पच्हत्तर बरस की उम्र में कभी बचपन की शरारतें याद आ जाती हैं तो मैं खिलखिला कर हंस पड़ता हूं. मेरा पोता पूछता, ‘दादाजी अब क्यों हंसे?’ मैं बोलता, ‘कुछ नहीं, बस यूं ही कुछ याद आ गया...’ मगर उस दिन जब मैं देर तक हंसता रहा तो पोते के साथ-साथ बेटा भी कहने लगा, ‘पापा, अकेले-अकेले क्यों हंस रहे हो, हमें भी बताओ न क्या बात है?’

मैं हंसते हुए बोला, ‘अरे, अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया, इसीलिए हंस रहा हूं. बचपन में खूब बदमाशियां की हैं. आओ, सुनाता हूं वह किस्सा.’

फिर तो दोनों वहीं मेरे पलंग पर चढ़ कर बैठ गये. मैंने कहानी शुरू की. बोला - बचपन में तो हम गांव में ही रहे. वहीं पढ़े-लिखे. उन दिनों हमारे गांव के आसपास विद्यालयों की संख्या बहुत ही कम थी. मुझे भी करीब दस किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए लिए जाना पड़ता था. मेरे स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी और उसके किनारे एक श्मशान था. नदी किनारे इसी श्मशान में आसपास के गांवों के लोग अपने मृतक परिजनों को जलाते थे. कभी-कभी लाशें आधी-अधूरी ही जलती छोड़ जाते थे. फिर कुत्ते या सियार उनका मांस नोंचते रहते थे और हड्डियां छोड़ जाते थे. उस श्मशान में काफी हड्डियां इधर उधर बिखरी पड़ी रहती थीं. हमारे स्कूल का वक्त सुबह ग्यारह बजे का था और करीब तीन बजे तक पढ़ाई होती थी. स्कूल खत्म होने के बाद भी हम बड़ी देर तक वहीं ग्राउंड में खेलते रहते थे. घर लौटते-लौटते शाम हो जाती थी. सर्दियों के दिनों में तो पांच-छह बजे ही अंधेरा हो जाता था. मेरे साथ के लड़के नदी पर पहुंच कर बहुत डरते थे. श्मशान में अक्सर मुर्दे जलते दिख जाते थे. सारे दोस्त हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से निकलते थे, मगर मेरे अंदर डर नाम की चीज ही नहीं थी. मैं सबसे आगे उछलता-कूदता नदी किनारे पड़े नरमुंडों को फुटबाल बनाकर खेलता हुआ चला आता था. फुटबॉल मेरा प्रिय खेल था, मगर पिताजी की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं थी कि मुझे फुटबॉल खरीद कर दे पाते. सो मैं नरमुंडों को ही फुटबॉल बना कर खेलता था. घर में कोई सोच ही नहीं सकता था कि एक बारह-तेरह बरस का बालक ऐसी हरकत कर सकता है. हमारे गांव के बाहर ही एक साधु बाबा की कुटिया थी. जिसे गांव वाले ‘बाबा की कुटिया’ के नाम से पुकारते थे. बाबा की कुटिया तक मेरा फुटबॉल का खेल चालू रहता था और फिर मैं वहीं गांव के बाहर नरमुंड को छोड़कर घर आ जाता था.

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