एक और कैलेंडर साल बदल गया है. देश की अर्थव्यवस्था में जिस चमक की कल्पना की जा रही थी, वह नई सरकार के आने के डेढ़ साल बाद भी कहीं दिख नहीं रही है. इसके लिए नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उन के हर रोज उग्र होते भगवा ब्रिगेड को दोष देना गलत होगा. देश में असहनशीलता व धर्मांधता का जो वातावरण बन रहा है, उसका आर्थिक उन्नति से ज्यादा लेनादेना नहीं है.

देश की अर्थव्यवस्था में सुधार सिर्फ राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के बीच बने नॉर्थ ब्लॉक के फरमानों से नहीं हो सकता, यह हम 1947 के बाद से देख चुके हैं. नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय असल में देश की प्रगति में बाधा पहुंचाने वाला है, पर इतना नहीं कि देश दब जाए. जो परिवर्तन 1991 के बाद देखने को मिले, उनसे चमक तो आई, पर फिर वह धुंधली पड़ती चली गई, म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के स्ट्रीटलैंप की तरह, जो 10 दिन चमकता है और फिर फीका पड़ने लगता है.

एक देश की अर्थव्यवस्था तब सुधरती है, जब पूरी जनता मेहनत पर उतारू हो जाए और टोटकों, टैक्स ब्रेकों, सहूलियतों, कानूनों के बदलाव आदि का हल्ला न मचाती रहे. पिछले 100 सालों से पूरा देश नई तकनीक का लाभ उठाने में जुटा है, इसके सबूत कहीं नहीं हैं. अंग्रेजों ने भारतीयों के हाथ बांध नहीं रखे थे. हां, वे भारत को उभरता देश देखने के लिए मेहनत भी नहीं कर रहे थे.

जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी ने बातें बनाने और राज करने के अलावा देश को मेहनत करने के लिए नहीं उकसाया. सभी प्रधानमंत्री बात बंटवारे की करते रहे, निर्माण की नहीं. जब की भी, तो वह उस कान तक नहीं पहुंची, जिसके हाथ काम कर सकते थे. असल में कोई आवाज इतनी बुलंद ही न थी कि अनपढ़, अशिक्षित, फटेहाल, 10वीं सदी के नियमों और तब की तकनीक में जीते लोगों के कानों तक पहुंच सके.

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