शिक्षा के संवैधानिक अधिकार का कचरा करने के लिए तरहतरह की साजिशें रची जा रही हैं. इन में से एक है बिना परीक्षा लिए बच्चों को अगली कक्षा में भेज देना, जहां वे दूसरे छात्रों से पिछड़े नजर आएं और फिर स्कूल आना बंद कर दें. शिक्षा के संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत निजी स्कूलों को 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों को देनी होती हैं और इन का कुछ खर्चा सरकार देती है, बाकी स्कूल उठाता है यानी वह दूसरे बच्चों की फीस में से उसे पूरा करता है.

यह प्रयोग अपनेआप में ही बेकार हैं. भारत में समानता असमानता की खाई में सिर्फ पैसा ही नहीं है, जन्म से तय जाति भी है जिस में बहुत से लोगों को छूने, उन से लेनदेन करने और उन के साथ बात करने पर भी पाबंदी है. उन के बच्चे जब दूसरे तबके या अमीरों के बच्चों के साथ बैठते हैं तो कक्षाओं में न दिखने वाली दीवारें खिंच जाती हैं.

ऐसे अलगथलग पड़े बच्चों के पास न अच्छे कपड़े होते हैं न किताबें. उन के घरों का वातावरण भी पढ़ाईलिखाई का नहीं होता. ऐसे बच्चों के मातापिता अपनी संतानों को कखग या एबीसी पढ़वा कर कुछ खास खुश नहीं होते. उन्होंने, दरअसल, सपने में भी पढ़ाई की कीमत नहीं जानी थी. उन के आसपास  के जो बच्चे पढ़लिख भी गए, वे भी वैसे के वैसे ही रह गए.

पढ़ाई का फायदा वहां है जहां विद्यार्थियों को तकनीकी कामों से जोड़ा जाए. हमारे प्राइवेट स्कूलों का डिजाइन बच्चों को सिर्फ सरकारी नौकरी के लिए तैयार करना होता है. स्कूलों और यहां तक कि आर्ट्स कालेजों तक में ऐसा कुछ नहीं पढ़ाया जाता जिस से पैसा कमाने के किसी काम को करने में कोई सुविधा होती हो. इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेजों में ही व्यावहारिक ज्ञान मिलता है, वह भी बाद में चमकाया जाता है जब फैक्टरियों के फ्लोरलैवल या अस्पतालों में काम करना होता है. थोड़ी सी तकनीकी शिक्षा अकाउंटैंसी में है पर वह भी सिर्फ इसलिए कि सरकार ने टैक्स जमा करने के पेचीदा कानून बना रखे हैं.

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