अमेरिका का एक नया, अलग, रोमांचक रूप देखिए जिसे देख कर मुख से सहसा ही ये शब्द निकल पड़ेंगे, ‘अमेरिका, यू आर रियली ग्रेट.’ अमेरिका को यूएस अथवा यूएसए या फिर संक्षेप में केवल स्टेट्स कहा जाता है, उस की अत्यंत दर्शनीय राजधानी वाशिंगटन डीसी है. सारी दुनिया अमेरिका को ग्रेट मानती है. कोई इसे सामरिक दृष्टि से तो कोई इसे स्टैच्यू औफ लिबर्टी व नियाग्रा फौल्स जैसे आश्चर्यों के कारण ग्रेट कहता है तो कोई इसलिए कि इसी देश ने अब तक सब से ज्यादा नोबेल पुरस्कार जीते हैं.

कुछ लोग इसे इस के माइकेल फेल्प्स जैसे धुरंधर तैराकों या फिर टाइगर वुड्स जैसे प्रतिष्ठित गोल्फर्स के कारण भी ग्रेट मानते व समझते हैं, तो कई और लोग इसे इसलिए ग्रेट कहते हैं कि दुनियाभर के स्टूडैंट्स शिक्षा की दृष्टि से इसी को अपनी श्रेष्ठ पसंद मानते हैं.

इस देश का हम ने 5 बार भ्रमण किया, महसूस किया कि अब इस के तन की सुंदरता के बजाय इस के मन की, सामाजिक रचना की, इस की अनोखी संस्कृति की एक संक्षिप्त झांकी सब को दिखा दें ताकि इस सुंदर देश की पहचान आप के मन में बस जाए. इस के कई रस्मोरिवाज, उत्सव, कानूनी नजरिए, सार्वजनिक सेवाएं दिलचस्प और उल्लेखनीय हैं. इन पहलुओं के व्यक्तिगत अनुभव से भी यह गे्रट बन जाता है.

वाह न्यूयौर्क

सुपर पावर अमेरिका की झांकी, न्यूयौर्क से शुरू करते हैं. ‘बिग ऐप्पल’ कहलाने वाला यह शहर अमेरिका की आर्थिक राजधानी तो है ही, इसे वैश्विक राजधानी भी कहा जाता है. इसलिए नहीं कि यहां स्टैच्यू औफ लिबर्टी व ऐंपायर स्टेट बिल्डिंग जैसे आश्चर्य हैं बल्कि इसलिए कि यहां एक पूरा लघु विश्व समाया है. न्यूयौर्क सिटी में दुनिया के सभी 220 देशों के वंशज बसे मिलेंगे, यहां दुनिया का हर व्यंजन मिलेगा और यहां विश्व की 300 भाषाएं बोलते लोग मिलेंगे शांति और प्यार के सहअस्तित्व में.

न्यूयौर्क को ‘वर्ल्ड संस्कृतियों का मैल्टिंग पौट’ भी कहा गया है. यहां ‘लिटिल इटली’, ‘लिटिल चाइना’, ‘लिटिल इंडिया’ जैसे छोटेछोटे इटैलियन, चीनी, भारतीय बाजार हैं जहां आप को हर देसी चीज मिल जाएगी. समोसे की प्लेट जरूर दोढाई सौ रुपए की पड़ेगी, पर उपलब्ध तो है.

न्यूयौर्क में हमारे साथ एक मजेदार घटना घटी. एक रेस्तरां में हम ने मसालेदार गुजराती चाय पी और पहले जब काउंटर पर पेमैंट करने लगे तो देखा कि ‘सरिता’ का नया अंक मैनेजर के सामने पड़ा था. पूछने पर पता लगा कि मैनेजर की पत्नी नौर्थ इंडियन हैं और ‘सरिता’ उन की प्रिय पत्रिका है जो वहां 3-4 डौलर में खरीदी जाती है. जब मैं ने बताया कि मैं ‘सरिता’ का एक लेखक हूं तो मैनेजर ने मेरी चाय के पैसे लेने से इनकार कर दिया. उन की इस भावना से मैं विभोर हो उठा, मैं ने उन्हें हृदय से धन्यवाद दिया.

यहां यह बता देना शायद अहम रहेगा कि यूरोप के मुकाबले अमेरिका फिर भी सस्ता व अफोर्डेबल है. एक और बात भी बताने योग्य है कि सामान्य व्यवहार में वहां स्वच्छता, सफाई, ईमानदारी आम बात है.

एक अन्य भारतीय रेस्तरां में भोजन करते टेबल के नीचे मुझे किसी का गिरा हुआ पर्स मिला जिसे मैं ने मैनेजर को दे दिया. कुछ ही देर में पर्स का मालिक आ पहुंचा और मुझे धन्यवाद के साथ उस ने 50 डौलर का नोट भी औफर किया. पैसे लेने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि यदि मेरा पर्स उसे मिलता तो वह भी निश्चय ही उसे वापस करता. वहां यह एक सामान्य व्यवहार है. पर्स का मालिक गोरा अमेरिकी था.

अमेरिकी भी भारतीय व्यंजनों को खूब पसंद करते हैं. आप उन्हें भारतीय थाली खाते अकसर देख सकते हैं. न्यू जर्सी के अपने रिहायशी इलाके न्यूपोर्ट-पावनिया में जब फनफेयर लगता है तो सब से लंबी कतारें भारतीय खाद्य काउंटरों पर ही देखी जाती हैं. गोरे, अश्वेत, मैक्सिकन, चाइनीज सभी अमेरिकी भारतीय व्यंजनों के दीवाने हैं.

मैं ने न्यूपोर्ट मौल में भी यही देखा जहां चाइनीज, जापानी, इटैलियन, इंडियन सभी प्रकार के ईटिंग काउंटर्स हैं पर इंडियन काउंटर्स सब से ज्यादा लोकप्रिय हैं. एक दिलचस्प बात यह है कि इन काउंटर्स के सामने एकएक लड़की अपनेअपने व्यंजन को मुफ्त में चखाने को खड़ी रहती है ताकि आप उन के काउंटर्स को पसंद करने लगें. यह एक स्वस्थ और जायकेदार एडवरटाइजिंग हुई न? थोड़ा सावधान भी रहना है क्योंकि चखने से पहले आप साफसाफ पूछ लें कि यह वैज डिश है या नौनवेज डिश.

चक्कर अंगरेजी और दाएंबाएं का

पहली दफा आप को शायद अजीब लगे कि स्थानीय अमेरिकियों की अंगरेजी आप को ठीक से पल्ले नहीं पड़ती. उन का उच्चारण, लहजा, स्टाइल हम से अलग है. अश्वेतों का कुछ ज्यादा अलग है. परंतु घबराएं नहीं, थोड़ा ध्यान से उन्हें सुनें और जरूरत पड़े तो आप उन्हें ‘स्लो’ बोलने के लिए रिक्वैस्ट करें. कुछ ही समय में आप वहां की स्थानीय अंगरेजी समझने लगेंगे. आप स्वयं भी स्लो और ज्यादा स्पष्ट बोलने की कोशिश करें. अलबत्ता वहां के स्थानीय लोगों को हमारी अंगरेजी समझने में दिक्कत नहीं होगी क्योंकि वे सारी दुनिया के लोगों की अंगरेजी समझने के अभ्यस्त हो चुके हैं.

अमेरिका जाने से पहले कुछ होमवर्क कर के जाएं. मसलन, वहां बैगन को एग प्लांट, भिंडी को ओकरा और बेल फू्रट को स्टोन ऐप्पल बोला जाता है, भले ही आप इन्हें इंडियन बाजार से खरीदें. और वहां के भारतीय तकल्लुफ वाली अंगरेजी के बजाय

अपनी खुद की अंगरेजी बोलते हैं. मसलन, ‘मैं ठीक हूं’ को कहेंगे ‘आई एम गुड’ जबकि हम लोग ‘आई एम फाइन’ वगैरा बोलते हैं.

आज हम भारतीयों का सम्मान वहां पहले से ज्यादा है. सो, आश्चर्य न करें यदि कोई दुकानदार आप का ‘नमस्ते’ या ‘नस्ते’ कह कर स्वागत करे. हौलीवुड फिल्में देख कर पाठकों को शायद यह पता तो होगा ही कि अमेरिका में वाहन सड़क के दाईं ओर चलते हैं जबकि भारत में लैफ्टहैंड ड्राइविंग है. तो, पैदल घूमते वक्त खयाल रहे कि आप फुटपाथ के दाईं ओर रहें. एस्केलेटर पर उतरतेचढ़ते समय भी आप दाईं ओर रहें. अगर इस दाएंबाएं का चक्कर आप नहीं समझे तो लोगों से फुटपाथ पर बेवजह टकराते रहेंगे.

सड़कों, बाजारों में घूमते समय आप को टौयलेट जाने की जरूरत कभी न कभी जरूर पड़ेगी. बता दें कि जब मैकडोनल्ड्स, डंकिन डोनट्स या सबवे आदि में कौफी पीने या सैंडविच, फ्रैंचफ्राइज खाने के लिए घुसें तो वहां इन सुविधाओं का इस्तेमाल करना आप का हक माना जाता है. मौल्स, स्टोर्स वगैरा में भी ये सुविधाएं रहती हैं. अच्छी बात यह है कि आप को इस के लिए एक पैसा भी नहीं चुकाना है. अमेरिका के विपरीत यूरोप के कई देशों में आप को पैसे खर्च कर के ही टौयलेट में प्रवेश मिलता है.

न्यूयौर्क की सार्वजनिक बसों में व्हीलचेयर वाले विकलांगों के लिए प्रवेश के इंतजाम भी हैं. हम ने देखा कि बस के ड्राइवर ने लीवर घुमाया तो बस के पिछले हिस्से का एक प्लेटफौर्म नीचे हो गया. ड्राइवर ने मदद की और यात्री व्हीलचेयर समेत इस प्लेटफौर्म से बस के अंदर पहुंच गया. पूरे देश में विकलांगों के लिए सुविधाएं हैं, उन के लिए अलग टौयलेट कक्ष, अलग पार्किंग वगैरा का इंतजाम रहता है. इन मानवीय मूल्यों ने हमें मोह लिया. यदि आप सीनियर हैं और पैदल सड़क पार करना चाहते हैं तो डिवाइडर या सड़क के किनारे एक बटन दबाइए, सिगनल लाल हो जाएगा और आप निर्विघ्न दूसरी ओर जा सकते हैं.

सीनियर्स की बात चली तो एक दिलचस्प वाकेआ बताते हैं. न्यू जर्सी में हम अपने बेटे के घर पर रुके थे. एक दिन मन किया कि पास की पब्लिक लाइब्रेरी में जाएं, कुछ पढ़ेंलिखें. बेटे से कहा तो उस ने सीनियर्स सर्विसेज वालों को फोन कर दिया. गाड़ी आई, हमें लाइब्रेरी ले गई और उसे वापसी का समय बता कर हम लाइब्रेरी में जा बैठे. कुछ घंटे बिता कर फिर उसी गाड़ी से वापस आ गए. बेटे के लाइब्रेरी कार्ड पर 5 पुस्तकें भी इश्यू करा लाए.

लाइब्रेरियन ने बताया, यह फ्री लाइब्रेरी है, कोई चार्ज नहीं. एक बार में आप 50 पुस्तकें तक इश्यू करा सकते हैं. लाइब्रेरी काफी बड़ी थी और वहां काम करने वाले अधिकतर वृद्ध लोग थे. बाद में बेटे ने बताया कि इन सारी सुविधाओं का खर्च उस टैक्स से निकलता है जोकि उस इलाके के निवासी ‘हाउस टैक्स’ के तौर पर देते हैं.

एक दिन बहू के संग मैं यों ही एक सरकारी दफ्तर गया, बहू को एक लाइसैंस रिन्यू करवाना था. लंबी लाइन थी, पर मुझे देख एक कर्मचारी आ गया और पूछा कि क्या काम है? मेरे सीनियर होने के कारण हमें सीधे खिड़की तक पहुंचा दिया गया. सीनियोरिटी का एक और फायदा भी मुझे मिला. बेटा और मैं एक केंद्र पर अपनी कार रिपेयर कराने गए तो जब बेटा मेकैनिक के साथ व्यस्त था, मुझे सैंडविच, कौफी आदि भेज कर व्यस्त रखा गया.

कोल्स के स्टोर्स में बुधवार के दिन सीनियर्स को हर चीज पर 15 फीसदी की छूट दी जाती है. तो अमेरिका में सीनियर दिखना, मतलब फायदा, कोई उम्र नहीं पूछता.

अमेरिका, आज का जगद्गुरु

प्यारे, आज पूरी दुनिया के विद्याकांक्षी नौजवानों की प्रथम चौइस यूएस ही है. चाइना के तो 3 लाख विद्यार्थी वहां पढ़ रहे हैं. हम दूसरे नंबर पर हैं. जी हां, आज की तारीख में अमेरिका के 4 हजार से अधिक विश्वविद्यालयों, कालेजों में 1 लाख 33 हजार भारतीय फैशन, बिजनैस, डाक्टरी आदि के अलावा साइंस, टैक्नोलौजी, इंजीनियरिंग, मैथ्स भी पढ़ रहे हैं और हमें पता है कि पढ़ने के बाद ज्यादातर लोग वहीं बस जाना चाहेंगे. मगर क्यों?

दरअसल, वहां कानून का राज है, अक्ल का राज है, साफसफाई है, सुरक्षा है, नियम हैं, आकर्षक भवन सुविधाएं हैं, बढि़या सड़कें हैं, खुशगवार माहौल है और भ्रष्टाचार का नाम नहीं.

अमेरिकी लोग दुनिया में किसी तरह की भी राजनीति खेलें, अपने देश में सामान्य जीवन को उन्होंने राजनीतिमुक्त और स्वच्छ बना रखा है. यद्यपि 50 साल पहले तक अमेरिका में कालेगोरे न साथ में पढ़ सकते थे, न ही एक टेबल पर खाना खा सकते थे परंतु आज भारी परिवर्तन है. सभी लोगों में बराबरी का एहसास है और आज रेसिज्म यानी कालेगोरे का फर्क नगण्य सा है. कालेगोरे आपस में खूब ब्याह रचा रहे हैं.

भारतीय भी निष्कंटक और अच्छा जीवन जी रहे हैं, वहां उन की इज्जत भी है. अलबत्ता, टैक्सी ड्राइवरों तथा सड़क के किनारे फू्रट विक्रेताओं में भारतीय जरूर मिलेंगे.

एक दिलचस्प बात? अपने देश में पटेल गुजरातियों को रिजर्वेशन चाहिए पर अमेरिका में पटेल लोग बड़े व्यवसायी, होटल, स्टोर मालिक आदि हैं और उत्तम जीवन जी रहे हैं. सच कहें तो भारतीय बाजारों जैसे जैक्सन हाईट्स, जर्नल स्क्वायर, ऐडिसन आदि में गुजरातियों का ही प्रभुत्व है. वहां हमें घूमते हुए ऐसे गुजराती भी मिले जोकि बरसों से अमेरिका में हैं पर न वे अंगरेजी समझते हैं न हिंदी. गुजराती भाषा से ही वे अपना व्यवसाय व जीवन चला पा रहे हैं. तो अगर आप को अमेरिका जैसा देश बेहतर जीवन, बेहतर शिक्षा, बेहतर माहौल और

बेहतर भविष्य देगा तो आप क्यों न वहां जा बसेंगे?

क्या आश्चर्य कि अमेरिका आ बसने का ख्वाब देखने वाले विदेशी नागरिकों पर कुछ वीसा नियंत्रण भी हो? शिक्षा, विज्ञान आदि के क्षेत्र की बात करें तो भारतवंशी सुब्रमण्यम चंद्रशेखर, हरगोविंद सिंह खुराना तथा रामकृष्णन को अमेरिका जा कर ही नोबेल पुरस्कार मिल सके. अब वर्ष 2015 में अमेरिका के 3 नोबेल विजेताओं में 2 ऐसे हैं जो विदेशों से आ कर वहां बसे. अजीज सैंकर (रासायनिकी नोबेल विजेता) टर्की में जन्मे थे तथा कैम्पबैल (चिकित्साविज्ञान नोबेल विजेता) आयरलैंड में जन्मे थे. शिक्षा के क्षेत्र में कई भारतीयों ने भी कई पुरस्कार जीते हैं. सच तो यह है कि अमेरिका आज का जगद्गुरु तो है ही, वहां शिक्षा पाने का खर्च इंगलैंड के मुकाबले कम भी है जबकि स्कौलरशिप्स वहां ज्यादा हैं.

एक बात और, जो हमें रट्गर यूनिवर्सिटी के एक भारतीय प्रोफैसर ने बताई. वह यह कि अमेरिका का अलिखित नियम है कि दुनिया के सर्वोत्तम प्रोफैसरों को अपनी यूनिवर्सिटीज में पढ़ाने को आमंत्रित करो, पैसा वे जितना मांगें, दे दो. किसी देश की यह पौलिसी हो तो उसे जगद्गुरु बनने से कौन रोकेगा? वहां ‘नासा’ की तो शुरुआत ही जरमनी ने की.

अमेरिका के कुछेक लोकप्रिय नगरों में भारतीयों का बड़ा जमावड़ा है. न्यूयौर्क के अलावा न्यू जर्सी, शिकागो, सिएटल, सैनफ्रांसिस्को, वाश्ंिगटन आदि इन में शामिल हैं. 3 साल के 5 प्रवासों में हम ने देखा कि भारतीय गर्व से अपने उत्सव मनाते हैं जिन में अन्य देशवंशी भी रुचि से भाग लेते हैं. इसी प्रकार भारतीय लोग भी वहां क्रिसमस, हैलोवीन आदि स्थानीय उत्सव जोश के साथ मनाते हैं, घरों में क्रिसमस ट्री लगातेसजाते हैं. यह स्वस्थ परंपरा है. भारतीय बच्चे क्रिसमस को भारतीय उत्सव ही समझते हैं.

पतझड़ के बाद वहां पेड़ करीबकरीब नंगे हो जाते हैं तो बुरे लगते हैं पर क्रिसमस व नए वर्ष से 1 महीने पहले ही इन पेड़ों पर सुंदर सजावटें होने लगती हैं. सो दिसंबरजनवरी में भी माहौल में जीवंत रौनक हो जाती है. क्रिसमस पर इतनी औनलाइन खरीदारी होती है कि कूरियर सर्विसेज बजाय क्रिसमस मनाने के डिलीवरी में व्यस्त रहती हैं, क्रिसमस वाले दिन भी. गलीगली में केरौल सौंग की मधुर ध्वनि गूंजती है. थैंक्सगिविंग भी अच्छा उत्सव है.

खरीदारी की बात चली तो ‘ब्लैक फ्राइडे’ का मुकाबला नहीं. साल में एक फ्राइडे को ऐसी राष्ट्रव्यापी सेल लगती है कि कईकई बड़े आइटम जैसे टीवी, कंप्यूटर आदि भी आधे दामों में मिल जाते हैं. दुकानेंस्टोर्स सुबह 9 बजे खुलते हैं मगर लाइनें रात को 12 बजे ही लग जाती हैं. यों समझिए कि इसे ‘स्टोर’ की लूट कहा जा सकता है. विशाल क्वांटिटी में सामान एकदो दिन में ही बिकने से अनेक कंपनियां ‘रैड’ से ‘ब्लैक’ में आ जाती हैं, इसी कारण इस फ्राइडे को ब्लैक फ्राइडे कहा जाता है (यहां ‘ब्लैक’ शब्द पौजिटिव है). बता दें कि जीसस के प्रयाण दिवस को गुड फ्राइडे कहा जाता है. व्यापार, व्यवसाय, मार्केटिंग, इकोनौमी में भी अमेरिका जगद्गुरु है, है न?

सावधान, यह अमेरिका है

आप जब अमेरिका में घूमें तो थोड़ी सावधानी भी बरतें. यहां बड़ेबड़े स्टोर्स में लाखोंकरोड़ों का सामान खुला पड़ा रहता है, सिर्फ कैमरों की निगरानी में. काउंटर्स पर पहुंचें तो सारा सामान पेश करें, कुछ भी आप के थैले या पर्स या बच्चे के हाथ में न रह जाए ताकि सभी खरीदारी की उचित रसीद बन जाए. यदि गलती से भी कुछ आप के पर्स में खरीदारी से पहले चला गया तो इसे चोरी माना जाएगा और चोरी मतलब पुलिस का आगमन.

अमेरिका में कोई भी 911 नंबर दबाता है तो 2 से 5 मिनट में पुलिस हाजिर (यदि आप को भी कोई इमर्जेंसी आ जाए तो बेशक 911 दबाएं) हो जाती है. इस का मतलब यह नहीं कि आप खरीदारी करते समय डरें, बस कोई मौका न दें कि कोई आप पर लांछन लगाए.

इसी प्रकार लालबत्ती पर नियमानुसार रुकें, जब पदयात्री सिग्नल हरा/सफेद हो तभी क्रौस करें. स्थानीय लोगों से कोई तकरार न करें, न ही उन की या अपने देश की राजनीति पर बहस करें. यदि मौल में ‘विश्राम सर्कल’ में आप बैठ कर कुछ खानापीना चाहें तो वहां निर्देशपट्टी देख लें कि वहां खाने की इजाजत है कि नहीं. खाने के बाद सारा कचरा कूड़ेदान के हवाले करें. मैट्रो टे्रन में कभी कुछ न खाएं.

आप को जान कर आश्चर्य होगा कि एक ही टमाटर ‘शौप राइट’ स्टोर में 2 डौलर, बीजेस स्टोर में 3 डौलर तथा ए ऐंड पी स्टोर में 4 डौलर प्रति मिल सकता है, स्टोर्स अपनेअपने दाम खुद तय करते हैं. किसी अन्य चीज में यह क्रम उलट भी सकता है. सो, ऐसी बहस न करें कि फलां स्टोर में ऐप्पल और केले इस स्टोर के मुकाबले आधे दाम में हैं. वैसे, यद्यपि पानी की, कोक की, दूध की, जूस की, बियर की हर बोतल या कैन केवल एक डौलर की आएगी मगर यही चीजें आप को ‘ब्रांक्स जू’ या फिर ‘डिज्नीलैंड’ में 5 डौलर प्रति में मिलेंगी. सो, शिकायत न करें.

एक खास बात और, जब आप ऐसे रेस्तरां में जाएं जहां टेबल सर्विस हो तो खानेपीने के बाद टिप देना न भूलें. अमेरिका में टिप्स एक प्रकार का मानवीय हक है चाहे आप बाल कटवाएं या फिर कोई और सेवा लें. यदि आप टिप न देंगे तो यह माना जाएगा कि सेवा में कमी थी वगैरा.

अमेरिकी लोग गिफ्ट और प्रशंसा के भूखे होते हैं, इसलिए आप किसी के घर खाने या चाय पर जाएं तो कुछ भेंट अवश्य ले जाएं और उन के भोजन की तारीफ भी करें. जीभर के खाएं, जीभर के तारीफ करें, शर्माएं तो बिलकुल नहीं, क्योंकि ‘और लीजिए’ जैसे शब्द वहां कोई न बोलेगा. और हां, कोई यह भी न बोलेगा कि आप पेटू हो या ज्यादा खाया. याद रखिए, अमेरिका में हमारे स्वयं के देशवासी, हमारे स्वयं के बच्चे, भाईबहन भी अमेरिकियों सा व्यवहार करेंगे. वहां खानेपीने व घूमने में स्वयं खर्च करें, भाईबहन या बच्चों पर निर्भर न रहें. इन सभी बातों का ध्यान रखें क्योंकि आप अमेरिका में हैं.

अमेरिका में भारतीय एकता

न्यूयौर्क में काम करने वाले चीनी व भारतीय युवा न्यू जर्सी के न्यूपोर्ट इलाके में हड्सन नदी के किनारे महंगे फ्लैटों में रहते हैं. वहां लोग कहते हैं कि यह इलाका सिर्फ भारतीय व चीनी युवा प्रोफैशनल्स ही अफोर्ड कर सकते हैं. मेरा बेटा भी सपरिवार वहां अपने फ्लैट में रहता है और जाहिर है कि मेरी तरह और कई मांबाप भी अपने बच्चों से मिलने आते रहते हैं. नतीजा, हर शाम नदी के किनारे भारतीय वृद्धों का जमावड़ा रहता है.

एक स्थानीय गुजराती हर्षद ने ‘नमस्ते इंडिया’ संस्था बना कर सब के नामपते भी नोट कर लिए हैं और साप्ताहिक कार्यक्रमों की सूची सहित सभी सदस्यों को ईमेल से साप्ताहिक न्यूज भी मिल जाती है. हर्षद सच्चे सामाजिक सेवी हैं और भारतीयों को महत्त्व के स्थल दिखा लाते हैं. वहां जो ‘विविधता में भारतीय एकता’ दिखती है वह भारत में नदारद है. एक स्थानीय भारतवंशी रोज शाम का समय हमारे संग बिताते थे, इस विषय पर उन की कुछ काव्य पंक्तियां हैं :

यह बज्मे दोस्तां है,

मोहब्बते जाविदां

आता है मुझ को इस में

नजर उल्फत का इक जहां

हड्सन का ये किनारा भी

एक दोस्त बन गया

संगम हमारा कर दिया,

कितना है मेहरबां

वहां जातिपांति, धर्मपंथ, हिंदू- मुसलमान, ऊंचनीच शब्द कभी दिमाग में न आते थे. एक दिन नदी के किनारे रहमान खान भी हम सभी से मिले, बोले, ‘यारो, हम सभी वहां हिंदुस्तान में भी इसी मोहब्बत से रहें तो मजा आ जाए.’ बता दें कि के रहमान खान उन दिनों हमारी पार्लियामैंट (राज्यसभा) के डिप्टी स्पीकर थे. हर 3-4 दिन में हम लोग 20-30-40 के ग्रुप में कनेक्टिकट का फौक्सवुड्स कैसीनो या वाशिंगटन का लिंकन मैमोरियल, न्यूयौर्क का ब्रांक्स जू या एटलांटिक सिटी कैसीनो वगैरा देखने को निकल जाते थे, फिर उसी दिन लौट आते. कभी किसी पार्क में  सामूहिक भोजन के बाद गीतसंगीतशायरी होती तो पुलिस भी आ जाती कि क्या चल रहा है. ‘प्योरली सोशल कल्चरल’ इंडियन फ्रैंड्स मीटिंग है, यह सुन कर, इंडियन स्नैक चख कर पुलिस वाले मुसकराते हुए वापस चले जाते.

इस के अलावा छोटेछोटे 3-3 या 4-4 के ग्रुप्स में भी कई भारतीय दिन में मौल्स घूम आते, कुछ घर का आलूप्याज ले आते, बच्चों को स्कूल से ले आते आदि. हर बुधवार हर परिवार अपनाअपना खाना बना लाता, काव्यजोक्सकहानी की महफिल के बाद इस भोजन को सामूहिक तौर पर खाते. पूरा खाना एक ही जगह रख देते, फिर अपनी पसंद से जो चाहो, खाओ. अलबत्ता, सर्दी के मौसम में ये सब मुश्किल था क्योंकि बाहर बर्फ में गिरनेफिसलने की बच्चों की ओर से मनाही थी. कुल मिला कर जिंदगी खुशगवार गुजरी.

भारत विरोधी सैंटीमैंट्स–डौट बस्टर्स

आज भारत का सब से बड़ा हितैषी मुल्क होने का दावा करते अमेरिका में कभी साउथ एशियन, खासकर भारतीयों, को अपने मुल्क से खदेड़ने के लिए डौट बस्टर्स जैसी मुहिम चली थी. आज की नई पीढ़ी डौट बस्टर्स टर्म से वाकिफ नहीं है. दरअसल, यह एक खास समुदाय या संप्रदाय से नफरत करने वाला हेट ग्रुप था जो 1987 के दौरान न्यू जर्सी में बड़ा कुख्यात था. इस ग्रुप का काम अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों से मारपीट करना तथा उन्हें अमेरिका से भगाना था.

जुलाई 1987 में तो बाकायदा जर्सी जर्नल में इस आशय की धमकी प्रकाशित हुई थी जिस में कहा गया था– ‘‘जर्सी सिटी से भारतीयों को निकालने के लिए किसी भी हद तक जाया जाएगा.’’ उस दरम्यान कई भारतीयों पर 10-12 के गुट में अमेरिकियों ने हमले किए. कई लोग कोमा में गए जबकि कइयों की मौत हो गई. प्रमुख तौर पर न्यूयौर्क और जर्सी में फैले इस डौट बस्टर्स ने ऐसी कई वारदातों को अंजाम दिया. 1987 से 1993 तक इस ग्रुप का खौफ रहा. कहा जाता है यह हिंदू औरतों, जो माथे पर बिंदी (डौट) लगाती हैं, उन्हें निशाना बनाता था. और ग्रुप के नाम के पीछे भी यही वजह रही.

कितनी अजीब बात है कि सालों बाद अमेरिका में ही प्रैसिडैंट के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में मुसलिमों को न घुसने की बात वैसे ही कह रहे हैं जैसे डौट बस्टर्स हिंदुओं के साथ करते थे.

– साथ में राजेश कुमार

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