गईं.

आहट हुई तो रीना ने बाहर की ओर देखा. बाहर अवधेश को देख कर वह चौंक पड़ी. फिर भी उस ने छिपने या कपड़े पहनने की कोई आतुरता नहीं दिखाई. अपने नग्न बदन को हाथों से ढकने का असफल प्रयास करती हुई वह शरारती अंदाज में बोली, ‘‘बड़े शरारती हो तुम जीजा. अभी कोई देख ले तो…कमरे में जाओ.’’

लेकिन अवधेश सीधा बाथरूम में घुस गया और कहने लगा, ‘‘कोई नहीं देखेगा रीना, मैं ने बाहर वाले दरवाजे में कुंडी लगा दी है.’’

‘‘तो यह बात है. इस का मतलब तुम्हारी नीयत पहले से ही खराब थी.’’

‘‘तुम भी तो प्यासी हो. विश्वनाथ से तुम्हारी डोर बांध कर तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा छल किया है.’’ कहतेकहते अवधेश ने रीना की धुली देह बांहों में भींच ली. पलक झपकते ही बाथरूम में तूफान सा उमड़ पड़ा. तूफान शांत हो जाने के बाद रीना बहुत खुश थी.

अवधेश जब तक वहां रहा, दोनों के बीच यह खेल चलता रहा. कुछ दिनों तक रहने के बाद वह अपने घर चला गया. लेकिन वह बारबार काम का बहाना बना कर रीना के घर आ जाता और कईकई दिनों तक रुकता.

हालांकि अवधेश रीना का रिश्तेदार था लेकिन इश्कविश्क की बातें आखिर छिपती कहां हैं. लोगों को इस की भनक लग ही जाती है. धीरेधीरे उन के अनैतिक संबंधों की चर्चा आसपड़ोस के लोगों में भी होने लगी.

जब यह बात विश्वनाथ के कानों तक पहुंची तो उस ने रीना से पूछा, ‘‘मैं यह क्या सुन रहा हूं, तुम मेरे पीछे तुम अपने जीजा अवधेश के साथ गुलछर्रे उड़ाती हो?’’

‘‘अपनी बीवी पर बस इतना ही विश्वास करते हो. कोई भी तुम से मेरे बारे में कुछ कह दे तो तुम सीधे मेरे ऊपर आ कर चढ़ाई कर दोगे.’’ उलटे रीना ने पति को आड़े हाथों लिया.

‘‘तो तुम्हारा मतलब है कि यह सब झूठ है?’’ विश्वनाथ बोला.

‘‘सरासर झूठ है, इस में कोई सच्चाई नहीं है.’’ रीना ने उसे विश्वास में लेते हुए कहा.

‘‘काश! यह झूठ ही हो, इसी में तुम्हारी भलाई है.’’ विश्वनाथ रीना को घूरते हुए बोला और फिर वहां से चला गया. रीना उस के जाते ही मुसकरा उठी.

लेकिन उन के संबंधों का राज राज नहीं रहा. इस बार रीना भी खुल कर मैदान में आ गई. जब रीना को किसी का डर नहीं था तो अवधेश क्यों पीछे हटता.

इधरउधर की बातें होने लगीं तो रीना अवधेश के घर चली गई. वह अवधेश के घर में रहती और जब मन होता 1-2 दिन के लिए अपने घर आ जाती. अवधेश ने अपनी पत्नी गुडि़या को डराधमका कर चुप करा दिया था.

विश्वनाथ के पिता यानी रीना के ससुर शंभूदयाल नौकरी से रिटायर हो चुके थे. रिटायर होने के बाद उन्हें सरकार से पेंशन मिलती थी. वह पेंशन के रुपए लेने के लिए महीने की 1 तारीख को उन के पास आ जाती थी. रुपए ले कर वापस अवधेश के घर लौट जाती.

शंभूदयाल ने अपनी पुश्तैनी जमीन भी रीना के नाम कर दी थी. जबकि अपने बेटे और 2 पोते होने के बावजूद उन्होंने विश्वनाथ को कुछ नहीं दिया था. ऐसा क्या हुआ कि शंभूदयाल अपनी बहू से इतने खुश थे कि उन्होंने ऐसा कदम उठाया. गांव के लोग इस के तरहतरह से मायने निकालने लगे.

पहली अक्तूबर, 2018 की सुबह खैराबाद थाने में किसी ने फोन पर खबर दी कि मीनापुर गांव के पास सड़क किनारे एक व्यक्ति की लाश पड़ी है. सूचना पा कर इंसपेक्टर सचिन सिंह पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. मृतक की उम्र लगभग 40-41 साल थी. उस के गले पर चोटों के निशान थे.

बाकी शरीर पर किसी तरह की चोट के निशान नहीं थे. तब तक वहां काफी लोग जमा हो चुके थे. लोगों ने लाश की शिनाख्त गांव माखूबपुर निवासी विश्वनाथ के रूप में की.

उन्होंने मृतक के घर वालों को घटना की सूचना भिजवा दी. घर वाले आए तो उन्होंने लाश की शिनाख्त विश्वनाथ के रूप में कर दी. पुलिस ने मौके की काररवाई पूरी कर के लाश पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दी.

विश्वनाथ के बेटे पंकज ने रीना व 2 अज्ञात लोगों पर शक जताया तो पुलिस ने भादंवि की धारा 302, 201 के तहत रिपोर्ट दर्ज कर केस की जांच शुरू कर दी.

इंसपेक्टर सचिन सिंह ने मृतक विश्वनाथ के पिता से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि रीना के नाजायज संबंध उस के बहनोई अवधेश से थे. वह उसी के साथ रहती थी. वह कभीकभी ही घर आती थी.

घटना से 6 महीने पहले वह अवधेश के साथ भाग गई थी. घटना की रात रीना की 5 वर्षीय बेटी राधिका उस के पास ही सोई थी. हो सकता है उस ने इस घटना को होते देखा हो.

इंसपेक्टर सचिन सिंह ने राधिका से पूछताछ की तो उस ने बताया कि रात में मम्मी का पापा से झगड़ा हुआ था, जिस के बाद मम्मी ने कुछ लोगों को बुला कर पापा को मार दिया.

राधिका के इस बयान के बाद इंसपेक्टर सिंह ने रीना को हिरासत में ले लिया. उसे थाने ला कर जब सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने पति की हत्या का जुर्म स्वीकार करते हुए हत्या में शामिल लोगों के नाम भी बता दिए.

अप्रैल, 2018 में रीना अवधेश के साथ कहीं चली गई थी. किसी को इस की जानकारी नहीं मिल सकी कि रीना आखिर कहां गई. वह घटना से 2 दिन पहले ही घर लौटी थी.

गायब होने के दौरान ही उस ने अवधेश से कोर्टमैरिज कर ली थी. अब वह पति से हमेशा के लिए छुटकारा पाना चाहती थी. इसलिए उस ने अवधेश से विश्वनाथ को हमेशा के लिए रास्ते से हटाने की बात कर ली थी. अवधेश ने इस के लिए रीना के गांव के ही अपने एक साथी हिमांशु त्रिपाठी और खैराबाद कस्बे के शिवकुमार को इस योजना में शामिल कर लिया था.

30 सितंबर, 2018 की रात विश्वनाथ रीना से शारीरिक संबंध बनाना चाहता था. रीना अवधेश से कोर्टमैरिज कर चुकी थी, इसलिए उस ने विश्वनाथ को अपने पास नहीं फटकने दिया. इस पर दोनों में झगड़ा हुआ. झगड़े के बाद विश्वनाथ सो गया. लेकिन रीना गुस्से से भरी हुई थी. उस ने अवधेश को फोन किया और विश्वनाथ को तुरंत ठिकाने लगाने को कहा.

अवधेश उसी समय शिवकुमार और हिमांशु को ले कर रीना के घर पहुंच गया. उन्होंने सोते हुए विश्वनाथ को दबोच लिया. फिर विश्वनाथ के गले में नायलौन की रस्सी डाल कर उस का गला कस दिया, जिस से उस की मृत्यु हो गई. यह सब करते हुए रीना की बेटी राधिका चुपचाप देख रही थी, लेकिन वह डरीसहमी सी सोने का नाटक करती रही.

विश्वनाथ को मौत के घाट उतारने के बाद उन्होंने उस की लाश हिमांशु की स्प्लेंडर बाइक पर लाद कर मीनापुर गांव के पास सड़क किनारे फेंक दी. इस के बाद तीनों वहां से फरार हो गए.

लेकिन चश्मदीद राधिका के बयान के बाद उन का राजफाश हो गया. रीना से पूछताछ के बाद अवधेश, हिमांशु त्रिपाठी और शिवकुमार को भी पुलिस ने लालपुर रोड से गिरफ्तार कर लिया. उन के पास से हत्या में इस्तेमाल की गई नायलौन की रस्सी और बाइक बरामद कर ली.

आवश्यक कानूनी लिखापढ़ी के बाद चारों अभियुक्तों को न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया गया.??????   —कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

ये दुनिया नहीं जागीर किसी की, राजा हो या रंक यहां तो सब हैं चौकीदार

आपातकाल के एक साल पहले एक मसाला फिल्म प्रदर्शित हुई थी नाम था चौकीदार , श्याम रलहन निर्देशित इस फिल्म के मुख्य पात्र थे ओम प्रकाश , संजीव कुमार ,  विनोद खन्ना , जीवन और योगिता बाली. कहानी ठीक वैसी ही थी जैसी 1974 की किसी फिल्म की होनी चाहिए थी. जागीरदार या जमींदार कुछ भी कह लें के बेटे को गांव के चौकीदार की बेटी से प्यार हो जाता है और वह उससे शादी करने उतारू हो आता है. इस पर जागीरदार तरह तरह से अड़ंगे डालता है. इसी दौरान उजागर होती है उसकी असलियत कि वह अत्याचारी बेईमान और शोषक वगैरह वगैरह है. फिल्म के अंत में सच्चाई की जीत होती है और जब दर्शक तालियां बजाते हुये थियेटर के बाहर निकलते हैं तो उनके होंठों पर फिल्म का टाइटल सौन्ग जरूर होता है जिसे मशहूर गीतकार राजिन्द्र कृष्ण ने लिखा था – ये दुनिया नहीं जागीर किसी की , राजा हो या रंक यहां तो सब हैं चौकीदार

अब न रल्हन हैं , न संजीव कुमार हैं , न विनोद खन्ना जो भाजपा से सांसद भी रहे थे और अब उनके फ्लौप अभिनेता बेटे के सर पिता की छोड़ी गई राजनैतिक विरासत निभाने की ज़िम्मेदारी डाल दी गई है. अक्षय कुमार गुरदास पुर सीट से भाजपा के संभावित उम्मीदवार हैं. चौकीदार का किरदार निभाने बाले चरित्र अभिनेता ओम प्रकाश होते तो जरूर महज चार दिनों में रातों रात पैदा हो गए लाखों चौकीदारों को देख 49 साल पहले के दौर को याद करते हुये कहते कि भगवान के लिए चौकीदार को होली का मज़ाक मत बनाओ उसका काम बड़ा गंभीर और ज़िम्मेदारी बाला होता है. एक दफा जमींदार या जागीरगर चोर हो सकता है लेकिन रात भर जागकर होशियार और खबरदार करने बाला चौकीदार अपनी ड्यूटि से बेईमानी नहीं कर सकता. इसी ड्यूटि को निभाते निभाते उन्हें कितनी फिल्मी ही सही परेशानियां झेलनी पड़ी थीं.

इतिहास गवाह है कि प्रजा की चिंता करने वाला राजा हमेशा राज्य के हाल चाल जानने के लिए दबे पांव अमावसी अंधेरे में चोरों की तरह ही महल से बाहर निकलता था. चौकीदारों की तरह निकलता तो कभी सच्चाई से वाकिफ हो ही नहीं पाता. मौजूदा चौकीदार 56 इंच की छाती  ठोककर चौकीदारी का ढिंढोरा पीट रहे हैं तो लगता है कि जागीरदार साहब घोड़े पर सवार होकर निकले हैं क्योंकि वोटों की पकी फसल काटने का सही वक्त यही है. उधर सच्चा किसान बेचारा खेत खलिहान में ऊंघता चोरों से अपनी फसल की रखबाली कर रहा है. वह चोरों से ज्यादा इन जमींदारों से डरता है क्योंकि उसकी मेहनत पर पहला नाजायज हक इन्हीं का होता है. ये फसल चुराने जैसा टुच्चा काम नहीं करते बल्कि उसे उठवाकर हवेली ले जाते हैं.

देश में वोटों की फसल पकी पड़ी है और जागीरदार कह रहे हैं घबराओं मत हम कोई चोर नहीं बल्कि चौकीदार हैं. हमें यह फसल दे दो तो चोरों से बच जाओगे, ईमानदारी से उतना हिस्सा रख लो कि तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का पेट साल भर एक जून के लिए भर जाये. इस किसान की पूरी फसल छीनने की बेबकूफी जागीरदार नहीं करते क्योंकि वह भूखा मर गया तो खेतों में कभी हरियाली नहीं दिखेगी और उनके अय्याश जीवन का मुफ्त का इंतजाम बंद हो जाएगा फिर न हवेली में रंगीनियां होंगी और न ही तवायफ़ों के मुजरे होंगे. इस किसान जो दरअसल में उनका गुलाम मजदूर होता है का आधा पेट भरने का मकसद विद्रोह और मार्क्सनुमा क्रांति को रोकने का भी होता है.

यह बात सही है ये लोकतान्त्रिक चौकीदार देर रात शराब की ढेरों बोतलें लुढ़काने के बाद सोते हैं सोते क्या हैं नशे में लुढ़क जाते हैं और फिर दोपहर को कहते हैं कि प्रजा की चिंता में चार घंटे की नींद भी नहीं ले पाता. इधर वाकई में रात भर जागकर चोरों से गांव के जान माल की हिफाजत करने बाला चौकीदार सोचता रह जाता है कि चोरों से तो गांव बचा लिया इन जागीरदारों से कौन बचाएगा.

सत्ता का नशा सर चढ़ कर बोल रहा है. चोर और चौकीदार में फर्क करना मुश्किल हो रहा है. असली चौकीदार चकराया हुआ है कि जब ये चौकीदार हैं तो मैं कौन हूं. पता नहीं 23 मई को ईवीएम मशीनें क्या नतीजा उगलेंगी ऐसे में ओम प्रकाश के चौकीदार फिल्म का आखिरी अंतरा मौजू है –

मंदिर का मालिक बन बैठा देखो एक पुजारी, जैसे ये है सब का दाता और भगवान भिखारी  दो दिन का मेहमान बना है जग का ठेकेदार….. खबरदार खबरदार.

आज की नैतिकता पुरानी नैतिकता से अच्छी

जब से हिंदू कानून में 1956 और 2005 में बदलाव आया है और बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलने लगा है, तब से भाईबहनों के विवाद बढ़ रहे हैं. 1956 में तो खास परिवर्तन नहीं हुआ था पर तब भी संयुक्त परिवार की संपत्ति में एक जने के अपने हिस्से में से बेटोंबेटियों को बराबर का हिस्सा देने का कानून बना था. 2005 में संयुक्त परिवार में बेटेबेटियों को बराबर का साझीदार कानून घोषित कर दिया गया था.

जो लोग समझते हैं कि इस से भाईबहनों के प्रेम की हिंदू समाज की परंपरा को नुकसान पहुंचा है वे यह नहीं जानते कि असल में पौराणिक कहानियों में ही भाईबहनों के विवादों का बढ़ाचढ़ा कर उल्लेख है और ये कहानियां सिरमाथे पर रखी जाती हैं.

महाभारत के मुख्य पात्रों में से एक भीम का विवाह हिडिंबा से तब हुआ जब भीम ने हिडिंबा के भाई को मार डाला था. असुर राजा ने अपनी बहन हिडिंबा को अपने इलाके में घुस आए पांडवों को मारने के लिए भेजा था पर हिडिंबा भीम पर आसक्त हो गई और उस के उकसाने पर भीम ने उस के भाई को ही मार डाला.

बाद में हिडिंबा ने भीम से विवाह कर लिया और उन से घटोत्कच नाम का पुत्र हुआ जिस ने कौरवपांडव युद्ध में काफी पराक्रम दिखाया. कहानी में महाभारत का लेखक कहीं भी बहन के भाई के विरुद्ध जाने की आलोचना नहीं करता. वह बहन जिसे भाई ने घुसपैठियों को मारने के लिए भेजा था भाई की प्रिय ही होगी वरना वह क्यों अनजान लोगों को मारने के लिए भेजता? मगर आसक्ति ऐसी चीज है जिस में भाई तक को मरवा डाला जाता है और जिन धर्मग्रंथों का हवाला हमारे पंडे और उन के भक्त नेता देते रहते हैं वे ऐसी अनैतिक गाथाओं से भरे पड़े हैं.

राहुल गांधी यदि विवाह किए बिना भी आराम से संतुलित जीवन जी पा रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें प्रियंका और उन के बच्चों का साथ मिलता है. 2005 का कानून सोनिया गांधी के कहने पर लाया गया था, हालांकि कांग्रेस आमतौर पर इस का श्रेय हिंदू कट्टरवादियों से डर कर नहीं लेती पर सच यह है कि भारत में समाज सुधार विदेशियों ने किया, हिंदू धर्म का ढिंढोरा पीटने वालों ने नहीं.

वह फांकी वाला

उस दिन भी गलियां सुनसान थीं. तभी गली से एक फेरी वाली गुजरते हुए आवाज लगा रही थी, ‘‘फांकी ले लो फांकी…’’

जैसे ही आवाज नरेंद्र की बैठक के नजदीक आई तो उसे वह आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. वह जल्दी से चारपाई से उठा और गली की तरफ लपका. तब तक वह फेरी वाली थोड़ा आगे निकल गई थी.

नरेंद्र ने पीछे से आवाज लगाई, ‘‘लच्छो, ऐ लच्छो, सुन तो.’’

उस फेरी वाली ने मुड़ कर देखा तो नरेंद्र ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया. वह फेरी वाली फांकी और मुलतानी मिट्टी बेचने के लिए उस के पास आई और बोली, ‘‘जी बाबूजी, फांकी लोगे या मुलतानी मिट्टी?’’

नरेंद्र ने उसे देखा तो देखता ही रह गया. दोबारा जब उस लड़की ने पूछा, ‘‘क्या लोगे बाबूजी?’’ तब उस की तंद्रा टूटी.

नरेंद्र ने पूछा, ‘‘तुम लच्छो को जानती हो, वह भी यही काम करती है?’’

उस लड़की ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लच्छो मेरी मां है.’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘वह कहां रहती है?’’

उस लड़की ने कहा, ‘‘वह यहीं मेरे साथ रहती है. आप के गांव के स्कूल के पास ही हमारा डेरा है. हम वहीं रहते हैं. आज मां पास वाले गांव में फेरी लगाने गई है.’’

नरेंद्र ने उस लड़की को बैठक में बिठाया, ठंडा पानी पिलाया और उस से कहा कि कल वह अपनी मां को साथ ले कर आए. तब उन का सामान भी खरीदेंगे और बातचीत भी करेंगे.

अगले दिन वे मांबेटी फेरी लगाते हुए नरेंद्र के घर पहुंचीं. उस ने दोनों को बैठक में बिठाया, चायपानी पिलाया. इस के बाद नरेंद्र ने लच्छो से पूछा, ‘‘क्या हालचाल है तुम्हारा?’’

लच्छो ने कहा, ‘‘तुम देख ही रहे हो. जैसी हूं बस ऐसी ही हूं. तुम सुनाओ?’’

नरेंद्र ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. अभी 2 साल पहले रिटायर हुआ हूं. 2 बेटे हैं. दोनों सर्विस करते हैं. बेटीदामाद भी भी सर्विस में हैं.

‘‘पत्नी छोटे बेटे के पास चंडीगढ़ गई है. मैं यहां इस घर की देखभाल करने के लिए. तुम अपने परिवार के बारे में बताओ,’’ नरेंद्र ने कहा.

लच्छो बोली, ‘‘तुम से बाबा की नानुकर के बाद हमारी जात में एक लड़का देख कर बाबा ने मेरी शादी करा दी थी. पति तो क्या था, नशे ने उस को खत्म कर रखा था.

‘‘यह मेरी एकलौती बेटी है सन्नो. इस के जन्म के 2 साल बाद ही इस के पिता की मौत हो गई थी. तब से ले कर आज तक अपनी किस्मत को मैं इस फांकी की टोकरी के साथ ढो रही हूं.’’

उन दोनों के जाने के बाद नरेंद्र यादों में खो गया. बात उन दिनों की थी जब वह ग्राम सचिव था. उस की पोस्टिंग राजस्थानहरियाणा के एक बौर्डर के गांव में थी. वह वहीं गांव में एक कमरा किराए पर ले कर रहता था.

वह कमरा गली के ऊपर था. उस के आगे 4-5 फुट चौड़ा व 8-10 फुट लंबा एक चबूतरा बना हुआ था. उस चबूतरे पर गली के लोग ताश खेलते रहते थे. दोपहर में फेरी वाले वहां बैठ कर आराम करते थे यानी चबूतरे पर रात तक चहलपहल बनी रहती थी.

राजस्थान से फांकी, मुलतानी मिट्टी, जीरा, लहसुन व दूसरी चीजें बेचने वाले वहां बहुत आते थे. कड़तुंबा, काला नमक, जीरा वगैरह के मिश्रण से वे लोग फांकी तैयार करते थे जो पेटदर्द, गैस, बदहजमी जैसी बीमारियों के लिए इनसानों व पशुओं के लिए बेहद गुणकारी साबित होती है.

उस दिन भी गरमी की दोपहर थी. फेरी वाली गांव में फेरी लगा कर कमरे के बाहर चबूतरे पर आ कर आराम कर रही थी. उस ने किवाड़ की सांकल खड़काई.

नरेंद्र ने दरवाजा खोल कर देखा कि 18-20 साल की एक लड़की राजस्थानी लिबास में चबूतरे पर बैठी थी.

नरेंद्र ने पूछा था, ‘क्या बात है?’

उस ने मुसकरा कर कहा था, ‘बाबूजी, प्यास लगी है. पानी है तो दे देना.’

नरेंद्र ने मटके से उस को पानी पिलाया था. पानी पी कर वह कुछ देर वहीं बैठी रही. नरेंद्र उस के गठीले बदन के उभारों को देखता रहा. वह लड़की उसे बहुत खूबसूरत लगी थी.

नरेंद्र ने उस से पूछ लिया, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

उस ने कहा था, ‘लच्छो.’

‘तुम लोग रहते कहां हो?’ नरेंद्र के यह पूछने पर उस ने कहा था, ‘बाबूजी,  हम खानाबदोश हैं. घूमघूम कर अपनी गुजरबसर करते हैं. अब कई दिनों से यहीं गांव के बाहर डेरा है. पता नहीं, कब तक यहां रह पाएंगे,’ समय बिताने के बहाने नरेंद्र लच्छो के साथ काफी देर तक बातें करता रहा था.

अगले दिन फिर लच्छो चबूतरे पर आ गई. वे फिर बातचीत में मसरूफ हो गए. धीरेधीरे बातें मुलाकातों में बदलने लगीं. लच्छो ने बाहर चबूतरे से कमरे के अंदर की चारपाई तक का सफर पूरा कर लिया था.

दोपहर के वीरानेपन का उन दोनों ने भरपूर फायदा उठाया था. अब तो उनका एकदूसरे के बिना दिल ही नहीं लगता था.

नरेंद्र अभी तक कुंआरा था और लच्छो भी. वह कभीकभार लच्छो के साथ बाहर घूमने चला जाता था. लच्छो उसे प्यारी लगने लगी थी. वह उस से दूर नहीं होना चाहता था. उधर लच्छो की भी यही हालत थी.

लच्छो ने अपने मातापिता से रिश्ते के बारे में बात की. वे लगातार समाज की दुहाई देते रहे और टस से मस नहीं हुए. गांव के सरपंच से भी दबाव बनाने को कहा.

सरपंच ने उन को बहुत समझाया और लच्छो का रिश्ता नरेंद्र के साथ करने की बात कही लेकिन लच्छो के पिताजी नहीं माने. ज्यादा दबाव देने पर वे अपने डेरे को वहां से उठा कर रातोंरात कहीं चले गए.

नरेंद्र पागलों की तरह मोटरसाइकिल ले कर उन्हें एक गांव से दूसरे गांव ढूंढ़ता रहा लेकिन वे नहीं मिले.

नरेंद्र की भूखप्यास सब मर गई. सरपंच ने बहुत समझाया, लेकिन कोई फायदा नहीं. बस हर समय लच्छो की ही तसवीर उन की आंखों के सामने छाई रहती. सरपंच ने हालत भांपते हुए नरेंद्र की बदली दूसरी जगह करा दी और उस के पिताजी को बुला कर सबकुछ बता दिया.

पिताजी नरेंद्र को गांव ले आए. वहां गांव के साथियों के साथ बातचीत कर के लच्छो से ध्यान हटा तो उन की सेहत में सुधार होने लगा. पिताजी ने मौका देख कर उस का रिश्ता तय कर दिया और कुछ समय बाद शादी भी करा दी.

पत्नी के आने के बाद लच्छो का बचाखुचा नशा भी काफूर हो गया था. फिर बच्चे हुए तो उन की परवरिश में वह ऐसा उलझा कि कुछ भी याद नहीं रहा.

आज 35 साल बाद सन्नो की आवाज ने, उस के रंगरूप ने नरेंद्र के मन में एक बार फिर लच्छो की याद ताजा कर दी.

आज लच्छो से मिल कर नरेंद्र ने आंखोंआंखों में कितने गिलेशिकवे किए.  लच्छो व सन्नो चलने लगीं तो नरेंद्र ने कुछ रुपए लच्छो की मुट्ठी में टोकरी उठाते वक्त दबा दिए और जातेजाते ताकीद भी कर दी कि कभी भी किसी चीज की जरूरत हो तो बेधड़क आ कर ले जाना या बता देना, वह चीज तुम तक पहुंच जाएगी.

लच्छो का भी दिल भर आया था. आवाज निकल नहीं पा रही थी. उस ने उसी प्यारभरी नजर से देखा, जैसे वह पहले देखा करती थी. उस की आंखें भर आई थीं. उस ने जैसे ही हां में सिर हिलाया, नरेंद्र की आंखों से भी आंसू बह निकले. वह अपने पहले की जिंदगी को दूर जाता देख रहा था और वह जा रही थी.

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