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मैं चाहता हूं कि मेरी होने वाली पत्नी मेरी भाभी की तरह हो.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं 27 साल का युवक हूं और नीमच का रहने वाला हूं. मेरे घर वाले चाहते हैं कि मेरी शादी जल्द से जल्द हो जाए, क्योंकि मेरे बड़े भाई के बाद अब मैं ही हूं जिस की शादी के लिए सब ऐक्साइटिड हैं. मेरे बड़े भाई की पत्नी यानी मेरी भाभी बहुत ही गुणवान हैं. वे दिखने में बहुत ही ज्यादा खूबसूरत हैं, पढ़ीलिखी भी हैं. वे हर बात को सोचसमझ कर बोलती हैं, बड़ों की इज्जत करना भी जानती हैं और मेरे भाई से काफी प्यार करती हैं. इस से ज्यादा और एक मर्द को क्या ही चाहिए होता है अपनी पत्नी में? इसी वजह से मैं भी चाहता हूं कि मेरी होने वाली पत्नी मेरी भाभी की ही तरह हो. लेकिन मेरे लिए अभी तक जितने भी रिश्ते आए हैं, उन में से कोई भी लड़की मेरी भाभी की तरह नहीं थी. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

मैं आप की फीलिंग्स अच्छे से समझ सकता हूं. हर इंसान को लगता है कि उन की पत्नी में सारे गुण होने चाहिए और आप की सोच गलत नहीं है, लेकिन आप को एक बात समझनी चाहिए कि हर लड़की अपनेआप में अलग होती है. हर इंसान में कुछ अच्छा तो कुछ बुरा होता ही है. हो सकता है आप की भाभी में भी कुछ ऐसा हो जो आप को न पता हो और आप को सिर्फ उन की अच्छाई के बारे में ही पता हो.

हर लड़की अपने आप में स्पैशल होती है तो अगर आप इसी सोच के साथ किसी लड़की से मिलेंगे कि वह आप की भाभी की तरह होनी चाहिए, तो आप को कोई भी लड़की पसंद नहीं आएगी,क्योंकि उस समय आप के मन में तुलना के भाव चल रहे होंगे. आप जिस भी लड़की से मिलें उस से यह सोच कर मिलें कि वह आप के साथ किस तरह से रहेगी. क्या आप उसे वही प्यार दे पाओगे जो वह चाहती है? और तो और आप उस लड़की के साथ अपनी फीलिंग्स भी शेयर कर सकते हैं.

आप उस लड़की को बता सकते हैं कि आप अपनी होने वाली पत्नी से क्या ऐक्सपैक्ट कर रहे हैं और वहीं दूसरी तरफ आप भी उस लड़की से पूछें कि उसे अपने पति के रूप में कैसा लड़का चाहिए. ऐसी बातें करने से आप दोनों को एकदूसरे के विचार पता चल जाएंगे और फिर आप असानी से तय कर पाएंगे कि आप उस लड़की के साथ जिंदगी बिता पाएंगे या नही.

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तिमोथी : क्या थी तिमोथी की कहानी

लेखक- डा. आरएस खरे

कार से उतर कर जैसे ही घर में कदम रखा तो ‘टिकटौक, टिकटौक टिकटौक’ की आवाजें सुनाई दीं. अपना औफिस बैग सोफे पर रखते हुए मैं ने कमरे में झांक कर देखा तो तिमोथी घोड़ा बनी हुई थी और उस की पीठ पर रुद्राक्ष घुड़सवार.

रुद्राक्ष मेरा बेटा. है तो अभी 5 साल का, पर बेहद शरारती. तिमोथी को न तो कोई काम करने देता है और  न ही अपने पास से हटने देता है.

किंडर गार्डन से दोपहर 2 बजे आ कर शाम 5 बजे जब तक मैं औफिस से नहीं आ जाती, तिमोथी के साथ मस्ती करते रहना उस का रोज का शगल बन गया है. कभी उसे घोड़ा बनाता है, तो कभी हाथी और कभी ऊंट बना कर उस पर सवारी करता है.

आज तो हद ही कर दी उस ने. तिमोथी, जो मेरे घर पर पहुंचते ही मेरे लिए कौफी बनाने किचन में भाग कर जाती थी, उसे वह उठने ही नहीं दे रहा था, “नो, शी इज माय हौर्स, आई विल नौट एलाऊ टू मूव हर.”

बड़ी मुश्किल से माना वह, जब तिमोथी ने प्यार से समझाया कि वह मम्मा के लिए कौफी बनाने यों गई और यों वापस आई, 2 मिनट में.

“नो, नौट टू मिनट, वन मिनट ओनली,” रुद्राक्ष चीखते हुए बोला.

“ओके बाबा,” कहती हुई  तिमोथी तेजी से किचन की ओर भागी, कौफी बनाने.

3 महीने पहले दिलीप और मैं जब कंपनी की ओर से डेपुटेशन पर सिंगापुर आए थे, तब उस समय हमारी सब से बड़ी चिंता यही थी कि रुद्राक्ष सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक तो किंडर गार्डन में रहेगा, पर उस के बाद हम लोगों के औफिस से शाम को घर आने तक कोई विश्वास योग्य ‘आया’ मिल पाएगी या नहीं? एक और कठिनाई यह भी थी कि रुद्राक्ष या तो अंगरेजी बोलता था या हम लोगों की मातृभाषा ‘तमिल’. इसलिए ऐसी  आया चाहिए थी, जो उस की बोली समझ सके.

सिंगापुर पहुंचते ही हम लोगों ने ऐसी एजेंसियां खोजनी शुरू कीं, जो घरेलू नौकरानियां और आया जरूरत के अनुरूप चयन कर उपलब्ध कराती थीं.

दिलीप के साथ जब मैं ने ऐसी ही एक एजेंसी से संपर्क किया, तो उन्होंने एक कंसल्टेंट को हम लोगों के पास भिजवाया. कंसल्टेंट ने आ कर हमारे अपार्टमेंट का मुआयना किया और फिर हमारी जरूरतों संबंधी अनेक प्रश्न पूछे. संतुष्ट हो जाने पर उस ने 2-3 दिन का समय मांगा और इंतजार करने का अनुरोध किया.

2 दिन बाद ही वह एक ‘आया’ को अपने साथ ले कर आया. फिर परिचय कराते हुए वह बोला, “यह तिमोथी है. फिलिस्तीनी कैथोलिक ईसाई. पिछले माह तक ये आप के जैसे ही दक्षिण भारतीय सरनन सर के यहां घरेलू काम और बच्चे की देखभाल करती थी. उन के चेन्नई चले जाने से इस को नया काम चाहिए  था. ये दक्षिण भारतीय व्यंजन बनाने में भी निपुण  है. मेरे खयाल से आप को जिस तरह की ‘आया’ की जरूरत है, तिमोथी उस के लिए पूरी तरह उपयुक्त होगी.”

तकरीबन 55 से 60 साल की उम्र के मध्य की सौम्य सी दिखने वाली इस महिला में मुझे प्रथम दृष्टि में ही आकर्षण के साथसाथ ममत्व की झलक दिखी. उस ने कुछ समय में ही रुद्राक्ष को गोद में ले कर अंगरेजी में बात की, तो रुद्राक्ष थोड़ी ही देर में उस से इतना घुलमिल गया,  जैसे उसे पहले से जानता हो.

दिलीप से मैं ने तमिल में खुसरफुसर कर उन की राय ली तो वे संतुष्ट लगे. हम लोगों की सहमति होने पर कंसल्टेंट ने एक कौंट्रेक्ट फार्म भरा और तिमोथी को दिए जाने वाले वेतन और अवकाश संबंधी नियमों को हमें समझाया.

अगले ही दिन तिमोथी ने हमारे आवास के साथ बने सर्वेंट क्वार्टर में शिफ्ट कर लिया और घर के सारे काम संभाल लिए.

मैं जल्दी ही समझ गई कि उसे ज्यादा कुछ समझाने की जरूरत नहीं है. उसे दक्षिण भारतीय परिवार की सभी परंपराओं व रुचियों का ज्ञान है. संभवतः सरनन सर के यहां काम करतेकरते वह तमिल परिवारों की सभी विशेषताएं जान चुकी थी. शंका दूर करने के लिए  एक दिन मैं ने पूछ ही लिया,  तो उस ने बताया कि उस के देश फिलीपींस में मेड सर्वेंट और आया के काम के प्रशिक्षण के लिए अनेक ट्रेनिंग सेंटर खुले हुए हैं. ऐसे ही एक प्रशिक्षण केंद्र में उस ने भी प्रशिक्षण लिया था. फिर सरनन मैडम ने उसे धीरेधीरे सबकुछ सिखा दिया. अब उसे भारतीय त्योहार और रीतिरिवाज बहुत अच्छे लगते हैं.

तिमोथी की वाणी में तो मधुरता थी ही, उस के हाथों में भी हुनर था. वह इतना स्वादिष्ठ भोजन बनाती थी कि हम लोगों की डाइट में वृद्धि हो चली थी.

दिलीप तो तिमाथी के बनाए सांभर के दीवाने थे. वे अकसर कहते कि जैसा मां सांभर बनाती थी, वैसा ही तिमोथी भी बनाती है.

तिमोथी को खाली बैठना अच्छा नहीं लगता. वह कोई काम न भी हो तो भी काम निकाल कर करने बैठ जाती. उसे काम करते देख मुझे अपनी मां की याद आ जाती. वे भी ऐसे ही दिनरात काम में जुटी रहती हैं. मैं ने मां को आज तक आराम करते देखा ही नहीं.

तिमोथी वे सब काम भी करती जो ‘कौंट्रेक्ट’ में नहीं थे. ऐसा लगता जैसे व्यस्त रह कर वह कोई अपना ‘गम’ भुलाने की कोशिश करती रहती है. अधिकांश समय उस का चेहरा भावशून्य रहता. रुद्राक्ष के साथ खेलते हुए जरूर उस के चेहरे पर मुसकान रहती,  अन्यथा बाकी समय तो उस का चेहरा सपाट दिखता जैसे शून्‍य में कुछ खोज रही हो.

कई बार मैं ने जानने की कोशिश की, पर हर बार वह टाल जाती. तिमोथी से हम लोगों की बातचीत अंगरेजी में होती. वह अंगरेजी समझ तो अच्छी तरह से लेती थी,  पर बोलने में कहींकहीं अटकती थी.

प्रत्येक रविवार सुबह वह बिना नागा चर्च जाती और जब लौटती तो कुछ घंटों के लिए अपनेआप को कमरे में बंद कर लेती. जब वह बाहर निकलती तो उस की आंखों में हलकी सी लाली के साथ सूजन दिखती.

ऐसे ही एक रविवार को उस के चर्च से वापस आ जाने पर मैं ने उस की खिड़की से छुप कर देखा तो मैं अवाक रह गई.

तिमोथी फ्रेम में मढ़ी हुई एक तसवीर को सीने से लगाए सुबकसुबक कर रो रही थी. काफी देर तक तो मैं सोचती रही, पर जब मुझ से नहीं रहा गया तो मैं दरवाजे को धकेलते हुए  अंदर चली गई. मैं ने जैसे ही उसे चुप कराने के लिए गले लगाया, तो वह बिलखबिलख कर रो पड़ी.

काफी देर तक रो लेने के बाद मैं ने उसे पानी का गिलास देते हुए कहा, “तिमोथी, तुम मेरी मां जैसी हो. क्या कोई मां अपनी पीड़ा अपनी बेटी से साझा नहीं करेगी? दुख व्यक्त कर देने से दिल हलका हो जाता है.

फिर तिमोथी ने जो बताया,   वह बड़ा ही हृदयविदारक था-

‘तिमोथी का भरापूरा खुशहाल परिवार था. पति वर्गिस लून शहर के सिविल अस्पताल में डाक्टर थे. बेटा मार्कोस ने इंजीनियरिंग की डिगरी के बाद एमबीए ज्वाइन किया था. बहू सिल्विया, जिस का विवाह एक वर्ष पूर्व ही हुआ था,  पोते कार्लोस को हाल ही में जन्म दिया था.

‘फिलीपींस में भूकंप तो अकसर आते ही रहते थे, पर 15 अक्टूबर, 2013 को जो भूकंप आया, उस ने अनेक शहर उजाड़ दिए. सब से ज्यादा उस के लून शहर में विनाश हुआ. पूरा शहर ही ध्वस्त हो गया और हजारों लोग मारे गए. अस्पताल भवन के धराशाई होने से सैकड़ों मरीजों के साथसाथ उस के पति डाक्टर वर्गिस भी मलबे में दब गए थे, जिन्हें जीवित नहीं निकाला जा सका. तिमोथी का मकान भी ढह गया था, पर वे लोग जीवित बच गए थे.

‘मार्कोस ने जब अपने पिता की क्षतविक्षत लाश देखी, तभी से विक्षिप्‍त सा हो गया है. उस के उपचार पर पिछले 4-5 सालों में तिमोथी ने अपना सबकुछ लगा दिया.

‘डाक्‍टर अभी भी कहते हैं कि मार्कोस ठीक हो जाएगा, थोड़ा समय और लगेगा.

‘सिल्विया को यद्यपि चर्च में नौकरी मिल गई है, पर बेटे के महंगे उपचार के लिए  यह पर्याप्त नहीं होने से तिमोथी को आया की नौकरी करनी पड़ रही है.

‘लून की बहुत सी भूकंप प्रभावित महिलाएं सिंगापुर में घरेलू नौकरानी का काम कर रही हैं. यहां सिंगापुर में वेतन अच्छा मिलता है और साथ में एक माह का सवैतनिक अवकाश भी.

‘तिमोथी साल में एक बार एक माह के लिए लून जाती है. पोता कार्लोस दादी को छोड़ता ही नहीं. जब रोते हुए पोते को छोड़ कर वापस सिंगापुर तिमोथी आती है, तो कई दिनों तक वह बेचैन रहती है.

‘एक बार मार्कोस स्वस्थ हो जाए, तब वह रूखासूखा खा कर गुजारा कर लेगी,  पर पोते को छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी, कभी नहीं.’

तिमोथी की दुखभरी व्यथा सुन कर पवित्रा को जोर से रोना आया और वह तिमोथी से लिपट कर देर तक सिसकती रही.

तिमोथी ने बेटी की तरह उसे भींच कर सीने से लगा लिया. वहां अब सिर्फ दो प्रेम भरी आत्माएं थीं- मां और बेटी के रूप में. न कोई मालकिन, न कोई आया. न कोई भारतीय, न फिलीपिनी, न ही कोई हिंदू, न कोई ईसाई.

मन आंगन की चंपा

सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उसके लिए सिवाय अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उसके सामने एक बड़ा शून्य! यही था उसकी आँखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ता घुमड़ता रहता. वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उसने निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में दो दुकानें भी हैं उनमें एक किराए  पर है तो दूसरी बन्द पड़ी है. गुजारे भर से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है. जमा पूँजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी होकर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती.

कहने भर को रिश्तेदारी थी लेकिन न अपनत्व था और न ही सम्पर्क. माँबाप  स्वर्ग सिधार गए थे. पति के बड़े भाई थे जो कनाडा बस गए. न कभी आए और न कभी उनकी खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गर्मियों के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियाँ बिताती फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती. जिन दिनों उसका परिवार आता, उन दिनों सुभद्रा को लगता जैसे उसकी बगिया में असमय बसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा को भूल जाती. उसे लगता, धीरे-धीरे ही सही उसकी छोटी सी दुनियाँ में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उसका पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जी जान से सबकी खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही नहीं चलता!

इन सबके पार्श्व में प्रेम ही तो था जिसके कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं! जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएँ उभरने लगती. छुट्टियाँ समाप्त होती और सबके प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए! उम्र  बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा ६५ वर्ष पार कर गई. अनीता का आना-जाना भी बंद हो गया. कभी-कभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती ननद के प्रति उसका कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहाँ ताली बजती है! प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकांकी रह जाय या उसकी अवहेलना होती रहे तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उसके साथ.

यदाकदा कस्बे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जाती. जी हल्का हो जाता. मिल बैठकर अपने-अपने दुख दर्द बांटने का इससे अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा. सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कस्बे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलती. असहाय मिल जाते तो उनकी मदद करने से नहीं चूकती. हिसाब-किताब में भी सुलझी हुई थी वह. उसकी सबसे अधिक पटती थी लीला से. वह कस्बे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहार कुशल , सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एक दूजे के सुखदुख की सहचर. उसने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया. सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में! पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे? कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.

सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई! देख, सुभद्रा अभी जिंदा है मरी नहीं.” “बहुत व्यस्त रही इस बीच, पोता पोती के साथ. बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया था.” “अरे मैं तो मजाक में कह गई. बैठ पानी लाती हूँ, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुस्करा दी. “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूँ इसीलिए कह गई. ” “नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं बहिन भी है, तू डाँटेगी भी तो सुन लूंगी,” लीला हँस दी. “तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है.” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली. लीला जोरों से खिलखिलाने लगी फिर थोड़ी देर बाद गम्भीर हो गई,” कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?” “समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम! फिर चले न चले.” आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर   वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी! पहले जैसी ताकत कहाँ है अब!

“कोशिश करेगी तो सब हो सकता है. दुकान के लिए रेडीमेड गारमेंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी   अच्छा जैसी तेरी इच्छा,  सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया.   सच कह रही है ना? चलना-फिरना करोगी तो उल्टा फायदा ही होगा,   लीला ने समझाया. बातें करते करते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घण्टे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई. लीला का मन रखने के लिए उसने दुकान की साफ सफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कहकर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंग रोगन के बाद खिल उठे थे, रेडीमेड कपड़ों और रंग बिरंगी ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरे धीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा. इस बहाने इसका आसपास के लोगों से मेल मिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की जो अनुभूति मिली सो अलग. दिन ढलते लगता तो वह हिसाब किताब निपटा कर घर आ जाती. लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का सम्बल ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कस्बे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कस्बे के लोग उसके अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कस्बे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बुआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिस्ते बन गए थे उसके! हाँ, एक ननद ही थी जो रिस्ता निभाने में कंजूस निकली. एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा,   अनीता को साथ लाते तो तुम्हारे खाने पीने का ख्याल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है   आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे मैं शाम तक लौट जाऊँगा   ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक,   सुभद्रा उसे कुरेदने लगी. एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला,   मदद चाहिए थी इसीलिए आपके पास आया हूँ   कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं ?   सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उसकी आँखों की झिझक ने उसके अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.

दो लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुस्कराहट आकर टिक गई. दुनियां में लोग स्वार्थ  के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताख में रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता उसके दुख को भी समझते, उसकी तकलीफ़ पूछते सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है. उसने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूँ तो अपनी ही नजर में गिर जाऊँगी! सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उसने २ लाख के चेक में हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिए. शाम तक वह खुशी खुशी लौट गया. सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार भी था किरायेदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उसने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुँचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह अस्पताल से लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उसका बाहर निकलना तो दूर वॉकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया.

एक दो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे बस! एक दिन लीला आई, दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उससे उठा नहीं गया.   लेटी रहो, ज्यादा हिलो डुलो मत. खाना लेकर आई हूँ,   लीला बोली.   क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा   याद है आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसन्द हैं ना?     तुझे कैसे पता?   वह आश्चर्यचकित होकर बोली.   तूने ही तो बताया था कि मैं बसंतपंचमी के दिन हुई थी सुभद्रा हँसने लगी,   जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के!     क्यों? अपने लिए कुछ नहीं लेकिन उस दिन माँ बाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!     हम्म….    वह ख्यालों की दुनियाँ में चली गई. लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी,   सुभद्रा तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?   उसने निराशा से गर्दन हिलाई,   फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया इसी बहाने अपने पराए का भेद मिल गया,   सुभद्रा ने दुखी होकर लम्बी निःश्वास छोड़ी और चुप हो गई.   छोड़ इन सब बातों को, चल पहले तुझे खिला देती हूँ सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी.

लीला ने क्या कहा उसके कानों के पास से निकल गए.   क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उसका भी भला होता और तुझे भी दो रोटियाँ मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े   हाँ बहुत बार सोचा इस बारे में,   वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली,  एक लड़की है मेरे गाँव में   तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?     ठीक ही कह रही है तू   सोच मत बुला ले जल्दी. कितनी उमर की होगी?   होगी कोई ३०-३२ की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली और संस्कारी है. एक बेटा भी है ८ साल का. बेचारी की किस्मत देखो, इतने पर भी उसका पति उसे छोड़कर किसी दूसरी के साथ भाग गया   ओह! बहुत बुरा हुआ उसके साथ. तू कहे तो मैं किसी को गाँव भेज दूँ?     ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है लेकिन दिल की बहुत अमीर है   तभी तो कहा है कि जिसकी नाक है उसके पास नथ नहीं है और जिसके पास नहीं है उसके पास नथ है तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गई.   देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो वह मिल जाता है. यही है वह जिसकी मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इसका,   फिर उसकी तरफ देखकर सुभद्रा बोली,   आ बेटी भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?

बुआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूँ   कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूँ शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूँ,   अंदर आकर चम्पा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रखकर बोली,   चंदू तू बाहर जाकर खेल   अरे रहने दे उसे. इधर आ तुझसे काम की बात करनी है सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उसकी ओर देखकर बोली,  अब बता क्या कहती है?     आप मेरी बुआ जैसी है और माँ जैसी भी. गाँव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूँ   स्कूल में भर्ती करवा देंगे यहाँ, खुश रहेगा उसकी चिंता मत कर   आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता बुआ? आपको देख देख कर माँ की कमी भी पूरी करती रहूंगी मैं थोड़ी देर बाद लीला उठी,   अब मैं चलती हूँ फिर आऊंगी. तू इससे बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है चंपा की गाँव में इकलौती गाय थी, दूध भी कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, और कुछ नहीं. रोजी रोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्ग नर्क याद आ जाते. जवान थी इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आने देती. आज उसकी खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी, कस्बे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उसने हाँ करने में देरी नहीं की. एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गाँव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई. कस्बा आकर उसने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना.

नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खाना पीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेल मालिश करना. यह काम गाँव के जीवन से कहीं आसान था उसके लिए. यहाँ असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उसके हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती,   बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किसके लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपडे खरीद ले अपने और चंदू के लिए उसका बेटा कस्बे की स्कूल में जाने लगा था. वह यहाँ आकर बहुत खुश था, हमउम्र बच्चों के साथ उसका मन रम गया. अब चंपा को उसकी फीस और किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटी बड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गाँव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहाँ. यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरे धीरे चंपा की सेवा सुश्रुषा ने उसे उठने बैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटे-मोटे काम अपने हाथों  में ले लिए. कुछ साल हंसी खुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी, कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खाने पीने की उसे फिक्र नहीं थी, चम्पा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती. सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवन यापन दोनों भली भांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उसमें भी समुद्र की तरह उतार चढ़ाव आते रहते हैं. सुख दुख दोनों अलग अलग हैं. कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा. सुभद्रा ७० साल पारकर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी सो दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनियाँ छोड़ गई जिससे वह बहुत आहत हुई. सुभद्रा बिस्तर में बैठे बैठे किताबों के पन्ने पलटती, चन्दू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उसकी कुशलता पूछ लेती. उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रह रह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसम्बर आते आते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सुफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन सात-आठ साल बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथ पैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दियों में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होते हैं. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियाँ जकड़ जाती हैं. सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खाँसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. मुहल्ले में कल ही एक वृद्ध स्वास के रोगी चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई. चंपा भाँप गई. वह दैनिक कार्यों से निपट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी.

बुआ इतना क्यों सोच रही हो. खाने पीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करती   वो तो ठीक है पर मेरी तीन सहेलियाँ भी तो चली गई इस साल,   सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.   अरे बुआ तुम भी ना, सबका अपना अपना समय होता है. आपके साथ मैं हूँ ना…कुछ नहीं होने दूंगी,   सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा,   आप पीठ से तकिया लगा लो मैं खाना परोसती हूँ   पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर   चिंता न करो बुआ. साथ साथ परोसती हूँ सुभद्रा उदास होकर बड़बड़ाई,    अच्छा सोचूंगी तो अच्छा ही होगा… लीला की भी चिंता खाये जा रही है, हर बार यही कहती है कि आऊंगी लेकिन अब तक आई नहीं. उसकी जरूर कोई मजबूरी होगी सुभद्रा की तबीयत खराब होने लगी थी. छाती में बलगल जमा हो गया था. खांसी और दर्द भी बढ़ रहा था. ठंड से जांघों में ऐंठन और दर्द इतना हो गया कि वह गुसलखाने तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. चम्पा मेडीकल की दुकान से टॉयलेट पाट ले आई. सुभद्रा को जब जरूरत होती वह सामने खड़ी हो जाती. साफ सफाई का ध्यान देती, स्पंज करती और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर को घर पर बुला देती. सुभद्रा ने अनीता को फोन किया और अपनी बीमारी के विषय में बताया. इस आशा से कि शायद इन दुर्दिनों में मदद ही कर दे. अनिता ने स्वास्थ लाभ हेतु कई नुस्खे ही बता डाले. 'भाभी सोते समय हल्दी वाला दूध पीना शुरू कर दो भाभी. ज्यादा ऐलोपैथिक दवाएं मत खाना, छाती में जकड़न होगी. ठंडी चीजे लेना भी बंद कर दो.' सुभद्रा सुनती रही फिर खांसते हुए धीमी आवाज में बोली,   कुछ दिनों के लिए आ जाती तो?     कैसे आऊं भाभी? घर में पेंटिंग का काम लगा हुआ है. ठीक हो जाओगी. शहद और सीतोपलादी चूर्ण लेती रहो और हाँ, पानी गर्म ही पीना   अच्छा निर्मल को ही भेज दे कुछ दिन के लिए   ओहो भाभी. तुम हमारी परेशानी नहीं समझ पाओगी. ये तो मुम्बई गए हैं काम से.

पूरे महीने भर का टूर है उसने उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ा था. अनीता के बच्चे अब छोटे नहीं रह गए हैं,उसने सोचा और खांसते हुए रुक रुक कर बोली,  बेटा बेटी घर संभाल लेंगे कुछ दिन, फिर चली जाना?     बच्चों पर क्या भरोसा करना भाभी, घर पर टिकें तब न. रोज का टँटा रहता है कि हम बिजी हैं  अनीता ने चतुराई से अपना पल्ला झाड़ दिया. सुभद्रा ने भी दुनियाँ देखी थी सो झूठ सच भाँप गई. काम चल रहा है और घर में मर्द नहीं है! कितना सफेद झूठ है यह. उसने फोन बंद कर दिया और खांस खांस कर दोहरी हो गई. सुभद्रा के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था. अनीता के प्रति उसकी उम्मीद किसी सूखे दरख्त की तरह टूट गई. अब उसे फोन करना ही व्यर्थ लगा. जयपुर से आना अनिता के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. पहले भी कई बार अकेले आई है वह. इधर सुभद्रा की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही गई. कमजोरी भी बढ़ती जा रही थी. पड़ोसियों की मदद से चंपा ने उसे कस्बे के एक निजी अस्पताल में भर्ती करा दिया. अनीता को इसकी न जाने कहाँ से भनक लगी, वह अपने पति के साथ अस्पताल आ धमकी. दोनों हड़बड़ी में थे अस्पताल के काउंटर से पता चला कि सुभद्रा आसीयू में है.

आसीयू के बाहर पहुँचकर वहीं दोनों बेंच पर बैठ गए. तभी अंदर से विजिटिंग डॉक्टर निकाला तो अनीता उसे घेर कर खड़ी हो गई.   डॉक्टर, आईसीयू में मेरी भाभी हैं सुभद्रा, वे अब कैसी हैं?   फिलहाल हालत क्रिटिकल है, चेस्ट में काफी इंफेक्शन है   कोई उम्मीद डॉक्टर?     ओल्ड एज है इसलिए अभी कुछ कह नहीं सकते,   डॉक्टर कहते हुए आगे बढ़ा तो अनीता उसके पीछे पीछे चलती हुई पुनः बोली,   मिल सकती हूँ उनसे?     शाम पांच बजे के बाद. ओनली वन परशन एट ए टाइम निर्मल बैंच में बैठा था. बीच की चेयर खाली थी. अनीता उसके पास जा कर बैठ गई.   क्या कहा  डॉक्टर ने?     कंडीशन क्रिटिकल है,   अनीता ने फीके स्वर में कहा और समय देखने लगी,  अभी चार ही बज रहे हैं…अभी और एक घण्टा इंतजार करना पड़ेगा!     मैं तुम्हें कब से कह रहा था अकेली चली जाओ लेकिन तुम्हारे भेजे में बात ही नहीं आती,   निर्मल ऊंचे स्वर में बोल रहा था,   बिना वसीयत लिखे चली गई तो जायजाद हाथ से चली जायेगी. तुम्हारा भाई भी दावा कर सकता है. प्रोपर्टी कौन आसानी से छोड़ता है?

तुम्ही चले जाते. मैं तो शर्म के मारे नहीं जा पाई. दो लाख लेकर आज तक तुमने नहीं लौटाए. दस साल बीत गए, अरे लाखों की जायजाद के सामने दो लाख क्या थे,   अनीता गुस्से से बिफ़र गई.   अब बस भी करो आसपास लोग बैठे हैं. अंदर जा कर वसीयत की बात कर लेना. यही आखरी मौका है उस समय लीला भी वहीं थी जो जैसे तैसे अपने पोते को लेकर अस्पताल आई थी. उसके कानों में दोनों के वार्तालाप पडे तो वह समझ गई कि यही अनीता है. उसे दोनों पर क्रोध आने लगा. कैसे लोग हैं! बीमार औरत को देखने आए हैं या स्वार्थ  के लिए! उसे घृणा हो गई उनकी सोच से. लीला चुप न रह सकी,   क्या तुम सुभद्रा की ननद हो?   अनीता हड़बड़ा कर बोल पड़ी,   हां जी, लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं.   मैं उसकी बहन की तरह ही हूँ. कुछ माह पहले सुभद्रा ने अपनी वसीयत अपने गावँ की अनाथ लड़की के नाम कर दी है   क्या!   दोनों के मुंह से एक साथ निकला. अनिता का मुँह उतर गया और झल्लाहट में बोली,   भाभी कम से कम एक बार तो सलाह ले लेती   रजिस्ट्री भी हो गई है लेकिन जब तक जिंदा है सुभद्रा का ही हक रहेगा दोनों आवाक रह गए. उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था.   मेरे भाई की सम्पत्ति को कोई कैसे दान कर सकता है?     पति के बाद संपत्ति में पत्नी और बच्चों का हक होता है.

अब वह क्या करे  यह उसकी इच्छा है. सामने बैठी हुई लड़की को देख रहे हो, सुभद्रा के लिए दिन-रात एक कर दिया है उसने   नौकरानी और ननद में फर्क होता है   तुम नहीं समझ पाओगी. जिसे नौकरानी कहती हो वह बड़ी स्वाभिमानी है. उसने जितनी सेवा की है उसके आगे सुभद्रा की संपति का कोई मोल नहीं है   छोड़िये मैं आपसे बहस नहीं करना चाहती. चलो यहाँ से निर्मल, यहाँ दम घुटने लगा है,   वह बोलते बोलते बैंच से उठ खड़ी हुई.   माफ़ करना तुम्हें बुरा लगा, जो सच था मैंने कह दिया,   लीला ने कहा किंतु अनीता ने मुहँ फेर लिया. लीला ने चंपा पर निगाह डाली. उसकी रो-रो कर आँखें सूज गई थी. उसके सर की छत भरभरा रही थी और वह असहाय दुपट्टे से आँसूं पोंछते जा रही थी. शाम पांच बजे के बाद बारी-बारी से सुभद्रा को देखने गए. सांस लेने के उपकरण लगे होने से ठीक से बात नहीं कर पाई लेकिन इशारे में वह अपनी भावनाएं दर्शाती रही. अनीता को जो कहना था कहा लेकिन सुभद्रा के मुखमण्डल पर किसी तरह के भाव नहीं थे. चम्पा जब अन्दर गई तो उसे देखकर सुभद्रा की निश्तेज आँखों में चमक आ कर ठहर गई. वह हाथ बढ़ाकर चंपा के आंसूओं से भीगे चेहरे को थपथपाने लगी.

सुभद्रा कुछ देर के लिए सब कुछ भूल गई फिर उसे घर जाने का इशारा करने लगी. तभी वार्ड ब्वॉय आया और उस से बाहर जाने का आग्रह करने लगा. चंपा को लीला बाहर ही मिल गई और उसे अपने साथ ले गई. चंपा दुपट्टे से आंखे पोंछती हुई अनिच्छा से पीछे पीछे चल दी. उधर अनीता निराशा और उद्वेग के वशीभूत पति के साथ उसी दिन लौट गई. अगली सुबह सुभद्रा की हालत में सुधार होने लगा और शाम तक उसके चेहरे से आक्सीजन मास्क हटा दिया. दो दिन और आईसीयू में रहने के बाद सुभद्रा को सामान्य वार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया. चंपा रोज की तरह अस्पताल आ चुकी थी. उसकी खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी. उत्साह से उसने नर्स का आधा कार्य खुद ही संभाल लिया. दोपहर को कुछ देर के लिए घर जाती और चंदू को भोजन करवाकर तुरन्त अस्पताल आ जाती. सुभद्रा की कुशल लेने वालों का तांता लग गया. कस्बे का कोई शख्स ऐसा न था जो न आया हो. अब जाकर उसे लगा कि सब कुछ होकर भी वह स्वयं को असहाय क्यों मानती रही! वह अकेली नहीं थी, उसकी सोच ही अकेली चल रही थी.

कुछ हफ्तों में सुभद्रा ठीक होकर घर आ गई. चंपा की सेवा सुश्रुषा ने उसे फिर से नया जीवन दे दिया था. अब वह काफी अच्छा महसूस करने लगी थी. चंपा ने उसकी सेहत के लिए जी जान लगा दिया था. यह सब देखकर सुभद्रा का उसके प्रति अनुराग पहले से कहीं अधिक ठाठे मारने लगा. उस ने चम्पा को अपने पास बिठाया और स्नेह से सिर सहलाते हुए बोल पड़ी,   तूने बेटी और बेटे दोनों की कमी पूरी कर दी   मैंने क्या किया बुआ. माँ को खोया तो उसे आपके रूप में पा लिया. कितनी भाग्यशाली हूँ मैं   हाँ माँ ही हूँ बेटी…माँ ही हूँ,   कहते कहते सुभद्रा सिसकने लगी.   क्यों रो रही हो बुआ? मेरे लिए आपने जो किया दूसरा कभी नहीं कर पायेगा. आखिर कौन किसी पर आँख मूंद कर विश्वास करता है. मुझे रुपया-पैसा का मोह नहीं, मुझे तो आपके चरणों में थोड़ी सी जगह की इच्छा है   माँ के लिए अपने बच्चों की जगह हृदय में होती है पगली. मैंने कोई पुण्य किया होगा जो  तू मुझे मिली सुभद्रा स्नेह से उसे देर तक निहारती रही फिर डबडबाई आँखों को आँचल से पोंछती हुई बोली,  मैं निपूती नहीं हूँ, मेरे मन आँगन की चंपा है तू और फिर अपने अंक से लगाकर उसका माथा चूम लिया!

वर्जित फल : मालती की जिंदगी में राकेश के आने से क्या बदलाव आया

मालती ने जिस साल बीए का का इम्तिहान पास किया था, उसी साल से उस के बड़े भाई ने उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था. इस सिलसिले में राकेश का पता चला, जो इंटर कालेज, चंपतपुर में अंगरेजी पढ़ाता है. वे 2 भाई हैं. उन के पास 8 एकड़ जमीन है, जिस पर राकेश का बड़ा भाई खेती करता है. राकेश के घर वालों ने मालती को देखते ही शादी के लिए हां कह दी और शादी की तारीख तय करने के लिए कहा. उन की बात सुन कर मालती की मां ने कहा, ‘‘बहनजी, अभी लड़के ने तो लड़की देखी नहीं है. उन्हें भी लड़की दिखा दी जाए.

आखिर जिंदगी तो उन दोनों को ही एकसाथ गुजारनी है.’’ इस पर राकेश की मां ने जवाब दिया, ‘‘हमारा राकेश बहुत सीधा और संकोची स्वभाव का है. हम ने उस से लड़की देखने के लिए बारबार कहा, मगर उस ने हर बार यही कहा, ‘‘आप लोग पहले लड़की देख लीजिए. जो लड़की आप को पसंद होगी, वही मु?ो भी पसंद होगी.’’ उन की बात सुन कर सभी लोग राकेश की तारीफ करने लगे, केवल मालती ही मन मसोस कर रह गई. उसे इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि क्या केवल लड़के को ही हक है कि वह अपना जीवनसाथी पसंद करे, लड़की को इस का हक नहीं है? उसे इतना भी हक नहीं है कि उसे जिस के साथ जिंदगी बितानी है, उसे शादी के पहले एक झगोलक देख ले.

वार में त्योहार का सा माहौल बन गया और देखते ही देखते बरात मालती के दरवाजे पर आ गई. मालती की सखियां उसे सजा कर जयमाल के लिए सजाए गए मंच की ओर ले कर पहुंचीं. मालती हाथों में वरमाला लिए सखियों के साथ जब मंच पर पहुंची, तो वर पर नजर पड़ते ही वह सन्न रह गई. हड्डियों का ढांचा सिर पर मौर धरे उस के सामने खड़ा था. मालती का चेहरा अपने वर को देख कर उतर गया. उस की इच्छा हुई कि वह जयमाल को तोड़ कर फेंक दे और वहां से भाग जाए. कैसेकैसे सपने देखे थे उस ने अपने जीवनसाथी के बारे में और यह कैसा जोड़ मिला है. मालती यह सब सोच ही रही थी, तभी उस की बड़ी बहन ने उस का हाथ कस कर दबा दिया. उस की चेतना लौटी और उस ने बु?ो मन से राकेश के गले में जयमाल डाल दी. वर को देख कर हर कोई उस पर टिप्पणी कर रहा था. उन की बात सुन कर कुछ जिम्मेदार औरतों ने हालात संभालते हुए कहा, ‘कुछ लोगों की सेहत शादी के बाद सुधर जाती है. जब पत्नी के हाथ का भोजन करेगा, तो उस की सेहत सुधर जाएगी.

शादी के बाद मालती जब ससुराल पहुंची, तो घर की अच्छी हालत देख कर उसे कुछ तसल्ली हुई. ससुराल में उस के रूपरंग की खूब तारीफ हुई. उस की ननद और जेठानी ने उस की सुहागरात के लिए फूलों की सेज तैयार कराई और रात के साढ़े 9 बजे वे दोनों मालती के साथ हंसीमजाक करते हुए उस के कमरे में छोड़ आईं. रात 10 बजे राकेश ने कमरे में प्रवेश किया, तो उस का दिल तेजी से धड़कने लगा. राकेश ने उस का घूंघट उठाया, तो मालती का खूबसूरत चेहरा देख कर उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह देर तक मालती का मुंह चूमता रहा और उस के शरीर को प्यार से सहलाता रहा. जब राकेश ने पहली बार संबंध बनाया, तो वह एक मिनट भी नहीं टिक सका. इस के बाद उस रात को उस ने 2 बार संबंध बनाया, पर दोनों बार वह एक मिनट से आधे मिनट के अंदर ही पस्त हो गया. मालती सारी रात प्यासी मछली की तरह छटपटाती रही. मालती 5 दिन तक ससुराल में रही और हर रात उसे ऐसे ही दुखदायी हालात से गुजरना पड़ा. मालती जब अपने मायके पहुंची, तो अपनी मां और भाभी के गले लग कर खूब रोई.

उस की भाभी द्वारा रोने की वजह बारबार पूछे जाने पर उस ने सारी बात उन्हें बता दी. 2 महीने बाद राकेश बड़े भाई सुरेश के साथ ससुराल गया और मालती को विदा करा कर ले आया. घर में परदा प्रथा होने के चलते भयंकर गरमी में भी मालती को राकेश के साथ बंद कमरे में ही सोना पड़ता था. उस के कमरे के आगे बने बरामदे में उस के जेठजेठानी सोते थे और उस के सासससुर छत पर सोते थे. एक रात जब राकेश एक मिनट में अपनी मर्दानगी दिखा कर खर्राटे भर रहा था और मालती काम की आग में जलते हुए सोने की कोशिश कर रही थी, तभी बरामदे में चारपाई के चरमराने और औरत के सीत्कार की आवाज उसे सुनाई दी. यह आवाज तकरीबन 20 मिनट तक उस के कानों में गूंजती हुई उस की तड़प को बढ़ाती रही. अगले दिन फुरसत के पलों में मालती ने अपनी जेठानी को बातों ही बातों में आभास करा दिया कि कल रात जब वह जेठजी के साथ धमाचौकड़ी मचा रही थी, तो वह जाग रही थी.

मालती की जेठानी यह सुन कर शर्म से पानीपानी हो गई, फिर सफाई देते हुए बोली, ‘‘क्या करूं, रात में भोजन करने के बाद उन्हें होश ही नहीं रहता है. मेरे शरीर को तो वे रूई की तरह धुन कर रख देते हैं. उस समय इन के शरीर में बिजली जैसी फुरती और घोड़े जैसी ताकत आ जाती है. घंटों छोड़ते ही नहीं. मैं तो बेदम हो जाती हूं और अगले दिन घर का काम निबटाने में भी मुश्किल हो जाती है.’’ जेठानी की बात सुन कर मालती का मन हुआ कि वह अपनी छाती पीट ले, मगर उस ने हंस कर कहा, ‘‘तुम जेठजी को मनमानी करने दो, घर का काम मैं संभाल लूंगी.’’ इस चर्चा का नतीजा यह हुआ कि उस रात मालती की जेठानी बरामदे में न लेट कर अपने कमरे में जा कर लेट गई. रात में जब उस के जेठ ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘वहां क्यों गरमी में सड़ रही हो. यहां बाहर ठंडी हवा में क्यों नहीं लेटती?’’ ‘‘आज मैं कमरे में ही लेटूंगी. तुम्हें वहां लेटना हो तो लेटो,’’ जेठानी ने कमरे से ही जवाब दिया. मालती अपने कमरे में लेटी उन दोनों की बातचीत सुन रही थी. राकेश मालती को कुछ क्षणों में अपनी मर्दानगी दिखा कर हांफता हुआ एक तरफ को लुढ़क गया और जल्दी ही गहरी नींद में सो गया. मगर मालती को आधी रात तक नींद ही नहीं आई. इस बीच वह अपने कमरे से बाहर निकली. बरामदे में उस के जेठ खर्राटे भर रहे थे.

बाथरूम से जब वह वापस लौटी, तो जेठ की चारपाई के पास आ कर उस के पैर ठिठक गए. उस ने एक क्षण रुक कर पूरे घर का जायजा लिया. घोर सन्नाटा पसरा हुआ था. उसे इतमीनान हो गया कि सभी लोग गहरी नींद में सो रहे हैं. वह हिम्मत कर के सुरेश की चारपाई पर उस से चिपक कर लेट गई. नशे में चूर सुरेश की नींद जल्दी ही खुल गई और उस ने मालती को दबोच कर संबंध बनाना शुरू कर दिया. जल्दी ही मालती की ?ि?ाक दूर हो गई और वह भी सुरेश का साथ देने लगी. जब सुरेश की पकड़ धीमी पड़ी, तब तक मालती संतुष्ट हो चुकी थी. पसीने से लथपथ सुरेश ने जब उसे छोड़ा, तभी उस की नजर मालती के चेहरे पर पड़ी. उस ने चौंक कर कहा, ‘‘तुम…?’’ तभी मालती ने सुरेश के मुंह पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आप ने एक प्यासी की आज प्यास बुझाई है. आप के भाई तो किसी लायक हैं नहीं, मजबूरन मु?ो अपनी प्यास बु?ाने के लिए आप के पास आना पड़ा.’’ मालती चुपचाप अपने कमरे में आ कर सो गई. इस के बाद से तो वह हर दूसरेतीसरे दिन रात को उठ कर सुरेश के पास जा कर अपनी प्यास बुझाने लगी.

सुरेश ने 2-3 बार तो संकोच का अनुभव किया, मगर फिर वह भी हर रात को मालती का इंतजार करने लगा. उस की अपनी पत्नी तो बच्चे पालने में ही परेशान रहती थी, फिर उम्र के साथ ही उस का जोश भी कम होता जा रहा था. सर्दियों में मालती ने सुरेश से नींद की गोलियां मंगवा लीं और रोजाना खाने में नींद की गोलियां डाल कर राकेश और अपनी जेठानी को देने लगी. सुरेश अब दिनभर चौपाल में पड़ा सोता रहता और रात में राकेश के सोने के बाद उस के कमरे में घुस जाता और मालती के साथ मजे लेता.

मगर, एक रात सुरेश की मां जब आंगन में शौचालय जा रही थीं, तभी सुरेश को मालती के कमरे से निकल कर अपने कमरे में जाते हुए देख लिया. वे दबे पैर मालती के कमरे में गईं, राकेश खर्राटे भर रहा था. उन्होंने मालती को बाल पकड़ कर उठाया और बोलीं, ‘‘वर्जित फल खाते हुए शर्म नहीं आई तु?ो कुलच्छिनी?’’ मालती चोरी पकड़े जाने पर पहले तो सकपकाई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘भूख पर एक सीमा तक ही काबू रखा जा सकता है अम्मां. वर्जित फल स्वाद के लिए नहीं, मजबूरी में खाती हूं. तुम्हारे बेटे को तो औरत की जरूरत ही नहीं है. मैं उन के सहारे नहीं रह सकूंगी अम्मां.’’ उन दोनों की बातचीत सुन कर राकेश भी जाग गया था. उसे अपनी कमजोरी का अहसास तो था ही, इसीलिए वह चुपचाप सिर ?ाका कर कमरे के बाहर निकल गया.

अदालतों के रुख की मारी हिंदू युवतियां

वर्ष 2020 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने सिंदूर और चूड़ी को ले कर एक फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट ने कहा था कि पत्नी के सिंदूर लगाने और चूड़ी पहनने से इनकार करने का मतलब है कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी आगे जारी नहीं रखना चाहती है और यह तलाक दिए जाने का आधार है.

क्या है यह पूरा मामला, जानते हैं-

एक व्यक्ति जिस की शादी 2012 में हुई थी और कुछ सालों में ही पतिपत्नी अलग हो गए थे. उस ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में तलाक के लिए याचिका दाखिल करते हुए कहा कि उस की पत्नी चूड़ी, मंगलसूत्र नहीं पहनती है और न ही सिंदूर लगाती है. उस पर गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया और कहा कि अलग रह रही पत्नी द्वारा ‘थाली’ यानी मंगलसूत्र को हटाया जाना पति के लिए एक मानसिक क्रूरता समझा जाएगा.

यह टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने पति के तलाक की अर्जी को मंजूरी दे दी थी लेकिन महिला ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि उस ने अपने गले की चेन हटाई थी, मंगलसूत्र नहीं.

वहीं, महिला की वकील ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 का हवाला देते हुए कहा था कि मंगलसूत्र पहनना आवश्यक नहीं है और इसलिए पत्नी द्वारा इसे हटाने से वैवाहिक संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने पत्नी के सिंदूर लगाने से इनकार को एक साक्ष्य के तौर पर माना.

न्यायिक बैंच ने अपने फैसले में कहा कि, ‘हिंदू रीतिरिवाजों के हिसाब से शादी करने वाली महिला अगर सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ी नहीं पहनती है, तो ऐसा करने से वह अविवाहित लगेगी और प्रतीकात्मक तौर पर इसे शादी से इनकार माना जाएगा. ऐसा करना महिला के इरादों को साफ जाहिर करता है कि वह पति के साथ अपना वैवाहिक जीवन आगे जारी नहीं रखना चाहती है.’

कोर्ट ने यह भी कहा कि इन हालात में पति का पत्नी के साथ रहना महिला द्वारा पति और उस के परिवार को प्रताड़ना देना ही माना जाएगा.

एक आदर्श स्त्री की परिभाषा क्या है, आजकल अदालतों में इस का खूब बखान हो रहा है. कुछ वर्षों पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस परिभाषा को स्पष्ट किया था और कहा था कि आदर्श स्त्री वही है जो बलात्कार के बाद सोए नहीं, बल्कि तुरंत इस अपराध की इत्तेला करे.

बनारस की एक स्टार्टअप कंपनी ने लड़कियों को आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग देने की पेशकश कर डाली. ऐसी ट्रेनिंग गीताप्रैस वाले कई सालों से दे रहे हैं. उन की पुस्तकों के नाम पढ़ कर ही आप समझ जाएंगे, जैसे ‘नारीधर्म’, ‘स्त्री के लिए जीवन के आदर्श’, ‘दांपत्य जीवन के आदर्श’, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ आदिआदि. ऐसा ही एक आदेश गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी सुना डाला कि अगर एक विवाहित महिला सिंदूर और मंगलसूत्र नहीं पहनती, तो इस का मतलब है वह अपने शादीशुदा जीवन में खुश नहीं है.

2018 में पुणे में एक महिला से एक पुलिस वाले ने पूछा था कि आप ने कोई गहना क्यों नहीं पहना है? सिंदूर क्यों नहीं लगाया है? एक पारंपरिक गृहिणी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? 2018 में ही आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के गांव थोकलापल्ली की औरतों को दिन में नाइटी न पहनने का फरमान सुनाया गया था.

एक बार किसी ने कहा था कि शादी के बाद लड़कियां सिंदूर और चूड़ियां नहीं पहनतीं तो लगता ही नहीं है कि वे शादीशुदा हैं. यानी, लड़कियों के लिए शादीशुदा दिखना जरूरी है. यह दिखाना जरूरी है कि उन के शरीर पर एक पुरुष का कब्जा है. सिंदूर और मंगलसूत्र के जरिए यह दिखाना होता है कि उक्त महिला किसी की संपत्ति है. सो, वह किसी और के लिए उपलब्ध नहीं है. अदालत ने भी इस बात को पुख्ता कर दिया कि शादी के बाद महिलाओं को सिंदूर लगाना और मंगलसूत्र पहनना ही पहनना है, वरना माना जाएगा कि उन्हें शादी में विश्वास नहीं है.

गुवाहाटी कोर्ट ने महिला को अत्याचारी भी बताया क्योंकि वह अपनी सास की सेवा नहीं करती. यानी कि उन्हें बहू नहीं, नौकरानी चाहिए थी अपने लिए?

महिलाओं के खिलाफ फैसला सुनाने वाली ज्यूडीशियरी खुद एक पुरुषप्रधान है, तो वह कहां महिलाओं की भावना को समझ पाएगी.

अपने एक प्रवचन के दौरान बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री ने मंगलसूत्र को ले कर कहा था, ‘किसी स्त्री की शादी हो गई हो तो उस की 2 पहचान होती हैं- मांग का सिंदूर और गले का मंगलसूत्र. अगर कोई महिला मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहने न दिखे, तो समझ लो प्लौट खाली है. और अगर किसी महिला के मांग में सिंदूर भरा दिखे और गले में मंगलसूत्र लटका दिख जाए, तो समझो उस प्लौट की रजिस्ट्री हो चुकी है.’

बाबा के इस बयान पर सोशल मीडिया पर महिलाओं का गुस्सा फूटा था. लेकिन आज तक बाबा का कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया.

पीएम मोदी की एक चुनावी रैली में मंगलसूत्र चर्चा का विषय बना रहा. चुनावी सभा में मंगलसूत्र का जिक्र होने का अर्थ है, एक तरीके से पूरे समाज को आवाज देना है, क्योंकि छाप-तिलक और कंठीमाला से ज्यादा हमारी रोज की जिंदगी का सब से अभिन्न अंग है मंगलसूत्र, जो उत्तर से ले कर दक्षिण तक, हरेक विवाहित महिला के गले में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता मिलेगा फिर चाहे वह सोने का हो, पीतल का या सिर्फ धागे में पिरोये काले मोतियों से बना हो. राजतिलक की चाहत ने चुनावी रण के दांवपेंच अचानक बदल दिए. मोदी से पहले मंगलसूत्र पहुंच गया. देश की करोड़ों महिलाओं का मंगलसूत्र चुनावी रण में भाजपा का नया मुद्दा बन कर उभरा.

कानून की नजर में विवाह की वैधता

कोर्ट का यह अजीबोगरीब फैसला शादी की अस्मिता पर सवाल तो उठा रहा है लेकिन हम यहां जानते हैं कि कानून की नजर में विवाह कब वैध माना जाता है?

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5 के अनुसार-

* विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी कि शादी के समय किसी भी पार्टी में पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार, यह अधिनियम बहूविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.

* शादी के समय यदि कोई पक्ष बीमार है तो उस की सहमति वैध नहीं मानी जाएगी, भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन मानसिक विकारग्रस्त नहीं होना चाहिए जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.

* दोनों पक्षों में किसी की उम्र विवाह के लिए कम नहीं होनी चाहिए.

* दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के विवाह की अनुमति नहीं देता.

इस के अलावा एक्ट में यह कहीं पर भी नहीं लिखा है कि यदि कोई विवाहित महिला मंगलसूत्र या सिंदूर नहीं पहनती है तो यह पति के साथ क्रूरता का प्रतीक है और इस का यह मतलब हुआ कि महिला शादी को नहीं मानती है.

कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला ने अपनी तरफ से शादी निभाने का कोई प्रयास नहीं किया. लेकिन सवाल यह उठता है कि शादी का रिश्ता पतिपत्नी दोनों के बीच का होता है, तो फिर रिश्ता निभाने का सारा बोझ औरतों के सिर ही क्यों? विवाहित पुरुषों के लिए शादी का कोई सिंबल क्यों नहीं है, ताकि लग सके कि फलां पुरुष भी शादीशुदा है. केवल महिलाओं के लिए ही सारे नियम कानून क्यों बनाए गए हैं? जवाब कौन देगा, क्योंकि यह पुरुषप्रधान देश जो है.

मनुस्मृति में महिलाओं के लिए लिखा गया है कि एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए. विवाह पश्चात पति द्वारा उस का संरक्षण होना चाहिए और पति के बाद अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए. लेकिन किसी भी स्थिति में एक महिला आजाद नहीं हो सकती. यह बात मनुस्मृति के 5वें अध्याय के 148वें श्लोक में लिखी गई है. इस के अलावा मनुस्मृति मे दलितों और महिलाओं के बारे में काफीकुछ लिखा गया है जो अकसर विवादों को जन्म देता है.

वैदिक पद्धति और उपनिषदों में कहीं पर भी मंगलसूत्र का जिक्र नहीं है. लेकिन इसे बाद में रूढ़िवादी पुजारियों द्वारा पेश किया गया जब हम हिंदू बन गए. इस प्रणाली को पौराणिक पद्धति या पुराणों/पौराणिक शास्त्रों द्वारा अपनाई गई प्रणाली के रूप में जाना जाता है. हिंदू धर्म के बाद के हिस्से में वैदिक धर्म की उपेक्षा की गई और हिदुओं ने इसे पौराणिक में बदल दिया. हां, विवाह में सात फेरों और सिंदूर का वर्णन जरूर मिलता है.

एक विवाह में बंधे रहने के लिए चूड़ी, सिंदूर और मंगलसूत्र से ज्यादा आपसी समझ, प्यार और विश्वास की जरूरत होती है. मंगलसूत्र और चूड़ी जैसी चीजें प्रेम की गारंटी नहीं होतीं. मंगलसूत्र और चूड़ी, सिंदूर पहनना न पहनना एक महिला का खुद का निर्णय होना चाहिए. लेकिन यह बात मद्रास हाईकोर्ट समझ नहीं पाई और इसे पति के खिलाफ मानसिक क्रूरता की पराकाष्ठा बताते हुए अपना फैसला सुना दिया.

कितनी ही महिलाओं को सिंदूर से एलर्जी और चकत्ते जैसे हो जाते हैं, इसलिए वे इसे मांग में नहीं भरती हैं. पहले सिंदूर हर्बल सामग्री से बनाया जाता था लेकिन आजकल इसे लाल शीशा और पारा के साथ तैयार किया जाता है, जो महिलाओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है. ऐसे सिंदूर लगाने से बाल झड़ने की समस्या, खुजली और इस में मौजूद मरकरी सल्फाइड तत्त्व कैंसर का कारण बन सकता है.

इस के अलावा, आज की पढ़ीलिखी एजुकेटेड महिलाएं बड़ीबड़ी कंपनियों में जौब करती हैं, जहां औफिसवियर के साथ मंगलसूत्र और सिंदूर मैच नहीं करता, इसलिए वे इसे नहीं पहनती हैं, तो इस का मतलब यह कैसे हो गया कि वे अपने पति को प्रताड़ित कर रही हैं? सच तो यह है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को सिंदूर, चूड़ी, मंगलसूत्र जैसी चीजों में बांध रखा गया है लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि अदालतों का रुख महिलाओं के खिलाफ क्यों है?

अभी हाल ही में एप्पल कंपनी, फौक्सकौन ने भारत की विवाहित महिलाओं को आईफोन में नौकरी देने से मना कर दिया यह कहते हुए कि शादीशुदा महिलाओं के पास ज्यादा पारिवारिक जिम्मेदारियां होती हैं और शादी के बाद उन के बच्चे होते हैं. विवाहित महिलाओं का ज्वैलरी पहनना भी प्रोडक्शन को प्रभावित कर सकता है. मतलब, महिलाओं की तो कोई मरजी है ही नहीं. वे क्या पहनें, क्या न पहनें, परिवार-सासससुर का ध्यान रखें न रखें, यह तय वे नहीं कोई और करेगा और वे मूकबधिरों की तरह देखती रहेंगी.

भारतीय सनातन परंपरा में जन्म से ले कर मृत्यु तक के बीच 16 संस्कार के विधान हैं. इन 16 संस्कारों में विवाह संस्कार सब से खास माना जाता है. यह दो परिवारों के लिए उन के निजी उत्सव, उत्साह और समय के साथसाथ संपन्नता को प्रदर्शित करने का भी एक जरिया रहा है. बल्कि, राजामहाराजाओं के युग में तो विवाह संस्कार कूटनीति का भी हिस्सा रहा है. इस के जरिए बिना किसी युद्ध और शक्ति प्रदर्शन के समाज को सांकेतिक भाषा में ही अपनी ताकत का एहसास करा दिया जाता था.

भारत का कानून मैरिटल रेप को अपराध नहीं मानता

मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा ही भारतीय समाज को अनुचित लगती है. समाज इस बात को अपने गले ही नहीं उतार पाया कि आखिर पति की मरजी को कोई पत्नी अस्वीकार भी कर सकती है. जहां पत्नी की इच्छा का कोई मतलब ही न हो, वहां इसे अपराध कैसे माना जा सकता है? शादी का मतलब ही है एक पति का अपनी पत्नी पर पूर्ण अधिकार. ऐसी सोच के दायरे में भारत में अब भी मैरिटल रेप अपराध नहीं माना जाता है. कानून ने पतियों को इस से मुक्त रखा है, जबकि दुनिया के 150 देशों में इसे अपराध मानते हुए कानून बन चुके हैं. जब भी ऐसा मामला भारतीय न्यायालय के सामने आया, संवेदनशीलता बरती गई. लेकिन महिलाओं के दर्द को किसी ने नहीं समझा, न देश ने, न समाज और परिवार ने और न ही देश के कानून ने.

एक अच्छा लोकतंत्र वही होता है जो अपने नागरिकों की समस्याओं को समझे. उसे प्रताड़ित होने और रोनेकलपने से पहले ही उस के अधिकार दे दे, जो एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी होता है.

बलात्कारी से करो शादी

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पोक्सो एक्ट के तहत जेल में बंद एक आरोपी को अंतरिम जमानत दे दी ताकि वह शिकायतकर्ता, जिस का उस ने रेप किया था, से शादी कर सके. कोर्ट ने राज्य सरकार की इस दलील के बावजूद आरोपी को जमानत की अनुमति दे दी कि लड़की की अभी शादी की उम्र नहीं हुई है, क्योंकि वह अभी केवल 17 साल की है.

बलात्कार कानून का एक नियम है जिस के तहत बलात्कार, यौन उत्पीड़न, वैधानिक बलात्कार, अपहरण या इसी तरह का कोई अन्य कृत्य करने वाले व्यक्ति को दोषमुक्त कर दिया जाता है यदि वह पीड़ित महिला से विवाह कर लेता है, या कुछ अधिकार क्षेत्रों में कम से कम उस से विवाह करने की पेशकश जरूर करता है. ‘बलात्कारी से विवाह करो’ कानून अभियुक्त के लिए अभियोजन या दंड से बचाने का एक कानूनी तरीका है.

‘सहमति से बनाए गए संबंधों के बाद अगर कोई शादी से इनकार कर दे तो इसे रेप नहीं माना जाएगा,’ यह टिप्पणी केरल हाईकोर्ट की है. रेप के आरोप में गिरफ्तार एक वकील की जमानत पर सुनवाई के दौरान जस्टिस बेचू कुरियन थौमस की बैंच ने यह बात कही थी. साथ ही, आरोपी को जमानत भी दे दी थी.

केरल हाईकोर्ट के मामले में महिलावादी लेखिका कविता कृष्णन कहती हैं कि कोर्ट का यह फैसला सही है लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि लड़कियों के साथ गलत नहीं होता. कई बार लड़के बिना बताए दूसरी शादी कर लेते हैं, रिश्ता तोड़ देते हैं या लड़कियों को गलत तरीके से ट्रीट करते हैं. लेकिन रिश्ते में चीटिंग कानूनी मसला नहीं बल्कि सामाजिक और पितृसत्तात्मक नजरिया का मामला है.

विजातीय विवाह पर सवाल

2020 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्याय’ जारी किया गया था. देश में कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे ही भारीभरकम प्रावधानों को लागू करने की प्रक्रिया में हैं. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी विविध बल सीआरवाई, प्रभावशाली, धोखाधड़ी से या विवाह के उद्देश्य से किए जाने वाले किसी भी धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है, साथ ही, इस तरह के विवाह को अवैध घोषित किए जाने का प्रावधान भी करता है और धर्मांतरण के तहत एक गैरजमानती अपराध माना जाता है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धर्मांतरण की प्रवृत्ति को ले कर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि धार्मिक सभाओं में धर्मांतरण की प्रवृत्ति जारी रही तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी. इसलिए धर्मांतरण करने वाली धार्मिक सभाओं पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए. यह आदेश न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने हिंदुओं को ईसाई बनाने के आरोपी मौदहा, हमीरपुर के कैलाश की जमानत अर्जी को खारिज करते हुए दिया.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक एक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के किसी भी धर्म को स्वीकार करने का अधिकार प्राप्त है. जबकि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया कानून किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के चुनावों में हस्तक्षेप कर के उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है.

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी यह धर्मांतरण निषेध नीति महिलाओं के किसी भी रिश्तेदार को उस के विवाह की वैधता को चुनौती देने की अनुमति देता है.

लेकिन ऐसी स्थिति में प्रभाव उलटा पड़ेगा जिस के तहत धर्मांतरण और विवाह के लिए महिला की सहमति होने की गवाही को अनदेखा किया जाएगा.

सदियों से पितृसत्तात्मक सोच यह रही है कि महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होने देना है. उन्हें नियंत्रण में रखना है. महिलाओं के जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण बातों पर उन की सहमति जरूरी नहीं मानी जाती है और उन्हें अपने जीवन के निर्णय लेने के अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है.

ऐतिहासिक रूप से विवाह को महिलाओं की कामुकता को नियंत्रण करने, जातिगत जातियों को बढ़ावा देने और महिलाओं को उन की स्वात्यत्ता का प्रयोग करने से रोकने के लिए एक माध्यम के रूप में देखा जाता रहा है. इस प्रकार के सांप्रदायिक दुष्प्रचार का महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में कोई योगदान नहीं होता है, बल्कि यह उन के पैरों में बेड़ियां डालने का काम करता है.

देश में क्यों आसान नहीं है एक महिला के लिए तलाक लेना

समाज की सोच आज भी उसी ढर्रे पर है जहां महिलाओं को यह समझाइश दी जाती है कि भले ही पति से नहीं बन रही है, पर साथ रहो, वरना समाज तुम पर ही थूकेगा. लेकिन बात तो यह है कि महिलाओं को दी गई हर इंच आजादी के लिए खतरा है. लगभग हर समाज के नियम महिलाओं के हितों के विरुद्ध है. अंतर बस इतना है कि कोई नियम ज्यादा खिलाफ है और कोई कम.

हमारे समाज में शादी को उम्रभर के बंधन की तरह देखा जाता है. शादी में हिंसा और उत्पीड़न की वजह से भले ही दरार पड़ने लगे पर महिलाओं को परंपरा के नाम पर बरदाश्त करने की सलाह दी जाती है. मुश्किल शादियों में फंसी महिलाओं से अकसर यह कहा जाता है कि अलग हुए तो समाज क्या कहेगा? परिवार व समाज के दबाव के कारण ही महिलाएं एक असहनीय रिश्ते की गिरफ्त में कैद हो कर घुटघुट कर जीने को मजबूर हो जाती हैं. अगर कोई महिला शादी के बंधन को तोड़ कर तलाक लेने का फैसला लेती है तो समाज उसे ही गलत ठहराने का प्रयास करता है.

मुआवजे बिना गुजारा

तलाक लेने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं होता, क्योंकि उन्हें बहुत कम मेंटिनैंस मिलता है या मिलता ही नहीं है. 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई हुई, जिस में गुजारा भत्ता देने से बचने के लिए एक शख्स गायब हो गया. उसे खोजने के लिए बनी पुलिस टीम भी उस का कुछ पता नहीं लगा पाई. तलाक की चाह में पति एलिमनी पर हामी तो भर देते हैं, लेकिन डायवोर्स मिलते ही कहीं गायब हो जाते हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष भदौरिया कहते हैं कि तलाक के बाद पति गुजारा भत्ता से बचने के लिए तरहतरह के जुगाड़ लगाते हैं.

राजकोट की रहने वाली 52 साल की मीना बेन का कहना है कि उस के 2 युवा बेटे हैं. पति सरकारी जौब में हैं. सबकुछ बढ़िया चल रहा था, लेकिन असल में पति का किसी और औरत से चक्कर चल रहा था. जब महिला ने इस बात पर पति से सवाल किया तो वह उखड़ गया और बच्चों को छोड़ कर घर से चला गया. जातेजाते उस ने धोखे से तलाकपेपर पर साइन भी ले लिया. महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया.

गुजरात हाईकोर्ट ने उस के हक में फैसला भी सुनाया. लेकिन उसे अब तक न्याय नहीं मिला. हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद 14 वर्षों से वह महिला गुजारा भत्ता पाने के लिए लड़ रही है. मीना बेन एकलौती महिला नहीं है जो गुजारा भत्ता के लिए एड़ियां रगड़ रही है. ऐसे ढेरों मामले हैं.
भारत में विवाह समाप्त करना अधिकांश व्यक्तियों के लिए दर्दनाक होता है, लेकिन महिलाओं के लिए यह स्थिति और भी बदतर हो जाती है, जिन्हें समझौते की शर्तों को समझना पड़ता है.

मिताली अपने 11 साल की शादी से ऊब चुकी है. वह कहती है कि पति की ज्यादतियां अब उस की बरदाश्त के बाहर हैं. न तो वह अपने पति से लड़ना चाहती है और न ही उसे उस से कोई गुजारा भत्ता चाहिए. वह, बस, इस अशांत विवाह से बाहर निकलना चाहती है.

हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कुछ व्यक्तिगत कानूनों के तहत पति भी भरणपोषण के लिए क्लेम कर सकता है, लेकिन यह कानून केवल निर्दिष्ट धर्मों से संबंधित व्यक्तियों को भरणपोषण के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है.

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 में भी भरणपोषण का प्रावधान है. यह एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जिस के तहत सभी धर्मों की महिलाएं भरणपोषण के लिए आवेदन कर सकती हैं.

एक वरिष्ठ वकील संध्या राजू का कहना है कि ‘धारा 125 सीआरपीसी का मुख्य उद्देश्य तलाक के बाद महिला को बेसहारा होने से बचाना है. इसलिए जब कोई महिला भरणपोषण के लिए अदालत जाती है तो बहुत उम्मीद के साथ जाती है. और अदालत ज्यादातर मामलों में सहायक भी रही है. लेकिन भरणपोषण आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हमेशा उस पुरुष पर निर्भर करता है जिसे भुगतान करना होता है.

साल 2020 में टाइम्स ग्रुप के ‘मुंबई मिरर’ के लिए चित्रा सिन्हा की किताब ‘डिबेटिंग पैट्रिआर्की, द हिंदू कोड बिल कोंटरोवरसी इन इंडिया (1941-1959) पर एक आर्टिकल में लिखा था, जिस में उन्होंने तलाक के अधिकार के लिए महिलाओं का संघर्ष बताया था. ऐसा संघर्ष जो जारी है. वजह है कि भले ही कानून ने महिलाओं को अधिकार दिए हैं लेकिन अदालत की लंबी प्रक्रिया और समाज का दबाव तलाक लेना मुश्किल बना देता है. कठिनाई महिला-पुरुष दोनों के लिए है पर महिलाओं के लिए थोड़ा ज्यादा ही.

यह किताब हिंदू कोड बिल पर है जिस में हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार देने की मांग की गई थी. चित्रा सिन्हा की इस किताब पर विरोध के स्वर भी उठे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से बुलाई गई बैठक में एक वक्ता कथित तौर पर बोले थे कि यह बिल हिंदू समाज पर एटम बम है. वहीं एक अखबार के संपादक इस की तुलना विभाजन से करते हैं.

उसी बैठक में बैठे एक नेता कहते हैं कि तलाक के अधिकारों से गरीब का जीवन मुश्किल हो जाएगा. उन्हें अदालत में जाना पड़ेगा और वकील करना पड़ेगा.

सच तो यही है कि आज भी हमारे भारतीय समाज में महिलाओं के लिए तलाक लेना आसान नहीं है. तलाक के बाद भी एक महिला को ही समाज को जवाब देना पड़ता है, पुरुष को नहीं. यह एक गहरी सोच है कि स्त्री चाहे पद और पैसे में कितनी ही बड़ी क्यों न हो, लेकिन वह रहेगी पुरुष से नीचे ही.

हमारे समाज में जहां एक लड़के के जन्म पर खुशी मनाई जाती है वहीं एक लड़की के जन्म पर मातम छा जाता है. लड़की के जन्म के बाद उस के बचपन से ही मातापिता पैसे जोड़ने लगते हैं ताकि उसे दूसरे घर भेजा जा सके. उसे शिक्षित करने, कैरियर बनाने या खुद से जीवन जीने से हतोत्साहित करना, उस से कहना कि वह तो पराया धन है और एक दिन यह घर छोड़ कर चली जाएगी आदि सब कह कर मातापिता एक लड़की को बचपन से ही यह एहसास दिला देते हैं कि वह इस घर के लिए पराई अमानत है और बड़ी होने के बाद उसे दूसरे घर जाना है.

लड़की को एक संपत्ति की तरह ट्रीट किया जाता है. जताया जाता है कि वह किसी एक पुरुष की संपत्ति है जिसे शादी के बाद उसे सौंप दिया जाएगा और फिर वह उसे चाहे जैसे इस्तेमाल करे. शादी के बाद एक महिला का कर्तव्य पति की सेवा करना और उस का वंश बढ़ाना मात्र ही रह जाता है. आज भले ही समाज कई चीजों के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है लेकिन महिलाओं को पुरुष से नीचे रखने की सोच नहीं बदली है.

एमपी हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं है. साथ ही, हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि चूंकि वैवाहिक बलात्कार आईपीसी के तहत अपराध नहीं है, इसलिए पत्नी की सहमति महत्त्वहीन हो जाती है.

जस्टिस गुरपाल सिंह अहलूवालिया की बैंच ने कहा कि यदि एक पत्नी वैध विवाह के दौरान अपने पति के साथ रह रही है तो पति द्वारा अपनी पत्नी (15 साल से ऊपर) के साथ किसी भी प्रकार का यौन संबंध बलात्कार नहीं होगा. बता दें कि अक्तूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडैंट थौट बनाम यूनियन औफ इंडियन (2017) के फैसले में नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में लाने के लिए धारा 375 के अपवाद 2 में उम्र को 18 साल के बजाय 15 साल कर दिया था.

बालविवाह अब भी जारी

बालविवाह को ले कर सरकार ने भले ही सख्त कानून बनाए हों और सजा का प्रावधान भी रखा हो लेकिन बालविवाह आज भी बेरोकटोक जारी है.

जिस उम्र में लड़कियां पढ़नेलिखने और जिंदगी में कुछ कर गुजरने के सपने देखती हैं, उस नाजुक उम्र में लड़कियों की शादी उस से बड़े उम्र के पुरुष से करा दी जाती है और फिर उसे बच्चे पैदा करने को मजबूर किया जाता है. लेकिन लोग छोटी उम्र में मां बनाने के जोखिम को समझ नहीं पाते हैं.

एक निजी जैनल ने उन इलाकों का रुख किया जहां औरतों की शादी होते ही उन्हें बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता. उम्र 16 की हो या 18 की, शादी के 9 महीने बाद से उसे मां बनाने के लिए मजबूर किया जाने लगता है. और अगर किसी कारणवश लड़की मां नहीं बन पाती है तो उस के साथ मारपिटाई शुरू हो जाती है. धमकी दी जाती है कि अगर वह मां नहीं बनी तो उस की शादी टूट जाएगी. और इसी डर से लड़कियां कम उम्र में मां बनने को मजबूर हो जाती हैं यह सोच कर कि कहीं उस की शादी न टूट जाए, पति उसे घर से न निकाल दे.

सीमा की शादी 15 साल की उम्र में कर दी गई और शादी के अगले साल यानी 16 साल की उम्र में उस के पेट में बच्चा आ गया. लेकिन वह बच्चा उस के पेट में ठहर नहीं पाया. ऐसे कर के 5 बार उस का मिसकैरेज हो चुका है. वह कहती है कि अब उस का शरीर पहले जैसा नहीं रहा, काफी कमजोर हो चुका है. लेकिन फिर भी उसे मां बनना है नहीं तो उस का पति उसे छोड़ देगा. यह कहते हुए उस के आंखों से आंसू ढलक पड़ते हैं.

20 साल की सावित्री की शादी को 4 साल हो चुके हैं लेकिन अब तक वह मां नहीं बन पाई है. वह अपना इलाज किसी डाक्टर से न करवा कर एक तांत्रिक से झाड़फूंक करवा रही है ताकि वह मां बन सके और उस का पहला बच्चा बेटा ही पैदा हो क्योंकि उस की सास और पति ऐसा चाहते हैं.

यूपी के एक गांव की रहने वाली मालती की शादी को 9 साल हो चुके हैं. वह कहती है कि शादी के एक साल बाद से ही ताने शुरू हो गए कि अब तक वह पेट से क्यों नहीं हुई. जैसेजैसे साल आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे पति का अत्याचार भी बढ़ता चला गया. शराब के नशे में चूर पति उसे इस बात की धमकी देता था कि अगर वहवो उसे बच्चा नहीं दे सकती तो उसे धक्के मार कर इस घर से बाहर निकाल देगा और दूसरी शादी कर लेगा. तबीयत खराब में भी पति उसे इलाज के लिए पैसे नहीं देता था. एक दिन तंग आ कर वह खुद ही ससुराल छोड़ आई और मायके में रहने लगी. लेकिन यहां भी भाईभाभी उसे देखना नहीं चाहते, कहते हैं कि वह वापस ससुराल चली जाए. लेकिन मालती अब किसी भी हालत में अपने पति के पास नहीं जाना चाहती है.

देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाली शारीरिक और यौन हिंसा को ले कर नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (एनएफएचएस-5) में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं. सर्वे के मुताबिक, 18 से 49 साल की लगभग 30 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें 15 साल की उम्र के बाद शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है. 6 फीसदी महिलाओं को जीवन में कभी न कभी यौन हिंसा झेलनी पड़ी. लेकिन महज 14 फीसदी महिलाएं ही ऐसी रहीं जिन्होंने अपने साथ हुई शारीरिक या यौन हिंसा के बारे में बताया. सर्वे यह भी बताता है कि अकसर शराब पीने वाले 70 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जो पत्नियों के साथ शारीरिक या यौन हिंसा करते हैं. महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा के 80 फीसदी से अधिक मामलों में पति ही जिम्मेदार देखा गया है.

‘तुम इतना सहती क्यों हो? छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’ किसी महिला को, जिस का पति उसे रोज पीटता है, उसे यह सलाह देना बहुत आसान होता है. मगर यह समझना उतना ही मुश्किल है कि एक महिला अपने जीवन में किस तरह की परेशानियों से जूझ रही है. उस के मन में कौन सा डर घर कर चुका है और उस की मानसिक स्थिति क्या है.

रिलेशनशिप एक्सपर्ट डाक्टर गीतांजली शर्मा का कहना है कि लंबे समय से घरेलू हिंसा झेल रही महिला मन से डरपोक हो चुकी होती हैं. उसे हर वक़्त इस बात का डर लगा रहता है कि घर आने पर पति उसे मारेगापीटेगा तो नहीं?

मालती अपने पति से अलग हो चुकी है और वह अब अपने मायके में रहती है, पर यहां भी उसे भाईभाभी के तानोंउलाहनों से गुजरना पड़ता है जो उसे मानसिक कष्ट देता है. मालती जानती है कि बापदादा की अर्जी संपत्ति में उस का भी बराबर का अधिकार है, पर वह बोलने से डरती है कि कहीं यहां से भी मां, भाईभाभी ने उसे निकाल दिया, तो फिर वह कहां जाएगी.

आज बेटियों को बेटों के बराबर ही पैतृक संपत्ति के अधिकार मिले हैं. लेकिन फिर भी महिलाएं अपने अधिकार से वंचित हैं, तो इसलिए कहीं उस के ऐसा करने से मायके से उस का रिश्ता न टूट जाए. 45 साल की गोदावरी कहती है कि उस ने केवल अपने बापदादा की संपत्ति में हिस्से की बात की और भाइयों ने उस का फोन नंबर ब्लौक कर दिया. अगर लड़झगड़ कर संपत्ति ले लेती तो शायद वे लोग उस की जान ही ले लेते.

कानून के दिए अधिकार को ले कर वह कहती है कि वो सब सिर्फ कागजों में ही सिमट कर रह गए हैं. अगर सच में कानून बेटियों को उस के अधिकार दिला पाते, तो मानते.

इस पुरुषसत्तात्मक समाज में अजीबोगरीब तर्क दे कर महिलाओं को उन के अधिकार से वंचित रखने की कुचेष्टा की जाती रही है. बात चाहे पैतृक संपत्ति में अपने अधिकार की हो, सवैतनिक मातृत्व अवकाश की हो, कार्यस्थल पर नवजात शिशु की देखभाल की हो, या समान वेतन की हो, महिलाओं को हर जगह वंचित रखा गया है.

देखा जाए तो आजादी के इतने सालों बाद भी देश की आधी आबादी अभी भी गुलाम है. वह अपने अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष कर रही है. वैश्विक महामारी कोरोना ने इन के संघर्षों को और बढ़ा दिया था. यह कहना गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति हमेशा हाशिए पर रही है. महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे इस सत्य को झुठलाते नजर आते हैं कि महिलाओं को पूरी तरह से पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं. सचाई यह है कि अपने छोटेबड़े अधिकार के लिए महिलाओं को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और यह भी जरूरी नहीं है कि वहां उन्हें न्याय मिल ही जाए.

वहीं, यह भी सच है कि पहले के मुकाबले आज कहीं ज्यादा बच्चियां शिक्षा पा रही हैं, बालविवाह और खतना जैसी कुप्रथाओं में गिरावट आई है. महिला स्वास्थ्य की दिशा में प्रगति हुई है जिस की वजह से महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ है. इसी तरह बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की होने वाली मौतों की दरों में भी गिरावट आई है. अब पहले से ज्यादा महिलाएं संसद पहुंच रही हैं. उन के खिलाफ होने वाली हिंसा पर लोग बोलने लगे हैं. महिला श्रमिकों के अधिकारों में भी बढ़ोतरी हुई है. 155 देशों में अब घरेलू हिंसा कानून हैं. 140 देशों के पास कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न से जुड़े कानून हैं.

लेकिन इस सब के बावजूद महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानता की जो खाई है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. उन के बीच इस गहरी खाई को भरने में सदियों लग जाएंगे. भले ही हम ने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों, लेकिन आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिल पाया है. महिलाएं आज भी रोजगार, आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं.

वर्ल्ड बैंक ने कुछ समय पहले दुनिया के प्रमुख 187 देशों में कुछ 35 पैमानों के आधार पर एक सूची तैयार की. इस में संपत्ति के अधिकार, नौकरी की सुरक्षा व पैंशन पौलिसी, विरासत में मिलने वाली चीजें, शादी संबंधित नियम, यात्रा के दौरान सुरक्षा, निजी सुरक्षा, कमाई आदि आधार पर जब आंकड़े जुटाए तो पता चला कि दुनिया में केवल कुछ देश ही ऐसे हैं जहां वाकई महिलाओं को उन के अधिकार प्राप्त हैं.

हालांकि, एकदो दशकों पहले महिलाओं को बराबरी का दर्जा किसी भी देश में नहीं था, यानी यह संख्या शून्य थी.

लेकिन बीते सालों में इस में प्रगति हुई. बराबरी के 35 मानदंडों पर खरा उतरने वाले कुछ देश ही हैं. लेकिन भारत नहीं है.

वर्ल्ड बैंक की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 240 करोड़ महिलाएं पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं. पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने कानूनी अधिकारों का बमुश्किल 77 फीसदी ही लाभ ले पाती हैं.

यह बात हमारे देश के लिए सचमुच ही शोचनीय है कि जिसे हम जननी कहते हैं, पूजनीय कहते हैं और जिसे देवी का दर्जा मिला हुआ है, उसी देश की महिलाओं को अपने हक के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है और वहां उन्हें ज्यादातर निराशा ही हाथ लग रही है.

लेकिन देश और कानून को यह बात समझनी होगी कि समाज को महिलाओं के अनुकूल बनाए बिना हम सभ्य नहीं कहलाए जा सकते. सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं, लेकिन उस का असर अभी दिख नहीं रहा है.

चीन के राजनीतिक विचारक माओत्से तुंग ने एक बार कहा था कि ‘आधा आकाश महिलाओं का है’ लेकिन महिलाओं की स्थिति को देख कर लगता है कि न तो उन की धरती आधी और न ही आधा आकाश.

महिला अधिकारों की रक्षा की जंग केवल महिलाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज के विकास के लिए भी जरूरी है, यह बात देश के कानून, सरकार और समाज को समझनी होगी, तभी असल में देश का विकास होगा.

महंगा इंसाफ और लंबा इंतजार

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके आर सी लाहोटी ने अपने विदाई भाषण में कहा था, “मैं ने देश की सर्वोच्च अदालत की प्रमुख कुरसी पर बैठ कर यह नजारा देखा है कि यहां एक गरीब, आम इंसान को इंसाफ मिलना तो दूर की बात है, अगर वह अदालत की चौखट तक भी पहुंच जाए, यही बहुत बड़ी बात है. क्योंकि न्याय मिलना भी अब इतना महंगा हो चुका है जिस के बारे में कभी सोचा तक नहीं था. इसलिए आज मेरी आंखें नम हैं क्योंकि मैं चाहते हुए भी देश की न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए बहुतकुछ नहीं कर पाया.”

देश के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने वर्षों पहले लिखा था कि ‘न्याय वह है जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे. यह नहीं कि खुद कागजों के धोखे में आ जाए और खुद ही पाखंडियों के जाल में फंस जाए.’

दुनिया के तमाम बड़े कानूनविदों ने कहा है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए. लेकिन देरी से मिलने वाला न्याय एक नए जुर्म की जमीन तैयार करता है.

मेरे मांबाप एकदूसरे से तलाक लेना चाहते हैं. मैं उन्हें कैसे रोकूं?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं गाजियाबाद में रहता हूं और मेरी उम्र 30 साल है. जब देखो मेरे मांबाप एकदूसरे से लड़ते रहते हैं और ऐसा लगता है कि वे अब एकदूसरे के साथ रहना ही नहीं चाहते. कभीकभी तो उस दोनों में छोटी सी बात को ले कर भी इतना बड़ा झगड़ा हो जाता है कि मैं भी देख कर हैरान हो जाता हूं. मेरे मांबाप पहले भी कई बार अपने मुंह से तलाक की बात निकाल चुके हैं, लेकिन फिर दोनों में सुलह हो जाती है. पिछले कुछ दिनों से उन दोनों में काफी लड़ाई चल रही है और ऐसा लग रहा है कि उन दोनों ने ठान लिया है कि अब वे एकदूसरे के साथ नहीं रह सकते और तलाक ले कर ही मानेंगे. इसी वजह से मेरे मांबाप एकदूसरे के साथ भी नहीं सोते. मैं उन दोनों की लड़ाई से परेशान आ चुका हूं और चाहता हूं कि सब ठीक हो जाए और उन्हें तलाक न लेना पड़े. आप ही मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूं?

जवाब –

लड़ाईझगड़े सब के घरों में होते हैं और पतिपत्नी की लड़ाइयां तो अकसर ही चलती रहती हैं, लेकिन आप की बातों से साफ पता चल रहा है कि आप के घर का मामला गंभीर है. एक औलाद ही होती है जिस की हर छोटीबड़ी बात मांबाप झट से मान जाते हैं और आप अब छोटे नहीं हैं, जो सहीगलत की पहचान न कर पाएं.

आप के मांबाप में से जो भी गलत है उन्हें आप अकेले में बैठ कर प्यार से समझाएं और उन्हें बताएं कि तलाक लेना किसी भी समस्या का हल नहीं है. जब उन्होंने इतने साल एकदूसरे के साथ बिता दिए हैं, तो अब वे तलाक क्यों लेना चाहते हैं? मैं तो कहूंगा कि आप को दोनों को अलगअलग बिठा कर समझाना चाहिए कि अगर वे इस उम्र में आ कर अलग होंगे, तो समाज में कैसीकैसी बातें बनेंगी. तो अच्छा यही होगा कि वे दोनों एकदूसरे की गलत बातों को थोड़ा इग्नोर करने की आदत डाल लें.

आप उन दोनों को किसी अच्छी जगह घूमने भेज दीजिए, क्योंकि कभीकभी इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से परेशान हो चुका होता है, तो जब आ उन्हें एक नई जगह छुट्टी मनाने भेजेंगे, तो उन दोनों को अच्छा लगेगा और शायद उन दोनों के बीच सब सही भी हो जाए. आप बीचबीच में उन्हें फिल्म देखने या डिनर पर भी भेज सकते हैं, जिस से वे दोनों एकदूसरे के साथ अच्छा समय बिता पाएं. ऐसा करने से वे फिर से एकदूसरे के नजदीक आने लगेंगे.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

फ्रीडा और रिवेरा का लव कंप्लीकेटेड एंड कंट्रास्ट

हमारे देश में प्यार हो जाना आम तो है पर प्यार का अंजाम तक पहुंचना आम नहीं है. यहां अपने पार्टनरचुनते समय धर्म, जाति, संस्कृति और रीतिरिवाज आड़े आने लगते हैं. हालांकिकहते तो हैं कि प्यार सच्चा हो तो सारी बेड़ियां टूट जाती हैं मगरउस के लिए फ्रीडा काहलो जैसी खुलीसोच और साहस का होना भी जरुरी होता है.

1907 में जन्मी घनी जुड़ी आईब्रो और बालों में फूलों के गुच्छे लगाने वाली फ्रीडा मैक्सिको की जानीमानी पेंटर रहीं. चटख रंगों वाली अपनी अनूठी पेंटिंग्स के कारण उन्होंने दुनिया भर का ध्यान अपनी और खींचा. उन की बनाई 143 पेंटिंग्स में से 55 सेल्फ पोर्ट्रेट्स थीं जिन्हें उन्होंने अपने बेडरूम में खुद को मिरर में देखते हुए बनाया था.

बचपन में पोलियो की शिकार हुई इस खूबसूरत पेंटर के लिए बात सिर्फ इतनी सी नहीं थी. उन की पेंटिंग्स ने मैक्सिकन सोसायटी, कल्चर, जेंडर, क्लास के सवालों को भी उठाने का काम किया. उन के जीवन में कई हादसे हुए, कई ऐसे जो किसी को भी भीतर से तोड़ने के लिए काफी थे, मगर वह साहस जुटाती और फिर से चल पड़ती.

दिलचस्प बात यह कि उन की स्वच्छंदता पेंटिंग के अलावा उन के निजी जीवन में भी एक सी थी.फ्रीडाने प्यार को ले कर बने सोशल टैबू को तोड़ा. रिश्तों को आजाद रखा. 1927 के इर्दगिर्द जब वह 20-21 साल की थी तब एक भयंकर हादसे से निकल करमैक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ीं, तबफ्रीडा काहलोकी मुलाकात डिएगो रिवेरा से हुई, जो शादीशुदा थे और उन की एक मिस्ट्रैस भी थी. यहां तक कि उन की फ्रीडा की बहन के साथ तक संबंध थे.दोनों में तकरीबन 20 सालों का अंतर था. डिएगो खुद भी मैक्सिको के जानेमानेपेंटर थे. यहां तक कि फ्रीडा के लिए वे गुरु के रूप में भी थे.

लोंग स्कर्ट को चलन में लाने वाली फ्रीडा और डिएगो का यह रिश्ता समाज के लिए रिश्ता कंप्लीकेटेड जरुर था पर इन दोनों के लिए नहीं. दोनों ने 1929 में एकदूसरे से शादी की. दोनों अकसर अपने गरमठंडे रिश्ते को अपनी पेंटिंग्स और लैटर्स के जरिए जाहिर करते थे. यह एक तरह का सौफ्ट वार भी था और प्रेम भी. मगर फ्रीडा डिएगो से मिली उस बेवफाई से भी गुजरी जिस से वह मुक्ति पाना चाहती थी और इस के लिए उस ने लैटर का सहारा लिया, उस आखिरी लैटर का जिस में प्यार तो था पर जबरदस्ती का बंधन नहीं.

आज जब फ्रीडा और डिएगो के रिलेशन का जिक्र किया जा रहा है तो इस की एहमियत इस तौर पर और बढ़ जाती है कि हमारी युवा जेनरेशन, जिन का अधिकतर समय सोशल मीडिया पर बिताता है, फ्रीडा काहलो की तरह खुद को एक्सप्रेस कर सकते हैं? क्या प्यार की वेदना और उस की तड़प को वे जाहिर कर सकते हैं जिस में हाई और बाए के अलावा भावनाएं हों? पेंटिंग्स तो दूर की बात क्या वह संबंध तोड़े जाने के लिए कोई ऐसा पत्र लिखने लायक भी हैं?

शायद नहीं. और अगर नहीं तो फ्रीडा का डिएगो को लिखा एक लैटर हमारी पीढ़ी को जरुर पढ़ लेना चाहिए-

मेक्सिको, 1953
मेरे प्रिय डिएगो,

मैं यह पत्र अस्पताल के कमरे से लिख रही हूं, औपरेशन थिएटर में जाने से पहले. वे मुझे जल्दी करने को कह रहे हैं, लेकिन मैं पहले यह लिखना चाहती हूं, क्योंकि मैं कुछ अधूरा नहीं छोड़ना चाहती. खासकर अब जब मुझे पता चल गया है कि वे क्या करने वाले हैं. वे मेरा एक पैर काटना चाहते हैं. जब उन्होंने मुझे बताया कि यह आवश्यक होगा, तो इस खबर का मुझ पर वैसा असर नहीं हुआ जैसा सभी को उम्मीद थी. नहीं, मैं पहले ही से अधूरी महिला थी जब मैंने तुम्हें खो दिया, शायद हजारवीं बार, और फिर भी मैं जीवित रही.

मुझे दर्द से डर नहीं लगता, और तुम यह जानते हो. यह मेरे अस्तित्व का हिस्सा है, हालांकि मैं यह स्वीकार करती हूं कि मैंने बहुत सहा है, खासकर जब तुमने मुझे धोखा दिया, हर बार, न सिर्फ मेरी बहन के साथ बल्कि और भी कई महिलाओं के साथ. वे कैसे तुम्हारे जाल में फंस गईं? तुम सोचते हो कि मुझे क्रिस्टिना से गुस्सा था, लेकिन आज मैं कबूल करती हूं कि वह इसलिए नहीं था. यह मेरे और तुम्हारे बारे में था. सबसे पहले मेरे बारे में, क्योंकि मैं कभी समझ नहीं पाई कि तुम क्या ढूंढते हो, जो मैं तुम्हें नहीं दे सकी. चलो खुद को धोखा न दें, डिएगो, मैंने तुम्हें वह सब कुछ दिया जो इंसानियत से संभव था और हम दोनों यह जानते हैं. लेकिन फिर भी, तुमने इतनी सारी महिलाओं को कैसे रिझाया जब तुम इतने बदसूरत हो?

मैं यह पत्र तुम्हें दोष देने के लिए नहीं लिख रही हूं, जितना कि हम पहले ही एकदूसरे को दोषी ठहरा चुके हैं. यह इसलिए है क्योंकि मेरा पैर काटा जा रहा है (कमबख्त चीज, आखिर में इसे जो चाहिए था वो मिल गया). मैंने तुम्हें बताया कि मैंने खुद को लंबे समय से अधूरा माना है, लेकिन अब क्यों हर किसी को यह भी जानना जरूरी है? अब मेरी टूटन सबको दिखेगी, तुम्हें भी. मैं तुम्हें बता रही हूं, इससे पहले कि तुम इसे कहीं और से सुनो.
मुझे माफ करना कि मैं तुम्हारे घर जाकर यह सब खुद नहीं कह सकी, लेकिन इन हालात में मुझे कमरे से बाहर निकलने की इजाजत नहीं है, यहां तक कि बाथरूम जाने के लिए भी नहीं. मेरा इरादा किसी को दया दिखाने का नहीं है, और न ही मैं चाहती हूं कि तुम दोषी महसूस करो. मैं यह बताने के लिए लिख रही हूं कि मैं तुम्हें छोड़ रही हूं, मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से काट रही हूं. खुश रहो और कभी मुझे मत ढूंढना. मैं नहीं चाहती कि तुम मेरी कोई खबर सुनो और न ही मैं तुम्हारी सुनना चाहती हूं. अगर मरने से पहले मेरी कोई आखिरी ख्वाहिश है, तो वह यह है कि मुझे तुम्हारा बदसूरत चेहरा मेरे बगीचे में भटकता हुआ न देखना पड़े.

यही सब है, अब मैं शांति से कटने के लिए जा सकती हूं.

तुम्हारी कोई पागल जो तुमसे बेहद प्यार करती है,

तुम्हारी फ्रीडा

मार्क ट्वेन : तीखे व्यंगकार का नर्म प्यार

“धर्म का अविष्कार तब हुआ जब पहला चोर पहले मूर्ख से मिला.” यह बात अमेरिका के उस प्रसिद्ध लेखक ने कही जो अपनी किताबों से ज्यादा अपनी सूक्तियों के लिए मशहूर हुए. नाम मार्क ट्वेन. जन्म तिथि 30 नवंबर 1835. पेशा लेखक, व्यंग्यकार, उद्यमी और प्रकाशक.

मार्क ट्वेन अपनी तीखी चुटकियों के लिए मशहूर थे. धर्म पर अपने बेधड़क विचारों के लिए भी. व्यंग्य के मामले में भारत में ऐसी सिमिलेरिटी थोड़ीबहुत 20वीं सदी में पैदा हुए लेखक हरिशंकर परसाई की भी रही लेकिन मार्क ट्वेन अपने जमाने में हरिशंकर से 21 ही थे. वो संगठित धर्मों के खिलाफ थे और अकसर उन के बारे में लिखते भी थे. उन्होंने कहा था कि, “ईसा अगर आज मौजूद होते तो एक चीज़ कभी नहीं बनना चाहते – ईसाई.”

उन की कही यह बात तो उन सभी धर्मों पर लागू होती है जो खुद को महान बताने पर तुले रहते हैं कि, “मुझे बाइबिल के वे हिस्से परेशान नहीं करते जिन्हें मैं समझ नहीं पाता, बल्कि वे करते हैं जो मुझे समझ आती है.”

मार्क अपने 7 भाईबहनों में छटे नंबर पर थे लेकिन उन में से बचे सिर्फ 3. जिस समय मार्क ने लिखना शुरू किया उस समय उन के शहर मिसौरी में स्लेवरी लीगल थी और उन की राइटिंग्स की थीम स्लेवरी पर होती थीं. उन का मानना था कि समय के साथ स्लेवरी ख़त्म होनी चाहिए. बताया भी जाता है कि ट्वेन सीक्रेटली येल लौ स्कूल में एक ब्लैक की पढ़ाई का खर्चा भी उठाया करते थे और ब्लैक एंटी स्लेवरी रेवोलुशनिष्ट फ्रेडरिक डगलस और औथर बुकर टी का समर्थन किया करते थे.

ट्वेन ने अपने काम की शुरुआत टीनएज में टाइपसेटर के रूप में की. इस के साथ वे आर्टिकल्स, ह्यूमरस स्कैच बनाने लगे थे. कुछ समय बाद वे उस दौरान नएनए बने ‘प्रिंटर्स ट्रैड यूनियन’ से जुड़ गए. ट्वेन ने कोई लम्बीचौड़ी एकेडमिक पढ़ाई नहीं की लेकिन वे लाइब्रेरी में नियमित खिद से पढ़ लिया करते थे. मार्क के नाम पर 8 नोटेबल नोवेल्स हैं, इस के साथ बच्चों के लिए फेमस ‘टोम शायर और हक्क फिन्न’ की ढेरों सीरीज लिखीं हुई हैं. शोर्ट स्टोरीज तो गिनती से ही बाहर हैं. यही कारण है कि उन्हें अमेरिका के ग्रेटेस्ट राइटर में शुमार किया जाता है.

लेकिन इस के साथ बड़ी बात यह कि वे अच्छे लेखक के साथसाथ अच्छे प्रेमी और पति भी रहे. इस की झलक उन के लिखे उन खतों से मिल जाती है जो उन्होंने अपनी पत्नी ओलिविया लेंगडों को लिखे, जो खुद भी नास्तिक और महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक्टिविस्ट थीं. यहां मार्क ट्वेन के लिखे एक पत्र को उदाहरण के लिए दिया जा रहा है ताकि टैक्नोलौजी से लैस आज के युवा जान पाएं कि सोशल मीडिया पर रील बनाने और देखने से न तो समझदारी विकसित होती है न ही व्यक्तिगत निखार आ पाता है.

मेरी प्यारी ओलिविया,

भले ही तुम मुझे साबित कर दो कि तुम में वे खामियां हैं, जो तुम समझती हो, फिर भी मैं उन से घबराऊंगा नहीं, क्योंकि उन खामियों के साथ भी, तुम अब भी उन सब से बेहतर, प्यारी और खूबसूरत हो, जिन्हें मैं ने जाना है.

जब ये कमियां मेरे सामने आएंगी, तो भी मैं तुम्हारी मदद करूंगा उन्हें दूर करने में, पर तुम इस बारे में परेशान मत हो, क्योंकि तुम्हारे सामने एक और कठिन काम है – मुझे मेरी कमियों से छुटकारा दिलाने में मदद करना.

मुझे तुम्हारे मूल्य को पहचानने दो. मुझे तुम्हें सभी से ऊपर सम्मान देने दो. मुझे तुम्हें उस प्रेम से प्रेम करने दो, जो न कभी संदेह करता है, न सवाल उठाता है क्योंकि तुम मेरा संसार हो, मेरी जिंदगी, मेरा गर्व, और धरती पर मेरे लिए सब से कीमती चीज हो.

आओ, यह उम्मीद और विश्वास करें कि हम जीवन के इस लंबे रास्ते पर एकदूसरे का हाथ थामे चलेंगे, एक दिल, एक भावना और एक प्रेम में बंधे हुए, एकदूसरे के बोझ को उठाते हुए, खुशियों को बांटते हुए, और एकदूसरे के दुखों को सहलाते हुए.

जो हम अपनी जवानी में खो देंगे, उसे हम अपने प्रेम से पूरा कर लेंगे, ताकि हिसाब बराबर रहे और किसी को कोई नुकसान न हो.

मैं तुम से प्यार करता हूं मेरी जान और मेरा ये प्यार दिन-ब-दिन बढ़ेगा, जैसे दांत एकएक कर गिरते हैं और मुझे उस महान रहस्य की ओर ले जाते हैं, जहां मीठा ‘बाय एंड बाय’ हमारा इंतजार कर रहा है.

क्योंकि मैं तुम से वैसे ही प्यार करता हूं. जैसे ओस फूलों से करती है, जैसे पक्षी धूप से करते हैं, जैसे लहरें हवा से करती हैं, जैसे मां अपने पहले बच्चे से करती है, जैसे यादें पुराने चेहरों से प्यार करती हैं, जैसे ज्वार की लहरें चांद से करती हैं.

मेरा चुंबन और आशीर्वाद लो और इस तथ्य को स्वीकार करने की कोशिश करो कि मैं तुम्हारा हमेशा के लिए हूं.

– मार्क ट्वेन

सोशल मीडिया डिटौक्स भी जरुरी

1. साफ लक्ष्य और उद्देश्य तय करें

• अपनेआप से पूछें कि आप सोशल मीडिया से दूर क्यों रहना चाहते हैं. समझें कि सोशल मीडिया कम करना आप के लिए क्यों महत्वपूर्ण है. चाहे वह काम, पढ़ाई, रिश्ते या मानसिक शांति के लिए हो, एक स्पष्ट उद्देश्य आप के लिए प्रेरणा का काम करेगा.
• सीमाएं तय करें: तय करें कि आप कितना समय या कौन से प्लेटफार्म इस्तेमाल कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, प्रतिदिन 30 मिनट तक सीमित करें या सप्ताह के दिनों में पूरी तरह से बचें.

2. ऐप टाइमर और डिजिटल वेल-बीइंग फीचर्स का उपयोग करें

• अपने फोन में ऐप टाइमर सक्षम करें. अधिकांश स्मार्टफोन में डिजिटल वेल-बीइंग फीचर्स होते हैं जो यह ट्रैक करते हैं कि आप ऐप्स पर कितना समय बिता रहे हैं और उसे सीमित कर सकते हैं.
• Forest या StayFocusd जैसी ऐप्स का उपयोग करें, जो एक निश्चित अवधि के लिए ऐप्स को ब्लौक कर देती हैं.

3. नोटिफिकेशन बंद करें

• सोशल मीडिया ऐप्स से आने वाले नोटिफिकेशन को बंद कर दें. लगातार आने वाली पिंग्स और अलर्ट आप को फोन बारबार चेक करने के लिए प्रेरित करते हैं. नोटिफिकेशन बंद करने से आप का ध्यान भटकने की संभावना कम हो जाती है.

4. ऐप्स को होम स्क्रीन से हटाएं या डिलीट करें

• सोशल मीडिया ऐप्स को फोल्डर में रखें या होम स्क्रीन से हटा दें ताकि वे आसानी से दिखें नहीं.
• सोशल मीडिया ऐप्स को डिलीट करें: अपने फोन से फेसबुक, इंस्टा या एक्स जैसे ऐप्स को हटाने पर विचार करें और केवल कंप्यूटर पर ब्राउज़र से एक्सेस करें (जिसे आप और भी सीमित कर सकते हैं).

5. सीमित उद्देश्यों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करें

• सोशल मीडिया के लिए विशेष समय तय करें, जैसे लंच ब्रेक या काम के बाद 15 मिनट. समय समाप्त होते ही लौग आउट कर दें.
• उत्पादक उद्देश्यों के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करें, जैसे नौकरियों के लिए नेटवर्किंग करना, नए कौशल सीखना या दूर रहने वाले परिवार से संपर्क में रहना.

6. समय को उत्पादक गतिविधियों से भरें

• सोशल मीडिया के समय को ऐसी रुचियों या गतिविधियों से बदलें जो आप को पसंद हों. यह पढ़ाई, व्यायाम, कोई नया कौशल सीखना, खाना बनाना या ध्यान हो सकता है. खुद को व्यस्त रखने से बेमतलब स्क्रौल करने की आदत कम हो जाएगी.
• औफलाइन रुचियां जैसे बागवानी, पेंटिंग, या संगीत वाद्ययंत्र बजाने से आप को मानसिक रूप से सक्रिय रहने में मदद मिलती है.

7. मनोरंजन के लिए विकल्प खोजें

• सोशल मीडिया पर मनोरंजन के बजाय, डाक्यूमेंट्री देखें, पौडकास्ट सुनें, या किताबें पढ़ें. Kindle या Audible जैसी ऐप्स औनलाइन मनोरंजन का अच्छा विकल्प हो सकती हैं.

8. सोशल मीडिया डिटौक्स ग्रुप्स से जुड़ें

• भारत में कई ग्रुप्स और कम्युनिटीज जैसे Telegram, Reddit, या WhatsApp पर उपलब्ध हैं, जहां लोग एकदूसरे को सोशल मीडिया का उपयोग कम करने के लिए प्रेरित करते हैं. एक सपोर्ट ग्रुप ज्वाइन करें, जहां आप ऐसे अन्य लोगों से प्रेरणा और सुझाव प्राप्त कर सकते हैं.

9. वास्तविक जीवन के संपर्कों में जुड़ें

• असली दुनिया में रिश्तों को बनाने और पोषित करने पर ध्यान दें. दोस्तों और परिवार से व्यक्तिगत रूप से मिलें, उन्हें मैसेज करने के बजाय कौल करें या सोशल मीडिया के बिना सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लें.
• औफलाइन क्लब्स ज्वाइन करें, जैसे योगा क्लास, बुक क्लब, या स्पोर्ट्स ग्रुप. यह आप को बिना औनलाइन प्लेटफार्म के सामाजिक रूप से जुड़ने में मदद करेगा.

10. डिजिटल डिटौक्स डे

• सप्ताहांत में सोशल मीडिया से डिटौक्स करें, जब आप एक या दो दिन सोशल मीडिया से पूरी तरह दूर रहें. धीरेधीरे इसे बढ़ाएं यदि आप सहज महसूस करते हैं.
• डिजिटल डिटौक्स जैसी चुनौतियों में भाग लें, जो खास दिनों या घंटों के लिए स्क्रीन से दूर रहने को प्रोत्साहित करती हैं.

11. सोने से पहले सोशल मीडिया का उपयोग सीमित करें

• सब से प्रभावी आदतों में से एक है रात में सोने से पहले सोशल मीडिया से बचना, खासकर सोने से एक घंटा पहले. इस से आप को आराम करने, अच्छी नींद लेने और देर रात की अनचाही स्क्रौलिंग से बचने में मदद मिलेगी.

12. अपने उपयोग को सचेत रूप से नियंत्रित करें

• जब भी आप सोशल मीडिया ऐप्स खोलें तो यह जानने की कोशिश करें कि आप क्यों कर रहे हैं. अकसर यह आदत होती है, आवश्यकता नहीं. सचेत रूप से ब्राउज़िंग का अभ्यास करें, जहां आप केवल किसी विशेष उद्देश्य से सोशल मीडिया पर जाएं और जैसे ही वह उद्देश्य पूरा हो जाए, लोग आउट कर लें.

13. डिस्ट्रैक्टिंग कंटेंट को ब्लौक करें

• फेसबुक, इंस्टा, यूट्यूब या एक्स पर, ऐसे अकाउंट्स या टौपिक्स को अनफौलो करें जो आप का समय बरबाद करते हैं या नकारात्मक भावनाएं उत्पन्न करते हैं. इस से आप की फीड साफ हो जाएगी और स्क्रौल करने की आदत कम हो जाएगी.
• न्यूज़ फीड इरेडिकेटर जैसे ब्राउज़र एक्सटेंशन का उपयोग करें, जो सोशल मीडिया फीड को ब्लौक करते हैं ताकि आप अधिक उत्पादक चीजों पर ध्यान केंद्रित कर सकें.

14. अकाउंटेबिलिटी पार्टनर रखें

• एक दोस्त या परिवार के सदस्य को अकाउंटेबिलिटी पार्टनर बनाएं, जो आप की प्रगति पर नजर रखे और सोशल मीडिया से दूर रहने के लिए आप को प्रोत्साहित करे. वे आप को असल जीवन में बातचीत और गतिविधियों के जरिए व्यस्त रखने में मदद कर सकते हैं.

15. अस्थायी ब्रेक लें

• सोशल मीडिया से कुछ समय के लिए ब्रेक लेने पर विचार करें, जैसे एक सप्ताह या एक महीने के लिए अपने अकाउंट्स को निष्क्रिय करें. यह आप को सोशल मीडिया के शोर से दूर रहने की आदत डालने में मदद करेगा और यह अहसास दिलाएगा कि असल जिंदगी में आप क्या खो रहे थे.

इन उपायों को नियमित रूप से अपना कर आप सोशल मीडिया पर निर्भरता को कम कर सकते हैं और अपने औनलाइन और औफलाइन जीवन के बीच एक बेहतर संतुलन बना सकते हैं.

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