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Indian Idol 12 : ट्रॉफी जीतने के बाद पवनदीप राजन ने दिया अपना पहला बयान, बोले ‘ मुझे बहुत खुशी नहीं हुई’

आखिरकर एक लंबे इंतजार के बाद इंडियन आइडल 12 का विजता दर्शकों को मिल गया. जिसका इंतजार सभी लोगों को लंबे समय से था. 15 अगस्त केे दिन पवनदीप राजन ने सभी प्रतियोगी को पीछे छोड़ ट्रॉफी जीत लिया औऱ इंडियन आइडल का ताज अपने सर कर लिया.

पवनदीप राजन के इस जीत से सभी फैंस काफी ज्यादा खुश हैं, उनकी लोकप्रियता पहले से और भी ज्यादा बढ़ गई है. वैसे भी शो में पवनदीप और अरुणिता  के जीतने का कयास लगाए जा रहे थे.

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हालांकि यह शो सभी कंटेस्टेंट के लिए काफी ज्यादा यादगार रहा है. हालांकि ट्रॉफी जीतने के बाद पवनदीप ने जो बयान दिया है उससे सभी फैंस काफी ज्यादा चौक गए हैं.

एक इंटरव्यू के दौरान पवनदीप ने कहा कि मुझे ट्रॉफी मिलने के बाद  भी मैं काफी ज्यादा खुश नहीं था, क्योंकि फाइनल तक आने वाले सभी कंटेस्टेंट विजेता ही है. ट्रॉफी मेरे अलावा अगर किसी औऱ को भी मिलती तो भी मैं काफी ज्यादा खुश होता.

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आगे उन्होंने कहा कि हम सबका साथ यहीं तक नहीं था, हम लोग आगे भी एक -दूसरे के कंटैक्ट में रहेंगे और एक-दूसरे का साथ देते रहेंगे. हम साथ मिलकर काम करेंगे.

शो में सभी कंटेस्टेंट के परिवार वाले आएं थे, जो अपने बच्चों को पर्फार्मेंस देते देख काफी ज्यादा खुश हो रहे थें. सभी कंटेस्टेंट ने अपना -अपना बेहतर दिया था, वहीं पवनदीप को जब ट्रॉफी मिला तो उसकी मां खुशी से रोने लगी थी.

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15 अगस्त का दिन सभी कंटेस्टेंट के लिए बहुत बड़ा दिन था. सभी को इस दिन का इंतजार था.

भैंसपालन : अच्छी नस्ल और खानपान

लेखक- डा. नगेंद्र कुमार त्रिपाठी

गांवदेहात व शहरी इलाकों में दूध की जरूरत की सप्लाई के लिए आमतौर पर किसान गायभैंस पर ही निर्भर रहते हैं. कई बार अच्छी भैंस खरीद कर लाने के बाद भी हमें अच्छा दूध का उत्पादन नहीं मिल पाता है या कई बार भैंस दूध में रहने के बाद भी समय से गरम नहीं होती. इस के चलते किसानों को भारी आर्थिक नुकसान होता है. सब से पहले भैंसपालन के लिए अच्छी नस्ल की भैंस का होना बेहद जरूरी है. पशुपालकों को भैंसपालन संबंधी जानकारी होने के साथ ही उस की अलगअलग प्रजातियों की जानकारी होनी चाहिए. इस के लिए आप मुर्रा भैंस को चुन सकते हैं.

मुर्रा भैंस को पालने के लिए उसे संतुलित आहार देना भी बेहद जरूरी है. इस की पूरी और सटीक जानकारी होनी चाहिए. पशुपालकों को चाहिए कि वे पशुओं के लिए एक बेहतर चारा तैयार करें. इस में दाने की तकरीबन 35 फीसदी मात्रा होनी चाहिए. इस के अलावा खली (सरसों की खली, मूंगफली की खली, अलसी की खली, बिनौला की खली) की मात्रा तकरीबन 30 किलोग्राम होनी चाहिए. इन में से कोई भी खली आप मिला सकते हैं. इस के अलावा गेहूं का चोकर या चावल की पालिका भी 30 किलोग्राम प्रयोग करें. 2 किलोग्राम खाने वाला नमक और 3 किलोग्राम खनिज मिश्रण पाउडर मिला कर राशन की मात्रा को 100 किलोग्राम बना लें.

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अब इस राशन को दूध के मुताबिक प्रति 2.5 लिटर दूध पर 1 किलोग्राम राशन जानवर को उपलब्ध कराएं. इस के अलावा एक से डेढ़ किलोग्राम राशन पशु के स्वास्थ्य के लिए दें. इस प्रकार आप का पशु दूध व स्वास्थ्य दोनों ही हिसाब से अच्छा हो जाएगा. भैंस हर साल बच्चा दे अगर भैंस ने हर साल बच्चा नहीं दिया, तो भैंस पर आने वाला रोजाना सवा सौ रुपए का खर्चा आप नहीं निकाल सकते हैं, इसीलिए भैंसपालक इस बात को ध्यान में रखें और अगर जरूरत पड़ती है, तो भैंस का इलाज भी नियमित रूप से पशु डाक्टर से करवाएं. भैंसों के लिए आरामदायक बाड़ा भैंसपालन के लिए सब से जरूरी बात है कि उन का रखरखाव साफसुथरा हो. उन के लिए आरामदायक बाड़ा बनाया जाना चाहिए.

बाड़ा ऐसा हो, जो भैंस को सर्दी, गरमी व बरसात से बचा सके. बाड़े में कच्चा फर्श हो, लेकिन वह फिसलन भरा नहीं होना चाहिए. बाड़े में सीलन न हो और वह हवादार हो. पशुओं के लिए साफ पानी पीने के लिए रखना चाहिए. अगर पशुओं को आराम मिलेगा, तो उन का दूध उत्पादन उतना ही बेहतर होगा. भैंस की नस्लें भैंस प्रमुख दुधारू पशु है. इस की अपनी भी कई तरह की प्रजातियां हैं. तो आइए जानते हैं कि ये नस्लें कौनकौन सी हैं : मुर्रा भैंस यह दूध देने वाली सब से उत्तम भैंस होती है. भारत और अन्य देशों में भी इस के बीज का कृत्रिम गर्भाधान में उपयोग किया जाता है. यह भैंस प्रतिदिन 10-20 लिटर दूध दे देती है. इस के दूध में चिकनाई की मात्रा गाय के दूध से दोगुनी होती है. इस के दूध का इस्तेमाल दही, दूध, मट्ठा, लस्सी आदि में होता है.

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भदावरी भैंस यह ज्यादातर उत्तर भारत के कई इलाकों में देखी जा सकती है. इस के अलावा यह मथुरा, आगरा, इटावा आदि जगह पर आप को देखने को मिल सकती है. इस के दूध में 14 से 18 फीसदी तक फैट शामिल होता है. मेहसाना भैंस यह भैंस एक ब्यांत में 1,200 से 1,500 लिटर दूध देती है. यह गुजरात के मेहसाणा जिले में पाई जाती है. यह भैंस काफी बेहतर होती है. इस में प्रजनन की कोई भी समस्या नहीं होती है. इस को मुर्रा भैंस से क्रौस करवा कर दूध उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है. जाफराबादी भैंस यह भैंस मुख्य रूप से गुजरात राज्य में मिलती है. इस भैंस का सिर काफी भारी होता है. इस के सींग नीचे की ओर झुके हुए होते हैं. यह शरीर में भी काफी भारी होती है. इस भैंस के दूध में काफी मात्रा में वसा पाई जाती है. भैंसपालन के लिए आहार की विशेषताएं

* भैंस के लिए आहार बेहद ही संतुलित होना चाहिए. इस के लिए दाना मिश्रण में प्रोटीन और ऊर्जा के स्रोतों व खनिज लवणों का पूरी तरह से समावेश होना चाहिए.

* आहार पूरी तरह से पौष्टिक और स्वादिष्ठ होना चाहिए और इस में कोई बदबू नहीं आनी चाहिए.

* दाना मिश्रण में ज्यादा से ज्यादा प्रकार के दाने और खलों को मिलाना चाहिए.

* आहार पूरी तरह से सुपाच्य होना चाहिए. किसी भी रूप में कब्ज करने वाले या दस्त करने वाले चारे को पशु को नहीं खिलाना चाहिए.

* भैंस को भरपेट खाना खिलाना चाहिए. उस का पेट काफी बड़ा होता है. उस को पूरा पेट भरने पर ही संतुष्टि मिलती है. अगर भैंस का पेट खाली रह जाता है, तो वह मिट्टी, चिथड़े और गंदी चीजें खाना शुरू कर देती है.

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* भैंस के चारे में हरा चारा ज्यादा मात्रा में होना चाहिए, ताकि वह पौष्टिक रहे.

* भैंस के चारे में अचानक बदलाव न करें. यदि कोई भी बदलाव करना है, तो पहले वाले आहार के साथ मिला कर उस में धीरेधीरे बदलाव करें.

* भैंस को ऐसे समय पर खाना खिलाएं, जिस से कि वह लंबे समय तक भूखी न रहे यानी उस के खाने का एक नियत समय रखें और आहार में बारबार बदलाव न करें. भैंस के लिए उपयुक्त चारा भैंस के लिए हम 2 तरह से आहार को बांट सकते हैं, जो कि काफी फायदेमंद होता है. चारा और दाना : चारे में रेशेयुक्त तत्त्वों की मात्रा शुष्क भार के आधार पर 18 फीसदी से ज्यादा होती है. पचनीय तत्त्वों की मात्रा 60 फीसदी से कम होती है.

सूखा चारा : चारे में नमी की मात्रा यदि 10-12 फीसदी से कम है, तो यह सूखे चारे की श्रेणी में आता है. इस में गेहूं का भूसा, धान का पुआल, ज्वार, बाजरा और मक्का, कड़वी आदि है. इन की गणना घटिया चारे के रूप में होती है, जो कि केवल पेट भरने का काम करता है.

हरा चारा : यदि हरे चारे में पानी की मात्रा 80 फीसदी हो, तो इसे हरा व रसीला चारा कहते हैं. पशुओं के लिए यह हरा चारा 2 प्रकार का होता है, दलहनी और बिना दाल वाला. दलहनी चारे में बरसीम, रिजका, ग्वार, लोबिया आदि आते हैं. इन में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है. ये अत्यधिक पौष्टिक व उत्तम गुणवत्ता वाले होते हैं, वहीं बिना दाल वाले चारे में ज्वार, बाजरा, मक्का, जई, अगोला और हरी घास आदि आते हैं. दलहनी चारे की अपेक्षा इन में प्रोटीन की मात्रा कम होती है.

अगर इस प्रकार से पशुपालक भैंसपालन करेंगे, तो निश्चित ही अपने पशु से लाभ पा सकते हैं. ज्यादा जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के अध्यक्ष या पशु वैज्ञानिक से संपर्क करें.

Manohar Kahaniya : जन्मदिन पर मिली मौत

6जुलाई, 2021 की रात के करीब साढ़े 11 बजे का वक्त था. दक्षिणपश्चिम जिले के पौश इलाके वसंत विहार के ए-ब्लौक में दूसरी मंजिल पर बने एचआईजी फ्लैट 15/9 के सामने पुलिस तथा इलाके के लोगों की भारी भीड़ जमा थी. जिले के डीसीपी इंगित प्रताप सिंह, एडिशनल डीसीपी अमित गोयल, अमित कौशिक, एसीपी राकेश दीक्षित, वसंत विहार थाने के एसएचओ सुनील कुमार गुप्ता, इंसपेक्टर परमवीर दहिया और संदीप कुमार के अलावा उन के थाने का मातहत स्टाफ मौजूद था.

इस फ्लैट में अकेली रहने वाली एडवोकेट किट्टी कुमारमंगलम (70) की किसी ने हत्या कर दी थी.
दरअसल, किट्टी कुमारमंगलम वृद्ध वकील होने के साथ एक ऐसे राजनीतिक परिवार से जुड़ी महिला थीं, जिस की भारत के राजनीतिक इतिहास में गहरी पृष्ठभूमि थी. वह दूसरी मंजिल के इस फ्लैट में अकेली रहती थीं. पास की एक स्लम बस्ती में रहने वाली नौकरानी मिथिला (32) उन के घर सुबह, दोपहर व शाम को झाड़ू, पोंछा, बरतन धोने व खाना बनाने के लिए घर आती थी.

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उस दिन यानी 6 जुलाई की शाम करीब सवा 8 बजे भी हमेशा की तरह मिथिला किट्टी के रसोईघर में खाना बना रही थी जब किसी ने कालबेल बजाई.किट्टी उस वक्त अपने बैडरूम में बिस्तर पर लेट कर टीवी देख  रही थीं. कालबेल की आवाज सुन कर किट्टी ने बैडरूम से ही मिथिला को आवाज लगा कर देखने के लिए कहा. मिथिला ने दरवाजा खोला तो कालोनी का धोबी राजू 2 लड़कों के साथ बाहर
खड़ा था.

मिथिला ने जब 2 अनजान लोगों के साथ राजू को देखा तो आने का कारण पूछा. राजू ने बताया कि इस्त्री करने के लिए कपड़े लेने हैं. ‘‘यहीं रुको, मैडम से पूछ कर ला कर देती हूं.’’ कहते हुए मिथिला दरवाजा खुला छोड़ कर अपनी मालकिन किट्टी के बैडरूम की तरफ बढ़ गई. नौकरानी मिथिला के पलटते ही राजू धोबी फ्लैट के अंदर दाखिल हो गया और उस ने अपने दोनों साथियों को भी इशारा कर अपने पीछे आने को कहा.

नौकरानी मिथिला मालकिन किट्टी के बैडरूम में पहुंची और उन्हें बताया कि राजू धोबी कपड़े लेने आया है. उस के साथ 2 अनजान लड़के भी हैं, इसलिए उस ने उसे बाहर ही रोक दिया है. यह सुन कर किट्टी कुमारमंगलम राजू से बात करने के लिए मिथिला के साथ बैडरूम से बाहर आ गईं. लेकिन उन्होंने देखा तब तक राजू व उस के दोनों साथी फ्लैट के अंदर दाखिल हो चुके थे. एक लड़का मुख्य दरवाजे को अंदर से बंद कर रहा था. यह देख कर वह राजू को डांटते हुए बोलीं, ‘‘ऐ राजू, कौन हैं ये लोग और तुम इन्हें अंदर कैसे लाए?’’

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इतना कहना था कि राजू समेत तीनों लड़कों ने चीते जैसी फुरती से किट्टी व मिथिला को दबोच लिया.
एक युवक मिथिला को कमरे में ले गया जबकि राजू धोबी व एक अन्य युवक ने किट्टी को पकड़ कर उन के बैडरूम की तरफ ले गए और गला घोट कर हत्या कर दी. उधर दूसरे कमरे में मिथिला का भी गला घोंट दिया. थोड़ी देर छटपटाने के बाद मिथिला के हाथपांव भी ढीले पड़ गए. मिथिला की मौत का इत्मीनान कर युवक कमरे से बाहर निकला.

इस के बाद राजू और उस के साथियों ने घर की अलमारी, लौकरों को खंगालना शुरू किया. नकदी, गहनों के साथ जो भी कीमती सामान मिला, उन्हें 2 बैगों में भर लिया.

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मिथिला को आया होश

इस के बाद साथ लाए साथ लाए स्कूटर से तीनों फरार हो गए. करीब आधा घंटे बाद नौकरानी मिथिला को होश आ गया. किसी तरह उस ने खुद को संयत किया. मालकिन किट्टी के बैडरूम में जा कर देखा तो वह बिस्तर पर निष्प्राण पड़ी थीं. मिथिला ने अपने पति रामेश्वर को फोन किया, जो पास की ही स्लम बस्ती में रहता था. रामेश्वर कुछ ही देर बाद अपने पिता को ले कर वहां पहुंच गया. मिथिला ने उन्हें सारी
बात बताई.

रामेश्वर ने पुलिस को फोन कर के घटना की जानकारी दी, जिस के बाद पीसीआर मौके पर आई. इस के 15 मिनट बाद वसंत विहार थाने के थानाप्रभारी सुनील कुमार गुप्ता पुलिस टीम के साथ वहां पहुंच गए. तब मिथिला ने उन्हें पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी.

मामला हाईप्रोफाइल परिवार का था, इसलिए थानाप्रभारी ने उच्चाधिकारियों को भी इस की सूचना दे दी तो वे भी क्राइम इनवैस्टीगेशन और फोरैंसिक टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.मिथिला से पता चला कि किट्टी कुमारमंगलम की बेटी रुचिरा चड्ढा गुरुग्राम में रहती हैं. तब पुलिस ने उन्हें भी तत्काल घटना से अवगत करा दिया.

अगले एक घंटे के भीतर रुचिरा के साथ दिल्ली व आसपास रहने वाले कुमारमंगलम परिवार के रिश्तेदारों व परिचितों के आने का सिलसिला शुरू हो गया. पुलिस ने घर के बाहर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज की जांचपड़ताल की तो पूरा घटनाक्रम वैसे ही पाया गया, जैसा मिथिला ने बयान किया था. पूरी कालोनी राजू धोबी को जानती थी, क्योंकि कालोनी के बाहर वही ज्यादातर परिवारों के कपड़े इस्त्री करने का काम करता था. लिहाजा डीसीपी इंगित प्रताप प्रताप सिंह के आदेश पर थानाप्रभारी सुनील गुप्ता ने एक टीम को तत्काल पास के भंवर सिंह कैंप स्लम कालोनी भेजा, जहां धोबी राजू कनौजिया अपने परिवार के साथ रहता था.

पुलिस ने अगले 2 घंटे के भीतर राजू को दबोच लिया. पुलिस ने उस के कब्जे से लूट के साढ़े 9 हजार रुपए, 1-2 आभूषण तथा एक लौकर बरामद कर लिया. उस ने बताया कि उस लौकर में कुछ दस्तावेज थे, जिसे उस ने अपने काम का नहीं होने के कारण एक जगह फेंक दिए थे. पुलिस टीम ने उसे साथ ले जा कर वे दस्तावेज भी बरामद कर लिए. उस से पूछताछ में पता चला कि उस के साथ वारदात को राकेश राज व सूरज ने अंजाम दिया था. दोनों के नामपते हासिल कर पुलिस टीमों ने उन की तलाश में छापेमारी शुरू कर दी. तड़के 6 बजे पुलिस ने राकेश राज को भी उस के घर मुनीरका से गिरफ्तार कर लिया. उस के कब्जे से करीब 10 हजार रुपए बरामद हुए. दोनों से पूछताछ के बाद उन्हें कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया गया.

राजू मूलरूप से मध्य प्रदेश का रहने वाला है. पिछले 5 सालों से वह डीडीए वसंत विहार में कपड़ों पर इस्त्री करने का काम करता था. किट्टी कुमारमंगलम के घर पर से भी वह कपड़े लेने जाता था. चूंकि वह घर में अकेली रहती थीं, इसलिए यदाकदा वह राजू से बाजार से कुछ सामान भी मंगा लेती थीं. यही कारण था कि राजू की एंट्री उन के कमरे तक थी. किट्टी उस पर भरोसा करने लगीं. भरोसा इतना बढ़ गया कि वह घर में आने पर कपड़े लेने उन के बैडरूम तक भी पहुंच जाता था. एवज में किट्टी राजू को खर्च के लिए कुछ पैसे भी दे देती थीं. लेकिन पिछले साल जब कोरोना की बीमारी के लौकडाउन लगा तो राजू का कामधंधा चौपट हो गया.

कुछ दिन पहले जब वह किट्टी कुमारमंगलम के घर गया तो उन्होंने राजू के सामने ही अपनी अलमारी का लौकर खोल कर उस में से कुछ पैसे निकाल कर राजू को कोई सामान लाने के लिए दिए.

जन्मदिन पर आए मृत्युदूत

राजू ने अलमारी व लौकर में रखे गहने तथा नोटों की झलक देखी तो अचानक उस के दिमाग में खयाल आया कि क्यों न किट्टी मैडम को ही लूट लिया जाए. क्योंकि वह अकेली रहती हैं.6 जुलाई, 2021 को किट्टी कुमार मंगलम का जन्मदिन था. उस दिन उन के दोनों बच्चों रुचिरा और बंगलुरु में रहने वाले बेटे रंगराजन मोहन कुमार मंगलम, जोकि तमिलनाडु में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष है, ने अपनी मां को वीडियो काल कर के बधाई दी थी. उस दिन पूरे समय किट्टी को जन्मदिन की बधाई देने का सिलसिला चलता रहा. उसी दिन राजू के साथ एक योजना बनाई.

राकेश राज विदेश मंत्रालय में अनुबंध के तौर पर ड्राइवर था जबकि सूरज एक स्कूल में कैब चालक था. लेकिन कोरोना व लौकडाउन के कारण दोनों के ही कामधंधे प्रभावित हुए थे और वह आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे थे. जब शराब तीनों पर अपना रंग दिखाने लगी तो राजू ने उन दोनों को बताया कि जहां वह कपड़े प्रैस करने का ठिया लगाया है, वहां एक बूढ़ी औरत अकेली रहती है. उस के घर में लाखों रुपए नकद व गहने मिल सकते हैं. बस फिर क्या था, आननफानन में योजना बनी और उसी दिन इसे अंजाम देने का फैसला कर लिया गया. रात करीब 8 बजे तीनों राजू के स्कूटर से किट्टी के घर गए.

घर के बाहर लगे सीसीटीवी कैमरे से पता चला कि राजू और उस के दोनों दोस्त इमारत में दाखिल होते दिख रहे हैं. रात 8.10 बजे राजू ने किट्टी के दरवाजे की घंटी बजाई और मिथिला ने दरवाजा खोला. इस के बाद उन्होंने वारदात को अंजाम दिया. शराब के नशे के कारण सूरज इस बात को नहीं समझ पाया कि मिथिला बेहोश हुई है या सचमुच मर चुकी है. सूरज का नामपता हासिल हो चुका था. लेकिन वह अपने घर नहीं मिला. पुलिस ने सर्विलांस से उस की लोकेशन ट्रेस करनी शुरू कर दी. डीसीपी इंगित प्रताप सिंह के आदेश पर अगले दिन एक पुलिस टीम सूरज की गिरफ्तारी के लिए राजस्थान के लिए रवाना हो गई, क्योंकि उस की लोकेशन वहां की मिल रही थी.

सूरज निकला बेहद शातिर

12 जुलाई को दिल्ली पुलिस की टीम ने मध्य प्रदेश पुलिस के सहयोग से तीसरे आरोपी सूरज को टीकमगढ़ जिले के गांव बलदेवपुरा से गिरफ्तार कर लिया. वह अपनी दूसरी पत्नी के मायके में था.
थाना जतारा के अंतर्गत गांव में सूरज अपनी पत्नी के साथ छिपा हुआ था. दिल्ली पुलिस ने उस के पास से 34 लाख रुपए के लूटे हुए गहने व 60 हजार रुपए नकद बरामद कर लिए.

पूछताछ में उस ने बताया कि लूटपाट का माल तीनों में बराबरबराबर बांटने की बात हुई थी लेकिन लूट के बाद उस के मन में लालच आ गया. घर में केवल 30 हजार की नकदी मिली थी, जो उस ने 3 हिस्सों में बांट दी. उस ने एकदो गहने भी राकेश व राजू को दे दिए. बाकी गहने उस ने यह कह कर अपने पास रख लिए कि कल वह इन्हें अपनी जानपहचान वाले सुनार को बेच कर नकदी ले लेगा और फिर उसे आपस में बांट लेंगे.

पुलिस ने सूरज के कब्जे से लूटे गए 522 ग्राम सोना और 300 ग्राम चांदी के आभूषण जब्त किए. इस के अलावा मोबाइल और कैश समेत कुल करीब 33 लाख रुपए का सामान बरामद किया. दिल्ली ला कर वसंत विहार पुलिस ने सूरज को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. द्य
—कथा पुलिस जांच पर आधारित

मंगलम परिवार का रहा है राजनीतिक इतिहास

किट्टी कुमारमंगलम की शादी एक ऐसे परिवार में हुई थी, जिस का लंबा राजनीतिक इतिहास रहा है. कुमारमंगलम परिवार ब्रिटिश राज में कुमारमंगलम एस्टेट के सामंती जमींदार थे. रंगराजन कुमारमंगलम के दादा परमशिवन सुब्बारायन (1889-1962) एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जो 1926 में तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री रहे. सुब्बारायन इंडोनेशिया में भारत के राजदूत भी रहे और जवाहरलाल नेहरू की सरकार में केंद्रीय मंत्री के रूप में भी काम किया. बाद में महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे. सुब्बारायन के एक पुत्र जनरल पी.पी. कुमारमंगलम 1967 से 1969 तक भारतीय सेना के प्रमुख रहे थे. इन के दूसरे पुत्र एस. मोहन कुमारमंगलम भी इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री रहे थे. एस. मोहन कुमारमंगलम के 3 संतानें थीं. पी. आर. कुमारमंगलम और 2 बेटियां ललिता कुमारमंगलम जो भाजपा की नेता हैं और राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व प्रमुख रही हैं तथा दूसरी बेटी उमा मुखर्जी हैं.

पी. आर. कुमारमंगलम और किट्टी रंगराजन कुमारमंगलम की 2 संतानें हुईं बेटा मोहन कुमारमंगलम, उन से छोटी बेटी रुचिरा. मोहन तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष होने के साथ एआईसीसी के सदस्य भी हैं.
मोहन के पिता यानी किट्टी के पति पी. आर. कुमारमंगलम पी.वी. नरसिम्हाराव सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री रहे थे. बाद में वह बीजेपी में शामिल हो गए थे. उसी समय उन का बेटा भी राजनीति में सक्रिय हुआ लेकिन 23 अगस्त, 2000 को उन की एक बीमारी के कारण 48 साल की अल्पायु में मृत्यु हो गई.
उसी के बाद से किट्टी कुमारमंगलम एकाकी जीवन बसर कर रही थीं. किट्टी के जन्मदिन पर काल के क्रूर हाथों ने उन की जीवनलीला ही समाप्त कर दी.

Family Story in Hindi : प्यार का मूल्य – भाग 2

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

इधर गीता से भूख सही नहीं जा रही थी. वह एक सिपाही से गिड़गिड़ा कर बोली, ‘‘भैया, मैं कई दिन की भूखी हूं. मु?ो दंड देने को दरिंदों ने भरपेट भोजन नहीं दिया. कहीं से 2 रोटी मिल जातीं तो…’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

‘‘देखो, मैं थानेदार साहब से बात करता हूं,’’ इतना कह कर वह चला गया.

आधे घंटे बाद जब वह लौटा तो गीता को उस के हाथों में दोने देख कर लगा कि वह तुरंत छीन कर पेट भर ले.

‘‘लो, बहन, इधरउधर से पैसे इकट्ठे कर के दुकान से ले कर आया हूं, पर तुम 10 जनों का पेट तो नहीं भर सकता.’’

‘‘हम सब तो खापी चुके हैं. गीता ही नहीं खा पाई. आप उसे ही दे दो,’’ सारी लड़कियां एकसाथ बोलीं.

फिर गीता जैसे खाने पर टूट पड़ी. जब पेट भर गया तब बाकी बचा भोजन उस ने उन सब में बांट दिया और सब खापी कर एकदूसरे से सट कर लेट गईं. इधर दलाल और पेशा कराने वाली औरत तथा अन्य आदमी लौकअप में बंद कर दिए गए.

दूसरे दिन उन सब लड़कियों की पेशी हुई. थानेदार ने एकएक लड़की की व्यथा सुनी. गीता ने भी अपनी शर्मनाक और दर्दभरी कहानी सुना डाली.

उन लड़कियों में सर्वाधिक वही पढ़ीलिखी थी, फिर भी वह जवानी के जोश में भूल कर बैठी. आयु थी कुल 18 वर्ष. इंटर में पढ़ती थी. सह शिक्षा थी लड़केलड़कियों की. उसी में छोटी बहन मीता तथा उस से छोटा भाई मयंक 10वीं और 8वीं में पढ़ रहे थे. मातापिता अपने तीनों बच्चों को उच्च शिक्षा देने को कृतसंकल्प थे.

गीता के साथ ही पढ़ता था अतुल. दोनों एकदूसरे को नोट्स तथा पुस्तकों के आदानप्रदान में इतने करीब आ गए कि प्रेमपत्रों की भाषा पढ़ने लग गए.

एक दिन छोटी बहन मीता के हाथ अतुल का प्रेमपत्र लग गया, जो उस ने अपनी मां के सुपुर्द कर दिया. उसी दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. मांबाप की सख्त प्रताड़ना, मारपीट के बाद गीता पर प्रतिबंध लग गए. प्राइवेट पढ़ाने का प्रबंध किया गया, परंतु प्रेमांध पढ़ता कौन. सो दोनों के मन में द्वंद्व मचा था और एक दिन न जाने कब, कैसे, उन दोनों ने मुक्ति का प्रबंध कर लिया और वे पलायन कर गए.

धीरेधीरे 15 दिन निकल गए. होटलों में मौजमस्ती मना कर एक दिन अतुल आगे की समस्या से मुंह मोड़ कर उसे अकेली, निराश्रय छोड़ भाग खड़ा हुआ. कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद वह भी एक दिन मौका देख कर निकल भागी और किसी तरह स्टेशन पहुंच कर जो ट्रेन दिखी, उसी में बैठ गई क्योंकि उसे भय था कि कहीं होटल वाले उसे पकड़ न लें.

कई स्टेशन आराम से निकल गए. तभी उसे टीटीई आता दिख गया तो उस की जान सूख गई. सामान के नाम पर उस के पास केवल एक थैला था जिसे ले कर वह शौचालय में जा घुसी. फिर कई स्टेशन निकल गए. एक घंटे के सफर के बाद ट्रेन रुकी तो वह चुपचाप नीचे उतर गई, क्योंकि वह कोई बड़ा नगर था, मगर ट्रेन में ही एक महिला की दृष्टि उस पर पड़ गई थी जो अपने शिकार के लिए ऐसे ही सफर करती. बहलाफुसला कर उसे बेटी बना कर वह अपने घर ले गई. कई दिन खातिर कर, सब्जबाग दिखा कर वह उसे दलालों के हाथ बेच गई, जहां वह पलपल लुट व मर रही थी.

अतुल से बदला लेने के लिए गीता कैसे भी उस गंदगी से भागना चाहती थी. धंधा न करने की जिद पर वह इतनी मार सह चुकी थी कि पोरपोर हर क्षण टीसता रहता था. कई दिनों से उसे भरपेट अन्न नहीं मिला था और मिला भी तो सिर्फ इतना कि वह मर न सके, तो भी धंधे में अधमरी सी ?ांकी जाती रही. साथ की लड़कियां उसे सम?ातीं कि चुपचाप नियति स्वीकार कर ले, इस के सिवा कोई उपाय नहीं है. पर वह किसी प्रकार सम?ाता नहीं कर पा रही थी.

यह सब थानेदार के सामने दोहराती, वह फूटफूट कर रोई थी. उस से पता पूछ कर उस के तथा सब लड़कियों के मांबाप और नातेरिश्तेदारों को सूचना भेजी गई थी. कुछ के अभिभावक आए और ले गए परंतु कुछ के ?ांकने भी नहीं आए. उन में गीता के मांबाप भी थे. वे तो नहीं आए परंतु घृणाभरा उन का पत्र अवश्य आया कि वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें दूसरी बेटी मीता की शादी करनी है. वह कुलकलंकिनी तो हमारे लिए मर गई. उसे यहां न भेजें.

बची सभी लड़कियों की कुछ ऐसी ही कहानी थी. नारी संरक्षण गृह में वे सब अनुशासन की कठोरता में जकड़ती गई थीं. गीता का तो रोरो कर बुरा हाल था. वह सोचती, काश, उस ने नादानी न की होती और अतुल की चिकनीचुपड़ी बातों में न आई होती तो उस के सुख का संसार तो न उजड़ता. ठाट से बीए की तैयारी कर रही होती और आगे जा कर किसी अच्छे घर की बहू होती. मातापिता की अत्यंत दुलारी बेटी आज उन के लिए सब से अधिक घृणा की पात्र हो गई थी. मांबाप, प्यारे भाईबहन छूटे, सर्वस्व लुटा… क्यों जीवित है वह?

नारी संरक्षण गृह में भी क्या वह सुरक्षित है? वहां का माहौल देख कर उसे लगा कि एक गंदगी छोड़ कर शायद वह दूसरी गंदगी में आ गई है.

एक कुंआरी लड़की उस दिन प्रसव वेदना से तड़प रही थी, जो उसी गृह के अत्याचार की कहानी थी. अस्पताल कौन ले जाए, इसीलिए वह वहीं तड़पतीचिल्लाती रही. फिर भोर तक ठंडी पड़ गई क्योंकि पेट में ही बच्चा मर गया था.

लड़की को हैजा हो गया था, इस से वह मर गई. पुलिस और डाक्टर की एक सी रिपोर्टें थीं. मामला खत्म हो गया था और उस का दाहसंस्कार कर दिया गया था. यह देख गीता का हृदय घृणा और विद्रोह से भर उठा कि इस से तो मर जाना ही अच्छा है.

तभी एक दिन उसे चक्कर और उलटी आई जिसे वह सब की नजरों से छिपा गई. वह सम?ा गई कि यह पूरे लक्षण गर्भवती होने के हैं. अवश्य यह अतुल का पाप है या फिर उन दरिंदों का.

अपार घृणा से तन सुलग उठा. क्या सोचा था, क्या वादे किए थे अतुल ने. शादी का सब्जबाग दिखलाया था और आज उसे इस गंदगी में ?ांक कर भाग खड़ा हुआ था. उस रोज उस ने अन्न का दाना भी न खाया. रातभर वह पड़ीपड़ी सोचती रही कि इस जीवन और इस दूसरी गंदगी से कैसे छुटकारा मिले?

उस के साथ की आई लड़कियों ने उस से बारबार पूछा कि वह अब क्यों इतनी निराश है? अब जब गंदगी में आ ही पड़ी है तब रोना क्या और हंसना क्या? वहां भुगता अब यहां भोगना है. परंतु उस ने किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.

2 दिन ऐसे ही निकल गए. निरीक्षिका आई और चली गई. वह पेट के दर्द का बहाना किए पड़ी रही.

तीसरे दिन वह 20 फुट ऊंची छत से कूद गई. सब गहरी नींद सोए थे. कोई जान नहीं पाया कि वह कब ऊपर गई और कब नीचे कूदी. सुबह जब गेट खुले तब खून से लथपथ देख कर सब चीखे, ‘‘शायद मर गई.’’

पुलिस आई. जांच हुई तो पता चला कि वह मरी नहीं है, जख्मी हुई है. अस्पताल ले जाई गई. जांच हुई तो पता लगा कि पैर की हड्डी टूट गई है, गर्भाशय में चोट के कारण रक्तस्राव होने लगा है. महीने के केवल 10 दिन  ही खिसके थे, इस से सारी सफाई स्वत: हो गई.

मृत्यु के बाद भी पाखंड का अंत नहीं

भारत में कोरोना की दूसरी लहर में सारे मृत्युपरांत कर्मकांड धरे के धरे रह गए. संस्कार तो दूर, पंडे तो मृतक के नजदीक तक न फटके. लेकिन इन सब से सबक लेने की जगह लोग फिर से पाखंड की इस फंतासी में फंसते जा रहे हैं और हैरानी यह कि इन में पढ़ेलिखे बढ़चढ़ कर हैं. हमारे देश में अंधविश्वास और पाखंड की अमरबेल आधुनिक, सभ्य व पढ़ेलिखे समाज के मध्यवर्ग पर बुरी तरह फैली हुई है. समाज को जागरूक करने का दावा करने वाला शिक्षित मध्यवर्ग बातें भले ही विज्ञान के आविष्कारों की करता हो परंतु सदियों से चली आ रही कुरीतियों व परंपराओं को तोड़ने का साहस वह आज भी नहीं कर पाया है. विज्ञान के साथ वैज्ञानिक नजरिया न होने के कारण समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है.

एक तरफ विज्ञान और टैक्नोलौजी की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ लोगों में वैज्ञानिक नजरिए के बजाय अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगापंथ जैसी अंधविश्वासी परंपराएं तेजी से पांव पसार रही हैं. कोरोना जैसी महामारी ने इन अंधविश्वासी परंपराओं के मौजूदा स्वरूप में परिवर्तन तो किया है मगर लोग मौका मिलते ही फिर दकियानूसी परंपराओं के जाल में फंसे नजर आते हैं. अप्रैलमई 2021 में भारत में कोरोना की स्थिति भयावह थी. परिवार के लोग कोरोना से मरने वाले का अंतिम संस्कार तक नहीं कर पा रहे थे, लेकिन सिर्फ 2 माह बाद ही सामान्य हालात होने के बाद सबकुछ भूल कर वही लोग फिर से अंधभक्ति और पाखंड में लग गए. समाज को इन परंपराओं और पाखंड की ओर ढकेलने का काम धर्म के ठेकेदार पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी कर रहे हैं. धर्म के ठेकेदार लोगों को बताते हैं कि मरने वाले की आत्मा की शांति के लिए ये कर्मकांड नहीं करोगे तो मरने वाले को स्वर्ग का टिकट कैसे मिलेगा.

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मध्यवर्गीय लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर पिछड़ी परंपराओं व मान्यताओं को थोप रहे हैं. वैज्ञानिक नजरिया, तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की जगह अंधभक्ति, पाखंड और धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. पढ़ेलिखे व आधुनिक मध्यवर्ग का यही आचरण कम पढ़ेलिखे दलितपिछड़े मध्यवर्गीय परिवारों के लिए मिसाल बन जाता है और समाज में फैली इन कुप्रथाओं को बढ़ावा मिलता रहता है. समाज भले ही पहनावे में और अंगरेजी में गिटपिट करने से सभ्यता का लबादा ओढ़ कर अपनेआप को आधुनिक सम झने लगा हो परंतु आज के वैज्ञानिक युग में भी आदमी पंडेपुजारियों द्वारा फैलाए गए मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाया है. समाज में फैली कुरीतियों और अंधविश्वास पर भाषण देने वाला व्यक्ति भी इन से अछूता नहीं है. ऐसे व्यक्ति आस्था के कारण कम, धार्मिक भय की वजह से ज्यादा इस तरह की बेढंगी परंपराओं को छोड़ नहीं रहे हैं. धर्म का भय दिखा कर पंडेपुरोहित के जिंदा रहते तो लूटखसोट करते ही हैं,

मरने के बाद भी उस के परिजनों से कर्मकांड के नाम पर पैसा झटकने में पीछे नहीं रहते. यही कारण है कि जीवनभर उपेक्षा के शिकार रहे आदमी को भले ही सुखसुविधाएं नसीब न हुई हों लेकिन मरने के बाद होने वाले कर्मकांडों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार के कर्म के साथ तेरहवीं, छ:मासी, वार्षिकी और तीसरे वर्ष श्राद्ध कर्म के बाद भी पंडेपुजारी उन का पीछा नहीं छोड़ते. मृतात्मा के तरणतारण के नाम पर अंधविश्वासी क्रियाकर्म कराने वाले धर्म के ठेकेदार व्यक्ति की गाढ़ी कमाई का पैसा हड़पने को तत्पर रहते हैं. अंतिम संस्कार का पाखंड जीवन का आखिरी सत्य मृत्यु है. मृत व्यक्ति के शरीर को नष्ट करने के लिए अंतिम संस्कार किया जाता है. देश के सभी भागों में अलगअलग परंपराएं और रीतिरिवाज इस के लिए प्रचलित हैं. इन परंपराओं को रोकने के बजाय नएनए रूपों में आगे बढ़ाने में शिक्षित मध्यवर्ग आगे है.

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अंतिमयात्रा में अर्थी के ऊपर मखाने आदि के साथ पैसे फेंकने की बेहूदा परंपरा आज भी है. पंडित मृतव्यक्ति के अंतिम संस्कार के पूर्व पिंडदान तथा अंतिम संस्कार के समय भी मंत्र पढ़ कर अनावश्यक क्रियाकर्म करा कर धन ऐंठ रहे हैं. अंतिम संस्कार के तीसरे दिन किसी नदी, सरोवर में चिता की राख के विसर्जन के अवसर पर भी ये पंडे हजारों रुपए दानदक्षिणा के नाम पर वसूलते हैं. पंडित 7 दिनों तक गरुड़पुराण का पाठ करवाते हैं कि इसे सुनने से मरने वाले की आत्मा स्वर्ग पहुंच जाती है. त्रिवेणी संगम : आस्था के नाम पर लूट देश के अनेक भागों से मृत व्यक्ति की अस्थियां गंगा नदी में विसर्जन के लिए लाई जाती हैं.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से आने वाले लोगों के लिए प्रयाग नगरी इलाहाबाद लूट का ऐसा गढ़ है जहां पर अपनेअपने झंडे गाड़ कर बैठे पंडे आने वाले लोगों की 7 पीढि़यों का हिसाबकिताब रखते हैं. रेलवे स्टेशन पर मुंडे़ सिर वाले मुसाफिरों को देख कर इन पंडों के एजेंट उन पर मक्खी की तरह टूटते हैं. उन के रुकने की व्यवस्था वे बड़े आदरसत्कार के साथ करते हैं कि लोग इन के मोहजाल में फंस जाते हैं. जब गंगा तट प्रयाग पर वे पहुंचते हैं तो विभिन्न प्रकार के कर्मकांडों के लिए खुली बोली लगती है. आप की दक्षिणा के हिसाब से पूजनपाठ की पद्धति अलगअलग होती है. गौदान, अनाज का दान और पंडितों के भोजन के नाम पर दुख और अवसाद से ग्रसित व्यक्ति से ये पंडे काफी रुपए निकलवा लेते हैं. लूट का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता.

दशगात्र और पूजनपाठ के बाद जब गंगा, यमुना, सरस्वती नदियों के त्रिवेणी संगम पर लोग अस्थियां विसर्जन के लिए जाते हैं तो वहां नौका घाट के ठेकेदार संगम पर ले जाने तथा लकड़ी से बने आसनों पर नहाने व दानदक्षिणा गंगाजी में छोड़ने के नाम पर पैसा वसूलते हैं. मृत्युभोज और श्राद्धकर्म गंगा नदी में अस्थियों के विसर्जन के बाद तेरहवें दिन पंडित गंगापूजन कराते हैं, जिस में पंडित के उपयोग के लिए पहनने के कपड़े, बरतन, पलंग, जूता, छाता, टौर्च सोना और चांदी से बनी मूर्ति के अलावा बहुत सारी वस्तुएं दान की जाती हैं. 13 ब्राह्मणों को बरतनों के साथ कीमती उपहार व अन्य ब्राह्मणों को दान आदि दे कर भोजन कराया जाता है. आजकल सामाजिक संगठनों द्वारा समाजसुधार के नाम पर मृत्युभोज न कर श्रद्धाजंलि सभा आयोजित करने का ढोल जरूर पीटा जा रहा है परंतु मृत्युभोज को पूरी तरह से बंद करने का साहस वे नहीं दिखा पाए हैं. धरती पर कुढ़कुढ़ कर जीने वाले को बैकुंठ पहुंचाने के लिए तथाकथित पंडे छ: मासी और वार्षिक श्राद्ध करने की सलाह यजमानों को देते हैं.

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इन सब कार्यक्रमों में चावल, जौ, तिल के पिंड बना कर पूजनपाठ का ढोंग किया जाता है. पंडितों के साथ रिश्तेदारों को भोजन कराने का नियम बता कर यजमान की जेब ढीली करने का गोरखधंधा खूब फलफूल रहा है. हिंदी मास की जिस तिथि को किसी व्यक्ति का निधन होता है, उस की मृत्यु के तीसरे वर्ष पितृपक्ष में उसी तिथि को श्राद्ध कर्म किया जाता है जिस में मुंडन, पिंडदान, अन्नदान, छायादान के साथ ब्राह्मण भोजन और मेहमानों को भोज दिया जाता है. गया में होता है पिंडदान मृत्यु के तीसरे वर्ष से पितृ मिलन कर पुरखों को पानी देने की परंपरा है. जीतेजी 2 वक्त की रोटी को मुहताज रहे पुरखों को मरने के बाद भोग लगाने का ढकोसला कर पितृपक्ष में विभिन्न प्रकार के पकवानों का आनंद लिया जाता है.

कामकाजी व्यक्ति जब इन कर्मकांडों के प्रति अपनी अरुचि दिखाता है तो धर्म का भय बता कर ये पंडे गया तीर्थ में पिंडदान का विधान बताते हैं. बिहार के गया में पितृपक्ष के 15 दिनों तक मेला लगता है जिस में सरकार तो इन पंडों को लूटने का लाइसैंस भी प्रदान करती है. मोटी दानदक्षिणा ले कर ये पंडित फलगू नदी के तट पर पिंडदान करवा कर लोगों को बताते हैं कि यहां पिंडदान करने से मरने वाला जन्ममृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाता है. गया में बने मठमंदिरों पर जाने वाले श्रृद्धालुओं को चढ़ोत्री के नाम पर खुलेआम लूटा जाता है.

समाज में फैले अंधविश्वास के पीछे अज्ञानता के अलावा, अज्ञात भय, अनिश्चित भविष्य, समस्या का सही समाधान होते हुए भी लोगों की पहुंच से बाहर होना, समाज से कट जाने का भय, परंपराओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति, धर्म से डर और ईश्वर के प्रति अंधश्रद्धा, धर्मगुरुओं या मठाधीशों के प्रति अंधविश्वास जैसे कई कारण होते हैं. किसी व्यक्ति के मरने के बाद किए जाने जाने वाले ये धर्मकर्म परिवार की आर्थिक उन्नति में तो बाधा हैं ही, साथ ही, समाज में अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैं. जरूरतमंद व्यक्ति को मदद करने के बजाय समाज के ऊंचे आसन पर बैठे पंडेपुजारियों को दान के नाम पर रुपए लुटाने की ये परंपराएं समाज को खोखला ही कर रही हैं. आर्थिक संपन्नता के साथ समाज में अच्छे विचारों, खुली आंखों से सच देखनेसम झने और वैचारिक संपन्नता की आज ज्यादा आवश्यकता है, तभी समाज में व्याप्त कुप्रथाओं को रोका जा सकता है.

Family Story in Hindi : प्यार का मूल्य – भाग 1

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

धंधा न करने की जिद पर गीता इतनी मार सह चुकी थी कि उस का पोरपोर हर क्षण टीसता रहता था. कई दिनों से उसे भरपेट अन्न नहीं मिला था, सिर्फ इतना मिलता कि वह मर न सके, तो भी धंधे में ?ांकी जाती रही. अधमरी सी.

बीच सड़क पर बदहवास सी एक युवती स्कूटर सवार से टकरातेटकराते बची और पीछे से कुछ लोग उसे पकड़ने के लिए दौड़े आ रहे थे. वह उन्हें देख कर दमभर चिल्लाई, ‘‘भैया, मु?ो इन गुंडों से बचा लो. ये मु?ा से ‘धंधा’ करवाते हैं. मु?ो पुलिस स्टेशन ले चलो, भैया. तुम्हारा यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूंगी.’’

इतना कह कर वह जबरन उस के स्कूटर पर बैठ गई. तभी उन गुंडों में से एक उस की बांह पकड़ कर खींचते हुए बोला, ‘‘उतर, कमीनी, नहीं तो जान  से मार दूंगा,’’ फिर वह उस स्कूटर सवार से बोला, ‘‘यह पागल है, इसे उतार दो.’’ ‘‘भैया, स्कूटर दौड़ा लो. न मैं पागल हूं, न बीमार. ये लोग मु?ा से जबरन धंधा करवाते हैं,’’ युवती गुंडों की ओर संकेत करती बोली.

वह घबराहट में रोती हुई चिल्लाए जा रही थी और वे गुंडे उसे घेरने को आतुर थे. तभी स्कूटर सवार युवक ने उस युवती को पकड़ कर खींचने वाले गुंडे को भरपूर लात मारी, जिस से वह लड़खड़ा कर दूर जा गिरा. जब तक वह गुंडा संभलता और उस के साथी उस स्कूटर सवार पर ?ापटते, स्कूटर सवार स्कूटर की स्पीड बढ़ा कर आगे बढ़ गया. जब तक वह दिखता रहा, गुंडे उस का पीछा करते रहे. फिर स्कूटर सवार कहां गुम हो गया वे जान न सके और हाथ मलते, गाली बकते लौट गए.

इधर, संकरी गलियां पार करता वह युवक सीधा कोतवाली पहुंच कर ही रुका. फिर मुड़ कर बोला, ‘‘लो लड़की, कोतवाली आ गई. दाईं ओर औफिस में थानेदार साहब बैठे हैं. मैं तो ?ां?ाट में फंसना नहीं चाहता. मेरी पत्नी बीमार है, उसी की दवा ले कर लौट रहा था,’’ वह दवा दिखाते हुए आगे बोला, ‘‘यह देखो, ये रखी हैं. घर पर छोटेछोटे 2 बच्चे अकेले हैं. औफिस से लौट कर और जाते समय उन्हें देखना पड़ता है. बस, पुलिस को तुम यह बता देना कि मुंहबोला एक भाई उन दुष्टों से बचा कर यहां छोड़ गया है. अच्छा, मैं चलता हूं,’’ और वह स्कूटर की स्पीड बढ़ा कर चलता बना.

वह युवती अपनी गीली आंखें पोंछती अंदर चल दी जहां कुछ बड़े अधिकारी कुरसियों पर बैठे थे. यद्यपि उस का मन कह रहा था कि वह पुलिस के ?ामेले से भाग छूटे. पता नहीं वे कमबख्त उसे पागल करार दे कर फिर न हथियाने की चेष्टा करें, मगर वह इतने बड़े नगर में कहां सुरक्षा ढूंढ़े? वह खड़ीखड़ी सोच ही रही थी कि तभी एक सिपाही की दृष्टि उस पर पड़ गई.

‘‘लड़की, कौन हो तुम? किस  से मिलना है?’’ सिपाही उसे हड़काते  हुए बोला. ‘‘जी, मैं थानेदार साहब से मिलना चाहती हूं. एक मुसीबतजदा हूं. कहां  हैं वे?’’‘‘वह क्या सामने बैठे हैं,’’ वह इशारा कर बोला और उसे ले कर थानेदार के सामने जा खड़ा हुआ, ‘‘साहब, यह लड़की आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘क्यों? क्या बात है? घर से भाग कर आई है क्या?’’ कहते हुए थानेदार ने नजर उठा कर उसे भरपूर दृष्टि से देखा, फिर सिपाही से बोला, ‘‘कौन  है यह?’’‘‘यह तो मैं भी नहीं जानता, पर आप से मिलना चाहती थी, सो मैं ले आया.’’ ‘‘कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? क्या बात है?’’ थानेदार ने युवती से पूछा.

‘‘साहब, मैं गीता हूं और गुंडों के चंगुल से भाग कर आई हूं. वहां मु?ा जैसी ही 8-10 लड़कियां और भी हैं जो बदमाशों द्वारा धंधा करने को मजबूर की जा रही हैं और तैयार न होने पर उन पर कहर बरपाया जाता है. मु?ो और उन भोलीभाली लड़कियों को बचा लो साहब. मेरे वहां से भागते ही वे लोग उन सब को तहखानों में धकेल देंगे या कहीं और भेज देंगे.’’

फिर उस ने अपने यहां तक आने की पूरी दास्तान थानेदार को सुना डाली, साथ ही उस स्कूटर सवार युवक की जो पुलिस के ?ामेले में न पड़ने के चक्कर में उसे यहां पहुंचा कर अपना नामपता बताए बिना चलता बना था. ‘‘तुम्हें वह जगह पता है जहां से तुम भागी थीं? कितने दिन हुए तुम्हें आए? कहां से आईर् हो और कैसे इन दुष्टों के चंगुल में फंस गईं?’’

‘‘साहब, पहले आप उन लड़कियों की सोचिए. वे भी मेरी तरह ही भागने को आतुर हैं. उस गंदगी में भला कौन रहना चाहेगा?’’‘‘सड़क के उस पार पंजाब शाकाहारी नाम से एक बड़ा होटल है. वह कहने को शाकाहारी है पर वहां जिंदा लाशों का मांस परोसा जाता है. मु?ो आए तो अभी कुल 5 दिन ही हुए हैं, परंतु मैं ने साथ की लड़कियों से सारा भेद जान लिया है. मैं यहां बैठी हूं और आप जब तक लौट कर न आएंगे, मैं यहीं बैठी रहूंगी.’’

इंस्पैक्टर फौरन दबिश देने की सोच रहा था. उस ने आननफानन सशस्त्र जवानों को जीप में सवार किया और बताए ठिकाने की ओर चल दिया. कई दिनों की मार, प्रताड़ना और गंदगी से निकल कर गीता मुक्ति की सांस ले रही थी. चायनाश्ते ने उस के मृत जैसे तन में जान डाल दी. अब आगे वह कहां जाएगी, कहां रहेगी? यह सब सोचने लगी.

वह तो भला हो उस थानेदार का जिस ने उसे चायनाश्ता करा दिया था, जिस से उसे क्षणक्षण आते चक्करों से कुछ तो राहत मिली थी परंतु भूख से कुलबुलाती आंतें उसे चैन नहीं लेने दे रही थीं. वह दोनों घुटने पेट में दबा कर वहीं जमीन पर लेट गई. फिर कब आंख लग गई, जान न सकी.

आधी रात बाद अचानक शोर सुन कर गीता की नींद खुली. देखा तो उस के आसपास वही लड़कियां खड़ी नजर आईं. बाहर धंधा कराने वाले कई मर्द और औरत भी खड़े थे जो पुलिस के डंडों से कुटपिट रहे थे. साथ ही वह क्रूर, बेदर्द औरत शकीला भी थी जो मासूम लड़कियों से धंधा कराती थी और न मारने पर शिकारी कुत्ते जैसे अपने खूंखार गुंडे छोड़ देती थी.

‘‘गीता देख, हम सब छूट आईं  उस गंदगी से,’’ उन लड़कियों में से  एक बोली.‘‘सब आ गईं या कुछ रह गईं?’’ कहती गीता उठ कर बैठ गई.‘‘सब आ गईं गीता, यह तेरी हिम्मत और चतुराई के कारण हो पाया. अगर पुलिस थोड़ी भी देर करती तो वे लोग हमें जबरन इधरउधर धकेल देते. वे तो सोच ही नहीं पा रहे थे कि पुलिस इतनी जल्दी आ धमकेगी. तेरा यह एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

‘‘मैं तो 5 वर्ष में 5 बार इन के चंगुल से भागने की कोशिश कर चुकी और पकड़े जाने पर हाथपांव तुड़वा चुकी,’’ पुष्पा जैसे खुद पर हुए जुल्मों को याद कर सिहर उठी.‘‘कोशिश तो हम ने भी की, परंतु कामयाब नहीं हो पाए, पर हम  जाएंगे कहां? और अब होगा क्या?’’ शांति बोली. ‘‘नारी संरक्षण गृह भेजेगी पुलिस. सरकार ऐसी औरतों को ऐसी ही जगह भेजती है,’’ गोली बोली.

आधी रात बीत चुकी थी, लिहाजा, सब को एक ही कमरे में बैठा दिया गया.

 

Family Story in Hindi : प्यार का मूल्य

Family Story in Hindi : ब्रदरहुड

लेखक- यदु जोशी

‘गढ़देशी’ संपत्ति के चक्कर में कितने ही परिवार आपस में लड़ झगड़ कर बिखर गए और दोष समय को देते रहे. ऐसे ही प्रवीण और नवीन थे तो सगे भाई लेकिन रिश्ता ऐसा कि दुश्मन भी शरमा जाए, रार ऐसी कि एकदूसरे को फूटी आंख न सुहाएं. फिर एक दिन… कहते हैं समय राजा को रंक, रंक को राजा बना देता है. कभी यह अधूरा सच लगता है, जब हम गलतियां करते हैं तब करनी को समय से जोड़ देते हैं. इस कहानी के किरदारों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. 2 सगे भाई एकदूसरे के दुश्मन बन गए. जब तक मांबाप थे, रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा का शहर में बड़ा नाम था. रैस्टोरैंट खुलने से देररात तक ग्राहकों का तांता लगा रहता. फुरसत ही न मिलती. पैसों की ऐसी बरसात मानो एक ही जगह बादल फट रहे हों.

समय हमेशा एक सा नहीं रहता. करवटें बदलने लगा. बाप का साया सिर से क्या उठा, भाइयों में प्रौपर्टी को ले कर विवाद शुरू हो गया. किसी तरह जमापूंजी का बंटवारा हो गया लेकिन पेंच रैस्टोरैंट को ले कर फंस गया. आपस में खींचतान चलती रही. घर में स्त्रियां झगड़ती रहीं, बाहर दोनों भाई. एक कहता, मैं लूंगा, दूसरा कहता मैं. खबर को पंख लगे. उधर रिश्ते के मामा नेमीचंद के कान खड़े हो गए. बिना विलंब किए वह अपनी पत्नी और बड़े बेटे को ले कर उन के घर पहुंच गया. बड़ी चतुराई से उस ने ज्ञानी व्यक्ति की तरह दोनों भाइयों, उन की पत्नियों को घंटों आध्यात्म की बातें सुनाईं. सुखदुख पर लंबा प्रवचन दिया. जब देखा कि सभी उस की बातों में रुचि ले रहे हैं, तब वह मतलब की बात पर आया, ‘‘आपस में प्रेमभाव बनाए रखो. जिंदगी की यही सब से बड़ी पूंजी है. रैस्टोरैंट तो बाद की चीज है.’’ नवीन ने चिंता जताई,

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‘‘हमारी समस्या यह है कि इसे बेचेंगे, तो लोग थूथू करेंगे.’’ ‘‘थूथू पहले ही क्या कम हो रही है,’’ नेमीचंद सम झाते हुए बोला, ‘‘रैस्टोरैंट ही सारे फसाद की जड़ है. यदि इसे किसी बाहरी को बेचोगे तो बिरादरी के बीच रहीसही नाक भी कट जाएगी.’’ सभी सोच में पड़ गए. ‘‘रैस्टोरैंट एक है. हक दोनों का है. पहले तो मिल कर चलाओ. नहीं चलाना चाहते तो मैं खरीदने की कोशिश कर सकता हूं. समाज यही कहेगा कि रिश्तेदारी में रैस्टोरैंट बिका है…’’ नेमीचंद का शातिर दिमाग चालें चल रहा था. उसे पता था कि सुलह तो होगी नहीं. रैस्टोरैंट दोनों ही रखना चाहते हैं, यही उन की समस्या है. रैस्टोरैंट बेचना इन की मजबूरी है और उसे सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए. आखिरकार, उस की कूटनीति सफल हुई. दोनों भाई रैस्टोरैंट उसे बेचने को राजी हो गए. नेमीचंद ने सप्ताहभर में ही जमाजमाया रैस्टोरैंट 2 करोड़ रुपए में खरीद लिया. बड़े भाई प्रवीण और छोटे भाई नवीन के बीच मसला हल हो गया,

किंतु मन में कड़वाहट बढ़ गई. नेमीचंद ने ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा’ के बोर्ड के नीचे पुराना नाम बदल कर प्रो. नेमीचंद एंड संस लिखवा दिया. रैस्टोरैंट के पुराने स्टाफ से ले कर फर्नीचर, काउंटर कुछ नहीं बदला. एकमात्र मालिकाना हक बदल गया था. दोनों भाई जब भी रैस्टोरैंट के पास से गुजरते, खुद को ठगा महसूस करते. अब दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. दोनों के परिवार पुश्तैनी मकानों में अलगअलग रहा करते थे. दोनों के प्रवेशद्वार अगलबगल थे. बरामदे जुड़े हुए थे, लेकिन बीच में ऊंची दीवार खड़ी थी. दोनों भाइयों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न देखतीं. बच्चे सम झदार थे, मगर मजबूर. भाइयों के बीच कटुता इतनी थी कि एक बाहर निकलता तो दूसरा उस के दूर जाने का इंतजार करता. सभी एकदूसरे की शक्ल देखना पसंद न करते.

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रैस्टोरैंट खरीदने के बाद नेमीचंद के दर्शन दुर्लभ हो गए. पहले कुशलक्षेम पूछ लिया करता था. धीरेधीरे नेमीचंद उन की कहानी से गायब ही हो गया. लेदे कर एक बुजुर्ग थे गोकुल प्रसाद. उन के पारिवारिक मित्र थे. जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो बड़े दुखी हुए. उसी दिन वे दोनों से मिलने उन के घर चले आए. पहुंचते ही उन्होंने दोनों को एकांत में बुला कर अपनी नाराजगी जताई. फिर बैठ कर सम झाया, ‘‘इस झगड़े में कितना नुकसान हुआ, तुम लोग अच्छी तरह जानते हो. नेमीचंद ने चालाकी की है लेकिन इस में सारा दोष तुम लोगों का है.’’ ‘‘गलती हो गई दादा, रैस्टोरैंट हमारे भविष्य में न था, सो चला गया,’’ प्रवीण पीडि़त स्वर में बोला और दोनों हथेलियों से चेहरा ढक लिया. ‘‘मूर्खता करते हो, दोष भविष्य और समय पर डालते हो,’’ गोकुल प्रसाद ने निराश हो कर लंबी सांस ली, ‘‘सारे शहर में कितनी साख थी रैस्टोरैंट की. खूनपसीने से सींचा था उसे तुम्हारे बापदादा ने.’’ नवीन बेचैन हो गया,

‘‘छोडि़ए, अब जी जलता है मेरा.’’ ‘‘रुपया है तुम्हारे पास. अब सम झदारी दिखाओ. दोनों भाई अलगअलग रैस्टोरैंट खोलो. इस की सम झ तुम लोग रखते हो क्योंकि यह धंधा तुम्हारा पुश्तैनी है.’’ प्रवीण को बात जम गई, ‘‘सब ठीक है. पर एक ही इलाके में पहले से ही एक रैस्टोरैंट है?’’ ‘‘खानदान का नाम भी कुछ माने रखता है,’’ गोकुल प्रसाद ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिता का दोस्त हूं, गलत नहीं कहूंगा. खूब चलेगा.’’ ‘‘मैं आप की बात मान लेता हूं,’’ प्रवीण ने कहा, ‘‘इस से भी पूछ लो. इसे रैस्टोरैंट खोलना है या नहीं.’’ नवीन भड़क उठा, ‘‘क्या सम झते हो, तुम खोलो और मैं हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूं? ठीक तुम्हारे ही सामने खोलूंगा, देखना.’’ ‘‘क्या हो गया दोनों को? भाई हो कि क्या हो? इतना तो दुश्मन भी नहीं लड़ते,’’ गोकुल प्रसाद झल्लाए और उठने लगे. ‘‘रुकिए दादा. भोजन कर के जाना,’’ प्रवीण ने आग्रह किया. ‘‘आज नहीं. जब दोनों के मन मिलेंगे तब भोजन जरूर करूंगा.’’ गोकुल प्रसाद ने अपनी छड़ी उठाई और अपने घर के लिए चल दिए. दोनों को आइडिया सही लगा.

घर में पत्नियों की राय ली गई और जल्दी ही किराए की जगह पर रैस्टोरैंट खोल दिए. संयोग ऐसा बना कि दोनों को रैस्टोरैंट के लिए जगह आमनेसामने ही मिली. दोनों रैस्टोरैंट चल पड़े. कमाई पहले जैसी तो नहीं थी, तो कम भी न थी. रुपया आने लगा. लेकिन कटुता नहीं गई. दोनों में प्रतिस्पर्धा भी जम कर होने लगी. तू डालडाल, मैं पातपात वाली बात हो गई. दोनों भाइयों में बड़े का रैस्टोरैंट ज्यादा ग्राहक खींच रहा था. इस बात को ले कर नवीन को खासी परेशानी थी. आखिरकार उस ने एक बोर्ड टांग दिया- ‘लंच और डिनर- 100 रुपए मात्र.’ प्रवीण ने भी देखादेखी रेट गिरा दिया, ‘लंच और डिनर- 80 रुपए मात्र.’ ग्राहक को यही सब चाहिए. शहर के लोग लड़ाई का मजा ले रहे थे. मालिकों में तकरार बनी रहे और अपना फायदा होता रहे. नवीन भी चुप नहीं बैठा रहा. कुछ महीनों बाद ही उस ने फिर रेट 75 रुपए कर दिया.

मजबूरन प्रवीण को 60 रुपए पर आना पड़ा. इस तनातनी में 6-7 महीने गुजर गए और आखिर में दोनों रैस्टोरैंट के शटर गिए गए. प्रवीण से सदमा बरदाश्त न हो पाया, उसे एक दिन पक्षाघात हो गया. पासपड़ोसी समय रहते उसे अस्पताल ले गए. आईसीयू में एक सप्ताह बीता, फिर हालत में सुधार दिखा. मोटी रकम इलाज में खर्च हो गई. घर आया, शरीर में जान आने लगी लेकिन आर्थिक तंगी ने उसे मानसिक रूप से बीमार कर दिया. घर की माली हालत अब पहले जैसी न थी. पहले ही झगड़े में काफी नुकसान हो गया था. नवीन की एक बेटी थी मनु. जब भी उसे अकेला पाती, मिलने चली आती. कई दिनों के बाद बरसात आज थम गई थी. आसमान साफ था. प्रवीण स्टिक के सहारे लौन में टहल रहा था. मनु ने उसे देखा तो गेट खोल कर भीतर आ गई. उस ने स्नेह से मनु को देखा और बड़ी उम्मीद से कहा, ‘‘बेटी, पापा से कहना कि ताऊजी एक जरूरी काम से मिलना चाहते हैं.’’ मनु ने हां में सिर हिलाया और पैर छू कर गेट पर खड़ी स्कूटी को फुरती से स्टार्ट किया और कालेज के लिए निकल गई. धूप ढलने लगी, तब मनु कालेज से लौटी. नवीन तब ड्राइंगरूम में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. मनु ने किताबें रैक पर रखीं और पापा के सामने वाले सोफे पर जा बैठी. ‘‘पापा, आप कल दिनभर कहां थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘ऐसे ही पूछ रही हूं,’’ मनु ने सोफे पर बैठे हुए आगे की ओर शरीर झुकाते हुए कहा. ‘‘महल्ले में एक बुजुर्ग की डैथ हो गई थी, इसलिए जाना पड़ा,’’ नवीन ने बताया. ‘‘आप को वहां जाने की जरूरत क्या थी? उन के पासपड़ोसी, रिलेटिव्स तो रहे ही होंगे,’’ मनु ने प्रश्न किया. ‘‘कैसी बेवकूफों वाली बातें कर रही हो. समाज में जीना है तो सब के सुखदुख में शामिल होना चाहिए,’’ नवीन ने सम झाया. ‘‘दैट्स करैक्ट. यही सुनना चाहती थी मैं. जब ताऊजी बीमार पड़े तब यह बात आप की सम झ में क्यों नहीं आई?’’ नवीन को काटो तो खून नहीं. भौंचक्का सा मनु को देखता ही रह गया वह. ‘‘आप और मम्मी ताऊजी को देखने नहीं गए. मैं गई थी सीधे कालेज से, लगातार 3 दिन. मनु कहती रही, ‘‘रौकी भैया भी अस्पताल में थे. मैं ने उन्हें घर चलने को कहा तो बोले, ‘यहां से सीधे होस्टल जाऊंगा.

घर अब रहने लायक नहीं रहा.’’’ ‘‘यह सब मु झे क्यों सुना रही हो?’’ नवीन ने प्रश्न किया. ‘‘इसलिए कि ताऊजी कोई पराए नहीं हैं. आज उन्हें आप की जरूरत है. मिलना चाहते हैं आप से.’’ नवीन ठगा सा रह गया. इस उम्र तक वह जो सम झ न सका, वह छोटी सी उम्र में उसे सिखा रही है. मनु उठी और पापा के गले से लग कर बोली, ‘‘समाज के लिए नहीं, रिश्ते निभाने के लिए ताऊजी से मिलिए. आज और अभी.’’ उधर प्रवीण, नवीन से मिलने को बेचैन था. वह बारबार कलाई घड़ी की सुइयों पर नजरें टिका देता. कभी बरामदे से नीचे मेन गेट की ओर देखने लगता. अंधेरा बढ़ने लगा. रोशनी में कीटपतंगे सिर के ऊपर मंडराने लगे. थक कर वह उठने को हुआ, तभी नवीन आते हुए दिखा. उस ने इशारे से सामने की चेयर पर बैठने को कहा. नवीन कुछ देर असहज खड़ा रहा. मस्तिष्क में मनु की बातें रहरह कर दिमाग में आ रही थीं. वह आगे बढ़ा और चेयर को खींच कर अनमना सा बैठ गया. दोनों बहुत देर तक खामोश रहे.

आखिरकार नवीन ने औपचारिकतावश पूछा, ‘‘तबीयत ठीक है अब?’’ उस ने ‘हां’ कहते हुए असल मुद्दे की बात शुरू कर दी, ‘‘मु झे पैसों की सख्त जरूरत है. मैं ने सोचा है कि मेरे हिस्से का मकान कोई और खरीदे, उस से अच्छा, तु झे बेच दूं. जितना भी देगा, मैं ले लूंगा.’’ नवीन खामोश बैठा रहा. ‘‘सुन रहा है मैं क्या कह रहा हूं?’’ उस ने जोर दे कर कहा. ‘‘सुन रहा हूं, सोच भी रहा हूं. किस बात का झगड़ा था जो हम पर ऐसी नौबत आई. हमारा खून तो एक था, फिर क्यों दूसरों के बहकावे में आए.’’ ‘‘अब पछता कर क्या फायदा? खेत तो चिडि़या कब की चुग गई. मैं ऐसी हालत में न जाने कब तक जिऊंगा. तु झ से दुश्मनी ले कर जाना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने उदास हो कर बरामदे की छत को ताकते हुए कहा. ‘‘तुम तो बड़े थे, बड़े का फर्ज नहीं निभा पाए. मैं तो छोटा था,’’ नवीन ने उखड़े स्वर में कहा, फिर चश्मा उतार कर रूमाल से नम आंखें साफ करने लगा. ‘‘बड़ा हूं, तो क्या हुआ. छोटे का कोई फर्ज नहीं बनता? खैर छोड़, जो हुआ सो हुआ. अब बता, मेरा हिस्सा खरीदेगा?’’ ‘‘नहीं,’’ नवीन ने सपाट सा जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हुआ? रैस्टोरैंट बेच कर हम से गलती हो चुकी है. अब मेरी मजबूरी सम झ. भले ही रुपए किस्तों में देना. मैं अब किसी और को बचाखुचा जमीर बेचना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने फिर दुखी हो कर वजह बताई, ‘‘रौकी की इंजीनियरिंग पूरी हो जाए. यह मेरी अंतिम ख्वाहिश है. शरीर ने साथ दिया तो कहीं किराए पर घर ले कर छोटामोटा धंधा शुरू कर लूंगा.’’ ‘‘हम ने आपस में जंग लड़ी. तुम भी हारे, मैं भी हारा. नुकसान दोनों का हुआ, तो भरपाई भी दोनों को ही करनी है.’’ ‘‘तेरी मंशा क्या है, मैं नहीं जानता. मु झे इतना पता है कि मु झ में अब लड़ने की ताकत नहीं है और लड़ना भी नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने टूटे स्वर में कहा. ‘‘मैं लड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कह रहा हूं,’’ नवीन ने कुछ देर सोचते हुए जोर दे कर अपनी बात रखी, ‘‘हम लोग मिल कर फिर से रैस्टोरैंट खोलेंगे. अब हम बेचेंगे नहीं, खरीदेंगे.’’ नवीन उठते हुए बोला, ‘‘आज मनु मेरी आंखें न खोलती तो पुरखों की एक और निशानी हाथ से निकल जाती.

’’ प्रवीण आश्चर्य से नवीन को देखता रह गया. उस की आंखें एकाएक बरसने लगीं. गिलेशिकवे खरपतवार की तरह दूर बहते चले गए. ‘‘मकान बेचने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. बिजनैस के लायक पैसा है मेरे पास,’’ जातेजाते नवीन कहता गया. इस बात को लगभग 4 मास हो गए. रैस्टोरैंट के शुभारंभ की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इश्तिहार बांटे जा चुके थे. दशहरा का दिन था. रैस्टोरैंट रंगीन फूलों से बेहद करीने से सजा था. शहर के व्यस्ततम इलाके में इस से व्यवस्थित और आकर्षक रैस्टोरैंट दूसरा न था. परिचित लोग दोनों भाइयों को बधाई दे रहे थे. घर की बहुएं वयोवृद्ध गोकुल प्रसाद से उद्घाटन की रस्म निभाने के लिए निवेदन कर रही थीं. गोकुल प्रसाद कोई सगेसंबंधी न थे. पारिवारिक मित्र थे. एक मित्र के नाते उन के स्नेह और समर्पण पर सभी गौरवान्वित हो रहे थे. मनु सितारों जड़े आसमानी लहंगे में सजीधजी आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. रौकी, प्रवीण और नवीन के बीच खड़ा तसवीरें खिंचवा रहा था. सड़क पर गुजरते हुए लोग रैस्टोरैंट के बाहर चमचमाते सुनहरे बोर्ड की ओर मुड़मुड़ कर देख रहे थे, जिस पर लिखा था- ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा ब्रदरहुड.’’

दस्तक – भाग 3 : नेहा किस बात को लेकर गहरी सोच में डूबी थी

“शिवम, कल मम्मी का फोन आया था,” औफिस में लंचटाइम में नेहा ने शिवम से कहा. “अच्छा.””मैं, अब शादी को और नहीं टाल सकती.” “तो प्रौब्लम क्या है? बता दो.”

 

“तुम्हें लगता है कि कोई प्रौब्लम नहीं है?”हां, नहीं है. अंकल-आंटी, दोनों मुझे पसंद करते है,” खाना खाते हुए सहजता से शिवम बोला. खाने का शौकीन शिवम अपनी प्लेट में झुका हुआ खाने का भरपूर मजा ले रहा था. वह बोलना चाहती थी कि ‘तुम नहीं समझोगे.’ लेकिन ऐसा बोल कर वह शिवम के खाने के आनंद को खत्म नहीं करना चाहती थी, इसलिये वह चुप हो गई.

 

“तुम उन्हें बता दो. अगर कुछ होगा, तो मैं संभाल लूंगा,” नेहा की हथेलियों को अपने हाथों में ले शिवम ने गम्भीर स्वर में कहा. शिवम सब समझ रहा था. लेकिन शादी के बारे में सोचतेसोचते नेहा की आंखें नम हो गईं.    वह दिन नेहा कैसे भूल सकती है जब घर पहुंचते ही छुटकी ने चुगली कर दी कि एक परिवार नेहा को देखने दिल्ली से आ रहा है.

 

‘मम्मी, यह क्या?’ नेहा जरा गुस्से से बोली. ‘चिंता मत कर, तुझे कोई नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. लड़का हैदराबाद में ही जौब करता है. वे लोग प्रगतिवादी विचारों हैं,” मम्मी लड़के वालों का गुणगान करती हुई बोली. ‘मैं ने कब कहा कि परिवार या लड़के में कोई कमी है, लेकिन…’ कसमसाती हुई नेहा बोली.

 

‘लेकिन?’ एक प्रश्वाचक दृष्टि रमा ने नेहा पर डाली. ‘मम्मी, मैं एक लड़के को पसंद करती हूं,’ नेहा के मुंह से निकल गया. ‘कौन?’ ‘शिवम.’

 

‘कौन शिवम?’ रमा ने चौंकते हुए पूछा. ‘मनोज अंकल का बेटा,’ धीमी आवाज में नेहा ने कहा. ‘क्या…तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया?’ बौखलाई सी रमा बोली. रमा को नेहा का बारबार विवाह के लिए मना करने का कारण समझ में आने लगा. रमा अपना आपा खोते हुए आक्रोशित स्वर में गुर्राई, ‘बेवकूफ़ लड़की, इसीलिए शादी न करने के बहाने बना रही थी. पता भी है वह कौन सी जाति का है?’

 

दोनों बहनें और पापा, उन की तीखी बहस सुन चकराए से, अपना काम छोड़ तेजी से लिविंगरूम में पहुंच गए थे. ‘देखा, आप की बेटी क्या गुल खिला रही है?’ पति को देख रमा ने तेज आवाज में कहा .  सारी बातें सुन देवेंद्र सिंह की मुखमुद्रा कठोर होने लगी, शरीर क्रोध से कंपकंपाने लगा.

‘यह लड़का आस्तीन का साँप निकला. इतना भरोसा किया था उस पर, और वह हमें ही डसने चला. अपनी औकात भी भूल गया. सड़क में घसीट देता उस को अगर उस का बाप मेरा बिजनैस पार्टनर न होता,’ मुट्ठियां भींचते हुए देवेंद्र सिंह ने इतने ऊंचे स्वर में कहा कि घर की दीवारें तक थरथरा गईं. पलभर के लिए सभी हतप्रभ से हो कर रह गए.

 

‘ऐ लड़की, कान खोल के सुन,’ पापा की गरजती आवाज से नेहा का पूरा शरीर हिल गया, चेहरे का रंग उड़ गया. ‘जी,’ थरथराते स्वर में नेहा बोली.‘कल लड़के वाले आ रहे हैं. तेरी शादी वहीं होगी जहां हम चाहेंगे,’ देवेंद्र सिंह का निर्णायक स्वर कमरे में गूंजा और उस के बाद सहमी हुई सी निस्तब्ध्ता सब जगह पसर गई. कहीं कोई गुंजाइश शेष नहीं रह गई थी.

 

‘मैं तो पहले ही कहती थी कि इतना न पढ़ाओ. पढ़लिख कर ये बच्चे अपनी जातबिरादरी ही भूल गए. देखा, आज हमारी नाक काटने पर लगी है,’ रमा की ओर तीखी नजरों से देखते हुए दादी ने तल्खी से कहा.‘दादी, शिवम बहुत अच्छा लड़का है. आप सब तो कितनी तारीफ करते थे उस की,’ दादी की लाड़ली नेहा उन से लिपटती हुई बोली.

 

‘लेकिन है तो छोटी जात का,’ दादी ने उसे दूर झटकते हुए कहा.   नेहा अचकचा गई. उसे इस बात का पूर्वानुमान था कि उस का परिवार सहजता से शिवम को स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन प्रतिक्रिया इतनी तीक्ष्ण होगी, इस का अनुमान न था.  उस का मन कर रहा था कि भाग कर शिवम के पास चली जाए, लेकिन पापा का रौद्र रूप, मम्मी और दादी की समाज की दुहाई ने उस के कदमों को सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ दिया. दुनिया से लड़ना जितना आसान, उस से कहीं ज्यादा मुश्किल है अपनों से लड़ना.

 

शिवम से क्या कहेगी, कैसे उस का सामना करेगी?’ यह सोचतेसोचते उस के माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा.  दूसरे दिन लड़के वाले आए. एक बोझिल वातावरण में सब मुखौटा ओढ़े उन का स्वागतसत्कार करने लगे. सुदर्शन व्यक्तित्व का अंशुमन, रमा और देवेंद्र सिंह को एक नजर में भा गया. लड़के वाले भी नेहा की सुंदरता व योग्यता से बहुत प्रभावित हुए. अंशुमन ने नेहा के नपेतले उत्तरों को उस का संकोच समझा.

 

सभी बातों से गदगद लड़के की मां बोली, ‘हमें तो आप की बेटी बहुत पसंद आई. बाकी ये दोनों समझ लें आपस में, आखिर रहना तो साथ में इन दोनों को है.’ लड़के की मां की बात सुन सब के चेहरे खिल उठे. एकाएक अंशुमन की नजर नेहा के गंभीर चेहरे पर पड़ी और उसे कुछ खटक गया.

हैदराबाद पहुंच कर भी नेहा की कशमकश कम होने के स्थान पर बढ़ती जा रही थी. जब भी शिवम को देखती, उस की बेचैनी बढ़ जाती. एक अजीब सी चुप्पी उस ने ओढ़ ली थी. औफिस में लंच के समय वह शिवम से कतराने लगी थी. फोन पर भी बात, बस, हां-हूं तक सीमित हो गई थी.

एक दिन औफिस में लंच करने के बाद दोनों पार्क के चक्कर लगाने लगे, जैसे वे लगाया करते थे. नेहा की खामोशी, माथे पर चिंता की लकीरें, श्रीहीन चेहरा बहुतकुछ बयां कर रहा था. घर से आने के बाद नेहा का बदला यह रूप शिवम को उद्विग्न करने लगा, ऊपर से उस की चुप्पी.

 

‘क्या बात? घर से आने के बाद तुम बहुत बदली हुई सी लग रही हो,’ टहलने के बाद एक बैंच पर बैठते ही शिवम ने पूछा. ‘कुछ नहीं,’ नजरें चुराती हुई नेहा ने कहा.‘कुछ तो है. बताओ, अगर अपना समझती हो मुझे,’ शिवम के इन शब्दों ने नेहा के सब्र का बांध तोड़ दिया.‘शिवम, हम पर हमारी जातियां हावी हो गईं.”

मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं पाऊंगा – भाग 3 : विजय जी व इंदु के रिश्ते में क्या दिक्कत थी

लेखक – नरेंद्र कौर छाबड़ा

आखिर एजेंसी से संपर्क कर पूरे दिनरात के लिए अटेंडेंट (सहायक) लगवा दी गई. वह दिनरात इंदु

के साथ ही रहती थी.

महीनेभर बाद इंदु वाकर का सहारा ले कर चलने लगी, लेकिन कमजोरी बहुत आ गई थी और वह घर के कोई काम नहीं कर पा रही थी. घर के कामों, खाना बनाने के लिए भी एक महरी को रखना पड़ा. घर की व्यवस्था चरमरा रही थी, जिस से नीता भी तनाव में आ गई. औफिस की ड्यूटी कर के घर आती तो बीमार सास, लाचार ससुर और अव्यवस्थित घर देख कर वह चिढ़ जाती.

अब इंदु को डाक्टर ने छड़ी के सहारे चलने का निर्देश दिया. वह खुश थी कि अब सबकुछ सहज हो जाएगा. सहायक की निगरानी में ही धीरेधीरे छड़ी के सहारे चलने लगी थी. मुश्किल से 15 दिन बीते होंगे, अचानक एक दिन उन का संतुलन बिगड़ गया और वह औंधे मुंह गिर पड़ी. चेहरे पर काफी चोट लगी. 2 दांत भी टूट गए. यह देख विजयजी तो डर गए. फौरन सुभाष को फोन कर दिया. वह किसी जरूरी मीटिंग में था. किसी तरह मीटिंग रद्द कर के घर लौटा. मां की हालत देख कर वह भी काफी तनाव में आ गया. डाक्टर को ही घर बुला कर दिखाया गया. इंदु से तो चला ही नहीं जा रहा था.

डाक्टर ने उन्हें पूरी तरह आराम करने की सलाह देते हुए कहा कि अभी कुछ दिन चलनाफिरना बंद ही रखें.हमेशा सक्रिय रहने वाली इंदु पूरी तरह बिस्तर से लग गई, तो धीरेधीरे अवसाद और तनाव में घिरने लगी. विजयजी भी एकदम चुप लगा गए थे. घर का माहौल ही बदल गया था. निराशा,

तनाव, उदासी फैल गई थी. तनाव के इन्हीं क्षणों में एक रात इंदु को जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल ले जाने से पहले ही उस ने इस संसार से विदा ले ली.विजयजी तो पत्थर के बुत से बन गए थे. फिर काफी देर बाद उठे. इंदु के पार्थिव शरीर को संबोधित करने लगे, “तुम ने वादाखिलाफी की है. कहती थी कि आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी…”

“तुम नहीं जा सकती… मैं ने तुम से कहा था ना, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकता…”बेटा, बहू, बच्चे सभी उन्हें संभालने लगे, पर वह तो रहरह कर एक ही वाक्य दोहरा रहे थे, “ इंदु, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकता…”

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