Download App

इन 5 केसर फेस पैक से पाएं गुलाबी निखार

खूबसूरत और दमकती त्वचा पाने के लिए केसर बेहद ही गुणकारी सामग्री है. इसका फेस पैक लगाने से त्‍वचा पर गुलाबी रंग का निखार आ जाता है. तो फिर देर किस बात की आइये जानते हैं केसर के कुछ उपयोगी फेस पैक जिसे आप बड़े आराम से घर पर ही बना सकती हैं.

  1. केसर और चंदन पाउडर

यह पैक औयली स्‍किन वालों के लिये बहुत ही अच्‍छा है. इसके अलावा यह सन टैन, एक्‍ने और पिंपल से भी लड़ता है. इसमें थोडा़ सा दूध मिलाइये और 5 मिनट तक चेहरे पर लगा रहने दें. चाहें तो इसमे शहद भी मिला सकती हैं.

2. केसर और दूध

आप इस फेस पैक को हर रोज या फिर हफ्ते में दो बार लगा सकती हैं. इससे आपका चेहरा गुलाब की तरह चमकने लगेगा.

3. केसर और पपीता

पपीता में विटामिन और एंटीऔक्‍सीडेंट पाए जाते हैं जो स्‍किन के लिये बहुत ही अच्‍छे होते हैं. एक कटोरे में पका पपीता, दूध, शहद और केसर मिलाइये. इसको चेहरे पर 10-15 मिनट के लिये लगाइये और बाद में ठंडे पानी से धो लीजिये.

4. केसर, शहद और बादाम

रोतभर बादाम को पानी में भिगोइये और बाद में पेस्‍ट बना लीजिये. केसर को गुनगुने पानी में भिगोइये और बाद में उसमें शहद और नींबू का रस मिलाइये. इस पैक को चेहरे और गर्दन पर लगाइये, जिससे झुर्रियां, एक्‍ने और दाग दूर हों.

5. केसर, दूध और तेल

इस फेस पैक से चेहरे का रंग हल्‍का पड़ता है. एक कटोरे में केसर, दूध, रोज वॉटर और औलिव औयल या नारियल का तेल मिलाइये. इस स्‍क्रब जैसे फेस पैक से आपकी स्‍किन गोरी बनेगी और ग्‍लो करेगी.

कही आप भी तो नहीं लगा रहे गलत तरीके से फेस मास्क? जाने यहां

सुंदर और बेदाग चेहरे की चाहत भला किसे नहीं होती. अक्सर हम अपने चेहरे पर निखार पाने के लिए चेहरे पर फेस मास्क या फेस पैक लगाते हैं. वैसे तो यह त्वचा को सुन्दर बनाने का आसान और असरदार तरीका है. पर कई बार इसे लगाने के बावजूद हम संतुष्ट नहीं होते. इसकी वजह है फेस मास्क को सही तरीके से न लगाना. अपने मास्क से सर्वोत्तम निखार पाने के लिये आप नीचे दिये गये उपायों को अपना सकती हैं.

– सबसे जरूरी बात ये है कि यदि आप घर में बने हुए फेस पैक का इस्तेमाल कर रहीं हैं तो हर बार ताजा बना कर ही प्रयोग करें. लंबे समय से रखा फेस मास्क लगाने से आपके चेहरे पर एलर्जी हो सकती है.

– फेसमास्क लगाने से पहले आंखों को आराम पहुंचाने वाले खीरे अथवा आलू के पतले दो चिप्स काट लें.

– अब इन सभी वस्तुओं को तब तक के लिये फ्रिज में ठंडा होने के लिये रख दें जब तक कि आप इन्हें प्रयोग करने के लिये तैयार न हों. इस दैरान अपने चेहरे को अच्छी तरह से धुल कर साफ कर लें.

– अपनी त्वचा को स्क्रब की मदद से साफ करें इससे त्वचा की मृत कोशिकायें हट जाती हैं और मास्क को बेहतर तरीके से अवशोषित होने में मदद मिलती है.

– अब चेहरे को 2 मिनट के लिये भाप दें जिससे रोम छिद्र खुल जायें. इसके विकल्प के रूप में आप एक साफ-सुथरे कपड़े को गर्म पानी में भिगो कर चहरे को तब तक के लिए ढकें जब तक कि वह ठंडा न हो जाये. ध्यान रहे पानी उतना ही गर्म हो जितना कि आप चेहरे पर बर्दाश्त कर सकें.

– फेस मास्क लगाने वाले ब्रश के साथ ही साथ रूई के फाहे और मुंह पोछने का कपड़ा भी साथ रखें.

– अब फेस मास्क लगाने वाले ब्रश की मदद से फेस मास्क को चेहरे पर लगायें. यदि आपके पास ब्रश न हो तो मास्क को हाथों से लगाने से पूर्व उन्हें अच्छी तरह से धो कर सुखा लें.

– मास्क लगाने के बाद खीरे या आलू के टुकड़ों को आंखों पर रख कर उत्पाद के निर्देशानुसार मास्क के सूखने का इंतजार करें. बत्तियां बुझा दें. इस प्रकार का वातावरण शांति प्रदान करता है.

– निश्चित समय तक इंतजार करने के उपरांत मास्क को गीले कपड़े अथवा रूई के फाहों से पोंछ दें. मिट्टी के मास्क की स्थिति में जब वह सूखने लगे तो धुलना बेहतर होता है. लेकिन यह प्रयास करें कि मिट्टी का मास्क चेहरे पर पूरी तरह से सूखने न पाये.

– मिट्टी के मास्क को चेहरे पर पूरी तरह से नहीं सूखने देना चाहिये क्योंकि ऐसी स्थिति में चेहरे पर झुर्रियां और पतली रेखायें पड़ जाती हैं और मिट्टी सूख जाने के कारण त्वचा से ही परासरण द्वारा नमी चुराने लगती है.

इम्यून सिस्टमः कैसे बनाएं मजबूत

शरीर कई तरह की बीमारियों के जीवाणुओं का हमला झेलता रहता है और कई बार इन की चपेट में आ जाता है. इन हमलों को नाकाम तभी किया जा सकता है, जब हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत हो यानी इम्यून सिस्टम सौलिड होना जरूरी है. इसे मजबूत करना ज्यादा मुश्किल नहीं है. तो आइए, देखते हैं कि किस तरह हम अपने इम्यून सिस्टम को मजबूत बना सकते हैं, कुछ खास टिप्स :

चोकरयुक्त अनाजः गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे अनाज का सेवन चोकर सहित करें. इस से आप को कब्ज नहीं होगी तथा आप की रोग प्रतिरोध क्षमता चुस्तदुरुस्त रहेगी.

पानीः पानी भी प्राकृतिक औषधि है. प्रचुर मात्रा में शुद्ध पानी पीने से शरीर में जमा कई तरह के विषैले तत्त्व बाहर निकल जाते हैं और इस से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. पानी सामान्य या फिर थोड़ा कुनकुना हो तो ज्यादा लाभदायक रहता है. फ्रिज का ठंडा पानी पीने से बचें.

तुलसीः तुलसी एंटीबायोटिक, दर्द निवारक और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में काफी फायदेमंद है. रोजाना सुबह तुलसी के 3-4 पत्तों का सेवन करें, काफी फायदा मिलेगा.

योगः योग व प्राणायाम भी शरीर को स्वस्थ और रोगमुक्त रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. रोजाना घर पर इन का अभ्यास किया जा सकता है.

जोर से हंसनाः जोर से हंसने से रक्त संचार सुचारु होता है व शरीर अधिक मात्रा में औक्सीजन लेता है. तनावमुक्त हो कर हंसने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने में मदद मिलती है.

रसदार फलः संतरा, मौसमी, कीनू आदि रसदार फलों में भरपूर मात्रा में खनिज लवण तथा विटामिन सी होता है. प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. आप चाहें तो साबुत फल खाएं और चाहें तो इन का रस निकाल कर सेवन करें ध्यान रखें रस में चीनी या नमक न मिलाएं.

गिरीदार फलः सर्दी के मौसम में गिरीदार फलों जैसे बादाम, काजू, अखरोट का सेवन बहुत फायदेमंद है. इन्हें रात भर भिगो कर रखने व सुबह चाय या दूध के साथ आधा घंटा पहले खाने से बहुत लाभ होता है.

अंकुरित अनाजः अंकुरित अनाज (जैसे मूंग, मोठ, चना आदि) तथा भीगी हुई दालों का भरपूर मात्रा में सेवन करें. अनाज को अंकुरित करने से उन में मौजूद पोषक तत्त्वों की क्षमता बढ़ जाती है. ये पचाने में आसान, पौष्टिक और स्वादिष्ठ होते हैं.

सलादः  भोजन के साथ सलाद का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा करें. भोजन का पाचन पूर्ण रूप से हो, इस के लिए सलाद का सेवन जरूरी होता है. ककड़ी, टमाटर, मूली, गाजर, पत्तागोभी, प्याज, चुकंदर आदि को सलाद में जरूर शामिल करें. इन में प्राकृतिक रूप से मौजूद नमक हमारे लिए पर्याप्त होता है. अलग से नमक न डालें.

मर्द को दर्द नहीं होता है: प्रयोगात्मक हास्य व एक्शन फिल्म

फिल्म- ‘‘मर्द को दर्द नही होता”

रेटिंगः ढाई स्टार

डायरेक्टर: वासन बाला

एक्टर्स: अभिमन्यु दसानी, राधिका मदान, गुलशन देवैय्या और महेश मांजरेकर

‘‘पेडलर्स’’ जैसी फार्मूला फिल्म के बाद फिल्मकार वासन बाला एक बार फिर फार्मूला फिल्म ‘‘मर्द को दर्द नहीं होता’’ लेकर आए हैं. इस फिल्म में उन्होने कहानी का केंद्र एक ऐसे पुरुष को बनाया है,  जिसे ‘कांजिनेटियल इंनसेंसिटीविटी टू पेन’ नामक गंभीर बीमारी से ग्रसित होने के कारण शरीर में दर्द का अहसास ही नहीं होता. इस फैंटसी कहानी में बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानी भी है. मगर फिल्म में फिल्म के हीरो की बजाय हीरोइन ज्यादा खतरनाक एक्शन करते हुए नजर आती है. कई सीन्स में तो हीरो सूर्या डरपोक और हीरोइन सुप्रि बेखौफ नजर आती है. जबकि पूरी फिल्म में सूर्या का तकिया कलाम है- ‘‘दिमाग को सन्न कर देने वाली हर कहानी के पीछे बहुत बुरे फैसले होते हैं.’’

कहानी…

फिल्म ‘‘मर्द को दर्द नही होता’’ की कहानी मुंबई के लड़के सूर्या (अभिमन्यु दसानी) की है. सूर्या को ‘कांजिनेटियल इंनसेंसिटीविटी टू पेन’ नामक गंभीर बीमारी है, जिसका डाक्टरों के पास कोई इलाज नही है. इस बीमारी के चलते उसे दर्द नहीं होता, फिर उसे चाहे जितनी चोट लगती रहे. सूर्या के नाना (महेश मांजरेकर) बार बार उसे एक्शन फिल्में दिखाकर दर्द का अहसास कराते रहते हैं. जिससे आम लोग उसे एक आम लड़के की तरह माने. मगर सूर्या के पिता जतिन (जिमित त्रिवेदी ) नहीं चाहते कि सूर्या घर से बाहर निकले. उधर सूर्या बचपन से ही सौ लोगों को हराने वाले दिव्यांग कराटे मैन मणि (गुलशन देवैय्या) का फैन है और उसकी तमन्ना इस कराटे मैन से मिलने की है. जिसके बाद वह भी उसी की तरह ताकतवर बनकर पाप को जलाकर राख कर सके. सूर्या की बचपन की दोस्त है सुप्रि (राधिका मदान) जो कि हर मुसीबत के समय सूर्या की मदद करती रहती है. लेकिन सूर्या की शरारतों के कारण सूर्या और सुप्रि अलग हो जाते हैं. कुछ सालों बाद सूर्या को कराटेमैन का पता मिलता है, जब वह वहां पहुंचता है, तो उसकी मुलाकात फिर से सुप्रि से होती है और यहीं पर वो पहली बार विलेन जिमी (गुलशन देवैय्या) से मिलता हैं. मणि और जिमी दोनो भाई हैं. लेकिन जिमी एक अपराधी है. इसके बाद एक्शन सीन्स के साथ कहानी तेजी से आगे बढ़ती है.

स्टोरी और डायरेक्शन…

पटकथा लेखक के तौर पर वासन बाला को थोड़ी और मेहनत करनी चाहिए थी. इंटरवल से पहले कहानी कंफ्यूज करने के साथ बहुत धीमी रफ्तार से आगे बढ़ती है, जबकि इंटरवल के बाद जैसे ही सूर्या, सुप्रि और मणि का जिमी के साथ टकराव शुरू होता है, वैसे ही एक्शन सीन्स के साथ कहानी तेज गति से आगे बढ़ती है. पटकथा लेखक के तौर पर वासन बाला ने एक्शन के बीच में भी कुछ अच्छे कौमेडी सीन्स डाले हैं. लेखक और निर्देशक वासन बाला ने सुप्रि के प्रेमी अतुल के किरदार को जबरन जोड़ा है. अतुल के किरदार की वजह से कहानी भटकने के साथ ही फिल्म भी लंबी हो गयी है. एडीटिंग टेबल पर इसे कसने की जरुरत थी. तर्क की कसौटी पर कसेंगे,  तो फिल्म पसंद नहीं आएगी. हालांकि, फिल्म के कैमरामैन जय पटेल अपने बेहतरीन काम के लिए बधाई के पात्र हैं.

एक्टिंग…

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो अभिमन्यु दसानी बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करते हैं. उन्हे अभी मेहनत करने की जरुरत है. कई सीन्स में उनके चेहरे पर भाव ही नही आते. मगर राधिका मदान ने बेहतरीन एक्टिंग की है. दोहरी भूमिका में गुलशन देवैय्या ने कमाल का काम किया है. नाना की भूमिका में महेश मांजरेकर ठीक ठाक हैं.

दो घंटे 17 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘मर्द को दर्द नहीं होता’’ का निर्माण रौनी स्क्रूवाला, लेखक व निर्देशक वासन बाला, संगीतकार करण कुलकर्णी व दीपांजना गुहा है.

‘फ्रेंडली लड़ाई’ से कांग्रेस रोकेगी ‘वोट का बिखराव’

कांग्रेस ने भले ही उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से गंठबंधन ना किया हो पर टिक के बंटवारे में इस बात का पूरा ध्यान रखा जायेगा कि किस तरह से वोट का बिखराव रोक कर भाजपा का विरोध करने वाले दलों के ज्यादा से ज्यादा प्रत्याशी चुनाव जीत जाये. जहां सपा-बसपा ने कांग्रेस के लिये केवल दो सीटें छोडी थी वहीं कांग्रेस ने बडा दिल दिखाते हुये सपा-बसपा के लिये लोकसभा की 7 सीटें छोड दी है.

कांग्रेस का मत है कि जिस सीट पर जो दल मजबूती से भाजपा के खिलाफ चुनाव लड रहा हो वहां उसके प्रत्याशी को चुनाव जीतने में मदद की जा सके. भाजपा इस बात से खुश थी कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस के शामिल ना होने से प्रदेश में त्रिकोणीय मामला होगा. जिससे विपक्ष के वोट बिखर जायेगे. भाजपा को लाभ होगा.

कांग्रेस ने सपा-बसपा गठबंधन से फ्रैंडली लडाई लडने की योजना तैयार की है. इसके तहत कांग्रेस ने इस गंठबंधन के प्रमुख नेताओं के लिये 7 सीटे छोड दी है. कांग्रेस न ‘अपना दल’ के कृष्णा पटेल ग्रुप और दूसरे दलों के साथ भी तालमेल किया है. ऐसे में कुछ और दलों से भी कांग्रेस की बातचीत चल रही है.

उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के बाद कांग्रेस अपनी नीति में बदलाव करके काम कर रही है. वह छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव में वोट के बिखराव को रोक रहीं है. कांग्रेस के इस कदम से खुद मायावती खुश नहीं है. उनका कहना है कि ‘कांग्रेस इस तरह से लोगों में भ्रम फैलाने का काम कर रही है. हमें उसकी 7 सीटो की जरूरत नहीं है कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा नहीं है वह अकेले सभी सीटों पर चुनाव लड सकती है.’

कांग्रेस से मायावती की अपनी मजबूरी है. मायावती को लगता है कि इस चुनाव में दलित और मुसलिम वोट बसपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा भाव देगा. इसका कारण यह है कि जब मुसलिम और दलित परेशान हो रहे थे तब मायावती एक भी बार उनके साथ खडी नजर नहीं आई. कांगेस नेता राहुल गांधी अकेले ही सडक से लेकर संसद तक भाजपा और ‘मोदीशाह’ के सामने अपनी आवाज उठाई. मायावती से अधिक तो चन्द्रशेखर रावण जैसे युवाओं ने दलित उत्पीडन के खिलाफ अपनी आवाज उठाई.

बसपा की नेता मायावती 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही पर कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे दलितों की हालत में कोई बदलाव आये. 1993 से पहले प्रदेश में दलितों की जो हालत थी वही हालत आज भी है. ऐसे में दलितों की पार्टी कहीं जाने वाली मायावती से उनको क्या मिला ? अपनी खराब होती हालत देख मायावती ने अखिलेश यादव से हाथ मिलाकर सपा-बसपा का गठबंधन तैयार किया. इस गंठबंधन में मायावती कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में लोकसभा की केवल 2 सीटे दे रही थी. कांग्रेस ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया और गठबंधन से बाहर हो गई.

उस समय तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव नहीं हुये थे. इन चुनावों में भी सपा बसपा कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लडे. इसके बाद भी कांग्रेस ने तीनों ही राज्यों में अपनी सरकार बनाई. नई ताकत और आत्मविश्वास के बाद भी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भाजपा के खिलाफ वोट के बिखराव को रोकने के लिये जिस तरह से मायावती की टिप्पणी सुनकर भी समर्थन दे रही है यह उसके बडे दिल का कमाल है. कांग्रेस सत्ता विरोधी मतों को बिखरने से रोकने के लिये ही सपा-बसपा और दूसरे छोटे दलों से तालमेल कर भाजपा को मात देने की योजना पर आगे बढ़ रही है.

हां, भाजपा चौकीदार है पर हिंदुत्व की

कांग्रेस के ‘चौकीदार चोर हैं’ मुहिम के बाद भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया में अपने नाम के आगे ‘चौकीदार’ लगाने का अभियान चलाया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से पहले चौकीदार लगाने के बाद भाजपा के दूसरे नेताओं ने भी ‘मैं भी चौकीदार’ लगाना शुरू कर दिया. भाजपा का यह अभियान ट्विटर पर ट्रेंड भी करने लगा. इसे ले कर भाजपा और विपक्षी दलों में सोशल मीडिया पर वार छिड़ गया.

भाजपा के प्रचार विभाग का कहना है कि सोशल मीडिया पर सफल रहे इस अभियान को आगे बढाते हुए प्रधानमंत्री देश भर के 25 लाख चौकीदारों को औडियो ब्रिज के जरिए संबोधित करने जा रहे हैं और वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए 500 जगहों से सीधा संवाद करेंगे. इस में खिलाड़ी, युवा, पूर्व सैनिक, किसान, डाक्टर, वकील सहित विभिन्न वर्गों के लोग जुड़ेंगे.

उधर भाजपा का यह अभियान विपक्ष के निशाने पर है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं कि प्रधानमंत्री प्रयास करते रहें पर इस से सच्चाई को नहीं दबाया जा सकता. उन्होंने कहा कि हर कोई कह रहा है कि चौकीदार चोर है. बसपा प्रमुख मायावती ने ‘मैं भी चौकीदार’ को ले कर तंज कसे हैं. उन्होंने भाजपा के इस अभियान को नाटक करार देते हुए कहा कि अब वोट के लिए अपने को चौकीदार बताया जा रहा है. पिछले चुनाव के समय वोट की खातिर खुद को चायवाला प्रचारित किया था.

लोकसभा के 2019 के आम चुनावों में जिस तरह से प्रचार चल रहा है लगता है जनता से जुड़े किसी मुद्दे की चर्चा ही नहीं है. 130 करोड़ जनता के लिए सिर्फ चौकीदार लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनाया जा रहा है. इससे पहले ‘मोदी है तो मुमकिन है’, नारे को प्रचारित किया गया. पिछले 2014 के चुनावों में प्रधानमंत्री को चाय वाला के रूप में प्रचारित किया गया था. यानी इस देश का प्रधानमंत्री खुद को चाय वाला, चौकीदार बता कर उस निचले दलित, पिछड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ लेना चाहता है जो छोटेछोटे कामधंधे, नौकरी कर रहे हैं.

क्या चायवालों और चौकीदारों की दशा सुधर गई? भाजपा के शासन में इन निचले तबकों की कोई तरक्की नहीं हुई. दलित, पिछड़े, गरीब वर्गों को चौकीदार की जरूरत ही नहीं पड़ती. यह वर्ग तो खुद औरों की चौकीदारी करता है और अपना पेट पालता है.

प्रधानमंत्री और उन का पूरा मंत्रिमंडल फिर किस की चौकीदारी की बात कर रहा है? देश के खजाने के पैसे की. वह पैसा किस के पास रहता है? नौकरशाहों के, चुन कर आए नेताओं के पास. ये लोग कितने होंगे गिनती के? प्रधानमंत्री की सारी कवायद यही है कि ये लोग भ्रष्टाचार न करें. तो क्या प्रधानमंत्री केवल चंद लोगों की चौकीदारी करने के लिए इतना बड़ा मुद्दा बना रहे हैं?

बात चौकीदारी की हो तो भाजपा की सरकार रहते हुए विजय माल्या 9 हजार करोड़ रुपए ले कर क्यों भाग गया? कई बैंकों का पैसा ले कर नीरव मोदी, चौकसे, ललित मोदी क्यों फुर्र हो गएं? रफाल सौदे पर क्यों बवाल मचा हुआ है? सौदे के गायब दस्तावेजों पर सरकार क्यों डरी हुई है? सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के दो बेटों का विदेशों में कालाधन होने का मामला पब्लिक डोमेन में है. इन मामलों को ले कर चौकीदार की ईमानदारी पर सवाल उठ रहे हैं.

काला धन जमा करने वालों के नाम संसद में उजागर नहीं होने दिए गए. सुप्रीम कोर्ट ने नामों की लिस्ट मांगी तब दी गई पर नाम जाहिर न करने की अदालत से गुहार की गई.

इन के अलावा किसान, बेरोजगार, अल्पसंख्यक, गरीब, वंचित दलित, पिछड़े बगैर चौकीदारी के त्रस्त हैं, पिस रहे हैं. उन के बुनियादी हक तक उन्हें मुहैया नहीं हो रहे. देश भर के चौकीदार मीडिया के सामने आ कर कह रहे हैं उन्हें न्यूनतम वेतन भी मुहैया नहीं है.

हां, सरकार पंडों, पुजारियों, गौरक्षकों, साधु, संतों, गुरुओं, ज्योतिषियों, प्रवचकों, योगाचार्यों, धर्म के नाम पर तमाम तरह के ढोंग करने वालों और राम मंदिर बनाने वालों के जरूर चौकीदार हैं. इन लोगों के धंधें की चौकसी आप बखूबी करते आए हैं.

सरकार स्त्रियों की सुरक्षा के नहीं, उन्हें धार्मिक मर्यादा के बाहर न निकलने देने की पहरेदारी जरूर कर रही है. धर्म के ठेकेदारों के धंधे को बचाने के लिए आप ने पाखंड, झूठ, की पोल खोलने वालों पर डंडे फटकारे हैं. धमकियां दी हैं. सरकार को उन की चौकीदारी की परवाह नहीं है.

पिछले 5 साल में अगर चौकीदारी हुई है तो केवल हिंदुत्व की. प्रयागराज में अर्धकुंभ था पर इस में 30 हजार करोड़ रुपए खर्च कर महाकुंभ के रूप में बंदोबस्त किया गया. देश भर के निठल्ले साधुओं, शंकराचार्यों, महंतों, मठाधीशों के लिए हलवापूरी का इंतजाम किया गया. पंडों के लिए दानदक्षिणा की व्यवस्था कराई गई.

सरकार ने चाय वालों, चौकीदारों जैसे छोटे कामधंधा करने वालों की दुकानदारी नोटबंदी, जीएसटी से उजाड़ दी और धर्म के धंधेबाजों की दुकानदारी बचाने में पूरी ताकत झोंके रखी, कुंभ के नाम पर, मंदिर निर्माण के नाम पर, गौरक्षा के नाम पर.

दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमलों की अनगिनत वारदातों पर सरकार खामोश रहती है या इन हमलों को जायज ठहराती रही है, इन की चौकदारी की चिंता नहीं है. असली चौकीदारी वर्णव्यवस्था को बनाए रखने की रही है.

सदियों से धर्म के जरिए जिस तरह जनता को बेवकूफ बनाया जाता रहा है, ‘मैं भी चौकीदार’ जैसा प्रचार अभियान भाजपा का एक और ढोंग ही है, इस से किसी का भला नहीं होगा, हां, भाजपा एक बार फिर सत्ता में आ कर फिर से धर्म के धंधेबाजों की चौकीदारी करती रहेगी. इस से न तो जनता का विकास होगा, न देश का.

सिनेमा से ही बदलाव आता है: अक्षय कुमार

बौलीवुड में अक्षय कुमार एक मात्र ऐसे कलाकार हैं, जो लगातार व्यावसायिक फिल्मों के साथ साथ लीक से हटकर विषयों व सच्चे घटनाक्रमों पर आधारित फिल्में भी करते आ रहे हैं. फिर चाहे वह ‘एयरलिफ्ट’ हो या ‘रूस्तम’ या ‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’ हो या ‘पैडमैन’. अब वह सत्य घटनाक्रम यानी कि ‘सारागढ़ी के युद्ध’ पर फिल्म ‘‘केसरी’’ लेकर आ रहे हैं. अनुराग सिंह निर्देशित फिल्म ‘‘केसरी’’ होली के अवसर पर 21 मार्च को सिनेमा घरों में पहुंच रही है.

सारागढ़ी के युद्ध पर आधारित फिल्म ‘‘केसरी’ ’को आप महज एक युद्ध वाली फिल्म मानते हैं?

हकीकत में यह फिल्म ‘‘युद्ध’’ पर आधारित ही है. पर यह इमोशनल बहुत है. यह फिल्म 21 सिख जवानों की कहानी है. जो कि जानते थे कि उनकी मृत्यू निश्चित है. उस वक्त उनके पास वहां से भागने का मौका था, पर इन सैनिकों ने भागने की बजाय अपनी मातृभूमि के लिए दुश्मनों से लड़कर अपनी जान न्यौछावर करने का विकल्प अपनाया. वह जानते थे कि दस हजार अफगान सैनिकों से उन 21 जवानों के लिए लड़ना संभव नही है, पर उन्होंने अपनी तरफ से अफगान सैनिकों को किले के अंदर घुसने से रोकने के लिए लड़ा. अफगान सैनिक सोच रहे थे कि सैनिकों की नई खेप आने से पहले ही हम आधे घंटे के अंदर इन 21 जवानों को खत्म कर देंगे. मगर ईश्वर सिंह के नेतृत्व में इन 21 जवानों ने निर्णय ले लिया था कि हम इन्हें किसी भी सूरत में अंदर घुसने नहीं देंगे. वह सुबह नौ बजे से लेकर शाम के छह बजे तक लड़े. जब वह अंदर घुसे तभी सैनिकों का दूसरा दल आ गया और अफगान सैनिकों को वहां से भागना पड़ा था. मेरी सोच कहती है कि इसमें एक सैनिक के माइंड सेट और उसकी मानसिक सोच की कहानी है. हम लोग युद्ध की बात समझते हैं पर एक सैनिक के दिमाग में क्या चल रहा होता है, इसके बारे में हम नहीं जानते. हमारी फिल्म ‘केसरी’ दषर््ाकांे को उस यात्रा पर भी ले जाती है कि उस वक्त जवानों ने अपने दिमाग में क्या सोच रखा था.

फिल्म के निर्देशक अनुराग सिंह ने इस बात को लेकर काफी शोध किया. मैं तो चाहूंगा कि आप बड़े शब्दों में लिखें कि मैं अपली करता हूं कि हर माता पिता अपने बच्चों को यह फिल्म जरुर दिखाए. क्योंकि यह आपका अपना इतिहास है. आपके अपने वतन के इतिहास का हिस्सा है. इतिहास हर बच्चे को देश के भविष्य के बच्चों को पता होना चाहिए कि कैसे यह 21 जवान लड़े थे. यह दुःख की बात है कि ‘सारागढ़ी के इस युद्ध’ का हमारी इतिहास की किताबो में जिक्र ही नही है. हमारे इतिहास में अब तक छात्रों को यह पढ़ाया नहीं गया. आज हमें अचसर मिला कि मैं इस कहानी को फिल्म के माध्यम से लोगों के सामने लेकर आउं, जिसे मैंने पूरी इमानदारी के साथ अंजाम दिया है.

आप शायद न जानते हो मगर जब मैने फिल्म ‘‘एयर लिफ्ट’’ बनायी, उस वक्त इस कहानी के बारे में किसी को नहीं पता था. उस वक्त तक एक खबर छपी थी. मगर आज ‘एयरलिफ्ट’ को लेकर एक लाख लेख कई पन्ने भरे जा चुके हैं. अब धीरे धीरे ‘सारागढ़ी’ पर भी कई लेख आ गए है. मैं चाहता हूं कि सारागढ़ी के युद्ध पर ज्यादा से ज्यादा लेख छपें. इन 21 जवानों की कथा इतिहास के पन्नों में हमेशा हमेशा के लिए अमर रहे.

तो क्या आप मानते हैं कि एक सैनिक किसी भी युद्ध को महज हथियार के बल पर नहीं बल्कि अपनी दिमागी सोच यानी कि अपने माइंड सेट की वजह से जीतता है?

जी हां! आपने एकदम कटु सत्य को पकड़ा है. मैं मानता हूं कि यदि एक सैनिक अपने मन में निश्चय कर ले तो फिर उसे हराना बहुत मुश्किल है.

आपने एयरलिफ्ट, रूस्तम या केसरी जैसी सत्य घटनाक्रमों पर आधारित फिल्में करते हैं. तब आपके उपर कितना दबाव रहता है. दूसरे लोग जब इसी तरह की फिल्में करते हैं, तो उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं?

देखिए हम जितनी कोशिश कर सकते हैं उतनी इमानदार कोशिश करते हुए सच को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाते हैं. अब जैसे कि आप फिल्म ‘‘केसरी’ को लें. तो इस फिल्म के निर्देशक व लेखक अनुराग सिंह ने काफी शोध करके इसकी पटकथा लिखी. मैं इस फिल्म का सारा श्रेय उन्हे ही देता हूं. देखिए,मैं हर साल चार फिल्में करता हूं तो स्वाभाविक तौर पर हर फिल्म पर मैं उतना ध्यान नहीं दे सकता. इसलिए मेरी हर फिल्म के लिए सारा रिसर्च करने वाले निर्देशक या लेखक ही होते है. पर हम जिम्मेदारी से ही काम करते हैं. हम किसी की फिलिंग को हर्ट करने का प्रयास कभी नहीं करते. वैसे भी देखा जाए तो कोई भी फिल्मकार या कलाकार किसी की फींलिंग को हर्ट नहीं करता फिर भी कई बार अनजाने में ऐसा हो जाता है. अगर वह माफी मागते हैं तो उसे माफ कर आगे बढ़ना चाहिए. यह नहीं कि उसको हम खींचते रहे. ‘केसरी’के निर्माण से पहले कई किताबें पढ़ी गयी काफी शोध किया गया.

कहानी ‘सारागढ़ी युद्ध’ की है, तो फिर पर फिल्म का नाम ‘केसरी’ रखने के पीछे सोच क्या रही?

केसरी का रंग बहादुरी का, शौर्य का, वीरता का प्रतीक है. यह कलर आफ वार है. इसलिए इससे बेहतर नाम सूझा ही नहीं.

फिल्म‘‘केसरी’’के एक्शन दृश्य को लेकर क्या कहना चाहेंगे?

इस फिल्म का एक्शन बहुत अलग है. हमने इसमें सिख, सरदारों का जो मार्शल आर्ट का फार्म है-गटका’, उसका उपयोग किया है, जिसके लिए हमें ट्रिनंग भी लेनी पड़ी. उस वक्त की लड़ाई गटका से लड़ी गयी थी. सरदारों को पकड़ना मुशिक्ल था. वह घूम घूम कर अपने शत्रु पर वार करते थे. उनकी तलवार ही बीस से बाइस किलो की होती थी. उनकी पगड़ी ही सवा किलो की वजन की होती थी.

आपके करियर में एक खास बात नजर आती है कि आप जिस विषय वाली फिल्म से जुड़ते हैं, वह जल्द बन जाती हैं, जबकि दूसरे लोग सिर्फ योजना बनाते रह जाते हैं. ‘सारागढ़ी के युद्ध’पर तीन दूसरे फिल्मकार पिछले चार वर्षों से भी अधिक समय से फिल्म बना रहे हैं, पर अब तक नहीं बना पाए. आप ‘केसरी’ लेकर आ गए. इसी तरह स्पेस पर भी दो फिल्में चार साल से बन रही हैं पर नही बन पायी. आपने स्पेस फिल्म ‘मंगल यान’’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं?

शायद मैं लक्की हूं दूसरो की फिल्में क्यों रूक जाती हैं, पता नही.मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अच्छे लोग मिल जाते हैं और हम तीन माह कें अंदर फिल्म पूरी कर लेते हैं.

गत वर्ष आपकी दो महत्वपूर्ण  फिल्में ‘‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’’ और ‘‘पैडमैन’’ आयी. दोनों ही फिल्में औरतों की सुरक्षा व उनके आत्म सम्मान से जुड़ी फिल्में रही. इन फिल्मों के प्रदर्शन के बाद कोई खास प्रतिक्रिया मिली हो जिसने आपके दिल को भी छू लिया हो.

मैं एक किस्सा बताना चाहूंगा, जो कि पंजाब में रह रहे मेरे एक दोस्त के साथ घटी थी. एक रात डेढ़ बजे मेरे दोस्त की बेटी ने अपनी मां से कहा कि मेरे पीरियड शुरू हो गए हैं. और मैं सैनेटरी पैड लाना भूल गयी. डेढ़ बजे सैनेटरी पैड कैसे आए. क्योंकि 24 घंटे खुली रहने वाली दवा की दुकान उसके घर से 18 किलोमीटर दूर थी. मेरे दोस्त ने जब अपनी बेटी की बात सुनी तो वह तुरंत घर से निकलकर गया और अपनी बेटी को सैनेटरी पैड लाकर दिया. एक पिता अपनी बेटी को सैनेटरी पैड लाकर दिया.उसने मुझे बताया कि उसे यह प्रेरणा मेरी फिल्म ‘‘पैडमैन’’ की वजह से ही मिली थी. मेरं दोस्त ने मुझसे कहा- अक्षय वह दिन है और आज का दिन है, मेरी बेटी अपने मन की हर बात मुझसे करती है. मेरी बेटी मुझसे बहुत प्यार करती है. यह होता है फिल्म का असर. मैं बहुत खुश हूं कि अब बडे शहर में इसको लेकर टैबू नही रहा. अब लोग इस पर खुलकर बात करने लगे हैं. यह जो बदलाव है, वह मेरी या आपकी नहीं बल्कि सिनेमा की ताकत है. सिनेमा से ही बदलाव आता है.

हम बौलीवुड वाले हौलीवुड से इतना डरे हुए क्यों रहते हैं. सभी हौलीवुड फिल्म ‘‘अवेजर’’ को लेकर सहमें हुए हैं?

उनकी फिल्मों का बजट बहुत बड़ा है. उस तरह की फिल्में भारत में नहीं बन रही हैं, इसलिए एक डर तो रहेगा.वह हमारा काफी बिजनेस खा जाते हैं. हमारे पास उस स्तर की फिल्में बनाने के लिए नहीं है. यदि हमें उनकी तरह बजट मिले तो हम उन्हे डरा दें. जिस बजट में उनकी फिल्में बनती हैं. उसके एक प्रतिशत के बजट में हम फिल्म बनाकर लाभ कमाते हैं. हमें सीधा देखना चाहिए. मैं यह मानता हूं कि उनकी फिल्मों में इमोशन कम होता है और हमारी फिल्मों में इमोशन बहुत होता है.

चांदनी चैक,दिल्ली से चुनाव लड़ने की खबरें भी रही है?

बिलकुल गलत खबर है. यदि ऐसा होता तो मैं खुद ही बता देता.

पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के संग आपकी काफी नजदीकियां हैं?

नही.. मेरी नजदीकियां अच्छे कार्य से है.

आप ऐतिहासिक फिल्म ‘‘पृथ्वीराज चैहाण’’ कर रहे हैं?

हां डां.चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में यह फिल्म कर रहा हूं. इस साल के अंत में हम इसकी शूटिंग शुरू करेंगे. निर्देशक से बात हुई. वह बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं.

आपकी रूचि इतिहास में कितनी है?

इतिहास, रामायण, महाभारत की कहानियां सुनने में मजा आता है. शूरवीर वाली कहानी सुनने में बहुत मजा आता है.

आने वाली फिल्में?

‘मंगलयान’, ‘सूर्यवंशी’ कौमेडी फिल्म ‘हाउसफुल 4’, ‘पृथ्वीराज चैहाण और एक हौरर फिल्म कर रहा हूं

‘हेराफेरी 3’ भी कर रहे हैं?

नहीं..हेरा फेरी 3 नहीं कर रहा.

 

साजिश की शिकार शिक्षा

शिक्षा के संवैधानिक अधिकार का कचरा करने के लिए तरहतरह की साजिशें रची जा रही हैं. इन में से एक है बिना परीक्षा लिए बच्चों को अगली कक्षा में भेज देना, जहां वे दूसरे छात्रों से पिछड़े नजर आएं और फिर स्कूल आना बंद कर दें. शिक्षा के संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत निजी स्कूलों को 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों को देनी होती हैं और इन का कुछ खर्चा सरकार देती है, बाकी स्कूल उठाता है यानी वह दूसरे बच्चों की फीस में से उसे पूरा करता है.

यह प्रयोग अपनेआप में ही बेकार हैं. भारत में समानता असमानता की खाई में सिर्फ पैसा ही नहीं है, जन्म से तय जाति भी है जिस में बहुत से लोगों को छूने, उन से लेनदेन करने और उन के साथ बात करने पर भी पाबंदी है. उन के बच्चे जब दूसरे तबके या अमीरों के बच्चों के साथ बैठते हैं तो कक्षाओं में न दिखने वाली दीवारें खिंच जाती हैं.

ऐसे अलगथलग पड़े बच्चों के पास न अच्छे कपड़े होते हैं न किताबें. उन के घरों का वातावरण भी पढ़ाईलिखाई का नहीं होता. ऐसे बच्चों के मातापिता अपनी संतानों को कखग या एबीसी पढ़वा कर कुछ खास खुश नहीं होते. उन्होंने, दरअसल, सपने में भी पढ़ाई की कीमत नहीं जानी थी. उन के आसपास  के जो बच्चे पढ़लिख भी गए, वे भी वैसे के वैसे ही रह गए.

पढ़ाई का फायदा वहां है जहां विद्यार्थियों को तकनीकी कामों से जोड़ा जाए. हमारे प्राइवेट स्कूलों का डिजाइन बच्चों को सिर्फ सरकारी नौकरी के लिए तैयार करना होता है. स्कूलों और यहां तक कि आर्ट्स कालेजों तक में ऐसा कुछ नहीं पढ़ाया जाता जिस से पैसा कमाने के किसी काम को करने में कोई सुविधा होती हो. इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेजों में ही व्यावहारिक ज्ञान मिलता है, वह भी बाद में चमकाया जाता है जब फैक्टरियों के फ्लोरलैवल या अस्पतालों में काम करना होता है. थोड़ी सी तकनीकी शिक्षा अकाउंटैंसी में है पर वह भी सिर्फ इसलिए कि सरकार ने टैक्स जमा करने के पेचीदा कानून बना रखे हैं.

गरीबों के बच्चे ऊंचे स्कूलों में जा कर बैठ जाते हैं पर जब उन का मखौल उड़ाया जाता है, उन को हिकारत की नजरों से देखा जाता हैं, उन्हें अध्यापक नजरअंदाज करते हैं क्योंकि वे उन के पास ट्यूशन पढ़ने जाने से रहे, तो वे पढ़ाई को ही नकार देते हैं. आप उन्हें पास करें या न करें, वे सब पढ़ने वाले नहीं हैं. हां, कुछ सिरफिरे जरूर होंगे जो इन खाइयों को पार कर लेंगे.

इस पूरी समस्या का कोई आसान हल नहीं है. फिलहाल तो उस्ताद के शागिर्द बन कर छोटे कारखानों में काम करना ही एक उपाय दिख रहा है पर चाइल्ड लेबर यानी बालश्रम वे विरोधी उसे भी न करने देंगे, यह पक्का है.

आईना

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्यों कर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

अस्पताल रह कर चारू लौटी तो अपने ही कमरे में कैद हो कर रह गई. परेशान हो गया था अनुराग. एक दिन मैं ने फोन किया तो बेचारा रो पड़ा था.

‘‘अच्छीभली हमारे घर आई थी. मायके में सारा घर चारू ही संभालती थी. मैं इस सच को अच्छी तरह जानता हूं. हमारे घर आई तो चाय का कप बनाते भी उस के हाथ कांपते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है, मौसी?’’

‘‘उसे दीदी से दूर  ले जा. मेरी बात मान, बेटा.’’

‘‘मम्मी तो उस की देखभाल करती हैं. बेचारी चारू की चिंता में आधी हो गई हैं.’’

‘‘यही तो समस्या है, अनुराग बेटा. शोभा तेरी मां हैं तो मेरी बड़ी बहन भी हैं, जिन्हें मैं बचपन से जानती हूं. मेरी बात मान तो तू चारू को कहीं और ले जा या कुछ दिन के लिए मेरे घर छोड़ दे. कुछ भी कर अगर चारू को बचाना चाहता है तो, चाहे अपनी मां से झूठ ही बोल.’’

अनुराग असमंजस में था मगर बचपन से मेरे करीब होने की वजह से मुझ पर विश्वास भी करता था. टूर पर ले जाने के बहाने वह चारू को अपने साथ मेरे घर पर ले आया तो चारू को मैले कपड़ों में देख कर मुझे अफसोफ हुआ था.

‘‘मौसी, आप क्या समझाना चाहती हैं…मेरे दिमाग में ही नहीं आ रहा है.’’

‘‘बस, अब तुम चिंता मत करो. तुम्हारा 15 दिन का टूर है और दीदी को यही पता है कि चारू तुम्हारे साथ है, 15 दिन बाद चारू को यहां से ले जाना.’’

अनुराग चला गया. जाते समय वह मुड़मुड़ कर चारू को देखता रहा पर वह उसे छोड़ने भी नहीं गई. 6-7 महीने ही तो हुए थे शादी को पर पति के विछोह की कोई भी पीड़ा चारू के चेहरे पर नहीं थी. चूंकि मेरे दोनों बेटे बाहर पढ़ते हैं और पति शाम को ही घर पर आने वाले थे इसीलिए हम दोनों उस समय अकेली ही थीं.

‘‘चारू, बेटा क्या लेगी? ठंडा या गरम, कुछ नाश्ता करेगी न मेरी बच्ची?’’

स्नेह से सिर पर हाथ फेरा तो मेरी गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. मैं प्यार से उसे सहलाती रही.

‘‘ऐसा लगता है मौसी कि मैं मर जाऊंगी. मुझे बहुत डर लगता है. कुछ नहीं होता मुझ से.’’

‘‘होता है बेटा, होता क्यों नहीं. तुम्हें तो सब कुछ आता है. चारू इतनी समझदार, इतनी पढ़ीलिखी, इतनी सुंदर बहू है हमारी.’’

चारू मेरा हाथ कस कर पकड़े रही जब तक पूरी तरह सो नहीं गई. एक प्रश्नचिह्न थी मेरी बहन सदा मेरे सामने, और आज भी वह वैसी ही है. एक उलझा हुआ चरित्र जिसे स्वयं ही नहीं पता, उसे क्या चाहिए. जिस का अहं इतना ऊंचा है कि हर रिश्ता उस के आगे बौना है.

शाम को मेरे पति घर आए तब उन्हें मेरे इस कदम का पता चला. घबरा गए वह कि कहीं दीदी को पता चला तो क्या होगा. कहीं रिश्ता ही न टूट जाए.

‘‘टूटता है तो टूट जाए. उम्र भर हम ने दीदी की चालबाजी सही है. अब मैं बच्चों को तो दीदी की आदतों की बलि नहीं चढ़ने दे सकती. जो होगा हो जाएगा. कभी तो आईना दिखाना पड़ेगा न दीदी को.’’

चारू की हालत देख कर मैं सुबकने लगी थी. चारू उठी ही नहीं. सुबह का नाश्ता किया हुआ  था. खाना सामने आया तो पति का मन भी भर आया.

‘‘बच्ची भूखी है. मुझ से तो नहीं खाया जाएगा. तुम जरा जगाने की कोशिश तो करो. आओ, चलो मेरे साथ.’’

रिश्ते की नजाकत तो थी ही लेकिन सर्वोपरि थी मानवता. हमारी अपनी बच्ची होती तो क्या करते, जगाते नहीं उसे. जबरदस्ती जगाया उसे, किसी तरह हाथमुंह धुला मेज तक ले आए. आधी रोटी ही खा कर वह चली गई.

‘‘सोना मत, चारू. अभी तो हम ने बातें करनी हैं,’’ मैं चारू को बहाने से जगाना चाहती थी. पहले से ही खरीदी साड़ी उठा लाई.

‘‘चारू, देखना तुम्हारे मौसाजी मेरे लिए साड़ी लाए हैं, कैसी है? तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. तुम्हारी साडि़यां देखी थीं न शादी में, जरा पसंद कर के दे दो. यही ले लूं या बदल लूं.’’

चारू ने तनिक आंखें खोलीं और सामने पड़ी साड़ी को उस ने गौर से देखा फिर कहने लगी, ‘‘मौसाजी आप के लिए इतने प्यार से लाए हैं तो इसे ही पहनना चाहिए. कीमत साड़ी की नहीं कीमत तो प्यार की होती है. किसी के प्यार को दुत्कारना नहीं चाहिए. बहुत तकलीफ होती है. आप इसे बदलना मत, इसे ही पहनना.’’

शब्दों में सुलह कम प्रार्थना ज्यादा थी. स्नेह से माथा सहला दिया मैं ने चारू का.

‘‘बड़ी समझदार हो तुम, इतनी अच्छी बातें कहां से सीखीं.’’

‘‘अपने पापा से, लेकिन शादी के बाद मेरी हर अच्छाई पता नहीं कहां चली गई मौसी. मैं नाकाम साबित हुई हूं, घर में भी और नातेरिश्तेदारों में भी. मुझे कुछ आता ही नहीं.’’

‘‘आता क्यों नहीं? मेरी बच्ची को तो बहुत कुछ आता है. याद है, तुम्हारे मौसाजी के जन्मदिन पर तुम ने उपमा और पकौड़े बनाए थे, जब तुम अनुराग के साथ पहली बार हमारे घर आई थीं. आज भी हमें वह स्वाद नहीं भूलता.’’

‘‘लेकिन मम्मी तो कहती हैं कि आप लोग अभी तक मेरा मजाक उड़ाते हैं. इतना गंदा उपमा आप ने पहली बार खाया था.’’

यह सुन कर मेरे पति अवाक् रह गए थे. फिर बोले, ‘‘नहीं, चारू बेटा, मैं अपने बच्चों की सौगंध खा कर कहता हूं, इतना अच्छा उपमा हम ने पहली बार खाया था.’’

शोभा दीदी ने बहू से इस तरह क्यों कहा? इसीलिए उस के बाद यह कभी हमारे घर नहीं आई. आंखें फाड़फाड़ कर यह मेरा मुंह देखने लगे. इतना झूठ क्यों बोलती है यह शोभा? रिश्तों में इतना जहर क्यों घोलती है यह शोभा? अगर सुंदर, सुशील बहू आ गई है तो उस को नालायक प्रमाणित करने पर क्यों तुली है? इस से क्या लाभ मिलेगा शोभा को?

‘‘तुम, तुम मेरी बेटी हो, चारू. अगर मेरी कोई बेटी होती तो शायद तुम जैसी होती. तुम से अच्छी कभी नहीं होती. मैं तो सदा तुम्हारे अपनेपन से भरे व्यवहार की प्रशंसा करता रहा हूं. लगता ही नहीं कि घर में किसी नए सदस्य का आगमन हुआ था. अपनी मौसी से पूछो, उस दिन मैं ने क्या कहा था? मैं ने कहा था, हमें भी ऐसी ही बहू मिल जाए तो जीवन में कोई भी कमी न रह जाए. मैं सच कह रहा हूं बेटी, तुम बहुत अच्छी हो, मेरा विश्वास करो.’’

मेरे सामने सब साफ होता गया. शोभा अपने पुत्र और पति के सामने भी खुद को बहू से कम सुंदर, कम समझदार प्रमाणित नहीं करना चाहती.

दूसरी सुबह ही मैं ने पूरा घर चारू को सौंप दिया. मेरे पति ने ही मुझे समझाया कि एक बार इसे अपने मन की करने तो दो, खोया आत्मविश्वास अपनेआप लौट आएगा. बच्ची पर भरोसा तो करो, कुछ नया होगा तो उसे स्वीकारना तो सीखो. इस का जो जी चाहे करे, रसोई में जो बनाना चाहे बनाए. कल को हमारी भी बहुएं आएंगी तो उन्हें स्वीकार करना है न हमें.

चाय बनाने में चारू के हाथ कांप रहे थे. वह डर रही थी तो मैं ने उस का हौसला बढ़ाने के लिए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ कमी होगी तो हम पूरी कर लेंगे. तुम बनाओ तो सही. बनाओ, शाबाश.’’

मेरे इस अभियान में पति भी मेरे साथ हो गए थे. उन्हें विश्वास था कि चारू अच्छी हो जाएगी. शाम को घर आए तो पता चला कि 15 दिन की छुट््टी पर हैं. पूछा तो हंसने लगे, ‘‘क्या करता, आज शोभा का फोन आया था. कहती थी 2 दिन के लिए यहां आना चाहती है. उसे मैं ने टाल दिया. मैं ने कह दिया कि कल से बनारस जा रहे हैं हम, मिल नहीं पाएंगे. इसलिए क्षमा करें.’’

‘‘अच्छा? यह तो मैं ने सोचा ही न था,’’ पति की समझदारी पर भरोसा था मुझे.

‘‘अब चारू के बहाने मैं भी घर पर रह कर आराम करूंगा. चारू नएनए पकवान बनाएगी, है न बिटिया.’’

‘‘मेरी खातिर आप को कितना झूठ बोलना पड़ रहा है.’’

15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. सब बदल गया, मानो हमें बेटी मिल गई हो. सुबह नाश्ते से ले कर रात खाने तक सब चारू ही करती रही. मेरे कितने काम रुके पड़े थे जो मैं गरदन में दर्द की वजह से टालती जा रही थी. चारू ने निबटा दिए थे. घर की सब अलमारियां करीने से सजा दीं और बेकार सामान अलग करवा दिया.

घर की साजसज्जा का भी चारू को शौक है. फैब्रिक पेंट और आयल पेंट से हमारा अतिथि कक्ष अलग ही तरह का लगने लगा. नई सोच और नई ऊर्जा पर मेरी थक चुकी उंगलियां संतुष्ट एवं प्रसन्न थीं. काश, ऐसी ही बहू मुझे भी मिल जाए. क्या दीदी को ऐसा नहीं लगता? फिर सोचती हूं उस की उंगलियां थकी ही कब थीं जो बहू में सहारा खोजतीं. उस ने तो आज तक सदा अभिनय किया और दांवपेच खेल कर अपना काम चलाया है. मेरी बनाई पाक कला पर बड़ी सहजता से अपना नाम चिपकाना, बनीबनाई चीज और पराई मेहनत का सारा श्रेय खुद ले जाना दीदी का सदा का शौक रहा है. भला इस में मेहनत कैसी जो वह थक जाती और बहू का सहारा उसे मीठा लगता.

अनुराग का फोन अकसर आता रहता. चारू उस से बात करने से भी कतराती. पूछने पर बताने लगी, ‘‘बहुत परेशान किया है मुझे अनुराग ने भी. कम से कम इन्हें तो मेरा साथ देना चाहिए. मेरा मन नहीं है बात करने का.’’

एक दिन चारू बोली, ‘‘मौसी, मैं अपने मायके पापा के पास भाग जाना चाहती थी लेकिन डरती हूं कि पापा को मेरी हालत देख कर धक्का लगेगा. उन्हें भी तो दुखी नहीं करना चाहती.’’

‘‘इस घर को अपने पापा का ही घर समझो, मैं हूं न,’’ भावविह्वल हो कर मेरे पति बोले थे. बरसों से मन में बेटी की साध थी. चारू से इन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों किसी भी विषय पर अच्छी खासी चर्चा कर बैठते.

‘‘बहुत समझदार और बड़ी सूझबूझ वाली है चारू, इसीलिए तुम्हारी बहन के गले में कांटे की तरह फंस गई. यह तो होना ही था. भला शोभा जैसी औरत इसे कैसे बरदाश्त करती?’’ मेरे पति बोले.

15 दिन बाद अनुराग आया और उस के सभी प्रश्नों के उत्तर उस के सामने थे. मेरे घर की नई साजसज्जा, दीवार पर टंगी खूबसूरत पेंटिंग, सोफों पर पड़े सुंदर कुशन, मेज पर सजा स्वादिष्ठ नाश्ता, सब चारू का ही तो कियाधरा था.

‘‘पता चला, मैं क्यों कहती थी कि चारू को मेरे पास छोड़ जा. कुछ नहीं किया मैं ने, सिर्फ उसे मनचाहा करने की आजादी दी है. पिछले 15 दिन से मैं ने पलट कर भी नहीं देखा कि वह क्या कर रही है. जो लड़की मेरा घर सजासंवार सकती है, क्या अपने घर में निपट गंवार होगी? क्या एक कप चाय भी वह तुम्हें नहीं पिला पाती होगी? अपनी मां का इलाज कराओ अनुराग, चारू तो अच्छीभली है. जाओ, जा कर मिलो उस से, अंदर है वह.’’

शाम तक अनुराग हमारे ही साथ रहा. घर जाने का समय आया तो हम दोनों का भी मन डूबने लगा. अपने मौसा की छाती से लग कर चारू फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘नहीं बिटिया, रोना नहीं. तुम्हारा अपना घर तो वही है न. अब तुम्हें उसी को सजानासंवारना है. जब भी याद आए, मत सोचना तुम्हारे पापा का घर दूर है. नहीं तो एक फोन ही घुमा देना, हम अपनी बच्ची से मिलने आ जाएंगे.’’

हाथ में पकड़ी सुंदर टाप्स की डब्बी इन्होंने चारू को थमा दी.

‘‘पापा के घर से बिटिया खाली हाथ नहीं न जाती. जाओ बच्ची, फलो- फूलो, खुश रहो.’’

दोनों चले गए. हम उदास भी थे और संतुष्ट भी. पूरी रात अपने कदम का निकलने वाला नतीजा कैसा होगा, सोचते रहे. सुबहसुबह इन्होंने शोभा दीदी के घर फोन किया.

‘‘दीदी, हम बनारस से लौट आए हैं. आप आइए न, कुछ दिन हमारे पास,’’ और कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद हंसते हुए फोन रख दिया.

‘‘सुनो, अब तुम्हारी बहन परेशान हैं. क्या उन्हें भी बुला लें. कह रही हैं, चारू अनुराग के साथ कुछ दिनों के लिए टूर पर गई थी और अब लौटी है तो मेमसाहब के रंगढंग ही बदले हुए हैं. कह रही हैं कि अपना और अनुराग का नाश्ता वह खुद ही बनाएंगी.’’

हैरान रह गई मैं, ‘‘तो क्या बहू की चुगली दीदी आप से कर रही हैं. उन्हें शर्म है कि नहीं?’’

मेरे पति खिलखिला कर हंस पडे़ थे. हमारा प्रयोग सफल रहा था. चारू संभल गई थी. अब भोगने की बारी दीदी की थी. कभी न कभी तो उसे अपना बोया काटना ही पड़ता न, सो उस का समय शुरू होता है अब.

अब अकसर ऐसा होता है, दीदी आती हैं और घंटों चारू के उसी अभिनय को कोसती रहती हैं जिस के सहारे दीदी ने खुद अपनी उम्र गुजारी है. कौन कहे दीदी से कि उसे आईना दिखाया जा रहा है, यह उसी पेड़ का कड़वा फल है जिस का बीज उस ने हमेशा बोया है. कभी सोचती हूं कि दीदी को समझाऊं लेकिन जानती हूं वह समझेंगी नहीं.

भूल जाता है मनुष्य अपने ओछे कर्म को. अपने संताप का कारण कभीकभी वह स्वयं ही होता है. जरा सा संतुलन अगर रिश्तों में शोभा भी बना लेने का प्रयास करती तो न वह कल औरों को दुखी करती और न ही आज स्वयं परेशान होती.

करामात

प्यारे मियां 13 वर्ष के थे. वह मेरे साथ ही नवीं कक्षा में पढ़ते थे. पढ़ते तो क्या थे, बस, हर समय खेलकूद में ही उन का मन लगा रहता. जब अध्यापक पढ़ाते तो वह खिड़की से बाहर मैदान में झांकते रहते, जहां लड़के फुटबाल, कबड्डी या गुल्लीडंडा खेलते होते.

अपनी इन हरकतों पर वह रोज ही पिटते थे, स्कूल में और घर पर भी. उन के पिता बड़े कठोर आदमी थे. खेलकूद के नाम से उन्हें नफरत थी. उन के सामने खेल का नाम लेना भी पाप था. वह चाहते थे कि प्यारे मियां बस दिनरात पढ़ते ही रहें. अगर वह कभी खेलने चले जाते तो बहुत मार पड़ती थी. यही कारण था कि प्यारे मियां स्कूल में जी भर कर खेलना चाहते थे. अंत में वही हुआ जो होना था. वह परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाए. पिता ने जी भर कर उन्हें मारा.

प्यारे मियां हर खेल में सब से आगे थे. स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था. उन का शरीर भी बलिष्ठ था. एक दिन उन की मां उन्हें पीर साहब के पास ले गईं. पीर साहब नगर से बाहर एक खानकाह में रहते थे. नगर के लोग उन के चमत्कारों की कहानियां सुनसुन कर उन के पास जाया करते थे. कोई किसी रोग का इलाज कराने जाता, कोई संतान के लिए और कोई मुकदमा जीतने के लिए. पीर साहब किसी को तावीज देते, किसी को फूंक मार कर पानी पिलाते. पीर साहब का खलीफा हर आने वाले से 11 रुपए ले लेता था.

प्यारे मियां की मां को भी पीरों पर बड़ा विश्वास था. उन का कहना था कि पीरों में इतनी शक्ति होती है कि वह सबकुछ कर सकते हैं. जिसे जो चाहे दे दें और जिसे चाहें बरबाद कर दें.

मां ने पीर साहब से हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘इस का पढ़ाई में मन नहीं लगता. आप कुछ कीजिए.’’

पीर साहब ने आंखें बंद कीं. कुछ बुदबुदाए, फिर बोले, ‘‘मुर्गे के खून से एक तावीज लिखा जाएगा. काले रंग का एक मुर्गा लाओ. 40 दिन लड़के को हम अपना फूंका हुआ पानी पिलाएंगे.’’

अगले दिन प्यारे मियां के गले में तावीज पड़ गया.

प्यारे मियां रोज पीर साहब का दम किया हुआ पानी पी रहे थे.

मां खुश थीं कि अब वह खेलकूद में अधिक ध्यान नहीं देते थे. कक्षा में चुपचाप बैठे रहते. घर जाते तो कमरे में जा कर पड़ जाते. वह कुछ थकेथके से लगते थे. उन्हें हलकाहलका बुखार रहने लगा था और खांसी भी.

मैं ने उन की मां को समझाया, ‘‘पीर साहब और तावीज के चक्कर में न पड़ें. प्यारे मियां का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है. उन्हें डाक्टर को दिखाएं.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बेटा, हमारा पीर साहब पर विश्वास है. तुम ने देखी नहीं उन की करामात. प्यारे से खेलकूद सब छुड़वा दिया. वही प्यारे को ठीक भी कर देंगे.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘प्यारे मियां का खेलकूद में इतना ध्यान देना कोई गंभीर बात नहीं थी. अगर उन्हें खेलकूद से इतनी सख्ती से न रोका जाता तो वह भी केवल इतना ही खेलते जितना और सब लड़के. अधिक प्रतिबंध लगाने का प्रभाव उलटा ही हुआ. जितना उन्हें खेल से रोका गया वह उतना ही खेल के दिवाने होते गए. दोष आप का है. और फिर पीर साहब का चक्कर. आप देखतीं नहीं कि प्यारे मियां बीमार हैं? इसी कारण वह खेलकूद भी नहीं रहे हैं.’’

परंतु मां ने मेरी बात अनसुनी कर दी.

एक दिन प्यारे मियां को खांसी के साथ खून आया. उन्हें डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने तपेदिक का रोग बताया. उसी डाक्टर से पीर साहब भी अपना इलाज करा रहे थे. 40 दिन तक फूंका हुआ पानी पिला कर पीर साहब ने अपनी तपेदिक की बीमारी के कीड़े प्यारे मियां के शरीर में पहुंचा दिए थे. यह भी उन की करामात थी.

प्यारे मियां के मांबाप सिर पीट रहे थे. वे अपनेआप को और अपने अंध- विश्वास को बारबार कोस रहे थे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें