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 वक्त की अदालत में : भाग 1

मैं बिस्तर पर ही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी दीदी, नमस्ते, मैं नवीन बाबू बोल रहा हूं.’’

इतनी सुबह नवीन बाबू का फोन? कई शंकाएं मन में उठने लगीं. उन के घर के सामने की सड़क के उस पार मेरा नया मकान बना था नागपुर में. वहां कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई. ‘‘जी भैया, नमस्ते. खैरियत तो है?’’

‘‘आप को एक खबर देनी है,’’ नवीन बाबू की आवाज में बौखलाहट थी, ‘‘दीदी, आप के शौहर की कोई जवान बेटी है क्या?’’

‘‘हां, है न.’’

‘‘उस का नाम निलोफर है क्या?’’

‘‘नाम तो मु झे पता नहीं. हां, उस महल्ले में मेरी एक कलीग रहती है, उस से पूछ कर बतला सकती हूं.’’

‘‘मु झे विश्वास है, निलोफर अब्दुल मुकीम की दूसरी बीवी की बेटी है. पता लिखा है प्लौट नं. 108, लश्करी बाग.’’

‘‘हां, मेरे घर का पता तो यही था. मगर हुआ क्या, बतलाइए तो.’’

‘‘निलोफर के साथ कांड हो गया है. पेपर में खबर छपी है,’’ भैया कोर्ट की भाषा में बोले, ‘‘कल पांचपावली थाने की पुलिस मेरे कोर्ट में एक आरोपी को पकड़ कर लाई थी. जज साहब ने बड़ी मुश्किल से उस का पीसीआर दिया है. आरोपी पर 4 धाराएं लगी हैं. लड़की को बहलाफुसला कर होटल में ले जा कर बलात्कार करने और लड़की द्वारा शादी के लिए कहने पर उसे और उस के बाप से 5 लाख रुपए की डिमांड करने, न देने पर बाप को जान से मार देने की धमकी के 4 केस लगाए गए हैं.’’ यह सब सुन कर मेरे कानों से गरमगरम भाप निकलने लगी. सिर चकराने लगा. वह आगे बोलता रहा, ‘‘इतना ही नहीं दीदी, आरोपी खुद पुलिसमैन है और अनुसूचित जाति का है. दीदी, आप जब नागपुर आएंगी न, तब पीसीआर की कौपी दिखलाऊंगा.’’ नवीन बाबू की आवाज ‘‘हैलो, हैलो…’’ आती रही और मेरे हाथ से मोबाइल छूट कर बिस्तर पर गिर पड़ा.

मैं पसीने से लथपथ थी. दिमाग सुन्न सा हो गया. और मैं बिस्तर पर ही बुत बनी बैठी रही. दोपहर के 3 बजे आंख खुली. घर का सांयसांय करता सन्नाटा नवीन बाबू की आवाज की प्रतिध्वनि से टूटने लगा. बड़ी मुश्किल से उठी. घसीटते कदमों से किचन में जा कर पानी का बड़ा गिलास गटगट कर के गले से नीचे उतार लिया और धम्म से वहीं फर्श पर सिर पकड़ कर बैठ गई. धीरेधीरे आंखें बंद होने लगीं लेकिन मस्तिष्क में जिंदगी की काली किताब का एकएक बदरंग पन्ना समय की तेज हवाओं से फड़फड़ाने लगा.

40 साल पहले मेरे पोस्टग्रेजुएट होने के बाद अम्मी व अब्बू की रातों की नींद हराम हो गई थी, मेरी शादी की फिक्र में. पूरे एक साल की तलाश के बाद भी जब सही रिश्ता नहीं मिला तो मेरी बढ़ती उम्र और छोटी 2 बहनों के भविष्य की खातिर मु झे एक ग्रेजुएट, पीटी टीचर से शादी की रजामंदी देनी पड़ी.

ससुराल में 2 देवर, एक ब्याहता ननद और बेवा सास. निम्न मध्यवर्गीय परिवार में खाना पकाने के भी समुचित बरतन नहीं थे.

‘लोग कहते हैं आप के 3-3 बेटे हैं. इतना दहेज मिलेगा कि घर में रखने की भी जगह नहीं होगी.’ सास की यह बात सुन कर शादी की तारीख तय करने गए अम्मी व अब्बू आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा जेवरात, कपड़े, घरेलू सामान देने पर भी मेहर की रकम को कम से कम करवाने पर सास के अडि़यल स्वभाव ने मेरे विदा होने से पहले ही कड़वाहट की बरछियों से मेरे मधुर सपनों की महीन चादर में कई सुराख कर दिए जिन में से मेरी पीड़ा को बहते हुए आसानी से देखा जा सकता था.

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‘दुलहन, जो जेवर हम ने तुम्हें निकाह के वक्त पहनाए थे वे हमें वापस दे दो. तुम्हारे देवर के निकाह में वही जेवर छोटी दुलहन के लिए ले जाएंगे,’ सास ने शादी के 5वें दिन ही हुक्म दिया. मैं ने अकेले में मुकीम से पूछा तो उन्होंने हामी भर दी और बगलें  झांकते हुए काम का बहाना कर के कमरे से बाहर चले गए. दूसरे ही दिन मैं ने मन मसोस कर अपने मायके और निकाह के वक्त दिए गए तमाम जेवर सास के हाथ में थमा दिए. उन का चेहरा खिल गया.

पूरे दिन में सिर्फ एक वक्त चाय और दो वक्त खाना बनता जिस में से रसेदार सब्जी होती तो दालचावल नहीं बनते. हां, जुमे के दिन विशेष खाना जरूर पकता था.

शौहर के संसर्ग के शहदीले सपने तब कांच की तरह टूट गए जब शादी के 10वें दिन शौहर को आधीरात नशे में धुत देखा. ‘शादी की पार्टी में दोस्तों ने जबरदस्ती पिला दी,’ मेरे पूछने पर उन्होंने कहा. मेरे संस्कार धूधू कर के जलने लगे.

मेरे हाथों की मेहंदी का रंग फीका भी नहीं पड़ा था कि एक शाम शादी के वास्ते लिए गए कर्ज की अदायगी को ले कर मुकीम, सास और देवर के बीच जबरदस्त  झगड़ा होने लगा. ‘मु झे अपने दूसरे बेटों की शादियां भी करनी हैं और घर भी चलाना है. तू अपनी शादी का कर्जा खुद अदा कर और घर में खर्च के लिए भी पैसे दे, सम झा,’ सास अपने बेटे यानी मेरे शौहर मुकीम से बोलीं.

‘नहीं, शादी का कर्जा दोनों भाई मिल कर देंगे और घर भी दोनों मिल कर चलाएंगे,’ मुकीम ने जवाब  दिया.

‘अरे वाह रे वाह, एक तू ही चालाक है. तुम दोनों मियांबीवी. और वह अकेला. वह क्यों देगा तेरा कर्जा? उस पर से तेरे कमरे की बिजली का खर्च. पानी, हाउसटैक्स, पूरे 5 हजार रुपए का खर्च है महीने का. उस पर तेरा शौक पीना… वह क्यों उठाएगा इतना खर्च? तू ने शादी की है, तू भरता रह अपना कर्जा.’ बात तूल पकड़ती चली गई. घर से चीखनेचिल्लाने की आती हुई आवाजों ने पड़ोसियों को अपनी खिड़कियों की  िझरी से  झांकने के लिए बाध्य कर दिया. उसी दिन मु झे ससुराल की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का पता चला.

चीखना, चिल्लाना, गालीगलौज के बीच दोनों भाइयों का हाथापाई का दृश्य देख कर मैं भीतर तक सहम गई थी. मायके में मेरे घर के शांत व शालीन वातावरण में ऊंची आवाज में बोलना बदतमीजी सम झी जाती थी. ससुराल में परिवार के सदस्यों के बीच फौजदारी की हद तक की लड़ाई का दंगाई दृश्य देख कर मैं बुरी तरह आहत हो गई. सास गुस्से से तनतनाती हुई बेटी के घर चली गई, लेकिन जातेजाते अपनी आपसी लड़ाई का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ गई. वह मेरे और मुकीम के बीच तनाव व मनमुटाव का कसैला धुआं फैला गई. रिश्तेदारों के सम झानेबु झाने पर वापस लौट तो आई लेकिन घर में 2 चूल्हों का पतीला ले कर. मेरे और सास, देवर, ननद के बीच अबोले की काली चादर तन गई.

मैं ऊपर की मंजिल वाले कमरे में तनहा बैठी उन बेतुके और अनबु झे कारणों को ढूंढ़ती जिन्होंने मु झे निहायत बदकार, खुदगर्ज और कमजर्फ बहू बना दिया क्योंकि उन को यह वहम हो गया था कि मैं मुकीम को सब के खिलाफ भड़काती हूं.

जीवन के सतरंगी सपनों का पड़ाव घुटन के संकरे दर्रे में सिमट गया. मैं बीमार पड़ गई और मुकीम, पैसा खर्च न करना पड़े, मु झे बुखार की हालत में ही मायके छोड़ आए. वे बोले थे, ‘बीमार लड़की मेरे गले मढ़ दी आप लोगों ने. पूरा इलाज करवाइए, पूरी तरह से ठीक होने पर ही मु झे सूचित कीजिएगा.’ अम्मी व अब्बू उस की धमकी सुन कर स्तब्ध रह गए.

टायफाइड हो गया था मु झे. पलंग पर हड्डियों के ढांचे के बीच सिर्फ 2 पलकें ही खुलतीं, बंद होतीं, जो मेरे जीवित होने की सूचना देतीं. महीनों तक न कोई खत, न कोई खबर, न फोन. अब्बू ने भी चुप्पी साध ली थी.

अचानक एक दिन घर के सामने मुकीम को रिकशे से उतरते देख दोनों छोटी बहनों ने चहकते हुए दरवाजा खोला, ‘खुशामदीदी भाईसाहब.’ मेहमानखाने में अम्मी के साथ मु झे खड़ा देख कर वह चौंक कर बोला, ‘अरे, मैं तो सम झा था कि अब तक मरखप गई होगी. यह तो हट्टीकट्टी, जिंदा है. तो क्या ससुराल में नाटक कर रही थी?’ कर्कश स्वर से निकले मुकीम के विषैले शब्दों ने हम सब का सीना चीर दिया. जी चाहा, उसे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर ढकेल दूं मगर पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत ने मेरे गुस्से के उफान को दबा दिया. अम्मी व अब्बू की तिलतिल घुलती काया और ब्याह लायक दोनों छोटी बहनों के चेहरे पर उभरती उदासी की छटपटाहट ने मु झे रोक दिया और मुकीम के साथ वापस ससुराल जाने के लिए मजबूर कर दिया.

म झले देवर की शादी मेरी गैरहाजिरी में हो गई थी. सास और शौहर ने बड़ी बहू के अस्तित्व को नकारते हुए मु झे अपने घर में सिर्फ एक गैरजरूरी चीज की तरह चुप रह कर दिन काटने के लिए मजबूर कर दिया था.

‘पढ़ीलिखी, मगर नाकारा लड़की को बहू बना लिया तुम ने, असगरी. कम से कम नौकरी कर के घर की खस्ता हालत को सुधारने में मदद करने वाली बहू ब्याह लाती? बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं, सयाना कौवा अकसर मैले पर ही बैठता है,’ मामी सास के तंज ने मेरा रहासहा हौसला भी पस्त कर दिया.

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‘बीएड करूंगी मैं.’ एक दिन हिम्मत कर के मैं बोली.

‘तेरे बाप ने हुंडा दे रखा है क्या?’ मुकीम की तीखी आवाज का तमाचा गाल पर पड़ा. कान  झन झना कर रह गए.

‘जेवर बेच दीजिए मेरे.’

‘उसी को तो बैंक में रख कर मैं ने लोन लिया है.’

‘क्या?’ जैसे आसमान से गिर पड़ी मैं.

म झली बहन की शादी की तैयारियों में अब्बू की टूटती कमर का मु झे शिद्दत से एहसास था. फिर मेरे लिए कहां से लाएंगे वे पैसे.

अगले भाग में पढ़ें- वह सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी.

 वक्त की अदालत में : भाग 3

पलट कर देखा, तो मुकीम अंगारे उगलती आंखों और विद्रूप चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान से बोला, ‘इतना सजधज कर स्कूल जा रही है, या कहीं मुजरा करने जा रही है.’ सुन कर मैं अपमान और लांछन के दर्द से तिलमिला गई, ‘हां तवायफ हूं न, मुजरा करने जा रही हूं. और तुम क्या हो, तवायफ की कमाई पर ऐश करने वाले.’

‘आज तो तु झे जान से मार डालूंगा मैं…ले, ले,’ कहते हुए मुकीम मेरे कमर से नीचे तक के लंबे घने खुले बालों को खींच कर घर के मुख्य दरवाजे पर ही पटक कर लातोंघूसों से मारने लगा. नई साड़ी तारतार हो गई. कुहनी, घुटना और ठुड्डी से खून बहने लगा. सड़क से आतेजाते लोग औरत की बदकिस्मती और मर्द की सरपस्ती का भयानक व हृदयविदारक दृश्य देखने लगे. ‘बड़ा जाहिल आदमी है, पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा औरत के साथ कैसा जानवरों सा सुलूक कर रहा है,’कहते हुए औरतें रुक जातीं. जबकि मर्द देख कर भी अनदेखा करते हुए तटस्थभाव से आगे बढ़ जाते.

‘मियांबीवी का मामला है, अभी  झगड़ रहे हैं 2 घंटे बाद एक हो जाएंगे. बीच में बोलने वाले बुरे बन जाएंगे. छोड़ो न, हमें क्या करना है,’ कहते और सोचते हुए पड़ोसी खिड़कियां बंद करने लगे और राहगीर अपनी राह पकड़ कर आगे बढ़ गए.

भूख, तंगदस्ती, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अपनी पराकाष्ठा पार करने लगा था. फिर भी मैं अपने और बच्चों की लावारिसी की खौफनाक कल्पना से डर कर 12 सालों तक चुप्पी साध कर मुकीम के घर में ही रहने के लिए विवश थी. लेकिन मुकीम ने अस्मिता पर चोट  की तो मैं बिलबिला कर शेरनी की तरह बिफर गई, ‘लो मारो. और मारो मुझे. लो, बच्चों को भी मार डालो. अपनी तमाम खामियां और कमजोरियां मर्दाना ताकत से दबा कर सिर्फ मजबूर औरत पर जुल्म कर सकते हो न, बड़ा घमंड है अपने मर्द होने पर. जानती हूं मेरे बाद कई औरतों से कई बच्चे पैदा करने की ताकत है तुम में, लेकिन सच यह है कि इस के अलावा और कोई खूबी भी तो नहीं तुम में. इसलिए तो मेरे वकार, मेरी ईमानदारी को लहुलूहान कर के खुश होने का भ्रम पाल रखा है तुम ने.’

‘साली, सजधज कर बाहर के मर्दों को रि झाने जाती है. कुछ कहने पर मुंहजोरी करती है. आज तो मैं तु झे सबक सिखा कर रहूंगा. दो पैसे कमाने का इतना घमंड दिखलाती है. ले, अब चला मुंह,’ कहते हुए मुकीम वहशी की तरह दौड़ा और पास पड़े 3 फुट लंबे चमड़े के पाइप को उठा कर पूरी ताकत से बरसाने लगा मेरे तांबे से जिस्म पर, सटाक, सटाक. आसमान देख रहा था चुपचाप, धरती देख रही थी चुपचाप, महल्ला देख रहा था चुपचाप, हवा बह रही थी चुपचाप. कोई एक कदम आगे न बढ़ा मुकीम की कलाई मरोड़ने के लिए. न ही मेरे जख्मों पर मरहम लगाने के लिए. पड़ोसिन सिद्दीकी आंटी मुंह पर पल्लू रख कर धीरे से बुदबुदाई थीं, ‘इसलिए तो औरत के बेबाक बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है. औरत को बाहर की हवा लगते ही वह मुंहफट और दीदेफटी हो जाती है.’

2 बच्चों की मां, कमाई करने वाली औरत, घर में नौकरानी की तरह खटने वाली औरत मैं 12 वर्षों तक अपने हक की रक्षा न कर सकी. खुदगर्ज मर्द के साथ बराबरी का सम्मान हासिल न कर पाईर्. 21वीं सदी की मुसलिम महिला की इस से बड़ी त्रासदी व विडंबना और क्या हो सकती है.

3 दशकों पहले राजीखुशी के समाचार खतों के जरिए ही मालूम होते थे. मैं ने कई बार सोचा, अम्मी व अब्बू को तब के मौजूदा हालात से वाकिफ करवा दूं, मगर हर बार उन की बुजुर्गी का सवाल कैक्टस की तरह चुभने लगता. मैं अपने भीतर की तपिश को ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाई. जिस्मोदिल चूरचूर हो गए थे. बुरी तरह से बीमार पड़ गई. स्कूल से लंबी छुट्टी. सूखा, टूटता, बिखरता शरीर. भूख से तड़पते दोनों मासूम बच्चों की सिसकियां. मुकीम को पछतावा तो दूर उन की फिक्र करने की भी चिंता न थी.

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उस की कमीनगी ने एक और रूप से परिचित करवा दिया. ‘मेहर सीरियस, कम सून.’ पोस्टमैन के हाथ से तार लेते हुए अब्बू थरथराने लगे थे. ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. जल्दी से पानी ला,’ अम्मी की बदहवास चीखों ने घर की दीवारों को थर्रा दिया. तबीयत संभली तो तीसरे दिन अब्बू सहर के साथ मुकीम की ड्योढ़ी पर खड़े थे. लाचार, बेबस बाप, मेरे चेहरे के नीचे स्याह धब्बों को लाचारगी से देखते हुए सीने से लगा कर फफक कर रो पड़े. नाजों में पली फूल सी बच्ची पर इतनी बर्बरता के निशान, उफ, बेटी पैदा करने की यह सजा. इतनी क्रूरता, ऐसा पाशिविक बरताव, मालूम होता तो पैदा होते ही नमक चटा देते, गला घोंट देते.

पढ़ेलिखे दामाद ने कितने लोगों की जिंदगी को अबाब बना कर रख दिया. न कानून सख्त है, न समाज में हौसला है एक औरत को शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देने वाले मर्द को सजा देने का. ये उन के दिए गए संस्कार ही थे जिस की बदौलत बेटी ने ससुराल की ड्योढ़ी से बाहर कदम नहीं निकाला.

अब्बू की कोशिश यही रही कि बात को संभाला जाए. बेबाप के बच्चे, बेशौहर की औरत समाज में नासूर की तरह ही पलते हैं. यह सोच कर अपने आक्रोश का जहर पी कर पत्थर की तरह वे चुप रहे. सहर ने किचन संभाल लिया. अब्बू सौदासलूक के साथ मेरे रिसते जख्मों के लिए मरहम और दवाइयां ले आए. शरीर के घाव तो भर जाएंगे लेकिन मनमस्तिष्क के गहरे घावों को भरने में शायद पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. मुकीम परिवार से कटाकटा ही रहा. अब्बू भी उस के मुंह लग कर अपनी इज्जत खोना नहीं चाहते थे. मुसलिम मध्यवर्गीय परिवार का सब से विवश और निरीह प्राणी बेटियों का बाप होता है.

हफ्तेभर बाद मेरे सिर पर सहानुभूति का हाथ रख कर बोले थे अब्बू, ‘बेटा, आप की अम्मी शुगर और ब्लडप्रैशर की मरीज हैं, आप के लिए बहुत फिक्रमंद हो रही होंगी. मैं शाम की गाड़ी से घर वापस जाने की इजाजत चाहता हूं.’

‘नहीं अब्बू, हमें अकेला छोड़ कर मत जाइए. ये दरिंदे तो हमें…’ मैं ने कस कर अब्बू के दोनों हाथ पकड़ लिए थे. ‘न, न… बेटा, मरे आप के दुश्मन. हौसला रखिए. अभी आप को दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना है, छोटी बहनों को विदा करना है, छोटे भाइयों को बड़ा होते देखना है, और पिं्रसिपल भी तो बनना है.’

‘नहीं, नहीं अब्बू, आप के साथ होने से बड़ी तसल्ली मिलती है. आप के अलावा इस शेर की मांद में हमारी हिफाजत कौन करेगा. आप मत जाइए, अब्बू.’

असमंजस की स्थिति में गिरफ्तार अब्बू काफी देर बाद बोल सके, ‘अच्छा, मैं सहर को कुछ दिनों के लिए आप के पास छोड़ जाता हूं. तसल्ली रहेगी आप को. तबीयत ठीक होते ही खत लिख देना. मैं आ कर ले जाऊंगा.’ डूबते को तिनके का सहारा. मेरा कोई तो अपना मेरे साथ होगा इन लोगों के बीच.

मुकीम अपने रूखे, नीरस और निष्ठुर स्वभाव के कारण बीवीबच्चों के साथ संवेदनशीलता से स्पंदनरहित था. यों तो घर का माहौल शांत था, फिर भी तूफानी हवाओं की सांयसांय अकसर कनपटी गरम कर जाती.

सहर खाली वक्त में बचपन की बातें याद दिला कर हंसाने की पुरजोर कोशिश करती, मगर मेरे चेहरे पर फीकी हंसी की एक लकीर लाने में भी कामयाब न हो पाती.

मैं ने पपड़ाए जख्मों के साथ ही स्कूल जौइन किया. स्टाफरूम की हर निगाह सवाली, मेरे गुलाबी, फड़फड़ाते होंठों से वहशीयत की कहानी सुनने के लिए. मगर सिले होंठों की सिवन कभी न उधेड़ने की प्रतिज्ञा करने पर मेरे खाते में सिर्फ हमदर्दी की शबनम ही आती रही.

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उस दिन रोज ही की तरह सहर दोनों बच्चों को अगलबगल लिए दूसरे कमरे में सोई थी. दरवाजे का परदा गिरा था. मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. पानी पीने के लिए उठना ही चाहती थी कि सीढि़यों पर चढ़ती पदचाप सुन कर आंखें मूंदे करवट बदल कर लेटी रही. दवाइयों का असर और शरीर की टूटन ने धीरेधीरे नींद की आगोश में भर दिया. अकसर मुकीम पलंग की दूसरी तरफ चुपचाप आ कर लेट जाता था.

तीसरे पहर सहर की जोरदार चीख सुन कर मैं कच्ची नींद से उठ कर दूसरे कमरे की तरफ भागी. नींद से बो िझल आंखों को कुछ भी नजर नहीं आया, तो दीवार पर टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया. दूधिया रोशनी में सामने का दृश्य देख कर पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. शराब के नशे में धुत मुकीम कमर के नीचे से एकदम नंगा, चित लेटी सहर के ऊपर लेटा एक हाथ से उस के मुंह को दबाए, दूसरे हाथ से उस की छातियां मसल रहा था. दिल हिला देने वाला पाशविक दृश्य किसी भी सामान्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी था. मैं ने अपनी पूरी ताकत सहर को मुकीम की गिरफ्त से छुड़ाने में लगा दी.

अगले भाग में पढ़ें- वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

वक्त की अदालत में : भाग 4

मेहर ने क्या चाहा था. बस, शादी के बाद एक सुकूनभरी जिंदगी. वह भी न मिल सकी उसे. पति ऐसा मिला जिस ने उसे पैर की जूती से ज्यादा कुछ न समझा. लेकिन वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

एक लंबी जद्दोजेहद के बावजूद कामांध मुकीम बारबार मुंह से  फुंफकार निकालते हुए सहर को अपनी तरफ खींचने के लिए जोर लगा रहा था. तभी मैं ने एक जोरदार लात उस के कूल्हे पर दे मारी. वह पलट कर चित हो गया. गुस्से से बिफर कर मैं ने दूसरी लात उस के ऊपर दे मारी. दर्द से चीखने लगा. मारे दहशत के मैं ने जल्दी से सहर का हाथ खींच कर उठाया और तेजी से उसे कमरे से बाहर खींच कर दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी. और धड़धड़ करती सीढि़यां उतर कर संकरे आंगन के दूध मोगरे के पेड़ के साए तले धम्म से बैठ कर बुरी तरह हांफने लगी.

रात का तीसरा पहर, साफ खुले आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. नीचे के कमरों में देवरदेवरानी और सास के खर्राटों की आवाजें गूंज रही थीं. दोनों बहनें दम साधे चौथे पहर तक एकदूसरे से लिपटी, गीली जमीन पर बैठी अपनी बेकसी पर रोती रहीं. ऊपर के कमरे में पूरी तरह खामोशी पसरी पड़ी थी. नशे में धुत मुकीम शायद सुधबुध खो कर सो गया था.

अलसुबह मैं छोटी बहन को उंगली के इशारे से यों ही चुप बैठे रहने को कह कर दबे कदमों से ऊपर पहुंची. बिना आवाज किए कुंडी खोली. हलके धुंधलके में मुकीम का नंगा शरीर देखते ही मुंह में कड़वाहट भर गई. थूक दिया उस के गुप्तांग पर. वह कसमसाया, लेकिन उठ नहीं सका. मैं ने पर्स में पैसे ठूंसे और दोनों नींद से बो िझल बच्चों को बारीबारी कर के नीचे ले आई और दबेपांव सीढि़यां उतर गई. दोनों बहनें मेनगेट खोल कर पुलिस थाने की तरफ जाने वाली सड़क की ओर दौड़ने लगीं.

दिन का उजाला शहर के चेहरे पर खींची सड़कों पर फैलने लगा था. ठंडी हवा के  झोंके राहत देने लगे थे. चलते हुए हांफने लगी थीं हम दोनों बहनें. पुलिस थाने से पहले एक पुलिया पर बैठ धौंकती सांसों पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगीं. सड़क पर मौर्निंग वाक करते इक्कादुक्का लोग दिखाई देने लगे थे. बच्चों की आंखें भी खुल गई थीं. मम्मी और खाला को सड़क के किनारे बैठा देख कर वे हैरानी से पूछने लगे, ‘क्या हुआ मम्मी, आप रो क्यों रही हैं?’ ‘कुछ नहीं बेटे’, कह कर मैं ने रुलाई दबाते हुए दोनों बच्चों को सीने से चिपका लिया.

इस घटना ने मेरे दिलोदिमाग को  झक झोर दिया. क्या गजब कर रही हो मेहर? कुंआरी बहन को पुलिस थाने में खड़ा कर के अपने शौहर की करतूतों का बखान करते हुए क्या बदनामी के छीटों से उस के सुनहरे भविष्य पर कालिमा पोत दोगी. तुम्हारी कमजोरी के कारण पहले ही वह मर्द तुम पर इतना हावी है, और अब भी उस का क्या बिगाड़ लोगी. वह मर्द है, सुबूतों के अभाव में बेदाग बरी हो जाएगा. लेकिन तुम्हारी बहन के साथ बलात्कार की तोहमत लगते ही वह कानून और समाज दोनों के हाथों बुरी तरह रुसवा कर दी जाएगी. तुम्हारा सदमा क्या कम है अम्मीअब्बू के लिए जो अब अपने पति के अक्षम्य अपराध की खातिर उन की जिंदगी को नारकीय बनाने जा रही हो. तुम्हारी अबोध बहन जिंदगीभर मीठे खवाबों की लाश ढोतेढोते खुद एक जिंदा लाश बन जाएगी. क्यों बरबाद कर रही हो बहन की जिंदगी? यह तुम्हारी जंग है, तुम लड़ो और जीतो. मैं जैसे डरावने खवाब से जागी.

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नहीं, नहीं, मैं अपनी चरमराती जिंदगी की काली छाया अपनी छोटी बहन के उजले भविष्य पर कतई नहीं पड़ने दूंगी. धीरेधीरे मेरा चेहरा कठोर होने लगा. एक ठोस फैसला लिया, ‘सहर, तुम अभी इसी वक्त स्टेशन के लिए रवाना हो जाओ. एन्क्वायरी से पूछ कर रायपुर जाने वाली पहली ट्रेन की जनरल बोगी में बैठ जाना. सामने से गुजरते रिकशे को रोक लिया मैं ने. सहर रात के हादसे से बेहद डर गई थी. दिल से बहन को उस गिद्ध के नुकीले पंजों के बीच अकेले छोड़ना नहीं चाह रही थी लेकिन मेरे बारबार इसरार करने पर रिकशे पर बैठ गई.

सूरज अपनी सुनहरी किरणों के कंधों पर सवार धीरेधीरे  आसमान पर चढ़ने लगा था. पूरा शहर, गलीकूचे, घर उजाले से दमकने लगे थे, लेकिन मेरी ब्याहता जिंदगी का सूरज आज हमेशाहमेशा के लिए डूबने वाला है, यह जानते हुए भी मैं दोनों बच्चों की उंगली पकड़े पुलिस थाने के मुख्यद्वार तक पहुंच गई.

रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी खाकी पैंट पर सिर्फ सफेद बनियान पहने दोनों हाथ ऊपर कर के अंगड़ाइयां ले कर मुंह से लंबीलंबी उबासियां लेते हुए रात की खुमारी उतार रहे थे.

‘मु झे रिपोर्ट लिखवानी है,’ मेरा चेहरा सख्त और आवाज में पुख्तगी थी. 2 बच्चों के साथ मैक्सी पहने सामने खड़ी महिला को देख कर भांपते देर नहीं लगी. वे समझ गए कि नारी उत्पीड़न और घरेलू मारपीट का मामला लगता है.

सिपाही ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ?’

मैं ने बहन के साथ बलात्कार की कोशिश वाली घटना को छिपा कर बाकी सारी दास्तान आंसूभरी आंखों और लरजती आवाज से सुना दी.

‘पढ़ीलिखी लगती है’, सिपाही दूसरे की तरफ देख कर फुसफुसाया. फिर बोला, ‘रिपोर्ट तो हम लिख लेंगे मैडम, मगर यहां आएदिन ही औरतमर्द का  झगड़ा भांगड़ का तमाशा देखते हैं हम.’

‘मु झ पर जुल्म हो रहा है. मैं अपनी सुरक्षा के लिए आप के पास रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. और आप इसे तमाशा कह रहे हैं?’

‘अरे मैडम, हम तो रोेजिच ये भांगड़ देखते हैं न. औरत बड़े गुस्से में आ कर रिपोर्ट लिखवाती है अपने मरद और ससुराल वालों के खिलाफ. फिर पता  नहीं कहां से उस के भीतर हिंदुस्तानी औरत का मोरल सिर उठाने लगता है और वह पति को ले कर कंप्रोमाइज करने आ जाती है. ऐसे में हमारी पोजिशन बड़ी खराब हो जाती है. न तो हम कोई ऐक्शन ले सकते हैं, न ही थाने का मजाक बनते देख सकते हैं. आप बुरा नहीं मानने का,’ होंठ टेढ़े कर के बीड़ी के आखिरी सिरे की आग को टेबल पर रगड़ता हुआ बोला सिपाही.

‘नहीं, मैं रिपोर्ट वापस नहीं लूंगी. थक गई हूं मैं 12 सालों से रोजरोज गालियां सुनते और मार खाते हुए’, कह कर मैं ने गले पर लिपटा दुपट्टा नीचे खिसका दिया. गले और कंधे पर जमे खून के धब्बे और नीले निशान देख कर थाना इंचार्ज ने सारी स्थिति सम झ कर रिपोर्ट लिख दी. महाराष्ट्र पुलिस हमेशा से अपनी मुस्तैदी के कारण शाबाशी की हकदार रही है. तुरंत हरकत में आ गई. मु झे लेडी पुलिस के साथ मेओ अस्पताल मैडिकल के लिए भेजा और दूसरी तरफ नंगे पड़े मुकीम को थाने ले आई.

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दूसरे दिन लोकल अखबारों में मर्दाना वहशत को महिला समाज में दशहत बना कर सुर्खियों में खबर छपी, ‘सरकारी शिक्षिका घरेलू हिंसा की शिकार, पति पुलिस कस्टडी में.’ पुलिस ने मु झे बच्चों के साथ घर पहुंचा दिया और वायरलैस से खबर दे कर अब्बू को नागपुर बुलवा लिया. तीसरे दिन शाम को ट्रक में भर कर बेटी का सामान स्कूल क्वार्टर में पहुंचा दिया. अब्बू एक हफ्ते तक साथ रहे. मेरे सिर पर हाथ रख कर सम झाते रहे, ‘सब्र करो, बेटा. सब ठीक हो जाएगा.’

घर के टूटने के मानसिक आघात से उबरने में लंबा वक्त लगा मु झे. अब्बू वापस चले गए. मैं बच्चों के साथ करोड़ों की आबादी वाले देश में तनहा रह गई.

स्कूल में सहकर्मियों के साथसाथ विद्यार्थियों से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. बचपन से ही मैं अंतर्मुखी, अल्पभाषी, कभी भी किसी से अपना दुखदर्द बांटने के लिए शब्द नहीं बटोर पाती थी. रात की भयावहता मेरे अंदर के सुलगते ज्वालामुखी के लावे को आंखों के रास्ते निकालने में मदद करती. होंठों पर गहरी खामोशी और आंखों के नीचे काले दायरे मेरी बेबसी की कहानी के लफ्ज बन जाते. हर रात आंसुओं से तकिया भीगता. मेरा खंडित परिवार मिलिट्री एरिया के स्कूल में महफूज तो था लेकिन डाक टिकट के परों पर बैठ कर कागजी यमदूतों को मु झ तक पहुंचने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं बना था.

2 महीने बाद ही कोर्ट का नोटिस मिला, ‘घर से चोरी कर के चुपचाप भागने का इलजाम…’ चीजों की लिस्ट में आधुनिक घरेलू चीजों के अलावा इतने जेवरात और रुपयों का जिक्र था जिन्हें मुकीम ने कभी देखा भी नहीं होगा. एक हफ्ते बाद फिर दूसरा नोटिस मिला, ‘बच्चों पर पिता का मालिकाना हक जताने का दावा.’

वकील ने तसल्ली दी थी, ‘दुहानी गाय हाथ से निकल गई. बस, इस की तिलमिलाहट है. जो शख्स अच्छा शौहर नहीं बन सका वह अच्छा बाप कैसे बन सकता है.’

प्राथमिक शिक्षिका की सीमित तनख्वाह, उस पर सरकारी क्वार्टर का किराया, फैस्टिवल एडवांस की कटौती, बच्चों की किताबों और घर का खर्च. महीने के आखिरी हफ्ते में एक वक्त की रोटी से ही गुजर करनी पड़ती.

तीसरे महीने प्राचार्य ने मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट मंगवाए तो मुकीम की बिजबिजाती बदलेभरी सोच का एक और घिनौना सुबूत सामने आया, ‘जाली सर्टिफिकेट से हासिल नौकरी की एन्क्वायरी.’ 12 साल साथ रह कर भी मेरी एक भी खूबी मुकीम का दिल नहीं जीत सकी. बेरहम को अपने बच्चों पर भी रहम नहीं आया.

आधी रात को घर की खटकती कुंडी की कर्कश आवाज ने मु झे नींद से जगा दिया. दरवाजा खोला तो 3 कलीग, एक महिला 2 पुरुष, मुझे निर्विकार और उपेक्षित भाव से घूर रहे थे. ‘सर, इस वक्त?’ शब्द गले में अटकने लगे मेरे.

सौरी मैडम, फौर डिस्टर्बिंग यू इन दिस औड टाइम. मिसेस ने बतलाया कि आप की तबीयत खराब है, इसलिए खबर लेने आए हैं. अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी? सहज बनने का अभिनय करते हुए दरवाजे से मेरे थोड़ा हटते ही तीनों घर में घुस आए. मेरे माथे पर हथौड़े पड़ने लगे. मेरी बीमारी की  झूठी खबर किस दुश्मन ने उड़ाई होगी. और मेरी खैरियत जानने के लिए आधी रात का ही वक्त चुनने की गरज क्यों आन पड़ी मेरे कलीग्स को? लेकिन प्रत्यक्ष में ठहरी हुई  झील की तरह मैं शांत रही.

‘आप ने बरसात में छत के टपकने की कंपलेंट की थी न. कौन सा कमरा है?’ कहते हुए रस्तोगीजी घड़घड़ाते हुए बैडरूम में पहुंच गए, ‘एक्चुअली बिल्ंिडग मेंटिनैंस का चार्ज पिछले हफ्ते ही दिया गया है न मु झे.’

‘बच्चे सो गए क्या?’ महिला सहकर्मी ने बनावटी हमदर्दी दिखलाई और आंखें घुमाघुमा कर खूंटी पर टंगे कपड़ों और रैक पर रखे जूतों के साइज नापने लगी.

‘मैडम, क्या मैं आप का टौयलेट यूज कर सकता हूं?’ निगमजी ने औपचारिकता निभाई.

‘ओह, श्योर सर.’

तीनों अध्यापक घर के किचन, बैडरूम और बाथरूम का निरीक्षण करने लगे. मैं हैरानपरेशान, बस, चुपचाप उन्हें अपने ही घर में बेहिचक चहलकदमी करते देखती रही. दूसरे दिन दहकता शोला अंतरंग कलीग ने सीने में डाल दिया. ‘मुकीम ने हायर अथौरिटी से कंपलेंट की है कि यू आर लिविंग विद समबडी एल्स.’ सुन कर मेरे बरदाश्त का बांध तिलमिलाहट के तूफानी वेग में बुरी तरह से टूट गया.

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मर्द समाज के पास औरत को बदनाम करने के लिए सब से सिद्धहस्त बाण, उस के चरित्र को  झूठमूठ ही आरोपित करना है, बस. औरत अपनी सचाई का सुबूत किसे बनाएगी? कौन कोयले की दलाली में हाथ काले करेगा? कोई सुबूत नहीं. चश्मदीद गवाह नहीं. अपराध और मढ़े गए ग्लानिबोध से टूटी, अपनेआप ही केंचुए की तरह अपने दामन के व्यास को समेट लेगी. सदियों से बड़ी ही कामयाबी से इस नुस्खे को आजमा कर मर्द समाज अपनी मर्दाना कामयाबी पर ठहाके लगाते हुए जश्म मना रहा है.

3 केसों की तारीखें पड़ने लगीं. कोर्ट के नोटिस आने लगे. वकील साहब ने मेरी नौकरी की मजबूरी को देख कर पेशी पर अपना मुंशी खड़ा करने का वादा किया. ‘मैडम, मेरी फीस कम कर दीजिए मगर मुंशी तो छोटी तनख्वाह वाला बालबच्चेदार आदमी है.’

अगले भाग में पढ़ें- ‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है?

वक्त की अदालत में : भाग 5

‘जी, मैं दे दूंगी. बेफिक्र रहें.’ अपने बच्चों की मासूम जिदों का गला घोंट कर भी मैं वकील और मुंशी की फीस तनख्वाह मिलते ही अलग डब्बे में रखने लगी.

खूबसूरत ख्वाबों का मृगजाल दिखलाने वाली जिंदगी का बेहद तकलीफजदा घटनाक्रम इतनी तेजी से घटा कि मुझे अपने स्लम एरिया में हाल में किस्तों पर अलौट हुए आवास विकास के 2 कमरों के मकान पर जाने का मौका ही नहीं मिला.

4 महीने बाद चाबी पर्स में डाल कर अपनी चचेरी बहन और बच्चों के साथ उस महल्ले में पहुंचने ही वाली थी कि नुक्कड़ पर सार्वजनिक नल से पानी भरती परिचित महिला मुझे देख कर जोर से चिल्लाई, ‘अरे बाजी, आप? बड़े दिनों बाद दिखलाई दीं. मास्टर साहब तो कह रहे थे आप का दूर कहीं तबादला हो गया है. और वह औरत क्या आप की रिश्तेदार है जिस के साथ मास्टर साहब रह रहे हैं?’ भीतर तक दरका देने वाले समाचार ने एक बार फिर मुझ को आजमाइश की सलीब पर लटका दिया.

‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है? भरे बदन वाली गोरीचिट्टी, बिलकुल आप की तरह है. मगर आप की तरह हंसमुख नहीं है. हर वक्त मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए पिच्चपिच्च थूकती रहती है.’ मु झ को चुप देख कर पड़ोसिन ने पूरी कहानी एक सांस में सुना दी.

कलेजा निचोड़ लेने वाली अप्रत्याशित घटना की खबर मात्र ने मु झ को हिला कर रख दिया. गरम गोश्त के सौदागर, औरतखोर मुकीम ने 4 महीनों में ही अपनी शारीरिक भूख के संयम के तमाम बांध तोड़ डाले. घर से मेरे निकलते ही उस ने दूसरी औरत घर में बिठा ली. जैसे औरत का अस्तित्व उस के सामने केवल कमीज की तरह बदलने वाली वस्तु बन कर रह गया हो. एक नहीं तो दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी. मात्र खिलौना. दिल भर गया, कूड़ेदान में डाल दिया. हाड़मांस के शरीर और संवेदनशील हृदय वाली त्यागी, ममतामयी, सहनशील, कर्मशील औरत के वजूद की कोई अहमियत नहीं पुरुषप्रधान मुसलिम भारतीय परिवारों में. यही कृत्य अगर औरत करे तो वह वेश्या, कुलटा. कठमुल्लाओं ने मर्दों को कौन सी घुट्टी पिला दी कि वे खुद को हर मामले में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकारी होने का भ्रम पालने लगे हैं.

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से चचेरी बड़ी आपा की तरफ देखा. ‘तुम यहीं पेड़ के नीचे खड़ी रहो, मैं देखती हूं, माजरा क्या है,’ यह कह कर उन्होंने कंधे पर हाथ रख कर मु झे तसल्ली दी थी.

उन के जाने और आने के बीच लगभग एक घंटे तक मैं बुरे खयालों के साथ आंखें मींच कर खड़ी रही. कौन है वह औरत, क्या सचमुच मुकीम ने दूसरा निकाह कर लिया है? मेरी हसरतों की लाश पर अपनी ऐयाशी का महल तामीर करते हुए उसे अपने पिता होने का जरा भी खयाल नहीं आया. औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन और मर्द केवल बीज बोने वाला हल. फसल के लहलहाने या बरबाद होने से उस का कोई वास्ता नहीं. निर्ममता का ऐसा कठोर और स्पंदनहीन हादसा क्या हर युग में ऐसा ही अपना रूप बदलबदल कर घटता होगा.

नफरत की आग में पूरा शरीर धधकने लगा था. एक अदद 2 कमरों का मकान जिसे अपना पेट काटकाट कर बड़ी मुश्किल से किस्तों में खरीदने की हिम्मत की थी मैं ने अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए, बहेलिया ने परिंदों को जाल में फंसाने के बाद कितनी बेदिली से उन के घोंसलों के तिनके भी हवा में उड़ा दिए. घर, पति, इज्जत, सबकुछ लूट लिया. जीवन के चौराहे पर हर तरफ त्रासदियों की दहकती आग ही आग थी. कौन सा रास्ता मिलेगा बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए? शायद कोई नहीं.

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आपा वापस लौट आईं उदास और निरीह चेहरा लिए हुए ‘केस की हर पेशीयों में वह औरत अकसर मुकीम को कोर्ट में मिल जाती थी. 4 बच्चों की मां ने शौहर के उत्पीड़न से पीडि़त हो कर घर छोड़ दिया और खानेखर्चे का दावा पति पर ठोंक दिया. उन की मुलाकातें बढ़ती गईं. एकदूसरे की  झूठीसच्ची दर्दीली कहानी और अत्याचार का मुलम्मा चढ़ा कर सुनाया गया फर्जी फसाना, एकदूसरे की शारीरिक, मानसिक भूख की क्षुधा मिटाने का जरिया बनता चला गया.’

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. चुपचाप थके कदमों से वापस लौट आई. अपने अधिकारों का हनन करने और करवाने के प्रति आक्रोश व्यक्त करूं या वक्त की अदालत के फैसले का इंतजार करते हुए अपने और बच्चों के जीवित रखने के प्रयासों में लग जाऊं या फिर अतीत और भविष्य से आंखें मूंद लूं?

‘मैडम, कल स्कूल इंस्पैक्शन टीम में असिस्टैंट कमिश्नर आ रहे हैं. अगर आप कहें तो आप के ट्रांसफर के लिए सिफारिश कर दूं?’ मुकीम के भेजे कागजी जानवर के तेजी से बढ़ते खूनी पंजों के नाखूनों से खुद भी आहत होते प्राचार्य ने मु झ से हमदर्दी से पूछा, ‘यहां तो आप के शौहर ने आप का जीना हराम कर ही रखा है, ऊपर से स्टाफ को भी अनर्गल बकवास का मौका दे दिया है. टीचर्स बच्चों पर कम, आप के बारे में ही चर्चारत रहते हैं. ये लीजिए आप के ओरिजिनल सर्टिफिकेट, सब सही पाए गए हैं. चैक कर के रिसीविंग दे दीजिए.’

सच झूठ की लड़ाई में हर युग में सच का ही परचम लहराते देखा गया है. वकील साहब ने यकीन दिलाया था, ‘आप फिक्र न कीजिए. हियरिंग पर ही आप को आना पड़ेगा कोर्ट में, बाकी मैं संभाल लूंगा. बस, फीस टाइम पर मनीऔर्डर करती जाइएगा.’ लुटे मुसाफिर की जरूरत के वक्त उस का पैरहन तक उतारने में नहीं हिचकते वकील लोग.

मुकीम ने स्टाफ के पुरुष शिक्षकों के सामने अपने उजड़ जाने की कपोलकल्पित कहानियां सुना कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया. फिर मु झे डराधमका कर कंप्रोमाइज करने के कई हथकंडे अपनाए. लेकिन मैं शिलाखंड बनी बदसूरते हाल के हर  झं झावात सहते हुए उस की हर कोशिश, चाल को नाकाम करती हुई नौकरी, बच्चे और अपनी मर्यादा के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान रही.

एक दिन डाक से आया लिफाफा खोला तो उस में दोनों बच्चों के नाम सौसौ रुपए के चैक थे. दूसरे दिन बैंक में जमा करवा दिए. 5वें दिन बैंक मैनेजर ने उन चैक्स के बाउंस हो जाने की खबर दी. चालबाजी, शातिरपन, मक्कारी भला कब तक सचाई के सूरज का सामना कर पाएगी. कोर्ट में वही चैक उस की कमजर्फी और बच्चों के प्रति गैरजिम्मेदाराना बरताव का ठोस सुबूत बन गए.

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ट्रांसफर और्डर हाथ में थमाते हुए प्राचार्य ने मुसकरा कर कहा था, ‘आप जब चाहेंगी, आप का रिलीविंग और्डर और बच्चों की टीसी तैयार करवा दूंगा.’

मैं ने अब्बू को बतलाए बगैर जरूरत का सामान पैक किया और चल पड़ी सौ द्वीपों के बीच सब से ज्यादा आबाद टापू की ओर. जुल्म सहती औरत का अरण्य रुदन सुनते गूंगे, बहरे और अंधे नाकारा शहर से हजारों मील दूर अंडमान निकोबार की तरफ. पानी के जहाज का सफर, उछाल मारती लहरों का बारबार किनारे से सिर पटकना. नहीं, अब और नहीं सहूंगी जिल्लत, रुसवाई और लोगों की आंखों में उगते चुभते सवालों के प्रहारों को. नहीं होने दूंगी अपने दामन को और जख्मी. अब मैं, मेरे बच्चे और मेरा भविष्य… खुशियों की आस की एक किरण क्षितिज से चलती हुई अंतस में कही समा जाती.

अगले भाग में पढ़ें- पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे.

वक्त की अदालत में : भाग 6

नया परिवेश, नए लोग, नए मौसम के बीच तालमेल बैठाने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई थी. एक दिन प्राचार्य ने स्कूल के बाद मिलने के लिए कहा. अतीत के नुकीले पत्थर पर पड़ कर फिर से कहीं पैर लहुलूहान न हो जाए, अटकलों, ऊहापोहों ने इंटरवल के बाद के 4 पीरियड में पेट में हौल पैदा कर दी. समय की काली छाया मेरा पीछा करते इस नितांत अनजान टापू में तो नहीं घुस आई. ‘यह किसी अब्दुल मुकीम का लैटर मेरे नाम आया है. आप के कैरेक्टर के बारे में बड़ी एब्यूज लैंग्वेज और बैड इन्फौर्मेशन लिखी है. डू यू नो हिम?’

‘यस सर, ही इज माई हसबैंड,’ मैं ने सिर  झुका लिया.

‘ओह, आय सी. तभी तो आप को 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ मीलों का सफर अकेले तय कर के नए माहौल में आने की वजह ढूंढ़ता रहा मैं.’

दुखती नस पर किसी ने हाथ रख दिया. दर्द से बिलबिला गई. आंखों में सावन की  झड़ी लग गई.

‘डोंट वरी, आई विल टैकल दिस मैटर. यू जस्ट कन्सैन्ट्रेट अपौन योर ड्यूटी ऐंड योर चिल्ड्रन.’

‘सर, प्लीज स्टाफ में किसी से…’ मेरे होंठ थरथराए.

‘नो मैडम, कीप फेथ औन मी. आई विल सेव योर रिस्पैक्ट ऐंड औनर.’

घसीटते कदमों ने घर तो पहुंचा दिया मगर कमरे की निस्तब्धता ने कस कर बाहों में बांध लिया. तेज रुलाई फूटी. देर तक निढाल फर्श पर बैठी रही.

पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे. गरमी की छुट्टियों में बच्चों के साथ कभी समुद्री जहाज से, कभी फ्लाईट से अब्बूअम्मी के पास आती रही. केसों की हियरिंग पर अपनी बरबादी की, मूकदर्शक बनी सड़कों की खाक छानना मेरी मजबूरी बन गई. सहेलियों, रिश्तेदारों से मुकीम की नईनई खबरें मिलती रहीं. मेरे घर से निकलने के 6 महीने बाद ही उस की मां मर गईं. शराब की लत और शक्की स्वभाव ने कोर्ट में मिली औरत को जल्द ही उकता दिया और वह एक रात उस की पूरी तनख्वाह ले कर घर से भाग गई.

16 महीने मुकीम ने नई जोड़ीदार की पुरजोर तलाश की. मुसलिम समाज में मर्द कपड़ों की तरह औरत बदलता है तो बेवा और तलाकशुदा औरतें 2 रोटी और एक छत के लिए किसी भी कमाऊ के साथ निकाह करने के लिए मजबूर हो जाती हैं. समाज का यह लिजलिजा विकृत रूप उस की खोखली व्यवस्था की चूलें हिला कर रख देता है. बीमार मानसिकता, आघातप्रतिघात, दोषारोपण की खरपतवार आने वाली फसल को कमजोर बनाती जा रही है. अशिक्षित मुसलिम समाज भारत की प्रगति में कंधे से कंधे मिलाना तो दूर, मजहबी संकीर्णता की खोह में लिपटा कुलबुलाकुलबुला कर ही दम तोड़ देता है.

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एक साल के बाद ही मुकीम ने एक बच्चे की बेवा मां का सिरमौर बनने का फख्र हासिल कर लिया.  उस ने एक साल बाद मुकीम को एक लड़की का पिता बना दिया. मुकीम सीना ताने घूमता, ‘अभी और 10 बच्चे पैदा करने की ताकत रखता हूं. औरतें मेरे लिए नहीं, मैं औरतों का उद्धार करने के लिए पैदा हुआ हूं, वरना 200 रुपयों में तो कितनी औरतें बिछबिछ जाएं.’

पुलिस केस से बचने के लिए उस ने सरकारी वकील को खरीद लिया. मेरा स्लम एरिया का मकान मात्र 17 हजार रुपए में बेच दिया. 10 साल के बेटे ने जज के सामने बाप की दरिंदगी का एकएक सफा खोल कर रख दिया. केस का फैसला मेरे हक में हो गया.

मुकीम की म झले भाई के साथ घर के मेंटिनैंस और बिजलीपानी के खर्च को ले कर होने वाली तकरारों ने म झले को रेलवे क्वार्टर लेने के लिए मजबूर कर दिया. पूरे घर पर अब मुकीम का एकछत्र अधिकार. लेकिन जीने की लकड़ी की सीढि़यां बुरी तरह हिलने लगी थीं. छत की दीवारों का रंग और प्लास्टर उधड़ने लगा. शराब, जुए की लत उसे घुन की तरह चाट कर कंगाल बनाने लगी. कर्जदारों की फेहरिस्त बढ़ने लगी.

मेरे दोनों बच्चों ने 10वीं, 12वीं के बोर्ड इम्तिहान में आशातीत सफलता हासिल कर के स्पोर्ट्स में भी अच्छी जगह बना ली. बेहतरीन इंग्लिश, हिंदी, मिश्रित उर्दू के कारण वे आकाशवाणी के बालजगत कार्यक्रम की एंकरिंग करने लगे. स्वस्थ मानसिकता, तरक्की और कामयाबी की बुनियाद बन गई.

बाद मैं ख्वाबों के खूनी शहर पहुंची तो मालूम हुआ कि मुकीम अपनी तीसरी बीवी के सौतले बेटे की फूटती मूंछों के नीचे से निकली अपने प्रति भर्त्सना बरदाश्त नहीं कर पाया. ‘निकालो साले को यहां से वरना जान से मार डालूंगा. मेरा ही खा कर मु झ पर ही गुर्राता है.’

उस की आएदिन की चिंघाड़ और रौद्र रूप को बेटे के प्रति आसक्त मां बरदाश्त नहीं कर पाई. 6 साल की बेटी को सामान लाने के बहाने बाहर भेज कर मिट्टी तेल छिड़क लिया. धूधू कर के एक बार फिर वही घर जला जिस की बुनियाद केवल देह के सुख और नितांत पुरुषस्वार्थ पर रखी गई थी. 90 प्रतिशत जली तीसरी बीवी ने अपनी मासूम, अबोध के गले पर मुकीम का निरंतर कसता पंजा देख कर सारा दोष खुद पर ले लिया. एक बार फिर अमानुष के गले में फांसी का फंदा पड़ने से पहले ही कमजोर और शिथिल पड़ गया. अदालत को तो चश्मदीद गवाह और ठोस सुबूत चाहिए न.

8 माह बाद कमसिन बच्ची की परवरिश का हवाला दे कर मुकीम की बहन फिर उस के लिए एक अदद हड्डी गोश्त का जिंदा लोथड़ा ढूंढ़ने लगी. 65 वर्ष की तलाकशुदा औरत ने मुकीम से निकाह मंजूर कर लिया जो पिछले 10 सालों से भाभी के घर के सभी सदस्यों की आंखों में कांटे की तरह चुभती रही थी. निकाह के वक्त मुकीम रिटायर हो चुका था. मेरे दोनों बच्चे कौंपिटीटिव एग्जाम में अच्छी रैंक हासिल कर के नेवी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में व्यस्त हो गए. खुद मैं अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर 2 प्रमोशन हासिल कर के सीनियर टीचर बन गई. मेरा शांत स्वभाव कभी भी मु झे बहुसंख्यकों के बीच अपना विरोधी पैदा करने नहीं देता.

दर्दीले अतीत की भयावहता से खुद को बचाने के लिए बचपन के 2 अधूरे शौकों को पूरा करने का प्रयास करने लगी. गले का माधुर्य मु झे संगीत के करीब ले जाना चाहता रहा, लेकिन इसलाम में संगीत हराम माना जाता है.  दकियानूसी और अपरिपक्व सोच ने 55 साल की उम्र में गले को साधने की कोशिश को एक बार फिर नाकाम कर दिया. पूरी तवज्जुह सिलाई और मशीन की कशीदाकारी के फन पर आ कर सिमट गई.

बेहतरीन सूट, चादरें, मैक्सी के लुभावने आकर्षक धागे और डिजाइन मेरे कलाकार मन को दिनभर खिलाखिला रखते. वर्तमान शिक्षा पद्धति के साथ खुद को भी अपडेट करने के शगल ने मेरे छोटे बेटे से मु झे कंप्यूटर सिखला दिया. गुनाहों और बदकारियों से दामन बचाने वाली मैं प्रकृति का शुक्रिया अदा करती रहती हूं. बच्चे अपने अब्बू के जल्लादी, जाहिल वजूद की यादों को अपने जेहन से खुरचखुरच कर फेंक चुके थे.

आज नवीन भैया की दी गई खबर ने ठहरे समंदर में तूफान उठा दिया. कई दिनों तक खुद को संतुलित नहीं कर पाई. हार कर नवीन भैया का नंबर डायल कर ही दिया.

‘‘हैलो दीदी, आप ठीक हैं न?’’

‘‘मैं ठीक हूं भैया, लेकिन आप से एक गुजारिश है.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, दीदी. आप के ही स्नेह से मेरे घर में दोदो बेटियों ने जन्म लिया है, वरना हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे. आप ने प्रोत्साहित किया, बहू को अपने घर रख कर इलाज करवाया. आप का एहसान…’’ गला भर गया उन का, ‘‘आप तो बस हुक्म कीजिए.’’

‘‘भैया, जिस दिन अब्दुल मुकीम की बेटी के केस की तारीख हो, मैं उस दिन सैशन कोर्ट में केस की कार्रवाई सुनना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, दीदी.’’ मेरे अंतस में उठते हाहाकर की गर्जन साफ सुनाई दे रही थी तजरबेकार कोर्ट सुपरिटैंडैंट को. ‘‘मगर दीदी, अपने किए की सजा तो इस कलियुग में जीतेजी ही भुगतनी पड़ती है. आप क्यों अपने जख्म हरे करना चाहती हैं. भुगतने दो उस को. दूसरे की बेटी की जिंदगी बरबाद की, तो उस की बेटी के साथ.’’

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‘‘भैया, जुर्म की सजा कानून भले ही नहीं देता लेकिन वक्त गिनगिन कर सजा देता है. निलोफर के बलात्कारी को कानून तो सजा देगा लेकिन असली कुसूरवार तो मुकीम है जो बारबार मांबाप की लाड़ली बेटियों को अपनी क्रूरता का शिकार बना कर अपनी चालाकी, धूर्तता से कानून की गिरफ्त में आने से खुद  को बचाता रहा. अब जब अपनी बेटी पर जुल्म हुआ तब क्या वह चुप रहेगा? खुद को कचोटेगा, पछताएगा.

‘‘मैं सिर्फ एक बार उस के चेहरे पर दर्दोमलाल की सिलवटें देखना चाहती हूं. उस की आंखों में पस्तहाल शबनम की बूंदें देखना चाहती हूं. उस का मर्दाना दंभ, उस का अभिमानी सिर असमर्थता और बेबसीलाचारी के हथौड़े से कुचलते हुए देखना चाहती हूं. उस की आंखों में दहशत के बवंडर और माथे पर पश्चात्ताप की शिकन देखना चाहती हूं. गुस्से से उबलती उस की मक्कार आंखों में लोहे से पिघलते आंसू देखना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी थी.

‘‘दीदी, अगले महीने की 14 तारीख को केस की सुनवाई है. मैं जज से स्पैशली आप के बैठने की इजाजत ले लूंगा. दीदी, अब सो जाओ, बहुत रात हो गई है. कल बात करूंगा. गुड नाइट,’’ कह कर नवीन भैया ने फोन काट दिया. मेरी आंखों में 20-22 वर्षीया लड़की का अक्स उतर आया. निलोफर का आंसुओंभरा चेहरा, पुलिस मर्द की वासना का शिकार, कौन करेगा भोग्या का उद्धार. नहीं, उसे तो उम्रभर की वस्तु सम झ कर मर्द समाज की दूसरी पौध इस्तेमाल करने के जाने कौनकौन से घिनौने मंसूबे बनाएगी. उस के मासूम सपने, घर, पतिबच्चे, प्यारखुशियां, सम्मान, सबकुछ सामाजिक अपमान, तिरस्कार, घृणा की बलिवेदी पर चढ़ गया. कैसे वह अपने भीतर आत्मविश्वास और जीवित रहने की अदम्य इच्छा की दीपशिखा को प्रज्वलित रख पाएगी.

एक अकेले मुकीम ने अपने निर्दयी व्यवहार के कारण 7 लोगों को अर्थहीन, दिशाहीन और पीड़ायुक्त जीवन जीने के लिए मजबूर किया. चिंदीचिंदी कर के रख दिया उन के ख्वाबों, खुशियों और संकल्पों को. हाड़मांस की औरतों के सम्मान, अधिकारों को अपनी मर्दाना ताकत की ज्वाला में नेस्तनाबूद करने वाला शख्स अपनी एक अदद बेटी की अस्मत की सुरक्षा नहीं कर पाया. छि, धिक्कार है ऐसे मर्द पर. लेकिन रहती दुनिया तक ऐसे लाखों हिंदुस्तानी मर्द सिर ऊंचा कर के अपनी पूरी अकड़ और ऐंठ के साथ जिंदा रहेंगे.

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मुकीम अपनी तमाम वहशियाना फितरत, मक्कारियों, चालबाजियों के साथ शरीर के हड्डी का ढांचा होने तक, आंखों के फूट जाने तक, अपने गरूर के साथ जिंदा रहेगा. लेकिन जब उस का थरथराता, कंपकंपाता शरीर मौत मांगेगा, रहम की भीख मांगेगा, तब दुनिया उस की फटी छाती की चीत्कार सुन कर भी अनसुना कर देगी. घसीटघसीट कर बुरी मौत मरेगा वह. यही उस वक्त की अदालत का फैसला होगा.

 वक्त की अदालत में : भाग 2

आप फिक्र न कीजिए, मेहरून बेटी. मैं प्लौट बेच कर आप के बीएड का खर्च पूरा करूंगा.’ अब्बू का खत आया था. इस से तो अच्छा होता मैं बीएड कर के नौकरी करती, फिर शादी करती. पर समाज के तानों ने अम्मी और अब्बू का जीना मुहाल कर दिया था. बीएड के ऐंट्रैंस एग्जाम में मैं पास हो गई थी. मेरी क्लासेस शुरू हो गईं. चारदीवारी की घुटन से निकल कर खुली हवा सांसों में भरने लगी. लेकिन घर से महल्ले की सरहद तक हिजाब कर के बसस्टौप तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती थी.

‘यार, तुम कैसे बुरका मैनेज करती हो? तुम्हें घुटन नहीं होती? सांस कैसे लेती हो? मैं होती तो सचमुच नोंच कर फेंक देती और हिजाब करवाने वालों का भी मुंह नोंच लेती. चले हैं नौकरी करवाने काला लबादा पहना कर. शर्म नहीं आती लालची लोगों को,’ पौश कालोनी की सहपाठिन मेहनाज बोली थी.

‘मेहर में इतनी हिम्मत कहां कि वह ससुराल वालों का विरोध कर सके. यह तो गाय जैसी है. उठ कहा, तो उठ गई. बैठ कहा, तो बैठ गई. पढ़ीलिखी बेवकूफ और डरपोक है,’ शेरी मैडम के तंज का तीर असमर्थता के सीने पर धंसा. खचाक, मजबूरियों के खून का फौआरा छूटता, दर्दीली चीख उठती, आंखों में खून उतर आता, दुपट्टे का एक कोना खारे पानी के धब्बों से भर जाता.

‘तुम्हें वजीफा मिला है मेहर, नोटिस बोर्ड पर लिस्ट लगी है,’ मेहनाज ने चहकते हुए मु झे खबर दी थी.

‘सचमुच,’ खुश हो गई थी मैं.

‘हां, सचमुच, देख इन पैसों से कुछ अच्छे कपड़े और एग्जाम के लिए गाइड खरीद लेना. सम झी, मेरी भोली मालन,’ मेहनाज ने राय दी थी. ‘ठीक है,’ कह कर मैं घर की तरफ जाने वाली बस में चढ़ गई थी.

दूसरे दिन मुकीम कालेज मेरे साथ ही आ गया था. क्लर्क से वजीफे की कैश रकम ले कर जब अपनी जेब के हवाले करने लगा, तो मैं तड़प गई, ‘मुझे इम्तहान के लिए गाइड्स और टीचिंग एड बनाने के लिए कुछ सामान खरीदना है. कुछ पैसे मुझे चाहिए.’

मुकीम ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुत्ता लाश का गोश्त नोंचने वाले गिद्ध की तरफ देखता है, बोला, ‘पुरानी किताबों की दुकान से सैकंडहैंड गाइड्स ला दूंगा. टीचिंग एड्स रोलअप बोर्ड पर बनाना. मु झे कर्जदारों का पैसा अदा करना है.’

बीएड एग्जाम के बाद 2 साल में 2 बच्चे, शिथिल शरीर और आर्थिक अभावों ने आत्मनिर्भरता की दूरियों को और बढ़ा दिया. बड़ी हिम्मत कर के महल्ले के आसपास के प्राइवेट स्कूलों में अपना रिज्यूमे दे आई थी. आज से 30 साल पहले 50 रुपए से नौकरी शुरू की थी. उन दिनों क्रेच का कोई अस्तित्व ही नहीं था क्योंकि 99वें प्रतिशत औरतें घरेलू होती थीं.

बड़ी मुश्किल से एक विधवा वृद्धा के पास दोनों बच्चों को छोड़ कर मुंहअंधेरे ही घर का पूरा कामकाज निबटा कर स्कूल जाने लगी. मेरी कर्मठता और पाबंदी ने अगले माह ही इन्सैंटिव के रूप में 50 रुपए की तनख्वाह में चारगुना वृद्धि कर दी.

इस बीच, सरकारी स्कूल में वकैंसी निकली. लिखित परीक्षा में सफलता और 3 महीने बाद इंटरव्यू में सलैक्शन. ‘अब तो इस बेहया के और पैर निकल आएंगे,’ सास को अपना सिंहासन डोलता नजर आने लगा. ‘अरे अम्मी, यह क्यों नहीं सोचतीं कि भाभी की तनख्वाह बच्चों के बहाने से हम अपनी जरूरत के लिए ले सकते हैं,’ मक्कार और कपटी ननद ने मां के कान भरे.

‘अरे हां बाजी, अब आप अपना घर बनने तक भाईजान के पोर्शन में रह सकती हैं. भाईजान को महल्ले में ही किराए का घर ले कर रहने के लिए अम्मी जिद कर सकती हैं. अब पैसों की तंगी का बहाना नहीं कर सकेंगे भाईजान,’ देवरानी ने ननद के लालच के तपते लोहे पर चोट की. दरअसल, वह सास की वजह से मायके नहीं जा सकती थी. ननद पास में रहेगी, तो सास को उस के भरोसे छोड़ कर कई दिनों तक मायके में रहने, घूमनेफिरने का आनंद उठा सकती थी.

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स्वार्थी और निपट गंवार सास ने आएदिन मुकीम को टेंचना शुरू किया. ‘तेरी औरत से कोई आराम तो मिला नहीं. उलटे, हमेशा डर बना रहता है कि मेरे बाजार और कहीं जाने पर यह छोटी बहू को भी अपने रंग में रंग कर घर के 3 टुकड़े न कर डाले. अब तू किराए का मकान ले ले. मेरी बेटी का मकान बनने तक वह यहीं रहेगी मेरे पास. और मेरी खिदमत भी करेगी.’

नागपुर से 10 किलोमीटर दूर कामठी में पोस्ंिटग पर मैं आ गई. ‘तुम स्कूल से कहां बारबार बैंक जाती रहोगी पैसे निकलवाने के लिए,’ कह कर मुकीम ने चालाकी से मेरे साथ जौइंट अकाउंट खोल लिया.

अम्मी ने देर रात तक कपड़े सिल कर, क्रोशिए से दस्तरख्वान, चादरें बुनबुन कर मेरी कालेज की फीस दी थी. पहली तनख्वाह मिली, तो मैं ने 25 रुपए का मनीऔर्डर कर उन के एहसानों का शुक्रिया अदा करते हुए उन के पते पर भेजा. पहली बार मेरा चेहरा खुशी और आत्मविश्वास से कुमुदनी की तरह खिल गया था.

एक हफ्ते बाद मुकीम के हाथ का कस के पड़ा तमाचा मेरे गुलाबी गाल पर पांचों उंगलियों के निशान छोड़ गया, ‘मायके से पैसे मंगवाने के बजाय मां को मनीऔर्डर भेज रही है. शर्म नहीं आती. बदजात औरत. आईंदा मु झ से पूछे बगैर एक पाई भी यहांवहां खर्च की, तो चीर के रख दूंगा, सम झी.’ उस दिन पहली बार लगा कि मैं ससुराल में सिर्फ पैसा कमाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन बन गई हूं. मैं सिसकती हुई भूखी ही सो गई.

बचपन से ही सीधीसादी, छलकपट से कोसों दूर रहने वाली मैं मुकीम की क्रूरता को सालों तक चुपचाप सहती रही.

मुकीम के परिवार के लोगों का छोटीछोटी बातों को ले कर ऊंचीऊंची आवाज से लड़ना,  झगड़ना, गालीगलौज करना सहज स्वाभाविक दस्तूर की तरह रोज ही घटता रहता. यह अमानवीय और क्रूर दृश्य देख कर मेरे पैर थरथराने लगते, पेट में ऐंठन होने लगती और पसीने से लथपथ हो जाती.

उस दिन बड़े बेटे की तबीयत अचानक स्कूल में खराब हो गई. एमआई रूम के डाक्टर ने चैकअप कर के मिलिट्री हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया. दोपहर तक टैस्ट होते रहे. पर्स में सिर्फ 30 रुपए थे जो घर से निकलते वक्त मुकीम भिखारियों की तरह मेरे हाथ पर रख देता था. इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी, सोच कर शौर्टलीव ले कर बैंक पहुंची. विदड्रौल स्लिप पर लिखी रकम देख कर कैशियर व्यंग्य से मुसकराया, ‘मैडम, आप के अकाउंट में सिर्फ सिक्युरिटी की रकम बाकी है.’ यह सुन कर पैरोंतले जमीन खिसक गई.

बेइज्जती का दंश सहती बीमार बच्चे को ले कर घर पहुंची तो बच्चे के इलाज के खर्च के लिए मुकीम को आनाकानी करते देख कर मैं अपना आपा खो बैठी, ‘इसीलिए आप ने जौइंट अकाउंट खुलवाया था कि महीना शुरू होते ही मेरी पूरी तनख्वाह निकाल कर शराब और जुए में उड़ा दें और अपनी तनख्वाह अपनी बहन के परिवार और मां पर खर्च कर दें. आप ने अपने ऐश के लिए मु झे नौकरी करने की इजाजत दी है, बच्चे के इलाज के लिए धेला तक खर्च नहीं करना चाहते. वाह, क्या खूब शौहर और बाप की जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’

‘हां, हां, मेरा बेटा तो निकम्मा है. तेरी कमाई से ही तो घर चल रहा है,’ कब से दीवार पर कान लगा कर सुन रही सास ने दिल की भड़ास निकाली.

‘आप हमारे बीच में मत बोलिए. मेरे घर को जलाने के लिए पलीता आप ही ने सुलगाया है हरदम,’ बेटे की कराह सुन कर मु झ में जाने कहां से विपरीत दिशा से आती तूफानी हवाओं को घर में धंसने से रोकने की ताकत भर गई.

‘देखदेख, मुकीम, यह नौकरी कर रही है, तो कितना ठसक दिखा रही है. मार इस को, हाथपैर तोड़ कर डाल दे,’ मां की आवाज सुनते ही मुकीम ने बरतनों के टोकरे से चिमटा खींच कर दे मारा मेरे सिर पर. खून की धार मेरे काले घने बालों से हो कर माथे पर बहने लगी. सिर चकरा गया और मैं धड़ाम से मिट्टी के फर्श पर बिखर गई. दोनों बच्चे यह वहशियाना नजारा देख कर चीख कर रोने लगे. मुकीम अपने भीतर के शैतान पर काबू नहीं कर पाया और मु झ बेहोश बीवी को गालियां बकते हुए लातोंघूंसों से मारने लगा. आवाजें सुन कर आसपास के घरों के लोग अपनी छतों से उचक कर मेरे घर का तमाशा देखने व सुनने की कोशिश करने लगे. खून देख कर सास धीरे से नीचे खिसक आई.

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आधी रात को मुझे होश आया तो दोनों बच्चों को नंगे फर्श पर अपने से चिपक कर सोता हुआ पाया. हंसने, किलकने और बेफिक्र मासूम बचपन के हकदार बच्चे पिता का रौद्र रूप देख कर नींद में भी सिसक उठते थे.

मैं जिस्म की टूटन और सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी. मगर पेट को तो भरना ही था न. मुकीम को तो मौका मिल गया घर में दंगाफसाद कर के होटल का मनपसंद खाना और शराब में धुत आधी रात को घर लौटने का.

अप्रैल में स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों पर बेहतरीन कमांड होने के कारण प्राचार्य ने अनाउंसमैंट की मेरी ड्यूटी लगा दी थी. बच्चों के साथ खुद भी तैयार हो कर घर से बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से किसी ने बड़े एहतियात से बनाया गया जूड़ा पकड़ कर खींच दिया. दर्द से बिलबिला गई.

अगले भाग में पढ़ें- ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. 

सुलगता आंदोलन : शाहीन बाग

सीएए और एनआरसी के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं अपने बच्चों के साथ बैठी हैं. पर अफसोस कि अभी तक इस आंदोलन का परिणाम नहीं दिख रहा है क्योंकि सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है.

सीएए व एनआरसी के विरोध में 15 दिसंबर, 2019 से शुरू हुआ दिल्ली के शाहीन बाग इलाके का आंदोलन 13 जनवरी, 2020 को लोहड़ी वाले दिन अलग ही रंग में नजर आया. वहां एक सिख परिवार आया और आंदोलनकारियों के साथ परिवार के सदस्यों ने लोहड़ी मनाई. खूब ढोल बजा. सब ने मिल कर लोहड़ी उत्सव का आनंद लिया. वहीं 12 जनवरी को शाहीन बाग में सर्वधर्म की बात की गई. सिख, ईसाई, मुसलमान सभी एक ही रंग में दिखाई दिए. देखते ही देखते आंदोलन का यह मंच एकता का मंच बन गया. इस आंदोलन ने सभी धर्मों को एक मंच पर आने का अच्छा मौका दे दिया. यह दृश्य भारत की गंगाजमुनी तहजीब की तसवीर बयां करने वाला था.

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शाहीन बाग का यह आंदोलन यों तो सीएए और एनआरसी के विरोध में है लेकिन यह आंदोलन बाकी के आंदोलनों से काफी अलग भी है. आमतौर पर जंतरमंतर ही धरनाप्रदर्शन का एरिया माना जाता रहा है लेकिन 15 दिसंबर को जब जामिया विश्वविद्यालय में पहले छात्र आंदोलन उग्र हुआ, उसी के साथसाथ स्थानीय लोगों ने एनआरसी और सीएए के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया. शुरू में किसी को अंदाजा नहीं था कि  यह आंदोलन इस तरह व्यापक रूप ले लेगा.

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कई लोगों का मानना है कि इस के पीछे राजनीतिक दल भी हैं. वहीं, कुछ लोग जो दिल्ली के अलगअलग एरिया में रहते हैं और अकसर यहां आ रहे हैं, मानते हैं कि यह आंदोलन पूरी तरह से यहां के स्थानीय लोगों द्वारा चलाया जा रहा है. इस में जामिया के कुछ छात्र भी हिस्सा ले रहे हैं. वे अकसर यहां आ कर बैठते हैं, लेकिन छात्रों का अपना आंदोलन जामिया में ही विश्वविद्यालय के मुख्य गेट पर चल रहा है.

शाहीन बाग का आंदोलन पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की भागीदारी से चल रहा है. स्थानीय महिलाएं दिनरात अपने बच्चों के साथ यहां बैठी रहती हैं. अगर कहा जाए कि इस आंदोलन की रीढ़ यहां की महिलाएं ही हैं, तो गलत नहीं होगा. और इस अर्थ में यह आंदोलन और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह टिका ही महिलाओं की मौजूदगी की वजह से है.

हाल ही के कुछ सालों में शायद यह पहला आंदोलन है जहां मुसलिम महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. दिन में पुरुषों की संख्या कम होती है क्योंकि ज्यादातर को औफिस व अपने कामधंधे पर जाना होता है लेकिन शाम के वक्त यहां भारी संख्या में लोग जमा हो जाते हैं.

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शाहीन बाग सीएए और एनआरसी विरोध का एक केंद्र बन चुका है. इसलिए यहां दिल्ली की बाकी जगहों से भी लोगों ने आना शुरू किया. शाम को कई लोग औफिस से सीधा यहां आ जाते हैं और 2-3 घंटे आंदोलन में शामिल हो कर वापस अपने घर चले जाते हैं. तो कुछ खाना खाने के बाद देररात तक यहां रहते हैं. लेकिन यहां के लोकल लोग दिनरात बैठे रहते हैं.

शाहीन बाग में एक मंच बना है और वहां ओपन माइक है. जिसे अपने विचार रखने हैं, वह अपना नाम व विषय बता देता है और फिर अपना नंबर आने पर अपनी बात रखता है. अब तक कई लोग इस मंच से अपने विचार रख चुके हैं. मजे की बात यह है कि आमतौर पर घरों में रहने वाली महिलाएं भी बड़ी संख्या में मंच से अपनी बात रख रही हैं.

लंबे समय तक इस आंदोलन को राजनीति व नेताओं से दूर रखा गया. हालांकि, कांग्रेस के अल्का लांबा, शशि थरूर, सुभाष चोपड़ा और मणिशंकर अय्यर जैसे नेता शाहीन बाग आ कर आंदोलन को अपना समर्थन दे चुके हैं. कुछ आंदोलनकारी नहीं चाहते कि इस आंदोलन को कोई राजनीतिक रंग दिया जाए. कुछ को यह शंका भी है कि नेताओं के ज्यादा जुड़ने से व मंच साझा करने से कहीं इस जनआंदोलन को नेता हाईजैक कर फायदा न उठा लें. वे इसे जनता का आंदोलन ही रहने देना चाहते हैं. यही वजह है कि इस आंदोलन को चलाने के लिए किसी तरह की आर्थिक मदद भी नहीं ली जा रही है. यहां जो भी जैसी भी व्यवस्था है वह जनता द्वारा आपसी सहयोग से की जा रही है. चाहे वह शामियाना लगाना हो या आंदोलनकारियों के लिए चाय व खाने की व्यवस्था हो.

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मिन्हाज पुराने जामिया स्टूडैंट हैं. वे औफिस के बाद 2-3 घंटे के लिए रोज शाहीन बाग आते हैं. मिन्हाज बताते हैं, ‘‘मैं देखता हूं कि कोई दूध की थैलियां लिए चला आ रहा है कि यहां इतने लोग हैं उन के लिए चाय बनाने के काम आएंगी तो कोई चीनी ला रहा है. औरतें अपने घरों से खाना बना कर ला रही हैं. कई बार तो ऐसी स्थिति हो जाती है कि इतना खाना जमा हो जाता है जितने वहां लोग नहीं होते.’’

मिन्हाज की इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आंदोलन आपसी सहयोग से चल रहा है और इस सहयोग की भावना ने लोगों को एकसूत्र में पिरोने का काम किया है.

दुकानदारों का नुकसान

जिस जगह आंदोलन चल रहा है उस के आसपास कई दुकानें व बड़े शोरूम्स हैं. सब से ज्यादा कपड़ों के शोरूम्स हैं. आंदोलन की वजह से वहां की दुकानें बंद हैं. रास्ता ब्लौक है. इस वजह से इन दुकानदारों को बहुत नुकसान हो रहा है. दुकानों में रखे सर्दी के गरम कपड़े बिक नहीं रहे हैं. वहीं, दिलचस्प यह है कि स्थानीय लोग बताते हैं कि इन दुकानदारों ने उन से अपने नुकसान की बात नहीं की. न ही नाराजगी जताई. उलटा, इतना नुकसान सहने के बावजूद वे लोग उन के साथ हैं.

यहां बनाए गए स्टेज को 7-8 स्थानीय लड़कों की और्गेनाइजिंग कमेटी देख रही है. जामिया की फाइन आर्ट फैकल्टी के कुछ बच्चे यहां आते हैं और आंदोलन की थीम पर अपनी पेंटिंग्स बनाते रहते हैं. शाहीन बाग के आंदोलन के लिए कई लोगों ने पैसों की पेशकश भी की, लेकिन मिन्हाज बताते हैं कि आंदोलनकारियों ने किसी से भी पैसे लेने से मना कर दिया. इस बात को बाकायदा अनांउस किया गया, पोस्टर लगाया गया कि हमें पैसे नहीं चाहिए. आंदोलन के लिए पैसे की जरूरत नहीं, आपसी सहयोग की जरूरत है.

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लोग वहां स्वेच्छा से सहयोग कर रहे हैं. टैंट वाला टैंट लगा कर चला गया और बोला, यह आप का टैंट है जब तक चाहिए लगा रहने दें. माइक वाला माइक पकड़ा कर चला गया. चाय व खाना लोग अपनी तरफ से बांट रहे हैं.

आंदोलन के एक महीना गुजर जाने के बाद भी लगातार चलते रहने की वजह यह आपसी सहयोग ही है. आंदोलन एरिया में महिलाएं व बच्चे ही अधिक हैं, इसलिए कुछ लड़के हमेशा यहां निगरानी करते रहते हैं कि कहीं कोई असामाजिक तत्त्व आंदोलन एरिया के भीतर न घुस आए. इस आंदोलन को दिनरात 80 फीसदी के लगभग महिलाएं ही चला रही हैं. पुरुषों की संख्या शुक्रवार, शनिवार और सब से ज्यादा रविवार को होती है.

मिन्हाज बताते हैं, ‘‘महिलाओं की इस भारी संख्या को देख कर कुछ मौलानाओं को तकलीफ भी है कि आप की औरतें घर के बाहर बैठी हुई हैं, आप को शर्म नहीं है? एक व्यक्ति ने जब मुझे यह बात बताई तो मैं ने जवाब दिया कि हां, यह सच में शर्म की बात है, जब कौम के लीडर, जिन्हें खड़ा होना चाहिए, वे खड़े नहीं हैं, तो अवाम ही खड़ी होगी. महिलाएं और बच्चे भी खड़े हो जाएंगे.’’

महिलाओं का ऐसा ही एक और आंदोलन जाकिर नगर में भी चल रहा है. जाकिर नगर की महिलाएं रात को रसोई के काम खत्म कर के 10:30 बजे से एकदो घंटे के लिए मोमबत्ती व स्लोगन लिखे कागज ले कर जाकिर नगर में सड़क के दोनों तरफ खड़ी हो जाती हैं. इस दौरान कोई नारेबाजी नहीं होती. ये महिलाएं सिर्फ मौन विरोधप्रदर्शन करती हैं एनआरसी और सीएए के खिलाफ.

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नागरिकता देने वाला कानून

सीएए को ले कर सरकार का कहना है कि यह नागरिकता देने वाला कानून है, नागरिकता छीनने वाला नहीं. फिर भी लोग सड़कों पर क्यों हैं? इस पर वहां के एक स्थानीय बुर्जुग कहते हैं कि दरअसल, जब आप का किसी पर से विश्वास उठ जाता है तब इंसान उस की किसी भी बात पर भरोसा नहीं कर पाता. जो लोग सड़कों पर हैं उन का सरकार पर भरोसा नहीं है, इसलिए वे उस की कही बातों पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. लोग एनआरसी और सीएए को जोड़ कर देख रहे हैं.

दूसरी बात, अलगअलग बातें निकल कर आ रही हैं डौक्यूमैंट्स को ले कर. इस ने लोगों के मन में डर पैदा किया. एक बड़ा डर का कारण असम में हुई एनआरसी लिस्ट भी है जिस में कई लोगों के नाम नहीं आए. इस बात ने लोगों के मन में डर को बढ़ा दिया. लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि अगर असम की तर्ज पर ही पूरे देश में एनआरसी लागू हुआ तो बहुत सारे लोगों को डिटैंशन सैंटर में भेज दिया जाएगा. रहीसही कसर फेक मैसेजेस और फेक वीडियोज के प्रचारप्रसार ने पूरी कर दी.

शाहीन बाग में रोज 3-4 हजार लोग आतेजाते रहते हैं. लेकिन शुक्रवार, शनिवार और रविवार को यह संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है. कुछ लोग सच में आंदोलन में शामिल होते हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो केवल देखने के लिए आ जाते हैं कि अरे, खबरों में है शाहीन बाग, चलो देख कर आते हैं क्या हो रहा है वहां.

कई बार फेक वीडियोज की वजह से अफवाह भी उड़ जाती है. एक दिन यह अफवाह उड़ गई कि पुलिस आंदोलनकारियों को खदेड़ने आ रही है. सब लोग शाहीन बाग पहुंचो. लोग उग्र हो गए कि पुलिस फिर आ गई. ऐसे में अनाउंसमैंट कराया गया कि कृपया अफवाहों पर ध्यान न दें, अफवाहें आंदोलन को कमजोर कर सकती हैं. कई लोगों ने शाहीन बाग से फेसबुक लाइव दिखाया कि यहां सब ठीक है.

आंदोलनकारियों को दुख है कि सरकार की तरफ से कोई नुमाइंदा मिलने नहीं आया. बात करने नहीं आया. यहां लोग सरकार द्वारा दिए गए अलगअलग बयानों से कन्फ्यूज्ड हैं. इसलिए कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह आंदोलन कब तक चलेगा. महिलाएं पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

एक जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने आंदोलन एरिया को खाली करने के प्रयास करने की पुलिस को सलाह दी. पुलिस ने इस सिलसिले में प्रोटैस्टर्स (आंदोलनकारियों) से बातचीत करनी शुरू कर दी है. लेकिन आंदोलन में बैठी महिलाएं आंदोलन खत्म करने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में यह आंदोलन सड़क से किसी पार्क या अन्य स्थान पर शिफ्ट होता है या यह संघर्ष अपने स्थल पर ही जारी रहता है, यह देखना होगा.

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न वोट की न नोट की यह लड़ाई है चोट की

दिल्ली का शाहीन बाग इलाका सीएए और एनआरसी के विरोध का केंद्र बन चुका है. कोई आजादी का नारा लगा रहा है तो कोई पोस्टरबैनर ले कर मंच के सामने खड़ा है. ताज्जुब तो इस बात का है कि ठंड के बावजूद बुरका पहने औरतें अपने छोटे बच्चों को ले कर आंदोलन में बैठी हुई हैं. मर्र्द उन की हिफाजत में इधरउधर खड़े हैं.

जब हम शाहीन बाग पहुंचे तो देखा कि मेन सड़क पर पुलिस की गाडि़यां खड़ी थीं. कुछ पुलिस वाले मूंगफली का मजा ले रहे थे तो कुछ कमांडो टाइप पुलिस वाले गन ले कर तैनात थे. गाड़ी को बाहर ही पार्क कर दिया और वहीं एक पुलिस का बैरिकेड लगा हुआ था. उसे पार करने के बाद लगभग 30 मीटर दूर दूसरे बैरिकेड तक पहुंचे तो वहां मौजूद कुछ युवाओं ने कहा कि इधर से नहीं जा सकते. मंच तक जाना है तो कालोनी की तरफ से जाइए. जब कालोनी की तरफ गए तो अच्छीखासी बिल्डिंगें, पक्की सड़क, गाडि़यां यानी सारी सुखसुविधाएं शाहीन बाग में आप को मिल जाएंगी. कालोनी से होते हुए मंच के पास पहुंचे तो आसपास की सारी दुकानें बंद थीं.

गाजियाबाद से आए एक शख्स मंच पर भाषण दे रहे थे कि न वोट की खातिर न नोट की खातिर, हम तो चोट के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. इतने में औरतों और मर्दों की तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती है. तालियों की आवाज समाप्त होते ही मीडिया को आडे़हाथों लेते हुए वे शख्स बोले कि मीडिया आज बिक चुका है और सही चीज को सामने नहीं ला रहा है.

फिर आंदोलन में आईं हिना कौसर ने बताया, ‘‘सरकार सीएए और एनआरसी को ले कर धर्म के आधार पर जो भेदभाव कर रही है वह बरदाश्त नहीं. यह संविधान के खिलाफ है.’’

वहीं मोहम्मद राशिद कहते हैं, ‘‘सरकार सामाजिक मुद्दों पर बात ही नहीं कर रही है. बेरोजगारी की समस्याएं विकराल होती जा रही हैं, भुखमरी से लोग मर रहे हैं, प्रदूषण बढ़ रहा है पर सरकार का ध्यान इस तरफ है ही नहीं.’’ तभी बीच में रफी अहमद बोल पड़ते हैं, ‘‘सरकार तो पाकिस्तान की बात करती है जिस का हिंदुस्तान से कोई मुकाबला है ही नहीं. पाकिस्तान हमारे सामने कुछ भी नहीं है. उस से मुकाबला कर सरकार हिंदुस्तान की ही बेइज्जती कर रही है.’’ तब तक शाहनवाज गुस्से से कहते हैं, ‘‘ये तो इतिहास बनाना चाहते हैं कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान को आजादी दिलाने में इन की अहम भूमिका रही थी. इन की सोच हिटलरवादी और फासीवादी है. इस आंदोलन के बाद ये समझ गए हैं कि अब इन की सत्ता नहीं रहने वाली है.’’

बगल में बहुत देर से खड़े मेहताब अली से रहा नहीं गया और बोल पड़े, ‘‘सीएए का मतलब है दूसरे के बच्चों को गोद लेना और एनआरसी का मतलब है कि आप अपने ही बच्चों से पूछेंगे कि तेरा बाप कौन है.’’

इतनी देर में मैं भीड़ से चारों तरफ से घिर चुका था, तभी गुस्से से उबलते हुए उसी भीड़ के पीछे से निकलते हुए एक व्यक्ति सामने आ गए. नाम पूछने पर उन्होंने अपना नाम शमीम अहमद बताया.

उन्होंने कहा, ‘‘महंगाई चरम पर है. इस पर सरकार का ध्यान नहीं है. अब तो वह इन के खिलाफ बोलने वालों को जिंदा दफन करने की बात कर रही है. यह सरकार की कैसी मानसिकता है. जहां तक नागरिकता की बात है, तो आप नागरिकता दीजिए न, रोका किस ने है, इस में बिल लाने की क्या जरूरत है?’’

तभी मूंगफली चबाते एक शख्स इंग्लिश में बोलने लगे, फिर हिंदी में आ गए. वैसे तो खुशमिजाज लग रहे थे लेकिन गुस्सा चेहरे पर झलक रहा था. नाम पूछने पर अपना नाम करीम खान बताया. उन्होंने कहा, ‘‘यह रास्ता कभी नहीं खुलना चाहिए. अब कोई भी कौंप्रोमाइज नहीं. आप इसराईल चले जाइए. 100-150 मील से लोग यूटर्न ले कर आते हैं. यह तो कुछ भी नहीं है.’’ वहीं खड़े एक युवा ने बताया, ‘‘कालिंदी कुंज – नोएडा रोड को केवल बदनाम किया जा रहा है कि इस से आवाजाही में दिक्कत हो रही है. अगर आंदोलन की वजह से यह सड़क बंद है तो पुलिस के पास दूसरा औप्शन भी है, जो रोड पुलिस ने ओखला बर्ड सैंचुरी से बंद कर रखी है. उस सड़क को खोल दे, वह क्यों बंद कर रखी है. वह तो मीठापुर, अलीगांव होते हुए बदरपुर और मथुरा रोड से मिलती है.’’ हालांकि, यह सच है कि सड़क बंद होने से फरीदाबाद से आने वाले यात्रियों को नोएडा या ग्रेटर नोएडा का सहारा लेना पड़ता है. दूसरा रास्ता डीएनडी रूट है जिस का इस्तेमाल साऊथ और बाहरी दिल्ली से जाने वाले लोगों को करना पड़ रहा है. तीसरा रास्ता मदनपुर खादर गांव के पीछे की तरफ बनी पुलिया है जहां से लोग फिलहाल सब से ज्यादा आतेजाते हैं, और इस संकरे रास्ते में फिलहाल दिक्कत है.’’

करीम खान फिर से बोल पड़े, ‘‘कोई जा कर मंच पर बोलो यार, मोदी के आगे जी न लगाएं.’’ बता दें कि मंच से 2-3 बार किसी ने मोदीजी कर के संबोधन किया था. इसी बीच किसी ने कह दिया कि वे तो हिटलर वाली सोच रखते हैं. तभी गुस्से से उबल रहे करीम खान उस पर भड़क उठे, ‘‘काहे का हिटलर, हिटलर तो फिर भी स्मार्ट था और यह तोस्मार्ट भी नहीं है.’’

protest

करीम खान रुक ही नहीं रहे थे. तभी जेब में हाथ डाले इरफान आलम बोल पड़े, ‘‘यहां तो सच बोलने वालों को आतंकवादी कहा जा रहा है.’’ तभी 2-4 युवा वहां आए और हम लोगों को आगे बढ़ जाने के लिए कहा क्योंकि वहां कारपेट बिछाया जा रहा था ताकि पैकेट बंद बिरयानी परोसी जा सके. भीड़ वहां से छंट गई और हम मंच की तरफ बढ़ चले, जहां एक शख्स अनिल कपूर की फिल्म ‘मेरी जंग’ का एक गीत गा रहे थे, ‘जीत जाएंगे हम तुम अगर संग हो, जिंदगी, हर कदम, इक नई जंग है…’ पर ये लोग जंग जीत पाएंगे या नहीं,? फिलहाल यह तो वक्त के पाले में है.

हम देखेंगे

लाजिम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिस का वादा है

जो लौह-ए-अजल में लिखा है

जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां

रुई की तरह उड़ जाएंगे…

 

उपरोक्त नज्म उर्दू के विख्यात शायर फैज अहमद फैज द्वारा लिखी गईर् है. 1979 में पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासन के खिलाफ लिखी गई यह नज्म 1981 में प्रकाशित हुई, जिस के बाद इस ने पाकिस्तान में हलचल मचा दी. जिया उल हक ने इस नज्म पर पाबंदी लगा दी थी, साथ ही औरतों के साड़ी पहनने और फैज की नज्म गाने पर भी. 13 फरवरी, 1986 में लाहौर के अलहमरा औडिटोरियम में गायिका इकबाल बानो ने जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ काली साड़ी पहन इस नज्म को गाया था तो देश के युवा तानाशाही हुकुमत के खिलाफ उठ खड़े हुए थे.

सीएए और एनआरसी का विरोध कर रहे छात्र व अन्य आंदोलनकारी अब इस नज्म को गा रहे हैं और प्रशासन को बता रहे हैं कि हम देखेंगे, लाजिम है कि हम देखेंगे.

shaheen bagh

(यह तसवीर शाहीन बाग की है जिस में कागज की अनेक नावों को मिला कर बड़ा दिल बना हुआ है. यहां ‘हम देखेंगे’ लिखा था. बगल में ही एक छोटी तोप रखी हुई है. एक युवा ने बताया कि यह तोप नाजिम यानी तानाशाह है जो कभी भी इस दिल को छलनीछलनी कर सकती है.)

‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ में दिखेगा बप्पी लहरी का ये हिट गाना

आयुष्मान खुराना और जितेंद्र कुमार की मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ इस साल की बहुप्रतीक्षित फिल्मों में से एक है. ये दमदार राम-काम, फिल्म एक समलैंगिक प्रेम कहानी है जिसका उद्देश्य भारत भर के माता-पिता और परिवारों को एक महत्वपूर्ण संदेश देना है. इस फिल्म में हिट होने की सभी चीजें शामिल होने के साथ साथ फिल्म में आयुष्मान खुराना और जितेंद्र की जोड़ी देखने को मिलेगी. फिल्म की दिलचस्प कहानी और शानदार स्टार कास्ट के अलावा, निर्माताओं ने धमाकेदार म्युजिक को भी फिल्म का हिस्सा बनाया है.

हमें उत्साहित होने का एक और कारण देते हुए, निर्माताओं ने फिल्म के ट्रेलर में बप्पी लहरी का मिड 80 का ट्रैक ‘यार बिना चैन कहां रे’ को भी शामिल किया है. 1985 में रिलीज हुआ ये लोकप्रिय डांस नंबर ‘साहेब’ नाम की फिल्म का हिस्सा था जिसमें अनिल कपूर और अमृता सिंह ने मुख्य भूमिका निभाया था. इस गाने पर ‘शुभ मंगल ज़्यादा सावधान’ में आयुष्मान और जितेंद्र झूमते हुए नज़र आएंगे. ट्रेलर में इस गानें की झलक दिखाई गयी है जो औडिएंस को उनके कदम थिरकाने पर मजबूर कर देंगे.

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इस बारे में बात करते हुए हितेश केवल्या ने कहा, “ये गाना 80 के मिड दशक का अहम् गाना रहा है और ये हमारी फिल्म के वाइब से मेल खा रहा है. ये गाना फिल्म में एक काफी शौट की तरह है.  तनिष्क बागची और वायु ने इस गाने को रिक्रिएट किया है. इस गानें में बप्पी दा की आवाज बरकरार है जिसे सुनकर आपका मन झूमने को कर देगा. आयुष्मान खुराना को गाने का रिक्रिएटेड वर्जन बहुत अच्छा लगा. ये गाना फिल्म का सार अच्छी तरह से बता पाने में सक्षम है.

एक तरफ इस गाने को विजय गांगुली द्वारा कोरियोग्राफ किया जाएगा तो वहीं ओरिजनल गाना उनके पिता अनिल गांगुली की फिल्म में था.

आयुष्मान खुराना स्टारर ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ एक ऐसी फैमिली एंटरटेनर फिल्म है जो प्यार, रिश्तों और समलैंगिकता के बारे में बात करती है. फिल्म में नीना गुप्ता, गजराज राव, जितेन्द्र कुमार और मानवी गगरू ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भूषण कुमार की टी-सीरीज और आनंद एल राय की कलर येलो प्रोडक्शन ने मिलकर फिल्म को प्रोड्यूस किया है. हितेश केवल्या द्वारा निर्देशित यह फिल्म 21 फरवरी को रिलीज होगी.

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क्रिस्टल अवार्ड से सम्मानित हुईं छपाक गर्ल

हाल ही में जब दीपिका पादुकोण जेएनयू पहुंची थी तो उनको लेकर काफी बवाल मचा था और सोशल मीडिया पर BUYCOTT#CHAPAK ट्रेंड कर रहा था. दीपिका की फिल्म छपाक को लेकर काफी बवाल मच चुका है लेकिन फिर भी बौक्स औफिस पर छपाक ने धमाल मचाया है और इसका अच्छा-खासा कलेक्शन भी हुआ है. दीपिका की वैसे तो बहुत सी फिल्मों ने धमाल मचाया है चाहे वो बाजीराव मस्तानी हो, पद्मावत हो या कोई भी फिल्म हो लेकिन छपाक को लेकर बवाल सिर्फ इसलिए मचा क्योंकि दीपिका उस वक्त जेएनयू में चली गईं जब स्टूडेंट्स  सीएए का विरोध कर रहे थे और वहां धरना प्रदर्शन हो रहा था लोगों का कहना था कि दीपिका ऐसे परिस्थिती में वहां फिल्म के प्रमोशन के लिए गई थीं. दीपिका के वहां जाने भर से उनकी फिल्म छपाक क विरोध होने लगा. कई संगठनों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया…लेकिन फिर भी दीपिका की फिल्म छपाक ने अपना धमाल मचा ही दिया.

वर्ल्ड इकनौमिक फौरम की तरफ से बौलीवुड एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण को 26 वें सालाना क्रिस्टल अवार्ड से सम्मानित किया गया. दीपिका पादुकोण को ये सम्मान मेंटल हेल्थ सेक्टर में उनके सराहनीय काम के लिए दिया गया… दीपिका इस अवार्ड को लेते वक्त काफी भावुक हो गई थीं. उन्होंने कहा कि “जिस वक्त मैं ये अवार्ड ले रही हूं.. उस समय दुनिया में एक और व्यक्ति सुसाइड से अपनी जान गवा रहा है…वो इंसान कोई भी हो सकता है एक पिता, मां, बेटा और बेटी ,भाई और बहन एक दोस्त या परिवार का कोई भी सदस्य या साथ काम करने वाला कोई भी.. हर 40 सैकेंड में एक इंसान सुसाइड से अपनी जान गंवा रहा है.

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 फरवरी 2014.. मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं पेट में कुछ अजीबोगरीब एहसास के साथ उठी.. मैं खाली और दिशाहीन महसूस करने लगी. मैं चिड़चिड़ी हो गई… जो इंसान मल्टी टास्क करनेवाला हो. अपने निर्णय खुद लेता हो,  अचानक खुद को भार समझने लगता है. मैं बिना वजह बुहत रोती थी, रोज सुबह उठना मेरे लिए एक संघर्ष हो गया था. मैं बुहत थक गई थी और मैंने हार मान ली थी. मेरी मां ने मेरी परेशानियों को समझा और मुझे समझाया कि मुझे प्रोफेशनल मदद की जरूरत है, बाद में खुलासा हुआ कि मैं क्लीनिकल डिप्रेशन और परेशानी से जूझ रही थी. इस डिप्रेशन के साथ प्यार और नफरत के मेरे रिश्ते ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है और मैं इससे गुजर रहे सभी लोगों को कहना चाहती हूं कि आप अकेले नहीं हो और सबसे जरूरी बात है कि आपके पास उम्मीद है.

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दीपिका पादुकोण ने दुनिया के सामने न सिर्फ खुद को मानसिक रोगी के तौर पर स्वीकार किया बल्कि इसके खिलाफ एक अभियान भी छेड़ दिया….और  उनके इन्हीं प्रयासों के लिए उन्हें सम्मानित किया गया है… मानसिक रोग के दौर से गुजर चुकी दीपिका पादुकोण ने साल 2015 में “ लाइव लव लाफ फाउंडेशन की बनाई थी. ये फाउंडेशन मेंटल डिसौर्डर से पीड़ित लोगों के लिए एक आशा की नई किरण साबित हुई है और आज भी हो रही है.एक बार फिर से दीपिका ने खुद को साबित कर दिखाया और लोगों के लिए अच्छा संदेश भी दिया.

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