लेखक- रामकिशोर दयाराम

पंवार जलकुंभी की वजह से सतपुड़ा जलाशय 60 प्रतिशत घट चुका है. यदि इसे जल्दी ही जड़मूल से नष्ट न किया तो यह पूरे जलाशय को अपनी आगोश में जकड़ लेगी. मध्य प्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली नर्मदा को कहीं आने वाले समय में चाइनीज झालर यानी जलकुंभी निगल न ले, इस बात पर चिंता करना और चतुराई दिखाना होगा. चाइनीज झालर ने वर्ष 1960 के दशक से नगरीय क्षेत्र की जीवनदायिनी तवा नदी पर बने सतपुड़ा जलाशय को बुरी तरह से अपनी आगोश में जकड़ लिया है.

नदियों की बहती जलधारा के संग जिस दिन तवानगर के तवा जलाशय को अपना शिकार बनाने के बाद ब्रांदा बांध में नर्मदा से मिलने जलकुंभी पहुंच गई उस दिन नर्मदा को अपने आंचल को बचाना मुश्किल हो जाएगा. वर्तमान समय में सतपुड़ा बांध अपने अस्तित्व की लड़ाई में सुरसारूपी चाइनीज झालर के जबड़े में जकड़ा अपने स्वरूप को बचाने के लिए हाथपांव मारने को विवश है.

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बैतूल जिले के सारणी स्थित सतपुड़ा ताप बिजलीघर के लिए 2,875 एकड़ में फैले सतपुड़ा जलाशय का 60 प्रतिशत भाग पिछले नवंबर में ही विदेशी खरपतवार से पट चुका है. चाइनीज झालर को जड़मूल नष्ट करने के लिए अगर अभी नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी. सतपुड़ा जलाशय को बचाने का एकमात्र विकल्प सामूहिक प्रबंधन है जिस में सब की सहभागिता सुनिश्चित होनी जरूरी है. चाइनीज झालर जलकुंभी को वाटर हाइसिंथ कहते हैं. इसे समुद्र सोख भी कहा जाता है. यह एक विदेशी जलीय खरपतवार है. भारत में यह 1855 में कोलकाता में पहली बार देखी गई. बीते 164 वर्षों में कोलकाता में दिखी जलकुंभी ने देशभर के जलाशयों में तेजी से फैलना शुरू कर दिया.

नतीजा यह निकला कि वायुमार्ग से कहें या जलमार्ग से, किसी न किसी बहाने कोलकाता से बैतूल तक पहुंची इस जलकुंभी ने भयावह समस्या पैदा कर दी है. जलकुंभी पर अपनी रिसर्च रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुके वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में रोचक जानकारी को परोसा है जिस के अनुसार जिस जलाशय में जलकुंभी होती है, उस जलाशय के पानी का वाष्पीकरण 7 गुना तेजी से होता है. दरअसल, जलकुंभी में 90 प्रतिशत पानी होता है. इस वजह से यह पानी का वाष्पीकरण करने में सहायक है. छोटे तालाबों में यदि जलकुंभी फैल जाए तो उसे बहुत तेजी से सुखा देती है. वहीं, साल्विनिया मोलेस्टा, जिसे भी चाइनीज झालर कहते हैं, साउथ इंडिया में पाई जाने वाली इस खरपतवार को बैतूल जिले की विद्युत नगरीय सारनी क्षेत्र का मौसम उपयुक्त मिला, जिस के चलते यह खरपतवार कुछ ही दिनों में जलाशय के पानी के ऊपर किसी खेल मैदान की घास की तरह फैल गई.

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सतपुड़ा जलाशय में तीसरी सब से ज्यादा प्र्रभावित करने वाली खरपतवार हाइड्रा वर्टिसीलाटा है. यह पानी के भीतर पाई जाती है. इस के अलावा टाइफ समेत अन्य जलीय खरपतवार सतपुड़ा जलाशय में तेजी से फैल रही हैं. सतपुड़ा जलाशय को विदेशी खरपतवार से बचा पाना मुश्किल हो जाएगा, ऐसे संकेत खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर, के डा. सुशील कुमार और डा. वी के चौधरी द्वारा दिए गए हैं. सामने आएंगे दुष्परिणाम जलाशय में तेजी से फैल रही खरपतवार के दुष्परिणाम गरमी के दिनों में सामने आते हैं. भारी बारिश के चलते कई बार सतपुड़ा जलाशय के गेटों को खोला जाता है तो जलाशय में पहाड़ी नदियों से मिट्टी, पत्थर के कण, शहरी नालों का मलबा और सतपुड़ा जलाशय की राख नहरों में पहुंचने लगते हैं जिस से उस की क्षमता घट जाती है. वर्ष 1960 में सतपुड़ा जलाशय के निर्माण के समय जलाशय की क्षमता 110 एमसीएम थी. वर्ष 2008 के सर्वे में 75 एमसीएम रह गई है. इसलिए गरमी के दिनों में पानी की किल्लत से इनकार नहीं किया जा सकता.

जलीय खरपतवार को निकालने का ठेका जिस कंपनी को दिया गया, उस ने कम दर पर काम का ठेका तो ले लिया लेकिन जलीय खरपतवार को जलाशय से पूरी तरह निकालना उस के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ. शासकीय निविदा स्वीकृत दर से कम दर पर ठेका लेने के बाद जब सतपुड़ा जलाशय में जलकुंभी की जमीन को तलाशने के लिए गोताखोरी की गई तो जान गले में अटक गई. सफाई मशीन हुई बीमार जलाशय के विभिन्न चिह्नित 5 क्षेत्रों की सफाई के लिए मध्य प्रदेश पावर जनरेटिंग कंपनी ने एक करोड़ 36 लाख रुपए का टैंडर निकाला था. यह टैंडर एमबी (मठारदेव बाबा कंस्ट्रक्शन) कंपनी ने 24 लाख रुपए कम में यानी 1 करोड़ 2 लाख रुपए में ले लिया है. सफाई का कुल क्षेत्रफल 7 लाख 52 हजार 100 वर्गमीटर है. सफाई का कार्य एमबी कंपनी को 2 सालों तक करना है. 75.21 हैक्टेयर की सफाई का काम चरणजीत सिंह सैनी के 3 सहयोगी रमेश सरोज, शकील, ओ झा की सा झेदार कंपनी को दिया गया.

वीड़ हार्वेस्टर (नदियों में चल कर खरपतवार निकालने का काम करती है) मशीन आई जिसे पूरी खरपतवार को निकालना था. लेकिन असमय ही मशीन ने दम तोड़ दिया. 13 अक्तूबर, 2019 को बीमार मशीन इलाज कराने के लिए फरीदाबाद ले जाई गई. सो, सारनी में जो काम मशीन से होना था, वह अब मजदूरों द्वारा करवाया जा रहा है जिस के कारण पूरी तरह से जलकुंभी का निकलना दिल्ली की तरह दूर हो गया है. विदेशी परिंदों की जान को खतरा मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जलाशय पिछले डेढ़ साल से साल्विनिया मोलेस्टा समेत अन्य खरपतवार से ग्रसित है. साल्विनिया मोलेस्टा नामक खरपतवार पानी में तेजी से फैलती है और पूरे पानी की सतह पर फैल जाती है. जिस वजह से देशविदेश से आने वाले प्रवासी पक्षियों को जलाशय में पानी नजर नहीं आता और पक्षी परेशान हो कर कहीं और चले जाते हैं. इस खरपतवार की वजह से जलाशय में मछलियों की भी मृत्यु होने लगी है. द्य हमारी बेडि़यां मेरी परिचित पड़ोसिन महिला मेरे घर आईं. वे कौलबैल न बजा कर अपनी चाबी की रिंग से गेट खटखटाने लगीं. मैं रसोई के काम में व्यस्त थी.

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हड़बड़ा कर खिड़की से बाहर झांक कर देखने लगी तो उन्हें पहचान गई. मैं वहीं से ऊंची आवाज लगा कर बोली, ‘‘गेट खुला ही है. आप हैंडल खोल कर अंदर आ जाइए.’’ वे गेट के पास ही खामोश, अनमनी सी खड़ी रहीं, तो मजबूर हो कर मुझे ही बाहर आना पड़ा. मैं ने बाहर आ कर गेट खोला और बोली, ‘‘गेट तो बस हैंडल से ही बंद था. आप उसे खोल कर अंदर क्यों नहीं आ गईं?’’ इस प्रश्न पर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘लोगों के घरों में सफाई करने व कूड़ा उठाने वाले लोग भी बैल बजा कर अपनेआप गेट खोल कर कूड़ा लेने के लिए आते हैं और जाते समय गेट बंद भी करते हैं. उन के कारण बैल का स्विच और हैंडल गंदा हो जाता है. इसीलिए, मैं किसी के घर का गेट अपने हाथ से नहीं खोलती और कौलबैल भी नहीं बजाती.’’ मैं बरबस बोल पड़ी, ‘‘उन से ऐसी गंदगी तो नहीं हो जाती है?’’ इस प्रश्न पर वे कुछ नहीं बोलीं और वापस चली गईं. और मैं काफी देर तक उन की दकियानूसी सोच के बारे में सोचती रही. रेणुका श्रीवास्तव (सर्वश्रेष्ठ) मेरे पड़ोसी सिन्हा साहब का परिवार बहुत अंधविश्वासी है. उन के कथनानुसार परिवार के मुखिया के खाए बिना घर के नौकर को खाना नहीं देना चाहिए और बृहस्पतिवार को पैसा भी नहीं देना चाहिए, इस से घर का रुपयापैसा चला जाता है और खाने का अंश निकल जाता है. फिर वह खाना किसी अंग में नहीं लगता.

व्यवसायी परिवार होने की वजह से वे लोग 3 बजे दिन में खाना खाते हैं. उन की नौकरानी बहुत गरीब और विधवा है. सुबह को दो रोटी खा कर वह 3 बजे तक भूख से तड़पती रहती है. सब के खाने के बाद, सब कुछ निबटा कर, उसे खाना मिलता है. पड़ोसिन मु झे भी बारबार टोकती हैं कि आप नौकरानी को खाना सब के साथ क्यों देती हैं, किंतु मु झे इस में विश्वास नहीं है कि जिस बाई के कठिन परिश्रम से मु झे मेरी पसंद का खाना बैठेबिठाए मेज पर मिल जाता है, उसे खाना मैं देर से दूं. सिन्हा परिवार के इस अटूट विश्वास के बाद भी उन के यहां खर्चे की किचकिच मची रहती है जबकि मैं बहुत संतुष्ट और बाई भी बहुत खुश रहती है. न जानें क्यों लोग अंधविश्वास के पीछे मानवता को भूल जाते हैं. पुष्पा श्रीवास्तव द

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