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Instagram Influencers : जानकारियों के लिए इन्फ्लुएंसर्स पर निर्भरता कितना सही

Instagram Influencers : आज युवा अपना सब से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिता रहा है. वह अपनी समस्या का हल ढूढ़ने की जगह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है. इन्फ्लुएंसर्स भी बड़ा वर्ग इन युवाओं को अपना फौलोअर्स बना रहा है और इन के द्वारा ऐसा कंटेंट परोसा जा रहा है जो भटकाने का ही काम कर रहा है.

 

यंगस्टर्स इन्फ्लुएंसर्स की फैन फौलोइंग देख कर उन पर आंख बंद कर के भरोसा कर रहे हैं और सोचते हैं कि वे उन्हें सही जानकारी दे रहे हैं जबकि ऐसा नहीं है.

 

यूनेस्को की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार कंटेंट क्रिएटर फैक्ट चेक करने से कतरा रहे हैं. यूनेस्को द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 62 फीसदी कंटेंट क्रिएटर किसी भी खबर या जानकारी को शेयर करने से पहले स्टैंडर्ड तरीके से उस का फैक्ट चेक नहीं करते हैं.

 

ये इन्फ्लुएंसर सिर्फ प्रोडक्ट्स या सर्विस के प्रचार तक सीमित रहते हैं. ये इन्फ्लुएंसर्स फैशन से ले कर रिलेशन तक, फिजिकल फिटनैस से ले कर स्किन केयर तक, ट्रेवल, इन्वेस्टमेंट, लाइफ स्टाइल, धर्म, राजनीति जैसी हर चीज पर एक्सपर्ट बन कर अपनी राय रखते हैं. और युवा जो इन की दी सलाह पर चलने में सक्षम नहीं होते वे कुंठा, असुरक्षा और हीनता की भावना से घिरने लगते हैं. अपने फैसलों को ले कर उन का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है और वे डिप्रेशन, बौडी डिस्मार्फिया, ऐंगजाइटी जैसी मानसिक समस्याओं में घिरने लगते हैं.

 

कोई इन इंफ्लुएंसर्स और इन के फौलोअर्स को समझाए कि जब किताब के एक पेज को पढ़ कर किताब की पूरी जानकारी नहीं मिल सकती तो क्या 15-30 सेकेंड के रील में इन्फ्लुएंसर्स जो जानकारी दे रहे हैं क्या सही दे रहे हैं?

आधी से ज्यादा गलत जानकारी 

 

किसी भी फील्ड के एक्सपर्ट को सालों की मेहनत, पढ़ाई, डिग्री, अनुभव के बाद अपनी फील्ड की जानकारी मिलती है. वे इस के स्पैशलाइज्ड होने के लिए सालों खपाते हैं. बाल सफ़ेद करते हैं लेकिन ये इंफ्लुएंसर्स खुद को 15 से 30 सैकंड की रील में स्पैशलाइज्ड समझने लगते हैं. ये अपने यंग फौलोअर्स को बिना जानकारी इकठ्ठा किए, पढ़े पूरे कौन्फिडेंस के साथ बढ़चढ़ कर जानकारी देते हैं. 

जो भी इन्फ्लुएंसर्स अपने यंग फौलोअर्स को जानकारी दे रहे हैं वे खुद उस फील्ड के एक्स्पर्ट्स नहीं हैं कुछ तो 12 वीं पास हैं, कुछ सिर्फ ग्रेजुएट हैं फिर उन के द्वारा दी जानकारी पर यूथ को क्यों भरोसा करना चाहिए, यह समझने वाली बात है.

यूथ इन इन्फ्लुएंसर्स की फैन फौलोइंग देख कर उन पर आंख बंद कर के भरोसा करते हैं और सोचते हैं कि वे उन्हें सही जानकारी दे रहे हैं जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता.

इंफ्लुएंसर्स सिर्फ रटीरटाई बातें कहते हैं, वह भी यहांवहां से जोड़तोड़ कर इकठ्ठा की गई होती हैं. उन्हें खुद नहीं पता होता कि वे क्या बोल रहे हैं बस वे स्क्रीन पर आ कर वह लाइंस बोल देते हैं और यूथ उन की बातों पर भरोसा कर लेता है.

 

इंफ्लुएंसर्स द्वारा रील्स, शौर्ट वीडियोज़ में दी जाने वाली जानकारी कई किताबों की आधीअधूरी लाइंस का कौकटेल होता है, जिस का कोई सिर पैर नहीं होता. कई बार तो रील का टाइटल कुछ और होता है और उस में कही जाने वाली बात कुछ और होती है. यह किसी भी यूथ को गुमराह करने के लिए काफी है. इन्फ्लुएंसर्स द्वारा दी जाने वाली इस तरह की बिना रिसर्च की आधीअधूरी जानकारी से यूथ में कन्फ्यूजन क्रिएट हो रहा है. वह सही गलत का जजमेंट नहीं कर पा रहा, उस की किसी भी बात या जानकारी को एनालाइज करने की पावर खत्म होती जा रही है.  

 

इंफ्लुएंसर पर ट्रस्ट सोचसमझ कर 

शायद आप नहीं जानते होंगे कि आज ऐसे कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स और वेबसाइट्स मौजूद हैं जहां से कोई भी पैसे दे कर फौलोअर्स, लाइक्स और व्यूज बढ़ाने की सर्विस ले सकता है. यानी कि फौलोअर्स खरीदे जा रहे हैं और इस के लिए बाकायदा सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स की ओर से स्पोन्सर्ड विज्ञापन दिखाए जाते हैं.  

इसलिए किसी भी इंफ्लुएंसर को फौलो करने और उस की जानकारी पर भरोसा करने से पहले संभल जाएं. अगर आप को सोशल मीडिया पर कोई ऐसी आईडी नजर आए जिस के फौलोअर्स अचानक ही बढ़ गए हों तो हो सकता है कि उस ने फौलोअर्स खरीदे हों. जी हां, सोशल मीडिया पर इन दिनों 50 रुपये में 1000 फौलोअर्स, 5 रुपये में 100 लाइक्स और 5 रुपये में 1000 व्यूज तक बढ़ाने के बेसिक पैकेज दे कर लोगों को अपनी ओर खींचा जा रहा है. कई डिजिटल मार्केटिंग एजेंसियां हैं जो व्यूज बढ़ाने के तरीक बताती हैं. फिर चाहे उस के लिए जैसे तिकड़म करने पड़ें.  

आप सोचेंगे कि इतने सस्ते में फौलोअर्स, लाइक्स कैसे मिलते हैं तो आप को बता दें कि ये डेड आईडीज का सहारा ले कर किया जाता है. न ये काम करती हैं और न ही इन पर कोई असली व्यक्ति होता है. यानी यह सब एक गोरख धंधा है यूथ को अपनी राह से भटकाने का.

 

यूथ पर नेगेटिव प्रभाव डालने वाले इंफ्लुएंसर्स से बच कर रहें 

 

आजकल इनफ्लुएंसर्स सट्टेबाजी ऐप और औनलाइन जुआ प्लेटफौर्म के विज्ञापन भी करने लगे हैं और यूथ सोचता है कि इतना बड़ा इनफ्लुएंसर प्रमोशन कर रहा है तो सही ही होगा और इस तरह के विज्ञापन से युवा उन पर विश्वास कर के अपना मोटा नुकसान कर बैठते हैं. कई फाइनेंस की भी जानकारी देते हैं, जिस में घुमाफिरा कर किसी विशेष शेयर को खरीदने की बात कह देते हैं, इस से भी कई लोग नुकसान उठा लेते हैं. इसलिए युवाओं को इन्फ्लुएंसर द्वारा दी जाने वाली जानकारी पर भरोसा न करने की सलाह दी जाती है.

ये इनफ्लुएंसर्स आर्थिक लाभ के लिए फैक्ट्स को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं. गलत जानकारियों के साथ खुद को इन्फ्लुएंसर्स के रूप में पेश करते हैं और बेचारा यूथ इन की बातों में आ कर इन की चमकधमक में उन्हें फौलो करने लगता है.  

 

फौलोअर्स के बेस पर नहीं करें इन्फ्लुएंसर्स का चुनाव 

आज युवा अपना सब से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिता रहा है. वह अब किताबों में अपनी समस्या का हल ढूंढने की जगह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है. ऐसे में एक बड़ा वर्ग इन युवाओं को अपना फौलोअर्स बना रहा है और इस वर्ग द्वारा ऐसा कंटेंट परोसा जा रहा है जिसे युवा अपनी राह से भटक रहा है, उन की बातों में आ रहा है. ये इन्फ्लुएंसर्स पैसे ले कर ऐसे कंटेंट की ब्रांडिंग कर रहे हैं जो यूथ के लिए नुकसानदायक है.  

 

रील्स के माध्यम से इन्फ्लुएंसर्स कुतार्किक बातें करते हैं कई तो धार्मिक उन्माद बढ़ाने तक का काम करते हैं. इतिहास के बारे में भी गलत जानकारी दी जा रही है. माइथोलौजिकल गपों से पूरा इंटरनेट भरा पड़ा है, इस में इन्फ्लुएंसर्स की बड़ी भूमिका है जो अनापशनाप कुछ भी बिना तथ्यों के कहते रहते हैं.  

सोशल मीडिया में इन्फ्लुएंसर्स द्वारा दिखाई जाने वाली 30 सेकंड की रील्स को मनोरंजन के लिए देखना तो कुछ हद तक ठीक भी है लेकिन इन रील्स को यूथ नौलेज कंजंप्शन का जरिया भी मानने लगा है जो उन के लिए खतरनाक है.

कई इन्फ्लुएंसर्स यूट्यूब शौर्ट्स, इंस्टाग्राम पर सेहत, डाइट और न्यूट्रिशन के बारे में भर भर कर जानकारी दे रहे हैं और यूथ इन्हें आम जिंदगी में अप्लाइ भी कर रहे हैं. यूथ को इस जानकारी को अपनी ज़िंदगी में अप्लाई करने से पहले यह समझना होगा कि ये इन्फ्लुएंसर्स सर्टिफाइड डाक्टर्स, न्यूट्रीशनिस्ट या हैल्थ एक्सपर्ट नहीं हैं. कई हैल्थ के उटपटांग टिप्स देते हैं. एक इन्फ्लुएंसर का दूसरे की बात काटना इसलिए भी जरुरी हो जाता है ताकि लोग उसे अहि मानें, इसलिए इन की बातें आपस में मेल भी नहीं खातीं. बहुत से प्रोडक्ट का प्रचार करने के लिए जबरन तारीफें करते हैं.

 

98% गलत जानकारी पर आंख मूंद कर भरोसा 

 

हाल ही में आई माय फिटनेस पैलऔर डब्लिन सिटी यूनिवर्सिटीकी एक जोइंट स्टडी के मुताबिक 57% मिलेनियल और जेन-जी यूजर्स सोशल मीडिया रील्स में दी जा रही जानकारी को सच मान कर अपनी जिंदगी में अप्लाई कर रहे हैं. स्टडी में ये भी पता चला कि न्यूट्रीशन और डाइट के बारे में सिर्फ 2% वीडियोज में ही सही इंफौर्मेशन दी गई है. यानी 98% लोग गलत जानकारी दे रहे हैं, जिसे यूथ आंख मूंद कर फौलो किए जा रहा है. 

हैल्थ और न्यूट्रिशन के ये वीडियोज की बातों को फौलो करना बेहद खतरनाक हो सकता है क्योंकि इन वीडियोज में लोग एक जेनेरिक किस्म का डाइट प्लान बताया जाता है जो हर देखने वाले के लिए सही नहीं हो सकता क्योंकि हर किसी का बीएमआई इंडेक्स, उस के गोल्स और न्यूट्रीशनल जरूरतें अलगअलग होती हैं. दो लोगों का एक्टिविटी लेवल अलग हो सकता है.  किसी की सिटिंग जौब हो सकती है तो किसी की फील्ड जौब. ऐसे में दोनों की डाइट एक जैसी कैसे हो सकती है ?

सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर किसी भी सब्जेक्ट का एक्सपर्ट बन कर ज्ञान दे रहा है और जो युवा इसे बिना सोचेसमझे फौलो कर रहे हैं, उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो में कहा गया, “आजकल हर कोई सफेद बालों की समस्या से परेशान है. लेकिन अगर आप यह रेसिपी अपने बालों में लगाते हैं, तो बुढ़ापे में भी सफेद बाल नहीं होंगे.” 

यह वीडियो ब्यूटी और पर्सनल केयर इंफ्लुएंसर, सुमन द्वारा अपलोड किया गया था. वीडियो में दिखाया गया कि एक इंफ्लुएंसर ने बैंगन को तेल में डुबो कर गरम किया, फिर उस में रोजमैरी और शिकाकाई डाला. इस तेल को एक जार में भर कर उसे बालों में लगाने का तरीका बताया. पर क्या प्रूफ है कि इस से बाल काले ही हो जाएंगे? नहीं हुए तो क्या इन्फ्लुएंसर सार्वजनिक माफ़ी मांगेगी?

इस वीडियो के वायरल होने के बाद यह सवाल उठने लगा है कि क्या सोशल मीडिया पर किसी भी प्रकार के हेयर केयर टिप्स को सही मान कर फौलो करना चाहिए. 

उभरे और मोटे होंठ आज हर युवा लड़की की ख्वाहिश बनते जा रहे हैं. होंठों को मोटा बनाने के लिए लड़कियां कई तरह की कास्मेटिक सर्जरी, फिलर्स और ब्यूटी हैक्स ट्राई कर रही हैं. ऐसे में पिछले दिनों दिल्ली की एक मशहूर इंफ्लुएंसर सुभांगी आनंद ने इंस्टाग्राम पर होंठों को मोटा करने का एक ऐसा हैक शेयर किया है जिस ने हर किसी को चौंक दिया. 

शुभांगी का यह वीडियो इंस्टाग्राम पर वायरल हो रहा है. इस वीडियो में शुभांगी आनंद हरी मिर्च का इस्तेमाल नेचुरल लिप प्लम्पर की तरह करती नजर आ रही हैं. वीडियो में देखा जाता है कि शुभांगी पहले हरी मिर्च काटती हैं और फिर उसे होंठों पर लगाती हैं. 2 सेकेंड के बाद ही उन के होंठ बिल्कुल फूले और मोटे नजर आ रहे हैं.

कई इंटरनेट यूजर्स ने इसे खतरनाक बताया. जबकि कुछ लड़कियां इसे ट्राई करने और सही होने का दावा कर रही हैं. मैडम को शायद यह नहीं पता कि यह होंटो को मोटा करने की विधि नहीं बल्कि सुझाने की विधि है. जबकि हैल्थ एक्सपर्ट्स ने मिर्ची के इस्तेमाल से होंठों को मोटा करने के तरीके को गलत और स्किन साइड इफैक्ट्स वाला बताया है क्योंकि होंठों की त्वचा बहुत ही पतली और नाजुक होती है. ऐसे में हरी मिर्च का तीखापन और उस में मौजूद कैप्साइसिन होंठों को नुकसान पहुंचा सकता है. हरी मिर्च के तीखे तत्व होंठों की प्राकृतिक नमी को खत्म कर सकते हैं. इस की वजह से होंठ ड्राई और फटे हुए नजर आ सकते हैं. हरी मिर्च होंठों पर लगाने से खून आने का खतरा भी रहता है.  

 

फाइनैंस एडवाइस देते इंफ्लुएंसर्स 

सोशल मीडिया पर इन दिनों फाइनेंसियल एडवाइस देते इन्फ्लुएंसर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है. कोई क्रिप्टो में पैसे लगाने की सलाह देता है कोई शेयर मार्किट में. हद तो यह है कि कई बेटिंग में भी पैसा लगाने की बात करते हैं. ये गलत डेटा शेयर करते हैं. 

ऐसे इन्फ्लुएंसर्स के हजारोंलाखों सब्सक्राइबर्स होते हैं. इन के वीडियोज पर अच्छीखासी संख्या में व्यूज़ भी आते हैं. कई बार उन की रील्स या वीडियो देख कर युवा निवेशक अपने पैसा लगा देते है जो उन्हें बहुत भारी पड़ता है. 

सच तो ये है कि बहुत कम युवा सोशल मीडिया पर ज्ञान के सही स्रोत तक पहुंच पाते हैं.  सोशल मीडिया ने असल जिंदगी और डिजिटल लाइफ के बीच का फर्क ही मिटा दिया है. युवा अब एक काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं. वे परिवार से, दोस्तों से, किताबों से और प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं. यूथ को इस बात को समझना होगा कि कौन से इन्फ्लुएंसर्स उन के हित में हैं और कौन उन्हें भ्रमित कर रहे हैं. बिना सोचेसमझे उन की कही हर बात का अनुसरण करना यूथ को खतरे में डाल सकता है.

YouTube : यूट्यूब पर भूतिया दुकान चलाते क्रिएटर्स

YouTube : आजकल यूट्यूब ऐसे चैनलों की भरमार है जिन में भूतों की घटनाओं, चुड़ैल का साया, वशीकरण, भटकती आत्माओं, ब्लैक मैजिक के किस्सेकहानियां सुनने को मिलते हैं. ये किस्से कौरी कल्पनाएं होती हैं जिसे ये लोगों तक पहुंचा रहे हैं.

 

यूट्यूब पर देखें तो कुछ क्रिएटर्स ब्रह्मांड की चीख से ले कर, खून पीने वाले पेड़ों, ड्रेकुला, भूतों, नरभक्षियों, जंगली आत्माओं, पिशाचों, चुड़ैलों की उलजलूल कहानियों पर कंटेंट बना रहे हैं. इन्हें देखने वाले लाखों व्यूअर्स हैं. ये कहानियां ऐसे बताते हैं कि लगता है सही कह रहे हैं. कई लोग इन की कही बातों को सही मान बैठते हैं और उसी तरह चीजों को सोचने लगते हैं. 

 

इन की काबिलियत इसी में है कि डरावनी कहानी सुनाने में ये एक माहौल और भूतिया सेटिंग बना लेते हैं. इस में ये परफैक्ट होते हैं. यही वजह है इन के फौलोवर्स की संख्या बढ़ती ही जा रही है. मगर यहां जो भी कंटेंट दिखाया जा रहा है वह समाज में अंधविश्वास फैलाने का काम कर रहा है जोकि सही नहीं है. 

 

इन्हें देखने वाले अधिकतर टीनएजर्स हैं, जिन पर भूत प्रेत जैसी बातें छोटी उम्र से ही इंपैक्ट करने लगती हैं. क्या यह सही है?  भूतप्रेत जैसे पोंगा के किस्सेकहानियां क्या विज्ञान की दुनिया में युवाओं को पीछे धकेलने का काम नहीं करते?

 

एक समय था जब गांवों में भूत प्रेत के किस्से खूब फैले होते थे. लोग रात में अंधेरे में जाने से डरते थे. आज उसी गांव में स्ट्रीट लाइट लगी तो वहां से भूत और उस के किस्से भी गायब होते दिखाई दिए. असल वजह है अंधेरा जो डराता है. दिल्ली जैसा शहर दिन और रात दोनों समय जगा रहता है, यहां अंधेरा नहीं होता इसलिए भूत जैसी कौरी बकवास यहां नहीं फैलते.   

 

क्या इस से देश और दुनिया का विकास होगा

 

ऐसा हो क्यों है कि सरकार इस तरह के कंटेंट पर कोई कंट्रोल नहीं करती? क्या यह अंधविश्वास और पाखंड फैलाने वालों में शामिल नहीं होते? इन सोशल मीडिया क्रिएटर्स की क्या समाज के प्रति कोई जिम्मेवारी नहीं है? क्या इन का काम सिर्फ अपनी भूतिया दुकाने चला कर पैसा कमाना रह गया है?

 

वैसे तो डरावनी चीजें हमेशा से ही रोमांचित करती रही हैं और अपनी ओर आकर्षित भी करती रही हैं. कुछ टीनएजर्स को भूत की कहानियां सुनना पसंद होता था. वह अपनी दादी नानी से फैयरी टेल्स की कहानियां सुनते आए हैं लेकिन वे मीठी सी काल्पनिक कहानियां होती थीं जिस में डर से ज्यादा ख़ुशी का एहसास होता था और बड़े होतेहोते सब समझ आ जाता था. 

 

लेकिन अब यूट्यूब पर तमाम ऐसे क्रिएटर्स की भीड़ इकठा है जो युवाओं में भूतप्रेत के किस्से कहानियों का कचरा भर रहे हैं और साथ में दावे भी कर रहे हैं. वे औनलाइन हौरर कंटेंट की भीड़ भरी दुनिया में अपने चैनल को अलग दिखाने के लिए कुछ भी अंटशंट बक रहें हैं. इस का सीधासीधा असर युवाओं के वास्तविक जीवन पर भी पड़ रहा है. 

 

इन की ही इस तरह की मनगढ़ंत कहानियों का ही नतीजा है कि आम जीवन में भूत के द्वारा कभी चोटियां कट रही हैं. कभी चुड़ैल के आने की बात होती है, तो कभी भगवान अपनेआप दूध पीते नजर आने लगते हैं. इसे अलौकिक शक्ति, अंधविश्वास या धार्मिक फरेब जो भी कहें – मसलन यह है बेवकूफ बनाने की विधि. 

आइए जानते हैं ऐसे क्रिएटर्स के बारे में-

 

हौरर यूट्यूबर प्रिंस सिंह 

 

अपने हौरर यूट्यूब चैनल के साथ लोगों को डराने के लिए यूट्यूबर प्रिंस सिंह काफी फेमस है, अपनी अनोखे अंदाज में डरावनी कहानी सुनाने के लिए वह जाना जाता है. यहां वह कहानी को ऐसे सुनता है जैसे उस के खुद के साथ ये घटनाएं घटी हों. वह कई रोचक ऐतिहासिक तथ्यों, असाधारण घटनाओं और रहस्यमयी चीजों को कवर करता है. 

 

प्रिंस सिंह ने अपना यूट्यूब चैनल 2020 में बनाया और उस के 3 लाख 75 हजार फौलोवर्स हैं.  प्रिंस के दादा एक ज्योतिष और तांत्रिक रहे हैं. पुराने समय में गांव के आसपास के लोग उन के पास समस्या का समाधान, आत्मा का निवारण करवाने आते थे. तब से ही प्रिंस सिंह इन सभी को देखते हुए आ रहा है जिस का उस ने औनलाइन धंधा बना लिया है. 

 

प्रिंस सिंह पेशे से टीचर है और वह अपने क्लास में स्टूडैंट को भी हौरर स्टोरी सुनाता है. अब आप खुद ही सोचिए कि जब टीचर ऐसे होंगे तो वहां के बच्चे क्या ही सीखेंगे. जरा इस की कहानियों के नाम तो एक बार सुन लें. वह हैं शक्तिशाली चुड़ैल बनी जान की दुश्मनएक आत्मा ने लिया बदलाजिम कौर्बेट नैशनल पार्क की असली घटना, वैलेंटाइन डे स्पैशल डरावनी कहानी भी है. 

 

मतलब साफ है इन कहानियों का वास्तविकता से कोई लेनादेना ही नहीं है. यह मनगढ़ंत काल्पनिक कहानी तैयार करता है और युवा अपना सब काम वाम छोड़ कर इन्हें सुन कर सच मानने तुरंत पहुंच भी जाते हैं. तभी तो इस के फौलोवर्स की संख्या इतनी ज्यादा है. 

 

भूतिया यूट्यूबर संयम अंगी

 

सिर्फ यही नहीं बल्कि एक और यूट्यूबर है संयम अंगी. इस ने भी भूत प्रेतों पर स्पैशलाइजेशन किया हुआ है. यह साहब तो अपनी खुद के साथ घटी हुई सच्ची भूतों की कहानियां मसाला और स्पैशल इफैक्ट डाल कर बताता है कि एक बार को तो सुनने वाला इन्हें सच ही मान बैठेगा. लेकिन अगर बारबार इस की कहानियां सुनो तो किसी भी दिमाग वाले को लगेगा कि इस एक ही इंसान के साथ इतनी बार इस तरह की घटनाएं कैसे हो सकती हैं. लेकिन जो अपना दिमाग घर रख कर आए हों उन से क्या कहना. चलिए हम उस की एक ऐसी ही कहानी के बारे में बताते हैं. जिस में वह बता रहा है कि उस ने खेतों में एक डरावनी चुड़ैल को देखा और चुड़ैल ने इसे मारा भी लेकिन भाईसाहब में दम है फिर भी जिंदा बच कर आ गया. 

 

इस ने तो बच्चों को नहीं बख्शा इस की एक कहानी है [गिट्टू राक्षस ]जिस में एक छोटा बच्चा प्रेत बन जाता है क्योंकि उस के मातापिता ने उस का क्रियाकर्म अच्छे से नहीं किया था. यानी कि पंडितों को ढंग से दानदक्षिणा नहीं दिया गया. फिर क्या भूत की नाराजगी दूर करने के लिए सारे रिचुअल्स करवाए गए. किस्से के अनुसार अब उस बच्चे की फोटो लगा कर उसे पूजा जाता है. 

 

यह हनुमान से सिद्धि हासिल करने की एक और सच्ची घटना बताता है. जिस में हनुमान जी ने इडी का टेस्ट लेने के लिए कुछ लड़कियों के रूप में सुंदरियां तक भिजवा दी. इस की मानें तो आने वाले समय में अब भूत प्रेतों के भी मंदिर बनेंगें और उन्हें पूजा जाएगा. हद तो यह है कि ऐसे बेसिर पैर की बातों को टीनएजर खूब चटकारे ले कर सुन रहें हैं. 

 

यूट्यूबर अक्षय वशिष्ट

 

इस लिस्ट में एक नाम है अक्षय वशिष्ट का. इस की दुकान भी यूट्यूब पर मौजूद है, जिस में इस ने भूतिया कहानियों का ज़िक्र कर लोगों को डराने का काम किया है, जैसे कि ऋषिकेश की हौन्टेड रोड ट्रिप, उड़ीसा का शमशानी कालेज, मध्य प्रदेश की खूनी झील, गुडगांव के भूतिया घर की सच्ची कहानी, इस ने तो पुलिस वालों को भी नहीं छोड़ा उन पर भी एक स्टोरी बना दी. पुलिस वालों के सामने आई चुड़ैल. 

 

अपने एक ब्रौडकास्ट मित्र के साथ मिल कर यह कहानियों को ऐसे सुनाता है मानो ये घटना तो इस के साथ कल ही घटित हुई हो. इस के आलावा भी बहुत से नाम हैं जैसे गौरव कटारे, वी के रावत, अंकन बोस, उमेश रोताके आदि जो भूत प्रेतों की दुकानें यूट्यूब पर चला रहे हैं. 

 

इसी प्रकार इन यूट्यूबर की कई ऐसी कहानियां हैं जब किसी इंसान के शरीर में आत्मा का प्रवेश हो जाता है और वह अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है, तो वास्तविक जीवन की घटनाओं की परेशान करने वाली कहानियां अपने इस चैनल के माध्यम से दिखाते हैं. पूरे भारत देश भर से फौरर स्टोरी लोग उन से शेयर करते हैं और वो अपने यूट्यूब चैनल पर उसे चलाते हैं. इस तरह ये कहानियां यूट्यूब चैनल के माध्यम से सभी की पहुंच में हो गए हैं. 

 

टीनएजर्स समझें इस बात को-  

 

निर्णय लेने की शक्ति में बाधा 

 

जब आप भूतों और अकाल्पनिक शक्तियों पर भरोसा करने लग जाते हैं, तो वास्तविक जगत से दूर होने लगते हैं और तब लगता है कि पढ़ाईलिखाई की भी क्या जरुरत है, बाबाओं के चमत्कार और जादू से मैं पास हो जाऊंगा. अपनी कोई सोच विचार नहीं रहते. 

 

निकम्मा बनाते हैं 

 

ये यूट्यूबर खुद तो उलटीपुलटी कहानियां सूना कर पैसा बना रहे हैं मगर आम युवाओं और तीनएजर्स का बड़ागर्क कर रहे हैं. ये कामधंधा और पढ़ने की उम्र में में चमत्कारों के भरोसे बैठ जाते हैं. 

 

समय की बर्बादी है 

 

जब घंटोंघंटों इस तरह की चीजों को देखने में निकल जाएंगे, तो अपने कैरियर पर फोकस करने के लिए वक्त कहां से मिलेगा. वक्त होगा तब भी आप इन काल्पनिक कहानियों में खोए रहेंगे. 

 

दुनिया आगे जा रही है आप पिछड़ जाएंगे 

 

आप किसी भी पढ़ेलेखे अच्छे व्यक्ति से बात करने लायक भी नहीं रह जाएंगे क्योंकि आप के पास बात करने लायक ज्ञान होगा ही नहीं. कुछ नौलेज की चीज देखेंगे तो कुछ सीखेंगे न. जो देखेंगे वैसे ही बनेगें. 

 

क्रिमिनल माइंड बनते देर नहीं लगेगी 

 

आज जो क्रिमिनल्स कोलकाता और निर्भया जैसे कांड में इन्वोल्व रहते हैं. उन का दिमाग ऐसा ही कंटेंट देख कर शैतानी हो जाता है और वे कुछ कर बैठते हैं. इस से अच्छा है कि पत्र पत्रिकाएं पढ़ी जाएं. जहां से ज्ञान भी मिले और तर्क भी मजबूत हो. इन जैसे इन्फ्लुएंसर्स को देखने से समय बरबाद तो होगा ही साथ में दिमाग में कचरा ही जाएगा.

Indian National Congress : जनता को कैसे मिलेगा हिस्सेदारी न्याय ?

Indian National Congress : कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जिन गांरटी की बात की है वह जनता के कितने गले उतरेगी यह सोचने वाली बात है ?

2024 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस भारत जोड़ो न्याय यात्रा के 5 स्तंभों किसान न्याय, युवा न्याय, नारी न्याय, श्रमिक न्याय और हिस्सेदारी न्याय को चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया है. हर वर्ग में 5 गारंटी हैं. इस तरह से कांग्रेस पार्टी ने कुल 25 गारंटियां दी हैं. 1926 से ही देश के राजनीतिक इतिहास में कांग्रेस घोषणापत्र को ‘विश्वास और प्रतिबद्धता का दस्तावेज’ माना जाता है. कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन का कहना है कि देश बदलाव चाहता है. मौजूदा मोदी सरकार की गारंटियां का वही हश्र होने जा रहा है जो 2004 में भाजपा की ‘इंडिया शाइनिंग’ नारे का हुआ था. इस के लिए हमारे हर गांव और शहर के कार्यकर्ता को उठ खड़ा होना होगा. घरघर अपने घोषणापत्र को पहुंचाना होगा.

हिस्सेदारी न्याय में गिनती करो यानी जातीय गणना का मुददा पहला है. दूसरा मुद्दा आरक्षण का हक है. जिस के तहत कहा गया है कि आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा रेखा हटा दी जाएगी. जनसंख्या हिस्सेदारी के अनुसार एससी और एसटी को बजट में हिस्सा दिया जाएगा. वन अधिकार के तहत जल, जंगल और जमीन का कानूनी हक दिया जाएगा. अपनी धरती अपना राज्य के तहत जहां एसटी सब से ज्यादा है वहां उन को हक दिया जाएगा. वह क्षेत्र एसटी घोषित होंगे.

साधारण तरह से देखें तो यह दिखता है कि हिस्सेदारी की इस गारंटी में ओबीसी का नाम नहीं है. जिस ओबीसी को ले कर राहुल गांधी भाजपा और मोदी से सवाल कर रहे थे वह पूरी तरह से गायब है. देश पर सब से अधिक समय तक कांग्रेस की हुकूमत रही है. उस ने कभी धर्म और जाति के मसले को हल करने की कोशिश नहीं की. ऐसे में जनता कांग्रेस की इन गारंटी पर कितना भरोसा करेगी यह अहम सवाल है.

जब जाति और उस के अधिकार की बात आती है तो समझ आता है कि अंगरेजों के समय जो कांग्रेस थी उस की सोच सवर्णवादी थी. पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम में पंडित नहीं होता तो कांग्रेस में वह होते ही नहीं. लोकमान्य तिलक से ले कर सरदार बल्लभ भाई पटेल तक हिंदूवादी मानसिकता के थे. मुगल काल देश में जाति व्यवस्था नहीं थी. अंगरेजों ने जनगणना के माध्यम से जाति व्यवस्था को मजबूत करने का काम किया. उन का सोचना था कि वह भारत में राज करने के लिए आए है, समाज सुधार करने नहीं आए हैं. आर्य समाज जैसे संगठनों ने जाति सुधार की बात कही पर उस से धर्म जाति व्यवस्था खत्म नहीं हुई उल्टे देश में धर्म का प्रभाव बढ़ा जिस के फलस्वरूप देश आजादी के समय दो अलगअलग देशों में बंट गया.

अंगरेजों ने जाति व्यवस्था को स्वीकार किया

हमारे समाज में आज जो जाति व्यवस्था देखने को मिल रही है वह मुगल काल के पतन और भारत में अंगरेजी हुकूमत की शुरूआत में आगे बढ़ी. 1860 और 1920 के बीच अंगरेजों ने भारतीय जाति व्यवस्था को अपने सरकार चलाने का हिस्सा बना लिया था. प्रशासनिक नौकरियां और वरिष्ठ नियुक्तियां केवल ईसाइयों और कुछ जातियों के लोगों को दी गईं.

1920 के दशक के दौरान सामाजिक अशांति के कारण इस नीति में बदलाव आया. 1948 में जाति के आधार पर नकारात्मक भेदभाव को कानून द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया और 1950 में इसे भारतीय संविधान में शामिल किया गया. भारत में 3,000 जातियां और 25,000 उप-जातियां हैं.

जाति शब्द पुर्तगाली शब्द कास्टा से लिया गया है. जिस का अर्थ है नस्ल, वंश और मूल रूप से शुद्ध हो. यह भारतीय शब्द नहीं है. अब यह अंगरेजी और भारतीय भाषाओं में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है. ऋग्वेद के समय (1500-1200 ईसा पूर्व) में दो वर्ण आर्य वर्ण और दास वर्ण थे. यह भेद मूलत: जनजातीय विभाजनों से पैदा हुआ. वैदिक जनजातियां स्वयं को आर्य मानती थीं और प्रतिद्वंद्वी जनजातियों को दास, दस्यु और पणि कहा जाता था. दास आर्य जनजातियों के लगातार सहयोगी थे. इन को आर्य समाज में शामिल कर लिया गया, जिस से वर्ग भेद को जन्म मिला.

वर्ण से बनी जातियां

अथर्ववेद काल के अंत में नए वर्ग भेद सामने आए. पहले दासों का नाम बदल कर शूद्र कर दिया गया. आर्यों का नाम बदल कर वैश्य कर दिया गया. ब्राह्मणों और क्षत्रियों के नए कुलीन वर्गों को नए वर्ण के रूप में देखा जाने लगा. शूद्र न केवल तत्कालीन दास थे बल्कि इस में वे आदिवासी जनजातियां भी शामिल थीं जो गंगा की बस्तियों में विस्तार के साथ आर्य समाज में शामिल हो गईं.

उत्तर वैदिक काल में प्रारंभिक उपनिषद में, शूद्र को पूसन या पोषणकर्ता कहा गया. इस का अर्थ शूद्र मिट्टी को जोतने वाले थे. अधिकांश कारीगरों को भी शूद्रों के वर्ग में खड़ा कर दिया गया. ब्राह्मणों और क्षत्रियों को अनुष्ठानों में एक विशेष स्थान दिया गया है. जो उन्हें वैश्यों और शूद्रों दोनों से अलग करता है. ब्राह्मणवादी ग्रंथ 4 तरह की वर्ण व्यवस्था की बात करते हैं. बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को वर्ण के बजाय जाति के रूप में वर्णित किया गया है. शूद्रों का उल्लेख चांडाल, बांस बुनकर, शिकारी, रथ निर्माता और सफाईकर्मी जैसे व्यावसायिक वर्गों के रूप में किया गया था.

महाभारत में वर्ण व्यवस्था का जिक्र मिलता है. भृगु के माध्यम से यह बताया गया कि ब्राह्मणों का वर्ण सफेद, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला था. इन वर्गो के कामों के आधार पर भी विभाजन किया गया. सुख और साहस के इच्छुक को क्षत्रिय वर्ण, जो लोग पशुपालन में रुचि रखते थे और हल चला कर जीवन यापन करते थे, उन्हें वैश्य वर्ण में रखा गया. जो लोग हिंसा, लोभ और अपवित्रता के शौकीन थे उन्हें शूद्र वर्ण कहा गया. ब्राह्मण वर्ग को सत्य, तपस्या और शुद्ध आचरण के प्रति समर्पित मनुष्य के रूप में दर्शाया गया.

मुसलिम इतिहासकारों हाशिमी और कुरेशी ने 1927 और 1962 में प्रकाशित पुस्तक में यह प्रमाणित किया कि भारत में जाति व्यवस्था इसलाम के आगमन से पहले स्थापित हो गई थी. यह और उत्तर पश्चिम भारतीय उपमहाद्वीप में खानाबदोश जंगली जीवनशैली इस का प्रमुख कारण था. जब अरब मुसलिम सेनाओं ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया तो बड़े पैमाने पर निचली जातियों ने धर्मांतरण किया. इसलाम में जाति व्यवस्था नहीं थी. इस कारण से मुगल काल में जाति व्यवस्था को बढ़ावा नहीं मिला. इतिहास के प्रोफैसर रिचर्ड ईटन का दावा है कि भारत में इसलामिक युग से पहले हिंदू जाति व्यवस्था थी.

मुगलों के दौर में नहीं थी जाति व्यवस्था

प्रोफैसर पीटर जैक्सन लिखते हैं कि मध्ययुगीन दिल्ली सल्तनत काल (1200 से 1500) के दौरान हिंदू राज्यों में जाति व्यवस्था के लिए हिंदू धर्म जिम्मेदार है. जैक्सन का कहना है कि जाति के सैद्धांतिक मौडल के विपरीत जहां केवल क्षत्रिय ही योद्धा और सैनिक हो सकते हैं, ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि मध्ययुगीन युग के दौरान हिंदू योद्धाओं और सैनिकों में वैश्य और शूद्र जैसी अन्य जातियां भी शामिल थीं. जैक्सन लिखते हैं इस बात का कोई सबूत नहीं है कि 12वीं शताब्दी के अंत में निचली जाति के हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से इसलाम में धर्म परिवर्तन किया गया था.

ब्रिटिश शासन के दौरान 1881 की जनगणना में लोगों की गिनती जाति के रूप में की गई. 1891 की जनगणना में 60 उप समूह शामिल थे, जिन में से प्रत्येक को 6 व्यावसायिक और नस्ल की श्रेणियों में विभाजित किया गया था. बाद की जनगणनाओं में यह संख्या बढ़ गई. 1860 और 1920 के बीच अंगरेजों ने अपनी शासन प्रणाली में जाति व्यवस्था को शामिल कर लिया, प्रशासनिक नौकरियां और वरिष्ठ नियुक्तियां केवल उच्च जातियों को दी गईं. जनजातियों में अपराधी किस्म के लोगों को रखा गया.

ब्रिटिश सरकार ने 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू किया. इस कानून ने घोषित किया कि कुछ जातियों के सभी लोग आपराधिक प्रवृत्ति के साथ पैदा हुए थे. इतिहास के प्रोफैसर रामनारायण रावत कहते हैं कि इस अधिनियम के तहत जन्म से अपराधी जातियों में अहीर, गुर्जर और जाट शामिल थे. बाद में इस में अधिकांश शूद्र और अछूत, जैसे चमार और साथ ही संन्यासी और पहाड़ी जनजातियां शामिल हैं.

1900 से 1930 के दशक के दौरान पश्चिम और दक्षिण भारत में आपराधिक जातियों की संख्या बढ़ी. सैकड़ों हिंदू समुदायों को आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत लाया गया. 1931 में अकेले मद्रास प्रेसीडैंसी में 237 आपराधिक जातियों और जनजातियों को इस अधिनियम के तहत शामिल किया. इस तरह से देश जाति में बंटा और धर्म उस के ऊपर हावी हो गया. हिंदू धर्म को बढ़ावा देने वालों में दक्षिणापंथी लोग तो थे ही कांग्रेस में भी बड़े पैमाने पर इस विचार धारा के लोग हावी रहे. जिस से मतभेद के कारण जवाहर लाल नेहरू समाज में वह सुधार नहीं कर पाए जिस के बारे में वह सोचते थे.

Best Hindi story : सुधीर किसके बारे में सोचकर परेशान रहता था

Best Hindi story : सुधीर सोच रहा था मां क्या सोचेंगी जब बैंक के संयुक्त खाते में उन्हें 50 हजार रुपयों की जगह केवल 400 रुपए मिलेंगे. शायद उन्हें इस बात का आभास हो जाएगा कि फर्ज की जिस किताब पर सुधीर नोटों का कवर चढ़ाता आ रहा था, उस कवर को शायद उस ने हमेशा के लिए फाड़ कर फेंक दिया है. सब लोग खर्राटे ले रहे थे लेकिन सुधीर की आंखों में नींद नहीं थी. न जाने अपने जीवन की कितनी रातें उस ने बिना सोए ही बिताई थीं अपने घर वालों के बारे में सोचतेसोचते.

‘‘हमारे मकान मालिक का लड़का 7 साल पहले लंदन पढ़ने गया था. उस ने घर वालों को उन के हाल पर छोड़ दिया है. बेटे का फर्ज कभी निभाया ही नहीं उस ने,’’ अपने बारे में सुरेंद्रजी के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गया सुधीर.

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दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर पिताजी के अलावा सुधीर के स्वागत के लिए घर के सभी लोग आए थे. लंदन से उड़ान भर कर विमान रात को 3 बजे दिल्ली पहुंचा था. पिताजी के लिए इतनी रात में हवाई अड्डे पहुंचना काफी कठिन था. 5 साल पहले उन को पक्षाघात हो गया था. तभी से वे घर की चारदीवारी में कैद हो कर रह गए थे. पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में ऊंचे पद पर काम करते थे. कंपनी वालों ने उन को काफी अच्छी रकम दी थी उन की लंबी सेवा के उपलक्ष्य में. सब्जीमंडी में पुश्तैनी घर की निचली मंजिल पर पिताजी का कब्जा था.

परिवार में 4 बच्चों में सिर्फ सुधीर ही काम पर लगा हुआ था. 7 साल पहले वह बनारस से इंजीनियरिंग कर के लंदन चला गया था. वहीं नौकरी मिल गई. इरादा था कि कुछ अनुभव हासिल कर के भारत लौट आएगा, परंतु ऐसा हो न पाया. पिताजी को जब पक्षाघात हुआ था तब वह भारत आया था. उस का बड़ा मन था कि लंदन की नौकरी छोड़ कर भारत में ही परिवार के साथ रहे. पर घर के सब लोगों की सलाह थी कि अगर एक बार लंदन से भारत आ गया तो फिर दोबारा चाह कर भी लंदन नहीं जा सकेगा. भारत में तो उसे मुश्किल से 5-6 हजार रुपए की नौकरी मिलेगी. फिर कोई भरोसा नहीं कि उसे नौकरी दिल्ली में ही मिल पाएगी.

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लंदन में नौकरी कर के सुधीर घर वालों की आर्थिक मदद तो कर ही सकता था. वह हर माह लंदन से पैसे भेज दिया करता था. साल में वह एक बार 4 हफ्तों के लिए भारत अवश्य आता था. लंदन में सुधीर एक कमरे के फ्लैट में रहता था. उस के साथ भारत से वहां गए कई युवक तो अब शादी कर के बालबच्चे वाले हो गए थे. उन्होंने अच्छेअच्छे बड़े घर खरीद लिए थे परंतु सुधीर उसी एक कमरे में दिन गुजार रहा था. उस को तो बस पैसे कमाने और बचाने की धुन थी. एक यही ध्येय था कि परिवार की गाड़ी चलती रहे.

शुरूशुरू में तो मां सुधीर की शादी का जिक्र भी करती थीं परंतु अब उन्हें भी इस बात का आभास हो गया था कि वह घर वालों की आर्थिक मदद इसीलिए कर पाता है क्योंकि उस की शादी नहीं हुई है. शादी हो जाने पर वह इतनी मदद नहीं कर सकता. आजकल के जमाने की लड़की ससुराल वालों की इतनी आर्थिक मदद कहां करने देगी. बेचारे पिताजी तो पक्षाघात के पश्चात शायद इतना अधिक सोचनेसमझने के योग्य नहीं रह गए थे कि उस की शादी की सोचते. पिछली जनवरी को वह 32 साल का हो गया था.

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सुधीर की अटैची और बैग तो संजय ने उठा लिए. मां के पीछे अलका खड़ी थी. वह अब 20 साल की हो गई थी. मां को उस की शादी की चिंता सता रही थी. संजय भी इस साल इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश लेने के लिए परीक्षा की तैयारी कर रहा था. सब से छोटी नताशा अभी 14 साल की ही थी. परिवार में वह सब की लाड़ली थी. टैक्सी से जब वे घर पहुंचे तो पिताजी जागे हुए थे. पिछले साल से वे कुछ और दुबले हो गए थे. सुधीर की आंखें भर आईं. सुबह के 5 बज गए थे. मां सब को कुछ देर आराम करने के लिए कह रही थीं. सुधीर की चारपाई संजय के कमरे में ही लगा दी गई थी. मां ने जिद कर के पिताजी को सोने के लिए भेज दिया.

वैसे सुधीर को मालूम था कि हमेशा की तरह अब कोई नहीं सोएगा. मां के कहने पर अलका चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई. सुधीर ने अपनी अटैची खोल कर सारी चीजें निकाल लीं. उसे मालूम था कि नताशा चैन नहीं लेगी, जब तक वह सुधीर द्वारा लाई हुई चीजें देख नहीं लेगी. हमेशा की तरह सुधीर अपने लिए तो पहनने के कपडे़ भी नहीं लाया क्योंकि उस के कपड़ों का एक संदूक यहां था ही. वह मां और अलका के लिए कई साडि़यां लाया था. नताशा के लिए 2 पोशाकें थीं. पिताजी के लिए गरम कोट व कमीजें और संजय के लिए सूट, पतलूनें व कमीजें थीं. सब के लिए वह एकएक स्वेटर भी लाया था. अलका अपनी साडि़यां देख कर बहुत खुश हुई और नताशा ने सुधीर को धन्यवाद की मीठी पप्पी दी.

सुबह के 7 बज गए थे. नताशा स्कूल के लिए तैयार हो रही थी. अलका और संजय कालेज जाने के लिए 9 बजे घर से निकलते थे. पिताजी भी उठ गए थे. उन्होंने चाय के लिए आवाज दी. सुधीर उन के कमरे में चला गया और उन्हें लंदन से लाया हुआ स्वेटर पहना दिया. ‘‘तुम जब आ जाते हो तो मुझे बहुत संतोष होता है कि मेरे चारों बच्चे मेरे साथ हैं,’’ पिताजी भावुक हो गए. तभी मां चाय का प्याला लिए आईं, ‘‘आप क्यों मन छोटा करते हैं. सुधीर तो हम सब से दूर रह कर अपना फर्ज पूरा कर रहा है. हम लोगों ने इस की पढ़ाईलिखाई पर कितना खर्च किया, अब इस का फर्ज बनता है कि हमारी मदद करे.’’

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मां की बात का पिताजी ने कोई उत्तर न दिया. सुधीर सोच रहा था, ‘बेकार में ही मां मुझे फर्ज की याद दिलाए बिना नहीं रहतीं. मैं कौन सा अपने फर्ज से पीछे हटने वालों में से हूं.’ पिताजी खामोशी से चाय पीने लगे. पक्षाघात के पश्चात वे काफी बदल गए थे. पहले घर में उन का कितना रोब और दबदबा था. अब तो घर में मां का ही हुक्म चलता था. मां दोपहर के खाने की तैयारी कर रही थीं.

‘‘तुम्हारा आज का क्या प्रोग्राम है?’’ मां ने सुधीर से पूछा.

‘‘सोचता हूं, 1 बजे कनाट प्लेस चला जाऊंगा. कुछ बैंक का काम करना है. अपने साथ मनीऔर्डर लाया हूं. बैंक में जमा कर दूंगा और कुछ यहां के खर्च के लिए भी रुपए निकाल लूंगा. घर आतेआते 6-7 तो बज ही जाएंगे.’’

‘‘मैं जल्दी से खाना बना देती हूं,’’ मां बोलीं. सुधीर नहाधो कर तैयार हो गया. उस का बैंक मनीऔर्डर अटैची में था. साथ में ही रखी थीं दवाओं की कुछ शीशियां जो उस के मित्र रवि ने अपने बडे़ भाई के लिए भेजी थीं. सुधीर ने सोचा कि अगर वक्त मिला तो बैंक का काम खत्म कर के वह रवि के भाई को हौजखास में दवाएं दे आएगा. क्या पता उन को दवाओं की बहुत सख्त जरूरत हो. दोपहर का खाना खा कर सुधीर आटो से कनाट प्लेस आ गया. उस का बैंक खाता जनपथ के एक बैंक में था. उस के 2 तरह के खाते थे. एक खाते में वह ब्रिटिश पाउंड रखता था और दूसरे खाते में भारतीय मुद्रा. उस के दोनों ही खाते मां के साथ संयुक्त थे क्योंकि बेचारे पिताजी तो कनाट प्लेस आनेजाने के लायक नहीं थे.

सुधीर अपने साथ 5 हजार पाउंड का मनीऔर्डर लाया था. उसे उस ने जमा कर दिया और अपने खाते से 10 हजार रुपए निकाल लिए. बैंक का काम खत्म करतेकरते 4 बज गए. सुधीर के पास वक्त ही वक्त था. सोचा, चलो, शाम की चाय रवि के भैया के यहां ही पी जाए. आटो वाले को रवि के भाई का फ्लैट ढूंढ़ने में थोड़ी सी दिक्कत जरूर हुई. घर में रवि के भाईसाहब थे. वे शायद आराम कर रहे थे. उन को 3 महीने पहले दिल का दौरा पड़ा था. सुधीर को देख कर बड़े खुश हुए. सुधीर ने दवाएं उन को दे दीं. उस ने सोचा, आशा तो चाय पीने की कर के आया था, परंतु ये चाय कैसे बनाएंगे. वह चलने लगा, परंतु भाईसाहब ने रोक लिया, ‘‘आप को बिना चाय पिए नहीं जाने दूंगा. 15-20 मिनट में रजनी आ जाएगी. उस से भी मिल लीजिएगा. अपने देवर की बहुत ही लाड़ली भाभी है.’’

रवि के भाईसाहब आगे बोले, ‘‘रवि ने अपने पिछले पत्र में आप का जिक्र किया था. यह तो अच्छा हुआ कि वह आप की ही कंपनी में काम करता है. उस के ऊपर जरा नजर रखिएगा.’’

‘‘रवि बहुत ही मेहनती और नेक लड़का है. लंदन में बेहद तरक्की करेगा,’’ सुधीर बोला.

‘‘हम लोगों को तो बस यही चिंता रहती है कि हमारा रवि कहीं वहां रह कर बदल न जाए. ऐसे में हम तो बस लुट ही जाएंगे,’’ वे बोले, ‘‘हमारे मकानमालिक का लड़का 7 साल पहले लंदन पढ़ने गया था. पढ़ाई खत्म कर के नौकरी करने लगा. यहां उस के घर वालों के बुरे दिन आ गए. पर मजाल है कि उस ने कोई मदद की उन की. घर वालों को उन के हाल पर ही छोड़ दिया है. बेटे का फर्ज कभी निभाया ही नहीं उस ने.’’

‘‘बेचारे सुरेंद्रजी लाचार हो गए हैं, उन्हें पक्षाघात हुआ था. हम ने तो उन्हें कभी देखा भी नहीं है. घर का किराया लेने भी कभी उन की पत्नी या कभी उन के बच्चे ही आते हैं.’’

तभी रवि की भाभी आ गईं. सुधीर से मिलने के पश्चात वे डाक को देखने लगीं.

‘‘अरे, यह नोटिस तो सुरेंद्रजी के नाम आया है. कल आप याद दिलाना, औफिस जाते हुए उन के पते पर डाल दूंगी. पता नहीं कोई जरूरी नोटिस हो, उन के पास जल्दी ही पहुंचना चाहिए,’’ रवि की भाभी ने हौले से कहा.

‘‘तुम डाक को बाद में देख लेना, पहले इन्हें कुछ चायवाय तो पिलाओ,’’ रवि के भाई की बात का उत्तर दिए बिना ही उन की पत्नी रसोई में चाय बनाने चली गईं.

कुछ ही देर बाद वे एक ट्रे में चाय और मिठाई, नमकीन ले आईं. सुधीर का मन घर जाने को हो रहा था. वैसे भी सवेरे का घर से निकला था. रवि की भाभी उस के बारे में इधरउधर की बातें पूछ रही थीं. सुधीर अपनी ओर से बातचीत का सिलसिला जारी करने के मूड में नहीं था. वह उठते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, आप सुरेंद्रजी का पता लिफाफे पर लिख दीजिए. मुझे अपना एक पत्र डालना है, वह नोटिस भी पोस्ट कर दूंगा.’’

रवि की भाभी ने लिफाफे पर सुरेंद्रजी का पता लिख दिया. सुधीर ने एक नजर लिफाफे पर डाली और बोला, ‘‘आप फिक्र मत कीजिए. यह पत्र उन को कल नहीं तो परसों तक अवश्य मिल जाएगा.’’ उस रात सुधीर ने खाना नहीं खाया. रवि के भैया के यहां चाय के साथ काफी कुछ खा लिया था. मां और भाईबहनों ने काफी जिद की परंतु सुधीर खाने के लिए तैयार न हुआ. उस रात सुधीर को नींद न आई. सारी रात करवटें ही बदलता रहा और सोचता रहा. घर के सब लोग खर्राटे ले कर सो रहे थे पर उस की आंखों में नींद कहां. न जाने अपने जीवन की कितनी रातें उस ने बिना सोए ही बिताई थीं अपने और अपने घर वालों के बारे में सोचतेसोचते. सवेरा होने पर मां और पिताजी ने भी महसूस किया कि सुधीर रात को सोया नहीं है. फिर भी उन्होंने उस से कोई कारण न पूछा.

सुधीर नहाधो कर जल्दी ही तैयार हो गया. उस को कनाट प्लेस जाने की जल्दी थी. उसे एअरलाइंस के औफिस भी जाना था. उस की वापसी की उड़ान 4 मार्च की थी, परंतु वह लंदन जल्दी लौट जाना चाहता था. उस को 22 फरवरी की उड़ान मिल गई. सुधीर के मन को बहुत राहत मिली. सारा दिन इधरउधर घूमता रहा, खाना रेस्तरां में ही खाया. शाम को सुधीर ने पिताजी को बताया कि उस की वापसी 22 फरवरी की है.

‘‘अरे, अब की बार इतने कम दिन क्यों? हमेशा की तरह 4 हफ्ते क्यों नहीं?’’ पिताजी हैरानी से बोले.

‘‘आजकल कंपनी में काफी छंटनी हो रही है. कहीं इन छुट्टियों के चक्कर में कंपनी से मेरी ही छुट्टी न हो जाए.’’ मातापिता सुधीर की इस दलील के बाद कुछ न बोले.

मां ने इस बार महसूस किया कि सुधीर कुछ बदलाबदला सा है. कई बार पैसे की तंगी का जिक्र किया, परंतु सुधीर ने कोई खास दिलचस्पी ही न दिखाई. पहले तो इस तरह की बात सुनने के पश्चात वह मां को अपने साथ लाए रुपयों में से ढेर सारे रुपए दे देता था या बैंक जा कर पैसे निकाल कर उन के हाथ में रख देता था. एकएक कर के दिन बीत गए और सुधीर के जाने का दिन भी आ पहुंचा. पिताजी के अलावा घर के सभी लोग हवाई अड्डे पर आए थे. विमान की ओर जाते समय सुधीर सोच रहा था, पता नहीं घर के लोग हवाई अड्डे पर ही होंगे या घर चले गए होंगे. मां हमेशा ही पैसों की कमी का रोना रोती रहती हैं, फिर डीडीए का फ्लैट खरीदने के लिए पैसे कहां से आए? संजय के नाम पर लिए गए इस फ्लैट में काफी सारा तो उस का ही पैसा लगा हुआ था. फिर उस से मां और पिताजी ने फ्लैट की बात क्यों छिपाई? अगर वह उस दिन रवि के भाईसाहब से नहीं मिलता तो उस को फ्लैट के बारे में कुछ पता भी न चलता. उस नोटिस ने उस के विश्वास की नींव ही खोखली कर दी थी.

सुधीर सोच रहा था कि मां क्या सोचेंगी, जब वह बैंक में जा कर उस के और अपने संयुक्त खाते में 50 हजार रुपयों की जगह केवल 400 रुपए पाएंगी. शायद उन को इस बात का आभास हो जाएगा कि फर्ज की जिस किताब पर सुधीर नोटों का कवर चढ़ाता आ रहा था, उस कवर को उस ने शायद हमेशा के लिए फाड़ कर फेंक दिया है. सुधीर को लंदन के हवाई अड्डे पर सीमा मिलने वाली थी. पिछले 3 सालों से वह उस के साथ शादी करने की बात को टालता आ रहा था. उस ने पहले ही सीमा को शादी के लिए दिल्ली से फोन कर के राजी कर लिया था.

Bollywood : बोटौक्स व सर्जरी कराने में हर्ज कैसा

Bollywood : इस में कोई दोराय नहीं कि दर्शक, फिल्मों में ऐक्टरऐक्ट्रैस को हौट, सुंदर व आकर्षक देखना चाहते हैं. ऐसा वे प्रोफैशनल कारणों से ज्यादा करते हैं. ऐसा इसलिए यदि किसी मूवी में ऐक्ट्रैस ज्यादा सुंदर नहीं दिखती तो दर्शक ही उन्हें ट्रोल करते हैं या पसंद नहीं करते. हमारी सोसाइटी ही है जो सुन्दरता के पैरामीटर्स सेट करता है. तो ऐसे में एक्ट्रैसेज का प्लास्टिक सर्जरी या बोटोक्स करना गलत कैसे हुआ? 

हर किसी को सुंदर दिखने का हक है, वह अपनी बौडी और लुक्स के बारे में डिसीजन ले सकता है. अगर कोई सर्जरी या बोटोक्स से खुश है और इसे जरुरी समझता है तो सही जगह से बेझिझक करे. इसे हव्वा बनाने की जगह नोर्मलाइज और एक्सेप्ट करने की जरूरत है. आज जैसे हेयर ट्रांसप्लांट आम लोगों के दायरे में आ चुका है वैसे ही इस तरह की सर्जरियां भी आने वाले समय में आम होने लगेंगी.    

  • जाह्नवी कपूर

जाह्नवी कपूर बौलीवुड की खूबसूरत एक्ट्रैस हैं. अपनी मां की तरह ही जाह्नवी ने भी कई प्लास्टिक सर्जरी कराई हैं. इन में नाक, होंठ और जौ लाइन की सर्जरी शामिल हैं. वह अपनी फिजिक और बोल्डनैस के लिए जानी जाती हैं. 

  • अदिति राव हैदरी

इन की खूबसूरती के चर्चे सोशल मीडिया पर होते ही रहते हैं. उन्होंने अपनी नाक पतली कराने के लिए सर्जरी कराई थी.

  • नीसा देवगन

सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स ने काजोल की बेटी पर आरोप लगाए कि उन्होंने ब्यूटी ट्रीटमेंट्स व स्किन लाइटमेंट लेने के साथ ही प्लास्टिक सर्जरी का भी सहारा लिया है. 

  • खुशी कपूर

खुशी कपूर ने कास्मेटिक सर्जरी करवाने की बात स्वीकार कर चुकी हैं. खुशी ने खुलासा किया कि उन्होंने अपनी फिल्मी शुरुआत से पहले नाक की सर्जरी और होंठों में फिलर करवाया था. 

  • दिशा पाटनी

दिशा की पुरानी फोटोज को देख कर अकसर यही आशंका जताई जाती है कि एक्ट्रैस ने नाक और होंठ की सर्जरी कराई है. वह बौलीवुड कि हौटेस्ट एक्ट्रैस में एक हैं. 

  • नोरा फतेही

 

अभिनेत्री, डांसर नोरा ने कई सर्जरी करवाई हैं. सोशल मीडिया पर लोगों का दावा है कि उन्होंने हिप्स और ब्रैस्ट की सर्जरी कराई है. हालांकि एक्ट्रेस ने इन दावों का खंडन करती हैं.  

  • शनाया कपूर

शनाया कपूर ने अभी बौलीवुड में डेब्यू नहीं किया है. मगर अभी से वह काफी पौपुलर हैं. उन की पुरानी तस्वीरों में होंठ और नाक की शैप देख कर पता चलता है कि उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी करवाई है.

  • राजकुमार राव

इस लिस्ट में राजकुमार राव का नाम भी शामिल है. उन्होंने खुद इस बात का खुलासा एक इंटरव्यू में किया कि उन्होंने आइब्रो शेप और ठोड़ी फिलर ट्रीटमेंट कराया है. 

लेखिका : कुमकुम गुप्ता

Baidyanath Sundari Sakhi : महावारी की समस्याएँ और समाधान, एक आयुर्वेदिक दृष्टिकोण

Baidyanath Sundari Sakhi : महावारी यानी मासिक धर्म एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर महिला के जीवन का अहम हिस्सा है. यह न केवल भौतिक विकास का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि अपने साथ काई तरह की समस्याएं भी उत्पन्न करता है. आइए, हम इन समस्याओं का विश्लेषण करें और उनके समाधान खोजें.

महावारी की समस्याएँ

1. समस्याओं का संकोच

बहुत सी महिलाएँ महावारी के दौरन होने वाले शरीरिक और मानसिक दर्द के बारे में बात करने में संकोच महसूस करती हैं. इसी वजह से उन्हें सहारा नहीं मिलता और समस्याओं को समझने और हल करने में कठिनाई होती है.

2. शारीरिक दर्द

बहुत सी महिलाएँ महावारी के दौरन पेट दर्द, सर दर्द, और थकान का सामना करती हैं. ये दर्द कभी-कभी इतना कठिन होता है कि उनका दिनचर्या प्रभावित होती है.

3. मानसिक तनव

हार्मोनल परिवर्तन की वजह से महावरी के दौरान महिलाएं मानसिक तनाव और मूड स्विंग का सामना करती हैं. इस्से उनका सामान्य जीवन जीने में कठिनाइयां होती है.

4. स्वास्थ्य संबंधि समस्याएँ

कुछ महिलाओं को अत्यधिक रक्तस्राव, अनियमित मासिक धर्म, या PCOS जैसा स्वास्थ्य संबंध समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो उनकी जीवन शैली को प्रभावित कर सकती हैं.

समाधान

1. समस्या का विश्लेषण

महावरी से जुड़ी समस्याओं पर खुली बात-चीत करना जरूरी है. परिवार और दोस्त इसमें मददगार साबित हो सकते हैं. जागरूकता बढ़ाने से समस्या कम होती है.

2. दर्द प्रबंधन

दर्द के लिए दर्द निवारक दवा का उपयोग किया जा सकता है. कुछ महिलाएं योग और ध्यान के माध्यम से भी दर्द को कम करने का प्रयास करती हैं.

3. पोषण और व्यायाम

सही पोषण और नियमित व्यायाम से आप अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं. फल, सब्जियां और hydration का ध्यान रखना जरूरी है.

4. मानसिक स्वास्थ्य सहायता

अगर आपको मानसिक स्वास्थ्य के दौरान स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है, तो पेशेवर मदद लेना संभव है. Counselling या therapy से आपको समस्याओं का समाधान मिल सकता है.

यदि इसे भी आराम नहीं मिलता, तो आप वैद्य से परामर्श लेकर बैद्यनाथ द्वारा दी गई सुंदरी सखी का उपयोग कर सकते हैं;

बैद्यनाथ सुंदरी सखी आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से तैयार किया गया एक healthy टॉनिक है, सेहत को हर स्तर पर सुधारने में मदद करता है। इसमें शामिल जड़ी-बूटियाँ न सिर्फ शारीरिक बल देती हैं, बल्कि मानसिक तनाव को भी कम करती हैं.

बैद्यनाथ सुंदरी सखी में शामिल आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ

अशोका: महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को सुधारने वाली यह जड़ी-बूटी मासिक धर्म की अनियमितताओं में बहुत लाभकारी है.
अश्वगंधा: यह जड़ी-बूटी शरीर की थकान और दर्द को दूर कर ऊर्जा प्रदान करती है.
मंजिष्ठा – यह त्वचा के स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करता है

सुंदरी सखी का उपयोग कैसे करें?

  • वैद्य से परामर्श लेकर रोजाना सुबह और शाम 2 चम्मच सुंदरी सखी को गुनगुने पानी  के साथ लें.
  • इसे नियमित रूप से 3 महीने तक उपयोग करें.

Hindi Story : मशीनें न बन जाएं हम

Hindi Story : एक वक्त था जब मनुष्य दर्द का  समंदर भी पी जाता था. लेकिन अब अनचाहा व्यवहार मनुष्य के स्वास्थ्य पर असर डालने लगा है. अवसाद का पंजा सारे के सारे व्यक्तित्व को डसने लगा है, गहरे अंधेरे कुएं में मनुष्य डूबता सा जाता है.

लोकेशजी परेशान चल रहे हैं बहुत दिन से. जीवन जैसे एक बिंदु पर आ कर खड़ा हो गया है, उन्हें कुछकुछ ऐसा लगने लगा है. समझ नहीं पा रहे जीवन को गति दें भी तो कैसे. जैसे घड़ी भी रुकी नजर आती है. मानो सुइयां चल कर भी चलती नहीं हैं. सब खड़ा है आसपास. बस, एक सांस चल रही है, वह भी घुटती सी लगती है. रोज सैर करने जाते हैं. वहां भी एक बैंच पर चुपचाप बैठ जाते हैं. लोग आगेपीछे सैर करते हैं, टकटकी लगा कर उन्हीं को देखते रहते हैं. बच्चे साइकिल चलाते हैं, फुटबाल खेलते हैं. कभी बौल पास आ जाए तो उठा कर लौटा देते हैं लोकेशजी. यही सिलसिला चल रहा है पिछले काफी समय से.

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‘‘क्या बात है, अंकल? कोई परेशानी है?’’ एक प्यारी सी बच्ची ने पास आ कर पूछा. नजरें उठाईं लोकेशजी ने. यह तो वही प्यारी सी बच्ची है जिसे पिछले सालभर के अंतराल से देख रहे हैं लोकेशजी. इसी पार्क में न जाने कितनी सैर करती है, शायद सैर पट्टी पर 20-25 चक्कर लगाती है. काफी मोटी थी पहले, अब छरहरी हो गई है. बहुत सुंदर है, मौडल जैसी चलती है. अकसर हर सैर करने वाले की नजर इसी पर रहती है. सुंदरता सदा सुख का सामान होती है यह पढ़ा था कभी, अब महसूस भी करते हैं. जवानी में भी बड़ी गहराई से महसूस किया था जब अपनी पत्नी से मिले थे. बीच में भूल गए थे क्योंकि सुख का सामान साथ ही रहा सदा, आज भी साथ है. शायद सुखी रहने की आदत भी सुख का महत्त्व कम कर देती है. जो सदा साथ ही रहे उस की कैसी इच्छा.

इस बच्ची पर हर युवा की नजर पड़ती देखते हैं तो फिर से याद आती है एक भूलीबिसरी सी कहानी जब वे भी जवान थे और सगाई के बाद अपनी होने वाली पत्नी की एक झलक पाने के लिए उस के कालेज में छुट्टी होने के समय पहुंच जाया करते थे.

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‘‘अंकल, क्या बात है, आप परेशान हैं?’’ पास बैठ गई वह बच्ची. उन की बांह पर हाथ रखा.

‘‘अं…हं…’’ तनिक चौंके लोकेशजी, ‘‘नहीं तो बेटा, ऐसा तो कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो है, कई दिन से देख रही हूं, आप सैर करने आते तो हैं लेकिन सैर करते ही नहीं?’’

चुप रहे लोकेशजी. हलका सा मुसकरा दिए. बड़ीबड़ी आंखों में सवाल था और होंठों पर प्यारी सी मुसकान.

‘‘घर में तो सब ठीक है न? कुछ तो है, बताइए न?’’

मुसकराहट आ गई लोकेशजी के होंठों पर.

‘‘आप को कहीं ऐसा तो नहीं लग रहा कि मैं आप की किसी व्यक्तिगत समस्या में दखल दे रही हूं. वैसे ऐसा लगना तो नहीं चाहिए क्योंकि आप ने भी एक दिन मेरी व्यक्तिगत समस्या में हस्तक्षेप किया था. मैं ने बुरा नहीं माना था, वास्तव में बड़ा अच्छा लगा था मुझे.’’

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‘‘मैं ने कब हस्तक्षेप किया था?’’ लोकेश के होंठों से निकल गया. कुछ याद करने का प्रयास किया. कुछ भी याद नहीं आया.

‘‘हुआ था ऐसा एक दिन.’’

‘‘लेकिन कब, मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’

‘‘कुछ आदतें इतनी परिपक्व हो जाती हैं कि हमें खुद ही पता नहीं चलता कि हम कब उस का प्रयोग भी कर जाते हैं. अच्छा इंसान अच्छाई कर जाता है और उसे पता भी नहीं होता क्योंकि उस की आदत है अच्छाई करना.’’

हंस पड़े लोकेशजी. उस बच्ची का सिर थपक दिया.

‘‘बताइए न अंकल, क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं न, बच्ची. क्या बताऊं?’’

‘‘तो फिर उठिए, सैर कीजिए. चुपचाप क्यों बैठे हैं. सैर पट्टी पर न कीजिए, यहीं घास पर ही कीजिए. मैं भी आप के साथसाथ चलती हूं.’’

उठ पड़े लोकेशजी. वह भी साथसाथ चलने लगी. बातें करने लगे और एकदूसरे के विषय में जानने लगे. पता चला, उस के पिता अच्छी नौकरी से रिटायर हुए हैं. एक बहन है जिस की शादी हो चुकी है.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बच्चे?’’

‘‘नेहा.’’

बड़ी अच्छी बातें करती है नेहा. बड़ी समझदारी से हर बात का विश्लेषण भी कर जाती. एमबीए है. अच्छी कंपनी में काम करती है. बहुत मोटी थी पहले, अब छरहरी लगती है. धीरेधीरे वह लोकेशजी को बैठे रहने ही न देती. सैर करने के लिए पीछे पड़ जाती.

‘‘चलिए, आइए अंकल, उठिए, बैठना नहीं है, सैर कीजिए, आइएआइए…’’

उस का इशारा होता और लोकेशजी उठ पड़ते. उस से बातें करते. एक दिन सहसा पूछा लोकेशजी ने, ‘‘एक बात तो बताना बेटा, जरा समझाओ मुझे, इंसान संसार में आया, बच्चे से जवान हुआ, शादीब्याह हुआ, बच्चे हुए, उन्हें पालापोसा, बड़ा किया, उन की भी शादियां कीं. वे अपनीअपनी जिंदगी में रचबस गए. इस के बाद अब और क्या? क्या अब उसे चले नहीं जाना चाहिए? क्यों जी रहा है यहां, समझ में नहीं आता.’’

चलतेचलते रुक गई नेहा. कुछ देर लोकेशजी का चेहरा पढ़ती रही.

‘‘तो क्या इतने दिन से आप यही सोच रहे थे यहां बैठ कर?’’

चुप रहे लोकेशजी.

‘‘आप यह सोच रहे थे कि सारे काम समाप्त हो गए, अब चलना चाहिए, यही न. मगर जाएंगे कहां? क्या अपनी मरजी से आए थे जो अपनी मरजी से चले भी जाएंगे? कहां जाएंगे, बताइए? उस जहान का रास्ता मालूम है क्या?’’

‘‘कौन सा जहान?’’

‘‘वही जहां आप और मेरे पापा भी चले जाना चाहते हैं. न जाने कब से बोरियाबिस्तर बांध कर तैयार बैठे हैं. मानो टिकट हाथ में है, जैसे ही गाड़ी आएगी, लपक कर चढ़ जाएंगे. बिना बुलाए ही चले जाएंगे क्या?

‘‘सुना है यमराजजी आते हैं लेने. जब आएंगे चले जाना शान से. अब उन साहब के इंतजार में समय क्यों बरबाद करना. चैन से जीना नहीं आता क्या?’’

‘‘चैन से कैसे जिएं?’’

‘‘चैन से कैसे जिएं, मतलब, सुबह उठिए अखबार के साथ. एक कप चाय पीजिए. नाश्ता कीजिए, अपना समय है न रिटायरमैंट के बाद. कोई बंधन नहीं. सारी उम्र मेहनत की है, क्या चैन से जीना आप का अधिकार नहीं है या चैन से जीना आता ही नहीं है. क्या परेशानी है?’’

‘‘अपने पापा को भी इसी तरह डांटती हो?’’

‘‘तो क्या करूं? जब देखो ऐसी ही उदासीभरी बातें करते हैं. अब मेरी मम्मी तो हैं नहीं जो उन्हें समझाएं.’’

क्षणभर को चौंक गए लोकेशजी. सोचने लगे कि उन के पास पत्नी का साथ तो है लेकिन उस का सुख भी गंवा रहे हैं वे. नेहा के पिता के पास तो वह सहारा भी नहीं.

‘‘चलिए, कल इतवार है न. आप हमारे घर पर आइए, बैठ कर गपशप करेंगे. अपने घर का पता बताइए.’’

पता बताया लोकेशजी ने. फिर अवाक् रहने के अलावा कुछ नहीं सूझा. उन का फ्लैट 25 नंबर और इन का 12. घरों की पिछली दीवारें मिलती हैं. एक कड़वी सी हंसी चली आई नेहा के होंठों पर. कड़वी और खोखली सी भी.

‘‘फेसबुक पर हजारों मित्र हैं मेरे, शायद उस से भी कहीं ज्यादा मेरा सुख मेरा दुख पढ़ते हैं वे. मैं उन का पढ़ती हूं और बस. डब्बा बंद, सूरत गायब. वे अनजान लोग मुझे शायद ही कभी मिलें.

‘‘जरूरत पड़ने पर वे कभी काम नहीं आएंगे क्योंकि वे बहुत दूर हैं. आप उस दिन काम आए थे जब सैरपट्टी पर एक छिछोरा बारबार मेरा रास्ता काट रहा था. आप ने उस का हाथ पकड़ उसे किनारे किया था और मुझे समझाया था कि अंधेरा हो जाने के बाद सैर को न आया करूं.

‘‘आप मेरे इतने पास हैं और मुझे खबर तक नहीं है.’’

आंखें भर आई थीं नेहा की. सच ही तो सोच रही है, हजारों दोस्त हैं जो लैपटौप की स्क्रीन पर हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं. पड़ोस में कोई है उस का पता ही नहीं क्योंकि संसार से ही फुरसत नहीं है. पड़ोसी का हाल कौन पूछे. अपनेआप में ही इतने बंद से हो गए हैं कि जरा सा किसी ने कुछ कह दिया कि आहत हो गए. अपनी खुशी का दायरा इतना छोटा कि किसी एक की भी कड़वी बात बीमार ही करने लगी. यों तो हजारों दोस्तों की भीड़ है, लेकिन सामने बैठ कर बात करने वाला एक भी नहीं जो कभी गले लगा कर एक सुरक्षात्मक भाव प्रदान कर सके.

‘‘यही बातें उदास करती हैं मुझे नेहा. आज की पीढ़ी जिंदा इंसानों से कितनी दूर होती जा रही है. सारे संसार की खबर रखते हैं लेकिन हमारे पड़ोसी कौन हैं, नहीं जानते. हमारे साथ वाले घर में कौन रहता है, पता ही नहीं हमें. अमेरिका में क्या हो रहा है, पता न चले तो स्वयं को पिछड़ा हुआ मानते हैं. हजारों मील पार क्या है, जानने की इच्छा है हमें. पड़ोसी चार दिन से नजर नहीं आया. हमें फिक्र नहीं होती. और जब पता चलता है हफ्तेभर से ही मरा पड़ा है तो भी हमारे चेहरे पर दुख के भाव नहीं आते. हम कितने संवेदनहीन हैं. यही सोच कर उदास होने लगता हूं.

‘‘अपने बच्चों को इतना डरा कर रखते हैं कि किसी से बात नहीं करने देते. आसपड़ोस में कहीं आनाजाना नहीं. फ्लैट्स में या पड़ोस में कोई रहता है, बच्चे स्कूल आतेजाते कभी घंटी ही बजा दें, बूढ़ाबूढ़ी का हालचाल ही पूछ लें लेकिन नहीं. ऐसा लगता है हम जंगल में रहते हैं, आसपास इंसान नहीं जानवर रहते हैं. हर इंसान डरा हुआ अपने ही खोल में बंद,’’ कहतेकहते चुप हो गए लोकेशजी.

उन का जमाना कितना अच्छा था. सब से आशीर्वाद लेते थे, सब की दुआएं मिलती थीं. आज ऐसा लगता है सदियां हो गईं किसी को आशीर्वाद नहीं दिया. जो उन्हें विरासत में मिला उन का भी जी चाहता है उसे आने वाली पीढ़ी को परोसें. मगर कैसे परोसें? कोई कभी पास तो आए कोई इज्जत से झुके, मानसम्मान से पेश आए तो मन की गहराई से दुआ निकलती है. आज दुआ देने वाले हाथ तो हैं, ऐसा लगता है दुआ लेना ही हम ने नहीं सिखाया अपने बच्चों को.’’

‘‘अंकल चलिए, आज मेरे साथ मेरे घर. मैं आंटीजी को ले आऊंगी. रात का खाना हम साथ खाएंगे.’’

‘‘आज तुम आओ, बच्चे. तुम्हारी आंटी ने सरसों का साग बनाया है. कह रही थीं, बच्चे दूर हैं अकेले खाने का मजा नहीं आएगा.’’

भीग उठी थीं नेहा की पलकें. आननफानन सब तय हो भी गया. करीब घंटेभर बाद नेहा अपने पिता के साथ लोकेशजी के फ्लैट के बाहर खड़ी थी. लोकेशजी की पत्नी ने दरवाजा खोला. सामने नेहा को देखा.

‘‘अरे आप…आप यहां.’’

एक सुखद आश्चर्य और मिला नेहा को. हर इतवार जब वह सब्जी मंडी सब्जी लेने जाती है तब इन से ही तो मुलाकात होती है. अकसर दोनों की आंख भी मिलती है और कुछ भाव प्रकट होते हैं, जैसे बस जानपहचान सी लगती है.

‘‘तुम जानती हो क्या शोभा को?’’ आतेआते पूछा लोकेशजी ने. चारों आमनेसामने. इस बार नेहा के पिता

भी अवाक्. लोकेशजी का चेहरा जानापहचाना सा लगने लगा था.

‘‘तुम…तुम लोकेश हो न और शोभा तुम…तुम ही हो न?’’

बहुत पुराने मित्र आमनेसामने खड़े थे. नेहा मूकदर्शक बनी पास खड़ी थी. अनजाने ही पुराने मित्रों को मिला दिया था उस ने. शोभा ने हाथ पकड़ कर नेहा को भीतर बुलाया. मित्रों का गले मिलना संपन्न हुआ और शोभा का नेहा को एकटक निहारना देर तक चलता रहा. मक्की की रोटी के साथ सरसों का साग उस दिन ज्यादा ही स्वादिष्ठ लगा.

‘‘देखिए न आंटी, आप का घर इस ब्लौक में और हमारा उस ब्लौक में.

2 साल हो गए हमें यहां आए. आप तो शायद पिछले 5 साल से यहां हैं. कभी मुलाकात ही नहीं हुई.’’

‘‘यही तो आज की पीढ़ी को मिल रहा है बेटा, अकेलापन और अवसाद. मशीनों से घिर गए हैं हम. जो समय बचता है उस में टीवी देखते हैं या लैपटौप पर दुनिया से जुड़ जाते हैं. इंसानों को पढ़ना अब आता किसे है. न तुम किसी को पढ़ते हो न कोई तुम्हें पढ़ता है. भावना तो आज अर्थहीन है. भावुक मनुष्य तो मूर्ख है. आज के युग में, फिर शिकवा कैसा. अपनत्व और स्नेह अगर आज दोगे

नहीं तो कल पाओगे कैसे? यह तो प्रकृति का नियम है. जो आज परोसोगे वही तो कल पाओगे.’’

चुपचाप सुनती रही नेहा. सच ही तो कह रही हैं शोभा आंटी. नई पीढ़ी को यदि अपना आने वाला कल सुखद और मीठा बनाना है तो यही सुख और मिठास आज परोसना भी पड़ेगा वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारे आसपास मात्र मशीनें ही होंगी, चलतीफिरती मशीनें, मानवीय रोबोट, मात्र रोबोट. शोभा आंटी बड़ी प्यारी, बड़ी ममतामयी सी लगीं नेहा को. मानो सदियों से जानती हों वे इन्हें.

वह शाम बड़ी अच्छी रही. लोकेश और शोभा देर तक नेहा और उस के पिता से बातें करते रहे. उस समय जब शायद नेहा का जन्म भी नहीं हुआ था तब दोनों परिवार साथसाथ थे. नेहा की मां अपने समय में बहुत सुंदर मानी जाती थीं.

‘‘मेरी मम्मी बहुत सुंदर थीं न? आप ने तो उन्हें देखा था न?’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने नहीं देखा?’’

‘‘बहुत हलका सा याद है, मैं तब

7-8 साल की थी. जब उन की रेल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. मैं उन की गोद में थी. वे चली गईं और मैं रह गई, यह देखिए उस दुर्घटना की निशानी,’’ माथे पर गहरा लाल निशान दिखाया नेहा ने. मां के हाथ की चूड़ी धंस गई थी उस के माथे की हड्डी में. वह आगे बोली, ‘‘पापा ने बहुत समझाया कि प्लास्टिक सर्जरी करवा लूं, यह दाग अच्छा नहीं लगता. मेरा मन नहीं मानता. मां की निशानी है न, इसे कैसे मिटा दूं.’’

नेहा का स्वर भीग गया. मेज का सामान उठातेउठाते शोभा के हाथ रुक गए. प्यारी सी बच्ची माथे की चोट में भी मां को पा लेने का सुख खोना नहीं चाहती.

वह दिन बीता और उस के बाद न जाने कितने दिन. पुरानी दोस्ती का फिर जीवित हो जाना एक वरदान सा लगा नेहा को. अब उस के पापा पहले की तरह उदास नहीं रहते और लोकेश अंकल भी उदास से पार्क की बैंच पर नहीं बैठते. मानो नेहा के पास 3-3 घर हो गए हों. औफिस से आती तो मेज पर कुछ खाने को मिलता. कभी पोहा, कभी ढोकला, कभी हलवा, कभी इडली सांबर. पूछने पर पता चलता कि लोकेश अंकल छोड़ गए हैं. कभी शोभा आंटी की बाई छोड़ गई है.

खापी कर पार्क को भागती मानो वह तीसरा घर हो जहां लोकेश अंकल इंतजार करते मिलते. वहां से कभी इस घर और कभी उस घर.

लोकेशजी के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. उन की भी दोस्ती हो गई है नेहा से. वीडियो चैटिंग करती है वह उन से. शोभा आंटी उस की सखी भी बन गई हैं अब. वे बातें जो वह अपनी मां से करना चाहती थी, अब शोभाजी से करती है. जीवन कितना आसान लगने लगा है. उस के पापा भी अब उस जहान में जाने की बात नहीं करते जिस का किसी को पता नहीं है. ठीक है जब बुलावा आएगा चले जाएंगे, हम ने कब मना किया. जिंदा हो गए हैं तीनों बूढ़े लोग एकदूसरे का साथ पा कर और नेहा उन तीनों को खुश देख कर, खुशी से चूर है.

क्या आप के पड़ोस में कोई ऐसा है जो उदास है, आप आतेजाते बस उस का हालचाल ही पूछ लें. अच्छा लगेगा आप को भी और उसे भी.

Hindi Story Telling : तनुज के पहली शादी को घरवाले क्यों नहीं मानते थे

Hindi Story Telling : खुशियों से भरे दिन थे वे. उत्साह से भरे दिन. सजसंवर कर  रहने के दिन. प्रियजनों से मिलनेमिलाने के दिन. मुझ से 4 बरस छोटे मेरे भाई तनुज का विवाह था उस सप्ताह.

यों तो यह उस का दूसरा विवाह था पर उस के पहले विवाह को याद ही कौन कर रहा था. कुछ वर्ष पूर्व जब तनुज एक कोर्स करने के लिए इंगलैंड गया तो वहीं अपनी एक सहपाठिन से विवाह भी कर लिया. मम्मीपापा को यह विवाह मन मार कर स्वीकार करना पड़ा क्योंकि और कोई विकल्प ही नहीं था परंतु अपने एकमात्र बेटे का धूमधाम से विवाह करने की उन की तमन्ना अधूरी रह गई.

मात्र 1 वर्ष ही चला वह विवाह. कोर्स पूरा कर लौटते समय उस युवती ने भारत आ कर बसने के लिए एकदम इनकार कर दिया जबकि तनुज के अनुसार, उस ने विवाह से पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे भारत लौटना है. शायद उस लड़की को यह विश्वास था कि वह किसी तरह तनुज को वहीं बस जाने के लिए मना लेगी. तनुज को वहीं पर नौकरी मिल रही थी और फिर अनेक भारतीयों को उस ने ऐसा करते देखा भी था. या फिर कौन जाने तनुज ने यह बात पहले स्पष्ट की भी थी या नहीं.

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बहरहाल, विवाह और तलाक की बात बता देने के बावजूद उस के लिए वधू ढूंढ़ने में जरा भी दिक्कत नहीं आई. मां ने इस बार अपने सब अरमान पूरे कर डाले. सगाई, मेहंदी, विवाह, रिसैप्शन सबकुछ. सप्ताहभर चलते रहे कार्यक्रम. मैं भी अपने अति व्यस्त जीवन से 10 दिन की छुट्टी ले कर आ गई थी. पति अनमोल को 4 दिन की छुट्टी मिल पाई तो हम उसी में खुश थे. बच्चों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. मौजमस्ती के अलावा उन्हें दिनभर के लिए मम्मीपापा का साथ भी मिल रहा था.

इंदौर में बीते खुशहाल बचपन की ढेर सारी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं. बहुत धनवैभव न होने पर भी हमारा घर सब सुविधाओं से परिपूर्ण था. आज के मानदंड के अनुसार, चाहे मां बहुत पढ़ीलिखी नहीं थीं परंतु अत्यंत जागरूक और समय के अनुसार चलने वालों में से थीं. उन की इच्छा थी कि हम दोनों बहनभाई खूब पढ़लिख जाएं और इस के लिए वे हमें खूब प्रेरित करतीं.

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स्नेह और पैसे की कमी नहीं रही हमें. शिक्षा, संस्कार सबकुछ पाया. घर का अधिकांश कार्यभार सरस्वती अम्मा संभालती थीं. पीछे से वे अच्छे घर की थीं. विपदा आन पड़ने पर काम करने को मजबूर हो गई थीं. अपाहिज हो गया पति कमा कर तो क्या लाता, पत्नी पर ही बोझ बन गया था.

सरस्वती अम्मा घरों में खाना बनाने का काम करने लगीं. हमारा गैराज खाली पड़ा था. मां के कहने पर उसी में सरस्वती अम्मा ने अपनी गृहस्थी बसा ली. एक किनारे पति चारपाई पर पड़ा रहता. अम्मा बीचबीच में जा कर उस की देखरेख कर आतीं. शेष समय हमारे घर का कामकाज देखतीं. अच्छे परिवार से थीं, साफसुथरी और समझदार. खाना मन लगा कर बनातीं. प्यार से बनाए भोजन का स्वाद ही अलग होता है. मां ने उन के दोनों बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली थी. स्कूल से लौटने पर वे उन्हें पास बिठा होमवर्क भी करा देतीं. बेटा 12वीं पास कर डाकिया बन गया. बिटिया राधा का 15 वर्ष की आयु में ही विवाह कर दिया. मां ने नाबालिग लड़की का विवाह करने से बहुत रोका किंतु परंपराओं में जकड़ी सरस्वती अम्मा के लिए ऐसा करना संभव नहीं था. उन के अनुसार अभी राधा का विवाह न करने पर वह जीवनभर कुंआरी रह जाएगी. लेकिन 1 वर्ष बाद ही कारखाने में हुई एक दुर्घटना में राधा के पति की मृत्यु हो गई. उसे मुआवजा तो मिला पर सब से बड़ी पूंजी खो दी उस ने. मां ने उस के पुनर्विवाह के लिए कहा. परंतु सरस्वती अम्मा के हिसाब से उन की बिरादरी में यह कतई संभव नहीं था.

इसी बीच मेरा भी विवाह हो गया. मैं ने कौर्पोरेट ला की पढ़ाई की थी और अपना कैरियर बनाना मेरे जीवन का सपना था. विदेशी कंपनी में एक अच्छी नौकरी मिली हुई थी मुझे. विवाह के बाद 2 वर्ष तक तो सब ठीक चलता रहा पर जब मां बनने की संभावना नजर आई तो चिंता होने लगी. कैरियर बनाने के चक्कर में पहले ही उम्र बढ़ चुकी थी एवं मातृत्व को और टाला नहीं जा सकता था.

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शिशु जन्म के समय मां के पास इंदौर गई थी. अस्पताल से जब मैं नन्हे शिव को ले कर घर आई तो सरस्वती अम्मा ने एक सुझाव रखा, ‘क्यों न मैं राधा को अपने साथ ले जाऊं.’ उसे एक विश्वसनीय घर में रख कर वे निश्ंिचत हो जाएंगी. मेरी तो एक बड़ी समस्या हल हो गई, मन की मुराद पूरी हो गई. राधा को मैं बचपन से ही जानती आई थी. छोटी लड़कियों के अनेक खेल हम ने मिल कर खेले थे. वह मुझे बड़ी बहन का सा ही सम्मान देती थी. उस ने पहले शिव और 2 ही वर्ष बाद आई रिया की बहुत अच्छी तरह से देखभाल की और बच्चे भी उसे प्यार से मौसी कह कर बुलाते थे.

अनमोल जब घर पर होते तो यथासंभव हर काम में सहायता करते किंतु वे घर पर रहते ही बहुत कम थे. उन्हें दफ्तर के काम से अकसर इधरउधर जाना पड़ता और जब विदेश जाते तो महीनों बाद ही लौटते. यों अपने कैरियर के साथसाथ बच्चों को पालने और घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी. राधा की सहायता के बिना मेरा एक दिन भी नहीं चल सकता था. बच्चों के बड़े हो जाने के बाद भी मुझे उस की जरूरत रहने वाली थी.

मैं उस की सुविधा का पूरा खयाल रखती थी. घर के एक सदस्य की तरह ही थी वह. यों वह रात को बच्चों के कमरे में ही सोती किंतु घर के पिछवाड़े उस का अपना एक अलग कमरा भी था.

तनुज के ब्याह के लिए मैं ने अपने परिवार वालों के साथसाथ राधा के लिए भी नए कपड़े बनवाए थे. पर ऐन वक्त उस ने इंदौर जाने से इनकार कर दिया जोकि मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. अभी कुछ दिन पहले तक तो वह विवाह में गाए जाने वाले गीतों का जोरशोर से अभ्यास कर रही थी. वह जिंदादिल और मौजमस्ती पसंद लड़की थी. किसी भी तीजत्योहार पर उस का जोश देखते ही बनता था. अपने मातापिता से मिलने के लिए वह अकसर अवसर का इंतजार किया करती थी. पर इस बार न तो मांबाप से मिलने का मोह और न ही ब्याह की मौजमस्ती ही उसे लुभा पाई.

तनुज का विवाह बहुत धूमधाम से हो गया. हम ने भी 10 दिन खूब मस्ती की. लौट कर भी कुछ दिन उसी माहौल में खोए रहे, वहीं की बातें दोहराते रहे. राधा ने ही घर संभाले रखा. 2-3 दिन बाद जब मेरी थकान कुछ उतरी और राधा की ओर ध्यान गया तो मुझे लगा कि वह आजकल बहुत उदास रहती है. काम तो पूरे निबटा रही है किंतु उस का ध्यान कहीं और होता है. बात सुन कर भी नहीं सुनती. मांबाप की खोजखबर लेने को उत्सुक नहीं. विवाह की बातें सुनने को उत्साहित नहीं. पर बहुत पूछने पर भी उस ने कोई कारण नहीं बताया.

मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया था. यह चिंता नहीं थी कि मेरी अनुपस्थिति में बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं होगी पर उस के मन में कुछ उदासी जरूर थी जो मैं महसूस कर सकती थी परंतु हल कैसे खोजती जब मैं कारण ही नहीं जानती थी.

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इतवार के दिन मेरी पड़ोसिन ने मुझे अपने घर पर बुला कर बताया कि हमारी अनुपस्थिति में एक युवक दिनरात राधा के संग उस की कोठरी में रहा था.

मैं ने मां को फोन कर के पूरी बात बताई.

मां ने शांतिपूर्वक पूरी बात सुनी और फिर उतनी ही शांति से पूछा, ‘‘पर तुम उस पर इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? ऐसा कौन सा कुसूर कर दिया है उस ने?’’

‘‘एक परपुरुष से संबंध बनाना अनैतिक नहीं है क्या? हमें तो आप कड़े अनुशासन में रखती थीं?’’

‘‘तो इस में दोष किस का है? राधा के पति की असमय मृत्यु हो गई, यह उस का दोष तो नहीं? फिर इस बात की सजा इस लड़की को क्यों दी जा रही है? 16 वर्ष की आयु में उसे मन मार कर जीवन जीने को बाध्य कर दिया. उस के जीवन के सब रंग छीन लिए…’’

‘‘पर मां, वह विधवा हो गई, इस में हम क्या कर सकते हैं?’’

‘‘क्यों? उसे जीने का हक नहीं दिला सकते क्या? तनुज का दोबारा विवाह हुआ है न? तुम्हारे भाई के तलाक में कुछ गलती तो उस की भी रही ही होगी पर राधा के विधवा होने के लिए उसे क्यों दंडित किया जा रहा है? उस ने तो नहीं मारा न अपने पति को? यह तय कर दिया गया कि वह दूसरा विवाह नहीं करेगी. उस की जिंदगी का इतना अहम फैसला लेने से पहले क्या किसी ने उस से एक बार भी पूछा कि वह क्या चाहती है? हो सकता है उस में ताउम्र अकेली रहने की हिम्मत न हो और वह फिर से विवाह करने की इच्छुक हो. जिस पुरुष के साथ वह 1 वर्ष ही रह पाई वह भी तमाम बंदिशों के बीच, उस के साथ उस का लगाव कितना हो पाया होगा? और अब तो उस की मृत्यु को भी इतने वर्ष बीत चुके हैं.’’

‘‘मां, मुझे उस पर दया आती है पर उन लोगों के जो नियम हैं, हम उन्हें तो नहीं बदल सकते न.’’

‘‘पर ये कानून बनाए किस ने हैं? समाज द्वारा स्थापित नियमकायदे समाज नहीं बदलेगा तो कौन बदलेगा? और हम भी इसी का ही हिस्सा हैं.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी सुखी गृहस्थी देख कर उस की कभी इच्छा नहीं होती होगी कि उस का भी कोई साथी हो, जिस से वह मन की बात कह सके, अपने दुखसुख बांट सके. अपने बच्चे हों. यदि वह तुम्हारे बच्चे से इतना स्नेह करती है तो उसे अपने बच्चों की कितनी साध होगी, कभी सोचा तुम ने?

‘‘अपने भविष्य पर निगाह डालने पर क्या देखती होगी वह? एक अनंत रेगिस्तान. बिना एक भी वृक्ष की छाया के. मांबाप आज हैं, कल नहीं रहेंगे. भाई अपनी गृहस्थी में रमा है. सरस्वती की बिरादरी वाले जो राधा के पुनर्विवाह के विरुद्ध हैं, एक पुरुष के विधुर होने पर चट से उस का दूसरा विवाह कर देते हैं. तब वे कहते हैं कि बेचारे के बच्चे कौन पालेगा? स्त्री के विधवा होने पर उन की यह दयामाया कहां चली जाती है? यों हम कहते हैं कि स्त्री अबला है. सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से उसे पुरुष पर आश्रित बना कर रखते हैं किंतु विधवा होते ही उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अकेली ही इस जहान से लड़े. एक ऐसे समाज में जिस के हर वर्ग में भेडि़ए उसे नोच डालने को खुलेआम घूम रहे हैं.’’

दिनभर तो काम में व्यस्त रही पर दफ्तर जाते और लौटते हुए मां की बातें मस्तिष्क में घूमती रहीं. मैं ने सिर्फ किताबी ज्ञान ही अर्जित किया था. मां ने खुली आंखों से दुनिया को जिया था, देखा और समझा था. मैं अपने ही घर में रहती राधा का दर्द नहीं समझ पाई. कहने को मैं उसे घर का सदस्य समान ही समझती थी. उस से भरपूर प्यार करती थी. मैं ने उस पर थोपे निर्णय को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया था. जबकि मां उस के प्रति हुए अन्याय के प्रति पूर्ण जागरूक थीं.

मुझे मां की बातों में सचाई नजर आने लगी. सांझ ढलने तक मैं ने मन ही मन निर्णय ले लिया था और यही बताने के लिए दिनभर का काम समेट रात को मैं ने मां को फोन किया.

‘‘तुम उस लड़के से बात करो. उस की नौकरी, चरित्र इत्यादि के बारे में पूरी पड़ताल करो और यदि तुम्हें लगे कि लड़का सिर्फ मौजमस्ती के लिए राधा का इस्तेमाल नहीं कर रहा और इस रिश्ते को ले कर गंभीर है तो सरस्वती को मनवाने का जिम्मा मेरा,’’ मां के स्वर में आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट थी.

मैं ने जब राधा के सामने बात छेड़ी तो उस ने रोना शुरू कर दिया. बहुत देर के बाद उस ने मन की बात मुझ से कही.

रौशन हमारे घर से थोड़ी दूर किसी का ड्राइवर था. उसे राधा के विधवा होने के बारे में मालूम था फिर भी वह उस से विवाह करने को तैयार था. पर राधा को डर था कि उस की मां इस विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगी. एक तो वे अपनी बिरादरी से बहुत डरती थीं, दूसरे, रौशन उन से भिन्न जाति का था. राधा की परेशानी यह थी कि यदि उस ने मांबाप की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली तो वह सदैव के लिए उन से कट जाएगी. एक तरफ उस की तमाम जीवन की खुशियां थीं तो दूसरी तरफ मांबाप का प्यार. इसी बात को ले कर वह उदास थी. उस ने अब तक अपने मन की बात मुझ से कहने की हिम्मत नहीं की थी तो इस में मेरा ही कुछ दोष रहा होगा.

मैं ने रौशन के पिता को बात करने के लिए बुलाया. रौशन ने पहले से ही उन्हें राजी कर रखा था. सारी पड़ताल करने के बाद मैं ने मां के आगे एक सुझाव रखा, ‘‘सरस्वती अम्मा यदि विवाह के लिए राजी हो जाती हैं तो आप उन्हें ले कर यहां आ जाइए और राधा का विवाह चुपचाप यहीं करवा देते हैं. उस की बिरादरी वालों को पता ही नहीं चलेगा.’’

मेरी कम पढ़ीलिखी मां की सोच बहुत आगे तक की थी. उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘नहीं, शादी यहीं से होगी और खुलेआम होगी ताकि उस जैसी अन्य राधाओं के आगे एक उदाहरण रखा जा सके. हम कुछ गलत नहीं कर रहे कि छिपा कर करें. मुझे इस युवक से मिल कर खुशी होगी जो यह जानते हुए भी कि राधा विधवा है, उस से विवाह करने को कटिबद्ध है. रौशन के जो भी परिजन विवाह में शामिल होना चाहें, उन का स्वागत है.’’

‘‘सरस्वती अम्मा को तो तुम मना लोगी मां, पर यदि उस की जातिबिरादरी वालों ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया तो?’’ मैं अब भी हिम्मत नहीं कर पा रही थी शायद.

‘‘सेना जब युद्ध के मैदान में आगे बढ़ती है तो उस की पहली पांत को ही सर्वाधिक गोलियों का सामना करना पड़ता है. पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि कोई आगे बढ़ने से इनकार कर देता हो. इसी तरह स्थापित किंतु अन्यायपूर्ण परंपराओं के विरुद्ध जो सब से पहले आवाज उठाता है उसे ही कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है. फिर धीरेधीरे वही रीति स्वीकार्य हो जाती है. पर किसी को तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी न.

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‘‘पहली पांत ही यदि साहस नहीं करेगी तो समाज आगे बढ़ेगा कैसे? हमारे समय में पढ़ेलिखे घरों में भी विधवा विवाह नहीं होता था. बहुत सरल, चाहे अब भी न हो किंतु वर्जित भी नहीं रहा. विडंबना यह है कि अभी भी हमारे समाज के कई वर्ग ऐसे हैं जहां विधवा की दोबारा शादी नहीं हो पाती. शायद अकेली सरस्वती यह कदम उठाने की हिम्मत न जुटा पाए परंतु यदि हम उस का साथ देते हैं तो उस की शक्ति दोगुनी हो जाएगी.’’

मैं इंदौर जा रही हूं. इस बार राधा को संग ले कर. जा कर इस के विवाह की तैयारी भी करनी है. आज से ठीक 5वें दिन रौशन आएगा इसे ब्याहने, पूरे विधिविधान के साथ.

Online Hindi Story : ममाज बौय

Online Hindi Story : ‘‘यह कौन सा समय है घर आने का?’’ शशांक को रात लगभग 11 बजे घर लौटे देख कर विभा ने जवाब तलब किया था.

‘‘आप तो यों ही घर सिर पर उठा लेती हैं. अभी तो केवल 11 बजे हैं,’’ शशांक साक्षात प्रश्नचिह्न बनी अपनी मां के प्रश्न का लापरवाही से उत्तर दे कर आगे बढ़ गया था.

‘‘शशांक, मैं तुम्हीं से बात कर रही हूं और तुम हो कि मेरी उपेक्षा कर के निकले जा रहे हो,’’ विभा चीखी थीं.

‘‘निकल न जाऊं तो क्या करूं. आप के कठोर अनुशासन ने तो घर को जेल बना दिया है. कभीकभी तो मन होता है कि इस घर को छोड़ कर भाग जाऊं,’’ शशांक अब बदतमीजी पर उतर आया था.

‘‘कहना बहुत सरल है, बेटे. घर छोड़ना इतना सरल होता तो सभी छोड़ कर भाग जाते. मातापिता ही हैं जो बच्चों की ऊलजलूल हरकतों को सह कर भी उन की हर सुखसुविधा का खयाल रखते हैं. इस समय तो मैं तुम्हें केवल यह याद दिलाना चाहती हूं कि हम ने सर्वसम्मति से यह नियम बनाया है कि बिना किसी आवश्यक कार्य के घर का कोई सदस्य 7 बजे के बाद घर से बाहर नहीं रहेगा. इस समय 11 बज चुके हैं. तुम कहां थे अब तक?’’

‘‘आप और आप के नियम…मैं ने निर्णय लिया है कि मैं अपना शेष जीवन इन बंधनों में जकड़ कर नहीं बिताने वाला. मेरे मित्र मेरा उपहास करते हैं. मुझे ‘ममाज बौय’ कह कर बुलाते हैं.’’

‘‘तो इस में बुरा क्या है, शशांक? सभी अपनी मां के ही बेटे होते हैं,’’ विभा गर्व से मुसकराईं.

‘‘बेटा होने और मां के पल्लू से बंधे होने में बहुत अंतर होता है,’’ शशांक ने अपना हाथ हवा में लहराते हुए  प्रतिवाद किया.

‘‘यह तेरे हाथ में काला सा क्या हो गया है?’’ बेटे का हाथ देख कर विभा चौंक गई.

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‘‘यह? टैटू कहते हैं इसे. आज की पार्टी में शहर का प्रसिद्ध टैटू आर्टिस्ट आया था. मेरे सभी मित्रों ने टैटू बनवाया तो भला मैं क्यों पीछे रहता? अच्छा लग रहा है न?’’ शशांक मुसकराया.

‘‘अच्छा? सड़कछाप लग रहे हो तुम. हाथ से ले कर गरदन तक टैटू बनवाने के पैसे थे तुम्हारे पास?’’ विभा क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मेरे पास पैसे कहां से आएंगे, मौम? बैंक में बड़ी अफसर आप हैं, आप. पापा भी बड़ी मल्टीनैशनल कंपनी में बड़े पद पर हैं पर अपने इकलौते पुत्र को मात्र 1 हजार रुपए जेबखर्च देते हैं आप दोनों. लेकिन मेरे मित्र आप की तरह टटपूंजिए नहीं हैं. मेरे मित्र अशीम ने ही यह शानदार पार्टी दी थी और टैटू आदि का प्रबंध भी उसी की ओर से था. पार्टी तो सारी रात चलेगी. मैं तो आप के डर से जल्दी चला आया,’’ शशांक ने बड़ी ठसक से कहा.

‘‘यह नया मित्र कहां से पैदा हो गया? अशीम नाम का तो तुम्हारा कोई मित्र नहीं था. उस ने पार्टी दी किस खुशी में थी? जन्मदिन था क्या?’’

‘‘एक बार में एक ही प्रश्न कीजिए न, मौम. तभी तो मैं ठीक से उत्तर दे पाऊंगा. आप जानना चाहती हैं कि यह मित्र आया कहां से? तो सुनिए, यह मेरा नया मित्र है. पार्टी उस ने जन्मदिन की खुशी में नहीं दी थी. वह तो इस पार्टी में अपनी महिलामित्र का सब से परिचय कराना चाहता था. पर मैं तो उस से पहले ही घर चला आया. अशीम को कितना बुरा लग रहा होगा. पर मैं समझा लूंगा उसे. मेरा जीवन उस के जैसा सीधासरल नहीं है. कल स्कूल भी जाना है,’’ शशांक ने बेमतलब ही जोर से ठहाका लगाया.

‘‘यह क्या? तुम पी कर आए हो क्या?’’ विभा ने कुछ सूंघने की कोशिश की.

‘‘इसे पीना नहीं कहते, मेरी प्यारी मां. इसे सामाजिक शिष्टाचार कहा जाता है,’’ विभा कुछ और पूछ पातीं उस से पहले शशांक नींद की गोद में समा गया था.

विभा शशांक को कंबल ओढ़ा कर बाहर निकलीं तो रात्रि का अंधकार और भी डरावना लग रहा था. पति के अपनी कंपनी के काम से शहर से बाहर जाने के कारण घर का सूनापन उन्हें खाने को दौड़ रहा था.

शशांक उन की एकमात्र संतान था. पतिपत्नी दोनों अच्छा कमाते थे. इसलिए शशांक के पालनपोषण में उन्होंने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी. पर पिछले कुछ दिनों से वह अजनबियों जैसा व्यवहार करने लगा था.

अपने स्कूल, ट्यूशन और मित्रों की हर बात उन्हें बताने वाला शशांक मानो अपने बनाए चक्रव्यूह में कैद हो कर रह गया था जिसे भेद पाना उन के लिए संभव ही नहीं हो रहा था.

‘आज क्या हुआ मालूम?’ विभा के घर पहुंचते ही वह इस वाक्य से अपना वार्त्तालाप प्रारंभ करता तो उस का कहीं ओरछोर ही नहीं मिलता था. शशांक अपने सहपाठियों के किस्से इतने रसपूर्ण ढंग से सुनाता कि वे हंसतेहंसते लोटपोट हो जातीं.

पर अब उन का लाड़ला शशांक कहीं खो सा गया था. कुछ पूछतीं भी तो हां, हूं में उत्तर देता. अब रात को देर से लौटता और अपने मित्रों व परिचितों के संबंध में बात तक नहीं करता था.

शशांक तो शायद खापी कर आया था पर उस की हरकत देख कर विभा की भूखप्यास खत्म हो गई थी. विभा ने काफी देर तक सोने का असफल प्रयत्न किया पर नींद तो उन से कोसों दूर थी. मन हलका करने के लिए उन्होंने पति संदीप को फोन मिलाया.

‘‘हैलो विभा, क्या हुआ? सोईं नहीं क्या अभी तक? सब कुशल तो है?’’ संदीप का स्वर उभरा.

विभा मन ही मन जलभुन गईं. वह भी समय था जब जनाब सारी रात दूरभाष वार्त्ता में गुजार देते थे. अब 11 बजे ही पूछ रहे हैं कि सोईं नहीं क्या? पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं बोलीं.

‘‘जिस का शशांक जैसा बेटा हो उसे भला नींद कैसे आएगी,’’ विभा कुछ सोच कर बोलीं.

‘‘ऐसा क्या कर दिया हमारे लाड़ले ने जो तुम इतनी बेहाल लग रही हो?’’ संदीप हंस कर बोले.

‘‘अपने मित्रों के साथ किसी पार्टी में गया था. कुछ ही देर पहले खापी कर लौटा है. पी कर अर्थात सचमुच पी कर. मन तो हो रहा है कि डंडे से उस की खूब पिटाई करूं पर क्या करूं, अकेली पड़ गई हूं,’’ विभा ने पूरी कहानी कह सुनाई.

‘‘तुम क्यों दिल छोटा करती हो, विभा. हम 3-4 दिन में घर पहुंच रहे हैं न. सब ठीक कर देंगे,’’ संदीप अपने अंदाज में बोले.

‘‘आप घर पहुंचेंगे अवश्य पर टिकेंगे कितने दिन? माह में सप्ताह भर भी घर पर रहने का औसत नहीं है आप का,’’ विभा ने शिकायत की.

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‘‘तुम क्यों चिंता करती हो. तुम तो स्वयं मातापिता दोनों की भूमिका खूबी से निभा रही हो. तुम चिंता न किया करो. शशांक की आयु ही ऐसी है. किशोरावस्था में थोड़ीबहुत उद्दंडता हर बच्चा दिखाता ही है. तुम थोड़ा उदार हो जाओ, फिर देखो,’’ संदीप ने समझाना चाहा.

‘‘चाहते क्या हैं, आप? रातभर घर से बाहर आवारागर्दी करने दूं उसे? पता भी है कि आज पहली बार आप का लाड़ला किशोर पी कर घर आया है?’’ विभा सुबकने लगी थीं.

‘‘होता है, ऐसा भी होता है. इस आयु के बच्चे हर चीज को चख कर देखना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे छोटा बच्चा अनजाने में आग में हाथ डाल देता है,’’ संदीप ने और समझाना चाहा.

‘‘हां, और झुलस भी जाता है. तो शशांक को आग में हाथ डालने दूं? भले ही वह जल जाए,’’ विभा का सारा क्रोध संदीप पर उतर रहा था.

‘‘विभा, रोना बंद करो और मेरी बात ध्यान से सुनो. कभीकभी तरुणाई में अपनी संतान को थोड़ी छूट देनी पड़ती है जिस से उस में अपना भलाबुरा समझने की अक्ल आ सके, शत्रु और मित्र में अंतर करना सीख सके,’’ संदीप ने विभा को शांत करने का एक और प्रयत्न किया.

‘‘वही तो मैं जानना चाहती हूं कि ये अशीम जैसे उस के मित्र अचानक कहां से प्रकट हो गए. पहले तो शशांक ने कभी उन के संबंध में नहीं बताया.’’

‘‘सच कहूं तो मैं शशांक के किसी मित्र को नहीं जानता. कभी उस से बैठ कर बात करने का समय ही नहीं मिला.’’

‘‘तो समय निकालो, संदीप. 2 माह बाद ही शशांक की बोर्ड की परीक्षा है और उस के बाद ढेरों प्रतियोगिता परीक्षाएं.’’

‘‘ठीक है, मुझे घर तो लौटने दो. फिर दोनों मिल कर देखेंगे कि शशांक को सही राह पर कैसे लाया जाए. तब तक खुद को शांत रखो क्योंकि रोनापीटना किसी समस्या का हल नहीं हो सकता,’’ संदीप ने वार्त्तालाप को विराम देते हुए कहा था पर विभा को चैन नहीं था. किसी प्रकार निद्रा और चेतनावस्था के बीच उस ने रात काटी.

अगले दिन शशांक ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. वह तैयार हो कर स्कूल चला गया तो विभा ने भी उस के स्कूल का रुख किया. बैंक से उस ने छुट्टी ले ली थी. वह शशांक की मित्रमंडली के संबंध में सबकुछ पता करना चाहती थी.

पर स्कूल पहुंचते ही शशांक के अध्यापकों ने उन्हें घेर लिया.

‘‘हम तो कब से आप से संपर्क करने का प्रयत्न कर रहे हैं. पर आजकल के मातापिता के पास पैसा तो बहुत है पर अपनी संतान के लिए समय नहीं है,’’ शशांक के कक्षाध्यापक विराज बाबू ने शिकायत की.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं तो अपने सब काम छोड़ कर पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आती हूं पर अब तो आप ने पेरैंट्सटीचर मीटिंग के लिए बुलाना भी बंद कर दिया,’’ विभा ने शिकायत की.

‘‘हम तो नियम से अभिभावकों को आमंत्रित करते हैं जिस से उन के बच्चों की प्रगति का लेखाजोखा उन के सम्मुख प्रस्तुत कर सकें. शशांक ने पढ़ाई में ध्यान देना ही बंद कर दिया है. हम नियम से परीक्षाफल घर भेजते हैं पर शशांक ने कभी उस पर अभिभावक के हस्ताक्षर नहीं करवाए,’’ बारीबारी से उस के सभी अध्यापकों  ने शिकायतों का पुलिंदा विभा को थमा दिया.

‘‘आप की बात पूरी हो गई हो तो मैं भी कुछ बोलूं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘जी हां, कहिए,’’ प्रधानाचार्य अरविंद कुमार बोले.

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‘‘हम ने तो अपने बेटे का भविष्य आप के हाथों में सौंपा था. आप के स्कूल की प्रशंसा सुन कर ही हम शशांक को यहां लाए थे. और जब आप के द्वारा भेजी सूचनाएं हम तक नहीं पहुंच रही थीं तो हम से व्यक्तिगत संपर्क करना क्या आप का कर्तव्य नहीं था?’’ विभा आक्रामक स्वर में बोली.

‘‘आप सारा दोष हमारे सिर मढ़ कर अपनी जान छुड़ा लेना चाहती हैं पर जरा अपने सुपुत्र के हुलिए पर एक नजर तो डालिए. प्रतिदिन नए भेष में नजर आता है. स्कूल में यूनिफौर्म है पर लंबे बाल, हाथों से ले कर गरदन तक टैटू. मैं ने तो प्रधानाचार्य महोदय से शशांक को स्कूल से निकालने की सिफारिश कर दी है,’’ विराज बाबू बोले. सामने खड़े शशांक ने मां को देख कर नजरें झुका लीं.

‘‘अपनी कमी छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो ही क्या सकता है. पहले अपने उन विद्यार्थियों को बुलाइए जिन्होंने शशांक को बिगाड़ा है. वे रोज किसी न किसी बहाने से बड़ीबड़ी पार्टियां देते हैं. शशांक उन्हीं के चक्कर में देर से घर लौटता है,’’ विभा बोली.

‘‘कौन हैं वे?’’ विराज बाबू ने  प्रश्न किया.

‘‘कोई अशीम है, अन्य छात्रों के नाम तो शशांक ही बताएगा. आजकल वह मुझे अपनी बातें पहले की तरह नहीं बताता है.’’

‘‘अशीम? पर इस नाम का कोई छात्र हमारे स्कूल में है ही नहीं. वैसे भी, इंटर के छात्र इस समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त हैं, पार्टी आदि का समय कहां है उन के पास?’’ प्रधानाचार्य हैरान हो उठे.

‘‘शशांक, कौन है यह अशीम? कुछ बोलते क्यों नहीं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘यह मेरा फेसबुक मित्र है. नीरज, सोमेश, दीपक और भी कई छात्र उन्हें जानते हैं,’’ शशांक ने बहुत पूछने पर भेद खोला.

‘‘मैं ने तो तुम्हारा फेसबुक अकाउंट बंद करा दिया था,’’ विभा हैरान हो उठीं.

‘‘पर हम सब का अकाउंट स्कूल में है. प्रोजैक्ट करने के बहाने हम इन से संपर्क करते थे,’’ शशांक ने बताया.

राज खुलना प्रारंभ हुआ तो परत दर परत खुलने लगा. अशीम और उस के मित्रों की पार्टियों के लिए धन शशांक और उस के मित्र ही जुटाते थे और यह सारा पैसा मातापिता को बताए बिना घर से चोरी कर के लाया जाता था.

विभा ने सुना तो सिर थाम लिया. बैंक का कामकाज संभालती है वह पर अपना घर नहीं संभाल सकी.

‘‘मैडम, आप धीरज रखिए और हमें थोड़ा समय दीजिए. भूल हम से अवश्य हुई है पर भूल आप से भी हुई है. काश, आप ने यह सूचना हमें पहले दी होती. हम इस समस्या की जड़ तक जा कर ही रहेंगे. यह हमारे छात्रों के भविष्य का प्रश्न तो है ही, हमारी संस्था के सम्मान का भी प्रश्न है,’’ प्रधानाचार्यजी ने आश्वासन दिया.

3-4 दिन बाद फिर आने का आश्वासन दे कर विभा घर लौट आईं. शशांक भी उन के साथ ही था.

अब तक खुद पर नियंत्रण किए बैठी विभा घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘मां, क्षमा कर दो मुझे. भविष्य में मैं आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा,’’ शशांक उन्हें सांत्वना देता रहा.

‘‘मुझ से कहां भूल हो गई, शशांक? मैं ने तो तुम्हें सदा कांच के सामान की तरह संभाल कर रखा. फिर यह सब क्यों?’’

अगले दिन संदीप भी लौट आए थे और सारा विवरण जान कर सन्न रह गए थे.

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शीघ्र ही उन्हें पता लग गया था कि अशीम और उस के मित्र युवाओं को अपने जाल में फंसा कर नशीली दवाओं तक का आदी बनाने का काम करते थे. संदीप और विभा सिहर उठे थे. शशांक बरबादी के कितने करीब पहुंच चुका था, इस की कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी.

‘‘मेरे बेटे के भविष्य से बढ़ कर तो कुछ भी नहीं है. मैं तो शशांक के लिए लंबी छुट्टी लूंगी. आवश्यकता पड़ी तो सदा के लिए,’’ विभा बोलीं.

‘‘मां, आज मैं कितना खुश हूं कि मुझे आप जैसे भविष्य संवारने वाले मातापिता मिले,’’ कहते हुए शशांक भावुक हो उठा.

‘‘अरे बुद्धू, मातापिता तो धनी हों या निर्धन, शिक्षित हों या अशिक्षित, सदैव संतान की भलाई की ही सोचते हैं. पर ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है. तुम यों समझ लो कि अब तुम्हें हमारी आज्ञा का पूरी तरह पालन करना पड़ेगा. तभी तुम्हारा भविष्य सुरक्षित रहेगा. नहीं तो…?’’ विभा बोल ही रही थी कि संदीप वाक्य पूरा कर बोले, ‘‘नहीं तो तुम अपनी मां को तो जानते ही हो. वह अपना भविष्य दांव पर लगा सकती है पर तुम्हारा नहीं,’’ और तीनों के समवेत ठहाकों से सारा घर गूंज उठा.

Hindi Story : उस महिला के जाने के बाद सन्नाटा क्यों हो गया

Hindi Story : हम जब इस फ्लैट में नएनए आए तो ऐसे माहौल में रहने का अनुभव पहली बार हुआ. अजीब सा लग रहा था. इतने पासपास दरवाजे थे कि लगता था जैसे अपने ही बड़े से घर के कमरों के दरवाजे हैं. धीरेधीरे सब व्यवस्थित होने लगा. हमें मिला कर कुल 4 घर थे या यों कह सकते हैं कि 4 दरवाजे दिखाई पड़ते थे. अकसर सभी दरवाजे बंद ही रहते थे, पर उन के खुलने और बंद होने के स्वरों से पता चलता था कि उन के भीतर लोग रहते हैं.

मैं मन ही मन सोचती, ‘एक भी परिवार से जानपहचान नहीं हुई. ऐसे में मैं कैसे सारा समय अकेले बिता पाऊंगी,’ बेटियां सुबह अपनेअपने काम पर चली जातीं और शाम को लौटतीं. ऐसा ही शायद अन्य घरों में भी होता था, तभी तो दिनभर हलचल बहुत कम रहती. ‘सन्नाटे की आदत डालनी होगी,’ यह सोच कर मैं शांत रही.

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एक दिन बगल वाले परिवार में छोटे बच्चे के रोने का स्वर सुनाई दिया. शायद वह परिवार उसी दिन लौटा था. सुबह का काम निबटा कर सब्जी लेने को बाहर निकली. दरवाजे पर ताला लगाते हुए लगा, मानो बगल वाले दरवाजे के भीतर कोई सरक गया है.

फिर उधर से गुजरते हुए दृष्टि पड़ ही गई. सोफे पर एक वृद्ध महिला एक बच्चे को ले कर बैठी मुसकरा रही थीं. उस मुसकराहट में एक विशेष आत्मीयता थी, जैसे बहुत अरसे की परिचिता रही हों. मैं भी मुसकराई.

सब्जी ले कर वापस आई, तब तक बगल का दरवाजा बंद हो चुका था. मैं ने उस ओर से ध्यान हटाने का प्रयास किया और सोचा, ‘आजकल हर कोई अपनी दुनिया में मस्त रहना चाहता है.’

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दोपहर में भोजन कर के एक झपकी ली ही थी कि घंटी का स्वर गूंज उठा. दरवाजा खोला तो देखा, वह बगल वाली वृद्ध महिला व एक युवती बच्चे को ले कर सामने खड़ी मुसकरा रही हैं.

युवती ने अंगरेजी में अपना परिचय दिया. वृद्ध महिला उस की सास थीं. उसी दिन वे लोग गांव से लौटे थे. बच्चे के जन्म के बाद युवती अपनी सास को साथ ले कर आई थी. उस के पति डाक्टर थे और अकसर बाहर ही रहते थे.

उस दिन कुछ विशेष बातें न हो सकीं. परिचय का ही आदानप्रदान पहली मुलाकात में काफी रहता है. युवती हिंदी नहीं बोल सकती थी क्योंकि वह उत्तर भारत कभी नहीं गई थी. वह आंध्र प्रदेश की रहने वाली थी पर अंगरेजी अच्छी बोल सकती थी. लेकिन वह वृद्ध महिला न हिंदी बोल सकती थीं, न समझ सकती थीं. मैं ने मन को तसल्ली दी कि कम से कम युवती से तो विचारविनिमय हो ही सकता है.

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इस प्रकार प्रतिदिन हमारा मिलनाजुलना होने लगा. बिलकुल बगल वाला फ्लैट था. एक ईंट की दीवार ने विभाजन किया हुआ था 2 परिवारों का. वृद्ध महिला अपना काम समाप्त कर के बहू को निर्देश दे कर मेरे पास आ बैठतीं.

मैं उन्हें देखती रहती. वे ठेठ आंध्र परिवेश की महिला थीं. गाढ़े रंगों के ब्लाउज व कीमती मगर सूती, जरी किनारे की साडि़यां पहनतीं. गले में 4 लड़ी की सोने की जंजीर, कान व नाक में हीरे दपदपाते रहते. सामने के दांत कुछ ऊंचे पर सदा मुसकराता चेहरा, जैसे अब कुछ कहने ही वाली हों, पर कह न पा रही हों.

कुल मिला कर उन का व्यक्तित्व काफी खुशनुमा था. माथे पर कभीकभी चंदन लगा देख मैं समझ गई कि वे भी विधवा हैं. हमारे उत्तर भारत में विधवा पर ‘सफेदी’ चढ़ जाती है, पर दक्षिण में ऐसी कोई मान्यता नहीं है. सिंदूर तो सभी का पुंछ जाता है. बस, यही समानता है.

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पड़ोसिन वृद्ध महिला कभीकभी मेरे पास आ कर बैठतीं अवश्य, पर हम विचारों का आदानप्रदान या तो बहू के सामने अंगरेजी में या फिर संकेतों से ही किया करतीं.

एक अनजान शहर में, जहां अपना कहने को कोई न था, हमारी पड़ोसिन व उस का परिवार ही हमारा सहारा बन गए थे. भाषा, प्रांत व रीतिरिवाजों की भिन्नता भी हमारे बीच दीवार न बन सकी. लेकिन इस के अलावा कुछ ऐसी समानता भी थी जो हमें एकदूसरे के सुखदुख में साझीदार बनाए हुए थी. आखिर क्या थी वह समानता जो हर सीमा से परे थी?

एक दिन वे मेरे पास बैठी थीं, तब पता नहीं क्या सूझी जो तपाक से उठ कर मेरे पति की तसवीर के पास जा कर खड़ी हो गईं. तसवीर को गौर से देखती रहीं. फिर अनायास ही उन की आंखों से आंसू झरने लगे. मैं भी स्वयं को न रोक सकी. अनजाने ही वे तेलुगू में लगातार कुछ कहती रहीं.

मुझे तेलुगू थोड़ीथोड़ी समझ में आ जाती थी. वे कह रही थीं, ‘‘इतनी कम आयु रही होगी आप के पति की…खैर…होनी को कौन टाल सकता है…’’

हम दोनों थोड़ी संयत हुई ही थीं कि बहू आ गई. वह सास को खाना खाने के लिए बुलाने आई थी.

इस प्रकार वह वृद्धा लगभग हर रोज मेरे पास आ कर बैठतीं. बस, खामोश बैठी रहतीं.

मुझे भी उन का आना और खामोश बैठा रहना बेहद अच्छा लगता. बल्कि यों कहूं कि मेरी आदत हो गई थी. कभीकभार मैं उन के घर जा कर बैठ जाती या वे आ जातीं.

उन के घर जाने से एक लाभ यह था कि वृद्धा जो भी बोलतीं, उस का अनुवाद अंगरेजी में कर के बहू मुझे बता देती थी. इतना स्नेह वे बहू पर छिड़कतीं, पोते पर वारीवारी जातीं. उधर बहू भी ‘अम्माअम्मा’ कहते न थकती थी.

भाषा की अड़चन होते हुए भी धीरेधीरे इन बैठकों में मैं ने आंध्र प्रदेश के कई व्यंजन, पहनावा, रीतिरिवाज सीख ही लिए थे. उधर, उन्होंने भी उत्तर भारतीय व्यंजन बनाने सीखे, विवाह आदि की रस्में सुनीं व समझीं. हम दोनों ने ही हर विषय पर बातें कर के एकदूसरे के विचार जाने और इस प्रकार हमारी गहरी मित्रता हो गई, पर यह मित्रता बहुत दिनों तक न चल सकी. 3-4 महीने बाद एक दिन बहू ने बताया कि अम्मा वापस गांव रहने जा रही हैं.

वैसे मुझे पता था कि वे गांव में ही रहती हैं. यहां तो पोते की देखभाल के लिए बहू की सहायक बन कर कुछ ही महीनों के लिए आई हैं. पर अब शायद मुझे उन का जाना अच्छा नहीं लग रहा था. मैं ने उन से कहा, ‘‘वापस क्यों जा रही हैं? यहीं रहिए न. अब तो पोता भी है, मन लगा रहेगा.’’

‘‘नहीं, अब तो जाना ही होगा. उधर कौन देखेगा. वह सब भी तो इसी के लिए देखना पड़ता है. इतनी जमीन व खेती सब इसी के लिए ही तो करना है.’’

चलते समय वे पोते को गोदी में भींच कर खूब रोईं, बहू से भी लिपट कर रोईं. मैं भी गले मिली. आखिर अपनापा तो हो ही जाता है. डाक्टर साहब मां को ले कर चले गए. दूसरे दिन निर्धारित समय पर बहू मेरे पास आई. वह रोंआसी हो रही थी. कहने लगी, ‘‘अम्मा की बेहद याद आ रही है, सो नहीं रह सकी. डाक्टर साहब तो कल लौट पाएंगे.’’

मेरी भी आंखें भर आईं. कितना सन्नाटा था उस वृद्ध महिला के बिना. फिर भी बहू को दिलासा दिया, ‘‘मन छोटा न करो. अकेली नहीं हो तुम, हम लोग भी हैं. मैं हूं तुम्हारे पास.’’

लिपट गई बहू मुझ से. रोतेरोते बोली, ‘‘मेरी मां नहीं हैं. इन अम्मा ने दोहरी भूमिका निभाई मेरे साथ. अब मुझ से कह गई हैं कि तेरी पड़ोसिन भी मेरी बहन हैं, उन्हें मेरी ही जगह पर समझना. उन की तीसरी बेटी हो जाएगी तू…’’

इतनी बड़ी बात, इतना विश्वास मुझ पर. शायद इतना तो मैं ने कुछ किया भी न था उन के लिए. पर नहीं, यह तो अपनेअपने मानने की बात है. जिस के मन में जितना स्नेह, अपनत्व भरा हो वह दूसरे में भी उतना ही मान कर चलता है.

बहू काफी भावुक रही 2-3 दिन तक. धीरेधीरे सहज होने लगी. मेरे पास आती, कभी किसी काम से, कभी यों ही बैठने, अभी तक हम इधरउधर की बातें ही करती थीं. पर एक दिन अचानक न जाने कैसे बात छिड़ गई और मैं पूछ बैठी, ‘‘अम्मा के पास उधर कौन रहता है? क्या तुम्हारे जेठ, देवर कोई ननद वगैरह हैं?’’

बहू जैसे अपनी तरफ से नहीं, पर मेरे शुरू करने की प्रतीक्षा में ही थी. घर की बातें थीं, पर फिर भी उस ने मुझे बताईं.

वह बोली, ‘‘ससुराल वाले बहुत पैसे वाले हैं, व्यापारी हैं. मूंगफली, नारियल व अन्य फलों की खेती होती है. ससुर 2 भाई थे. बड़े भाई से ससुर की न पटती थी. आएदिन झगड़े होते थे कि एक दिन ससुर की हत्या कर दी गई. गांव वाले तो कहते थे कि भाई ने ही हत्या कराई थी.

‘‘सब रोपीट कर रह गए. मेरी सास अपनी अकेली संतान को ले कर वहीं डटी रहीं. उन के भाई, भतीजे सहायता के लिए आसपास ही रहते थे. खेती में आधा हिस्सा कराया. बेटे को डाक्टर बनाया, विवाह किया.

‘‘पर अब भी निश्ंिचत नहीं हैं. पति के हिस्से की खेती व जायदाद की देखभाल अकेली ही करती हैं. बेटे को शहर में रहने दिया है, ताकि उसे सभी सुखसुविधाएं मिलती रहें और स्वयं अकेली उधर गांव में जूझती रहती हैं. बेटे को विदेश भेजने की आकांक्षा है, उच्च शिक्षा के लिए.’’

मैं हैरान थी. उन की वह भोली मुसकराहट याद हो आई. मैं सोचने लगी, इतनी साहसी महिला, कैसे देखा होगा वह क्षण, जब कुल्हाड़ी से कटा पति का निर्जीव शरीर सामने पड़ा होगा.

उफ, मेरा तो रोना निकल गया. बहू ने मुझे धीरज बंधाया, ‘‘आप रो रही हैं? जब कि अम्मा आप को आदर्श मानती हैं. वे मुझे समझा कर गई हैं कि इन्हें देखो, इन से साहस सीखो. 2 बेटियों को ले कर इतने बड़े शहर में अकेली रहती हैं. सब काम स्वयं संभालती हैं. ऐसी महिला मेरी ही कोई अपनी हो सकती है. तभी तो कहती हैं, मेरे न रहने पर उन्हें ही अपना बुजुर्ग मानना.’’

बहू चली गई. मैं अकेली बैठी सोचती रह गई कि धन्य है वह साहसी महिला.

यह बात इतना अवश्य स्पष्ट करती थी कि भाषा, प्रांत आदि की समानता न होने पर भी हम दोनों में कितनी बड़ी समानता थी. बिना पुरुष संरक्षण के कठिन स्थिति का सामना करते हुए हम दोनों ही जीवनयात्रा पर आगे बढ़ती जा रही थीं. अब वे अगली बार जब यहां आएंगी तब मुझे और भी अपनीअपनी सी लगेंगी, जैसे एक विशेष रिश्ता हम दोनों के बीच कायम हो गया था.

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