आपातकाल के एक साल पहले एक मसाला फिल्म प्रदर्शित हुई थी नाम था चौकीदार , श्याम रलहन निर्देशित इस फिल्म के मुख्य पात्र थे ओम प्रकाश , संजीव कुमार ,  विनोद खन्ना , जीवन और योगिता बाली. कहानी ठीक वैसी ही थी जैसी 1974 की किसी फिल्म की होनी चाहिए थी. जागीरदार या जमींदार कुछ भी कह लें के बेटे को गांव के चौकीदार की बेटी से प्यार हो जाता है और वह उससे शादी करने उतारू हो आता है. इस पर जागीरदार तरह तरह से अड़ंगे डालता है. इसी दौरान उजागर होती है उसकी असलियत कि वह अत्याचारी बेईमान और शोषक वगैरह वगैरह है. फिल्म के अंत में सच्चाई की जीत होती है और जब दर्शक तालियां बजाते हुये थियेटर के बाहर निकलते हैं तो उनके होंठों पर फिल्म का टाइटल सौन्ग जरूर होता है जिसे मशहूर गीतकार राजिन्द्र कृष्ण ने लिखा था – ये दुनिया नहीं जागीर किसी की , राजा हो या रंक यहां तो सब हैं चौकीदार

अब न रल्हन हैं , न संजीव कुमार हैं , न विनोद खन्ना जो भाजपा से सांसद भी रहे थे और अब उनके फ्लौप अभिनेता बेटे के सर पिता की छोड़ी गई राजनैतिक विरासत निभाने की ज़िम्मेदारी डाल दी गई है. अक्षय कुमार गुरदास पुर सीट से भाजपा के संभावित उम्मीदवार हैं. चौकीदार का किरदार निभाने बाले चरित्र अभिनेता ओम प्रकाश होते तो जरूर महज चार दिनों में रातों रात पैदा हो गए लाखों चौकीदारों को देख 49 साल पहले के दौर को याद करते हुये कहते कि भगवान के लिए चौकीदार को होली का मज़ाक मत बनाओ उसका काम बड़ा गंभीर और ज़िम्मेदारी बाला होता है. एक दफा जमींदार या जागीरगर चोर हो सकता है लेकिन रात भर जागकर होशियार और खबरदार करने बाला चौकीदार अपनी ड्यूटि से बेईमानी नहीं कर सकता. इसी ड्यूटि को निभाते निभाते उन्हें कितनी फिल्मी ही सही परेशानियां झेलनी पड़ी थीं.

इतिहास गवाह है कि प्रजा की चिंता करने वाला राजा हमेशा राज्य के हाल चाल जानने के लिए दबे पांव अमावसी अंधेरे में चोरों की तरह ही महल से बाहर निकलता था. चौकीदारों की तरह निकलता तो कभी सच्चाई से वाकिफ हो ही नहीं पाता. मौजूदा चौकीदार 56 इंच की छाती  ठोककर चौकीदारी का ढिंढोरा पीट रहे हैं तो लगता है कि जागीरदार साहब घोड़े पर सवार होकर निकले हैं क्योंकि वोटों की पकी फसल काटने का सही वक्त यही है. उधर सच्चा किसान बेचारा खेत खलिहान में ऊंघता चोरों से अपनी फसल की रखबाली कर रहा है. वह चोरों से ज्यादा इन जमींदारों से डरता है क्योंकि उसकी मेहनत पर पहला नाजायज हक इन्हीं का होता है. ये फसल चुराने जैसा टुच्चा काम नहीं करते बल्कि उसे उठवाकर हवेली ले जाते हैं.

देश में वोटों की फसल पकी पड़ी है और जागीरदार कह रहे हैं घबराओं मत हम कोई चोर नहीं बल्कि चौकीदार हैं. हमें यह फसल दे दो तो चोरों से बच जाओगे, ईमानदारी से उतना हिस्सा रख लो कि तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का पेट साल भर एक जून के लिए भर जाये. इस किसान की पूरी फसल छीनने की बेबकूफी जागीरदार नहीं करते क्योंकि वह भूखा मर गया तो खेतों में कभी हरियाली नहीं दिखेगी और उनके अय्याश जीवन का मुफ्त का इंतजाम बंद हो जाएगा फिर न हवेली में रंगीनियां होंगी और न ही तवायफ़ों के मुजरे होंगे. इस किसान जो दरअसल में उनका गुलाम मजदूर होता है का आधा पेट भरने का मकसद विद्रोह और मार्क्सनुमा क्रांति को रोकने का भी होता है.

यह बात सही है ये लोकतान्त्रिक चौकीदार देर रात शराब की ढेरों बोतलें लुढ़काने के बाद सोते हैं सोते क्या हैं नशे में लुढ़क जाते हैं और फिर दोपहर को कहते हैं कि प्रजा की चिंता में चार घंटे की नींद भी नहीं ले पाता. इधर वाकई में रात भर जागकर चोरों से गांव के जान माल की हिफाजत करने बाला चौकीदार सोचता रह जाता है कि चोरों से तो गांव बचा लिया इन जागीरदारों से कौन बचाएगा.

सत्ता का नशा सर चढ़ कर बोल रहा है. चोर और चौकीदार में फर्क करना मुश्किल हो रहा है. असली चौकीदार चकराया हुआ है कि जब ये चौकीदार हैं तो मैं कौन हूं. पता नहीं 23 मई को ईवीएम मशीनें क्या नतीजा उगलेंगी ऐसे में ओम प्रकाश के चौकीदार फिल्म का आखिरी अंतरा मौजू है –

मंदिर का मालिक बन बैठा देखो एक पुजारी, जैसे ये है सब का दाता और भगवान भिखारी  दो दिन का मेहमान बना है जग का ठेकेदार….. खबरदार खबरदार.

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