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जानें, श्वेता तिवारी ने सलमान खान के शो के लिए क्या कहा

कलर्स चैनल पर प्रसारित होने वाला शो बिग बौस एक ऐसा शो है… जिसे  दर्शक खुब देखना पसंद करते हैं.  दर्शकों को इस शो का बेसब्री से इंतजार रहता है. यहां तक की जो कंटेस्टेंट इस शो में हिस्सा ले चुके प्रतिभागी भी नए सीजन को देखना पसंद करते हैं और कंटेस्टेंट को मशवरा भी देते हैं. लेकिन इस शो की विनर रह चुकी श्वेता तिवारी की ने कुछ ऐसा कह दिया, जिसे सुनकर आप भी चौंक जाएंगे. जी हां तो चलिए जानते है, क्या कहा श्वेता तिवारी ने.

श्वेता  तिवारी का कहना है कि उनके पास सलमान खान के इस शो को देखने के लिए टाइम ही नहीं है. जी हां हाल ही में एक इवेंट के दौरान श्वेता ने तिवारी ने बताया कि  वह बिग बौस 13 को फौलो नहीं कर रही है. जब श्वेता से इसकी वजह पूछी गई तो उन्होंने कहा कि, ‘मेरे पास इसे देखने का समय नहीं है…दूसरी बात मैं इसे कब देखूं…मेरे बच्चे है और मैं उनके सामने तो इसे नहीं देख सकती हूं.’

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श्वेता ने आगे ये भी कहा कि, ‘अगर कोई बच्चों को सामने ऊंची आवाज में बात करेता है तो वो मुझसे कहते है कि आपको डांटा ?’  वे डर जाते हैं.  मैं नहीं चाहती हूं कि वह ये सब कुछ देखें. श्वेता तिवारी के काम की बात करें तो इस समय टीवी सीरियल में नजर आ रही है. उनके किरदार को फैंस पसंद भी कर रहे हैं.

आज ही के दिन राष्ट्रीय बेवफा घोषित हुई थी सोनम गुप्ता

अब से तीन साल पहले नोट बंदी के 8 दिन बाद सोनम गुप्ता नाम की एक काल्पनिक युवती सोनम गुप्ता खूब सुर्खियों में रही थी. किसी अनाम नोट बंदी पीड़ित द्वारा गढ़े इस किरदार और कहानी ने लोगों का नोट बंदी का दुख कम करने में अहम रोल निभाया था . सोनम गुप्ता  को लेकर तरह तरह के किस्से कहानी कुछ इस तरह सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे कि लोग भूल गए थे कि मोदी जी के एक सनक भरे फैसले ने उन्हें सड़क पर ला खड़ा कर दिया है.

सोनम गुप्ता कौन थी यह किसी को नहीं मालूम लेकिन उसकी बेवफाई ने हिंदुस्तानी प्रेमियों को अपनी भड़ास निकालने का मौका जरूर दे दिया था. सबसे पहले सोनम तब चर्चा में आई थी जब 2 हजार रुपए का एक नोट वायरल हुआ था जिस पर लिखा था, सोनम गुप्ता बेवफा है. बस फिर क्या था सोनम को लेकर तरह तरह की अफवाहों का दौर शुरू हो गया. फिर इस तरह के कई नोट वायरल हुए जिन पर सोनम गुप्ता बेवफा है लिखा था .

फिर किसी कहानीकार ने एक कहानी भी गढ़ दी जिसके मुताबिक सोनम गुप्ता अलीगढ़ के एक व्यापारी की बेटी थी. सोनम अपने पड़ोस में रहने बाले शर्मा जी के बेटे से प्यार करती थी जो कि इनकम टेक्स विभाग में कार्यरत थे. सोनम और उसका प्रेमी शादी करना चाहते थे लेकिन रूढ़िवादी गुप्ता जी गैर जात में लड़की व्याहने तैयार नहीं थे. बेटे की जिद देखकर शर्मा जी ने गुप्ता जी के घर जाकर शादी का प्रस्ताव रखा पर गुप्ता जी ने तैयार नहीं होना सो नहीं हुए.

सोनम और उसका प्रेमी मन मसोस कर रह गए लेकिन गुप्ता जी के इंकार को शर्मा जी ने अपने दिल पर ले लिया. फिर एक दिन गुप्ता जी के घर इनकमटेक्स का छापा पड़ गया . सोनम इस पर नाराज हो गई और उसने अपने प्रेमी को खूब खरीखोटी सुनाते हमेशा के लिए उससे नाता तोड़ने का ऐलान कर दिया. दुखी प्रेमी ने जेब से 2 हजार रु का तत्कालीन चमचमाता नोट निकाला और उस पर लिख दिया सोनम गुप्ता बेवफा है .

बस यहीं से सोनम गुप्ता की स्टोरी सत्यनारायन की कथा जैसी वायरल हुई और देखते ही देखते सोनम गुप्ता राष्ट्रीय बेवफा के खिताब से नवाज दी गई. मीडिया और सोशल मीडिया पर सोनम की बेवफाई के किस्से चटखारे ले लेकर सुनाये जाने लगे. सोनम की आड़ में लोगों ने नोट बंदी का अपना गम गलत किया. सोनम पर चुटकुले बने, गाने बने और लोगों की प्रेम अभिव्यक्ति भी प्रदर्शित हुई. जल्द ही लोगों ने यह कहना भी शुरू कर दिया कि सिर्फ सोनम ही नहीं बल्कि उसकी कजिन पूनम गुप्ता भी बेवफा है और वह अरविंद केजरीवाल की रिश्तेदार है.

यकीन माने अगर सोनम गुप्ता की कहानी इतने बड़े पैमाने पर तूल न पकड़ती तो मोदी जी को लेने के देने बन पड़ जाते. सोनम गुप्ता की कहानी अगर नोट बंदी से हैरान परेशान और त्रस्त देशवासियों का ध्यान नहीं बंटाती तो तय है गुस्साये लोग आगजनी और तोड़फोड़ कर अपना गुस्सा निकाल रहे होते और मोदी जी फिर एक बार नहीं हजार बार भी सार्वजनिक मंच से रोकर 50 दिन का वक्त मांगते तो लोग पसीजते नहीं और उन्हें 50 सेकंड का भी वक्त नहीं मिलता .

ऐसे में वह बेवफा ही सही सोनम गुप्ता ही थी जिसने मोदी जी को संकट से उबारा था .

‘‘मैं कहीं जा कर काम नहीं मांग सकती’’: माही गिल

पंजाबी फिल्मों से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री माही गिल ने फिल्म ‘देव डी’ से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था. अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित मौडर्न देवदास की इस कहानी में माही ने पारो की भूमिका निभाई थी जिसे दर्शकों और आलोचकों ने काफी सराहा. इस के बाद वे ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर’, ‘पानसिंह तोमर’ आदि फिल्मों में नजर आईं. वे एक आत्मनिर्भर महिला हैं और एक 3 वर्षीया बेटी की मां हैं. स्वभाव से विनम्र और खूबसूरत माही अब वैब सीरीज ‘फिक्सर’ में मुख्य भूमिका निभा रही हैं.

माही से बातचीत के दौरान जब यह पूछा गया कि इस वैब सीरीज को करने की खास वजह क्या है, तो इस पर उन्होंने बताया, ‘‘यह एक अलग तरह की मनोरंजक कहानी है. असल में हम जीवन में हर चीज को फिक्स करते रहते हैं. मसलन, चौकलेट ला कर दोगे तो यह काम कर दूंगा या ड्रामा करना, कुछ लिए बिना मैं कोई काम नहीं कर सकता आदि होता है. मुझे याद आता है कि कालेज के जमाने में हम ट्रिपल राइडिंग कर फ्रैंड्स के साथ जाते थे और चालान होने पर ट्रैफिक पुलिस को अपना जन्मदिन कह कर छूट जाते थे.

‘‘इस सीरीज की कहानी भी हर व्यक्ति के जीवन में फिक्स को दिखाते हुए मनोरंजक तरीके से लिखी गई है. इस की स्क्रिप्ट मुझे बहुत पसंद आई. इस के पहले मैं ने काफी सीरियस फिल्में की हैं और अब कुछ हलकीफुलकी फिल्म करना चाह रही थी.’’

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वैब सीरीज में डरावनी कहानियां, सैक्स और गालीगलौज अधिक होता है जिसे सब लोग देख नहीं सकते. क्या निर्माता, निर्देशक को इस बात का ध्यान रखना जरूरी नहीं कि वे ऐसी वैब सीरीज बनाएं जिन का असर समाज पर अच्छा हो? वे सर्टिफिकेशन न होने की आजादी का गलत फायदा न उठाएं? इस सवाल पर माही कहती हैं, ‘‘यह सही है, लेकिन आजकल औनलाइन सबकुछ मिलता है. आप जो चाहें वह देख सकते हैं. हर तरह की फिल्में और वैब सीरीज आज बन रही हैं. कई बार मुझे भी लगता है कि आजादी मिलने की वजह से सैक्स और आइटम सौंग बिना जरूरत के भी दिखा दिए जाते हैं. उस पर रोक लगाने की जरूरत है. इस का दायित्व निर्मातानिर्देशक को अवश्य लेना चाहिए.’’

जब माही से यह पूछा गया कि उन्होंने पंजाबी और हिंदी फिल्मों में अच्छी ऐक्ंिटग की है, लेकिन फिल्मों में कम दिखी हैं. इस की वजह क्या मानती हैं? कितना मलाल है? तो माही ने कहा, ‘‘इस की वजह मैं खुद हूं क्योंकि मैं कहीं जा कर काम मांग नहीं सकती. मैं ने फिल्में बोल्ड की हैं पर रियल लाइफ में बहुत शर्मीली हूं. बहुत इन्ट्रोवर्ट और होमली महिला हूं, जो गलत है. मुझे खुल कर कहने की जरूरत थी, पर मैं ने नहीं कहा और यह मेरी ही गलती रही है. मैं बहुत संतुष्ट रहने वाली महिला हूं जिसे जीवन में बहुतकुछ नहीं चाहिए, पर काम के लिए लालची हूं. मैं ने ऐक्शन और कौमेडी फिल्में नहीं की हैं, उन्हें करने की इच्छा है.’’

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जब माही से प्रश्न पूछा गया कि कोई ऐसी फिल्म जिस ने आप की जिंदगी बदल दी, तो उन्होंने कुछ इस तरह जवाब दिया, ‘‘मेरी जिंदगी को बदलने वाली फिल्म ‘देव डी’ है जिस के बाद से मुझे हिंदी फिल्मों में एंट्री मिली. दर्शकों ने मुझे और मेरे काम को पहचाना. फिल्म ‘लम्हे’ ने मेरी जिंदगी को बहुत प्रभावित किया है और मुझे वैसी फिल्म करने की इच्छा है. मैं ने शुरू से चुनौती ली है और बोल्ड फिल्में भी की हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि मैं वैसी भूमिका करना पसंद करती हूं. मुझे हर नया किरदार पसंद है.’’

माही का चेहरा अभिनेत्री तब्बू से बहुत मेल खाता है, इस से उन्हें कोई फायदा मिला है या नहीं, पूछने पर माही मुसकराते हुए जवाब देती हैं कि बहुत लोगों ने उन्हें ऐसा कहा है, पर वे तब्बू की बहुत बड़ी फैन हैं और उन के साथ काम करने की इच्छा रखती हैं.

सफलता और असफलता आप के लिए क्या महत्त्व रखती हैं, पूछने पर माही कहती हैं, ‘‘मुझे सफलता फिल्मों में चाहिए जिस से मुझे आगे काम करने की प्रेरणा मिलती है. किसी फिल्म के सफल होने पर बहुत लोगों को आगे काम मिलता है. सफल न होने पर फिल्म का आगे बनना बंद हो जाता है. एक्टिंग मेरा पैशन है, पर उस के साथ पैसे की भी जरूरत है और मैं चाहती हूं कि मेरी हर फिल्म सफल हो. लाइफ में सफलता का अर्थ मेरे लिए अलग है, क्योंकि मैं अपनी जर्नी से संतुष्ट हूं.’’

अपने यहां तक पहुंचने में परिवार के सहयोग को ले कर माही बताती हैं, ‘‘मेरा परिवार अभी अमेरिका में है. पिता का देहांत हो चुका है. अभी मेरी मां हैं. जब मैं मुंबई आई थी तो वे काफी डरे हुए थे, पर अब ठीक हैं. मैं ने शुरू से अपने परिवार से कभी वित्तीय सहायता नहीं ली. उन का इमोशनल सपोर्ट हमेशा मेरे साथ रहा है. यह मेरे लिए बहुत है. मैं बहुत आत्मनिर्भर हूं. मेरी मां नहीं चाहती थीं कि मैं ऐक्ट्रैस बनूं क्योंकि उन्होंने मेरी शुरुआत की मेहनत फिल्मों में देखी थी.’’

अपनी बेटी के विषय पर पूछे जाने पर माही कहती हैं, ‘‘वह बहुत छोटी है. अभी 3 साल की है. उसे कुछ समझ नहीं है. जब बड़ी होगी, तब समझ में आएगा कि उसे क्या करना है. मैं ने एक स्वाधीन जिंदगी जी है और बेटी को भी वैसी ही जिंदगी देना चाहती हूं.’’

माही से यह पूछने पर कि क्या कोई सामाजिक काम है जिसे वे करती हों, तो इस पर उन का कहना है, ‘‘मैं बच्चों को पढ़ाती हूं क्योंकि शिक्षा हर किसी के लिए जरूरी है. मैं किसी भिखारी को कभी भीख नहीं देती, खाना खिलाती हूं. भ्रूण हत्या पर मेरी पूरी निगाह रहती है और उसे कम करने की दिशा में मैं काम करती हूं. इस के अलावा बेजबान जानवरों के लिए भी काम करना पसंद करती हूं.’’

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मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया

पच्हत्तर बरस की उम्र में कभी बचपन की शरारतें याद आ जाती हैं तो मैं खिलखिला कर हंस पड़ता हूं. मेरा पोता पूछता, ‘दादाजी अब क्यों हंसे?’ मैं बोलता, ‘कुछ नहीं, बस यूं ही कुछ याद आ गया…’ मगर उस दिन जब मैं देर तक हंसता रहा तो पोते के साथ-साथ बेटा भी कहने लगा, ‘पापा, अकेले-अकेले क्यों हंस रहे हो, हमें भी बताओ न क्या बात है?’

मैं हंसते हुए बोला, ‘अरे, अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया, इसीलिए हंस रहा हूं. बचपन में खूब बदमाशियां की हैं. आओ, सुनाता हूं वह किस्सा.’

फिर तो दोनों वहीं मेरे पलंग पर चढ़ कर बैठ गये. मैंने कहानी शुरू की. बोला – बचपन में तो हम गांव में ही रहे. वहीं पढ़े-लिखे. उन दिनों हमारे गांव के आसपास विद्यालयों की संख्या बहुत ही कम थी. मुझे भी करीब दस किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए लिए जाना पड़ता था. मेरे स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी और उसके किनारे एक श्मशान था. नदी किनारे इसी श्मशान में आसपास के गांवों के लोग अपने मृतक परिजनों को जलाते थे. कभी-कभी लाशें आधी-अधूरी ही जलती छोड़ जाते थे. फिर कुत्ते या सियार उनका मांस नोंचते रहते थे और हड्डियां छोड़ जाते थे. उस श्मशान में काफी हड्डियां इधर उधर बिखरी पड़ी रहती थीं. हमारे स्कूल का वक्त सुबह ग्यारह बजे का था और करीब तीन बजे तक पढ़ाई होती थी. स्कूल खत्म होने के बाद भी हम बड़ी देर तक वहीं ग्राउंड में खेलते रहते थे. घर लौटते-लौटते शाम हो जाती थी. सर्दियों के दिनों में तो पांच-छह बजे ही अंधेरा हो जाता था. मेरे साथ के लड़के नदी पर पहुंच कर बहुत डरते थे. श्मशान में अक्सर मुर्दे जलते दिख जाते थे. सारे दोस्त हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से निकलते थे, मगर मेरे अंदर डर नाम की चीज ही नहीं थी. मैं सबसे आगे उछलता-कूदता नदी किनारे पड़े नरमुंडों को फुटबाल बनाकर खेलता हुआ चला आता था. फुटबॉल मेरा प्रिय खेल था, मगर पिताजी की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं थी कि मुझे फुटबॉल खरीद कर दे पाते. सो मैं नरमुंडों को ही फुटबॉल बना कर खेलता था. घर में कोई सोच ही नहीं सकता था कि एक बारह-तेरह बरस का बालक ऐसी हरकत कर सकता है. हमारे गांव के बाहर ही एक साधु बाबा की कुटिया थी. जिसे गांव वाले ‘बाबा की कुटिया’ के नाम से पुकारते थे. बाबा की कुटिया तक मेरा फुटबॉल का खेल चालू रहता था और फिर मैं वहीं गांव के बाहर नरमुंड को छोड़कर घर आ जाता था.

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एक रोज हुआ यह कि मैंने नरमुंड को किक मारा तो वह उछल कर बाबा की कुटिया के करीब कहीं जा गिरा. मुझे घर आने की जल्दी थी, अंधेरा भी था तो मैं उसे ढूंढने भी नहीं गया. अब साधू बाबा ने जो अपने चबूतरे पर नरमुंड देखा तो बौखला उठे. भागे-भागे गांव में आये, शोर मचाया और फिर हमारे घर के दरवाजे पर बिछी खटिया पर आ गिरे. पिताजी ने बाबा जी को पानी पिलाया. हांफने-कांपने की वजह पूछी तो साधू बाबा कंपकंपाते हुए बोले – कि उनके दरवाजे पर एक नरमुंड पड़ा है. गांव के दूसरे लोग भी वहीं आ जमे. सब परेशान, किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर नरमुंड कैसे पहुंचा? उस दिन तो पिता जी और गांव के दूसरे लोग किसी तरह समझा-बुझा कर साधु बाबा को उनकी कुटिया तक छोड़ आये. एक लकड़ी की मदद से उस नरमुंड को भी वहां से हटा कर दूर फेंक दिया गया. उस दिन की घटना से मेरा बड़ा मनोरंजन हुआ. मेरा उत्साह बढ़ा. फिर तो यह करीब-करीब रोज का हाल हो गया. मैं स्कूल से लौटते वक्त किसी न किसी नरमुंड को फुटबॉल बनाकर खेलता आता और साधु बाबा की कुटिया के आसपास छोड़ कर घर आ जाता. बाबा जी जब कोई नरमुंड देखते डर के मारे भागे-भागे गांव आते और सबको इकट्ठा कर लेते. मेरा घर गांव में घुसने पर सबसे पहले पड़ता था तो अक्सर वह वहीं बैठ कर पिताजी को ही अपना दुखड़ा सुनाते थे. अब गांव वालों के बीच भी चर्चा होने लगी कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर ही नरमुंड क्यों आते हैं किसी और के दरवाजे पर क्यों नहीं आते? जरूर यह कोई ढोंगी बाबा होगें, तभी तो भगवान इनसे रुष्ट है और इनको सबक सिखाने के लिए नरमुंड भेजता है. गांव के अनपढ़ लोगों के बीच भ्रांतियां जल्दी विस्तार पा जाती हैं. धीरे-धीरे लोग उन साधु बाबा से दूरी बनाने लगे. पहले हर दिन गांव के किसी न किसी घर से उनका खाना जाता था, लोग दूध-दही और घी भी पहुंचा देते थे, अब वह भी कम हो गया. साधु बाबा बड़े परेशान हुए. एक तो नरमुंडों ने उन्हें डरा रखा था, और दूसरी ओर लोग उनको गलत आदमी समझने लगे थे और उनका फ्री का भोजन-पानी बंद हो गया था.

एक दिन किसी राजनेता के मरने पर हमारे स्कूल की जल्दी छुट्टी हो गयी. दोपहर का वक्त था. मैं रोज की आदत के अनुसार दोस्तों से काफी आगे उछलता-कूदता चला आ रहा था. श्मशान के करीब से गुजरा तो एक बड़ी सी हड्डी पड़ी नजर आयी. मैं हड्डी को अपनी ठोकर से उछालता चला आता था. साधु बाबा की कुटिया के पास पहुंचा तो देखा बाबाजी अपनी कुटिया के चबूतरे पर हुक्का गुड़गुड़ाते बैठे थे. अब आखिरी बार जो ठोकर पर हड्डी उछली तो जाकर सीधी गिरी बाबाजी के सामने.

बाबाजी ने एक नजर हड्डी पर डाली और दूसरी मुझ पर. मैं समझ गया कि आज तो बेटा खैर नहीं. बस्ता लिए तेजी से घर की ओर दौड़ लगा दी. अब आगे-आगे मैं और पीछे-पीछे धोती संभालते बाबाजी. मैं धड़धड़ाते हुए घर का दरवाजा खोलकर भीतर घुस गया. पलंग पर बस्ता पटका ही था कि साधु बाबा भी धड़धड़ाते हुए घर में दाखिल हो गये और गरज कर पिताजी का नाम लेकर बोले, ‘रामसुख बाहर निकालो अपने बदमाश लड़के को, सारी फसाद की जड़ यही है. यही हमारे दरवाजे नरमुंड इकट्ठे करता है.’ उनकी चिल्ल-पुकार सुनकर पिताजी भागे आये.

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मैं अंदर कमरे में डर के मारे मां के पीछे दुबका खड़ा था. साधु बाबा का चीखना-चिल्लाना सुन कर थर-थर कांप रहा था. पक्का था कि आज तो बाबाजी मुझे पिताजी के हाथों पिटवाये बिना जाएंगे नहीं. इतने में पिताजी ने कड़कदार आवाज में मुझे पुकारा. मैं डरता-डरता गया तो उन्होंने पूछा, ‘क्यों रे क्या कह रहे हैं बाबाजी? तू डालता है इनके दरवाजे पर नरमुंड?’

मैंने हकलाते हुए कहा, ‘वो तो मैं खेलते हुए आता हूं… फुटबॉल की तरह…’

मेरे मुंह से सच सुनकर साधु बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. आखिर मेरे कारण ही तो इतने दिनों से उनका फ्री का भोजन-पानी बंद था. लोग उनसे बच-बच कर चलने लगे थे. उनको पापी समझने लगे थे. उस दिन उनका गुस्सा खूब उबला. चीख-चीख कर गांव भर को इकट्ठा कर दिया. बड़ी मुश्किल से लोगों ने उन्हें समझाया कि बच्चा है, खेल-खेल में समझ नहीं पाया. आखिरकार मेरे पिताजी को बुरा-भला बोलते हुए साधु बाबा चलने को हुए तो फिर पलट कर बोले, ‘बड़ा हैरान किया रामसुख तुम्हारे लड़के ने, समझा कर रखो इसे. इतना घोर पाप किया है इसने. बेकार ही इसे स्कूल भेजते हो, यह तुम्हारा नाम डुबाएगा, कभी किसी जमात में पास नहीं होगा…’ तो ऐसे साधु बाबा मुझे कोसते और भुनभुनाते हुए चले गये.

अब पिताजी बड़े चिन्तित हो गये कि बाबाजी श्राप दे गये, गांव वाले भी कहने लगे कि बाबा जी को नाराज किया है, अब तो इसका पास होना मुश्किल ही है. मगर मेरी मां ने कहा कि जाने दो, मैं जानती हूं अपने बच्चे को, यह ठीक से पढ़ेगा तो काहे को फेल होगा?

तब आठवीं की बोर्ड परीक्षा होती थी. जब मैं आठवीं कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हो गया तो पिताजी यह खुशखबरी मिठाई के साथ साधु बाबा को सुनाने गये. साधु बाबा अब तक मन में गुस्सा लिये बैठे थे, मिठाई तो झट से ले ली मगर भुनभुनाते हुए बोले, ‘घोर कलयुग है… घोर कलयुग है.’

कहानी सुना कर मैं जोर जोर से हंसने लगा और साथ में बेटा और पोता भी खिलखिला उठे.

प्रेम तर्पण : भाग 2

‘प्रिय माधव,

‘मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे लिए अबूझ पहेली ही रही. मैं ने कभी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया, न प्रेम, न संतान और न जीवन. मैं तुम्हारे लायक तो कभी थी ही नहीं, लेकिन तुम जैसे अच्छे पुरुष ने मुझे स्वीकार किया. मुझे तुम्हारा सान्निध्य मिला यह मेरे जन्मों का ही फल है, लेकिन मुझे दुख है कि मैं कभी तुम्हारा मान नहीं कर पाई, तुम्हारे जीवन को सार्थक नहीं कर पाई. तुम्हारी दोस्त, पत्नी तो बन गई लेकिन आत्मांगी नहीं बन पाई. मेरा अपराध क्षम्य तो नहीं लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे क्षमा कर देना माधव, तुम जैसे महापुरुष का जीवन मैं ने नष्ट कर दिया, आज तुम्हारा कोई तुम्हें अपना कहने वाला नहीं, सिर्फ मेरे कारण.

‘मैं जानती हूं तुम ने मेरी कोई बात कभी नहीं टाली इसलिए एक आखिरी याचना इस पत्र के माध्यम से कर रही हूं. माधव, जब मेरी अंतिम विदाईर् का समय हो तो मुझे उसी माटी में मिश्रित कर देना जिस माटी ने मेरा निर्माण किया, जिस की छाती पर गिरगिर कर मैं ने चलना सीखा. जहां की दीवारों पर मैं ने पहली बार अक्षरों को बुनना सीखा.

जिस माटी का स्वाद मेरे बालमुख में कितनी बार जीवन का आनंद घोलता रहा. मुझे उसी आंगन में ले चलना जहां मेरी जिंदगी बिखरी है. ‘मैं समझती हूं कि यह तुम्हारे लिए मुश्किल होगा, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे उसी मिट्टी की गोद में सुलाना जिस में मैं ने आंखें खोली थीं. तुम ने अपने सारे दायित्व निभाए, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को आत्मसात न कर सकी. इस डायरी के पन्नों में मेरी पूरी जिंदगी कैद थी, लेकिन मैं ने उस का पहले ही अंतिम संस्कार कर दिया, अब मेरी बारी है, हो सके तो मुझे क्षमा करना.

‘तुम्हारी कृतिका.’

माधव सहम गया, डायरी के कोरे पन्नों के सिवा कुछ नहीं था, कृतिका यह क्या कर गई अपने जीवन की उस पूजा पर परदा डाल कर चली गई, जिस में तुम्हारी जिंदगी अटकी है. आज अस्पताल में हरेक सांस तुम्हें हजारहजार मौत दे रही है और हम सब देख रहे हैं. माधव ने डायरी के अंतिम पृष्ठ पर एक नंबर लिखा पाया, वह पूर्णिमा का नंबर था. पूर्णिमा कृतिका की बचपन की एकमात्र दोस्त थी. माधव ने खुद से प्रश्न किया कि मैं इसे कैसे भूल गया. माधव ने डायरी के लिखा नंबर डायल किया.

‘‘हैलो, क्या मैं पूर्णिमाजी से बात कर रहा हूं, मैं उन की दोस्त कृतिका का पति बोल रहा हूं,‘‘

दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं मैं उन की भाभी हूं. दीदी अब दिल्ली में रहती हैं.’’ माधव ने पूर्णिमा का दिल्ली का नंबर लिया और फौरन पूर्णिमा को फोन किया, ‘‘नमस्कार, क्या आप पूर्णिमाजी बोली रही हैं.’‘

‘‘जी, बोल रही हूं, आप कौन ’’

‘‘जी, मैं माधव, कृतिका का हसबैंड.’’

पूर्णिमा उछल पड़ी, ‘‘कृतिका. कहां है, वह तो मेरी जान थी, कैसी है वह  कब से उस से कोई मुलाकात ही नहीं हुई. उस से कहिएगा नाराज हूं बहुत, कहां गई कुछ बताया ही नहीं,’’ एकसाथ पूर्णिमा ने शिकायतों और सवालों की झड़ी लगा दी. माधव ने बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘कृतिका अस्पताल में है, उस की हालत ठीक नहीं है. क्या आप आ सकती हैं मिलने ’’ पूर्णिमा धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, कुछ देर दोनों ओर चुप्पी छाई रही. माधव ने पूर्णिमा को अस्पताल का पता बताया. ‘‘अभी पहुंचती हूं,’’ कह कर पूर्णिमा ने फोन काट दिया और आननफानन में अस्पताल के लिए निकल गई. माधव निर्णयों की गठरी बना कर अस्पताल पहुंच गया. कुछ ही देर बाद पूर्णिमा भी वहां पहुंच गई. डा. सुकेतु की अनुमति से पूर्णिमा को कृतिका से मिलने की आज्ञा मिल गई.

पूर्णिमा ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया, कृतिका को देख कर गिरतेगिरते बची. सौंदर्य की अनुपम कृति कृतिका आज सूखे मरते शरीर के साथ पड़ी थी. पूर्णिमा खुद को संभालते हुए कृतिका की बगल में स्टूल पर जा कर बैठ गई. उस की ठंडी पड़ती हथेली को अपने हाथ से रगड़ कर उसे जीवन की गरमाहट देने की कोशिश करने लगी. उस ने उस के माथे पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘कृति, यह क्या कर लिया तूने  कौन सा दर्द तुझे खा गया  बता मुझे कौन सी पीड़ा है जो तुझे न तो जीने दे रही है न मरने. सबकुछ तेरे सामने है, तेरा परिवार जिस के लिए तू कुछ भी करने को तैयार रहती थी, तेरा उन का सगा न होना यही तेरे लिए दर्द का कारण हुआ करता था, लेकिन आज तेरे लिए वे किसी सगे से ज्यादा बिलख रहे हैं. इतने समझदार पति हैं फिर कौन सी वेदना तुझे विरक्त नहीं होने देती.’’ कृति की पथराई आंखें बस दरवाजे पर टिकी थीं, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया.

पूर्णिमा कृति के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी, कुछ देर उस की आंखों में उस की पीड़ा खोजते हुए पूर्णिमा ने धीरे से कहा, ‘‘शेखर, कृति की पथराई आंख से आंसू का एक कतरा गिरा और निढाल हाथों की उंगलियां पूर्णिमा की हथेली को छू गईं. पूर्णिमा ठिठक गई, अपना हाथ कृतिका के सिर पर रख कर बिलख पड़ी, तू कौन है कृतिका, यह कैसी अराधना है तेरी जो मृत्यु शैय्या पर भी नहीं छोड़ती, यह कौन सा रूप है प्रेम का जो तेरी आत्मा तक को छलनी किए डालता है.’’ तभी आवाज आई, ‘‘मैडम, आप का मिलने का समय खत्म हो गया है, मरीज को आराम करने दीजिए.’’

पूर्णिमा कृतिका के हाथों को उम्मीदों से सहला कर बाहर आ गई और पीछे कृतिका की आंखें अपनी इस अंतिम पीड़ा के निवारण की गुहार लगा रही थीं. उस की पुतलियों पर गुजरा कल एकएक कर के नाचने लगा था. कृतिका नाम मौसी ने यह कह कर रखा था कि इस मासूम की हम सब माताएं हैं कृतिकाओं की तरह, इसलिए इस का नाम कृतिका रखते हैं. कृतिका की मां उसे जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थीं. मौसी उस 2 दिन की बच्ची को अपने साथ लेआई थीं, नानी, मामी, मौसी सब ने देखभाल कर कृतिका का पालन किया था. जैसेजैसे कृतिका बड़ी हुई तो लोगों की सहानुभूति भरी नजरों और बच्चों के आपसी झगड़ों ने उसे बता दिया था कि उस के मांबाप नहीं हैं. परिवार में प्राय: उसे ले कर मनमुटाव रहता था. कई बार यह बड़े झगड़े में भी तबदील हो जाता, जिस के परिणामस्वरूप मासूम छोटी सी कृतिका संकोची, डरी, सहमी सी रहने लगी. वह लोगों के सामने आने से डरती, अकसर चिड़चिड़ाया करती, लोगों की दया भरी दलीलों ने उस के भीतर साधारण हंसनेबोलने वाली लड़की को मार डाला था.

 

रात्रि भोज : भाग 2

लेकिन दूसरे दिन जब राजा बाबू ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा की थी तो दद्दा तिलमिला कर रह गए थे. घंटों अपने कमरे के  बाहर राजा को प्रतीक्षा करवाने वाले दद्दा साहब ने राजा बाबू को बारबार निमंत्रण भेजा था पर वह नहीं आए थे.

राजा बाबू की चुनौती को स्वीकार कर कौशल बाबू ने अपने दामाद रामाधार के साथ चुनाव क्षेत्र में ही डेरा डाल दिया था. दल की मशीनरी का साथ होने पर भी रामाधार की जमानत जब्त हो गई थी. राजा बाबू को पहले ही जनतांत्रिक दल से निष्कासित कर दिया गया था.

जब ढोलनगाड़ों की थाप पर राजा बाबू का विजय रथ जनतांत्रिक दल के कार्यालय के सामने से निकला था, दल के नेतागण मन मसोस कर रह गए थे.

सरकार बनाने की कोशिश शुरू होते ही स्वतंत्र विधायकों की बन आई थी. दोनों पक्षों में कांटे की टक्कर थी, अत: हर पक्ष उन्हें अधिक से अधिक प्रलोभन देना चाहता था.

दद्दा साहब राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी थे. कब कैसे पैंतरा बदला जाए वह भली प्रकार जानते थे. दल के  दिग्गजों ने जब सातों स्वतंत्र विधायकों को रात्रिभोज के लिए बुलाया तो उन सभी ने राजा बाबू को अपना नेता घोषित कर दिया था.

बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ तो सातों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाने लगे.

‘‘आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूं,’’ स्वतंत्र गुट की ओर से राजा बाबू बोले थे.

‘‘हां, बोलो बेटा, हमें भी तो पता चले कि आप लोग चाहते क्या हैं,’’ दद्दा साहब बोले थे.

‘‘अवश्य बताएंगे पर पहले भोजन कर लीजिए. इतना अच्छा भोजन सामने है, ऐसे में रंग में भंग डालने का हमारा कोई इरादा नहीं है,’’ स्वतंत्र विधायकों में से एक बंसी बाबू बोले थे.

हासपरिहास के बीच रात्रिभोज समाप्त हुआ था. स्वादिष्ठ आइसक्रीम के साथ सभी सोफों पर जा विराजे थे.

‘‘चलिए, अब काम की बात कर ली जाए,’’ कौशल बाबू और दद्दा समवेत स्वर में बोले थे, ‘‘क्या मांग है आप की?’’

‘‘हमारी तो एक ही मांग है. मुझे मुख्यमंत्री बनाया जाए और मेरे अन्य मित्रों को मंत्रिमंडल में स्थान मिले,’’ राजा बाबू गंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘क्या?’’ जनतांत्रिक दल के दिग्गज नेताओं को मानो सांप सूंघ गया था.

‘‘तुम जानते हो न राजा बेटे कि तुम क्या कह रहे हो?’’ अंतत: मौन दद्दा साहब ने तोड़ा था.

‘‘जी हां, भली प्रकार से जानता हूं.’’

‘‘देखो राजा, दल में अनेक वयोवृद्ध नेताओं को छोड़ कर तुम्हें मुख्यमंत्री बनाएंगे तो दल में असंतोष फैल जाएगा. वैसे भी यह क्या कोई आयु है मुख्यमंत्री बनने की? इस गरिमापूर्ण पद पर तो कोई गरिमापूर्ण व्यक्तित्व ही शोभा देता है,’’ कौशल बाबू ने अपनी ओर से प्रयत्न किया था.

‘‘मैं ने आप को अपनी शर्तों के बारे में सूचित कर दिया है. अब गेंद आप के पाले में है. जैसे चाहें खेल को संचालित करें,’’ बंसी बाबू बोले थे.

‘‘राजा, कुछ देर के लिए मैं तुम से एकांत में विचारविमर्श करना चाहता हूं,’’ दद्दा साहब ने राजा बाबू को साथ के कक्ष में बुलाया था.

‘‘आप को जो कहना है हम सब के सामने कहिए. हम सब एक हैं. कहीं कोई दुरावछिपाव नहीं है,’’ बंसी बाबू ने राजा को रोकते हुए कहा था.

‘‘ठीक है, हम आपस में विचारविमर्श कर के आते हैं. फिर आप को सूचित करेंगे,’’ कहते हुए दद्दा साहब, कौशल बाबू और जनतांत्रिक दल के अन्य दिग्गज नेता उठ कर साथ के कमरे में चले गए थे.

‘‘समझता क्या है अपनेआप को? कल तक तो दरी बिछाने और लोगों को पानी पिलाने का काम करता था, आज मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न देखने लगा है?’’ कौशल बाबू बहुत क्रोध में थे.

‘‘मत भूलिए कि सत्ता की चाबी अब उन के हाथ में है,’’ दद्दा साहब ने समझाया था.

‘‘इस का अर्थ यह तो नहीं है कि सारा राज्य इन नौसिखियों के हवाले कर दें.’’

‘‘सोचसमझ कर निर्णय लीजिए. नहीं तो गणतांत्रिक दल वाले तैयार बैठे हैं इन्हें लपकने को,’’ अंबरीष बाबू बोले थे.

‘‘निर्णय लेने को अब बचा ही क्या है? या तो उन की शर्तें माननी हैं या नहीं माननी हैं,’’ कौशल बाबू झुंझला गए थे.

बहुत बेमन से सभी दिग्गज नेता एकमत हुए थे. शायद वे समझ गए थे कि सत्ता में बने रहने का यही एकमात्र तरीका था.

दूसरे दिन जब एक साझी प्रेस कानफें्रस में जनतांत्रिक दल के स्वतंत्र विधायकों से गठबंधन की घोषणा की गई और राजा बाबू के नाम की घोषणा भावी मुख्यमंत्री के रूप में हुई तो सभी आश्चर्यचकित रह गए.

राजा बाबू ने कैमरों की फ्लैश- लाइटों के बीच दद्दा साहब के पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो दद्दा साहब ने उन्हें गले से लगा लिया. वह समझ गए थे कि परिवर्तन की आंधी को रोकना अब उन के वश में नहीं था.

छिपकली : भाग 2

कविता ने चैन की सांस ली और काम में लग गईं. अगले दिन सुबह कविता चाय बनाने जब रसोई में गईं तो बिजली का बटन दबाते ही सब से पहले उसी छिपकली के दर्शन हुए जो गैस के चूल्हे के पास स्वच्छंद घूम रही थी. कविता को लगा वह फिर से चिल्लाएं…पर चुप रह गईं क्योंकि सुबह सब मीठी नींद में सो रहे थे. कविता ने उस छोटी सी छिपकली को झाड़ू से भगाया तो वह तेजी से रसोई की छत पर चढ़ गई.

अब कविता जब भी रसोई में जातीं तो उन का पूरा ध्यान छिपकली के बच्चे की ओर लगा रहता. खानेपीने का सब सामान वह ढक कर रखतीं. धीरेधीरे वह छिपकली का बच्चा बड़ा होने लगा और 10-15 दिनों के भीतर ही पूरी छिपकली बन गया.

मां के तनाव को देख कर संजू बोला, ‘‘मां, मैं इस छिपकली को मारने के लिए दवाई लाता हूं. रात को गैस के पास डाल देंगे और सुबह तक उस का काम तमाम हो जाएगा.’’

‘‘तुम्हें क्या कह रही है छिपकली जो तुम उस को मारने पर तुले हो,’’ जूही बोली, ‘‘अरे, छिपकली घर में रहेगी तो घर साफ रहेगा. वह कीड़ेमकोड़े और काकरोच आदि खाती रहेगी.’’

‘‘तुम छिपकली के पक्ष में क्यों बात करती हो? क्या पुराने जन्म का कोई रिश्ता है?’’ संजू ने चुटकी ली.

‘‘कल एक पुजारी भी मुझ से कह रहा था कि छिपकली को नहीं मारना चाहिए. छिपकली रहने से घर में लक्ष्मी का आगमन होता है,’’ दीप बोले.

‘‘पापा, आप भी अपनी बहू के सुर में सुर मिला रहे हैं…आप दोनों मिल कर छिपकलियां ही पाल लो. इसी से यदि घर में जल्दी लक्ष्मी आ जाए तो मैं अभी से रिटायर हो जाता हूं,’’ संजू बोला.

उन की इस बहस में छिपकली कहीं जा कर छिप गई. जूही बोली, ‘‘देखो, आज सुबहसुबह ही हम सब ने छिपकली को देखा है. देखें आज का दिन कैसा बीतता है.’’

सारा दिन सामान्य रूप से बीता. शाम को जब जूही आई तो दरवाजे से ही चिल्ला कर बोली, ‘‘मां, एक बहुत बड़ी खुशखबरी है. मैं आज बहुत खुश हूं, बताओ तो क्यों?’’

‘‘प्रमोशन मिल गया क्या?’’

‘‘नहीं. इस से भी बड़ी.’’

‘‘तुम्हीं बताओ.’’

‘‘मां, एक तो डबल प्रमोशन और उस पर सिंगापुर का एक ट्रिप.’’

‘‘देखा, सुबह छिपकली देखी थी न,’’ दीप बोले.

‘‘बस, पापा, आप भी. अरे, जूही का प्रमोशन तो होने ही वाला था. सिंगापुर का ट्रिप जरूर एक्स्ट्रा है,’’ संजू बोला.

‘‘मां, देखो कुछ तो अच्छा हुआ,’’ जूही बोली, ‘‘आप इस छिपकली को घर में ही रहने दो.’’

‘‘अरे, आज इसी विषय पर पार्क में भी बात हो रही थी. मेरे एक परिचित बता रहे थे कि घर में मोरपंख रख दो तो छिपकली अपनेआप ही भाग जाती है,’’ दीप बोले.

‘‘चलो, कल को मोरपंख ला कर रख देना तो अपनेआप छिपकली चली जाएगी,’’ कविता बोलीं.

दूसरे दिन ही दीप बाजार से ढूंढ़ कर मोरपंख ले आए और एक खाली गुलदस्ते में उसे सजा दिया गया. पर छिपकली पर उस का कोई असर नहीं हुआ. वह पहले की तरह ही पूरे घर में घूमती रही. हर सुबह कविता को वह गैस के पास ही बैठी मिलती.

एक दिन दीप बहुत सारे आम ले आए और आइसक्रीम खाने की इच्छा जताई. कविता ने बड़ी लगन से दूध उबाला, उसे गाढ़ा किया, उस में आम मिलाए और ठंडा होने के लिए एक पतीले में डाल कर रख दिया. वह उसे जल्दी ठंडा करना चाहती थीं. इसलिए पतीला ढका नहीं बल्कि वहीं खड़ी हो कर उसे कलछी से हिलाती जा रही थीं और रसोई के दूसरे काम भी कर रही थीं. तभी फोन की घंटी बजी और वह उसे सुनने के लिए दूसरे कमरे में चली गईं.

अमेरिका से उन के छोटे बेटे का फोन था. वह बहुत देर तक बात करती रहीं और फिर सारी बातें दीप को भी बताईं. इसी में 1 घंटा बीत गया.

कविता वापस रसोई में गईं तो दूध ठंडा हो चुका था. उन्होंने पतीले को वैसे ही उठा कर फ्रीजर में रख दिया. रात को खाने के बाद कविता ने आइसक्रीम निकाली और संजू और जूही को दी. दीप ने रात में आइसक्रीम खाने से मना कर दिया और खुद कविता ने इसलिए आइसक्रीम नहीं खाई कि उस दिन उन का व्रत था. संजू और जूही ने आइसक्रीम की तारीफ की और सोने चल दिए. आधे घंटे के बाद ही उन के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आनी शुरू हो गईं. दोनों ही लगातार उलटियां किए जा रहे थे. कविता और दीप घबरा गए. एक मित्र की सहायता से दोनों को अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर बोला, ‘‘लगता है इन को फूड पायजिनिंग हो गई है. क्या खाया था इन दोनों ने?’’

‘‘खाना तो घर में ही खाया था और वही खाया था जो रोज खाते हैं. हां, आज आइसक्रीम जरूर खाई है,’’ कविता बोलीं.

‘‘जरूर उसी में कुछ होगा. शायद आम ठीक नहीं होंगे,’’  दीप बोले.

डाक्टर ने दोनों को भरती कर लिया और इलाज शुरू कर दिया. 2 घंटे बाद दोनों की तबीयत संभली. तब दीप बोले, ‘‘कविता, तुम घर जाओ. मैं रात भर यहीं रहता हूं.’’

घर आते ही कविता ने सब से पहले आइसक्रीम का पतीला फ्रिज से बाहर निकाला और सोने के लिए बिस्तर पर लेट गईं. 5 बजे आंख खुली तो उठ गईं. जा कर रसोई में देखा तो आइसक्रीम पिघल कर दूध बन चुकी थी. कविता ने पतीला उठा कर सिंक में उड़ेल दिया. जैसे ही सारा दूध गिरा वैसे ही उस में से मरी हुई छिपकली भी गिरी. छिपकली को देखते ही कविता का दिल जोरजोर से धड़कने लगा और हाथ कांपने लगे. वह धम से जा कर सोफे पर बैठ गईं.

तभी दीप भी घर आ गए. उन्हें देखते ही कविता का रोना छूट गया. उन्होंने रोतेरोते पूरी बात बताई.

‘‘चलो, जो होना था हो गया,’’ दीप सांत्वना देते हुए बोले, ‘‘अब दोनों बच्चे ठीक हैं और 1 घंटे में डाक्टर उन्हें घर वापस भेज देगा.

‘‘संजू ने तो पहले ही दिन कहा था कि उसे मार दो. तुम और तुम्हारी बहू ही उसे पूज रहे थे.’’

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई मुझ से. अब बारबार उस की याद मत दिलाओ.’’

मम्मीपापा की बातें सुन कर संजू जोर से हंसा और बोला, ‘‘हां, तो पापा, कितनी लक्ष्मी घर से चली गई… अस्पताल का बिल कितने का बना?’’

संजू का व्यंग्य भरा मजाक सुन कर सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

वंश बेल : भाग 2

‘‘गुरुजी, कई दिनों से एक बात हम लोगों को विचलित कर रही है. वैसे हम उसे कहना नहीं चाहते थे पर लोगों का मुंह भी कैसे रोकें इसलिए मजबूर हो कर आप से पूछना पड़ रहा है. आप के नाम का यश और कीर्ति निरंतर फैलती जा रही है, भक्तों की भी निरंतर वृद्धि हो रही है, किंतु…’’

‘‘किंतु क्या? शंका एवं समस्या क्या है?’’ महाराज बोले, ‘‘आप को इतनी बड़ी भूमिका बांधनी पड़ रही है.’’

‘‘इस वंश बेल को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए…यदि एक बेटा होता तो…आप तो जानते ही हैं कि कई बार लोग कैसे बेहूदे सवाल करते हैं. कहते हैं, यदि बेटा होने का कोई मंत्र या दवा होती तो महाराज का अब तक बेटा क्यों नहीं हुआ. महाराज, इस से पहले कि आप की छवि धूल में मिल जाए कुछ तो कीजिए. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.’’

महाराज निशब्द हो गए…जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. बात सच भी थी. आखिर इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए कोई तो अपना होना चाहिए था. महाराज की बेटे की चाहत में पहले से ही 3 बेटियां थीं और इस उम्र में बेटा पैदा करने का रिस्क वह लेना नहीं चाहते थे. महाराजजी देर तक शून्य में देखते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सोचा तो मैं ने भी बहुत है पर अब क्या हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता, महाराज. आप की उम्र ही अभी क्या है. फिर पहले के ऋषिमुनि भी तो यही तरीका अपनाते थे.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’ सबकुछ जानते हुए भी अनजान बन कर पूछा महाराजजी ने.

‘‘दूसरा विवाह. आप का काम भी हो जाएगा और लोगों का मुंह भी बंद हो जाएगा.’’

महाराज धीरे से मुसकराए. दूसरे विवाह की कल्पना मात्र से ही वह पुलकित हो उठे थे इसलिए खुल कर मना भी न कर सके.

बेटा न होने का सारा दोष महाराजजी ने अपनी पत्नी सावित्री के सिर मढ़ दिया था. यही नहीं, बेटा पाने की चाह में 2 बार सावित्री का वह गर्भपात भी करा चुके थे.

अब फिर शिष्यों के कहने पर उन की सोई चाहत फिर से बलवती हो उठी. एक तो बेटे की चाहत और उस से भी बड़ी खूबसूरत, छरहरी अल्प आयु की पत्नी पाना. महाराज का रोमरोम खिल उठा.

शिष्यों ने महाराज को कई सुंदर युवतियां दिखाईं और उन में से एक को महाराज ने पसंद कर लिया.

महाराज के शिष्य इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह विवाह उन की प्रतिष्ठा एवं चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है. इसलिए वे कोई ठोस धरातल और उपयुक्त मौके की तलाश में थे और वह मौका उन्हें जल्द मिल गया.

शिष्यों ने पहले तो इस बात की चर्चा फैला दी कि एक शराबी पति ने अपनी पत्नी पर लांछन लगा कर उसे घर से निकाल दिया है. बेचारी अनाथ, बेसहारा लड़की अब महाराज की शरण में आ गई है. इस के अलावा वह गर्भवती भी है वरना तो उसे नारी निकेतन भेज देते.

पूर्वनियोजित ढंग से शिष्यों ने एक सभा के दौरान महाराज से पूछा कि अब इस स्त्री का भविष्य क्या है?

‘‘इस शरण में आई अबला का आप लोगों में से कोई हाथ थाम ले तो मैं समझूंगा कि मेरा कार्य सार्थक हो गया,’’ महाराज ने बेबस हो कर याचना की.

‘‘ऐसी स्त्री का कौन हाथ पकडे़गा. यदि यह गर्भवती न होती तो शायद कोई सोचता भी.’’

‘‘फिर मैं समझूंगा कि मेरी वाणी और विचारों का आप लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. हमें पुरानी रूढि़यां तोड़ कर नए समाज का निर्माण तो करना ही है और हम वचनबद्ध भी हैं.’’

‘‘कहना बहुत सरल है, महाराज, पर कौन देगा ऐसी स्त्री को सहारा? क्या आप दे सकेंगे? भीड़ में से एक स्वर तेजी से उभरा.

सभा में खामोशी छा गई. कई सौ निगाहें उस व्यक्ति पर जा टिकीं.

उस ने फिर अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘कहिए महाराज, आप चुप क्यों हैं?’’

‘‘हां, मैं इसे अपनाने के लिए तैयार हूं,’’ कह कर महाराज ने सब को हैरानी में डाल दिया.

चारों तरफ महाराज की जयजयकार होने लगी. महाराज ने देखा, सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने चाहा था.

सावित्री को जब इस बात का पता चला तो वह बेहद नाराज हुई. घर में तनाव का वातावरण पैदा हो गया. पर महाराज ने इस ओर ध्यान न दे कर उस स्त्री को दूसरे आश्रम में स्थान दे दिया. सावित्री की नाराजगी को दूर करने के लिए महाराज ने एक दिन विशाल सभा में उस के त्याग और प्रेम की बेहद प्रशंसा की और बोले कि यदि सावित्री का साथ न होता तो शायद मैं कभी इस स्थान पर न पहुंचता. और उस दिन के बाद सावित्री को ‘गुरु मां’ का दरजा मिल गया.

समय चक्र तेजी से घूमने लगा. उधर गुरु मां स्थानस्थान पर सभाओं और समारोहों का उद्घाटन करने में व्यस्त रहने लगीं, इधर महाराजजी अपनी नई दुलहन सुनीता के साथ अति व्यस्त रहने लगे. एक दिन उन्हें यह जान कर बेहद खुशी हुई कि पत्नी सुनीता का पांव भारी है.

महाराजजी खुद सुनीता को ले कर एक प्राइवेट नर्सिंग होम में गए. डाक्टर साहब उन के शिष्य थे इसलिए व्यक्तिगत रूप से उस का चेकअप करने लगे. बात जब अल्ट्रासाउंड की आई तो डाक्टर साहब ने उन्हें डेढ़ माह बाद आने को कहा.

डेढ़ माह महाराजजी के लिए जैसे डेढ़ युग के बराबर गुजरा. निर्धारित दिन को महाराज अपनी लंबी विदेशी गाड़ी में खुद सुनीता को ले कर उसी डाक्टर के पास पहुंचे. अल्ट्रासाउंड के बाद महाराज और डाक्टर साहब दूसरे कमरे में चले गए. सुनीता बाहर बैठी थी, तभी उस का ध्यान अचानक अपनी चेन और कंगनों पर गया जो उस ने मशीन के पास उतारे थे. वह तेजी से भीतर गई तो उन दोनों की बातें सुन कर क्षण भर के लिए वहां रुक गई.

‘‘महाराज, यह बात तो आप भी जानते हैं कि लिंगभेद बताना गलत है फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता दूं कि आप के घर लक्ष्मी का प्रवेश हो रहा है.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए महाराज निढाल हो गए.

‘‘क्या हुआ, महाराज? सब ठीक तो है न,’’ डाक्टर साहब ने तुरंत खडे़ हो कर पूछा, ‘‘आप तो अंतर्यामी हैं. आप की भी यही कामना रही होगी.’’

‘‘अब क्या बताऊं आप को,’’ महाराज बेहद उदास स्वर में बोले, ‘‘मेरी पहले से ही 3 बेटियां हैं.’’

‘‘परंतु महाराज, आप तो लोगों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. कितने ही भक्तों ने आप के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्त किए हैं और आप अपने लिए कुछ न कर पाए, यह मैं नहीं मानता,’’ डाक्टर ने अपनी शंका सामने रखी.

‘‘डाक्टर, यह तो आप भी जानते हैं कि मंत्रों, टोनेटोटकों से कुछ नहीं होता. इन से ही यदि पुत्र प्राप्त होते तो आज मेरे घर बेटियां न होतीं. मैं तो बस, विश्वास बनाए रखता हूं. कोई मनोरथ सिद्ध हो जाता है तो श्रेय मुझ को जाता है अन्यथा कर्मों का वास्ता दे कर मैं चुप हो जाता हूं.’’

डाक्टर साहब बड़ी हैरानी से यह सब बातें सुनते रहे. उन्हें महाराज का यह बदला हुआ रूप बड़ा अजीब लगा.

‘‘डाक्टर, इस कन्या के आने से मेरे घर में काफी रोष उत्पन्न हो जाएगा. आप इस का तत्काल अबार्शन कर दीजिए, नहीं तो भक्तों का मुझ पर से विश्वास ही उठ जाएगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप, महाराज. इस स्त्री का यह पहला बच्चा है और हम पहले बच्चे का गर्भपात नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि…’’

‘‘आप अपनी राय अपने पास ही रखिए,’’ महाराज तिलमिला उठे, ‘‘मेरे पास तुम जैसे शिष्यों की कमी नहीं है. यह काम तो मैं कहीं भी करा लूंगा.’’

मरजावां फिल्म रिव्यू: जानें फिल्म में क्या है खास

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः निखिल अडवाणी, मेानिशा अडवाणी, मधु भोजवाणी, भूषण कुमार, किशन कुमार, दिव्या खोसला कुमार

लेखक व निर्देशकः मिलाप मिलन झवेरी

कलाकारः सिद्धार्थ मल्होत्रा,रितेश देशमुख, रकुल प्रीत सिंह, तारा सुतारिया, रवि किशन, शाद रंधावा.

अवधिः दो घंटे 16 मिनट

अस्सी व नब्बे के लार्जर देन लाइफ वाले सिनेमा के शौकीन रहे लेखक व निर्देशक मिलाप मिलन झवेरी ‘सत्यमेव जयते’के सफल होने के बाद लार्जर देन लाइफ कथानक वाली फिल्म ‘‘मरजावां’’ लेकर आए हैं, मगर वह एक दमदार मसाला फिल्म बनाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.

कहानीः

मुंबई में पानी के टैंकर माफिया अन्ना(नासर)ने गटर के पास पड़े एक लावारिस बच्चे रघु को अपनी छत्र छाया में पाल पोस कर उसे बड़ा किया.अब वही लड़का रघु (सिद्धार्थ मल्होत्रा)अन्ना के अपराध माफिया के तमाम काले कारनामों और खून-खराबे में अन्ना का दाहिना हाथ बना हुआ है.अन्ना के कहने पर रघु दशहरा के दिन एक दूसरे टैंकर माफिया गायतोंडे के बेटे को मार देता है.रघु,अन्ना के हर हुक्म की तामील हर कीमत पर करता है. इसी के चलते अन्ना उसे अपने बेटे से बढ़कर मानते हैं.मगर इस बात से अन्ना का अपना बेटा विष्णु (रितेश देशमुख) को रघु से नफरत है. शारीरिक तौर पर बौना होने के कारण विष्णु को लगता है कि अन्ना का असली वारिस होने के बावजूद सम्मान रघु को दिया जाता है.पूरी बस्ती रघु को चाहती है. बार डांसर आरजू (रकुल प्रीत) भी रघु की दीवानी है.रघु के खास तीन दोस्त हैं.पर जब नाटकीय तरीके से कश्मीर से आई गूंगी लड़की जोया(तारा सुतारिया) से रघु की मुलाकात होती है, तो उसमें बदलाव आने लगता है. जोया, रघु को एक वाद्ययंत्र देती है. फिर संगीत प्रेमी जोया, पुलिस अफसर रवि यादव (रवि किशन) के कहने पर रघु को अच्छाई के रास्ते पर बढ़ने के लिए प्रेरित करने लगती है.मगर विष्णु अपनी चाल चलता है,जिसमें फंसकर रघु को अपने प्यार जोया को अपने हाथों गोली मारनी पड़ती है और रघु जेल पहुंच जाता है. जोया के जाने के बाद जेल में रघु जिंदा लाश बनकर रह जाता है.जबकि  बस्ती पर विष्णु का जुल्म बढ़ता जाता है. अहम में चूर विष्णु, रघु को अपने हाथों मारने के लिए चाल चलता है और अदालत रघु को बाइज्जत बरी कर देती है. फिर कहानी में मोडत्र आता है. अंततःएक बारा फिर रावण दहन होता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म ‘‘मरजावां’’ के प्रदर्शन से पहले मिलाप झवेरी ने खुद बताया था कि कहानी व पटकथा उन्होने ही लिखी थी,पर पहले इस फिल्म को कोई दूसरा निर्देशक निर्देशित करने वाला था,मगर पटकथा पढ़ने के बाद उस निर्देशक ने इस फिल्म से खुद को अलग कर लिया था,तब मिलाप झवेरी ने खुद ही इसके निर्देशन की जिम्मेदारी स्वीकार की. फिल्म देखने के समझ में आया कि पहले वाले निर्देशक ने इसे क्यों नहीं निर्देशित किया.कुछ दृश्यों को जोड़कर बेसिर पैर की कहानी का निर्देशन करने से अच्छा है,घर पर खाली बैठे रहे.प्यार-मोहब्बत, बदला, भावनाएं,मारधाड़,कुर्बानी आदि पर सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं.

सफल फिल्म ‘‘बाहुबली’’ के मार्केटिंग वाले संवाद‘बाहुबली को कटप्पा ने क्यो मारा’ की तर्ज पर  अपनी फिल्म ‘मरजावां’ में इंटरवल से पहले ही हीरो के हाथ हीरोईन को मरवा कर फिल्म को सफल बनाने का उनका प्रयास विफल नजर आ रहा है. अतिकमजोर पटकथा, उथले व अविश्वसनीय किरदारों के चलते फिल्म संभल नही पायी.पानी के माफिया टैंकर को तो अब मुंबई वासी भी भूल चुके हैं. मिलाप को यह भी नहीं पता कि पानी टैंकर माफिया के पास उस तरह की सशस्त्र सेना नही होती है, जैसी की विष्णु के पास है.फिल्म में रकुल प्रीत के किरदार आरजू को कोठेवाली बताया जा रहा है, पर वह बार डांस में नाचती नजर आती है. फिल्मकार को बार डांस व कोठे का अंतर ही नहीं पता? एक्शन के तमाम दृश्य अविश्वसनीय लगते हैं. व्हील चेअर पर बैठे शाद रंधावा एक भारी भरकम व छह फुट कद के इंसान को रामलीला मैदान से उठाकर ऐसा फेंकते हैं कि वह सीधे मस्जिद में जाकर गिरता है. फिल्म में इमोशन या रोमांस तो ठीक से उभरता ही नहीं.

अभिनयः

सिद्धार्थ मल्होत्रा बुरी तरह से निराश करते हैं. रितेश देशमुख ने जरुर अच्छा अभिनय किया है.तारा सुतारिया छोटे किरदार में भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही हैं. रकुल प्रीत सिंह के हिस्से सुंदर दिखने के अलावा कुछ खास करने को रहा ही नही. रवि किशन की प्रतिभा को जाया किया गया.

मोतीचूर चकनाचूर फिल्म रिव्यू: पढ़ें यहां

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः राजेश भाटिया,किरण भाटिया और वायकौम 18

निर्देशकः देबामित्रा बिस्वास  

कलाकारः नवाजुद्दीन सिद्दिकी, आथिया शेट्टी,नवनी परिहार,विभा छिब्बर.

अवधिः दो घंटे 15 मिनट

दहेज कुप्रथा के साथ  वर्तमान पीढ़ी की लड़कियों की विदेशी दूल्हों संग शादी करने की बढ़ती महत्वाकांक्षा पर कटाक्ष करने के साथ साथ छोटे शहरों में रहने वाली कंुठाओं को हास्य व्यंग के साथ फिल्मकार देबामित्रा विस्वास ने फिल्म ‘‘मोतीचूर चकनाचूर’’में पेश करने का प्रयास किया है.मगर फिल्म कई जगह बहुत ढीली होकर रह गयी है.

कहानीः

          यह कहानी है बुंदेलखंड इलाके के निवासी परिवारों की, जो कि भोपाल में बसे हुए हैं. अवस्थी परिवार की बेटी एनी उर्फ अनीता (आथिया शेट्टी) से उसके माता इंदू (नवनी परिहार) व पिता बहुत परेशान हैं. एनी के सिर पर शादी करके विदेश में बसने का भूत सवार है. उसे ऐसे युवक से शादी करना है, जो कि लंदन, अमरीका या सिंगापुर सहित किसी देश में रह रहा हो. वह सोशल मीडिया पर अपने पति के साथ विदेशी धरती पर खींची गयी सेल्फी पोस्ट करना चाहती हैं. इसी के चलते ऐनी अब तक दस लड़कों को ठुकरा चुकी है.लंदन में रहने वाले लड़के के परिवार वालों को अपमानित करके भगा देती है, क्योंकि वह लड़का शादी के बाद पत्नी को अपने साथ लंदन नहीं ले जाएगा. तो वहीं अवस्थी परिवार के पड़ोस में त्यागी परिवार रहता है. जिसकी बड़ी बेटी हेमा से ऐनी की अच्छी दोस्ती है. दोनों परिवारों के बीच काफी आना जाना है. इस परिवार में दो बेटे व एक बेटी हैं. परिवार का बड़ा लड़का पुशपिंदर त्यागी (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) दुबई में नौकरी करता है. 36 साल की उम हो गयी, पर अब तक उसकी शादी नहीं हुई.पुशपिंदर की मां(विभा छिब्बर) को बेटे की शादी में दहेज 25 से तीस लाख रूप चाहिए. क्योंकि उनका बेटा दुबई मंे नौकरी करता है.बेटे की शादी मंे जो कुछ मिलेगा,वह सब वह बेटी हेमा की शादी में देना चाहती हैं. एक अति मोटी लड़की के साथ पुशंपिंदर शादी करने के लिए तैयार हो जाते हैं. क्योंकि अब उम्र के इस पड़ाव पर लड़की को लेकर उनकी कोई पसंद नहीं है.पर सगाई के बाद जैसे ही पुशपिंदर की मां दहेज की रकम बताती हैं, शादी टूट जाती है. इससे पुशंपिंदर बहुत दुःखी हो जाते हैं.

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उधर पुशपिंदर को देखकर ऐनी की मौसी (करूणा पांडे) उसे समझाती है कि पुशंपिंदर में एक अच्छा चरित्रवान व दुबई मे रहने वाला लड़का है. दुबई भी विदेश ही है. उसके बाद ऐनी बिना अपने माता पिता को बताए, पुशंपिंदर के सामने प्रेम का इजहार कर चुपचाप मंदिर में शादी कर लेती है,जिससे पुशपिंदर की मां विघ्न न डाल पाए.घर पहुंचने पर दोनों परिवार हक्के बक्के रह जाते हैं. बहरहाल, किसी तरह वह मान जाते हैं. पर समाज की नजरों में दोनो की पुनः रीतिरिवाज के साथ शादी होती है. मगर सुहागरात से पहले ही त्यागी परिवार के साथ ऐनी को भी पता चल जाता है कि पुशंपिंदर की दुबई की नौकरी छूट गयी है और उसे अब भोपाल में ही नौकरी मिल गयी है. फिर कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः पुशपिंदर की मां और ऐनी को भी बहुत कुछ समझ में आ जाता है.

लेखन व निर्देशनः

          कथानक के स्तर पर नवीनता न होते हुए भी फिल्म की प्रस्तुतिकरण कमाल की है.फिल्म में छोटे शहरों और संयुक्त परिवार के जीवन मूल्यों को बेहतरीन भी उकेरा गया है. फिल्म में ह्यूमर के साथ साथ दहेज व वैवाहिक जीवन को सफल बनाने सहित कई सामाजिक संदेश भी अच्छे ढंग से बिना भाषणबाजी के परोसे गए हैं. मगर इंटरवल तक फिल्म की गति काफी धीमी है. इंटरवल के बाद फिल्म तेज गति से दर्शकों को अपने साथ लेकर आगे बढ़ने का प्रयास करती है, मगर यहां भी कुछ ज्यादा ही खींच दिया गया. क्लायमेक्स में नवाजुद्दीन सिद्दिकी और आथिया शेट्टी के बीच एक दूसरे से मिलने के उतावले पन के दृश्य को इस कदर खींचा गया कि दर्शक कह उठता है कि अब बस भी करो. फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसने की जरुरत थी.

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अभिनयः

          गंभीर किस्म की भूमिकां निभाने में महारत रखने वाले नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने इसमें हलकी फुलकी भूमिका में बेहतरीन अभिनय किया है. वह भावनात्मक दृश्यों में छा जाते हैं. आथिया शेट्टी ने ऐनी के किरदार में जान डाल दी है. पहली फिल्म ‘हीरो’ की असफलता का दंश झेल रही आथिया शेट्टी के करियर को इस फिल्म से नई गति मिलेगी. नवनी परिहार, विभा छिब्बर व करूणा पांडे ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है.

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