हरियाणा विधानसभा चुनाव में चाहे कांग्रेस की हार हो गई हो और भारतीय जनता पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में जीती सीटों की दृष्टि से बेहतर प्रदर्शन किया हो, रैसलर विनेश फोगाट की जीत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उस ने 2 वर्ष पहले बृजभूषण सिंह, भाजपा सांसद, रैसलिंग फैडरेशन के अध्यक्ष, की करतूतों के विरुद्ध खुला विद्रोह किया था. भाजपा सरकार ने उन के कहने पर बृजभूषण सिंह को भाजपा से तो नहीं निकाला पर काफी हीलहुज्जत के बाद उस को पद से हटा दिया.
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कांग्रेस ने तब भी दिल्ली के जंतरमंतर पर धरने पर बैठी रैसलर को समर्थन दिया था और अब हरियाणा के चुनाव में टिकट दिया था.
बड़ी बात यह है कि कांग्रेस उन लोगों को टिकट दे रही है और फिर जितवा भी रही है जो सत्ता से लोहा लेने को तैयार हैं. आज देश की औरतें, सवर्ण औरतें भी, पिछड़े, दलित और मुसलिम सभी भाजपा के पौराणिक युग वाले आंतक के शिकार हैं. पिछले 30-40 सालों में जब से राममंदिर के बहाने पौराणिक समाज बनाने की कोशिश हो रही है, आधुनिक समान शिक्षा और विज्ञान की उपलब्धियों के बावजूद पिछड़ों, औरतों और मुसलिमों के हाथों से मौके छीने जा रहे हैं.
देश की उन्नति में इन सब का बड़ा हाथ रहा है क्योंकि ये लोग ही निर्माण में लगे हुए हैं. ये ही कारखाने चलाते हैं, ये ही खेती करते हैं, ये ही घरघर सामान पहुंचाते हैं. इन्हीं लोगों ने विदेश जा कर मजदूरी कर के विदेशी मुद्रा देश में भेजना शुरू किया है जिस के बल पर हम ठाट से विलासिता का विदेशी सामान खरीद रहे हैं. विदेशों में रह कर देश में पैसा भेजने वाले भारतीय दुनिया में पहले नंबर पर हैं.
हरियाणा के चुनाव में जो नतीजे आए हैं वे वैसे ही चौंकाने वाले है जैसे लोकसभा चुनाव के थे. लोकसभा चुनाव में सब को उम्मीद थी कि भाजपा 400 पार होगी और अब हरियाणा में उम्मीद थी कि भाजपा फिर हारेगी और कांग्रेस सरकार बनाएगी. भाजपा और कांग्रेस का वोट शेयर लगभग बराबर है पर सीटें भाजपा को ज्यादा मिल गईं. कांग्रेस को एक बड़ी उम्मीद हरियाणा जैसे छोटे प्रदेश से थी पर वह टूट गई है. लगता है, राहुल गांधी को और इंतजार करना होगा.
वैसे, भारतीय जनता पार्टी को लगभग 150 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद सत्ता मिली थी. इस गुट ने हिंदूहिंदूहिंदू करना स्वामी दयानंद के समय से शुरू कर दिया था. इस ने पहले कांग्रेस के बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के सहारे समाज को धर्म की पोखर में धकेलने की कोशिश की और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहारे. आज उसे बड़ी सफलता मिली हुई है पर वह अब फिर ढीली होती रही है.
हरियाणा के चुनाव ने जता दिया कि राहुल गांधी व दूसरे दलों का काम अभी आसान नहीं हुआ है.
जातियों से उठ कर एकता
हिंदू धर्म के मुख्य ग्रंथ महाभारत की कहानी में भाइयों में मनमुटाव दिखाया गया. वहीं, गीता का संदेश घर के क्लेशों को युद्ध से समाप्त करने का है. ऐसे में कौन सी एकता की बात हो रही है, किस एकता का राग आलापा जा रहा है.
पश्चिमी इतिहासकारों की खोजबीन के अनुसार भारत पर विदेशियों ने लगातार हमले किए. हमारे अपने साहित्यकार, अगर थे भी, तो राजा की चाटुकारिता करते रहते थे, इतिहास नहीं लिख रहे थे. उन के अनुसार न तो अशोक था, न चाणक्य, न मौर्य वंश. दक्षिण भारत में कुछ शूद्र राजा हुए हैं जिन्होंने जम कर पौराणिक हिंदू धर्म का प्रचार किया है. पर वहां भी जातिभेद लगातार स्पष्ट रहा है. ‘हम श्रेष्ठ हैं, बाकी निकृष्ट’ की भावना लगातार मन में भरी जा रही है.
शिरडी के साईं को ले कर आज जम कर विवाद हो रहा है कि वह कौन सी जाति का था. किसी को इस का पता नहीं. गुजरात के वैष्णव अरसे तक स्वामीनारायण मंदिरों में नहीं जाते थे, जाति के कारण.
देशभर में जातियों के नाम पर त्योहार बंटे हुए हैं. आजकल सब एकदूसरे के त्योहार मनाने लगे हैं, यह अच्छा है लेकिन यह विज्ञान की देन है. विज्ञान ने सब को एक शहर में रहने को बाध्य किया है, एक नल का पानी पीने को दिया है, एक बिजली का इस्तेमाल करने की सुविधा दी है. सड़कों पर आनेजाने पर आज प्रतिबंध नहीं लग सकता, तो यह विज्ञान का कमाल है.
मोहन भागवत, जो आरएसएस के मुखिया हैं, की आज जरूरत नहीं है. आज जरूरत है तार्किक, वैज्ञानिक, आधुनिक सोच की न कि धार्मिक सोच की. हिंदू एक न हों, सारे भारतीय एकजुट हो कर देश का निर्माण करें. मंदिर नहीं, उद्योग बनाएं. यह मोहन भागवत के बस का नहीं.
पौराणिक ग्रंथों में हिंदू राजाओं का खूब उल्लेख है लेकिन इतिहास में क्षत्रिय हिंदू राजाओं का वर्णन या उन के बनाए महल, मकान, शहर, मंदिर मिलना मुश्किल हैं. जिन मंदिरों को राम, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण का कहा जाता है, पुरातत्व खोजों के अनुसार वे 400-500 साल पुराने हैं और जहां मिलते हैं वहां क्षत्रिय नहीं शूद्र, यानी आज के ओबीसी, राजाओं के बनाए हुए मिलते हैं. बौद्ध निर्माण भी काफी दिखता है जिन में पूजापाठ भी होता था और रहने की जगह भी थी.
मोहन भागवत का 6 अक्तूबर को यह कहना कि ‘हिंदू समाज एक हो जाए,’ आज की स्थिति में क्या मतलब रखता है, समझ नहीं आया. हिंदू समाज है क्या, यही हर समय विवाद बना रहता है. पौराणिक ग्रंथ, स्मृतियां, मंदिर, रीतिरिवाज सब मिल कर समाज को हर समय बांटते रहते हैं.
अमृतमंथन में दस्युओं को अलग माना गया है और इस की कहानियां बारबार दोहराई जाती हैं. शिव ने जहर इसी अमृतमंथन के दौरान पिया था. कश्यप अवतार और मोहिनी अवतार इसी अमृतमंथन में हुए थे. फिर जो एकता की कहानी अमृतमंथन में सुनाई जाती है उस में दस्यु और देवता अलग क्यों थे? क्या दोनों हिंदू नहीं थे?
आजकल रामलीलाएं हो रही हैं. उन में मारीच, शूर्पणखा, रावण आदि को पराया दिखाया जा रहा है. उन्हें काला, बदसूरत दिखाया जा रहा है. दरअसल, लोगों के मन में यह बैठाया जा रहा है कि हिंदू हिंदू में फर्क है. दस्यु विदेशी थे, यह न मानते हुए भी अलग थे, तिरस्कार योग्य थे, यह दोहराया जाता है.
धर्मजातिजनित भेदभाव
भारत के हर शहर में कई ऐसे इलाके हैं जिन में केवल ऊंची जातियों के अमीर रहते हैं और जहां जगह की कमी नहीं है. ये इलाके शहरों के पुराने इलाकों से बाहर, भीड़भाड़, गलियों से दूर हैं. इन इलाकों की सड़कें चौड़ी हैं, पेड़ लगे हैं, रोज सफाई होती है, सीवर काम करता है, लाइटें लगी हैं जो जलती भी हैं, मकान पुते हुए साफसुथरे रहते हैं.
ऐसा ही अमेरिका में है. वहां गोरे पहले शहरों के बीच में रहते थे जैसे भारत के मुंबई में बांद्रा या कोलाबा इलाके में रहते थे. अब अमेरिकी शहर के बीच के इलाकों को कालों, भारतीयों, चीनियों, साउथ अमेरिकियों के लिए छोड़ कर ऊंचे दरवाजों वाली गेटेड कम्युनिटीज में जा रहे हैं.
आज 70 फीसदी गोरे अमेरिकी सबअर्बन एरियाज में रहते हैं. डाउन टाउन में केवल गरीब रह गए गोरे हैं. काले अब इन सबअर्बनों में किराए के मकान लेने लगे हैं क्योंकि 40-50 साल के स्ट्रगल के बाद उन्होंने अमेरिका में अपनी जगह बना ली है. भारत में पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों को दड़बेनुमा ढहते मकानों में या स्लमों में धकेला जा रहा है.
भारत की दिक्कत यह है कि यहां ऊंची जातियों वाले यादवों, कुर्मियों, जाटों, मराठों, रेड्डियों को भी ब्राह्मणों व बनियों वाले इलाकों में खुशीखुशी आने नहीं दिया जाता.
हर शहर चाहे अमेरिका हो या भारत का, एकजैसा बनने लगा है क्योंकि जैसे वहां डोनाल्ड ट्रंप जैसे खब्ती के करोड़ों अंधभक्त हैं वैसे ही यहां कट्टरपंथी नरेंद्र मोदी के करोड़ों अंधभक्त हैं जो हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था को बचाने के लिए सब से बड़े चौकीदार हैं.
ऊंची जातियों वाले उन्हें अपने परिवार का मानते हैं जैसे अमेरिका में अमेरिकी ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के सूत्रधार डोनाल्ड ट्रंप को मानते हैं. ट्रंप भी यही कहते हैं कि अमेरिका का राज सिर्फ गोरों के पास रहे.
किसी भी देश में धर्म-जाति को ले कर पैदा किया गया भेदभाव बेहद खतरनाक होता है. हिटलर को अभी भुलाया नहीं गया है, हिटलर के हाथों मारे और तड़पाए जाने वाले यहूदी आज उसी भेदभाव की वजह से इजराइल में फिलिस्तीनियों के साथ वैसा कर रहे हैं.
तीर्थस्थल बनाम शरणस्थल
कुंभ में भाइयों के बिछुड़ने की फिल्मी कहानियां तो अब दिखनी बंद हो गई हैं पर पश्चिम बंगाल के गंगासागर मेले का उपयोग अब भी घर के बूढ़ों को घर से निकाल फेंकने के लिए इस्तेमाल हो रहा है. एक दैनिक समाचारपत्र की खबर के अनुसार, गंगासागर के एक धार्मिक संगठन का कहना है कि हर साल करीब 8,000 बूढ़ों को गंगासागर की भीड़ में छोड़ने की नीयत से लाया जाता है पर उन में से बहुतों को पुलिस व स्वयंसेवकों द्वारा उन के घरों तक वापस पहुंचा दिया जाता है.
रामचरितमानस और गौपूजा वाले उत्तर प्रदेश व बिहार के मामले ज्यादा होते हैं जहां से आए लोग मानसिक संतुलन खो बैठे अपने वृद्धों को गंगासागर मेले में छोड़ जाते हैं. लगभग अपाहिज हो चुके इन वृद्धों की देखभाल न बेटे करना चाहते हैं, न बहुएं और न ही पोते.
आज के युग में जब किसी को ट्रेस करना आसान होता जा रहा है, इन परिवारों को बड़ी निराशा होती है जब स्वयंसेवक खोए वृद्धों को उन के घर तक ले जाते हैं. एक युग था जब कैमरे भी नहीं थे और न स्वयंसेवकों के पास साधन थे कि वे इन छोड़े गए वृद्धों को उन के घरों तक पहुंचा सकें.
वृद्धावस्था एक प्राकृतिक स्थिति है. न केवल वृद्धों को इस के लिए तैयार रहना चाहिए बल्कि बेटों, पोतों को इस की तैयारी करनी चाहिए. हर स्वस्थ व्यक्ति जीवन के अंत के 4-5 साल पैरालिसिस, किडनी डिजीज, अल्जाइमर्स, हार्ट, लंग्स, ब्लाइंडनैस आदि गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है.
इन बीमारों को गंगासागर में छोड़ना और उसे पुण्य का काम सम?ाना धर्म के हजारों अवगुणों में से एक है. छोड़ तो कोई भी किसी को कहीं सकता है पर परिवार के लोग सोचते हैं कि तीर्थस्थान पर छोड़ने से उन्हें पाप नहीं लगेगा और वे दोषी नहीं ठहराए जाएंगे.
कुछ मामलों में तो लोग ऐसे ‘खोए’ वृद्धों का, घर वापस आ कर पूरी निष्ठा से, अंतिमक्रिया के अनुष्ठान का नाटक कर यह सिद्ध करते हैं कि वे बड़े धार्मिक हैं और उन का वृद्धस्वजन या तो भीड़ में मर गया या खो गया. जितने धार्मिक क्रियाकर्म करने होते हैं, किए जाते हैं.
यह परंपरा कि- वृद्धों को कहीं छोड़ आओ- वानप्रस्थ आश्रम से जुड़ी है जिस का बखान हर प्रवचन में पंडित और गुरु करते हैं. पंडितों और गुरुओं का यह उद्देश्य होता है कि वृद्ध होते लोग जीते जी अपनी धनसंपत्ति दान कर दें क्योंकि पता नहीं होश खोने के बाद उन के बेटे-पोते उन्हें कितना देंगे, देंगे भी या नहीं.
वैसे हमारे सारे तीर्थस्थल छोड़े गए हजारों लोगों की शरणस्थली हैं. वृंदावन, काशी, हरिद्वार, प्रयागराज आदि इस के बड़े केंद्र हैं. अयोध्या भी बनेगा.