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उड़ान : आखिर जिंदगी से ऐसा क्या चाहती थी कांता

‘‘मैं ने कह दिया न कि मैं तुम्हारे उस गिरिराज से शादी नहीं करूंगी. सब कहते हैं कि वह दिखने में मुझ से छोटा लगता है. फिर वह करता भी क्या है… लोगों की गाडि़यों की साफसफाई ही न?’’ कांता ने दोटूक शब्दों में कह दिया.

‘‘उस से नहीं करेगी, तो क्या किसी नवाब से शादी करेगी? अरी, तू बिरादरी में हमारी नाक कटाने पर क्यों तुली है. तू सोचती है कि तेरे कहने से हम तय की हुई शादी तोड़ देंगे? इस भुलावे में मत रहना.

‘‘मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं शादियांसगाइयां वगैरह जोड़तीतोड़ती रहूं. अभी तो मेरे पास शादी के लिए दोदो लड़कियां और बैठी हैं,’’ पत्नी देवकी को बोलते देख कर पति मुरारी भी पास आ गया था.

कांता के छोटे भाईबहन, जो बाप की रेहड़ी के पास खड़े हो कर सुबहसुबह कुछ पैसा कमाने के जुगाड़ में प्रैस कर रहे थे, भी वहां आ गए थे.

मुरारी ने बेटी कांता को सुनाते हुए अपनी पत्नी देवकी से कहा, ‘‘कह दे अपनी छोरी से, इतना हल्ला न मचाए. ब्यूटीपार्लर में काम क्या करने लगी है, अपनेआप को हेमामालिनी समझने लगी है. ज्यादा बोलेगी, तो घर से बाहर कर दूंगा. ज्यादा चबरचबर करना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’’

मां के सामने तो कांता शायद थोड़ी देर बाद चुप भी हो जाती, पर उन दोनों की तकरार में बाप के आते ही वह गुस्से में आ गई और बोली, ‘‘अच्छा बापू, यह तुम कह रहे हो. शाम को शराब पी कर जो तमाशा तुम करते हो, वह याद नहीं है तुम्हें?

‘‘अभी कल शाम को ही तो तुम ने मुझ से शराब के लिए 20 रुपए लिए थे. तुम्हें तो अपनी शराब से ही फुरसत नहीं है. मैं अपना कमाती हूं. मुझे तो यहां पर रहते हुए भी शर्म आती है. कुछ ज्यादा पैसा मिलने लगे, तो मैं खुद ही यहां से कहीं दूर चली जाऊंगी.’’

जब से कांता ब्यूटीपार्लर में नौकरी करने जाने लगी थी, तब से उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

वैसे, गलीगली में खुल गए ब्यूटीपार्लर इन्हीं झुग्गीझोंपडि़यों की लड़कियों के बल पर ही चल रहे हैं. इन से जितना मरजी काम ले लो. ये खुश भी रहती हैं और ग्राहक की जीहुजूरी भी खूब कर लेती हैं.

कांता ब्यूटीपार्लर में पिछले 6 महीने से काम कर रही है. शुरूशुरू में वहां की मालकिन अलका मैडम ने उस से बस मसाज वगैरह का काम ही कराया था, पर अब तो वह भौंहों की कटाईछंटाई और बाल भी काट लेती है.

कांता बातूनी है और टैलीविजन पर आने वाले गानों के साथ सारासारा दिन गुनगुनाती रहती है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से छुट्टी वाले दिन भी वह छुट्टी नहीं करती है. जिस दिन दूसरी लड़कियां नहीं आतीं, उस दिन भी अकेली कांता के दम पर ब्यूटीपार्लर खुला रहता है.

अलका मैडम कांता से बहुत खुश हैं और वह उन की इतनी भरोसेमंद हो गई है कि वे अपना कैश बौक्स भी उसे सौंप जाती हैं.

पर आज सुबह से ही कांता का मूड खराब था. चहकने से सुबह की शुरुआत करने वाली कांता आज गुमसुम थी. ब्यूटीपार्लर पहुंच कर न तो उस ने अपने नए तरीके से बाल बनाए थे, न ही अलका मैडम से कहा था, ‘मैडम, जब तक कोई ग्राहक नहीं आता, तब तक मैं आप के बालों में मेहंदी लगा दूं या फेसियल कर दूं…’

कांता की चुप्पी को तोड़ने के लिए अलका मैडम ने ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ कांता?’’

1-2 बार पूछने पर कांता ने सारी रामकहानी अलका मैडम को सुना दी और लगी रोने. रोतेरोते उस ने कहा, ‘‘मैडम, आप मुझे अपने घर में क्यों नहीं रख लेतीं? बदले में मुझ से अपने घर का कुछ भी काम करा लेना. घर वालों को कुछ तो मजा चखा दूं. मैं अपने साथ जोरजबरदस्ती बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

‘‘ठीक है, पर मुझे सोचने के लिए थोड़ा सा समय तो दे. और सुन, यह मत भूलना कि मांबाप बच्चों का बुरा नहीं चाहते हैं. उन के नजरिए को भी समझने की कोशिश कर. दूसरों के कहने पर क्यों जाती है. क्या तू ने अपना मंगेतर देखा है?’’ अलका मैडम ने पूछा.

‘‘हां देखा था, अपनी सगाई वाले दिन. लेकिन मुझे उस का चेहरा जरा भी याद नहीं है.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि साफसफाई करने वाली शीला ने कहा, ‘‘बाहर कोई लड़का कांता को पूछ रहा है.

‘‘लड़का…’’ कांता चौंकी, ‘‘कहीं गिरिराज तो नहीं?’’

‘‘मैं किसी गिरिराज को नहीं पहचानती,’’ शीला ने जवाब दिया.

‘‘जो भी है, उस से कह दो कि यह औरतों का ब्यूटीपार्लर है, मैं लड़कों के बाल नहीं काटती,’’ कांता बोली.

‘‘अरे, इतनी देर में उस से मिल क्यों नहीं लेती?’’ अलका मैडम ने कहा.

कांता बाहर आई, तो उस ने देखा कि सीढि़यों पर एक खूबसूरत सा नौजवान चश्मा लगाए, जींसजैकेट पहने खड़ा था.

‘कौन है यह? शायद किसी ग्राहक के लिए मुझे लेने या समय तय करने के लिए आया हो,’ कांता ने सोचा और बोली, ‘‘आप को जोकुछ पूछना है, अंदर आ कर मैडम से पूछ लो.’’

‘‘मैं तो आप ही के पास आया हूं,’’ वह नौजवान मुसकराते हुए बोला, ‘‘कहीं बैठाओगी नहीं?’’

‘‘मैं तुम… आप को पहचानती नहीं,’’ कांता ने सकपकाते हुए कहा.

‘‘मैं गिरिराज हूं.’’

‘‘हाय…’’ कांता झेंपी, ‘‘तुम… मेरा मतलब आप यहां?’’ थोड़ी देर तक तो उस से कुछ बोला नहीं गया. पहले वह जमीन की तरफ देखती रही, फिर आंख उठा कर उस ने उस नौजवान की तरफ देखा, तो वह भी एकटक उस की ही तरफ देख रहा था.

कांता फिर झेंप गई. बातूनी होने पर भी उस से बोल नहीं फूट रहे थे, तभी बाहर का हालचाल जानने के लिए अलका मैडम भी बाहर निकलीं.

कांता की पीठ अलका मैडम की तरफ थी और वह उन के रास्ते में खड़ी थी. रास्ता रुका देख कर गिरिराज ने कांता की बांह पकड़ कर एक तरफ खींचते हुए कहा, ‘‘देखो, ये मैडम जाना चाहती हैं. तुम एक तरफ हट जाओ.’’

गिरिराज के हाथ की छुअन के रोमांच पर कांता मन ही मन खुश होते हुए भी ऊपर से गुस्सा कर बोली, ‘‘तुम मुझे हाथ लगाने वाले कौन होते हो?’’

इसी बीच अलका मैडम वापस अंदर चली गईं.

‘‘अरे, अभी तक नहीं पहचाना? मैं गिरिराज हूं, तुम्हारा गिरिराज. मां और बाबूजी कल तुम्हारे यहां शादी की तारीख तय करने के लिए गए थे.

‘‘मैं ने उन से कह दिया था कि मुझ से बिना पूछे कोई तारीख पक्की मत कर आना. सोचा था कि तुम से मिल कर ही तारीख तय करूंगा.

‘‘इसी बहाने एकदो बार मिल तो लेंगे. चलो, छुट्टी ले लो. चाहे तो शाहरुख खान की नई फिल्म देख लेंगे या फिर किसी रैस्टोरैंट में पिज्जा खिला लाऊं?’’ गिरिराज ने अपनी बात रखी.

कांता के मन में लड्डू फूट रहे थे. अच्छा हुआ कि वह सुबह गुस्से में अलका मैडम के घर रहने नहीं पहुंच गई.

‘‘मैं घर पर तो बता कर के नहीं आई हूं,’’ कांता ने नरम होते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ? चोरीछिपे मिलने  का मजा ही कुछ और है. और फिर मेरे साथ चलने में तुम्हें कैसी हिचक? देखती नहीं, सब फिल्मों में हीरोहीरोइन मांबाप को बिना बताए ही घूमते हैं, गाते हैं, नाचते हैं,’’ गिरिराज बोला.

कांता ने इतरा कर बालों को पीछे फेंका और तिरछी नजर से उसे देखते हुए बोली, ‘‘मैं जरा बालों को ठीक कर आऊं, तब तक तुम अलका मैडम से जाने की इजाजत ले लो,’’ फिर जातेजाते वह रुकते हुए बोली, ‘‘तुम… आप कुछ ठंडागरम लेंगे?’’

‘‘वैसे तो जब से आया हूं, तुम्हारे रूप को पी ही रहा हूं, फिर भी तुम जो पिला दोगी, पी लूंगा. पीने के लिए ही तो आया हूं.’’

कांता के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. नशे की सी हालत में वह लड़खड़ा कर गिरने ही वाली थी कि गिरिराज ने उसे लपक कर अपनी बांहों में समेट लिया.

उधर ब्यूटीपार्लर के टैलीविजन पर एक प्यार भरा गीत आ रहा था, ‘मुझ को अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही…’ और इधर गिरिराज कांता को संभालते हुए मानो गा रहा था, ‘आ, गले लग जा…’

जैसे ही वे दोनों अंदर पहुंचे, सबकुछ समझते हुए अलका मैडम ने उन के बोलने से पहले ही कहा, ‘‘हांहां जाओ, मौज करो. पर मुझे अपनी शादी में बुलाना मत भूलना.’’

‘‘मैडम, क्यों इतनी जल्दी आप हमें शादी की चक्की में पीस देना चाहती हैं. हमें कुछ दिन और मौजमजा कर लेने दीजिए, तब तक छुट्टी मनाने के लिए आप की इजाजत की जरूरत पड़ती रहेगी,’’ गिरिराज ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं.’’

‘‘शुक्रिया मैडम.’’

कांता देख रही थी कि वह जिसे छोटा सा समझ रही थी, वह तो पुराना अमिताभ बच्चन निकला. क्या बढि़या अंदाज में मैडम से बात कर रहा था. कांता सोच रही थी, ‘मां जो तारीख कहेंगी, उसी तारीख के लिए मैं हामी भर दूंगी. तब तक मेरा हीरो इधर आता ही रहेगा.’

गिरिराज कांता को देख रहा था और कांता गिरिराज को. हालांकि उन्होंने बाहर जाने के लिए सीढि़यों से पैर नीचे रखे थे, मगर उन्हें लग रहा था कि वे दोनों उड़ रहे हैं.

व्यंग्य : बिलबिलाता देशभक्त

उस के अंदर का दर्द किसी सुलगे हुए विस्फोटक के समान चेहरे पर झलक रहा था. किसी भी क्षण भयंकर विस्फोट हो सकता था और विस्फोट से हर कोई डरता है, हम भी. हमारा देशभक्त मित्र बड़ा परेशान नजर आ रहा था. मौसम तो सुहावना था लेकिन वह पसीनापसीना हो रहा था. उस के अंदर का दर्द किसी सुलगे हुए विस्फोटक के समान चेहरे पर झलक रहा था.

 

किसी भी क्षण भयंकर विस्फोट हो सकता था. विस्फोट से कौन नहीं डरता? हम सावधान थे लेकिन हमारा जिज्ञासु मन मान नहीं रहा था, वह जल्दी से जल्दी विस्फोट का परिणाम जानने को उत्सुक था. इस के लिए हम ने खुद उत्प्रेरक बनने का काम किया और आग में घी डालते हुए अपने परमप्रिय देशभक्त मित्र से कहा, ‘‘मित्र, क्या हुआ? अपनी सरकार के होते हुए भी चेहरे पर यह गुस्सा, यह परेशानी, तोबातोबा.’’ जैसी कि उम्मीद थी, हमारा देशभक्त मित्र एकदम से फट पड़ा, ‘‘क्या खाक अपनी सरकार है? किस मुंह से कह दें कि यह अपनी सरकार है?’’

 

‘‘अरे इसी चौखटे से चौड़े मुंह से कह दो जो तुम्हारे पास है,’’ हम ने मित्र को चिढ़ाते हुए कहा. यह सुन कर उस का मुंह तो बना लेकिन इस समय उस के अंदर का लावा इतना बलवती था कि वह खुद को बोलने से रोक नहीं पा रहा था. वह बिलकुल चोंच को आगे करते हुए कागा की तरह बोला, ‘‘अरे हम ने तो यह सरकार इसलिए बनवाई थी कि कश्मीर में आतंकवाद का बिलकुल सफाया हो जाए. लेकिन वहां तो उलटा हो रहा है. आएदिन आतंकवादी हमारे जांबाज सैनिकों को शहीद कर के तिरंगे में लपेट कर भेज रहे हैं. पहले तो कश्मीर घाटी ही आतंकवाद से त्रस्त और ग्रस्त थी, अब तो आतंकवादी जम्मू क्षेत्र को भी निशाना बना रहे हैं और कुछ लोग उन का साथ भी दे रहे हैं.’’

‘‘देखो मित्र, बात तो तुम्हारी सही है लेकिन सरकार अपना काम तो कर रही है.’’ हमारी बात पूरी होने से पहले ही देशभक्त मित्र तिड़क उठा, ‘‘क्या खाक काम कर रही है? आतंकवाद तो उस से रोका नहीं जा रहा.’’ ‘‘देखो, तुम्हारी सरकार ने अनुच्छेद 370 का खात्मा कर दिया. पत्थरबाजी भी खत्म ही हो गई और अब क्या चाहिए तुम्हें?’’ देशभक्त मित्र ने झल्ला कर सिर खुजाया. अभिनय तो उस ने ऐसा किया जैसे सिर के बाल ही नोंच लेगा. फिर हमारी तरफ आग उगलती नजरों से देख कर बोला, ‘‘बस, तुम्हें इतने से ही चैन है. हम जैसे देशभक्त से पूछो हमारे दिल पर क्या गुजर रही है? हमारा एक सैनिक शहीद होता है, हमारा कलेजा टुकड़ेटुकड़े हो जाता है. मैं तो कहता हूं कि एकएक आतंकवादी को जहन्नुम पहुंचा दिया जाए.’’ ‘‘अरे भाई, तुम्हारे वोट से चुनी हुई सरकार आतंकवादियों के खिलाफ ‘जीरो टौलरेंस’ की नीति तो अपनाए हुए है और इस के तहत आतंकवादियों को चुनचुन कर मारा भी जा रहा है.’’

देशभक्त मित्र हमारी बात सुन कर कड़क कर बोला, ‘‘मैं जानता था, तुम्हारे अंदर देशभक्ति नाम की कोई चीज है ही नहीं. तुम्हें सैक्युलरिज्म के कीड़े ने काटा हुआ है. तुम क्या समझोगे देशभक्ति का जज्बा?’’ ‘‘अरे मित्र, फिर तुम ही समझा दो न, क्या किया जाना चाहिए?’’ हम ने उस की राय जानने की कोशिश की. वह तड़प कर बोला, ‘‘यह बताओ, यह जो हमारी सेना के पास नाग, त्रिशूल, अग्नि और भी न जाने कौनकौन सी मिसाइलें हैं, क्या उन्हें शोकेस में सजा कर रखने के लिए बनाया हुआ है? और वे जो फ्रांस से अरबों रुपयों के राफेल लड़ाकू विमान खरीदे हैं, उन जंगी जहाजों को क्या जंग लगाने के लिए खरीदा गया है?’’ देशभक्त मित्र की जंगीजबान सुन कर हम सहम गए. हम ने कहा, ‘‘मित्र, तुम तो किसी पाकिस्तानी कट्टरपंथी की भाषा बोल रहे हो, आखिर कहना क्या चाहते हो?’’ ‘‘तुम नहीं सम?ागे. तुम सैक्युलर कभी नहीं सम?ागे देशभक्ति की भाषा. अरे हम और हमारी सरकार दुनियाभर में ढोल पीटते घूमते हैं कि पाकिस्तान ‘आतंकवाद की फैक्ट्री’ है. फिर इन मिसाइलों और लड़ाकू विमानों से आतंकवाद की उस फैक्ट्री को तबाह क्यों नहीं कर डालते?’’ ‘‘लेकिन मित्र, ऐसा करने के लिए तो बहुतकुछ सोचना पड़ता है और उस से भी बड़ी बात यह है कि ऐसा करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए.’’

 

हमारा देशभक्त मित्र मुंह बिचकाते हुए बोला, ‘‘यही तो दुख की बात है. हम भी सोचते थे उन के पास 56 इंच का सीना है लेकिन किस काम का. अमेरिका को देखो, 26/11 के हमले के बाद उस ने देश के देश तबाह कर दिए. सद्दाम हुसैन को सरेआम फांसी पर लटका दिया. कर्नल गद्दाफी को मौत की नींद सुला दिया और ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुस कर मारा. जब अमेरिका ऐसा कर सकता है तो हम क्यों नहीं?’’ हम ने यह सुन कर अपनी हंसी को दबाया. हमारा मित्र भारत की तुलना अमेरिका से कर रहा था. हम ने अपने देशभक्त मित्र को और चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘जहां तक 56 इंच के सीने की बात है तो हम तो इतना ही कहेंगे भाई, हाथी के दांत दिखाने के और, और खाने के और होते हैं. देखो इजराइल को, उस ने अपने दुश्मनों को कैसा सबक सिखाया?’’

इजराइल का नाम सुनते ही हमारे देशभक्त मित्र का सीना गर्व से चारगुना चौड़ा हो गया. चेहरे पर मुसकान की लकीर खिंच गईं. वह जोश के साथ बोला, ‘‘बिलकुल सही. अब पकड़ा न, तुम ने बात का सही सिरा. इजराइल की बात ही कुछ और है. हमें भी इजराइल की तरह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए.’’ ‘‘लेकिन मित्र, हमारा देश तो शांति का मसीहा है. हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय नियमों और कानूनों का सम्मान करता है. हमारा देश बम और गोली की बात नहीं करता. देखा नहीं, मोदीजी अपनी रूस यात्रा के दौरान पुतिन को कैसे शांति का पाठ पढ़ा कर आए हैं? आस्ट्रिया में तो उन्होंने यह तक कह दिया कि हम ने दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध दिए हैं. और तुम भी हर समय ‘ओम शांति, ओम शांति’ का पाठ जपते रहते हो, फिर क्रांति कैसे हो?’’ हमारे द्वारा शांति का यह व्याख्यान सुन कर देशभक्त मित्र कुलबुलाया, ‘‘सही कहते हो, मित्र. जो दूसरों को शांति का पाठ पढ़ाए, वह तो खुद एक मक्खी भी नहीं मार सकता, आतंकवादियों के खात्मे की बात तो बहुत दूर. अब तो पीओके को पाने की रहीसही कसर भी खत्म. हमारी सरकार तो तब कुछ नहीं कर पाई जब 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के 40 से ज्यादा जवान शहीद कर दिए थे. तब तो दुनिया भी हमारे साथ थी. तब हमारे दिल के घावों पर  ‘झंडू बाम’ लगाते हुए यह बताया गया था, ‘समय हमारा होगा, जगह हम चुनेंगे, फैसला हम करेंगे.’ लेकिन आंखें पथरा गईं, कान बहरे हो गए, न वह समय आया और न आएगा.’’ ‘‘अरे मित्र, इतने निराश क्यों होते हो? तुम्हारी देशभक्त सरकार ने पाकिस्तान के बालाकोट में कितनी बहादुरी से सर्जिकल स्ट्राइक कर के 300 आतंकवादियों को मौत की नींद सुला दिया था और उस समय तुम भी तो कितनी मस्ती से नाचे थे? याद है न तुम्हें, क्यों?’’ मित्र को न जाने क्यों ऐसा लगा जैसे मैं उस के जले पर नमक छिड़क रहा हूं. वह कुछ मायूस सा हो कर बोला, ‘‘अब तो वह सब भी ? झूठ का एक पुलिंदा लगता है. वह तो जनता को बेवकूफ बनाने का एक नाटक भर लगता है. अगर हम ने पाकिस्तान के 300 आतंकवादी मारे होते तो हम तो इतने ढिंढोरची हैं कि सारी दुनिया में उस का वीडियो दिखादिखा कर मोदी के विजयी गान गा रहे होते और सारी दुनिया में हल्ला काट रहे होते- अरे, 56 इंच का सीना है हमारा, 56 इंच का.’’ ‘‘इस का मतलब तो यह हुआ कि अब तुम भी यह स्वीकार करते हो कि बालाकोट में केवल कुछ पेड़ गिराए गए थे?’’

इस संवेदनशील मुद्दे पर हम ने देशभक्त मित्र की राय जानने की कोशिश की. वह बोला, ‘‘अब तो मुझे भी यही शक होने लगा है. आखिर सेना तो वही करेगी जो उस को आदेश दिया जाएगा. दम होता तो रावलपिंडी पर बम गिराने का हुक्म देते.’’ हम को लगा कि देशभक्त मित्र सरकार की आलोचना में सरकार के विरोधियों से भी आगे निकल रहा है. शायद यह उस के मन की पीड़ा थी जिसे वह आग की तरह उगल रहा था. हम ने उस को थोड़ी सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘मित्र, अपनी सरकार को ले कर इतने उदास न हो. देखो, तुम्हारी सरकार ने आतंकवादियों के हितैषी और अलगाववादी नेता यासीन मलिक, इंजीनियर शेख अब्दुल राशिद, अमृतपाल सिंह आदि को जेलों में डाल रखा है.’’ ‘‘हम देशभक्तों को यही तो परेशानी है कि इन अलगाववादियों और आतंकवाद के पैरोकारों को जेल में डाल ही क्यों रखा है, इन्हें अब तक जहन्नुम पहुंचाया क्यों नहीं?

जेल में जा कर इंजीनियर राशिद बारामूला से और अमृतपाल खडूर साहिब से सम्मानित संसद सदस्य बन गए हैं. इन का हश्र तो ओसामा बिन लादेन जैसा होना चाहिए था. ऐसी ढुलमुल नीति से देश नहीं चला करते.’’ हम ने सोचा यह नाग सा बिलबिलाता देशभक्त है. यह सारी सीमाएं लांघ रहा है. जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की मौत मांग रहा है. इसे न संविधान की चिंता है और न कानून का डर. इसे सबक सिखाना जरूरी है. हम ने धोबी पाट लगाते हुए कहा, ‘‘मित्र, तुम बड़े देशभक्त बने फिरते हो. अपनी ही सरकार की जम कर आलोचना कर रहे हो. इतने बड़े देशभक्त हो तो जैसे ये आतंकवादी अपने मिशन के लिए जान गंवा देते हैं, तुम भी देशभक्ति दिखाते हुए उन का मुकाबला करो. उन के खिलाफ आंदोलन करो, जेल जाओ, गोली खाओ. पाकिस्तान से आतंकवादी जान हथेली पर ले कर आते हैं, तुम भी जान हथेली पर ले कर पाकिस्तान जाओ और वहां ‘आतंकवाद की फैक्ट्री’ में पनप रहे आतंकवादियों को ढेर कर आओ. तब होगी तुम्हारी जांबाजी और देशभक्ति की परीक्षा कि चलो, तुम ने कुछ कर के दिखाया.’’

यह सुनते ही देशभक्त मित्र बौखला गया. वह हम से नाराज होते हुए बोला, ‘‘अरे, ये कैसी बातें करते हो? आतंकवादियों से लड़ना तो सरकार का काम है. तुम तो हमें ही मरवा डालोगे. तुम फालतू की बात करते हो. तुम्हें सैक्युलरिज्म के कीड़े ने काटा है. तुम से बातें करना ही बेकार है. तुम जैसे सैक्युलरिस्ट के पास बैठ कर अपना दिमाग खराब ही नहीं करना चाहिए. तुम क्या जानो देशभक्ति क्या होती है?’’ ऐसा कहते हुए बौखलाया हुआ हमारा देशभक्त मित्र वहां से पैर पटकता हुआ दफा हो गया. उस के जाने पर हम ने चैन की एक गहरी सांस ली. हम जानते थे, देशभक्तों की दुनिया निराली होती है, इस प्रजाति के जीव बोलते बहुत हैं, करते कुछ नहीं.

ऐसा तो नहीं सोचा था : आजादी का दर्द

ममता नींद में थी. उस का जीवनसाथी बृज अब उस का नहीं रहा, इस का इल्म उसे नहीं था. आजाद जीवन प्यारा था उसे. अब भी पूरी आजादी चाहिए थी. नहीं रहना चाहती थी किसी के संग वह.

‘‘फोन की घंटी बज रही है, उठो.’’ सुबह का समय है, सर्दी के दिन हैं. इस समय गरमगरम रजाई से निकल कर फोन उठाना एक आफत का काम है. मोबाइल में सिग्नल नदारद रहते हैं, तब पुराना लैंडलाइन फोन ही काम आता है. पति को सोता देख कर ? झल्लाती हुई ममता को ही उठ कर फोन उठाना पड़ा. हालांकि ममता को मालूम था, आज रविवार की सुबह बच्चों का ही फोन होगा, लेकिन किस का होगा, यह तो फोन उठाने पर ही मालूम होगा.

ममता ने फोन उठाया और बातों में मशगूल हो गई. पुत्री सुकन्या का फोन था. बृजमोहन भी उठ कर आ गए, फिर पुत्री और दामाद से उन की भी बातें हुईं. आखिर घूमफिर कर वही बातें होती हैं, क्या हाल है? बच्चे कैसे हैं? छुट्टी में इंडिया आओगे? आज कौन सी दालसब्जी बनी है या बनेगी? मौसम का क्या हाल है? पड़ोसियों की शिकायत, सब यहीकुछ.

सुकन्या को भी पड़ोसियों की बातें सुनने में मजा आता था. ममता भी वही बातें दोहराती, सारी पड़ोसनें जलती हैं. पूरा एक घंटा ममता और बृजमोहन का व्यतीत हो गया. सुबह 6 से 7 बज गए.

ममता और बृजमोहन के 3 बच्चे, सब से बड़ी बेटी सुकन्या, फिर दो छोटे बेटे गौरव और सौरभ. सभी अमेरिका में सैटल हैं. सभी शादीशुदा अपने बच्चों के साथ अमेरिका के विभिन्न शहरों में बसे हुए हैं.

सुकन्या खूबसूरत थी, एक पारिवारिक विवाह में दूर के रिश्ते में अमेरिका में बसे लड़के को पहली नजर में भा गई और फिर विवाह के बाद अमेरिका चली गई. कुछ समय बाद दोनों बेटे भी अमेरिका में सैटल हो गए.

अब ममता और बृजमोहन दिल्ली में अकेले एक तिमंजिला मकान में रह रहे हैं. आर्थिक रूप से संपन्न बृजमोहन की कपड़े की दुकान थी, जो वे आज भी चला रहे हैं. कभीकभी बच्चे मिलने आ जाते हैं और कभी वे बच्चों के पास मिलने चले जाते हैं. अब बिना किसी बंधन के अकेले रहने का सुख भी बहुत है. ममता कुछ नखरैल अधिक हो गई, जब आर्थिक संपन्नता हो, तब चिंता किस बात की.

बृजमोहन का हर सुबह कालोनी के पार्क में जाना दिनचर्या का हिस्सा है. अकेले समय भी काटना है, पार्क के रखरखाव में अकसर खर्च करते. इस से पार्क के क्लब में होने वाले समारोह में उन्हें मुख्य अतिथि का तमगा मिल जाता.

 

पार्क के क्लब में एक समारोह था. शुरुआत में एक धार्मिक क्रिया की जा रही थी. ‘‘सब को नमस्कार,’’ समारोह स्थल में घुसते ही बृजमोहन ने आवाज दी.

‘‘नमस्कार, सेठजी,’’ पंडितजी भी धार्मिक क्रिया करते हुए बीच में बोल पड़े. वहां मौजूद लोगों में से कुछ मुसकरा दिए और कुछ की भृकुटि तन गईं, वे बुदबुदाने लगे, ‘यह क्या, सेठ होगा अपने घर में. यहां सब बराबर हैं. चंदा ज्यादा देता है, इस का यह मतलब तो नहीं कि धार्मिक क्रिया में विघ्न डालेगा. धार्मिक क्रिया के बाद बात नहीं कर सकता?’

पंडितजी को चंदा चाहिए, पत्थर की प्रतिमा से तो चंदा मिलेगा नहीं, देना सेठ को ही है, अब उस की कुछ तो जीहुजूरी बनती ही है.

‘‘सेठजी, वार्षिक आयोजन के कुछ ही दिन शेष हैं, पूरे क्लब को लाइट्स से रोशन करना है.’’

‘‘समझ हो गया, पंडितजी. लाइट्स मेरी तरफ से. अभी ताजेताजे डौलर आए हैं. डौलर भी महंगा है.’’

 

बृजमोहन सब को यह जताना चाहते थे कि बेटे ने कल ही डौलरों की एक खेप भेजी है, उस के बेटे कितना खयाल रखते हैं.

‘‘सेठजी, भंडारा भी हर रोज होगा.’’

‘‘पंडितजी, मेरी जेब काट लो, सबकुछ मेरे से करवाओगे. भंडारे का नहीं दूंगा. लाइट्स लगवा रहा हूं, वह क्या कम है?’’ बृजमोहन ने दोटूक मना कर दिया. पैसों के बड़े पक्के इंसान थे. पाईपाई का हिसाब रखते थे.

‘‘सेठजी, क्लब में हर शाम कीर्तन भी होगा.’’

‘‘पंडितजी, करो कीर्तन, आप का काम है. मैं तो कीर्तन करूंगा नहीं.’’ बृजमोहन ने आरती में सुर लगाया.

‘‘तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता…’’ फिर पंडितजी बोले, ‘‘सेठजी, माता रानी से डरो, तुम ही भरता हो, कीर्तन के बाद प्रसाद भी बांटना है,’’ पंडितजी उन की जेब ढीली करवाने पर तुले थे.

‘‘कहत शिवानंद स्वामी, सुख संपत्ति पावे…’’ पंडितजी आगे बोले, ‘‘सेठजी, और डौलर आएंगे, प्रसाद का प्रबंध तो आप के जिम्मे है.’’ पंडित भी कौन से कम होते हैं, उन को हजार तरीके आते हैं.

 

‘‘पंडितजी, आखिरी दिन प्रसाद मेरी तरफ से. आप भी क्या याद करेंगे पंडितजी, किस रईस से पाला पड़ा है.’’

धार्मिक क्रिया की समाप्ति के बाद पंडितजी ने मुंह ही मुंह में खुद से कहा, ‘इन की जेब से पैसे निकलवाने का मतलब एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने के बराबर है.’

क्लब में पंडित और दूसरे लोगों से कुछ बातचीत, कुछ गपशप लगाने के बाद बृजमोहन घर वापस आए और नाश्ता करने के बाद कालोनी के कैंपस में चक्कर लगाने चले गए. शाम के समय एकएक कर के बेटों के फोन आए. ममता ने विशेष हिदायत दी.

‘‘चलो कोटपैंट पहन लो, रविवार यानी छुट्टी के दिन घर पर डिनर नहीं करना है,’’ ममता ने और्डर दे दिया.

हर रविवार शाम को मौल घूम कर रैस्टोरैंट में डिनर करना उन की आदत थी. सिर्फ 2 जनें, उम्र सत्तर के करीब, खुद कार चला कर मौल जाते हैं. वापस लौटते समय कार ट्रैफिक सिग्नल पर बंद हो गई. ग्रीन लाइट हुई, तब स्टार्ट करने में दिक्कत हुई. पीछे खड़े वाहनों ने दबादब हौर्न बजाने चालू कर दिए.

‘‘देखो, इस खटारा को बदल दो. एक बार बंद हो जाए तो स्टार्ट ही नहीं होती है. हमारी लाइन में सब के पास चमचमाती लेटैस्ट कारें हैं, बड़ी वाली और हम खटारा ले कर घूम रहे हैं. मैं पड़ोस में और हंसी नहीं उड़वा सकती हूं. देखो, अगले हफ्ते वार्षिक समारोह आरंभ हो रहा है, नई कार घर में आनी चाहिए और वह भी बड़ी वाली.’’

बृजमोहन दुनिया के आगे अपनी जेब सिल कर रखते थे, परंतु परमप्रिय ममता के आगे सदा खुली रहती थी. बिलकुल चूंचपड़ नहीं करते थे.

जब चारपांच सैल्फ मारने पर कार स्टार्ट हुई, बृजमोहन ने पक्का वाला प्रौमिस कर दिया, ‘‘बिलकुल ममता, इस बार बड़ी वाली कार खरीदते हैं.’’

 

पंद्रह वर्षों से बच्चों से अलग रह रहे ममता और बृजमोहन को अकेले रहने में रस आने लगा था. न बच्चों की चिकचिक, न कोई बंधन, जो दिल में हो, करो. संपूर्ण आजादी में रह रहे दंपती को किसी का दखल पसंद नहीं था.

बृजमोहन और ममता बेफिक्र आजादी के संग अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. आराम से सुबह उठना, पार्क में सुबह की सैर करना उन की दिनचर्या थी. ममता अपनी किटी पार्टी में मस्त रहती. बृजमोहन आराम से 11 बजे दुकान जाने के लिए निकलते थे. उन के बच्चे उन को डौलर भेजते थे, फिर भी अपनी दुकान बंद नहीं की. आरामपरस्त होने के कारण उन की दुकानदारी कम हो गई थी, किंतु उन को इस की कोई चिंता नहीं थी. एक पुराना विश्वासपात्र नौकर था. वह ही दुकान संभालता था. पड़ोस के दुकानदार उसे कहते, ‘असली मालिक तो तू ही है. देख लियो, मरने पर दुकान तेरे नाम लिख कर जाएगा.’

 

नौकर भी हंस देता. मजाक पर कोई टैक्स नहीं लगता है. एक बात पक्की है, बृजमोहन दुकान को अपने साथ बांध कर ले जाएंगे. नौकर अपने मालिक की हर रग से वाकिफ था.

हर जगह सुपर मार्केट और स्टोर खुलने से महल्ले की छोटी परचून की दुकानों का कामधंधा गिरने लगा. आज की युवा पीढ़ी हर छोटे से बड़ा सामान औनलाइन खरीदती है. ऊपर से इन सुपर स्टोर्स ने छोटी दुकानों का धंधा लगभग चौपट ही कर दिया है. इसी कारण बृजमोहन के मकान के करीब एक परचून की दुकान बंद हो गई.

एक शाम बृजमोहन अपनी दुकान से वापस लौटे तो उस परचून के मालिक ने बृजमोहन को लपक कर पकड़ लिया.

‘‘सेठजी, नमस्कार.’’

‘‘नमस्कार, तू ठीक है, तू ने दुकान बंद क्यों कर रखी है. पहले तो रात के 10 बजे तक दुकान खोलता था?’’

‘‘अब क्या बताऊं सेठजी, इन औनलाइन और सुपर स्टोर्स की वजह से धंधा चौपट हो गया. दुकान बंद कर दी है. सारा स्टौक खरीद रेट पर बेच रहा हूं. खरीद लो, आप का फायदा ही सोच रहा हूं.’’

बृजमोहन ने सस्ते में दो महीने का राशन खरीद लिया.’’

ममता राशन समेटने में लग गई, ‘‘किस ने कहा था, उस की दुकान खरीद लो. 2 महीने का राशन जमा हो गया है.

हम 2 जनें हैं, हमारे से अधिक तो चूहे खा जाएंगे. असली मौज तो उन की लगेगी,’’ ममता ने तुनक कर कहा.

‘‘हे अर्धांगिनी, आधे दाम पर सारा सामान खरीदा है, थोड़ा चूहे खा भी जाएंगे, तब भी शुद्ध लाभ ही होगा. खाने दो चूहों को, अब क्या करें, ऐसा सौदा हर रोज नहीं मिलता.’’

‘‘हम 2 जनें हैं, कितना खाएंगे? चूहों की मौज रहेगी.’’

ममता बृजमोहन की कंजूसी पर परेशान रहती थी, जब डौलर बच्चे भेजते हैं तब आराम से बुढ़ापे में ऐश से रहें. इसी कारण ममता टोकाटाकी करती थी, जिस से बृजमोहन परेशान हो जाता था.

सस्ता राशन खरीद कर बृजमोहन अपनी ताल खुद ठोंक रहा था. उधर ममता इस बात पर परेशान थी कि कामवाली बाई 2 दिनों से नहीं आ रही है. सारा राशन कौन संभालेगा. किसी नए नौकर को घर में कैसे घुसा ले? खैर, कामवाली बाई 2 दिन की छुट्टी बोल गई, एक हफ्ते बाद आई. एक सप्ताह तक ममता का भेजा एकदम फ्राई ही रहा.

बृजमोहन को इस का यह लाभ मिला कि ममता नई कार खरीदना भूल गई.

 

बच्चों से फोन पर बात कर के ममता का भेजा खुश हो गया. वे कुशलमंगल हैं. इधर अपनी कामवाली बाई का नहीं आना वह भूल सी गई.

दोनों का जीवन सरलता से बीत रहा था. दिन बीतते गए लेकिन उम्र का तकाजा था जो कभी नहीं सोचा था, वह हो गया.

एक रात नींद में बृजमोहन को बेचैनी महसूस हुई और इस से पहले वे पास लेटी ममता को हाथ लगाते या फिर आवाज दे कर पुकारते, उन की जीवनलीला समाप्त हो गई. थोड़ी नींद खुली, थोड़ी तड़पन हुई और फिर जीवनसाथी को छोड़ दूसरे लोक की सैर को निकल पड़े.

 

ममता ने यह कभी नहीं सोचा था. अभी तो वह नींद में थी. उस का जीवनसाथी अब उस का नहीं रहा, इस का इल्म उस को नहीं था. सत्तर की उम्र में रात को दोतीन बार नींद खुलती है, करवट बदल कर देखा, बृजमोहन सो रहे हैं, बस इतना पूछा ‘सो रहे हो?’ बिना कोई उत्तर सुने फिर आंखें बंद कर लेती, यही हर रात की कहानी थी.

ममता सुबह उठी, नित्यक्रिया से निबट कर चाय बनाई और बृजमोहन को आवाज दी, ‘‘उठो.’’  बृजमोहन नहीं उठे. ममता ने उन को हाथ लगाया. बृजमोहन का मुंह खुला था, कोई सांस नहीं. उस का कलेजा धक से थम गया.

‘‘बृज, क्या हुआ, बृज?’’ लेकिन बृज का शरीर अकड़ गया था. बदहवास ममता घर से बाहर आई और पड़ोस का दरवाजा खटखटाया. बदहवास ममता को देख पड़ोसी माथुर घबरा गए, ‘‘क्या हुआ भाभीजी?’’

‘‘भाईसाहब, इन को देखो, मालूम नहीं क्या हुआ है, बोल ही नहीं रहे हैं.’’

माथुर तुरंत ममता के संग हो लिए. बृज को देखते ही माथुर ने तुरंत अस्पताल फोन कर के एंबुलैंस को बुलाया. अस्पताल जाना मात्र औपचारिकता थी. तुरंत ईसीजी कर के आईसीयू में डाल दिया गया.

 

अस्पताल के वेटिंगरूम में अकेली बैठी ममता आंसुओं में डूबी सोच रही थी, ऐसा नहीं सोचा था, बृज की यह हालत होगी और मैं अकेली कुछ करने में भी असमर्थ हूं. कोई साथ नहीं है. 3 बच्चे हैं, 2 बहुएं, 1 दामाद, 6 पोते, पोतियां, नाति, नातिने इस दुख की घड़ी में कोई साथ नहीं है. अकेली किस को पुकारे. बच्चे बाहर विदेश में सैटल हैं. खुश थी कि बूढ़ाबूढ़ी पिछले 15 वर्षों से बिना रोकटोक के आनंद से जी रहे थे.

 

बृज को हार्टअटैक हुआ था और चुपचाप चल बसा. अस्पताल ने पूरा एक दिन रोक लिया और रात को उस की मृत्यु घोषित की. पड़ोसी माथुर ने अस्पताल में दो चक्कर लगा कर चायखाना ममता को दिया.

दो पड़ोसी और भी ममता से हालचाल पूछने आ गए. नहीं था तो कोई अपना. जिस आजादी को वह अपनी जीत समझती थी, वह आज पराजय थी. ममता ने बच्चों को सूचना दी. बच्चे सात समुंदर पार से सिर्फ सांत्वना ही दे सकते थे. कोई इस संकट की घड़ी में उस की मदद के लिए सात समुंदर पार से उड़ कर आ नहीं सकता था. पड़ोसी अवश्य उन के संग खड़े थे. पड़ोसियों संग रोतीबिलखती ममता घर आ गई.

ममता ने बच्चों को फोन किया. बड़े बेटे गौरव ने आने का तुरंत कार्यक्रम बनाया. किसी भी हालत में वह 2 दिनों से पहले नहीं आ सकता था.

ममता और बृजमोहन, दोनों की बहनें शहर में रहती थीं, वे ममता के पास पहुंचीं और सांत्वना दी.

रात के अंधेरे में ममता अपने बिस्तर पर लेटे रोती जा रही थी. ऐसा तो नहीं सोचा था. ऐसा समय अचानक से आ जाएगा और कोई अपना साथ नहीं होगा. बहनें भी सिर्फ दिखावे के आंसू बहा रही थीं.

ममता चिल्लाए जा रही थी, ‘‘इतना बड़ा परिवार है, बच्चे पास नहीं. भाई, बहन, कोई सगा नहीं. क्या जमाना आ गया है? मुसीबत की घड़ी में सिर्फ नाममात्र का दिखावा. हिम्मत देने वाला कोई बच्चा भी नहीं है. ऐसा तो नहीं सोचा था. आगे का जीवन कैसे कटेगा?’’

रात के सन्नाटे में ममता की आवाज बहनों के कानों में पड़ रही थी, लेकिन वे मन ही मन मुसकरा रही थीं, यहां अकेले रह कर खूब मजे लिए. हम पर रोब झाड़ती थी कि बच्चे डौलर भेज रहे हैं. डौलर के साथ रहो. कितनी बार कहा था, बच्चों के साथ अमेरिका रह लो लेकिन आजाद जीवन प्यारा था. हम क्या करें? हमारा नाता तो केवल श्मशान तक है. उस के बाद इस नखरैल के साथ कौन रहेगा? बुढ़ापे में भी पूरी आजादी चाहिए. बच्चों संग नहीं रहना. हर किसी पर रोब झाड़ना है.

 

तीसरे दिन उस का बेटा गौरव अमेरिका से आया. उस की बहू और परिवार का अन्य सदस्य नहीं आया. सीधे एयरपोर्ट से अस्पताल. मृत देह को श्मशान ले जा कर अंतिम संस्कार किया. घर पहुंच कर ममता से कहा-

‘‘चलो मां, मेरे साथ चलो. मैं टिकट ले कर आया हूं. तुम्हारा वीजा अभी एक महीने तक वैध है. वहां बढ़ जाएगा.’’

‘‘क्रिया यहां कर ले, फिर चलती हूं.’’ ममता की आंखों से गंगाजमुना बह रही थी. वह बस यही बुदबुदा रही थी, ‘ऐसा तो नहीं सोचा था. आजादी चली जाएगी. अकेली रह जाऊंगी. मालूम नहीं, अमेरिका में बच्चे कैसा व्यवहार करेंगे.’

 

 

 

 

 हिप्पोक्रेट को सबक : नासमझ शिकारी के शिकार होने की कहानी

नेहा की शादी में हैसियत से ज्यादा खर्च हुआ तो उस के पिता भारी कर्ज में डूब गए. बावजूद इस के एक दिन नेहा ने पिता की संपत्ति में बंटवारे का कानूनी नोटिस भिजवा दिया. बेटी की इस हरकत से पिता सतीश राय सन्न रह गए.

 

उस शिकार की कोई कीमत नहीं, जो आसानी से पकड़ में आ जाए. ऐसे शिकार को पकड़ कर तो शिकारी भी खुद को लज्जित महसूस करता है. गुलदारनी जब तक शिकार का जबरदस्त पीछा कर के उस के गले को अपने जबड़ों में न दबोच ले, उसे शिकार करने में मजा नहीं आता. इस के बाद जब वह उस शिकार की गरदन को अपने पैने दांतों से भींच कर और खींच कर पेड़ पर ले जाती है तो गर्व से उस का सीना कई गुना चौड़ा हो जाता है. यह शान होती है बेखौफ गुलदारनी की.

 

नेहा का एलएलबी करने का यही उद्देश्य था कि वह बेखौफ हो कर जिए. वह वकालत के माध्यम से अपने विरोधियों को कटघरे में खड़ा कर सके. वह चाहती तो ज्यादातर लड़कियों की तरह बीटीसी या बीएड का प्रोफैशनल कोर्स कर के किसी स्कूल में मास्टरनी बन सकती थी लेकिन उस की फितरत में यह नहीं था. उस के अंदर तो चालाकी कूटकूट कर भरी हुई थी. आसान जिंदगी जीना उस की फितरत में नहीं था. ऐसा लगता था जैसे चालाकी के बिना नेहा जिंदा ही नहीं रह सकती. जो काम वह बिना चालाकी के कर सकती थी, उस में भी वह चालाकी दिखाने से बाज नहीं आती थी.

 

कालेज लाइफ से नेहा ऐसी ही थी. जराजरा सी बात पर वह अपने विरोधियों की शिकायत ले कर प्रिंसिपल औफिस पहुंच जाया करती थी. घर में वह अपने छोटे भाई नीरज की एक न चलने देती थी. मम्मीपापा को तो जैसे उस ने अपनी मुट्ठी में कैद कर रखा था. अपनी जिद से वह घर में अपनी सारी मांगें मनवा लेती थी.

 

जब नेहा शादी के लायक सयानी हुई तो उस के लिए योग्य लड़का तलाश किया जाने लगा. इस में भी उस की पूरा दखल रहा. उस ने नामी वकील के नामी वकील लड़के को पसंद किया. जब दहेज की बात आई तो लड़के वालों ने बस इतना कहा, ‘‘हमें दहेज में कुछ नहीं चाहिए, बस बरातियों की दावत अच्छे से कर देना.’’

 

यह सुन कर नेहा ने अपने पापा से बिफरते हुए कहा, ‘‘पापा, मुझे लगता है कि मेरे ससुराल वाले बेवकूफ हैं. बिना दहेज के क्या मैं खाली हाथ ससुराल जाऊंगी?’’

 

‘‘नेहा, तुम्हें कौन खाली हाथ ससुराल भेज रहा है? कुदरत का दिया हमारे पास सबकुछ है. हम अपनी बेटी को वह सबकुछ देंगे जो एक बेटी को शादी के समय दिया जाता है,’’ पापा ने कहा.

 

‘‘और हां पापा, गाड़ी मुझे कम से कम 20 लाख वाली चाहिए. आखिर आप की वकील बेटी की भी तो कोई शान है. वह शान किसी भी सूरत में कम नहीं होनी चाहिए.’’

 

‘‘बिलकुल नेहा बेटा, कार के शोरूम में तुम मेरे साथ चलना, जिस गाड़ी पर तुम हाथ रख दोगी, वह गाड़ी तुम्हारी. आखिर हमारी एक ही तो बेटी है जिसे हम ने इतने नाजों से पाला है. अगर हम उस की ख्वाहिशें अब पूरी नहीं करेंगे तो कब करेंगे?’’

 

‘‘ओह, माई गुड डैड,’’ यह कहते हुए नेहा ने प्यार से अपनी बांहें अपने पापा के गले में डाल दीं.

 

नेहा के पापा सतीश राय ने नेहा की शादी में अपने वजूद से ज्यादा खर्च कर डाला. नेहा की मम्मी कहती रही, ‘‘नेहा के पापा, शादी में इतना अनापशनाप खर्च मत करो. बुढ़ापे का शरीर है कर्ज कहां से चुकाओगे?’’

 

लेकिन सतीश राय तो ऐसे लगते थे जैसे अपनी लाड़ली बिटिया की सारी ख्वाहिशें इसी अवसर पर पूरी कर डालना चाहते हों. शादी का 30 लाख का बजट 40 लाख के पार पहुंच गया. नेहा की ख्वाहिशें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थी.

 

आखिरकार नेहा की शादी का काम पूरा हुआ. वह खूब सारे दहेज और चमचमाती गाड़ी में बैठ कर शान से अपनी ससुराल पहुंच गई. नेहा के पापा सतीश राय और भाई नीरज ने राहत की सांस ली. इस शादी के बाद वे 12 लाख के कर्ज के तले दब चुके थे. उन की शहर में अच्छी प्रतिष्ठा के कारण इतना कर्ज मिल भी गया था. लेकिन कर्ज तो कर्ज होता है और उसे एक दिन चुकाना ही पड़ता है. कर्ज देने वाला जब मांगने पर उतारू होता है तो फिर वह किसी बात का लिहाज नहीं करता. सरेआम पगड़ी उछालता है.

 

 

सतीश और नीरज को लगता था कि वे 2-3 साल में व्यापार में अतिरिक्त प्रयास कर के सारा कर्ज चुका देंगे, लेकिन कर्ज ऐसी चीज होता है जो उतरने का नाम ही नहीं लेता.

 

नेहा ससुराल में ठाट के साथ रह रही थी. उस के पति नकुल और ससुर की तो अच्छी आमदनी थी ही, नेहा के ससुर ने उस का केबिन भी अपने पास ही खुलवा लिया था. नेहा के पास अपने पति और ससुर की बदौलत अच्छे केस आने लगे थे.

 

नेहा की एक ननद थी विभा, वह भी शादी के लायक हो गई थी. उस के लिए भी लड़का तलाश किया जा रहा था. लड़का मिलते ही शादी तय हो गई. विभा सुसंस्कारित लड़की थी. महत्त्वाकांक्षा उस के आसपास भी नहीं फटकती थी. नकुल अपनी बहन विभा की शादी भी ऐसे ही ठाटबाट से करना चाहता था जैसे उस की खुद की शादी हुई थी. विभा की ससुराल वालों की भी कोई डिमांड नहीं थी. विभा नेहा के बिलकुल उलट थी, उस ने अपने भाई और पिता पर किसी भी चीज के लिए कोई दबाव नहीं बनाया.

 

 

विभा जानती थी कि मांबाप अपनी बेटी की शादी में अपनी हैसियत से ज्यादा ही खर्च करते हैं. लेकिन उसे क्या पता था कि उस की भाभी नेहा उस की शादी में होने वाले हर खर्च में अड़ंगा डाल रही थी. नेहा को विभा की शादी में खर्च हो रहा एकएक पैसा खटक रहा था. उस का बस चलता तो वह विभा की शादी में एक भी पैसा खर्च न होने देती. जितना बजट था उस से कम में ही विभा की शादी हो गई. इस के लिए सब नेहा की तारीफ कर रहे थे लेकिन विभा अपनी भाभी नेहा की चालाकी ताड़ गई थी. नेहा ने आवश्यक चीजों पर भी खर्च नहीं होने दिया था. इस का परिणाम यह हुआ कि विभा को ससुराल में पहुंचते ही महिलाओं के कितने ही उलाहने सुनने को मिले. विभा चुपचाप सब झेल गई. वह जानती थी कि यह सब उस की भाभी नेहा के लालच के कारण हुआ.

 

उधर नेहा को लग रहा था कि भैयादूज और रक्षाबंधन के त्योहार कुछ फीके चल रहे हैं. उसे इस बात से कोई लेनादेना नहीं था कि कर्ज के कारण उस के भाई नीरज का हाथ तंग है. जब इस बार नीरज ने नेहा को रक्षाबंधन पर 2100 शगुन में दिए तो इतने कम पैसे देख कर वह बिफर पड़ी, ‘‘नीरज, तुझे शर्म नहीं आती, इकलौती बहन की रक्षाबंधन पर इस तरह बेइज्जती करने में. जितने का तुम ने शगुन दिया है. इस से ज्यादा का तो मैं अपनी कार में पैट्रोल डलवा कर आई हूं. इतनी संपत्ति का मालिक बन बैठा है और बहन को शगुन के नाम पर भीख सी पकड़ा देता है. यह मत भूल इस जायदाद में मेरा भी आधा हिस्सा है.’’

 

 

नेहा के मम्मीपापा ने अपनी लाड़ली बिटिया को खूब समझाया. शगुन भी तुरतफुरत में 11,000 कर दिया. लेकिन नेहा का दिमाग शांत ही नहीं हो रहा था. उस को लगता था कि नीरज ने जानबूझ कर उस का अपमान किया है और नेहा को अपमान कहां बरदाश्त?

 

नेहा कानून की जानकार तो थी ही. वह अपने भाई नीरज को अच्छा सबक सिखाना चाहती थी. उस ने संपत्ति में हिंदू बेटी के अधिकार की कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी. इस की भनक उस ने अपने ससुराल वालों को भी न लगने दी.

 

नेहा के पापा को जैसे ही नेहा की ओर से संपत्ति के बंटवारे का नोटिस मिला, उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई. उन की जबान तालू से लग गई. उन को नेहा से यह उम्मीद तो कतई नहीं थी कि वह उन के जिंदा रहते, उन की जायदाद में आधा मालिकाना हक का दावा ठोकेगी.

 

जब नेहा को किसी प्रकार बात करने के लिए राजी किया गया तो वह बोली, ‘‘पापा, मैं संपत्ति में अपना अधिकार ही तो मांग रही हूं. भारत का कानून हिंदू बेटी को प्रौपर्टी में बराबर का हक प्रदान करता है. मैं वही तो मांग रही हूं.’’

 

‘‘लेकिन नेहा, यह तो सोचो कि हम ने तुम्हारी शादी में तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी करने के लिए इतना खर्च कर दिया कि अभी भी हम कर्ज तले डूबे हैं.’’

 

‘‘तो क्या पापा, आप मुझे पालने और मेरी पढ़ाई पर होने वाले खर्च का भी एहसान दिखाओगे. यह तो हर मांबाप का कर्तव्य होता है कि वह अपनी संतान को पढ़ाए और अच्छे घर में उस की शादी करे. इस में कौन सी एहसान की बात है?’’

 

‘‘लेकिन नेहा, यह तो सोच कि आधी प्रौपर्टी तुम्हें मिलने के बाद तुम्हारे भाई नीरज के पास बचेगा ही क्या? यह तो सोच वह तेरा भाई है और हर समय तेरी मदद के लिए खड़ा रहता है.’’

 

‘‘मदद… पापा, आप? इसे मदद कहते हो. भूल गए आप कि उस ने रक्षाबंधन पर मुझे शगुन में क्या दिया था. क्या मेरी औकात अब 2100 की रह गई है? मैं पहले ही बता चुकी हूं कि इस से ज्यादा का तो मैं अपनी कार में तेल डलवा लेती हूं, मिठाई के डब्बे का खर्च अलग. और अगर नीरज रिश्ते नहीं निभा सकता तो न निभाए, मुझे कौन से रिश्ते निभाने और बेइज्जती करवाने की पड़ी है. अगर वह अपनी बहन का सम्मान नहीं कर सकता तो भुगते. आप क्यों परेशान होते हैं, आप के लिए तो ऐसा ही नीरज और ऐसी ही मैं. वैसे भी आप के पैर अब कब्र में लटक रहे हैं, मेरा हिस्सा मुझे दे कर चिंतामुक्त हो जाइए.’’

 

नेहा का अंतिम वाक्य सतीश राय को कांटे की तरह चुभा. कोई भी संतान अपने बाप को इतनी कड़वी बात कैसे कह सकती है? नेहा से आगे बात करना अपनेआप को और जलील करवाना ही था. उन्होंने फोन काट दिया. उम्र का तकाजा कह रहा था कि कोई ठोस निर्णय करना ही पड़ेगा. वकील कानून की भाषा में होशियार हो सकता है, अनुभव में नहीं.

 

नेहा ने एक वकील कर लिया जिस ने पहले तो आधा हिस्सा दिलवाने में चूंचूं की पर जब नेहा अड़ गई तो नोटिस भेज दिया गया. 10-12 तारीखों और गवाहियों  के बाद औरग्यूमैंट हुए तो नेहा की तरफ से वकील ने आधी प्रौपर्टी की मांग की तो दूसरे वकील ने कहा कि उन के मुवक्किल यह एक फैमिली सैटलमैंट में करने को तैयार है

 

जज साहब समझदार थे. उन्होंने मान लिया और 2 माह बाद फैसले के लिए बुलाया.

 

 

अदालत जब अपना निर्णय नेहा के पक्ष में सुना रही थी तभी सतीश राय ने अदालत से निवेदन किया, ‘‘जज साहब, फैमिली सैटलमैंट के अनुसार नेहा को मेरी प्रौपर्टी का आधा हिस्सा मिल गया है. मेरा अदालत से निवेदन है कि मेरी और मेरी पत्नी के बुढ़ापे को देखते हुए साल में 6 महीने मेरी बेटी नेहा हमारी देखभाल करे. यह संतान का अपने बुजुर्ग मातापिता के प्रति कर्तव्य है. इसलिए मैं ने अपने पास कुछ नहीं रखा है.’’

 

जज साहब ने कहा, ‘‘अदालत यह फैसला लेती है कि बुजुर्ग मातापिता की सेवा करने का अधिकार जितना बेटे का है उतना ही बेटी का भी. नेहा को आधी प्रौपर्टी मिल चुकी है तो आज से ठीक 6 महीने बाद नेहा 6 महीने तक अपने बुजुर्ग मातापिता की सेवा करेगी और इस में किसी प्रकार की कोई कोताही न बरती जाए. यह बात सैटलमैंट में जोड़ दी जाए.’’

 

 

जज साहब ने बातोंबातों में स्पष्ट कर दिया कि नेहा अगर यह नहीं मानती तो वे मामले को महीनों के लिए टाल देंगे. फैमिली सैटलमैंट में यह लिखवा लिया गया.

 

भाई के वकील ने जज साहब से यह भी कह दिया था कि पुश्तैनी संपत्ति होने पर भी नेहा केवल एकतिहाई की हिस्सेदार है क्योंकि अभी पिता जिंदा हैं. जज ने उसी बूते पर फैमिली सैटलमैंट कराया ताकि पिता के मरने के बाद फिर मुकदमेबाजी न हो.

 

नेहा ने कभी अपने सासससुर की सेवा तो की नहीं थी, मांबाप की सेवा करना तो उस की कल्पना में भी नहीं था. वह तो बस अपने पापा की आधी प्रौपर्टी की मालकिन बन अपना रुतबा बढ़ाना चाहती थी.

 

नदी के उफनते पानी को देख कर जितना डर लगता है उतना नदी में कूदने से नहीं. नेहा को हरदम यही डर सताने लगा कि घर में पहले से ही 2 बुजुर्ग हैं जिन की देखभाल ठीक से नहीं हो पाती, 2 और बुजुर्गों के आने से घर का क्या हाल होगा. किसी बुजुर्ग की सेवा करना किसी बच्चे को पालने से कम नहीं होता. उन को समय पर दवाई देना, उन के लिए नाश्तापानी तैयार करना, बीमार होने पर उन को टौयलेट तक ले जाना, उन को नहलाना, कपड़े बदलना वगैरा.

 

 

4 बुजुर्गों की सेवा की बात सोच कर ही नेहा सिहर उठती. मानसिक तनाव सिरदर्द और बेचैनी पैदा करता. छोटीछोटी बातों को ले कर वह हर किसी से झगड़ने लगती. अपने पति नकुल से तो उस की खटपट इतनी बढ़ गई कि वह अलग कमरे में जा कर सोने लगी. नकुल उस को जितना समझता, वह उतनी ही चिड़चिड़ी, परेशान और उग्र हो उठती.

 

नकुल ने नेहा को समझाते हुए कहा, ‘‘नेहा, तुम्हारी यह बड़ी गलती है कि तुम ने हम से बिना सलाहमशविरा किए अपने पिता की प्रौपर्टी में आधा हिस्सा मांग लिया. तुम ने यह नहीं सोचा कि तुम्हारी ससुराल की प्रौपर्टी में तो तुम्हारा 100 प्रतिशत हिस्सा है ही. नेहा यह सबकुछ तुम्हारा ही तो है. लेकिन अगर तुम्हारी तरह मेरी बहन और तुम्हारी ननद विभा भी ऐसे ही हमारी प्रौपर्टी पर आधे का दावा ठोंक दे तब क्या होगा? हम तो कहीं के भी नहीं रहेंगे.’’

 

लेकिन नेहा खुद को इतनी बड़ी चतुर सुजान समझती थी कि जैसे सारा कानून उस ने खरीद कर अपनी जेब में रख लिया हो.

 

जब विभा को यह पूरी खबर मिली कि कैसे उस की भाभी नेहा ने अपने बुजुर्ग मातापिता की आधी प्रौपर्टी अधिकार के नाम पर हथिया ली है तो उसे वे सब बातें भी याद आने लगीं कि नेहा भाभी ने किस तरह से उस की शादी में होने वाले खर्च में कटौती करवाई थी और इसी कारण उसे ससुराल में महिलाओं के कैसे ताने सुनने पड़े थे जबकि नेहा भाभी ने अपनी शादी में अपनी ख्वाहिशें पूरी करने के लिए अपने पापा और भाई को कर्जे में डुबो दिया था जिस से वे अभी तक उबर भी नहीं पाए थे कि उन की अधिकार के नाम पर आधी संपत्ति हड़प ली.

 

जब विभा ने अपने पति आकाश से इस संबंध में बात की तो आकाश ने बड़ी सम?ादारी दिखाते हुए कहा, ‘‘विभा, रिश्तों में थोड़ाबहुत ऊंचनीच चलता रहता है. नेहा ने जो कुछ किया वह उन की व्यक्तिगत सोच का मामला है.

 

 

हम ने तो तुम्हारे परिवार वालों से कभी कुछ नहीं मांगा और न ही हमें कोई शिकायत है. हम तो अपने दम पर कमाने और आगे बढ़ने में विश्वास करते हैं. किसी के देने से आज तक किसी का पेट भरा है क्या? हम चैन से जीते हैं और सुख की नींद सोते हैं. हम ने तो यह सुना है कि नेहा को नींद की गोलियों का सहारा लेना पड़ रहा है.’’

 

‘‘लेकिन आकाश, यह तो नेहा की पूरी हिप्पोक्रेसी है कि वह खुद तो कानून और अधिकार के नाम पर सबकुछ छीन लेना चाहती है और दूसरों को कुछ देना ही नहीं चाहती. ससुराल की सारी प्रौपर्टी उस की और मायके से भी आधी प्रौपर्टी ले ली. क्या नेहा जैसी हिप्पोक्रेट को सबक नहीं सिखाया जाना चाहिए?’’

 

‘‘मैं समझ नहीं तुम नेहा को क्या सबक सिखाना चाहती हो?’’ आकाश ने पूछा.

 

‘‘देखो आकाश, मुझे अपने मायके की प्रौपर्टी का रत्तीभर भी लालच नहीं. लेकिन नेहा भाभी ने जिस तरह से अपने बुजुर्ग मातापिता और युवा भाई को परेशान कर के रखा हुआ है वह मुझ से देखा नहीं जाता.’’

 

‘‘मतलब, तुम यह चाहती हो कि तुम भी आधी प्रौपर्टी पाने के लिए अपने पापा को नोटिस भेजो.’’

 

‘‘बिलकुल आकाश, तुम ने सही सोचा. ऐसा करने पर ही नेहा भाभी की अक्ल ठिकाने आएगी.’’

 

‘‘लेकिन ऐसा करने पर तो तुम्हारा सम्मान अपने मातापिता और भाई की नजरों में खत्म हो जाएगा.’’

 

‘‘आकाश, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. जिस प्रौपर्टी पर मैं मात्र दावा ठोंकने जा रही हूं, वह उस प्रौपर्टी से बहुत ज्यादा है जो नेहा भाभी ने अपने मांबाप से हथियाई है. निश्चित मानो आकाश, लालची नेहा भाभी कोर्ट का नोटिसभर देख कर बौखला जाएगी. मेरा इरादा प्रौपर्टी लेने का कतई नहीं है, बस एक घमंडी हिप्पोक्रेट को सबक सिखाना है. उस ने अपने लालच और घमंड के कारण कितने लोगों को बेवजह परेशानी में डाल दिया है. अब तो कर्ज में डूबे बेचारे नीरज की शादी होनी भी मुश्किल हो रही है.’’

 

 

आखिर आकाश विभा का साथ देने के लिए इसलिए तैयार हो गया कि उस के मन में कोई कपट नहीं था.

 

जैसे ही विभा का नोटिस उस के मम्मीपापा को मिला सारे घर में कुहराम मच गया. कोई विभा पर यह आरोप भी नहीं लगा सकता था कि उस ने यह नोटिस क्यों भिजवाया. जब नेहा ने ऐसा किया था तो किसी ने उस का कोई मुखर विरोध नहीं किया था. अब उन्हें अपनी करनी को भरना था.

 

उधर 6 महीने पूरे होने को थे और नेहा के मम्मीपापा बोरियाबिस्तर बांध कर उस के घर आने को तैयार बैठे थे. नेहा को अब कुछ समझ में नहीं आ रहा था. ऐसा लगता था जैसे उस की सोचनेसमझने की शक्ति जवाब देने लगी हो.

 

मुसीबतों पर मुसीबत. नकुल उसे मनोचिकित्सक के पास ले कर गए. मनोचिकित्सक ने साफसाफ बता दिया, ‘‘नकुल, नेहा इस से ज्यादा तनाव

 

नहीं ? झेल सकती है. दवाएं एक हद तक ही काम करती हैं. नेहा का मानसिक तनाव कम करने के लिए जल्दी कुछ करो.’’

 

 

नकुल को सारी बातें समझ में आ रही थीं. उन्होंने ही समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए पहल की. वह खुद एक अच्छे वकील थे. वह जानते थे कि कई समस्याओं का हल कोर्टकचहरी के चक्कर काटने के बजाय आपस में मिलबैठ कर निकाला जा सकता है.

 

उन्होंने अपने सासससुर और साले के साथ बैठ कर बातें कीं. नेहा को उन की प्रौपर्टी वापस करने के लिए राजी किया. नीरज की उस का कर्ज उतारने में मदद की.

 

इस के बाद अपनी बहन विभा और बहनोई आकाश से बात की. विभा ने बात शुरू होने से पहले ही अपने भाई नकुल की खुशियां दोगुनी करते हुए कहा, ‘‘भैया नकुल, मैं ने प्रौपर्टी पर दावे का नोटिस वापस ले लिया है, यह देखो.’’

 

नकुल की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए थे. उन्होंने रोंआसे होते हुए कहा, ‘‘फिर पगली तुम ने ऐसा किया ही क्यों था?’’

 

‘‘भैया, अगर मैं ऐसा नहीं करती तो यह सारी समस्याएं कैसे खत्म होतीं. नेहा भाभी का घमंड, लालच और हिप्पोक्रेसी कैसे खत्म होती. कानून तो भैया हमारी रक्षा के लिए है, हमें सब बातों को ध्यान में रख कर कानूनों का सदुपयोग करना चाहिए.’’

 

नेहा को भी यह बात अच्छे से समझ में आ गई थी कि उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. ऐसे ही सब एकदूसरे से प्रौपर्टी मांगने लगें तो हर घर में महाभारत और मुकदमेबाजी हो. हिंदू बेटियों को ससुराल में प्रौपर्टी का अधिकार खुद ही मिल जाता है. मायके में कोई वारिस न हो तो बेटी ही प्रौपर्टी की वारिस होती है. फिर यह उछाड़पछाड़ क्यों?

 

गुलदारनी जिस भारीभरकम शिकार को ले कर बड़े घमंड के साथ पेड़ पर चढ़ी थी वह इतनी जोर से गिरा कि गुलदारनी उसे बचाने के चक्कर में जख्मी हो गई. उसे समझ में आ गया था कि बहुत भारी शिकार जानलेवा भी साबित हो जाते हैं.

अंधविश्वास : यह है हमारा शिल्पशास्त्र (भाग-3)

पिछले 3 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया, उसे पढि़ए-

 

तिथियों के तुक्के

 

जब शिल्पशास्त्र के नियमों के अनुसार तिथि और वार चुन कर घर बनाना शुरू किया जाता है तो यह सवाल उठता है कि क्या वाकई इन में कोई सचाई है या यह मात्र अंधविश्वास है?

हमारा वास्तुशास्त्र/शिल्पशास्त्र इतनी गहराई तक गया है कि हंसी भी आती है और रोना भी. महीनों की कथा सुन कर अब वह तिथियों पर उतर आया है. देशी महीने के प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियां होती हैं. उन में से दूसरी, तीसरी, 7वीं, 8वीं, और 13वीं केवल ये 5 तिथियां शुभ हैं. सो घर बनाने का काम इन्हीं तिथियों में करें (शिल्पशास्त्रम् 1/28). इन के लिए जंतरी वाले की शरण में जाएं और उसे दानदक्षिणा दें, क्योंकि दैनिक व्यवहार में तो कोई इन तिथियों को पूछता नहीं.

बाकी तिथियों में क्या होता है? शिल्पशास्त्र का कथन है :

गृह कृत्वा प्रतियदि दु:खं प्रान्पोति नित्यश:,

अर्थक्षयं तथा षष्ठयां पंचम्यां चित्रचांचल्य:.

चौरभीति दशम्यां तु चैकादश्यां नृपात्मयम,

पत्नीनाशस्तु पौर्णमास्यां स्नाननाश: कुहौ तथा

रिक्तायां सर्वकार्यानि नाशमायान्ति सर्वदा.

-शिल्पशास्त्रम् 1/26-28

पहली तिथि को यदि घर बनाना शुरू किया जाए तो नित्य दुख होता है. छठवीं को किया जाए तो धन का नाश, 5वीं को किया जाए तो चित्त अस्थिर. (ध्यान रहे, शिल्पशास्त्र ने जो ‘चित्रचांचल्यर्’ लिखा है वह गलत है. सही शब्द है- ‘चित्तचांचल्यम्’), 10वीं को किया जाए तो चोरी होती है, 11वीं को किया जाए तो राजभय होता है, पूर्णिमा को किया जाए तो पत्नी का विनाश, अमावस्या को किया जाए तो वह स्थान ही हाथ से छिन जाता है जहां घर बनाना हो, चौथी, नौवीं व तेरहवीं को किया जाए तो सब कार्य बिगड़ जाते हैं.

दुनियाभर में लोग अपनी सुविधा के अनुसार घर बनाना शुरू करते हैं. वे हिंदू जंतरी से न तिथियां जानने की कोशिश करते हैं, न महीने, फिर भी दुनिया भली प्रकार से चल रही है.

अपने यहां दहेज कम लाने वाली बहुओं, जो उन घरों के लड़कों की पत्नियां होती हैं, को जला कर मारा जाता है. अपने यहां जो इस तरह का पत्नीनाश होता है, क्या वह इसीलिए होता है कि शिल्पशास्त्र के नियमों का उल्लंघन कर के उस घर को पूर्णिमा तिथि को या आश्विन मास में बनाना आरंभ किया गया होता है?

फिर तो ऐसे अपराधियों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु तो पूर्णिमा तिथि या आश्विन मास के कारण होती है. असली दोषी तो वे दोनों हैं. ‘बेचारा’ हत्यारा तो वास्तुशास्त्र के क्रोध का ऐसे ही शिकार हो गया है.

अपना शिल्पशास्त्र औंधी खोपड़ी का प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्णिमा को अथवा आश्विन में घर बनाना शुरू कोई करता है, परंतु उस के दंडस्वरूप मरता कोई और है. मरने वाली पत्नी ने तो कुछ भी नहीं किया होता. कई मामलों में तो भावी ससुर जब घर बना रहा होता है, तब भावी बहू अभी ? जन्मी भी नहीं होती.

 

वारों के वार

 

शिल्पशास्त्र महीनों, तिथियों के बाद वारों की बात करता है. उसे एक मनोरोगी की तरह सर्वत्र कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है- ऐसा कुछ जो वहां वास्तव में है नहीं.

शिल्पशास्त्र कहता है, यदि रविवार को घर बनाना शुरू किया जाए तो उस घर को आग लग जाती है, यदि सोमवार को शुरू किया जाए तो धन का नाश होता है और यदि मंगलवार को शुरू किया जाए तो उस घर पर बिजली गिरती है :

वह्नेर्भय भवति भानुदिनेडर्थनाश:,

सौरे दिने ज्ञितिसुतस्य च वज्रपात:

-शिल्पशास्त्रम्, 1/29

आमतौर पर लोग रविवार से ही घर बनाना शुरू करते हैं, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि उस दिन शुरू किए घर को आग लगती है. क्या जिन घरों में आग लगती है, वे इसलिए जलते हैं कि उन्हें बनाना रविवार को शुरू किया गया था, या कि शौर्टसर्किट होने या दूसरी किसी असावधानी के कारण ऐसा होता है? क्या ऐसा संभव है कि घर रविवार को न बना हो और उधर शौर्टसर्किट के कारण या वहां रखे पटाखों के अंबार के कारण आग लग जाए और घर केवल इसलिए न जले कि उसे बनाना रविवार को शुरू नहीं किया गया था?

ऐसे ही मंगलवार को घर को बनाना शुरू करने तथा उस पर बिजली गिरने में आपस में क्या संबंध है? मंगल का अर्थ तो खुशी होता है. क्या मंगलवार की खुशी का अर्थ बिजली का गिरना है? बाकी जिन दिनों को शुभ करार दिया गया है, उन में क्या दैवीय शक्ति है कि वे कुछ भी अप्रिय होने से रोक लेंगे? दुनिया में क्या कोई भी दिन ऐसा जाता है जिस दिन कहीं न कहीं दुर्घटना, बीमारी, हत्या, अप्रिय घटना आदि घटित न होती हो?  अगले अंक में जारी…

 

शीशे की दिशा में वास्तुशास्त्रियों की गपोड़बाजी

 

शीशा, जोकि शोभा बढ़ाने और खुद को देखने का साधन भर है, को ले कर कई तरह की कुतर्की बातें वास्तुशास्त्रियों ने फैला रखी हैं. वास्तुशास्त्री कहते हैं कि घर में मौजूद हर वस्तु में ऊर्जा होती है, कुछ में पौजिटिव तो कुछ में नैगेटिव. इसे वे हर निर्जीव वस्तु की तरह शीशे पर भी लागू करते हैं. सवाल यह कि क्या यह ऊर्जा इलैक्ट्रौंस और प्रोटोंस से अधिक कुछ है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का स्थान और दिशा का आपस में कोई संबंध नहीं है. ऊर्जा भौतिक नियमों पर आधारित है, न कि किसी अज्ञात शक्ति या मान्यता पर.

वास्तुशास्त्री के अनुसार बताया जाता है कि घर में शीशा लगाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा को चुनना चाहिए, ऐसा करने से घर में धन का प्रवाह बढ़ता है और शांति का वास होता है. चलिए मान लेते हैं कि शीशे को उत्तर दिशा में लगाने से कुबेर देवता प्रसन्न हो जाते हैं और पैसा बरसने लगता है पर सोचिए यदि ऐसा होता तो हम सभी के घरों में सिर्फ एक शीशा ही काफी न होता? हमें मेहनत करने, नौकरी ढूंढ़ने या व्यवसाय चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? हाल ही में संसद में वित्त बजट पेश किया गया है, उस की जगह निर्मला सीतारमण शीशा ही पेश कर देतीं और देशभर के लोगों से कह देतीं कि सभी लोग अपने घरों में वास्तु अनुरूप शीशा लगाएं, ताकि धनवृद्धि हो और देश की अर्थव्यवस्था बढ़े.

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का प्रवाह किसी एक दिशा में नहीं होता, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि तापमान, वायु का प्रवाह और अन्य भौतिक तत्त्व. ऊपर से शीशे पर ऊर्जा, यह थोड़ा हास्यास्पद है. एक समझदार इंसान होता तो यह सुझाव देता कि शीशा उस जगह लगाया जाना चाहिए जहां से दर्पण साफ दिखाई दे. मान लें घर में बल्ब यदि शीशे के ठीक सामने है तो उस दिशा में रोशनी का रिफ्लैक्शन शीशे पर पड़ेगा और चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा. यानी, चेहरा देखने के लिए यदि शीशा लगाया जा रहा है तो घर में रोशनी किस दिशा से आ रही है, उस अनुसार लगाया जाना चाहिए, न कि वास्तुशास्त्रियों के अनुसार. वास्तुशास्त्री बताता है कि घर में गलत जगह लगाया गया शीशा आप के भाग्य को खराब कर सकता है. क्या इस में ऐसा है? पहली बात यह कि यह कोई क्यों नहीं बताता कि भाग्य तय कैसे होता है? कौन तय कर रहा है? और कर रहा है तो क्यों कर रहा है? बस, खालीपीली उपदेश दे दिए गए हैं.

अगर सुबह उठते ही शीशे में अपनी शक्ल देखने से दिन खराब हो सकता है तो शायद अपनी शक्ल पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है, न कि शीशे की दिशा पर. बल्कि अच्छी बात तो यह होती कि सुबह उठ कर सब से पहले शीशे में अपनी शक्ल देखी जाए. भारतीय महिलाएं अपने चेहरे पर बिंदी, लिपस्टिक, सिंदूर न जाने क्याक्या लगाती हैं. वास्तव में, सुबह उठ कर शीशे में अपनी शक्ल देखने से यह तो समझ आएगा कि बिंदी कहीं नाक में न चली गई हो, सिंदूर कहीं माथे पर न आ गया हो या बाल कहीं बिखरे न हों. पता चले बाहर आए, तो बच्चेबूढ़े सब शक्ल देखते ही हंसने लगे.

वे डराते हैं कि शीशा कभी भी पश्चिम या दक्षिण की दीवार पर नहीं लगाना चाहिए. इस दिशा में शीशा लगाने से घर में अशांति बनी रहती है. क्या शीशे से शांति तय होती है? अशांति या शांति तो घर के वातावरण, लोगों के व्यवहार और जीवनशैली पर निर्भर करती है. कोई पति अगर मारपीट करने वाला हो या पत्नी ?ागड़ालू हो तो शीशा इस में क्या कर लेगा? सास की अगर बहू से नहीं बन रही तो इस में शीशे का क्या दोष? क्या शीशा फैमिली कोर्ट का भी काम करने लगा है जो रिश्ते सुल?ा रहा हो? और अगर ऐसा है तो फैमिली कोर्ट खुला ही क्यों है?

वास्तुशास्त्री यह भी बताते हैं कि शीशा लगाते समय या खरीदते समय शीशा साफ हो और टूटा न हो. अब यह अजीब बात है. क्या कोई ऐसा है जो कहेगा कि शीशा टूटा और गंदा खरीदो? कैसी बचकानी बातें हैं? यह तो ऐसी बात हुई कि खाना ताजा खाना चाहिए, अपनी सेहत पर ध्यान देना चाहिए, गंदी लतों से दूर रहना चाहिए. भई, शीशा साफसुथरा ही खरीदा जाता है, इस में ऐसा ज्ञानवर्धक चूर्ण जैसा क्या है?

थोड़ा भारतीय इतिहास में जाएं तो पता चलेगा शीशा हमारे यहां का है ही नहीं, न ही हम ने इस का आविष्कार किया. जब इस तरह का शास्त्र लिखा गया था तब कहीं ग्लास या मिरर का जिक्र ही नहीं था, आज उस को ले कर ये वास्तुशास्त्री शास्त्रीय निर्देश दे रहे हैं. तब कांसे की तश्तरी को चमका कर शीशा बनाया जाता था और इस के दिशाओं को ले कर भी कोई बात नहीं थी. दरअसल, शीशे का आविष्कार ही 1835 में हुआ था, वह भी जरमन रसायन वैज्ञानिक जस्टस वान लिबिग द्वारा, जिस ने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगा कर इस को बनाया था. यह तो सीधासीधा विज्ञान से जुड़ी बात है. शीशा तो भारत में बहुत देर में आम लोगों तक पहुंच पाया. इस में वास्तुशास्त्र का क्या काम?

 

(अगले अंक में जारी…)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सोनिया : आखिर किस वजह से करनी पड़ी आत्महत्या

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

ठोकर : इश्क में अंधी लाली क्या संभल पाई

सतपाल गहरी नींद में सोया हुआ था. उस की पत्नी उर्मिला ने उसे जगाने की कोशिश की. वह इतनी ऊंची आवाज में बोली थी कि साथ में सोया उस का 5 साला बेटा जंबू भी जाग गया था. वह डरी निगाहों से मां को देखने लगा था.

‘‘क्या हो गया? रात को तो चैन से सोने दिया करो. क्यों जगाया मुझे?’’ सतपाल उखड़ी आवाज में उर्मिला पर बरस पड़ा.

‘‘बाहर गेट पर कोई खड़ा है. जोरजोर से डोर बैल बजा रहा है. पता नहीं, इतनी रात को कौन आ गया है? मुझे तो डर लग रहा है,’’ उर्मिला ने घबराई आवाज में बताया.

‘‘अरे, इस में डरने की क्या बात है? गेट खोल कर देख लो. तुम सतपाल की घरवाली हो. हमारे नाम से तो बड़ेबड़े भूतप्रेत भाग जाते हैं.’’

‘‘तुम ही जा कर देखो. मुझे तो डर लग रहा है. पता नहीं, कोई चोरडाकू न आ गया हो. तुम भी हाथ में तलवार ले कर जाना,’’ उर्मिला ने सहमी आवाज में सलाह दी.

सतपाल ने चारपाई छोड़ दी. उस ने एक डंडा उठाया. गेट के करीब पहुंच कर उस ने गेट के ऊपर से झांक कर देखा, तो कांप उठा. बाहर उस की छोटी बहन खड़ी सिसक रही थी.

सतपाल ने हैरानी भरे लहजे में पूछा, ‘‘अरे लाली, तू? घर में तो सब ठीक है न?’’

लाली कुछ नहीं बोल पाई. बस, गहरीगहरी हिचकियां ले कर रोने लगी. सतपाल ने देखा कि लाली के चेहरे पर मारपीट के निशान थे. सिर के बाल बिखरे हुए थे. सतपाल लाली को बैडरूम में ले आया. वह बारबार लाली से पूछने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्या हुआ कि उसे आधी रात को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा?

उर्मिला ने बुरा सा मुंह बनाया और पैर पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई. उसे लाली के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थी. लाली की शादी आज से 10 साल पहले इसी शहर में हुई थी. तब उस के मम्मीपापा जिंदा थे. लाली का पति दुकानदार था. काम अच्छा चल रहा था. घर में लाली की सास थी, 2 ननदें भी थीं. उन की शादी हो चुकी थी.

लाली के पति अजय ने उसे पहली रात को साफसाफ शब्दों में समझा दिया था कि उस की मां बीमार रहती हैं. उन के प्रति बरती गई लापरवाही को वह सहन नहीं करेगा.

लाली ने पति के सामने तो हामी भर दी थी, मगर अमल में नहीं लाई. कुछ दिनों बाद अजय ने सतपाल के सामने शिकायत की. जब सतपाल ने लाली से बात की, तो वह बुरी तरह भड़क उठी. उस ने तो अजय की शिकायत को पूरी तरह नकार दिया. उलटे अजय पर ही नामर्दी का आरोप लगा दिया.

अजय ने अपने ऊपर नामर्द होने का आरोप सुना, तो वह सतपाल के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. अपनी डाक्टरी जांच करा कर रिपोर्ट उस के सामने रखी, तो सतपाल को लाली पर बेहद गुस्सा आया. उस ने डांटडपट कर लाली को ससुराल भेज दिया.

लाली ससुराल तो आ गई, मगर उस ने पति और सास की अनदेखी जारी रखी. उस ने अपनी जिम्मेदारियों को महसूस नहीं किया. अपने दोस्तों के साथ मोबाइल पर बातें करना जारी रखा.

आखिरकार जब अजय को दुकान बंद कर के अपनी मां की देखभाल के लिए घर पर रहने को मजबूर होना पड़ा, तब उस ने अपनी आंखों से देखा कि लाली कितनी देर तक मोबाइल फोन पर न जाने किसकिस से बातें करती थी.

एक दिन अजय ने लाली से पूछ ही लिया कि वह इतनी देर से किस से बातें कर रही थी?

पहले तो लाली कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई, पर जब अजय गुस्से से भर उठा, तो लाली ने अपने भाई सतपाल का नाम ले लिया. उस समय तो अजय खामोश हो गया, क्योंकि उसे मां को अस्पताल ले जाना था. जब वह टैक्सी से अस्पताल की तरफ जा रहा था, तब उस ने सतपाल से पूछा, तो उस ने इनकार कर दिया कि उस के पास लाली का कोई फोन नहीं आया था.

अजय 2 घंटे बाद वापस घर में आया, तो लाली को मोबाइल फोन पर खिलखिला कर बातें करते देख बुरी तरह सुलग उठा था. उस ने तेजी से लपक कर लाली के हाथ से मोबाइल छीन कर 4-5 घूंसे जमा दिए.

लाली चीखतीचिल्लाती पासपड़ोस की औरतों को अपनी मदद के लिए बुलाने को घर से बाहर निकल आई.अजय ने उसी नंबर पर फोन मिलाया, जिस पर लाली बात कर रही थी. दूसरी तरफ से किसी अनजान मर्द की आवाज उभरी.

अजय की आवाज सुनते ही दूसरी तरफ से कनैक्शन कट गया. अजय ने दोबारा नंबर मिला कर पूछने की कोशिश की, तो दूसरी तरफ से मोबाइल स्विच औफ हो गया.

अजय ने लाली से पूछा, तो उस ने भी सही जवाब नहीं दिया. अजय का गुस्से से भरा चेहरा भयानक होने लगा. उस के जबड़े भिंचने लगे. वह ऐसी आशिकमिजाजी कतई  सहन नहीं करेगा. लाली घबरा उठी. उसे लगा कि अगर वह अजय के सामने रही और किसी दोस्त का फोन आ गया, तो यकीनन उस की खैरियत नहीं. उस ने उसी समय जरूरी सामान से अपना बैग भरा और अपने मायके आ गई.

लाली ने घर आ कर अजय और उस की मां पर तरहतरह के आरोप लगा कर ससुराल जाने से मना कर दिया. कई महीनों तक वह अपने मायके में ही रही. अजय भी उसे लेने नहीं आया. इसी तनातनी में एक साल गुजर गया.

आखिरकार अजय ही लाली को लेने आया. उस ने शर्त रखी कि लाली को मन लगा कर घर का काम करना होगा. वह पराए मर्दों से मोबाइल फोन पर बेवजह बातें नहीं करेगी. सतपाल ने बहुत समझाया, मगर लाली नहीं मानी.

लाली का तलाक हो गया. सतपाल ने उस के लिए 2 लड़के देखे, मगर वे उसे पसंद नहीं आए. दरअसल, लाली ने शराब का एक  ठेकेदार पसंद कर रखा था. उस का शहर की 4-5 दुकानों में हिस्सा था. वह शहर का बदनाम अपराधी था, मगर लाली को पसंद था. काफी अरसे से लाली का उस ठेकेदार जोरावर से इश्क चल रहा था.

जोरावर सतपाल को भी पसंद नहीं था, मगर इश्क में अंधी लाली की जिद के सामने वह मजबूर था. उस की शादी जोरावर से करा दी गई.

जोरावर शराब के कारोबार में केवल 10 पैसे का हिस्सेदार था, बाकी 90 पैसे दूसरे हिस्सेदारों के थे. उस की कमाई लाखों में नहीं हजारों रुपए में थी. वह जुआ खेलने और शराब पीने का शौकीन था. वह लाली को खुला खर्चा नहीं दे पाता था.

अब तो लाली को पेट भरने के भी लाले पड़ गए. उस ने जोरावर से अपने खर्च की मांग रखी, तो उस ने जिस्म बेच कर पैसा कमाने का रास्ता दिखाया. लाली ने मना किया, तो जोरावर ने घर में ही शराब बेचने का रास्ता सुझा दिया.

अब लाली करती भी क्या. अपना मायका भी उस ने गंवा लिया था. जाती भी कहां? उस ने शराब बेचने का धंधा शुरू कर दिया. उस का जवान गदराया बदन देख कर मनचले शराब खरीदने लाली के पास आने लगे. उस का कारोबार अच्छा चल निकला.

जोरावर को लगा कि लाली खूब माल कमा रही है, तो उस ने अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया. लाली ने पैसा देने से इनकार कर दिया. उस रात दोनों में झगड़ा हुआ. लाली जमा किए तमाम रुपए एक पुराने बैग में भर कर घर से भाग निकली.

जोरावर ने देख लिया था. वह भी पीछेपीछे तलवार हाथ में लिए भागा. वह किसी भी सूरत में लाली से रुपए लेना चाहता था. जोरावर नशे में था. उस के हाथों में तलवार चमक रही थी. वह उस की हत्या कर के भी सारा रुपया हासिल करना चाहता था.

लाली बदहवास सी भागती हुई सड़क पर आ गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा, तो जोरावर तलवार लिए उस की तरफ भाग रहा था. उस ने बचतेबचाते सड़क पार कर ली.

लेकिन जब जोरावर सड़क पार करने लगा, तो वह किसी बड़ी गाड़ी की चपेट में आ गया और मारा गया. रात के 3 बज रहे थे. किसी ने भी जोरावर की लाश की तरफ ध्यान तक नहीं दिया.

सतपाल के यहां आ कर लाली ने रोतेसिसकते अपनी दुखभरी दास्तान सुनाई, तो सतपाल की भी आंखें भर आईं. मगर उसी पल उस ने अपनी बहन की गलतियां गिनाईं, जिन की वजह से उस की यह हालत हुई थी.

‘‘हां भैया, अजय का कोई कुसूर नहीं है. मैं ने ही अपनी गलतियों की सजा पाई है. अजय ने तो हर बार मुझे समझाने, सही रास्ते पर लाने की कोशिश की थी, इसलिए अब भी मैं अजय के पास ही जाना चाहती हूं,’’ लाली ने इच्छा जाहिर की. ‘‘अब तुझे वह किसी भी हालत में नहीं अपनाएगा. उस ने तो दूसरी शादी भी कर ली होगी,’’ सतपाल ने अंदाजा लगाया.

‘‘बेशक, उस ने शादी कर ली हो. उस के घर में नौकरानी बन कर रह लूंगी. मुझे अजय के घर जाना है, वरना मैं खुदकुशी कर लूंगी,’’ लाली ने अपना फैसला सुना दिया.

सतपाल बोला, ‘‘ठीक है लाली, पहले तू 4-5 दिन यहीं आराम कर.’’ एक हफ्ते बाद सतपाल ने लाली को मोटरसाइकिल पर बैठाया और दोनों अजय के घर की तरफ चल दिए.

अजय घर पर अकेला ही सुबह का नाश्ता तैयार कर रहा था. सुबहसवेरे लाली को अपने भाई सतपाल के साथ आया देख वह बुरी तरह भड़क उठा.

दोनों को धक्के मार कर घर से बाहर निकालते हुए अजय ने कहा, ‘‘अब तुम लोग मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने आए हो. चले जाओ यहां से. अब तो मेरी मां भी मर चुकी है. मेरी पत्नी तो बहुत पहले मर चुकी थी. अब मेरा कोई नहीं है.’’

सतपाल ने लाली को घर चलने को कहा, तो वह वहीं पर रहने के लिए अड़ गई. सतपाल अकेला ही घर चला गया. लाली सारा दिन भूखीप्यासी वहीं पर खड़ी रही. रात को अजय वापस आया. लाली को खड़ा देख वह बेरुखी से बोला, ‘‘अब यहां खड़े रहने का कोई फायदा नहीं है.’’

‘‘अजय, मैं ने तो अपनी गलतियों को पहचाना है और मैं तुम्हारी सेवा करने का मौका एक और चाहती हूं.’’ मगर अजय ने उस की तरफ ध्यान नहीं दिया और घर का दरवाजा बंद कर लिया.

अगली सुबह अजय ने दरवाजा खोला, तो लाली को बाहर बीमार हालत में देख चौंक उठा. वह बुरी तरह कांप रही थी. वह उसे तुरंत डाक्टर के पास ले गया.

बीमार लाली को देख कर अजय को लगा कि ठोकर खा कर लाली सुधर गई है, इसलिए उस ने उसे माफ कर दिया.

बनते बिगड़ते रिश्ते : रमेश की मदद आखिर किस ने की

उन दिनों रमेश बहुत ज्यादा माली तंगी से गुजर रहा था. उसे कारोबार में बहुत ज्यादा घाटा हुआ था. मकान, दुकान, गाड़ी, पत्नी के गहने सब बिकने के बाद भी बाजार की लाखों रुपए की देनदारियां थीं. आएदिन लेनदार घर आ कर बेइज्जत करते, धमकियां देते और घर का जो भी सामान हाथ लगता, उठा कर ले जाते.

रमेश ने भी अनेक लोगों को उधार सामान दिया था और बदले में उन्होंने जो चैक दिए, वे बाउंस हो गए. वह उन के यहां चक्कर लगातेलगाते थक गया, मगर किसी ने भी न तो सामान लौटाया और न ही पैसे दिए.

थकहार कर रमेश ने उन लोगों पर केस कर दिए, मगर केस कछुए की चाल से चलते रहे और उस की हालत बद से बदतर होती चली गई.

जब दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया, तो रमेश को अपने पुराने दोस्तों की याद आई. बच्चों की गुल्लक तोड़ कर किराए का इंतजाम किया. कुछ पैसे पत्नी कहीं से ले आई और वह अपने शहर की ओर चल दिया.

पृथ्वी रमेश का सब से अच्छा दोस्त था. रमेश को पूरी उम्मीद थी कि वह उस की मदद जरूर करेगा.

अपने शहर बीकानेर आ कर रमेश सीधा अपनी मौसी के घर चला गया. वहां से नहाधो कर व खाना खा कर वह पृथ्वी के घर की ओर चल दिया.

शनिवार का दिन था. रमेश को पृथ्वी के घर पर मिलने की पूरी उम्मीद थी. वह मिला भी और इतना खुश हुआ, जैसे न जाने कितने सालों बाद मिले हों. इस के बाद वे पूरे दिन साथ रहे. रमेश पृथ्वी से पैसे के बारे में बात करना चाहता था, मगर झिझक की वजह से कह नहीं पा रहा था.

वे एक रैस्टोरैंट में बैठ गए. रमेश ने हिम्मत जुटाई और बोला, ‘‘यार पृथ्वी, एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, बोल न,’’ पृथ्वी ने कहा.

इस के बाद रमेश ने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई. पृथ्वी गंभीर हो गया और बोला, ‘‘तेरी हालत तो खराब ही है. तू बता, मुझ से क्या चाहता है?’’

‘‘यार, वैसे तो मुझे लाखों रुपए की जरूरत है, मगर तू भी सरकारी नौकरी करता है, इसलिए फिलहाल अगर तू मुझे 3 हजार रुपए भी उधार दे देगा, तो मैं घर में राशन डलवा लूंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. सुबह ले लेना.’’

‘‘तो फिर मैं कितने बजे फोन करूं?’’

‘‘तू मत करना, मैं खुद ही कर लूंगा.’’

रमेश के सिर से एक बड़ा बोझ सा उतर गया था. उस ने चैन की सांस ली. इस के बाद उन्होंने काफी देर तक बातचीत की और बाद में वह रमेश को उस की मौसी के घर तक अपनी मोटरसाइकिल पर छोड़ गया.

रमेश ने पृथ्वी को बताया कि उस की ट्रेन दोपहर 2 बजे जाएगी. उस ने रमेश को भरोसा दिलाया कि वह सुबह ही 3 हजार रुपए पहुंचा देगा.

रमेश ऐसी गहरी नींद सोया कि आंखें 9 बजे ही खुलीं. नहाधो कर तैयार होने तक साढ़े 10 बज गए. पृथ्वी का फोन अभी तक नहीं आया था.

रमेश ने फोन किया, तो पृथ्वी का मोबाइल स्विच औफ ही मिला.

रमेश की ट्रेन आई और उस की आंखों के सामने से चली भी गई. उस का मन बुझ सा गया था. उस ने कोशिश करना छोड़ दिया. उस की सूरत ऐसी लग रही थी, जैसे किसी ने गालों पर खूब चांटे मारे हों. उस की आंखों में आंसू तो नहीं थे, मगर एक सूनापन उन में आ कर जम सा गया था. वह काफी देर तक प्लेटफार्म के एक बैंच पर बैठा रहा.

‘‘अरे, रमेश? तू रमेश ही है न?’’

रमेश ने आंखें उठा कर देखा. वह सत्यनारायण था. उस का एक पुराना दोस्त. वह एक गरीब घर से था और रमेश ने कभी भी उसे अहमियत नहीं दी थी.

‘‘हां भाई, मैं रमेश ही हूं,’’ उस ने बेमन से कहा.

‘‘रमेश, मुझे पहचाना तू ने? मैं सत्यनारायण. तुम्हारा दोस्त सत्तू…’’

‘‘क्या हालचाल है सत्तू?’’ रमेश थकीथकी सी आवाज में बोला.

‘‘मैं तो ठीक हूं, मगर तू ने यह क्या हाल बना रखा है? दाढ़ी बढ़ी हुई है और कितना दुबला हो गया है. चल, बाहर चल कर चाय पीते हैं.’’

रमेश की इच्छा तो नहीं थी, मगर सत्यनारायण का जोश देख कर वह उस के साथ हो लिया. वे एक रैस्टोरैंट में आ बैठे और चाय पीने लगे.

‘‘और सुना रमेश, कैसे हालचाल हैं?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘हालचाल क्या होंगे? जिंदा बैठा हूं न तेरे सामने,’’ रमेश ने बेरुखी से कहा.

यह सुन कर सत्यनारायण गंभीर हो गया, ‘‘बात क्या है रमेश? मुझे बताएगा?’’

‘‘क्या बताऊं? यह बताऊं कि वहां मेरे बच्चे भूखे बैठे हैं और सोच रहे हैं कि पापा आएंगे, तो घर में राशन आएगा. पापा आएंगे, तो वे फिर से स्कूल जाएंगे. पापा आएंगे, तो नए कपड़े सिला देंगे. क्या बताऊं तुझे?’’

सत्यनारायण हक्काबक्का सा रमेश का चेहरा देख रहा था.

‘‘मैं तुझ से कुछ नहीं पूछूंगा रमेश. कितने पैसों की जरूरत है तुझे?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

रमेश ने सत्यनारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. साधारण से कपड़े, साधारण सी चप्पलें, यह उस की क्या मदद करेगा?

‘‘2 लाख रुपए चाहिए, क्या तू देगा मुझे?’’ रमेश ने कहा.

‘‘रमेश, मैं ने अपना सारा पैसा कारोबार में लगा रखा है. अगर तू मुझे कुछ दिन पहले कहता, तो मैं तुझे 2 लाख रुपए भी दे देता. यह बता कि फिलहाल तेरा कितने पैसों में काम चल जाएगा?’’ सत्यनारायण ने पूछा.

‘‘3 हजार रुपए में.’’

‘‘तू 10 मिनट यहां बैठ. मैं अभी आया,’’ कह कर सत्यनारायण वहां से चला गया.

रमेश को यकीन नहीं था कि सत्यनारायण लौट कर आएगा. अब तो लगता है कि चाय के पैसे भी मुझे ही देने पड़ेंगे.

इसी उधेड़बुन में 10 मिनट निकल गए. रमेश उठ ही रहा था कि उस ने सत्यनारायण को आते देखा.

सत्यनारायण की सांसें तेज चल रही थीं. बैठते ही उस ने जेब में हाथ डाला और 50 के नोटों की एक गड्डी रमेश के सामने रख दी.

‘‘यह ले पैसे…’’

रमेश को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘मगर, मुझे तो सिर्फ 3 हजार…’’ रमेश मुश्किल से बोला.

‘‘रख ले, तेरे काम आएंगे.’’

‘‘सत्तू, मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगा.’’

‘‘क्या बकवास कर रहा है? दोस्ती में कोई एहसान नहीं होता है.’’

‘‘लेकिन, मैं ये पैसे तुझे 3-4 महीने से पहले नहीं लौटा पाऊंगा.’’

‘‘जब तेरे पास हों, तब लौटा देना. मैं कभी मांगूंगा भी नहीं. तुझ पर मुझे पूरा भरोसा है,’’ सत्यनारायण ने कहा, तो रमेश कुछ बोल नहीं पाया.

‘‘अब मैं निकलता हूं. चाय के पैसे दे कर जा रहा हूं. तुझे 5 बजे वाली ट्रेन मिल जाएगी, तू भी निकल. बच्चे तेरा इंतजार कर रहे होंगे.’’

सत्यनारायण चला गया. रमेश उसे दूर तक जाते देखता रहा. इस वक्त ये 5 हजार रुपए उस के लिए लाखों रुपए के बराबर थे. वह जिस इनसान को हमेशा छोटा समझता रहा, आज वही उस के काम आया.

रमेश वापस अपने घर लौट गया.

2-3 महीने का तो इंतजाम हो गया था. इस के बाद उस ने फिर से काम की तलाश शुरू कर दी.

एक दिन रमेश को कपड़े की दुकान पर सेल्समैन का काम मिल गया. तनख्वाह कम थी, मगर जीने के लिए काफी थी.

इस के बाद समय अचानक बदला. 3 मुकदमों का फैसला रमेश के हक में गया. जेल जाने से बचने के लिए लोगों ने उस की रकम वापस कर दी. कुछ दूसरे लोग डर की वजह से फैसला होने से पहले ही पैसे दे गए. 6 महीने में ही पहले जैसे अच्छे दिन आ गए.

रमेश ने फिर से कारोबार शुरू कर दिया. इस वादे के साथ कि पहले जैसी गलतियां नहीं दोहराएगा. रमेश ने सत्यनारायण के पैसे भी लौटा दिए. उस ने ब्याज देना चाहा, तो सत्यनारायण ने साफ मना कर दिया.

इन सब बातों को आज 10 साल से भी ज्यादा हो गए हैं. रमेश कारोबार के सिलसिले में अपने शहर जाता रहता है. किसी शादी या पार्टी में पृथ्वी से भी मुलाकात हो ही जाती है. पूरे समय वह अपने नए मकान या नई गाड़ी के बारे में ही बताता रहता है और रमेश सिर्फ मुसकराता रहता है.

रमेश का पूरा समय तो अब सिर्फ सत्यनारायण के साथ ही गुजरता है. वह जितने दिन वहां रहता है, उसी के घर में ही रहता है.

रमेश ने बहुत बुरा वक्त गुजारा. ये बुरे दिन हमें बहुतकुछ सिखा भी जाते हैं. हमारी आंखों पर जमी भरम की धुंध मिट जाती है और हम सबकुछ साफसाफ देखने लगते हैं.

राखी : अनूठे रिश्ते में बंधे भाईबहन

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा. मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा कि अशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा. ‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’ ‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली. ‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते हुए शोरूम में बड़े आकर्षक डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं, रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’ ‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा. ‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’ ‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहुत कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने अशोक से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा. कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए. ‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा. ‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’ सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’

गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी  से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए. ‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’ ‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी. ‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’ ‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’ ‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा. ‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया. ‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी. ‘‘हैलो, चुन्नी…हां, मैं ठीक हूं…अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है…मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा. ‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा. ‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’ ‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा. ‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा. ‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’ स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया.

‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोईर् बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था. ‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना. ‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गई थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी. ‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’ कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

शादी का कार्ड : आखिर कार्ड छपने के बाद भी सुचित्रा ने क्यों नहीं की शादी

अपने दफ्तर से लौटते समय आज शाम को जब रामेश्वर को किसी औरत ने नाम ले कर आवाज लगाई, तो उस के दोनों तेज दौड़ने वाले पैर जैसे जमीन से चिपक कर ही रह गए थे.

रामेश्वर जिस तेजी के साथ सड़क से चिपक गया था, उस से कहीं तेजी से उस की सीधी दिशा में देखने वाली गरदन पीछे की तरफ मुड़ी और गरदन के मुड़ते ही जब रामेश्वर की दोनों आंखें उस आवाज देने वाली पर टिकीं, तो वह सन्न रह गया.

रामेश्वर सोच में पड़ गया कि आज सालों बाद मिलने वाले अपने इस अतीत को देख कर वह मुसकराए या फिर बिना कुछ कहे आगे की तरफ निकल जाए. वह चंद लमहों में अपने से ही ढेर सारे सवालजवाब कर बैठा था.

जब रामेश्वर की जबान ने उस का साथ देने से साफ इनकार कर दिया, तो खामोशी तोड़ते हुए वह औरत पूछने लगी, ‘‘रामेश्वर, भूल गए क्या? तुम तो कहते थे कि मैं तुम्हें ख्वाबों में भी नहीं भूल सकता.’’

‘‘सच कहता था. मैं ने एकदम सच कहा था. कौन भूला है तुम्हें? क्या तुम्हें ऐसा लगा कि मैं तुम्हें भूल गया हूं?

‘‘मुझे आज भी तुम्हारा नाम याद है. कभी तुम ने साथ जिंदगी जीने की कसमें खाई थीं. इतना ही नहीं, तुम से मिलने की खुशी से ले कर तुम से बिछड़ने तक के सफर में जो भी हुआ, सब याद है.

‘‘आज भी तुम्हारी एक आवाज ने मेरे दौड़ते पैरों को रोक दिया, जबकि इस भागतेदौड़ते शहर की तेज जिंदगी में लोग अपने अंदर तक की आवाज को नहीं सुन पाते.

‘‘लाखों की तादाद में चलने वाली गाडि़यों की आवाजें, तेज कदमों की आवाजों के बीच कितनी ही खामोशियों की आवाज टूट कर रह जाती है. मगर मैं ने और मेरी खामोशियों ने आज भी तुम्हारी आवाज की ताकत बढ़ा दी. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता सुचित्राजी…’’

रामेश्वर अभी अपनी पूरी बात कहने ही वाला था कि तभी एक लाल रंग की कार बड़ी तेजी से उस की तरफ बढ़ती दिखी. सुचित्रा ने फुरती से उस को अपनी तरफ खींच लिया.

दोनों की सांसों की रफ्तार उस कार की रफ्तार से भी तेज हो गई थी. कुछ संभलते हुए रामेश्वर बुदबुदाया, ‘‘फिर तेरे कर्ज में डूबा यह दीवाना. मरे हुए को बचा कर तू ने अच्छा नहीं किया.

‘‘सुचित्राजी, एक बार फिर मैं और मेरी जिंदगी तुम्हारी कर्जदार हो गई है. इतने एहसान भी मत करो. आज मिली भी तो मिलते ही एहसान चढ़ा दिया,’’ रामेश्वर की आवाज में दर्द की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं रामेश्वर. मैं ने कोई एहसान नहीं किया. मेरी जगह कोई और होता, तो वह भी यही सब करता. क्या तुम मुझे नहीं बचाते?

‘‘और यह तुम ने जी…जी की क्या रट लगा रखी है. क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं?’’ वह थोड़ा मुसकरा कर बोली, ‘‘चलो, किसी रैस्टोरैंट में बैठ कर चाय पीते हैं. चलोगे मेरे साथ चाय पीने?’’

सुचित्रा के अंदाज में एक नशा सा था, तभी तो रामेश्वर चाह कर भी उसे मना नहीं कर सका.

चाय का प्याला लेते हुए सुचित्रा मुसकराते हुए बोली, ‘‘रामेश्वर, कैसी गुजर रही है तुम्हारी जिंदगी? कितने बच्चे हैं? अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हारी बीवी तुम्हारा कितना खयाल रखती है?’’

सुचित्रा की आंखों में आज भी पहले जैसा ही तेज नशा और होंठों पर पहले जैसी रंगत थी. हां, चेहरे की ताजगी में कुछ रूखापन जरूर आ गया था.

सुचित्रा आज भी बला की खूबसूरत थी. उस के बात करने का अंदाज आज भी उतना ही कातिल था, जितना कि 5 साल पहले था.

‘‘मैं एक कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर हूं. यहीं कुछ दूरी पर रहता हूं. वैसे, आप इस शहर में अकेली क्या कर रही हो सुचित्रा?’’

‘‘तुम भी तो इस शहर की भीड़ में अकेले ही चल रहे थे. बस, कुछ ऐसे ही मैं भी,’’ इतना कह कर सुचित्रा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘सुचित्रा, एक बात कहूं… अगर तुम्हें बुरा न लगे तो…’’ रामेश्वर के चेहरे पर हजारों सवाल आसानी से पढे़ जा सकते थे.

‘‘मैं ने आज तक तुम्हारी बात का बुरा माना ही कब है, जो आज मानूंगी. कहो, जो कहना है. मुद्दत के बाद की इस मुलाकात को किसी तरह आगे तो बढ़ाया जाए… क्यों मिस्टर रामेश्वर?’’ सुचित्रा के बात करने के अंदाज कातिल होते जा रहे थे.

कुछ सकपकाते हुए रामेश्वर कहने लगा, ‘‘वह तो ठीक है. पहले कुछ और बात थी…’’ बात को बीच में ही काटते हुए सुचित्रा बोली, ‘‘बात आज भी वही है, इतना पराया मत बनाओ यार.’’

सुचित्रा के बोलने और देखने के अंदाज रामेश्वर को परेशानी में डाल रहे थे. वह कहने लगा, ‘‘मैं तो यह कह रहा था, तुम आज भी बहुत खूबसूरत लग रही हो. कुछ भी नहीं बदला, तुम कितनी…’’ आगे रामेश्वर कुछ भी नहीं कह पाया. ऐसा लगा, जैसे और शब्द उस के हलक में चिपक कर रह गए हों.

‘‘तुम भी तो पहले जैसे ही हो. हां, पहले मेरे मना करने पर भी मेरी तारीफ करते थे और आज तारीफ करने के लिए भी तुम्हें सोचना पड़ता है,’’ तेज आवाज में हंसते हुए सुचित्रा आगे कहने लगी, ‘‘हां तो मिस्टर रामेश्वर, एक फर्क और भी आया है आप में.’’

रामेश्वर ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘क्या फर्क आया है मुझ में सुचित्रा?’’

रामेश्वर का उदास चेहरा देख कर सुचित्रा हंसते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों घबराते हो मेरे राम. फर्क आया है मूंछों का. पहले इस चेहरे पर ये कालीकाली हसीन मूंछें नहीं थीं.’’

इस बात पर वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. ‘‘सुचित्रा, तुम ने बताया नहीं कि तुम इस शहर में कैसे? तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

सुचित्रा कुछ खामोश सी हो कर बताने लगी, ‘‘मैं तो इस शहर में नौकरी की तलाश में आई थी, नौकरी न सही तुम ही सही. वैसे, मेरे पति क्या करते हैं, यह मुझे अभी तक नहीं पता.’’

‘‘तुम ने क्यों इतना खुला छोड़ रखा है उसे?’’ अब रामेश्वर ने चुटकी लेते हुए पूछा, ‘‘तुम को भी तो खुला छोड़ रखा है तुम्हारी पत्नी ने,’’ अपनी मोटीमोटी नशीली आंखों को रामेश्वर के चेहरे पर गड़ाते हुए सुचित्रा ने कहा.

‘‘आज क्या रैस्टोरैंट में ही ठहरने का इरादा है? तुम्हारे पति तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. फिर कभी मिलते हैं सुचित्रा,’’ रामेश्वर ने अनमने मन से कहा.

सुचित्रा अपनी जुल्फों को लहराते हुए आशिकाना अंदाज में कहने लगी, ‘‘5-6 साल बाद तो आज मिले हैं, अब की बार बिछड़े तो कौन जाने फिर मिलें या न मिलें. वैसे भी इस कटी पतंग की डोर का कोई मालिक नहीं है. हां, शायद आप की पत्नी आप का इंतजार कर रही होंगी.’’

‘‘क्या…’’ रामेश्वर कटी पतंग सुन कर चौंका और उस से पूछने लगा, ‘‘क्यों, तलाक हो गया क्या?’’

‘‘तलाक तो तब होता, जब शादी होती रामेश्वर,’’ अब की बार सुचित्रा काफी थकेथके अंदाज में बोली.

‘‘क्या कह रही हो सुचित्रा? तुम्हारी शादी के तो कार्ड भी छपे थे. फिर वह सब क्या था?’’ रामेश्वर ने सवाल किया.

‘‘वे कार्ड तो कार्ड बन कर ही रह गए, तुम ने तो जा कर देखा तक भी नहीं. देखते भी कैसे? कौन अपनी मुहब्बत का जनाजा उठते देख सकता है? कैसे देखते तुम अपनी मुहब्बत का सौदा किसी दूसरे के हाथों होता? मैं भी नहीं देख सकती थी,’’ अब की बार सुचित्रा की आंखें नम थीं और आवाज भी चेहरे पर जिंदगी की शिकायत आसानी से पढ़ी जा सकती थी.

सुचित्रा आगे बताने लगी, ‘‘हुआ यों रामेश्वर, शादी के कार्ड भी छपे, बरात भी आई, मेहमान भी आए, मंडप भी सजा और बाजे भी बजे, लेकिन…’’ आगे के अलफाज सुचित्रा के मुंह में ही जैसे अपना दम तोड़ चुके थे.

‘‘लेकिन क्या सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने गंभीरता से पूछा.

‘‘पिताजी ने मेरी लाख खिलाफत के बावजूद मेरी शादी दूसरी जगह तय कर दी. मैं ने तुम्हारे बारे में बताया, मगर तुम्हारी बेरोजगारी के चलते वे अपनी जिद पर अड़ गए. असल में वे तुम्हारी अलग जाति की वजह से मना कर रहे थे और मेरा विरोध उन के सामने टूट कर रह गया और तुम भी काफी दूर निकल गए. कभी सोचा भी नहीं था कि हम ऐसे भी मिलेंगे,’’ कह कर सुचित्रा ने अपनी गरदन नीचे की तरफ झुका ली.

‘‘आगे क्या हुआ क्या हुआ था सुचित्रा?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मुझे फेरों के लिए लाया ही गया था कि अचानक मंडप में पुलिस आ गई और दूल्हे के हाथों में हथकड़ी लगा कर अपने साथ ले गई,’’ सुचित्रा की आंखों से आंसू लुढ़क कर उस के गालों को भिगोने लगे.

‘‘लेकिन क्यों सुचित्रा?’’ पूछते हुए रामेश्वर चौंका.

‘‘इसलिए कि वह स्मगलिंग करता था और उस ने पापा को एक कंपनी का मालिक बताया था. उस के बाद न तो पापा ही जिद कर सके और न ही मैं ने शादी करनी चाही.

‘‘मैं अब परिवार पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थी, इसलिए नौकरी की तलाश में यहां तक आ गई और तुम से मुलाकात हो गई.

‘‘अब तुम बताओ कि तुम्हारा परिवार कैसा है?’’ सुचित्रा ने खुद को संभालते हुए रामेश्वर को बोलने का मौका दिया.

‘‘किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है. कहां हो तुम ये दिल बेकरार आज भी है.

‘‘ये लाइनें मेरे जीने का जरीया बन चुकी थीं सुचित्रा. मैं तो अभी तक तुम्हारे इंतजार में ही बैठा तुम्हारे लौटने की राह ताक रहा था,’’ इतना सुन कर सुचित्रा सभी से बेखबर हो रामेश्वर से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगी और सिसकियां लेते हुए कहने लगी, ‘‘रामेश्वर, अब की बार मुझे अकेला मत छोड़ना. इस कटी पतंग की डोर तुम उम्रभर के लिए अपने हाथों में ले लो रामेश्वर, अपने हाथों में ले लो.’’

‘‘ठीक है, हम अपनी शादी के कार्ड छपवा लेते हैं,’’ रामेश्वर मुसकराते हुए बोला.

‘‘अब की बार कार्ड नहीं सीधे शादी करेंगे रामेश्वर,’’ सुचित्रा की बात सुन कर रामेश्वर ने उसे अपने आगोश में ले कर चूम लिया था. रैस्टोरैंट में बैठे बाकी लोग, जो काफी समय से उन दोनों की बातें सुन रहे थे, एकसाथ खड़े हो कर तालियां बजाने लगे. दोनों शरमाते हुए एकदूसरे को गले लगाते हुए बाहर निकल गए.

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