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किशोर कुमार की भूमिका निभा सकते हैं आमिर खान

बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान सिल्वर स्क्रीन पर लीजेंडरी गायक किशोर कुमार का किरदार निभाते नजर आ सकते हैं.

बॉलीवुड के निर्देशक अनुराग बसु, किशोर कुमार के जीवन पर फिल्म बनाना चाहते थे. अनुराग बासु ने इसके लिये किशोर कुमार पर शोध भी किया था. चर्चा है कि आमिर अब किशोर कुमार की जीवनी में काम करना चाहते हैं.

आमिर इन दिनों फिल्म दंगल में काम कर रहे हैं. दंगल की शूटिंग खत्म होने के बाद आमिर सिल्वर स्क्रीन पर किशोर कुमार की भूमिका निभा सकते हैं. 

अनुराग पहले यह फिल्म रणबीर कपूर को लेकर बनाना चाहते थे. लेकिन अब चर्चा है कि रणबीर की किशोर कुमार पर बनने वाली फिल्म से दिलचस्पी खत्म हो गई है. रणबीर अब राजकुमार हिरानी की फिल्म में रूचि ले रहे हैं जो संजय दत्त पर फिल्म बना रहे हैं.

अनुराग बासु इन दिनों रणबीर कपूर को लेकर फिल्म 'जग्गा जासूस' भी बना रहे हैं. इस फिल्म की शूटिंग आधी हो चुकी है.

मेहनत पर निर्भर अर्थव्यवस्था

एक और कैलेंडर साल बदल गया है. देश की अर्थव्यवस्था में जिस चमक की कल्पना की जा रही थी, वह नई सरकार के आने के डेढ़ साल बाद भी कहीं दिख नहीं रही है. इसके लिए नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उन के हर रोज उग्र होते भगवा ब्रिगेड को दोष देना गलत होगा. देश में असहनशीलता व धर्मांधता का जो वातावरण बन रहा है, उसका आर्थिक उन्नति से ज्यादा लेनादेना नहीं है.

देश की अर्थव्यवस्था में सुधार सिर्फ राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के बीच बने नॉर्थ ब्लॉक के फरमानों से नहीं हो सकता, यह हम 1947 के बाद से देख चुके हैं. नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय असल में देश की प्रगति में बाधा पहुंचाने वाला है, पर इतना नहीं कि देश दब जाए. जो परिवर्तन 1991 के बाद देखने को मिले, उनसे चमक तो आई, पर फिर वह धुंधली पड़ती चली गई, म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के स्ट्रीटलैंप की तरह, जो 10 दिन चमकता है और फिर फीका पड़ने लगता है.

एक देश की अर्थव्यवस्था तब सुधरती है, जब पूरी जनता मेहनत पर उतारू हो जाए और टोटकों, टैक्स ब्रेकों, सहूलियतों, कानूनों के बदलाव आदि का हल्ला न मचाती रहे. पिछले 100 सालों से पूरा देश नई तकनीक का लाभ उठाने में जुटा है, इसके सबूत कहीं नहीं हैं. अंग्रेजों ने भारतीयों के हाथ बांध नहीं रखे थे. हां, वे भारत को उभरता देश देखने के लिए मेहनत भी नहीं कर रहे थे.

जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी ने बातें बनाने और राज करने के अलावा देश को मेहनत करने के लिए नहीं उकसाया. सभी प्रधानमंत्री बात बंटवारे की करते रहे, निर्माण की नहीं. जब की भी, तो वह उस कान तक नहीं पहुंची, जिसके हाथ काम कर सकते थे. असल में कोई आवाज इतनी बुलंद ही न थी कि अनपढ़, अशिक्षित, फटेहाल, 10वीं सदी के नियमों और तब की तकनीक में जीते लोगों के कानों तक पहुंच सके.

आर्थिक पिछड़ेपन के लिए तो पग-पग पर फैले निकम्मेपन, भाग्यवाद, जातिवाद, लूट की संस्कृति, पूजापाठ से संपन्नता की आशा, छोटे स्तर का भ्रष्टाचार, तकनीक के प्रति उदासीनता आदि जिम्मेदार हैं, जिन्हें एक प्रधानमंत्री न तो दूर कर सकता है और न ही एक पार्टी.

1991 के करिश्माई वित्त मंत्री 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे, पर वे क्या कर पाए? 1991 में उन्होंने सरकारी बांध के दरवाजे खोल कर पानी बहने का अवसर तो दे दिया, पर पहाड़ों पर जमी निकम्मेपन की बर्फ को मेहनत की गरमी से कौन पिघलाएगा? नरेंद्र मोदी को दोष दें, पर दूसरी बहुत सी बातों के लिए. जो हाल हम देश का आज देख रहे हैं उस में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन अगले दशक में होगा, भूल जाइए. हमारी सोच और कार्यप्रणाली में मेहनत लिखी ही नहीं, तो हम तो यहीं रहेंगे, चाहे तिरंगे में लिपटा हाथ राज करे या भगवा में लिपटा कमल. किसी बदलाव की आशा करनी हो, तो खुद में झांक कर देखो कि क्या पिछले साल से ज्यादा काम किया था इस साल?

आपबीती: चेन्नई में बाढ़ का वो दहशत भरा मंजर

‘‘वह 1 दिसंबर की शाम थी. बारिश हो रही थी. बारिश इतनी तेज भी न थी कि हम लोग कुछ खाने के लिए चंद कदमों की दूरी पर स्थित फूड कोर्ट में न जा पाते. मैं अपने दोस्तों नितिन और आशुतोष के साथ होस्टल से निकल चल पड़ा. मौसम सुहाना था लेकिन मन में डर और आशंकाएं थीं क्योंकि मौसम विभाग की चेतावनी थी कि आने वाले दिनों में फिर तेज बारिश और बाढ़ आ सकती है.’’ चेन्नई से 25 किलोमीटर दूर स्थित श्री रामास्वामी मैमोरियल इंस्टिट्यूट यानी एसआरएमआई में इंजीनियरिंग के पहले साल में पढ़ रहे भोपाल के आर्यमान और उस के दोस्तों ने जो बताया वह वाकई दिल दहला देने वाला था.

आर्यमान एसआरएमआई के ऊरी होस्टल में कमरा नंबर 631 में रहता है. बीती 4 दिसंबर की रात जब वह जैसेतैसे चेन्नई से भोपाल पहुंचा तो उस के चेहरे पर दहशत थी जो प्लेटफौर्म पर इंतजार करती मम्मी कल्पना, पापा देवेंद्र और दीदी अदिति को खड़े देख खुशी में बदल गई. ऐसी खुशी जिसे वह बयां नहीं कर सकता. लेकिन चेन्नई में आई बाढ़ और वहां से भोपाल तक के सफर की दास्तां के जो हिस्से वह साझा कर पाया उन्हें सुन लगता है कि वाकई यह बाढ़ बहुत ही भयानक थी.

बकौल आर्यमान, ‘‘जब हम फूड कोर्ट से वापस लौटे तो हमें आने वाली दुश्वारियों का कतई अंदाजा न था. पिछले हफ्ते की बाढ़ ने हम छात्रों को खासा दहला दिया था. 25 नवंबर तक हालात ठीक हो गए थे, इसलिए हमें लग रहा था कि अब इस का दोहराव नहीं होगा. लेकिन 30 नवंबर की सुबह से एहसास होने लगा था कि अब यहां और रुकना खतरे से खाली नहीं.’’

एसआरएमआई के कुल 6 छात्रावासों में तकरीबन 6 हजार छात्र रहते हैं जो देश के सभी हिस्सों से इस नामी इंस्टिट्यूट में पढ़ने आए हैं. आर्यमान ने इसी साल यहां दाखिला लिया है. उस के साथ मध्य प्रदेश के तकरीबन 300 और उत्तर भारत के मिला कर लगभग 3 हजार छात्र वहां पढ़ रहे हैं. विदेशी छात्रों के लिए अलग एनआरआई होस्टल है.

‘‘सभी की हालत एक जैसी थी,’’ आर्यमान बताता है, ‘‘30 नवंबर से जो बारिश शुरू हुई तो 2 दिसंबर तक तांडव सा मचा रहा.’’ यह बतातेबताते वह सिहर उठता है, ‘‘हम पूरी तरह टूट चुके थे, कहीं कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था. चारों तरफ घुप अंधेरा था, दिन और रात में फर्क करना मुश्किल था. सभी के मोबाइल और लैपटौप की बैटरियां डिस्चार्ज हो चुकी थीं.

‘‘1 दिसंबर की सुबह होस्टल के ग्राउंडफ्लोर पर पानी आ गया था, इसलिए नीचे की मंजिल के छात्र ऊपर आ गए थे. देखते ही देखते, चारों तरफ पानी भर गया. ऊपर छत से भी पानी बह कर नीचे आने लगा था. तेज बारिश के साथ हवा भी बहुत तेज चल रही थी. हम लोग खिड़कियां खोलने से भी डर रहे थे कि कहीं उन में से अंदर पानी न भर जाए और हम भी न बहने लगें.’’

कट गए थे दुनिया से

बाहर क्या हो रहा है, यह इन छात्रों को नहीं मालूम था. किसी से मोबाइल पर बात नहीं हो पा रही थी. बिजली कब आएगी, यह भरोसा न था. लिहाजा, छात्रों की घबराहट बढ़ती जा रही थी. जो बच्चे दिन में 3-4 बार मम्मीपापा और रिश्तेदारों से बात किए बगैर नहीं रह पाते थे वे बारबार मोबाइल की स्क्रीन की तरफ देखते थे कि शायद किसी जादू के असर से बैटरी चालू हो जाए.

‘‘होस्टल के बाहर कमर तक पानी था,’’ आर्यमान बताता है, ‘‘फर्स्ट फ्लोर पर छात्रों का सामान बहने लगा था. कपड़े, पर्स, मोबाइल फोन, पैन, कौपियां कागज की नाव की तरह तैर रहे थे. पर लैपटौप सभी ने सिर पर रख कर बचा लिए थे.

‘‘हमें एहसास था कि मम्मीपापा और दूसरे रिश्तेदार हमारी कितनी चिंता कर रहे होंगे, खासतौर से मम्मी, जिन्होंने रोरो कर अपनी आंखें सुजा ली होंगी. मेरे मन में एक ही खयाल आ रहा था कि जैसे भी हो, उन्हें बता दूं कि मैं ठीक हूं, चिंता मत करना.

‘‘लेकिन हकीकत में मैं ठीक नहीं था,’’ आर्यमान कहता है, ‘‘बाहर से जो खबरें आ रही थीं वे अच्छी नहीं थीं कि पूरा चेन्नई शहर बाढ़ में डूबा हुआ है, लोग लकड़ी की तरह बह रहे हैं और कहीं से कोई सहायता नहीं आ रही है. लग ऐसा रहा था मानो दुनिया में पानी के सिवा कुछ है ही नहीं.’’

कालेज प्रबंधन ने जैसेतैसे खाने का इंतजाम किया था पर वे लोग भूखे होते हुए भी खा नहीं पा रहे थे. वजह, सामग्री खत्म हो जाने के कारण खाने का फीका और बेस्वाद होना ही नहीं, बल्कि बाढ़ का कहर थी. दूसरे दिन तो वे लोग कमरा छोड़ क्लासरूम में जा कर सोए. अंधेरा इतना था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. आवाजों के सहारे एकदूसरे को पहचान पा रहे थे.

आर्यमान बताता है, ‘‘सीनियर छात्रों ने पानी संभल कर पीने की सलाह दी थी क्योंकि खतरा बीमारी फैलने का था. वाटर सप्लाई बंद थी लेकिन आसमान से पानी लगातार बरस रहा था.’’

हालत यह थी कि पूरी तरह हिम्मत हार चुके ये छात्र वजह होने पर भी एकदूसरे से बात करने से कतरा रहे थे जो कुछ दिन पहले तक बिना बात की बात पर एकदूसरे से बात किया करते थे.

यों निकले बाढ़ से

सभी छात्र पूरी तरह से हताश हो चुके थे. अच्छा यह हुआ था कि छात्रों को मेन बिल्डिंग में शिफ्ट कर दिया गया था जहां जनरेटर से बिजली चल रही थी. सब से पहले उन्होंने मोबाइल प्लग में लगाए और बैटरी के 5 फीसदी चार्ज होने पर ही सब ने घर वालों से बात करनी शुरू कर दी. गर्ल्स होस्टल में कई लड़कियां लगातार रोए जा रही थीं.

घर वालों से जब बात हुई तो जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि अधिकांश पेरैंट्स ने बच्चों के रिजर्वेशन पहले से ही औनलाइन करवा रखे हैं पर दिक्कत यह थी कि बच्चे स्टेशन तक पहुंचें कैसे. ट्रैफिक बिलकुल बंद था. सिर्फ सेना की नाव और गाडि़यां, वह भी इक्कादुक्का ही दिख रही थीं. इस पर भी दिक्कत यह थी कि जैसेतैसे स्टेशन पहुंच भी गए तो वहां जा कर करेंगे क्या, ट्रेनें तो सारी रद्द हैं.

आर्यमान कहता है, ‘‘मातापिता हिम्मत बंधा रहे थे और मशवरा दे रहे थे कि जैसे भी हो, बेंगलुरु तक आ जाओ, वहां से आसानी से घर पहुंच सकते हो. सारे इंतजाम हम कर देंगे. फलां अंकल से बोल दिया है, वे तुम्हें लेने आ जाएंगे या फिर हम ही बेंगलुरु तक आ जाते हैं.’’

तय है बच्चों को अब समझ आ रहा था कि मातापिता का प्यार क्या होता है लेकिन बेबसी यह थी कि बेंगलुरु तो दूर की बात थी, ये नजदीक के अन्ना नगर तक जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बाहर पानी ही पानी था और चेन्नई तक कितना और कैसा होगा, इस का अंदाजा लगाते ही ये सिहर उठते थे.

कुछ छात्रों ने पैदल स्टेशन तक चलने की बात कही लेकिन सवाल यही उठ खड़ा हुआ कि फिर क्या करेंगे, ट्रेन तो सारी बंद हैं, इसलिए यहीं सुरक्षित रहना समझदारी की बात है. इस दौरान कितने छात्र गुम थे, इस का भी हिसाबकिताब किसी के पास नहीं था. इसी बीच, किसी ने ब्लैकबोर्ड पर रिफ्यूजी लिख कर हम सब लोगों की हालत एक शब्द में बयान कर दी थी.

‘‘वह 3 दिसंबर की रात थी,’’ आर्यमान बताता है, ‘‘मैं अपने दोस्तों के साथ क्लासरूम में सो गया था’ तभी अचानक एक सीनियर ने आ कर पूछा, ‘बेंगलुरु चलोगे क्या, गाड़ी का इंतजाम हो गया है.’ तो मुझे यकीन नहीं हुआ. बारिश तब हलकी हो गई थी, लिहाजा तुरंत मैं ने और नितिन ने हां में सिर हिला दिया. अच्छी बात यह थी कि 4 दिन पहले ही एटीएम से निकाले बचे पैसे हमारे पास थे और कार्ड भी पैंट की जेब में पैसों के साथ सलामत था.’’

24 सीटों वाली मिनी बस का किराया 50 हजार रुपए था, जो सभी 24 छात्रों ने इकट्ठा कर के दिया. जब वे होस्टल से चले तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि सहीसलामत बेंगलुरु तक पहुंच जाएंगे. रास्ते में चारों तरफ पानी ही पानी था और बूंदाबांदी लगातार हो रही थी. वे सभी शंका में थे कि कब फंसें और बह जाएं.

मिनी बस जैसेजैसे बढ़ती जा रही थी वैसेवैसे उन सब की हिम्मत भी वापस आ रही थी. लेकिन सड़कों पर बहता पानी और रास्ते में उजड़े मकान देख सभी दहल जाते थे. अंदाजा लगाया जा सकता है कि तबाही का आलम क्या रहा होगा.

‘‘हम सभी हिंदीभाषी थे,’’ आर्यमान बताता है, ‘‘जब चेन्नई पार किया तो जान में जान आई. पानी का प्रकोप कम हो चला था लेकिन बिजली कहीं नहीं थी. रास्ते में हमें पता चला कि चेन्नई में डीजल 500 रुपए प्रति लिटर और दूध 100 रुपए प्रति लिटर बिक रहा है. हमें लगा कि चेन्नई के स्थानीय लोगों के मुकाबले हम काफी सुरक्षित थे.

‘‘तबाही का मंजर दिखना कम होता जा रहा था और देर रात बेंगलुरु की लाइटें दिखीं तो हम झूम उठे. इस बीच, मोबाइल से मम्मी से बात होती रही और हम उन्हें ढाढ़स बंधाते रहे कि हम सुरक्षित हैं. बेंगलुरु से सुबह हमारी ट्रेन कर्नाटक एक्सप्रैस थी जिस में पापा ने तत्काल स्कीम के जरिए रिजर्वेशन कर दिया था. लिहाजा, हम बेफिक्र हो गए थे.’’

आर्यमान बताता है, ‘‘हम लोग काफी दिनों से सोए नहीं थे, इसलिए ट्रेन के कंपार्टमैंट में जा कर सोए. इधर, मम्मी बारबार कह रही थीं, बस आ जाओ, तुम्हारी पसंद का खाना बना कर रखा है. घबराना मत, रास्ते में खातेपीते रहना और कहीं उतरना मत.’’

जब नागपुर आ गया तो हम लोग हिपहिप हुर्रे कर झूम उठे. डब्बे में सभी सहयात्री बाढ़ की ही चर्चा कर रहे थे कि कैसेकैसे मकान ढह गए, सैकड़ों लोग बह कर मर गए, छोटेमोटे सामान तो दूर की बात है गाडि़यां तक बह गईं. कैसे लोगों ने अपनी जान बचाई और सेना के जवानों ने दिनरात एक कर बाढ़ पीडि़तों की मदद की. हालात ये थे कि भूखेप्यासे लोग खाने के पैकेटों के लिए टूटे पड़ रहे थे.

जब भोपाल स्टेशन आया तो मम्मीपापा और दीदी को देख आर्यमान को रोना आ गया. मम्मी ने जब उसे गले लगाया तो उसे लगा कि कोई भी बाढ़ उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकती, बकौल आर्यमान, ‘‘अगर उस रात होस्टल से निकलने से चूक जाते तो जाने क्या होता. इस के आगे मैं कुछ सोच भी नहीं पाता सिवा इस के कि बाढ़ में फंस गए थे और बालबाल बच गए.’’

अमेरिका: अवसरों का अद्भुत देश

अमेरिका का एक नया, अलग, रोमांचक रूप देखिए जिसे देख कर मुख से सहसा ही ये शब्द निकल पड़ेंगे, ‘अमेरिका, यू आर रियली ग्रेट.’ अमेरिका को यूएस अथवा यूएसए या फिर संक्षेप में केवल स्टेट्स कहा जाता है, उस की अत्यंत दर्शनीय राजधानी वाशिंगटन डीसी है. सारी दुनिया अमेरिका को ग्रेट मानती है. कोई इसे सामरिक दृष्टि से तो कोई इसे स्टैच्यू औफ लिबर्टी व नियाग्रा फौल्स जैसे आश्चर्यों के कारण ग्रेट कहता है तो कोई इसलिए कि इसी देश ने अब तक सब से ज्यादा नोबेल पुरस्कार जीते हैं.

कुछ लोग इसे इस के माइकेल फेल्प्स जैसे धुरंधर तैराकों या फिर टाइगर वुड्स जैसे प्रतिष्ठित गोल्फर्स के कारण भी ग्रेट मानते व समझते हैं, तो कई और लोग इसे इसलिए ग्रेट कहते हैं कि दुनियाभर के स्टूडैंट्स शिक्षा की दृष्टि से इसी को अपनी श्रेष्ठ पसंद मानते हैं.

इस देश का हम ने 5 बार भ्रमण किया, महसूस किया कि अब इस के तन की सुंदरता के बजाय इस के मन की, सामाजिक रचना की, इस की अनोखी संस्कृति की एक संक्षिप्त झांकी सब को दिखा दें ताकि इस सुंदर देश की पहचान आप के मन में बस जाए. इस के कई रस्मोरिवाज, उत्सव, कानूनी नजरिए, सार्वजनिक सेवाएं दिलचस्प और उल्लेखनीय हैं. इन पहलुओं के व्यक्तिगत अनुभव से भी यह गे्रट बन जाता है.

वाह न्यूयौर्क

सुपर पावर अमेरिका की झांकी, न्यूयौर्क से शुरू करते हैं. ‘बिग ऐप्पल’ कहलाने वाला यह शहर अमेरिका की आर्थिक राजधानी तो है ही, इसे वैश्विक राजधानी भी कहा जाता है. इसलिए नहीं कि यहां स्टैच्यू औफ लिबर्टी व ऐंपायर स्टेट बिल्डिंग जैसे आश्चर्य हैं बल्कि इसलिए कि यहां एक पूरा लघु विश्व समाया है. न्यूयौर्क सिटी में दुनिया के सभी 220 देशों के वंशज बसे मिलेंगे, यहां दुनिया का हर व्यंजन मिलेगा और यहां विश्व की 300 भाषाएं बोलते लोग मिलेंगे शांति और प्यार के सहअस्तित्व में.

न्यूयौर्क को ‘वर्ल्ड संस्कृतियों का मैल्टिंग पौट’ भी कहा गया है. यहां ‘लिटिल इटली’, ‘लिटिल चाइना’, ‘लिटिल इंडिया’ जैसे छोटेछोटे इटैलियन, चीनी, भारतीय बाजार हैं जहां आप को हर देसी चीज मिल जाएगी. समोसे की प्लेट जरूर दोढाई सौ रुपए की पड़ेगी, पर उपलब्ध तो है.

न्यूयौर्क में हमारे साथ एक मजेदार घटना घटी. एक रेस्तरां में हम ने मसालेदार गुजराती चाय पी और पहले जब काउंटर पर पेमैंट करने लगे तो देखा कि ‘सरिता’ का नया अंक मैनेजर के सामने पड़ा था. पूछने पर पता लगा कि मैनेजर की पत्नी नौर्थ इंडियन हैं और ‘सरिता’ उन की प्रिय पत्रिका है जो वहां 3-4 डौलर में खरीदी जाती है. जब मैं ने बताया कि मैं ‘सरिता’ का एक लेखक हूं तो मैनेजर ने मेरी चाय के पैसे लेने से इनकार कर दिया. उन की इस भावना से मैं विभोर हो उठा, मैं ने उन्हें हृदय से धन्यवाद दिया.

यहां यह बता देना शायद अहम रहेगा कि यूरोप के मुकाबले अमेरिका फिर भी सस्ता व अफोर्डेबल है. एक और बात भी बताने योग्य है कि सामान्य व्यवहार में वहां स्वच्छता, सफाई, ईमानदारी आम बात है.

एक अन्य भारतीय रेस्तरां में भोजन करते टेबल के नीचे मुझे किसी का गिरा हुआ पर्स मिला जिसे मैं ने मैनेजर को दे दिया. कुछ ही देर में पर्स का मालिक आ पहुंचा और मुझे धन्यवाद के साथ उस ने 50 डौलर का नोट भी औफर किया. पैसे लेने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि यदि मेरा पर्स उसे मिलता तो वह भी निश्चय ही उसे वापस करता. वहां यह एक सामान्य व्यवहार है. पर्स का मालिक गोरा अमेरिकी था.

अमेरिकी भी भारतीय व्यंजनों को खूब पसंद करते हैं. आप उन्हें भारतीय थाली खाते अकसर देख सकते हैं. न्यू जर्सी के अपने रिहायशी इलाके न्यूपोर्ट-पावनिया में जब फनफेयर लगता है तो सब से लंबी कतारें भारतीय खाद्य काउंटरों पर ही देखी जाती हैं. गोरे, अश्वेत, मैक्सिकन, चाइनीज सभी अमेरिकी भारतीय व्यंजनों के दीवाने हैं.

मैं ने न्यूपोर्ट मौल में भी यही देखा जहां चाइनीज, जापानी, इटैलियन, इंडियन सभी प्रकार के ईटिंग काउंटर्स हैं पर इंडियन काउंटर्स सब से ज्यादा लोकप्रिय हैं. एक दिलचस्प बात यह है कि इन काउंटर्स के सामने एकएक लड़की अपनेअपने व्यंजन को मुफ्त में चखाने को खड़ी रहती है ताकि आप उन के काउंटर्स को पसंद करने लगें. यह एक स्वस्थ और जायकेदार एडवरटाइजिंग हुई न? थोड़ा सावधान भी रहना है क्योंकि चखने से पहले आप साफसाफ पूछ लें कि यह वैज डिश है या नौनवेज डिश.

चक्कर अंगरेजी और दाएंबाएं का

पहली दफा आप को शायद अजीब लगे कि स्थानीय अमेरिकियों की अंगरेजी आप को ठीक से पल्ले नहीं पड़ती. उन का उच्चारण, लहजा, स्टाइल हम से अलग है. अश्वेतों का कुछ ज्यादा अलग है. परंतु घबराएं नहीं, थोड़ा ध्यान से उन्हें सुनें और जरूरत पड़े तो आप उन्हें ‘स्लो’ बोलने के लिए रिक्वैस्ट करें. कुछ ही समय में आप वहां की स्थानीय अंगरेजी समझने लगेंगे. आप स्वयं भी स्लो और ज्यादा स्पष्ट बोलने की कोशिश करें. अलबत्ता वहां के स्थानीय लोगों को हमारी अंगरेजी समझने में दिक्कत नहीं होगी क्योंकि वे सारी दुनिया के लोगों की अंगरेजी समझने के अभ्यस्त हो चुके हैं.

अमेरिका जाने से पहले कुछ होमवर्क कर के जाएं. मसलन, वहां बैगन को एग प्लांट, भिंडी को ओकरा और बेल फू्रट को स्टोन ऐप्पल बोला जाता है, भले ही आप इन्हें इंडियन बाजार से खरीदें. और वहां के भारतीय तकल्लुफ वाली अंगरेजी के बजाय

अपनी खुद की अंगरेजी बोलते हैं. मसलन, ‘मैं ठीक हूं’ को कहेंगे ‘आई एम गुड’ जबकि हम लोग ‘आई एम फाइन’ वगैरा बोलते हैं.

आज हम भारतीयों का सम्मान वहां पहले से ज्यादा है. सो, आश्चर्य न करें यदि कोई दुकानदार आप का ‘नमस्ते’ या ‘नस्ते’ कह कर स्वागत करे. हौलीवुड फिल्में देख कर पाठकों को शायद यह पता तो होगा ही कि अमेरिका में वाहन सड़क के दाईं ओर चलते हैं जबकि भारत में लैफ्टहैंड ड्राइविंग है. तो, पैदल घूमते वक्त खयाल रहे कि आप फुटपाथ के दाईं ओर रहें. एस्केलेटर पर उतरतेचढ़ते समय भी आप दाईं ओर रहें. अगर इस दाएंबाएं का चक्कर आप नहीं समझे तो लोगों से फुटपाथ पर बेवजह टकराते रहेंगे.

सड़कों, बाजारों में घूमते समय आप को टौयलेट जाने की जरूरत कभी न कभी जरूर पड़ेगी. बता दें कि जब मैकडोनल्ड्स, डंकिन डोनट्स या सबवे आदि में कौफी पीने या सैंडविच, फ्रैंचफ्राइज खाने के लिए घुसें तो वहां इन सुविधाओं का इस्तेमाल करना आप का हक माना जाता है. मौल्स, स्टोर्स वगैरा में भी ये सुविधाएं रहती हैं. अच्छी बात यह है कि आप को इस के लिए एक पैसा भी नहीं चुकाना है. अमेरिका के विपरीत यूरोप के कई देशों में आप को पैसे खर्च कर के ही टौयलेट में प्रवेश मिलता है.

न्यूयौर्क की सार्वजनिक बसों में व्हीलचेयर वाले विकलांगों के लिए प्रवेश के इंतजाम भी हैं. हम ने देखा कि बस के ड्राइवर ने लीवर घुमाया तो बस के पिछले हिस्से का एक प्लेटफौर्म नीचे हो गया. ड्राइवर ने मदद की और यात्री व्हीलचेयर समेत इस प्लेटफौर्म से बस के अंदर पहुंच गया. पूरे देश में विकलांगों के लिए सुविधाएं हैं, उन के लिए अलग टौयलेट कक्ष, अलग पार्किंग वगैरा का इंतजाम रहता है. इन मानवीय मूल्यों ने हमें मोह लिया. यदि आप सीनियर हैं और पैदल सड़क पार करना चाहते हैं तो डिवाइडर या सड़क के किनारे एक बटन दबाइए, सिगनल लाल हो जाएगा और आप निर्विघ्न दूसरी ओर जा सकते हैं.

सीनियर्स की बात चली तो एक दिलचस्प वाकेआ बताते हैं. न्यू जर्सी में हम अपने बेटे के घर पर रुके थे. एक दिन मन किया कि पास की पब्लिक लाइब्रेरी में जाएं, कुछ पढ़ेंलिखें. बेटे से कहा तो उस ने सीनियर्स सर्विसेज वालों को फोन कर दिया. गाड़ी आई, हमें लाइब्रेरी ले गई और उसे वापसी का समय बता कर हम लाइब्रेरी में जा बैठे. कुछ घंटे बिता कर फिर उसी गाड़ी से वापस आ गए. बेटे के लाइब्रेरी कार्ड पर 5 पुस्तकें भी इश्यू करा लाए.

लाइब्रेरियन ने बताया, यह फ्री लाइब्रेरी है, कोई चार्ज नहीं. एक बार में आप 50 पुस्तकें तक इश्यू करा सकते हैं. लाइब्रेरी काफी बड़ी थी और वहां काम करने वाले अधिकतर वृद्ध लोग थे. बाद में बेटे ने बताया कि इन सारी सुविधाओं का खर्च उस टैक्स से निकलता है जोकि उस इलाके के निवासी ‘हाउस टैक्स’ के तौर पर देते हैं.

एक दिन बहू के संग मैं यों ही एक सरकारी दफ्तर गया, बहू को एक लाइसैंस रिन्यू करवाना था. लंबी लाइन थी, पर मुझे देख एक कर्मचारी आ गया और पूछा कि क्या काम है? मेरे सीनियर होने के कारण हमें सीधे खिड़की तक पहुंचा दिया गया. सीनियोरिटी का एक और फायदा भी मुझे मिला. बेटा और मैं एक केंद्र पर अपनी कार रिपेयर कराने गए तो जब बेटा मेकैनिक के साथ व्यस्त था, मुझे सैंडविच, कौफी आदि भेज कर व्यस्त रखा गया.

कोल्स के स्टोर्स में बुधवार के दिन सीनियर्स को हर चीज पर 15 फीसदी की छूट दी जाती है. तो अमेरिका में सीनियर दिखना, मतलब फायदा, कोई उम्र नहीं पूछता.

अमेरिका, आज का जगद्गुरु

प्यारे, आज पूरी दुनिया के विद्याकांक्षी नौजवानों की प्रथम चौइस यूएस ही है. चाइना के तो 3 लाख विद्यार्थी वहां पढ़ रहे हैं. हम दूसरे नंबर पर हैं. जी हां, आज की तारीख में अमेरिका के 4 हजार से अधिक विश्वविद्यालयों, कालेजों में 1 लाख 33 हजार भारतीय फैशन, बिजनैस, डाक्टरी आदि के अलावा साइंस, टैक्नोलौजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स भी पढ़ रहे हैं और हमें पता है कि पढ़ने के बाद ज्यादातर लोग वहीं बस जाना चाहेंगे. मगर क्यों?

दरअसल, वहां कानून का राज है, अक्ल का राज है, साफसफाई है, सुरक्षा है, नियम हैं, आकर्षक भवन सुविधाएं हैं, बढि़या सड़कें हैं, खुशगवार माहौल है और भ्रष्टाचार का नाम नहीं.

अमेरिकी लोग दुनिया में किसी तरह की भी राजनीति खेलें, अपने देश में सामान्य जीवन को उन्होंने राजनीतिमुक्त और स्वच्छ बना रखा है. यद्यपि 50 साल पहले तक अमेरिका में कालेगोरे न साथ में पढ़ सकते थे, न ही एक टेबल पर खाना खा सकते थे परंतु आज भारी परिवर्तन है. सभी लोगों में बराबरी का एहसास है और आज रेसिज्म यानी कालेगोरे का फर्क नगण्य सा है. कालेगोरे आपस में खूब ब्याह रचा रहे हैं.

भारतीय भी निष्कंटक और अच्छा जीवन जी रहे हैं, वहां उन की इज्जत भी है. अलबत्ता, टैक्सी ड्राइवरों तथा सड़क के किनारे फू्रट विक्रेताओं में भारतीय जरूर मिलेंगे.

एक दिलचस्प बात? अपने देश में पटेल गुजरातियों को रिजर्वेशन चाहिए पर अमेरिका में पटेल लोग बड़े व्यवसायी, होटल, स्टोर मालिक आदि हैं और उत्तम जीवन जी रहे हैं. सच कहें तो भारतीय बाजारों जैसे जैक्सन हाईट्स, जर्नल स्क्वायर, ऐडिसन आदि में गुजरातियों का ही प्रभुत्व है. वहां हमें घूमते हुए ऐसे गुजराती भी मिले जोकि बरसों से अमेरिका में हैं पर न वे अंगरेजी समझते हैं न हिंदी. गुजराती भाषा से ही वे अपना व्यवसाय व जीवन चला पा रहे हैं. तो अगर आप को अमेरिका जैसा देश बेहतर जीवन, बेहतर शिक्षा, बेहतर माहौल और

बेहतर भविष्य देगा तो आप क्यों न वहां जा बसेंगे?

क्या आश्चर्य कि अमेरिका आ बसने का ख्वाब देखने वाले विदेशी नागरिकों पर कुछ वीसा नियंत्रण भी हो? शिक्षा, विज्ञान आदि के क्षेत्र की बात करें तो भारतवंशी सुब्रमण्यम चंद्रशेखर, हरगोविंद सिंह खुराना तथा रामकृष्णन को अमेरिका जा कर ही नोबेल पुरस्कार मिल सके. अब वर्ष 2015 में अमेरिका के 3 नोबेल विजेताओं में 2 ऐसे हैं जो विदेशों से आ कर वहां बसे. अजीज सैंकर (रासायनिकी नोबेल विजेता) टर्की में जन्मे थे तथा कैम्पबैल (चिकित्साविज्ञान नोबेल विजेता) आयरलैंड में जन्मे थे. शिक्षा के क्षेत्र में कई भारतीयों ने भी कई पुरस्कार जीते हैं. सच तो यह है कि अमेरिका आज का जगद्गुरु तो है ही, वहां शिक्षा पाने का खर्च इंगलैंड के मुकाबले कम भी है जबकि स्कौलरशिप्स वहां ज्यादा हैं.

एक बात और, जो हमें रट्गर यूनिवर्सिटी के एक भारतीय प्रोफैसर ने बताई. वह यह कि अमेरिका का अलिखित नियम है कि दुनिया के सर्वोत्तम प्रोफैसरों को अपनी यूनिवर्सिटीज में पढ़ाने को आमंत्रित करो, पैसा वे जितना मांगें, दे दो. किसी देश की यह पौलिसी हो तो उसे जगद्गुरु बनने से कौन रोकेगा? वहां ‘नासा’ की तो शुरुआत ही जरमनी ने की.

अमेरिका के कुछेक लोकप्रिय नगरों में भारतीयों का बड़ा जमावड़ा है. न्यूयौर्क के अलावा न्यू जर्सी, शिकागो, सिएटल, सैनफ्रांसिस्को, वाश्ंिगटन आदि इन में शामिल हैं. 3 साल के 5 प्रवासों में हम ने देखा कि भारतीय गर्व से अपने उत्सव मनाते हैं जिन में अन्य देशवंशी भी रुचि से भाग लेते हैं. इसी प्रकार भारतीय लोग भी वहां क्रिसमस, हैलोवीन आदि स्थानीय उत्सव जोश के साथ मनाते हैं, घरों में क्रिसमस ट्री लगातेसजाते हैं. यह स्वस्थ परंपरा है. भारतीय बच्चे क्रिसमस को भारतीय उत्सव ही समझते हैं.

पतझड़ के बाद वहां पेड़ करीबकरीब नंगे हो जाते हैं तो बुरे लगते हैं पर क्रिसमस व नए वर्ष से 1 महीने पहले ही इन पेड़ों पर सुंदर सजावटें होने लगती हैं. सो दिसंबरजनवरी में भी माहौल में जीवंत रौनक हो जाती है. क्रिसमस पर इतनी औनलाइन खरीदारी होती है कि कूरियर सर्विसेज बजाय क्रिसमस मनाने के डिलीवरी में व्यस्त रहती हैं, क्रिसमस वाले दिन भी. गलीगली में केरौल सौंग की मधुर ध्वनि गूंजती है. थैंक्सगिविंग भी अच्छा उत्सव है.

खरीदारी की बात चली तो ‘ब्लैक फ्राइडे’ का मुकाबला नहीं. साल में एक फ्राइडे को ऐसी राष्ट्रव्यापी सेल लगती है कि कईकई बड़े आइटम जैसे टीवी, कंप्यूटर आदि भी आधे दामों में मिल जाते हैं. दुकानेंस्टोर्स सुबह 9 बजे खुलते हैं मगर लाइनें रात को 12 बजे ही लग जाती हैं. यों समझिए कि इसे ‘स्टोर’ की लूट कहा जा सकता है. विशाल क्वांटिटी में सामान एकदो दिन में ही बिकने से अनेक कंपनियां ‘रैड’ से ‘ब्लैक’ में आ जाती हैं, इसी कारण इस फ्राइडे को ब्लैक फ्राइडे कहा जाता है (यहां ‘ब्लैक’ शब्द पौजिटिव है). बता दें कि जीसस के प्रयाण दिवस को गुड फ्राइडे कहा जाता है. व्यापार, व्यवसाय, मार्केटिंग, इकोनौमी में भी अमेरिका जगद्गुरु है, है न?

सावधान, यह अमेरिका है

आप जब अमेरिका में घूमें तो थोड़ी सावधानी भी बरतें. यहां बड़ेबड़े स्टोर्स में लाखोंकरोड़ों का सामान खुला पड़ा रहता है, सिर्फ कैमरों की निगरानी में. काउंटर्स पर पहुंचें तो सारा सामान पेश करें, कुछ भी आप के थैले या पर्स या बच्चे के हाथ में न रह जाए ताकि सभी खरीदारी की उचित रसीद बन जाए. यदि गलती से भी कुछ आप के पर्स में खरीदारी से पहले चला गया तो इसे चोरी माना जाएगा और चोरी मतलब पुलिस का आगमन.

अमेरिका में कोई भी 911 नंबर दबाता है तो 2 से 5 मिनट में पुलिस हाजिर (यदि आप को भी कोई इमर्जेंसी आ जाए तो बेशक 911 दबाएं) हो जाती है. इस का मतलब यह नहीं कि आप खरीदारी करते समय डरें, बस कोई मौका न दें कि कोई आप पर लांछन लगाए.

इसी प्रकार लालबत्ती पर नियमानुसार रुकें, जब पदयात्री सिग्नल हरा/सफेद हो तभी क्रौस करें. स्थानीय लोगों से कोई तकरार न करें, न ही उन की या अपने देश की राजनीति पर बहस करें. यदि मौल में ‘विश्राम सर्कल’ में आप बैठ कर कुछ खानापीना चाहें तो वहां निर्देशपट्टी देख लें कि वहां खाने की इजाजत है कि नहीं. खाने के बाद सारा कचरा कूड़ेदान के हवाले करें. मैट्रो टे्रन में कभी कुछ न खाएं.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि एक ही टमाटर ‘शौप राइट’ स्टोर में 2 डौलर, बीजेस स्टोर में 3 डौलर तथा ए ऐंड पी स्टोर में 4 डौलर प्रति मिल सकता है, स्टोर्स अपनेअपने दाम खुद तय करते हैं. किसी अन्य चीज में यह क्रम उलट भी सकता है. सो, ऐसी बहस न करें कि फलां स्टोर में ऐप्पल और केले इस स्टोर के मुकाबले आधे दाम में हैं. वैसे, यद्यपि पानी की, कोक की, दूध की, जूस की, बियर की हर बोतल या कैन केवल एक डौलर की आएगी मगर यही चीजें आप को ‘ब्रांक्स जू’ या फिर ‘डिज्नीलैंड’ में 5 डौलर प्रति में मिलेंगी. सो, शिकायत न करें.

एक खास बात और, जब आप ऐसे रेस्तरां में जाएं जहां टेबल सर्विस हो तो खानेपीने के बाद टिप देना न भूलें. अमेरिका में टिप्स एक प्रकार का मानवीय हक है चाहे आप बाल कटवाएं या फिर कोई और सेवा लें. यदि आप टिप न देंगे तो यह माना जाएगा कि सेवा में कमी थी वगैरा.

अमेरिकी लोग गिफ्ट और प्रशंसा के भूखे होते हैं, इसलिए आप किसी के घर खाने या चाय पर जाएं तो कुछ भेंट अवश्य ले जाएं और उन के भोजन की तारीफ भी करें. जीभर के खाएं, जीभर के तारीफ करें, शर्माएं तो बिलकुल नहीं, क्योंकि ‘और लीजिए’ जैसे शब्द वहां कोई न बोलेगा. और हां, कोई यह भी न बोलेगा कि आप पेटू हो या ज्यादा खाया. याद रखिए, अमेरिका में हमारे स्वयं के देशवासी, हमारे स्वयं के बच्चे, भाईबहन भी अमेरिकियों सा व्यवहार करेंगे. वहां खानेपीने व घूमने में स्वयं खर्च करें, भाईबहन या बच्चों पर निर्भर न रहें. इन सभी बातों का ध्यान रखें क्योंकि आप अमेरिका में हैं.

अमेरिका में भारतीय एकता

न्यूयौर्क में काम करने वाले चीनी व भारतीय युवा न्यू जर्सी के न्यूपोर्ट इलाके में हड्सन नदी के किनारे महंगे फ्लैटों में रहते हैं. वहां लोग कहते हैं कि यह इलाका सिर्फ भारतीय व चीनी युवा प्रोफैशनल्स ही अफोर्ड कर सकते हैं. मेरा बेटा भी सपरिवार वहां अपने फ्लैट में रहता है और जाहिर है कि मेरी तरह और कई मांबाप भी अपने बच्चों से मिलने आते रहते हैं. नतीजा, हर शाम नदी के किनारे भारतीय वृद्धों का जमावड़ा रहता है.

एक स्थानीय गुजराती हर्षद ने ‘नमस्ते इंडिया’ संस्था बना कर सब के नामपते भी नोट कर लिए हैं और साप्ताहिक कार्यक्रमों की सूची सहित सभी सदस्यों को ईमेल से साप्ताहिक न्यूज भी मिल जाती है. हर्षद सच्चे सामाजिक सेवी हैं और भारतीयों को महत्त्व के स्थल दिखा लाते हैं. वहां जो ‘विविधता में भारतीय एकता’ दिखती है वह भारत में नदारद है. एक स्थानीय भारतवंशी रोज शाम का समय हमारे संग बिताते थे, इस विषय पर उन की कुछ काव्य पंक्तियां हैं :

यह बज्मे दोस्तां है,

मोहब्बते जाविदां

आता है मुझ को इस में

नजर उल्फत का इक जहां

हड्सन का ये किनारा भी

एक दोस्त बन गया

संगम हमारा कर दिया,

कितना है मेहरबां

वहां जातिपांति, धर्मपंथ, हिंदू- मुसलमान, ऊंचनीच शब्द कभी दिमाग में न आते थे. एक दिन नदी के किनारे रहमान खान भी हम सभी से मिले, बोले, ‘यारो, हम सभी वहां हिंदुस्तान में भी इसी मोहब्बत से रहें तो मजा आ जाए.’ बता दें कि के रहमान खान उन दिनों हमारी पार्लियामैंट (राज्यसभा) के डिप्टी स्पीकर थे. हर 3-4 दिन में हम लोग 20-30-40 के ग्रुप में कनेक्टिकट का फौक्सवुड्स कैसीनो या वाशिंगटन का लिंकन मैमोरियल, न्यूयौर्क का ब्रांक्स जू या एटलांटिक सिटी कैसीनो वगैरा देखने को निकल जाते थे, फिर उसी दिन लौट आते. कभी किसी पार्क में  सामूहिक भोजन के बाद गीतसंगीतशायरी होती तो पुलिस भी आ जाती कि क्या चल रहा है. ‘प्योरली सोशल कल्चरल’ इंडियन फ्रैंड्स मीटिंग है, यह सुन कर, इंडियन स्नैक चख कर पुलिस वाले मुसकराते हुए वापस चले जाते.

इस के अलावा छोटेछोटे 3-3 या 4-4 के ग्रुप्स में भी कई भारतीय दिन में मौल्स घूम आते, कुछ घर का आलूप्याज ले आते, बच्चों को स्कूल से ले आते आदि. हर बुधवार हर परिवार अपनाअपना खाना बना लाता, काव्यजोक्सकहानी की महफिल के बाद इस भोजन को सामूहिक तौर पर खाते. पूरा खाना एक ही जगह रख देते, फिर अपनी पसंद से जो चाहो, खाओ. अलबत्ता, सर्दी के मौसम में ये सब मुश्किल था क्योंकि बाहर बर्फ में गिरनेफिसलने की बच्चों की ओर से मनाही थी. कुल मिला कर जिंदगी खुशगवार गुजरी.

भारत विरोधी सैंटीमैंट्स–डौट बस्टर्स

आज भारत का सब से बड़ा हितैषी मुल्क होने का दावा करते अमेरिका में कभी साउथ एशियन, खासकर भारतीयों, को अपने मुल्क से खदेड़ने के लिए डौट बस्टर्स जैसी मुहिम चली थी. आज की नई पीढ़ी डौट बस्टर्स टर्म से वाकिफ नहीं है. दरअसल, यह एक खास समुदाय या संप्रदाय से नफरत करने वाला हेट ग्रुप था जो 1987 के दौरान न्यू जर्सी में बड़ा कुख्यात था. इस ग्रुप का काम अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों से मारपीट करना तथा उन्हें अमेरिका से भगाना था.

जुलाई 1987 में तो बाकायदा जर्सी जर्नल में इस आशय की धमकी प्रकाशित हुई थी जिस में कहा गया था– ‘‘जर्सी सिटी से भारतीयों को निकालने के लिए किसी भी हद तक जाया जाएगा.’’ उस दरम्यान कई भारतीयों पर 10-12 के गुट में अमेरिकियों ने हमले किए. कई लोग कोमा में गए जबकि कइयों की मौत हो गई. प्रमुख तौर पर न्यूयौर्क और जर्सी में फैले इस डौट बस्टर्स ने ऐसी कई वारदातों को अंजाम दिया. 1987 से 1993 तक इस ग्रुप का खौफ रहा. कहा जाता है यह हिंदू औरतों, जो माथे पर बिंदी (डौट) लगाती हैं, उन्हें निशाना बनाता था. और ग्रुप के नाम के पीछे भी यही वजह रही.

कितनी अजीब बात है कि सालों बाद अमेरिका में ही प्रैसिडैंट के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में मुसलिमों को न घुसने की बात वैसे ही कह रहे हैं जैसे डौट बस्टर्स हिंदुओं के साथ करते थे.

– साथ में राजेश कुमार

5जी फोन के बारे में ये 5 खास बातें जानते हैं आप..!

धीरे-घीरे चर्चा बटोरने वाले 4-जी स्मार्टफोन की लोकप्रियता कम होने वाली है. चूंकि बाजार में मोबाइल नेटवर्क की पांचवी पीढ़ी यानी 5जी नेटवर्क के भविष्य में आने की बात की जा रही है. इस तकनीक के आने के बाद आप इंटरनेट से केवल 1 सेकेंड में 100 फिल्में एकसाथ डाउनलोड कर सकते हैं.

विशेषज्ञों की माने तो एक नये तरह की क्रांति के सूत्रपात में 5जी तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, जो कि पूरे विश्व में अनेक क्षेत्रों के अंतर्गत बड़े परिवर्तनों को जन्म देगी.

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यह तकनीक विदेशों के साथ भारत में भी विकसित की जा रही हैं. चलिए आपको इसके बारे में जानकारी दिए देते हैं-

5जी तकनीक
वैज्ञानिकों की माने तो 5जी तकनीक पांच साल बाद 2020 में हमारे सामने आ सकती है. उस समय आज का कोई भी स्मार्टफोन उस तकनीक का उपयोग नहीं कर सकेगा. मोबाइल निर्माताओं के सामने 5जी सपोर्टेड मोबाइल बनाने की भी एक बड़ी चुनौती रहेगी. इस तकनीक से आपकी डाटा स्पीड 100 गीगाबाइट्स प्रति सैकेण्ड तक पहुंच जाएगी अर्थात् सौ फिल्में एक साथ एक सैकेण्ड में डाउनलोड हो सकेगी. 5जी तकनीक में न्यू रेडियो एक्सेस (एनएक्स), नई पीढ़ी का एलटीई एक्सेस तथा बेहतर कोर नैटवर्क होगा. इससे डाटा के तीव्र आदान-प्रदान के साथ ही इन फोनों पर इंटरनेट ऑफ थिंग्स या आई.ओ.टी. की सुविधा भी मिल सकेगी.

अगले कुछ वर्षों में भारत में हो सकती है 5जी तकनीक
अगले कुछ वर्षों में भारत में भी इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए 5जी तकनीक लॉन्च हो सकती है. चूंकि कुछ कंपनियां इसकी तैयारियों में जुट चुकी है. यह बात दूसरी है कि फिलहाल अभी तक 2जी/3जी का दौर ही चल रहा है और 4जी तकनीक तो अभी तक शुरुआती दौर में ही है. वहीं बात करें विश्व के दूसरे देशों की तो वहां 5जी तकनीक पर बहुत तेजी से काम हो रहा है.

इंटरनेट में भी 5जी तकनीक का विकास
वैज्ञानिकों को 5जी तकनीक के लिए एक से दो गीगाहट्र्ज की चैनल बैण्ड विड्थ इस्तेमाल करने वाला एंटीना विकसित करना होगा, जोकि वर्तमान में 4 जी के लिए 20 मैगाहट्र्ज ही है. 2020 तक इंटरनेट से कनेक्टेड बहुत सारे नये गैजेट आ सकते हैं. वीडियो ट्रैफिक 22 गुना तक बढ़ जायेगा. स्मार्टफोन टेलीविजन की तरह होंगे जिसमें यूजर्स लाइव फिड्स प्राप्त करते हैं.

मोबाइल भी ऐसी तकनीक वाले होंगे
5जी तकनीक में बहुत बड़ी स्पेक्ट्रम बैण्डविड्थ का इस्तेमाल होगा. फिलहाल अधिकांश मोबाइल एंटीना 10-20 मेगाहट्र्ज बैंडविड्थ पर ही काम करते हैं, जबकि 5जी में 2 गीगाहट्र्ज बैण्डविड्थ पर काम करने वाले मोबाइल विकसित करने पड़ेंगे. इसलिए स्मार्टफोन नेटवर्क तकनीक विकसित करने में वैज्ञानिकों को इतना समय लग रहा है.

2021 तक 5जी मोबाइल कर जाएंगे 15 करोड़ का आंकड़ा पार
दूरसंचार उपकरण निर्माता कंपनी एरिक्सन की मोबिलिटी रिपोर्ट की माने तो विश्व में साल 2021 तक 5जी सुविधा से लैस मोबाइल फोनों की संख्या 15 करोड़ पर पहुंच जाएगी. 4जी मोबाइल की तुलना में 5जी मोबाइल की बिक्री अधिक तेजी से बढ़ेगी. 5जी नेटवर्क के व्यावसायिक प्रयोग का आरंभ 2020 से होने का अनुमान लगाते हुए कहा गया है कि 2021 में 5जी मोबाइल फोन यूजर्स की संख्या में सबसे अधिक बढ़ोतरी दक्षिण कोरिया, जापान, चीन तथा अमरीका में होगी.

गूगल ने रंग-बिरंगे डूडल से किया नए साल का आगाज

गूगल ने नए साल पर अपना रंग बिरंगा डूडल पेश करते हुए सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएं दीं. गूगल के इस डूडल में रंग-बिरंगी चिड़ियाएं एक डाल पर बैठी हुई हैं. चिड़ियाएं चह्कते हुए नए और नन्हें मेहमानों का स्वागत करती हैं.

गूगल के इस डूडल में ठीक मध्यरात्रि में नन्हें मेहमानों का आगमन होता है. यदि पेज को रिफ्रेश किया जाए तो आप देखेंगे कि डाल पर दिख रहा अंडा तीन बार अलग अलग बच्चों को जनम देता है. एक बार उसमें पांच टर्टल दिखाई देते हैं, एक बार बेबी मगरमच्छ और एक बार एक डक नजर आ रहा है.

गूगल का यह डूडल नए साल की नई आशाओं, नई उम्मीदें और नई सोच पर आधारित है.

फेसबुक पर मिलेगी प्लम्बर-फोटोग्राफर की सुविधा..!

जल्द ही आप फेसबुक पर आस-पास के प्लंबिंग और फोटोग्राफी जैसी सेवा देने वालों को भी ढूंढ पाएंगे. सोशल नेटवर्किंग साइट ने फेसबुक प्रोफेशनल सर्विसेज फीचर लांच किया है, जो आपको आस-पास के उच्च रेटिंग वाले स्थानीय सेवा प्रदाताओं की एक डायरेक्टरी से जोड़ेगा.

इस पृष्ठ पर सेवा प्रदाताओं के फोन नंबर और अन्य जरूरी सूचनाएं मिल जाएगी. इस प्रकार की सेवा हालांकि फेसबुक से पहले अमेजन और गूगल भी दे रही हैं. इस सेवा के तहत कारोबारी अपने कारोबार का स्थानीय स्तर पर प्रचार कर सकते हैं.

एक साल में सबसे ज्यादा गोल का रिकॉर्ड बार्सिलोना के नाम

अर्जेंटीना के स्टार फुटबॉलर लियोनेल मेसी के गोल की बदौलत बुधवार को बार्सिलोना ने रियल बेटिस को 4-0 से मात दी. स्पेनिश लीग लिस्ट में बार्सिलोना 38 प्वॉइंट के साथ टॉप पर है.

बार्सिलोना ने इस साल 180 गोल दागे हैं, जो साल 2014 में मेड्रिड की ओर से दागे गए 178 गोल से अधिक है. इस बीच, बार्सिलोना के साथ अपना 500वां मैच खेलने वाले मेसी ने कहा, ‘यह साल बहुत ही शानदार रहा और हम इसे इसी तरह खत्म करना चाहते थे. इससे बेहतर करना थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन हमेशा की तरह हम इससे बेहतर करने की कोशिश करेंगे.’

स्पेनिश लीग लिस्ट में एटलेटिको मेड्रिड 38 अंकों के साथ दूसरे स्थान पर है. बार्सिलोना और एटलेटिको के अंक बराबर हैं, लेकिन गोल की संख्या में अंतर है. इस लीग लिस्ट में रियल मेड्रिड 36 प्वॉइंट के साथ तीसरे स्थान पर है.

पिछले 12 महीनों में बार्सिलोना ने चैम्पियन लीग, ला लीग, कोपा डेल रे, यूईएफए सुपर कप और क्लब वर्ल्ड कप खिताब जीते हैं और इन सभी जीत के साथ क्लब ने साल में 180 गोल दागने का नया रिकॉर्ड बनाया है.

IPL-8 के सबसे महंगे खिलाड़ी युवराज को दिल्ली ने निकाला

टीम इंडिया में वापसी का जश्न मना रहे युवराज सिंह, वीरेंद्र सहवाग और ईशांत शर्मा के लिए 2015 का अंत अच्छा नहीं रहा. इन खिलाड़ियों को IPL-9 के लिए संबंधित फ्रेंचाइजी ने टीम से रिलीज कर दिया. अब इनके भविष्य का फैसला 9 फरवरी को होने वाली बोली में तय होगा.

पिछले सीजन में दिल्ली ने युवी को 16 करोड़ रुपए में खरीदा था. गौरतलब है कि आईपीएल 2016 के लिए खिलाड़ियों को रिटेन करने की विंडो 31 दिसंबर शाम पांच बजे तक थी.

जहां दिल्ली डेयरडेविल्स ने युवराज को बाहर किया, वहीं किंग्स इलेवन पंजाब ने वीरेंद्र सहवाग को और सनराइजर्स हैदराबाद ने ईशांत शर्मा को टीम से बाहर का रास्ता दिखा दिया.

आइए एक नजर डालते हैं कि आईपीएल टीमों ने 31 दिसंबर की डेडलाइन पर कुल कितने प्लेयर्स को रिलीज किया और कितने को रिटेन किया-

  • 24 विदेशी खिलाड़ियों सहित 61 को टीमों ने बोली के लिए रिलीज कर दिया.
  • 6 फ्रेंचाइजी टीमों ने 37 विदेशी खिलाड़ियों सहित कुल 101 खिलाड़ियों को टीम में बनाए रखा.

कौन से खिलाड़ी हुए रिलीज

  • दिल्ली डेयरडेविल्स ने युवराज के अलावा मनोज तिवारी, जयदेव उनादकट, एंजेलो मैथ्यूज और ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी गुरिंदर संधू सहित 10 को बाहर कर दिया.
  • बेंगलुरू ने घरेलू क्रिकेट में जबरदस्त प्रदर्शन करने वाले जलज सक्सेना सहित सबसे अधिक 14 खिलाड़ियों को रिलीज किया.
  • किंग्स इलेवन पंजाब ने विस्फोटक वीरेंद्र सहवाग और ऑस्ट्रेलिया के जॉर्ज बेली सहित 8 खिलाड़ियों को रिलीज किया.
  • कोलकाता नाइटराइडर्स ने 10 खिलाड़ियों और मुंबई ने जोस हेजलवुड और प्रज्ञान ओझा सहित 10 खिलाड़ियों को बाहर किया.
  • हैदराबाद ने ईशांत शर्मा और डेल स्टेन सहित 9 खिलाड़ियों को बोली के लिए रिलीज कर दिया.
  • रॉयल चैलेंजर्स बेंगलूरु ने वेस्टइंडीज के डेरेन सैमी को रिलीज किया.

किस टीम के पास कितना पैसा बाकी है

  • दिल्ली डेयरडेविल्स के पास नीलामी के लिए 36 . 85 करोड़ रुपये होंगे. दिल्ली ने 29.15 करोड़ रुपए खर्च किए हैं.
  • सनराइजर्स हैदराबाद के पास 30 करोड़ 15 लाख रुपये का पर्स होगा.
  • मुंबई इंडियंस के पास 14 करोड़ 40 लाख रूपये होंगे. मुंबई ने सबसे ज्यादा 51.59 करोड़ रुपए खर्च किए हैं.
  • केकेआर के पास 17 करोड़ 95 लाख रुपए खर्च कर दिए हैं.
  • पंजाब और आरसीबी के पास क्रमश: 23 करोड़ और 21 करोड़ 62 लाख रुपए होंगे.
  • दो नई टीमों इंटेक्स राजकोट और संजीव गोयनका की पुणे फ्रेंचाइजी के पास 27 करोड़ रुपए होंगे. उन्होंने प्रतिबंधित चेन्नई सुपर किंग्स और राजस्थान रॉयल्स से पांच-पांच खिलाड़ी खरीदे हैं.  

42 साल बाद कोई भारतीय बना वर्ल्ड का नंबर वन गेंदबाज

भारत के स्टार ऑफ स्पिनर रविचंद्रन अश्विन को साल के आखिरी दिन गुरूवार को बेहतरीन तोहफा मिला. अश्विन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) की ताजा जारी टेस्ट रैंकिंग में विश्व के नंबर एक गेंदबाज बन गए हैं.

आईसीसी ने डरबन में खेले गए इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका के टेस्ट मैच और मेलबोर्न में ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज के बीच समाप्त हुए बॉक्सिंग डे टेस्ट के बाद यह रैंकिंग जारी की है. बाक्सिंग डे टेस्ट से पहले दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज डेल स्टेन नंबर एक टेस्ट गेंदबाज थे, लेकिन अब अश्विन ने यह स्थान हासिल कर लिया है.

अश्विन के करियर की यह सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग हैं. वह 871 रेटिंग अंकों के साथ शीर्ष पर हैं, जबकि दक्षिण अफ्रीकी गेंदबाज स्टेन उनसे चार अंक पीछे 867 अंकों के साथ दूसरे स्थान पर खिसक गए हैं. अश्विन को स्टेन के चोटिल होने का फायदा मिला है. अश्विन ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ गत माह संपन्न हुई घरेलू टेस्ट सीरीज में शानदार प्रदर्शन किया था. स्टेन 2009 से टेस्ट गेंदबाजी रैंकिंग में शीर्ष पायदान पर थे.

गत सप्ताह आईसीसी द्वारा 2015 के सर गारफील्ड सोबर्स ट्रॉफी पुरस्कार से सम्मानित किया ऑस्ट्रेलियाई कप्तान स्टीवन स्मिथ टेस्ट बल्लेबाजी रैंकिंग में शीर्ष पायदान पर पहुंच गए हैं. 26 साल के स्मिथ को चार स्थान का फायदा हुआ है और वह केन विलियमसन , ए बी डीविलियर्स और जो रूट को पछाड़ते हुए नंबर एक पर पहुंच गए हैं.

42 साल बाद किसी किसी इंडियन बॉलर को यह कामयाबी मिली है. आखिरी बार 1973 में लेफ्ट आर्म स्पिनर बिशन सिंह बेदी नंबर वन बने थे. 

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