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इस वजह से ऋषि कपूर के अंतिम संस्कार में आलिया ने थामा था फोन, ट्रोलिंग के बाद सामने आई सच्चाई

30 अप्रैल को ऋषि कपूर इस दुनिया को अलविदा कह एक नए यात्रा की तरफ चले गए. उनके मौत की खबर से पूरी इंडस्ट्री में शोक की खबर दौड़ गई है. परिवार वालों को लिए यह मुश्किल समय है. ऋषि के मौत के समय उनकी पत्नी नीतू कपूर और बेटे रणबीर कपूर मौजूद थे तो वहीं बेटी रिद्धिमा कपूर  लॉकडाउन की वजह से अपने पिता का अंतिम दर्शन नहीं कर पाई.

रिद्धिमा अपने पिता का अंतिम दर्शन वीडियो कॉल के जरिए कर पाई. जब आखिरी वक्त में उन्हें मुखअग्नि दी जा रही थी उस वक्त अभिनेत्री आलिया भट्ट रिद्धिमा कपूर को वीडियो कॉल के जरिए सारी चीजों को दिखा रही थी. ऐसे में रिद्धिमा का वहां न होना सभी को बहुत खल रहा था.

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आलिया की इस तस्वीर को देखकर कुछ यूजर्स उन्हें ट्रोल करते हुए यह सवाल कर रहे हैं कि आलिया भट्ट उस समय वहां मोबाइल फोन पर क्या कर रही थीं, हालाकिं सभी को इस बात की जानकारी है कि आलिया लगातार रणबीर की बहन के साथ फोन पर बनी हुई थीं.

अब उम्मीद है कि आलिया के बारे में लोग ऐसे सवाल नहीं करेंगे कि वह उस वक्त वहां पर क्या कर रही थीं.

बीती रात आलिया ने अपने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाला है जिसमें उन्होंने लिखा है कि वह उन्हें पिछले दो साल से एक परिवार एक दोस्त की तरह जानती थीं. उन्हें खोने का गम हमेशा रहेगा.

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बीच-बीच में आलिया रणबीर की मां नीतू कपूर को भी संभालती हुई नजर आ रही थीं. नीतू वहां बार-बार बेहोश हो जा रही थी. वहीं पिता की अंतिम विदाई के समय रणबीर कपूर भी पूरे टूटे हुए नजर आ रहे थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. उनके चेहरे पर पिता के खोने का दर्द साफ नजर आ रहा था.

#lockdown: ग्रीन और ऑरेंज जोन में सशर्त होगी  शादियां – समारोह

देश में लॉक डाउन 02 के ख़त्म होने से पहले ही लॉक डाउन 03 चौदह दिनों के लिए लागू हो गया है. लेकिन इसी बीच उनके लिए अच्छी खबर है जिनके घर शादी है और हर हाल में शादी करना ही छह रहे है . सरकार ने उनके मन की बातों को मानते हुए शादियों के इस मौसम में सदी समारोह करने का इजाजत सरकार ने सशर्त प्रदान कर दिया है . आइये 5 विन्दुओं में बताते है कि किन इलाकों में शादियां हो सकती है और सरकार का क्या दिशा निर्देश है .

* जल्द ही शादियों की शहनाई गूंजेगी  :- लॉकडाउन के दौरान सबसे बड़ी समस्या उन परिवारों की थी जिसमें शादी जैसे मांगलिक कार्यक्रम होने थे. इस बार सरकार ने इसे मामले में थोड़ी छूट दे दी है. अगर आप ग्रीन और ऑरेंज जोन में रहते है तो आपके घर या आस पास भी जल्द ही शादियों की शहनाई गूंजेगी . गृह मंत्रालय की तरफ से जारी की रियायतों के मद्देनजर यह रियायत प्रदान किया गया है .

* गैरजरूरी सामानों की ऑनलाइन डिलीवरी पर छूट :-  शादियों में खरीदारियों में कोई कमी ना रह जाये उसके लिए भी सरकार ने  ग्रीन और ऑरेंज जोन में  ई-कॉमर्स को भी छूट प्रदान कियाहै. इन जोन में गैर-जरूरी सामानों की ऑनलाइन डिलीवरी पर छूट दी गई है.

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* 50 फीसदी सवारी लेकर बसें चलाने की अनुमति :-  शादियों में आप एक जगह से दूसरे जगह जा सके इसके लिए सरकार ने पूरा ख्याल रखते हुए ,  ग्रीन जोन में 50 फीसदी सवारी लेकर बसें चलाने की अनुमति प्रदान कर दी है. ग्रीन जोन के बस डिपो 50 फीसदी कर्मचारी के साथ ही काम करेंcoronavirus

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* 50 से ज्यादा लोग जुटें  :- गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान शादी की इजाजत कुछ शर्तों के साथ दी गई है. लेकिन आपको इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि लॉकडाउन में दी गई शादी की इजाजत समारोह में 50 से ज्यादा लोग न जुटें यानी वर पक्ष और वधु पक्ष दोनों की तरफ से कुल 50 लोग ही शादी का लुत्फ उठा पाएंगे.

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* देश में 130 को छोड़ कर बाकी जगह आयोजित हो सकता है सशर्त शादी समारोह :-  लॉकडाउन 3.0 के लिए देश के जिलों को तीन जोन (रेड, ऑरेंज और ग्रीन) में बांटा गया है. जानकारी के मुताबिक रेड जोन में देश के 130 जिले हैं. ऑरेंज जोन में 284 और ग्रीन जोन में 319 जिले शामिल हैं. इन जिलों का वर्गीकरण मौजूदा कोरोना केसों के आधार पर किया गया है. ऑरेंज जोन और ग्रीन जोन के लोग  शादी जैसे मांगलिक कार्यक्रम सशर्त आयोजित कर सकते है .

 

#lockdown: बैंडबाजा और बारात अब कल की बात

उत्तर प्रदेश के चंदौली के रहने वाले सरोज कुमार खासा चिंतित हैं. आगामी 11 जून को उन की बेटी की शादी है. उन्होंने 500 कार्ड छपने दिए थे पर अब नहीं छपवाएंगे.लङके वाले ने शादी को आगे बढ़ाने बोल दिया है तो उन की चिंता बढ़ गई है.लङके के पिता ने भी घोङी वाले को पेशगी दिए थे पर अब जब शादी नहीं हो रही तो अभी यह पैसा भी लौटने से रहा. घोङी वाले ने साफ कह दिया कि जब शादी होगी तब यह रूपए ऐडजस्ट कर दूंगा पर पैसे किसी भी हालत में लौटा नहीं पाऊंगा क्योंकि वे खर्च हो गए और उपर से कर्जा चढ गया.

धंधा अभी मंदा है

जब से कोरोना वायरस का खौफ हुआ है और सरकार ने लौकडाउन लगाया है तब से शादीविवाह का धंधा भी पूरी तरह मंदा है. इस की मार सब से अधिक रोज कमाने खाने वालों पर पङी है.

दिल्ली के बुराङी के रहने वाले न्यू अशोक बैंड की हालत पतली है. शादीविवाह नहीं होने से कारोबार ठप्प है और घोङी तक को खिलाने के पैसे नहीं हैं.

अशोक ने फोन पर बताया,”साहेब, बङी आफत में जान है. शादीविवाह में लोग बग्गी जरूर बुक कराते थे. इस से घर का खर्च निकल जाता था साथ ही घोङी का चारा भी.अब तो घर चलाना मुश्किल है तो घोङी को कहां से खिलाएं.”

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पैसा नहीं तो चारा कहां

मनोज घोङी वाले की हालत तो इतनी खराब हो गई है कि है कि फोन पर बोलतेबोलते रो पङे.

मनोज ने बताया,”शादी के सीजन में ही कमाई होती थी जिस से पूरे साल घर का खर्चा चलता था. कोरोना वायरस क्या हम तो ऐसे ही मर जाएंगे.”

मनोज को अपने साथ घोङों की भी चिंता है.मनोज बताते हैं,”मेरे पास 4 घोङे हैं. इन पर हर महीने 15-17 हजार रूपए का खर्चा आता है. चारा, भूसी, चोकर देना होता है. सप्ताह में 3-4 बार गुङ और चने भी देने होते हैं. सरसों के तेल से मालिश करनी होती है”

मनोज ने दुखी होते हुए बताया,”फोटो भेज रहा हूं घोङों की. आप जरूर देखना वे खानपान की वजह से

कमजोर हो गए हैं.अब आप ही बताओ कि जब घर खर्च चलाने के लिए पैसे नहीं हैं तो इन को कहां से खिलाएं.”

बैंडबाजा में लग चुका है जंग

बैंडबाजा चलाने वाले रशीद खान ने फोन पर बताया,”अप्रैल महीने में एक भी शादी में नहीं जा सके. मई महीने की बुकिंग कैंसिल हो चुकी है.”

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रशीद ने बताया कि शादीविवाह के साथसाथ नेता लोग भी बुलाते थे कभीकभी किसी आयोजन में पर इस बार सब बंद है. मजदूर भाग गए और कहां गए पता नहीं. अगर यही हाल रहा तो सबकुछ समान्य होने के बाद भी मजदूर नहीं आएंगे.”

उधर शादी के लिए लिए सजने वाले मंडप में खामोशी है तो कई वाटिका में भी ताले लटके पङे हैं.

बुराङी के अमृतविहार स्थित जयंत वाटिका के प्रमोद जयंत बताते हैं,”कोरोना महामारी के बाद मार्च के अंतिम सप्ताह से ही वाटिका बंद पङा है. इतना ही नहीं अगले मई और जून महीने के पहले सप्ताह तक की सारी बुकिंग कैसिंल हो गई तो हमें बहुत घाटा उठाना पङा.

“4-5 लेबर हैं हमारे पास जो बैठे हुए हैं और बैठेबैठाए ही उन्हें तनख्वाह दे रहा हूं क्योंकि ये सभी दिहाङी पर नहीं बल्कि स्टाफ के तौर पर काम करते हैं. हर आयोजन बंद है और लगता तो यही है कि यह पूरा सीजन ऐसे ही निकल जाएगा.

पारंपरिक गीत अब नहीं सुनाई दे रहे

बिहार के मिथिलावासी शादीविवाह को बङी धूमधाम से मनाते हैं. लङके और लङकी वाले दोनों ही मेहमानों को बुलाते हैं. महिलाएं शादी से कुछ दिन पहले ही पारंपरिक गीत गाती हैं, जिस में कवि विद्यापति की लिखी छंद और कविताएं होती हैं.

मधुबनी, बिहार के रहने वाले विजय कुमार झा बताते हैं कि उन के एक नजदीकी रिश्तेदार की बेटी की शादी जुलाई के पहले सप्ताह में होनी है पर कोरोना वायरस के वजह से शादी टालनी पङ सकती है. वजह है रिश्तेदार विवाह आयोजन में सम्मिलित होने से डर रहे हैं. दिक्कत 2-3 विदेशी मेहमानों को ले कर भी है. लौकडाउन के बाद सबकुछ समान्य भी रहा तो विदेश से आने वाले मेहमानों से लोग डरेंगे या फिर वे खुद ही न आएं.

रिश्तेदारी बचाएं या जान

जाहिर है कि अगर इस समय शादीविवाह के मौकों पर रिश्तेदारों को आमंत्रण भेजा जाता है तो वे यही सोचते हैं कौन सा बहाना बना कर शादी में जाने को टाला जाए, क्योंकि उन्हें पता है कि अगर वे मना करेंगे तो कल को उन के घर भी मेहमान नहीं आएंगे. रिश्तेदारी में यह खूब होता है कि अगर खास मौकों पर नहीं गए तो रिश्ते खराब होते हैं और जिंदगीभर के लिए ताने सुनने को मिलता है.

मगर पश्चिम बंगाल के रहने वाले दीलिप बसु की परेशानी अलग है.

वे बताते हैं,”बहन की शादी जून में है और हम ने मेहमानों को आमंत्रण भी भेज दिया था.अब हम सब से निवेदन कर रहे हैं कि वे शादी में न ही आएं.हमारी योजना है कि हम 15-20 लोग ही मिल कर शादी का आयोजन निबटा देंगे.मेहमान हमारे रिश्तेदार हैं इसलिए सुरक्षा की जिम्मेदारी हम सब की है.

गहनों के बाजार में छाई है खामोशी

शादी में दूल्हा और दुलहन दोनों के परिवार वाले गहने खरीदते हैं.आजकल गहनों का कारोबार भी लगभग बंद सा है और इस का सब से अधिक खमियाजा छोटे और मंझोले दुकानदारों को उठाना पङ रहा है.

दिल्ली में ज्वैलरी की दुकान चलाने वाले जय अंबे ज्वैलर्स के सचिन वर्मा बताते हैं,”इस बार तो सीजन शुरू होने के बाद ही सब ठप्प हो गया है.न काम मिल रहा न कोई और्डर. पहले दुलहनें खुद चल कर दुकान तक आती थीं और मनपसंद गहने बनवाती थीं.

“मुझे तो लगता है कि लौकडाउन खत्म होने के बाद भी शादीविवाह के आयोजन पहले जैसे नहीं होंगे.कुछ लोगों ने तो गहनों के लिए और्डर भी दिया था पर सभी ने कैंसिल कर दिए.”

नहीं सज रहीं दुलहनें

शादीविवाह नहीं हो रहे तो ब्यूटी पार्लरों में भी वीरानगी छाई हुई है और छोटे व मंझोले ब्यूटी पार्लरों में आम महिला ग्राहकों के साथसाथ दुलहनें भी नहीं आ रहीं.

दिल्ली के झङौदा में पार्वती मेकअप स्टूडियो चलाने वाली ब्यूटिशियन शैल पासवान कहती हैं,”लौकडाउन की वजह से पार्लर कई दिनों से बंद है. पार्लर की नियमित ग्राहक महिलाएं भी नहीं आ रहीं. इस से घर खर्च के साथसाथ दुकान चलाने में भी दिक्कतें आ रही हैं. ऐसे में दुकान का किराया भी देना मुश्किल हो गया है.”

शैल ने बताया,”शादीविवाह के सीजन में दुलहनें फेसियल, ब्लीचिंग, हेयरस्टाइल और हेयर कलरिंग के लिए आती थीं, अब जब शादी ही नहीं हो रही तो कहां से आएंगी? नियमित ग्राहक महिलाएं आमतौर पर फेशियल, थ्रैडिंग और अपर लिप्स मेकअप के लिए आती थीं, पार्लर बंद होने की वजह से वह भी बंद है और सब से ज्यादा दिक्कत तो आएगी जब लौकडाउन खत्म होगा और महिलाएं ब्यूटी पार्लर आना शुरू करेंगी तब सोशल डिस्टैंसिंग का पालन कैसे होगा यह भी एक चिंता है क्योंकि मेकअप के समय ग्राहकों के करीब जाना हमारी मजबूरी है”

बंद है धर्म की दुकानदारी

लेकिन इस महामारी के बीच अच्छी खबर यह है कि धर्म की दुकान लगभग बंद है. मंदिरमसजिद जैसे जगहों में लोग नहीं के बराबर जा रहे तो जाहिर है न चढ़ावा चढ़ रहा न दक्षिणा. धर्म के नाम पर डराधमका कर वसूली भी बंद है.

न कोई हरिद्वार में गंगा नहाने जा रहा न गया में पिंडदान करने. इस से धर्म की दुकानदारी चलाने वाले खासा परेशान हैं. पर अच्छी बात यह है कि इस से लोगों की जेब ढीली भी नहीं हो रही, दूसरा यह कि उन्हें अब भगवान से ज्यादा कर्म करने की चिंता है कि मेहनत से ही पेट भरेगा और तमाम जरूरतें पूरी होंगी.अलबत्ता पूजापाठ नहीं मेहनत से फल मिलेगा.

एक बुरी खबर भी है

कोरोना वायरस महामारी के बीच एक बुरी खबर भी है और वह है रोजगार और व्यवसाय से जुङी हुई.

सीएमआईई के निदेशक महेश व्यास ने पिछले हफ्ते एक रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले हफ्ते बेरोजगारी की दर 23.4%, श्रमबल की प्रतिभागिता दर 36% और रोजगार की दर 27.7% रही है.मतलब साफ है कि नौकरियों को सीधेसीधे 20% का नुकसान हुआ है और इतनी बङी तादाद में नौकरियों का खत्म होना किसी भी देश के लिए बुरी खबर है, इस से न सिर्फ बेरोजगारी बढ़ेगी उद्योगधंधे भी प्रभावित होंगे.

इवेंट्स के जरिये जनता को जोड़ने में लगे है प्रधानमंत्री मोदी

कोरोना का राजनीतिक इफेक्ट भी होगा.यह देश की राजनीतिक और सामाजिक हालात को भी बदलने की क्षमता रखता है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता को खुद से जोड़ कर रखना चाहते है. ऐसे में वह बराबर इवेंट्स का सहारा ले रहे है.

कोरोना संकट से निपटने के लिए लॉक डाउन की शुरुआत ही ‘जनता कर्फ्यू’ जैसे मेगा इवेन्ट के साथ हुई. इसके बाद हर बार प्रधानमंत्री का जनता को संबोधित करना, धार्मिक टीवी सीरियल्स को शुरू करना, ताली और थाली बजाने, कैंडिल जलाने जैसे तमाम काम सरकार ने किए.

सेना बरसाएगी फूल

पहले और दूसरे लॉक डाउन के बाद 03 मई से 17 मई के बीच शुरू होने वाले तीसरे लॉक डाउन के लिए केंद्र सरकार की पहल पर सेना ने फैसला किया है कि भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान देश भर के अस्पतालों पर फूल बरसायेंगे.इस कार्य से सरकार अस्पताल में काम करने वालो का सम्मान देना चाहती है.

इसके पीछे मकसद है कि लोग देश भक्ति, राष्ट्रवाद से बंधे रहे. सरकार में अपनी आस्था बनाये रखे और सरकारी प्रयासों की सराहना करते रहे.सरकार को यह पता है कि अब जनता लॉक डाउन से परेशान हो चुकी है. ऐसे में लोक डाउन जितना लम्बा खींचेगा लोगो की सहनशीलता उतनी तेजी से खत्म होगी.

नई नही रही मन की बात

लॉक डाउन के हर मोड़ पर जनता से बात करने के लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जनता से रूबरू होते थे.तीसरे लॉक डाउन का एलान करने या फिर उसके सम्बंध में बात करने खुद प्रधानमंत्री नही याए. इसकी वजह यह थी कि अब लोक डाउन के बारे में बात करने के लिए उनके पास कुछ नया नही था.

तीसरे लॉक डाउन की शुरुआत के समय सरकार अब एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में लोगो को ले जाने के लिए रेलगाड़ियों को चलाने का काम करने जा रही है.यह काम सरकार को लॉक शुरू होने से पहले करना चाहिए था तो प्रवासियों के मन मे भय पैदा नहीं होता और आने वाले दिनों में उधोग धंधों को यह चिंता नहीं होती कि यह प्रवासी मजदुर वापस काम पर आयेगे या नही.

घट रही विश्वनीयता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास तीसरे लॉक डाउन के पहले कुछ बताने के लिए नया नही था इस लिए मन की बात करने के लिए वो देश की जनता के सामने खुद नही आये..

लॉक डाउन को लेकर जनता के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जो भरोसा पहले बना था धीरे धीरे अब वह खत्म होता नजर आ रहा है. जिस उत्साह के साथ देश ने जनता कर्फ्यू, ताली बजाने और कैंडल जलाने का काम किया अब तीसरे लोक डाउन में वह सवाल करने लगी है. जनता को लग रहा कि सरकार उसको कोरोना को लेकर सही हालत नही बता रही है.

सरकार की अव्यवस्था ने बढाई मालिक और मजदूरों के बीच दूरी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉक डाउन को लेकर हर बार नया नया वादा ठीक उसी तरह से कर रहे जिस तरह से कोर्ट में तारीख पर तारीख मिलती है. इससे एक बात का और पता चलता है कि सरकार के पास लॉक डाउन करने के पहले कोई रुट प्लान नही था. वो जनता को कैद करके पूरे देश मे तालाबंदी ही कर सकती है जिंसमे उसको कुछ नही करना पड़े. अगर सरकार ने पहले यह प्लान किया होता कि 1 माह से लेकर 2 माह के बीच तालाबंदी करनी है तो प्रवासियों को सबसे पहले अपनी जगह भेज कर लोक डाउन करती. कोरोना संकट के दौरान सरकार की लापरवाही से प्रवासियों को दिक्कत हुई है उसने  मालिक और मजदूरों के बीच एक खाई खोद दी है.जिसको पाटे बिना देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सम्भव नही है.

ऑडिट- भाग 1: क्या महिमा ऑफिस में घपलेबाजी करने से रोक पाई

ईमानदारी से किया काम झूठ पर भारी पड़ता है, यही सोचते हुए महिमा औफिस के औडिट के लिए कोई घपलेबाजी नहीं चाहती थी. फिर बात चाहे उस के खुद के लिए हो या किसी और के.

औफिस का छोटा लेकिन सुव्यवस्थित चैंबर. ग्लासडोर से अंदर का नजारा साफ दिखता था. टेबल पर रखे लैपटौप पर काम करती महिमा आज नीली साड़ी में काफी आकर्षक लग रही थी. महिमा हमेशा की तरह समय पर औफिस पहुंच गई थी.

विभाग के विभिन्न कार्यालयों में होने वाले औडिट से संबंधित शैड्यूल का मेल देखते ही राजस्व अधिकारी महिमा ने अपने पूरे स्टाफ को चैंबर में बुला लिया.

‘‘इस महीने की 20 तारीख को हमारे औफिस में औडिट पार्टी आएगी जो 22 तक रहेगी. आप लोग अपनेअपने सैक्शन से जुड़े हुए सभी डौक्यूमैंट्स कंपलीट कर लें. ध्यान रखिए कि किसी भी फाइल या रजिस्टर में औडिट पैरा बनने की नौबत न आए. हर एंट्री सही होनी चाहिए,’’ महिमा ने सब को निर्देश दिए.

‘‘विमलजी, संस्थापन शाखा के इंचार्ज होने के नाते आप की जिम्मेदारी सब से अधिक है और काम भी. सब से ज्यादा औब्जैक्शन इन्हीं फाइलों में लगते हैं. इसलिए आप विशेष ध्यान रखिएगा,’’ महिमा ने विमलजी को अलग से हिदायत दी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी को खुश करने का जिम्मा राकेशजी को दे दीजिए. उन्हें औफिस में औडिट करवाने का बरसों का अनुभव है. पहले भी वही ये सब काम करवाते आए हैं. कभी कोई औडिट पैरा नहीं बना,’’ विमल ने महिमा को सलाह दी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं. इस में राकेशजी क्या करेंगे? वे तो किसी सैक्शन के इंचार्ज भी नहीं हैं,’’ महिमा के माथे पर सिलवटें उभर आईं.

‘‘आप अभी नई हैं न, नहीं समझेंगी कि औडिट कैसे करवाया जाता है. मैं राकेशजी को भेजता हूं, वे आप को सबकुछ समझा देंगे.’’ विमल तो यह कह कर चैंबर से निकल गया लेकिन महिमा के लिए कई सारे प्रश्न छोड़ गया.

महिमा 2 साल पहले ही दिल्ली के इस औफिस में ट्रांसफर हो कर आई है. भोपाल शहर में पलीबढ़ी थी वह. स्कूल के बाद कालेज में हर ऐक्टिविटी में आगे रहती. अपनी बात कहने में वह कभी पीछे नहीं रही थी. उस का यही आत्मविश्वास उसे और भी आकर्षक बनाता था. यहां इसे राजस्व अधिकारी का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. इस से पहले वह उच्च अधिकारी की अधीनस्थ थी, इसलिए यह औडिट वाला काम कभी उस के जिम्मे नहीं आया था. अलबत्ता अनुभव की उस के पास कमी नहीं थी. 35 वर्ष की हो चुकी थी वह. इस बार पहली दफा उसे स्वतंत्ररूप से अपने औफिस का औडिट करवाना था.

‘‘जी मैडम, आदेश करें,’’ राकेश ने बहुत ही विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘राकेशजी, औफिस में औडिट होने वाला है. मैं ने सुना है कि आप को औडिट करवाने का बहुत अनुभव है. आप के निर्देशन में औडिट हो तो कभी कोई औडिट पैरा नहीं बनता.’’ महिमा ने राकेश को पढ़ने की कोशिश की.

‘‘अरे मैडम, यह तो इन सब का प्रेम है वरना मैं तो बस अपनी ड्यूटी निभाता हूं. आखिर यह औफिस मेरा भी तो है,’’ राकेश विनम्रता से कुछ और झुक आया.

‘‘तो ठीक है, करवाइए औडिट. मैं भी आप की कुशलता देखना चाहती हूं,’’ महिमा उसे निर्देश दे कर टेबल पर रखी फाइलें देखने लगी. राकेश कुछ देर तो खड़ा रहा, फिर चैंबर से बाहर चला गया.

लगभग 40 के आसपास होगा राकेश. आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा. माथे की त्योरियां उसे गंभीर बनाती थीं. बातें नापतौल कर करता था. अच्छी तरह से प्रैस की हुई सफेद कमीज उस पर फब रही थी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी के ठहरने, खानेपीने और घूमनेफिरने पर कुल मिला कर लगभग 10-12 हजार रुपए का खर्चा आएगा,’’ दूसरे दिन राकेश ने एक कागज पर लिखा हिसाब महिमा के सामने टेबल पर रख दिया. इतने रुपयों के खर्चे को सुन कर महिमा चौंक गई.

‘‘क्या बात कर रहे हैं, उन के ठहरने और खानेपीने का खर्चा भला हम क्यों करेंगे? क्या इस हैड में औफिस बजट का कोई अलग से प्रावधान है? मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’ महिमा कुछ समझी नहीं थी.

‘‘अरे मैडम, ये सब तो नौर्मल बातें हैं. जिस औफिस का औडिट होता है, सारा खर्चा उसी को करना पड़ता है. क्या आप को सचमुच कुछ भी नहीं पता?’’ अब हैरान होने की बारी राकेश की थी.

‘‘नहीं, मैं सचमुच इस बारे में नहीं जानती. वैसे भी, इतने पैसों की व्यवस्था कहां से होगी?’’ महिमा ने अपनी शंका रखी.

‘‘अरे मैडमजी, मलाई वाली सीट पर बैठने वाले अधिकारी ही अगर इस तरह की बातें करेंगे तो फिर सूखी सीट वालों का क्या होगा,’’ राकेश ने उसे इशारों में समझाया.

महिमा ने वह कागज अपने पास रख कर राकेश को जाने के लिए कहा. महिमा ने देखा कि कागज में शहर के एक बड़े होटल में 2 कमरे, सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने का खर्चा, एक दिन आसपास के दर्शनीय स्थान पर भ्रमण हेतु लक्जरी गाड़ी के साथसाथ होटल से औफिस लानेलेजाने के लिए गाड़ी आदि का ब्योरा लिखा था. यह सारी व्यवस्था 4 व्यक्तियों के लिए थी. देख कर महिमा का माथा घूम गया.

उस ने 2-3 दिन औडिट के सारे पहलुओं पर विचार किया. किसी भी फाइल में औब्जैक्शन लगने के बाद भविष्य में होने वाले पत्राचार और उस के बाद की मानसिक परेशानियों के बारे में भी विस्तार से सोचा. 1-2 अनुभवी अधिकारियों से भी परामर्श किया. हालांकि सब का इशारा इसी तरफ था कि राकेश की डील मान ली जाए लेकिन उस का मन उस का साथ नहीं दे रहा था.

‘‘जब मेरे रिकौर्ड में कोई कमी ही नहीं होगी तो फिर औडिट पैरा बनेगा कैसे?’’ उस का आत्मविश्वास अपने चरम पर था. अपना काम पूरी ईमानदारी से करती थी.

‘‘अरे मैडम, यह औडिट है. यहां पूरा हाथी निकलने के बाद भी उस की पूंछ कांटे में फंस सकती है,’’ अनुभवी लोगों का कहना था.

लॉकडाउन: घर में किराना इकट्ठा करना बन सकता है मुसीबत      

सरकार लोगों से बराबर अपील कर रही है कि उतना ही सामान खरीदें जितने की उन्हें जरूरत है. उन्होंने लोगों से जरूरत से अधिक सामान इकट्ठा न करने की सलाह दी है. बावजूद इस के कई लोग डर कर अपने घरों में जरूरत से ज्यादा खानेपीने का सामान भरने में लगे हुए हैं. हालांकि ऐसा करना उन के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.

बजट पर पड़ेगा असर
ज्यादा  सामान खरीदने का मतलब है अधिक पैसे खर्च करना. ऐसा करने से आप के महीने के बजट पर बुरा असर पड़ सकता है. भले ही लॉकडाउन है, लेकिन घर के जो अन्य खर्च हैं, जैसे किराया, बिल आदि उन का भुगतान आप को हर महीने करना ही है. ऐसे में बजट से भी ज्यादा खर्च करना आप को महीनेभर के लिए कड़की में ला सकता है

एक्सपायरी डेट का रखें ध्यान
लॉकडाउन के कारण लगभग सभी दुकानों पर सामान देरी से पहुंच रहा है, इस वजह से कई सामानों की एक्सपायरी डेट या तो नजदीक है या फिर उन पर तारीख लिखी ही नहीं है. दोनों ही तरह की चीजें आप के लिए ठीक नहीं हैं. ऐसा सामान लेना जिस पर एक्सपायरी डेट न हो, बीमारी का कारण बन सकता है. वहीं जल्दी एक्सपायर होने वाली चीज को अगर समय पर खत्म नहीं कर सके तो वह भी आप के किसी काम की नहीं रहेगी.

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कीड़े लगने का खतरा
अनाज में मौसम के अनुसार कीड़े लगने का डर रहता है. अगर आप अधिक मात्रा में खाद्य सामग्री जमा करते हैं तो आप को यह भी चेक करते रहना चाहिए कि कहीं उन में कीड़े तो नहीं पड़ गए हैं. अगर ऐसा हो गया तो वह चीज आप के खाने के लायक नहीं बचेगी.

बेवजह जगह घेरना
आमतौर पर हर महीने व्यक्ति उतना ही किराने का सामान खरीदता है, जितनी उसे जरूरत होती है. क्योंकि उस के पास जगह सीमित होती है. ऐसे में अगर आप ज्यादा सामान लाएंगे तो उसे बाहर ही रखना पड़ेगा, जिस से सबकुछ फैला हुआ लगेगा और सफाई करने में भी परेशानी होगी.

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सामान नहीं कर सकेंगे रिटर्न
अगर आप यह सोच रहे हैं कि आप ने ढेर सारा सामान ले लिया और बाद में जरूरत न पड़ने पर आप उसे लौटा देंगे तो ऐसा हो ही जाएगा, यह जरूरी नहीं. दुकान वाला पहचान का है तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तब ज्यादातर दुकानदार आप का बचा हुआ सामान लेने से मना कर देंगे.

आंगन का बिरवा: भाग 3

‘‘ठीक है, मां,’’ सौम्या ने अनमने ढंग से कहा.

शाम को मीरा, डाक्टर साहब, अक्षय, अभय सभी आ गए. विनोदी स्वभाव के डाक्टर साहब ने आते ही कहा, ‘‘बीमारी से उठने के बाद तो आप और भी तरोताजा व खूबसूरत लग रही हैं, नेहाजी.’’

‘‘क्यों मेरी सहेली पर नीयत खराब करते हो इस बुढ़ापे में?’’ मीरा ने पति को टोका.

‘‘लो, सारी जवानी तो तुम ने दाएंबाएं देखने नहीं दिया, अब इस बुढ़ापे में तो बख्श दो.’’

उन की इस बात पर जोर का ठहाका लगा. सौम्या ने भी बड़ी तत्परता और उत्साह से उन सब का स्वागत किया. कौफी, नाश्ता के बाद वह अक्षय और अभय से बातें करने लगी. मैं ने अक्षय की ओर दृष्टि घुमाई, ‘ऊंचा, लंबा अक्षय, चेहरे पर शालीन मुसकराहट, दंभ का नामोनिशान नहीं, हंसमुख, मिलनसार स्वभाव. सच, सौम्या के साथ कितनी सटीक जोड़ी रहेगी,’ मैं सोचने लगी. डाक्टर साहब और मीरा के साथ बातें करते हुए भी मेरे मन का चोर अक्षय और सौम्या की गतिविधियों पर दृष्टि जमाए बैठा रहा. मैं ने अक्षय की आंखों में सौम्या के लिए प्रशंसा के भाव तैरते देख लिए. मन थोड़ा आश्वस्त तो हुआ, परंतु अभी सौम्या की प्रतिक्रिया देखनी बाकी थी. बातों के बीच ही सौम्या ने कुशलता से खाना मेज पर लगा दिया. डाक्टर साहब और मीरा तो सौम्या के सलीके से परिचित थे ही, सौम्या के मोहक रूप और दक्षता ने अक्षय पर भी काफी प्रभाव डाला. खुशगवार माहौल में खाना खत्म हुआ तो अक्षय ने कहा, ‘‘आंटी, आप से मिले और आप के हाथ का स्वादिष्ठ खाना खाए बहुत दिन हो गए थे, आज की यह शाम बहुत दिनों तक याद रहेगी.’’

विदा होने तक अक्षय की मुग्ध दृष्टि सौम्या पर टिकी रही. और सौम्या हंसतीबोलती भी बीचबीच में कुछ सोचने सी लगी, मानो बड़ी असमंजस में हो.

चलतेचलते डाक्टर साहब ने मीरा को छेड़ा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ खाना ही जानती हैं या खिलाना भी?’’

मीरा ने उन्हें प्यारभरी आंखों से घूरा और झट से मुझे और सौम्या को दूसरे दिन रात के खाने का न्योता दे डाला. मेरे लिए तो यह मुंहमांगी मुराद थी, अक्षय और सौम्या को समीप करने के लिए. दूसरे दिन जब शलभजी आए तो सौम्या ने कुछ ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया. फिल्म के लिए जब उन्होंने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आज मीरा आंटी के यहां जाना है, मां के साथ…इसलिए…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी. वे थोड़ी देर बैठने के बाद चले गए. मैं भीतर ही भीतर पुलकित हो उठी. मुझे लगा कि प्रकृति शायद स्वयं सौम्या को समझा रही है और यही मैं चाहती भी थी. दूसरे दिन शाम को मीरा के यहां जाने के लिए तैयार होने से पहले मैं ने सौम्या से कहा, ‘‘सौम्या, आज तू गुलाबी साड़ी पहन ले.’’

‘‘कौन सी? वह जार्जेट की जरीकिनारे वाली?’’

‘‘हांहां, वही.’’

इस साड़ी के लिए हमेशा ‘नानुकुर’ करने वाली सौम्या ने आज चुपचाप वही साड़ी पहन ली. यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. गुलाबी साड़ी में खूबसूरत सौम्या का रूप और भी निखर आया. न चाहते हुए भी एक बार फिर मेरी दृष्टि उस के ऊपर चली गई. अपलक, ठगी सी कुछ क्षण तक मैं अपनी मोहक, सलोनी बेटी का अप्रतिम, अनुपम, निर्दोष सौंदर्य देखती रह गई.

‘‘चलिए न मां, क्या सोचने लगीं?’’

सौम्या ने ही उबारा था इस स्थिति से मुझे. मीरा के घर पहुंचतेपहुंचते हलकी सांझ घिर आई थी. डाक्टर साहब, मीरा, अक्षय सभी लौन में ही बैठे थे. अभय शायद अपने किसी दोस्त से मिलने गया था. हम दोनों जब उन के समीप पहुंचे तो सभी की दृष्टि कुछ पल को सौम्या पर स्थिर हो गई. मैं ने अक्षय की ओर देखा तो पाया कि यंत्रविद्ध सी सम्मोहित उस की आंखें पलक झपकना भूल सौम्या को एकटक निहारे जा रही थीं.

‘‘अरे भई, इन्हें बिठाओगे भी तुम लोग कि खड़ेखड़े ही विदा कर देने का इरादा है?’’ डाक्टर साहब ने सम्मोहन भंग किया.

‘‘अरे हांहां, बैठो नेहा,’’ मीरा ने कहा और फिर हाथ पकड़ अपने पास ही सौम्या को बिठाते हुए मुझ से बोली, ‘‘नेहा, आज मेरी नजर सौम्या को जरूर लगेगी, बहुत ही प्यारी लग रही है.’’

‘‘मेरी भी,’’ डाक्टर साहब ने जोड़ा.

सौम्या शरमा उठी, ‘‘अंकल, क्यों मेरी खिंचाई कर रहे हैं?’’

‘‘इसलिए कि तू और लंबी हो जाए,’’ उन्होंने पट से कहा और जोर से हंस पड़े.

कुछ देर इधरउधर की बातों के बाद मीरा कौफी बनाने उठी थी, पर सौम्या ने तुरंत उन्हें बिठा दिया, ‘‘कौफी मैं बनाती हूं आंटी, आप लोग बातें कीजिए.’’

‘‘हांहां, मैं भी यही चाह रहा था बेटी. इन के हाथ का काढ़ा पीने से बेहतर है, ठंडा पानी पी कर संतोष कर लिया जाए,’’ डाक्टर साहब ने मीरा को तिरछी दृष्टि से देख कर कहा तो हम सभी हंस पड़े.

सौम्या उठी तो अक्षय ने तुरंत कहा, ‘‘चलिए, मैं आप की मदद करता हूं.’’

दोनों को साथसाथ जाते देख डाक्टर साहब बोले, ‘‘वाह, कितनी सुंदर जोड़ी है.’’

‘‘सच,’’ मीरा ने समर्थन किया. फिर मुझ से बोली, ‘‘नेहा, सौम्या मुझे और इन्हें बेहद पसंद है और मुझे ऐसा लग रहा है कि अक्षय भी उस से प्रभावित है क्योंकि अभी तक तो शादी के नाम पर छत्तीस बहाने करता था, परंतु कल जब मैं ने सौम्या के लिए पूछा तो मुसकरा कर रह गया. अब अच्छी नौकरी में भी तो आ गया है…मुझे उस की शादी करनी ही है. नेहा, अगर कहे तो अभी मंगनी कर देते हैं. शादी भाईसाहब के आने पर कर देंगे. वैसे तू सौम्या से पूछ ले.’’

हर्ष के अतिरेक से मेरी आंखें भर आईं. मीरा ने मुझे किस मनोस्थिति से उबारा था, इस का रंचमात्र भी आभास नहीं था. भरे गले से मैं उस से बोली, ‘‘मेरी बेटी को इतना अच्छा लड़का मिलेगा मीरा, मैं नहीं जानती थी. उस से क्या पूछूं. अक्षय जैसा लड़का, ऐसे सासससुर और इतना अच्छा परिवार, सच, मुझे तो घरबैठे हीरा मिल गया.’’ ‘‘मैं ने भी नहीं सोचा था कि इस बुद्धू अक्षय के हिस्से में ऐसा चांद का टुकड़ा आएगा,’’ मीरा बोली थी.

‘‘और मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे इतनी हसीन समधिन मिलेगी,’’ डाक्टर साहब ने हंसते हुए कहा तो हम सब एक बार फिर से हंस पड़े.

तभी एकाएक चौंक पड़े थे डाक्टर साहब, ‘‘अरे भई, यह कबूतरों की जोड़ी कौफी उगा रही है क्या अंदर?’’

तब मैं और मीरा रसोई की तरफ चलीं पर द्वार पर ही ठिठक कर रुक जाना पड़ा. मीरा ने मेरा हाथ धीरे से दबा कर अंदर की ओर इशारा किया तो मैं ने देखा, अंदर गैस पर रखी हुई कौफी उबलउबल कर गिर रही है और सामने अक्षय सौम्या का हाथ थामे हुए धीमे स्वर में कुछ कह रहा है. सौम्या की बड़ीबड़ी हिरनी की सी आंखें शर्म से झुकी हुई थीं और उस के पतले गुलाबी होंठों पर मीठी प्यारी सी मुसकान थी. मैं और मीरा धीमे कदमों से बाहर चली आईं. उफनती नदी का चंचल बहाव प्रकृति ने सही दिशा की ओर मोड़ दिया था.

 

आंगन का बिरवा: भाग 2

मेरी सहयोगी शिक्षिकाएं भी बहुधा आती रहतीं, विशेषकर इन के मित्र शलभजी और मेरी सखी मीरा. शलभ इन के परममित्रों में से थे. इन के विभाग में ही रीडर थे एवं अभी तक कुंआरे ही थे. बड़ा मिलनसार स्वभाव था और बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व. आते तो घंटों बातें करते. सौम्या भी उन से काफी हिलमिल गई थी.

मीरा मेरी सहयोगी प्राध्यापिका और घनिष्ठ मित्र थी. हम दोनों के विचारों में अद्भुत साम्य अंतरंगता स्थापित करने में सहायक हुआ था. मन की बातें, उलझनें, दुखसुख आपस में बता कर हम हलकी हो लेती थीं. उस के पति डाक्टर थे तथा 2 बेटे थे अक्षय और अभय. अक्षय का इसी साल पीसीएस में चयन हुआ था. सत्र की समाप्ति के बाद संदीप भी आ गया था. उस के आने से घर की रौनक जाग उठी थी. दोनों भाईबहन नितनए कार्यक्रम बनाते और मुझे भी उन का साथ देना ही पड़ता. दोनों के दोस्तों और सहेलियों से घर भर उठता. बच्चों के बीच में मैं भी हंसबोल लेती, पर मन का कोई कोना खालीखाली, उदास रहता. इन की यादों की कसक टीस देती रहती थी. वैसे भी उम्र के इस तीसरे प्रहर में साथी की दूरी कुछ ज्यादा ही तकलीफदेह होती है. पतिपत्नी एकदूसरे की आदत में शामिल हो जाते हैं. इन के लंबेलंबे पत्र आते. वहां कैसे रहते हैं, क्या करते हैं, सारी बातें लिखी रहतीं. जिस दिन पत्र मिलता, मैं और सौम्या बारबार पढ़ते, कई दिन तक मन तरोताजा, खुश रहता. फिर दूसरे पत्र का इंतजार शुरू हो जाता.

एक दिन विद्यालय में कक्षा लेते समय एकाएक जोर का चक्कर आ जाने से मैं गिर पड़ी. छात्राओं तथा मेरे अन्य सहयोगियों ने मिल कर मुझे तुरंत अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर ने उच्च रक्तचाप बतलाया और कम से कम 1 महीना आराम करने की सलाह दी. इस बीच, सौम्या बिलकुल अकेली पड़ गई. घर, अपना विद्यालय और फिर मुझे तीनों को संभालना उस अकेली के लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था. तब शलभजी और मीरा ने काफी सहारा दिया. मेरी तो तबीयत खराब थी, इसलिए जो भी आता उस की सौम्या से ही बातें होतीं. हां, मीरा आती तो विद्यालय के समाचार मिलते रहते. शलभजी भी मुझ से हाल पूछ सौम्या से ही अधिकतर बातें करते रहते. इधर, शलभजी और सौम्या में काफी पटने लगी. आश्चर्य तब होता जब मेरे सामने आते ही दोनों असहज होने लगते. बस, इसी बात ने मुझे चौकन्ना किया. शलभजी और सौम्या? बापबेटी का सा अंतर, इन से बस 2-4 साल ही छोटे होंगे वे, कनपटियों पर से सफेद होते बाल, इकहरा शरीर, चुस्तदुरुस्त पोशाक और बातें करने का अपना एक विशिष्ट आकर्षक अंदाज, सब मिला कर मर्दाना खूबसूरती का प्रतीक.

मुझे आश्चर्य होता कि मेरा हाल पूछने आए शलभ, मेरा हाल पूछना भूल, खड़ेखड़े ही सौम्या को आवाज लगाते कि सौम्या, आओ, तुम्हें बाहर घुमा लाऊं, बोर हो रही होगी और सौम्या भी ‘अभी आई’ कह कर झट अपनी खूबसूरत पोशाक पहन, सैंडिल खटखटाती बाहर निकल जाती. सौम्या तो खैर अभी कच्ची उम्र की नासमझ लड़की थी, पर इस परिपक्व प्रौढ़ की बेहयाई देख मैं दंग थी. सोचती, क्या दैहिक भूख इतनी प्रबल हो उठी है कि सारे समीकरण, सारी परिभाषाएं इस तृष्णा के बीच अपनी पहचान खो, बौनी हो जाती हैं, नैतिकता अतृप्ति की अंधी अंतहीन गलियों में कहीं गुम हो जाती है. शायद, हां. तभी तो जिस वर्जित फल का शलभ अपनी जवानी के दिनों में रसास्वादन न कर सके थे, इस पकी उम्र में उस के लोभ से स्वयं को बचा पाना उन के लिए कठिन हो रहा था. वैसे भी बुढ़ापे में अगर मन विचलित हो जाए तो उस पर नियंत्रण करना कठिन ही होता है. तिस पर सुकोमल, कमनीय, सुंदर सौम्या. दिग्भ्रमित हो उठे थे शलभजी.

वेआएदिन उस के लिए उपहार लाने लगे थे. कभी सलवारकुरता, कभी स्कर्टब्लाउज तो कभी नाइटी. सौम्या भी उन्हें सहर्ष ग्रहण कर लेती. मैं ने 2-3 बार शलभजी से कहा, ‘भाईसाहब, आप इस की आदत खराब कर रहे हैं, कितनी सारी पोशाकें तो हैं इस के पास.’ ‘क्यों, क्या मैं इस को कुछ नहीं दे सकता? इतना अधिकार भी नहीं है मुझे? बहुत स्नेह है मुझे इस से,’ कह कर वे प्यारभरी नजरों से सौम्या की तरफ देखते. उस दृष्टि में किसी बुजुर्ग का निश्छल स्नेह नहीं झलकता था, बल्कि वह किसी उच्छृंखल प्रेमी की वासनामय काकदृष्टि थी.

मुझे लगता कि कपटी पुरुष स्नेह का मुखौटा लगा, सौम्या की इस नादानी और भोलेपन का लाभ उठा, उस का जीवन बरबाद कर सकता है. मेरे सामने यह समस्या एक चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी. इन के वापस आने में 7 महीने बाकी थे. संदीप का यह अंतिम वर्ष था. उस से कुछ कहना भी उचित नहीं था. प्रश्नों और संदेहों के चक्रव्यूह में उलझी मैं इस समस्या के घेरे से निकलने के लिए बुरी तरह से हाथपैर मार रही थी. तभी निराशा के गहन अंधकार में दीपशिखा की ज्योति से चमके थे मीरा के ये शब्द, ‘नेहा, सौम्या को तू मुझे सौंप दे, अक्षय के लिए. तुझे लड़का ढूंढ़ना नहीं पड़ेगा और मुझे सुघड़ बहू.’

‘सोच ले, यह लड़की तेरी खटिया खड़ी कर देगी, फिर बाद में मत कहना कि मैं ने बताया नहीं था.’

‘वह तू मुझ पर छोड़ दे,’ और फिर हम दोनों खुल कर हंस पड़ीं.

मीरा के कहे इन शब्दों ने मुझे डूबते को तिनके का सहारा दिया. मैं ने तुरंत उसे फोन किया, ‘‘मीरा, आज तू सपरिवार मेरे घर खाने पर आ जा. अक्षय, अभय से मिले भी बहुत दिन हो गए. रात का खाना साथ ही खाएंगे.’’

‘‘क्यों, एकाएक तुझे ज्यादा शक्ति आ गई क्या? कहे तो 10-20 लोगों को और अपने साथ ले आऊं?’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, आज मन बहुत ऊब रहा है. सोचा, घर में थोड़ी रौनक हो जाए.’’

‘‘अच्छा जी, तो अब हम नौटंकी के कलाकार हो गए. ठीक है भई, आ जाएंगे सरकार का मनोरंजन करने.’’ मनमस्तिष्क पर छाया तनाव का कुहरा काफी हद तक छंट चुका था और मैं नए उत्साह से शाम की तैयारी में जुट गई. रमिया को निर्देश दे मैं ने कई चीजें बनवा ली थीं. सौम्या ने सारी तैयारियां देख कर कहा था, ‘‘मां, क्या बात है? आज आप बहुत मूड में हैं और यह इतना सारा खाना क्यों बन रहा है?’’

‘‘बस यों…अब तबीयत एकदम ठीक है और शाम को मीरा, अक्षय, अभय और डाक्टर साहब भी आ रहे हैं. खाना यहीं खाएंगे. अक्षय नौकरी मिलने के बाद से पहली बार घर आया है न, मैं ने सोचा एक बार तो खाने पर बुलाना ही चाहिए. हां, तू भी घर पर ही रहना,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मां, मेरा तो शलभजी के साथ फिल्म देखने का कार्यक्रम था?’’

‘‘देख बेटी, फिल्म तो कल भी देखी जा सकती है, आंटी सब के साथ आ रही हैं. मेरे सिवा एक तू ही तो है घर में. तू भी चली जाएगी तो कितना बुरा लगेगा उन्हें. ऐसा कर, तू शलभ अंकल को फोन कर के बता दे कि तू नहीं जा पाएगी,’’ मैं ने भीतर की चिढ़ को दबाते हुए प्यार से कहा.

आंगन का बिरवा: भाग 1

पलकें मूंदे मैं आराम की मुद्रा में लेटी थी तभी सौम्या की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘मां, शलभजी आए हैं.’’

उस का यह शलभजी संबोधन मुझे चौंका गया. मैं भीतर तक हिल गई परंतु मैं ने अपने हृदय के भावों को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया, सहज भाव से सौम्या की तरफ देख कर कहा, ‘‘ड्राइंगरूम में बिठाओ. अभी आ रही हूं.’’

उस के जाने के बाद मैं गहरी चिंता में डूब गई कि कहां चूक हुई मुझ से? यह ‘शलभ अंकल’ से शलभजी के बीच का अंतराल अपने भीतर कितना कुछ रहस्य समेटे हुए है. व्यग्र हो उठी मैं. सच में युवा बेटी की मां होना भी कितना बड़ा उत्तरदायित्व है. जरा सा ध्यान न दीजिए तो बीच चौराहे पर इज्जत नीलाम होते देर नहीं लगती. मुझे धैर्य से काम लेना होगा, शीघ्रता अच्छी नहीं.

प्रारंभ से ही मैं यह समझती आई हूं कि बच्चे अपनी मां की सुघड़ता और फूहड़ता का जीताजागता प्रमाण होते हैं. फिर मैं तो शुरू से ही इस विषय में बहुत सजग, सतर्क रही हूं. मैं ने संदीप और सौम्या के व्यक्तित्व की कमी को दूर कर बड़े सलीके से संवारा है, तभी तो सभी मुक्त कंठ से मेरे बच्चों को सराहते हैं, साथ में मुझे भी, परंतु फिर यह सौम्या…नहीं, इस में सौम्या का भी कोई दोष नहीं. उम्र ही ऐसी है उस की. नहीं, मैं अपने आंगन की सुंदर, सुकोमल बेल को एक बूढ़े, जर्जर, जीर्णशीर्ण दरख्त का सहारा ले, असमय मुरझाने नहीं दूंगी. अब तक मैं अपने बच्चों के लिए जो करती आई हूं वह तो लगभग अपनी क्षमता और लगन के अनुसार सभी मांएं करती हैं. मेरी परख तो तब होगी जब मैं इस अग्निपरीक्षा में खरी उतरूंगी. मुझे इस कार्य में किसी का सहारा नहीं लेना है, न मायके का और न ससुराल का. मुंह से निकली बात पराई होते देर ही कितनी लगती है. हवा में उड़ती हैं ऐसी बातें. नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करना है मुझे,  सिर्फ अपने स्तर पर लड़नी है यह लड़ाई.

बाहर के कमरे से सौम्या और शलभ की सम्मिलित हंसी की गूंज मुझे चौंका गई. मैं धीमे से उठ कर बाहर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

‘‘नमस्ते, भाभीजी,’’ शलभ मुसकराए.

‘‘नमस्ते, नमस्ते,’’ मेरे चेहरे पर सहज मीठी मुसकान थी परंतु अंतर में ज्वालामुखी धधक रहा था.

‘‘कैसी तबीयत है आप की,’’ उन्होंने कहा.

‘‘अब ठीक हूं भाईसाहब. बस, आप लोगों की मेहरबानी से उठ खड़ी हुई हूं,’’ कह कर मैं ने सौम्या को कौफी बना लाने के लिए कहा.

‘‘मेहरबानी कैसी भाभीजी. आप जल्दी ठीक न होतीं तो अपने दोस्त को क्या मुंह दिखाता मैं?’’

मुझे वितृष्णा हो रही थी इस दोमुंहे सांप से. थोड़ी देर बाद मैं ने उन्हें विदा किया. मन की उदासी जब वातावरण को बोझिल बनाने लगी तब मैं उठ कर धीमे कदमों से बाहर बरामदे में आ बैठी. कुछ खराब स्वास्थ्य और कुछ इन का दूर होना मुझे बेचैन कर जाता था, विशेषकर शाम के समय. ऊपर  से इस नई चिंता ने तो मुझे जीतेजी अधमरा कर दिया था. मैं ने नहीं सोचा था कि इन के जाने के बाद मैं कई तरह की परेशानियों से घिर जाऊंगी. उस समय तो सबकुछ सुचारु रूप से चल रहा था, जब इन के लिए अमेरिका के एक विश्वविद्यालय ने उन की कृषि से संबंधित विशेष शोध और विशेष योग्यताओं को देखते हुए, अपने यहां के छात्रों को लाभान्वित करने के लिए 1 साल हेतु आमंत्रित किया था. ये जाने के विषय में तत्काल निर्णय नहीं ले पाए थे. 1 साल का समय कुछ कम नहीं होता. फिर मैं और सौम्या  यहां अकेली पड़ जाएंगी, इस की चिंता भी इन्हें थी.

संदीप का अभियांत्रिकी में चौथा साल था. वह होस्टल में था. ससुराल और पीहर दोनों इतनी दूर थे कि हमेशा किसी की देखरेख संभव नहीं थी. तब मैं ने ही इन्हें पूरी तरह आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था. ये चिंतित थे, ‘कैसे संभाल पाओगी तुम यह सब अकेले, इतने दिन?’

‘आप को मेरे ऊपर विश्वास नहीं है क्या?’ मैं बोली थी.

‘विश्वास तो पूरा है नेहा. मैं जानता हूं कि तुम घर के लिए पूरी तरह समर्पित पत्नी, मां और सफल शिक्षिका हो. कर्मठ हो, बुद्धिमान हो लेकिन फिर भी…’

‘सब हो जाएगा, इतना अच्छा अवसर आप हाथ से मत जाने दीजिए, बड़ी मुश्किल से मिलता है ऐसा स्वर्णिम अवसर. आप तो ऐसे डर रहे हैं जैसे मैं गांव से पहली बार शहर आई हूं,’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘तुम जानती हो नेहा, तुम व बच्चे मेरी कमजोरी हो,’ ये भावुक हो उठे थे, ‘मेरे लिए 1 साल तुम सब के बिना काटना किसी सजा जैसा ही होगा.’

फिर इन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया था. इन के सीने से लगी मैं भी 1 साल की दूरी की कल्पना से थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठी थी, परंतु फिर बरबस अपने ऊपर काबू पा लिया था कि यदि मैं ही कमजोर पड़ गई तो ये जाने से साफ इनकार कर देंगे. ‘नहीं, नहीं, पति के उज्ज्वल भविष्य व नाम के लिए मुझे स्वयं को दृढ़ करना होगा,’ यह सोच मैं ने भर आई आंखों के आंसुओं को भीतर ही सोख लिया और मुसकराते हुए इन की तरफ देख कर कहा, ‘1 साल होता ही कितना है? चुटकियों में बीत जाएगा. फिर यह भी तो सोचिए कि यह 1 साल आप के भविष्य को एक नया आयाम देगा और फिर, कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है न?’

‘पर यह कीमत कुछ ज्यादा नहीं है?’ इन्होंने सीधे मेरी आंखों में झांकते हुए कहा था.

वैसे इन का विचलित होना स्वाभाविक ही था. जहां इन के मित्रगण विश्वविद्यालय के बाद का समय राजनीति और बैठकबाजी में बिताते थे, वहीं ये काम के बाद का अधिकांश समय घर में परिवार के साथ बिताते थे. जहां भी जाना होता, हम दोनों साथ ही जाते थे. आखिरकार सोचसमझ कर ये जाने की तैयारी में लग गए थे. सभी मित्रोंपरिचितों ने भी इन्हें आश्वस्त कर जाने को प्रेरित किया था. इन के जाने के बाद मैं और सौम्या अकेली रह गई थीं. इन के जाने से घर में अजीब सा सूनापन घिर आया था. मैं अपने विद्यालय चली जाती और सौम्या अपने कालेज. सौम्या का इस साल बीए अंतिम वर्ष था. जब कभी उस की सहेलियां आतीं तो घर की उदासी उन की खिलखिलाहटों से कुछ देर को दूर हो जाती थी. समय जैसेतैसे कट रहा था. इधर, सौम्या कुछ अनमनी सी रहने लगी थी. पिता की दूरी उसे कुछ ज्यादा ही खल रही थी. हां, इस बीच इन के मित्र कभी अकेले, कभी परिवार सहित आ कर हालचाल पूछ लिया करते थे.

पाखंड: प्रेतयोनि से मुक्ति के नाम पर लूटने का गोरखधंधा- भाग 1

21वीं सदी में आने के बाद भी इस से बड़ी विडंबना क्या होगी कि आज भी हम पुनर्जन्म, प्रेतयोनि, पिंडदान व अस्थि विसर्जन में उलझे हैं. कब हम समझेंगे कि ये संस्कार महज ब्राह्मणों की जेबें भरने के लिए हैं न कि मृतक के परिवार को सांत्वना देने के लिए.

आश्चर्य तो तब होता है, जब हौलीवुड के संस्कारों व नैतिक मूल्यों को आदर्श मानने वाले भारतीय फिल्म कलाकार व निर्माता ‘भूत पार्ट वन : द हौंटेड शिप,’ ‘अमावस’, ‘परी’, ‘स्त्री’, ‘भूतनाथ’ आदि जैसी फिल्में बना कर अंतिम संस्कार के पाखंड व अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं. यही कहा जा सकता है कि बहुत थोड़े से लोगों के जीवन में तर्क का स्थान है व बहुत थोड़े से लोग ही तार्किक जीवन पद्धति अपनाते हैं. शेष तो कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधे जुत (जोतना) रहे हैं. जोतने वाले पंडेपुरोहितों के पूर्वजों ने जो भय पैदा किया, वह कायम है.

सोलह संस्कारों की यात्रा पंडेपुरोहितों द्वारा सोचसमझ कर बनाई गई व्यवस्था है. इस का एक ही उद्देश्य है कि उन की पाखंड की जीविका चलती रहे. यह एक तरह का मुस्तकिल काम है. भले ही तीनों वर्णों के पास खाने को न रहे, वे बेकाम बैठे रहें, लेकिन पंडेपुजारियों की जीविका चलती रहे, उन का पेट भरता रहे, इस को ध्यान में रख कर हर संस्कार में ब्राह्मणों की उपस्थिति व दान की व्यवस्था की गई है.

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इसीलिए कहा गया है कि पंडेपुरोहित जन्म से ले कर मरने तक के खानेपीने का इंतजाम जजमान से कर गए हैं, जो पीढ़ीदरपीढ़ी बदस्तूर कायम है. खानापीना भी ऐसा जिस में कच्चा भोजन यानी चावलदाल नहीं. ब्राह्मण दूसरे वर्णों का कच्चा भोजन नहीं ग्रहण करते. यह दोष माना जाता है. पका भोजन यानी तलाभुना भोजन जैसे पूड़ीकचौड़ी और दूधदही इत्यादि ही वे ग्रहण करते हैं. अब जजमान भीख मांग कर लाए या चोरीछिनैती कर के, अगर मृतक को प्रेतयोनि से मुक्ति दिलानी है, तो पंडेपुरोहित को पका भोजन कराए.

‘भागते भूत की लंगोटी भली,’ अंतिम संस्कार में यह कहावत सटीक बैठती है. इस के बाद तो जजमान से कुछ मिलने वाला नहीं. मिलेगा कैसे? वह तो दिवंगत हो गया. सो, प्रेतयोनि का भय दिखा कर जितना ऐंठा जा सके, पंडेपुरोहित ऐंठते हैं.

इस संस्कार को विधिविधान से संपन्न कराने में परिवारजन भी पीछे नहीं हटते. जीतेजी मृतक पानी के लिए तरसता हो, पर मरने के बाद मृतक को पासपड़ोसी व रिश्तेदार शिकायत का मौका नहीं देते. दूसरा, भय भी रहता है कि संस्कार ढंग से नहीं किया, तो प्रेत बन कर सताएगा.
मृतक को ठिकाने लगाना हमारी अनिवार्यता है. मगर जिन अंधविश्वासों को ध्यान में रख कर हम 13 दिन का खटकर्म करते हैं, वह धन व समय के अपव्यय के अलावा कुछ नहीं.

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मुक्ति का फंडा भी अजीबोगरीब है. 13 दिनों के खटकर्म के बाद मृतक प्रेतयोनि से मुक्त हो जाता है. पहले यह जानना चाहिए कि क्या प्रेत होते हैं? क्या आज तक किसी ने प्रेत देखा? पुरोहित कहता है, इन्हें विधिविधान से ठिकाने न लगाए जाए, तो परेशान करते हैं. अनेक लावारिस लाशें जला दी जाती हैं. क्या ये लाशें प्रेत बन कर अपने परिवार वालों को परेशान करती हैं? क्या किसी ने ऐसा अनुभव किया है? अगर ऐसा है तो तमाम बेकुसूर लोग जो किसी अपराधी या अराजक तत्त्वों द्वारा मारे जाते हैं, क्यों नहीं प्रेत बन कर अपराधियों को सताते हैं?

तमाम माफिया व राजनीतिक हत्यारे कत्ल कर के भी मस्ती से घूम रहे हैं. उन का क्या बिगाड़ा प्रेतों ने? मरने के बाद भी लाश न मिलने की स्थिति में अनेक परिवार अपने परिजनों का अंतिम संस्कार नहीं करते, इस आशा से कि वह (मृतक) लौट कर आएगा. होना तो यह चाहिए कि मृतक, प्रेत बन कर परिवार वालों को परेशान करने लगे, जिस से उन्हें पता लग जाए कि जिसे वे जिंदा समझ रहे हैं, वह अब दुनिया में नहीं रहा. क्या ऐसा हुआ है? ज्यादातर सैनिक परिवारों के साथ ऐसा होता है.

दरअसल, प्रेत एक काल्पनिक चरित्र है जिसे पंडेपुरोहितों ने भयादोहन के लिए रचा है. वहम का कोई इलाज नहीं. पीढ़ीदरपीढ़ी इस वहम को स्थानांतरित किया जाता है. इस प्रकार पंडेपुजारियों को जजमान का आर्थिक शोषण करने का भरपूर मौका मिलता है.

मृतक की मृत्यु के 13वें दिन का खटकर्म सिर्फ पंडेपुरोहित के खानेपीने के लिए बनाया गया है. जो व्यक्ति अपने परिजनों को जलाता है वह 10 दिनों तक जमीन पर, सफेद वस्त्र में मुंडन करा कर सोता है तथा प्रतिदिन पीपल के वृक्ष पर टंगी हांडी, जिस के बारे में कहा जाता है कि मृतक प्रेतयोनि में आ कर इसी हांडी में रहता है, को दीपक व पानी देता है. पानी देने का मतलब, प्रेत को पानी देने से होता है. यानी मरने के बाद भी मृतक पीछा नहीं छोड़ता. तो क्या प्रेत जीवित शरीर है, जो उसे प्यास लगेगी? पीपल के पेड़ पर सिर्फ शनिवार छोड़ शेष दिन प्रेतों का वास होता है.

पंडेपुजारियों ने पीपल के पेड़ का हौआ इतना बना दिया है कि रातबिरात, जेठ की दुपहरिया के सन्नाटे में जल्दी उधर से कोई जाता नहीं. आग लगाने वाला आदमी मृतक को जलाने का पाप करता है, सो प्रायश्चित्तस्वरूप जमीन पर सो कर स्वयं को कष्ट देता है. यह समझ से परे है.
लाश को ठिकाने लगाने के तरहतरह के रास्ते हैं. अब कोई जलाए या गाड़े या फिर चीलकौओं को खिला दे, क्या फर्क पड़ता है, जैसा पारसी करते हैं. क्या पारसियों की समृद्धि में कोई कमी आई? गरुड़पुराण के अनुसार, 10 दिन ब्राह्मणों को भोजन व मिष्ठान्न खिलाना चाहिए. जिस के घर गमी पड़ जाए, क्या उसे खिलाना अच्छा लगेगा?

गरुड़पुराण के अनुसार, मृतक का 10 दिनों तक हर दिन पुत्र द्वारा पिंडदान करना अनिवार्य है. जिस का पिंडदान नहीं होता, वह निर्जन वन में 6 करोड़ कल्पभर प्रेतयोनि में भटकता है. इसलिए पुत्र को पिंडदान अवश्य करना चाहिए. पिंड चावल, जौ और तिल वगैरह से बनता है.

इस पिंडक के 4 भाग होते हैं. इस में पंचभूत के लिए 2 भाग, जिस से शरीर बनता है, तीसरा भाग यमदूतों को मिलता है, चौथा भाग प्रेत (मृतक) खाता है, क्या यमदूतों को मृतक को यमलोक में ले जाने के पारिश्रमिक के रूप में यह मिलता है?

इस प्रकार 9 दिनों का पिंडदान प्रेत खाता है. आश्चर्य है, प्रेत भी खाता है? प्रेत का शरीर 10वें दिन के पिंड से बनता है. तब वह चलने लायक होता है. यमदूत इसी शरीर को पकड़ कर ले जाते हैं. पूर्व शरीर के जल जाने के बाद पुत्र द्वारा दिए गए पिंडदानों से उस जीव (मृतक) को देह मिलती है, जो हाथभर का होता है.

10वें दिन के पिंड से उस देह में क्षुधा व तृषा उत्पन्न होती है. भूखप्यास से पीडि़त प्रेत, 11वें व 12वें दिन के श्राद्ध के भोजन से अपनी भूख मिटाता है.
11वें दिन और्ध्वदैहिक क्रिया की जाती है.

इस में ब्राह्मणों को बुला कर उन से हाथ जोड़ कर प्रेतयोनि की मुक्ति के लिए प्रार्थना की जाती है. सोने के विष्णु, चांदी के ब्रह्मा, तांबे के शिव, लोहे के यमराज बनाए जाते हैं. ब्राह्मण का चरण धो, वस्त्र आदि में उन की पूजा की जाती है. फिर लड्डू, पूआ, दूध व अन्य पके हुए फल भोजन के लिए दिए जाते हैं. इस के अलावा सांड़ भी छोड़ा जाता है. इस से मृतक को प्रेत से मुक्ति मिलती है. प्रेतयोनि से भले ही मुक्ति न मिले, हां सड़कों पर छुट्टा घूमने वाले सांड़ अकसर मनुष्य योनि से मुक्ति दिलाते हैं.

पिंडदान से बने शरीर को यमदूत यमलोक ले जाते हैं. रास्ते में अनेक कष्ट झेलता, वर्ष के अंत में यमलोक के करीब बहुभीतिपुर पहुंचता है तो हाथभर का शरीर त्याग कर मात्र अंगुष्ठ भर का हो जाता है, जो कर्मों के हिसाब से यातना सहने के लिए तैयार हो जाता है.

12वें दिन को सपिंडन कहा गया है. इस दिन 12 ब्राह्मणों को भोजन कराने का प्रावधान है. और इस दिन शैय्यादान भी करना चाहिए. शैय्या मजबूत लकड़ी की बनी, रेशमी सूत से बीनी, स्वर्ण पात्रों से शोभित होनी चाहिए. हंस के समान श्वेत रुई से ढके गद्दे व तकिया, सुंदरसुगंधित चादर बिछी हो जैसी शैय्या भूमि पर स्थापित करनी चाहिए. छाता, चांदी की दीवट, चामर, आसन, पात्र, झारी, गड़ुआ, दर्पण व 5 रंगों का चंदवा आदि उस शैय्या के चारों तरफ रखना चाहिए. उस शैय्या पर स्वर्ण की लक्ष्मी-विष्णु समेत, विष्णु की मूर्ति को गहने व आभूषणों से सजाया जाना चाहिए.

स्त्री की शैय्या पर काजल, रोली, वस्त्राभूषण आदि सुहाग की वस्तुएं सजाने के पश्चात गंध पुष्प से भूषित, ब्राह्मणी को कान में सोने के आभूषण व अंगूठी, सोने की सिकरी से सुशोभित करना चाहिए. इस के बाद ब्राह्मणब्राह्मणी को दान कर देना चाहिए.

शैय्यादान के पश्चात पददान दिया जाता है. जो मृतक  यममार्ग में गए हैं, पददान से उन्हें सुख मिलता है. छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमंडल, आसन, पंचपात्र आदि पददान में आते हैं. इस के अलावा, दंड, तांबे के पात्र, भोजन, यज्ञोपवीत देने से पददान संपूर्ण माना जाता है.

12वें दिन, 13 ब्राह्मणों को 13 पददान देना चाहिए. ऐसा करने से मृतक, जो यममार्ग से यम के पास जाता है, को काफी सुविधा मिलती है. मसलन, यममार्ग में काफी गरमी पड़ती है, छाता देने से मृतक को छांव मिलती है. दुर्गम रास्ते पर चलने से पैर में छाले पड़ जाते हैं, इसलिए जूता दिया जाता है. कमंडल देने से, अतिधूप के चलते प्यास लगने पर जल मिलता है. तांबे का पात्र देने से हजार प्याऊ लगाने का फल मिलता है. भले ही उस ने जीते जी अपने पड़ोसियों को एक बूंद पानी न दिया हो, तो भी? ब्राह्मण को भोज देने से धीरेधीरे यममार्ग पर जाते मृतक को भोजन मिलता है.

ये तमाम चीजें, जो ब्राह्मणों को दानस्वरूप मिलती हैं, सब मृतक के काम आती हैं. इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खाए ब्राह्मण, पेट भरे भूखे का. इस के अलावा वार्षिक श्राद्ध में भी ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है.

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