उत्तर प्रदेश मानव अधिकार आयोग में बीती 25 सितम्बर तक 22,255 परेशान पति अपनी शिकायत दर्ज करा चुके थे कि उन की पत्नियां किसी न किसी तरह उन्हें प्रताड़ित करती हैं. यह संख्या अभी और बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि साल 2023 – 24 में पत्नी पीड़ित पतियों की संख्या 31,285 थी जबकि 2022 – 23 में 36,409 पति आयोग इसी तरह की शिकायतें दर्ज कराने पहुंचे थे. यह खबर दिलचस्प भी है और चिंताजनक भी है. दिलचस्प इस लिहाज से है कि आमतौर पर यह उम्मीद नहीं की जाती कि पत्नियां भी पतियों को इतना हैरानपरेशान और प्रताड़ित कर सकती हैं कि वे इतनी बड़ी तादाद में हायहाय करते मानव अधिकार आयोग गुहार लगाने जाएं.

चिंताजनक इस लिहाज से है कि अगर यह सिलसिला यूं ही जारी रहा तो पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था की धुरी कहे जाने वाले पतिपत्नी के रिश्ते का अंजाम क्या होगा. प्रताड़ित या पत्नियों से दुखी पतियों की संख्या निश्चित रूप से इस से कहीं ज्यादा होगी क्योंकि सभी पति इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते, कुछ को अपनी मर्दानगी और मूंछों की इज्जत की चिंता रहती है कि बात आम हो गई तो उन का मजाक बनाया जाऐगा. कुछ पति परिवार और परिजनों की खातिर खामोश रहते हालातों से समझौता करते जिंदगी को जैसेतैसे ढोते रहते हैं.

अब से कोई 75 साल पहले आती तो यह या ऐसी खबर मजाक और अविश्वसनीय लगती. क्योंकि तब पति ऐसी पत्नियों को घर से बाहर निकाल देने में देर नहीं करता और इस के बाद वह मुड़ कर देखता भी नहीं कि बेचारी अर्धांगनी का हश्र क्या हुआ. उसे मायके वालों ने पनाह दी या कहीं दरदर की ठोकरें खाते उस वक्त को कोस रही है जब उस ने पति की ज्यादती का विरोध करने की हिम्मत जुटाई थी. इधर पति नजदीकी लगन में ही दूसरी शादी कर चुका होता और ठाठ की जिंदगी जीते अपनी दूसरी पत्नी को यह एहसास करा रहा होता कि औरत पांव की जूती और मर्द की गुलाम है जिस का धर्म ही पति और ससुराल वालों की सेवा करना है.

पति अय्याश हो, नपुंसक हो या शारीरिक रूप से उसे संतुष्ट और खुश नहीं रख पाता हो तो भी हिंदू धर्म में वह परमेश्वर और भगवान ही होता है. इस की मिसाल वे पत्नियां हैं जिन्होंने गुलामी की जिंदगी से बगाबत की थी या खुद के लिए जिम्मेदारियों के साथ कुछ हक भी मांगे थे. वे कहीं की नहीं रह गई हैं. यकीन न हो तो फलानी या ढिकानी को देख लो जो मायके में बाप भाइयों और भाभियों की मोहताज होते गुलामी ही कर रही है. उस के पास न जमीन जायदाद है न औलाद का सुख है फिर जिस्मानी सुख का तो सवाल ही नहीं उठता अगर गुलामी ही करनी थी तो ससुराल में ही करती.

जब संविधान ने महिलाओं को पुरुषों की बराबरी के हक दिए तो माहौल बदलना शुरू हुआ. इस के बाद हिंदू कोड बिल टुकड़ोंटुकड़ों में संसद से पारित हुआ तो महिलाओं को नारकीय जिंदगी से आजादी का रास्ता खुलने लगा. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ने तो भारतीय परिवारों में हाहाकार मचा दिया जिस के तहत महिलाओं को भी तलाक का अधिकार मिल गया. इतना ही नहीं एक बड़ा और अहम काम यह हुआ कि मर्दों से एक से ज्यादा शादियों करने की सहूलियत छिन गई. धार्मिक और राजनातिक हलकों में इस और ऐसे कानूनों का जम कर विरोध सड़कों से संसद तक यह अफवाह फैलाते हुआ कि ये कानून सनातन धर्म विरोधी हैं और इन्हें बना कर पारित करवाने वाले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की मंशा हिंदू धर्म और संस्कृति को नष्ट भृष्ट कर देने की है. सरिता के सितंबर प्रथम अंक में पाठक इसे विस्तार से पढ़ सकते हैं इस लेख में तथ्य भी हैं और तर्क भी हैं.

इन कानूनों से जो बदलाव हुए उन्हें भी आप इस रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं कि यह प्रचार दुष्प्रचार ही निकला कि औरतों को मर्दों के बराबर हक देने से धर्म नष्ट भृष्ट हो जाएगा. अब देश अगर तेजी से तरक्की कर रहा है तो उस में धर्म या मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार का कोई योगदान या हाथ नहीं है. बल्कि यह सब इसलिए मुमकिन हुआ कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी और योगदान दोनों बढ़े. पारिवारिक और सामाजिक तौर पर भी उन्हें खुल कर सांस लेने की आजादी मिली. वे शिक्षित भी हुईं कामकाजी भी हुईं. आज जो जागरूकता और आत्मविश्वास महिलाओं में दिखते हैं उन की वजह नेहरु सरकार द्वारा बनाए गए कानून हैं. यह और बात है कि महिलाओं को इस का अंदाजा या एहसास नहीं.

औरतें दलितों की तरह कई बंधनों और रूढ़ियों से क़ानूनी तौर पर आजाद हैं. पर यह भी पूरी तरह संतोषजनक नहीं है क्योंकि धर्म के धंधेबाजों ने उन्हें घेरने नएनए तरीके इजाद कर लिए हैं. जिन में से अहम हैं उन्हें पूजापाठ का अधिकार देना, शमशान में जा कर पिता या पति का अंतिम संस्कार करने देना और पितृ पक्ष के दिनों में श्राद्ध और पिंड दान करने का अधिकार देना. इस से धर्म के धंधेबाजों का पेट पलता है.

लेकिन उत्तर प्रदेश सहित देश भर से आ रही इस तरह की खबरें चिंता पैदा करने वाली हैं और विचार करने वाली भी कि कहीं औरतें कानूनी सहूलियतों और पारिवारिक व सामाजिक आजादी का वेजा फायदा तो नहीं उठा रहीं. कुछ मामलों में ऐसा होना संभव और स्वभाविक भी है लेकिन सभी मामलों पर यह थ्योरी फिट नहीं बैठती. यह दरअसल में पति या पत्नी के अनुपयोगी हो जाने के चलते ज्यादा हो रहा है.

एक पत्नी कैसेकैसे पति को परेशान कर सकती है इस पर खूब चुटकुले सोशल मीडिया मंडी में इधर से उधर होते रहते हैं. हास्य व्यंग के कवियों और लेखकों ने भी अपनी कलम इस पर चलाई है और निर्माताओं ने फिल्में भी बनाई हैं जिन में पति, पत्नी से परेशान रहता है. लेकिन पति उसे पहले की तरह मारपीट नहीं सकता न ही बिना तलाक दिए दूसरी शादी कर सकता और न ही घर से निकाल सकता. उलटे कई मामलों में तो यह देखा गया है कि पत्नी ही पति को घर से निकाल देती है और ऐसे मामलों में अकसर वह आर्थिक रूप से सक्षम यानी कमाऊ हो कर पति की कमाई की मोहताज नहीं रहती.

इस स्थिति की तुलना दलित आदिवासियों से की जा सकती है जिन का अपमान अब दंडनीय अपराध है. कोई उन्हें जाति सूचक शब्दों या संवोधन से ताने कसता है तो कानूनन गुनहगार होता है. कुछ मामलों में एससी/एसटी एक्ट का भी वेजा इस्तेमाल दहेज कानून की तरह देखने में आता है लेकिन इन कानूनों से नुकसान आटे में नमक बराबर ही हुए हैं जो कुदरती बात है. मुद्दे की बात पतिपत्नी में से किसी एक का अनुपयोगी हो जाना है जिस की वजह से रिश्ते ज्यादा दरक रहे हैं.

कोई भी पत्नी यह बर्दाश्त नहीं कर पाती कि वह मेहनत कर कमाए और निकम्मा पति उसे दूसरी औरत पर या शराब कबाब जुए सट्टे में उड़ा दे. जाहिर है जो पति कमाएगा धमाएगा नहीं वह बेकार हो कर पत्नी और घर पर बोझ ही बनेगा तिस पर भी दादागिरी यह कि मैं पति हूं तेरा भगवान हूं तो पत्नी तिलमिला उठती है. क्योंकि वह 75 – 80 साल पुरानी नहीं बल्कि आज के दौर की पत्नी है जिसे अपने अधिकार भी मालूम हैं और जिम्मेदारियों का भी एहसास है लेकिन यह बात आजकल की ही उन पत्नियों पर लागू नहीं होती है जो दिन भर मोबाइल फोन या फिर किटी पार्टियों में व्यस्त रहती हैं और पति अगर इस पर एतराज जताए समझाए या गुस्सा भी करे तो उस के कान काटने लगती हैं. यहां से शुरू होती है एक अंतहीन और बेवजह की कलह जिस का अंत अगर बड़े पैमाने पर मानव अधिकार आयोगों में हो रहा है जिन के पास समझाइश देने के अलावा कुछ नहीं होता.

सिर्फ खाना बना देना या बच्चों को संभालना ही पत्नी होने के माने अब नहीं रह गए हैं. बल्कि उसे पैसा कमाने की भी जरूरत है नहीं तो वह फालतू ही लगती है. जिन घरों में पतिपत्नी दोनों कमाते हैं उन में कलह कम होती है क्योंकि दोनों अपनी उपयोगिता बनाए रखते हैं. खातेपीते घरों में पत्नियां नौकरी कर रही हैं तो उन से नीचे के तबके की पत्नियां अपनी हैसियत और शिक्षा के मुताबिक छोटेमोटे काम कर घर चलाने में अपना सहयोग दे रही हैं. फिर भले ही वे घरों में झाड़ूपोंछा बर्तन करती नजर आएं या कपड़े धोए किसी भी तरह अपनी उपयोगिता बनाए रखती हैं. यानी मेट्रो के पतिपत्नी जो दोनों नौकरी करते हैं और आमतौर पर एकदूसरे से संतुष्ट रहते हैं वही हाल निम्न वर्ग का है कि पतिपत्नी दोनों में से कोई अनुपयोगी नहीं रहता. दिक्कत तब खड़ी होती है जब दोनों में से कोई एक वजहें कुछ भी हों फालतू या बेकार हो जाता है तो दूसरा झल्लाने लगता है.

अब अगर ऐसा पतियों के मामले में ज्यादा हो रहा है तो उन्हें किसी आयोग का दरवाजा खटखटाने से पहले अपना दिल और दिमाग टटोल कर देख लेना चाहिए कि क्यों पत्नी उन्हें तंग कर रही हैं. हालांकि इन में पत्नियों का सब से बड़ा और कारगर हथियार सैक्स सुख से वंचित रखना है जो निहायत ही गलत है. कानून भी इसे जायज नहीं मानता बल्कि इसे तलाक के अधिकार के रूप में देखता है. ऐसे कई फैसले इस की गवाही भी देते हैं कि पत्नी द्वारा जानबूझ कर पति को शारीरिक सुख न देना उस के प्रति क्रूरता है. एक अहम और चर्चित फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सुनील कुमार और राजेंद्र कुमार ने कहा था कि जीवन साथी को लम्बे समय तक सम्भोग की इजाजत न देना मानसिक क्रूरता है.

26 मई 2023 को आए इस फैसले में पीड़ित पति वाराणसी के रवींद्र यादव ने हाईकोर्ट में फैमिली कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

कुछ पतियों की लापरवाही और बुरी आदतें भी पत्नियों की परेशानी का शबब बन जाती हैं जिन के चलते वे पति को परेशान करने लगती हैं. कहने का मतलब यह नहीं कि पत्नी हमेशा सही होती होगी या होती है. कुछ पत्नियां गुस्सैल भी होती हैं और जिद्दी भीं, जिन पर समझानेबुझाने का कोई असर नहीं होता इसलिए वे पति को तंग करने लगती हैं कि तुम मुझे रोकोगेटोकोगे तो मैं तुम्हे यूं समझाउंगी.

ऐसी हालत में इकलौता हल आपसी बातचीत है उस से भी बात न बने तो तलाक बेहतर रास्ता है. हालांकि बातचीत से कई दफा बात बन जाती है और मनमुटाव और गलतफहमी भी दूर हो जाते हैं. अब अगर पति प्रताड़ना की शिकायत कर रहे हैं तो बात कतई हैरानी की नहीं, उन्हें तो खुश होना चाहिए कि शिकायत करने कोई मंच उन्हें मिला हुआ है जिस के पास क़ानूनी अधिकार भले ही कम हों लेकिन वह मामला सुलझाने की कोशिश तो करता है. इस के बाद अदालत ही बचती है जहां जा कर इंसाफ मांगना पत्नी की तरह पति का भी हक है.

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