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भारत भूमि युगे युगे

दिग्गी राजा की रानी

सोशल मीडिया पर भले ही मजाक उड़ता रहा पर दिग्विजय सिंह और उन की नईनवेली टीवी एंकर पत्नी अमृता राव ने जो हिम्मत दिखाई वह काबिलेतारीफ है. इस उम्र में शादी हैरत की बात नहीं लेकिन समाज और बातें करने वालों का दृढ़तापूर्वक सामना करना साहस की बात है. अमृता राव ने परिपक्वता का परिचय देते हुए शादी की जरूरत पर खासा व्याख्यान दे कर लोगों का मुंह ज्यादा नहीं खुलने दिया और यह भी साफ कर दिया कि उन्हें दिग्विजय सिंह की दौलत से कोई सरोकार नहीं. इस विवाह और उस के बाद की स्वीकारोक्ति से उन युवाओं को भी प्रेरणा लेनी चाहिए जो प्यार तो कर बैठते हैं पर जाति, धर्म और उम्र के चलते उसे शादी में तबदील करने से घबराते हैं. उम्मीद है विदेश से लौट कर दिग्विजय सिंह अपने पुराने तेवर में दिखेंगे क्योंकि कांग्रेस पार्टी को भी उन की, अमृता के बराबर ही जरूरत है.

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अपनों की दगा

चार दशक की सधी राजनीति में मुलायम सिंह ने खूब धोखे खाए हैं और दिए भी हैं इसलिए एक बेहतर मुकाम तक पहुंचने में उन्हें सहूलियत ही रही. लेकिन ताजा धोखा, धोखा ही नहीं बल्कि एक बड़ी दगा है जो उन्हें अपनों ने ही दी है. जोशजोश में मुलायम जनता परिवार के मुखिया तो बन बैठे थे लेकिन बिहार चुनाव में अपने समधी लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस की तिकड़ी ने सीट बंटवारे पर उन्हें भाव नहीं दिया तो नेताजी को ताव आना स्वाभाविक बात थी. इसी ताव में उन्होंने सपा को बिहार में सभी 242 सीटों पर लड़ाने का ऐलान कर डाला जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. इस से साबित हो गया कि बिहार में सपा के लिए न तो कोई जगह है न जरूरत है. वहां तो पहले से ही एकएक सीट के लिए मारकाट मची हुई है. इस से तो अच्छा था कि मुलायम सिंह बड़प्पन दिखाते. जो नहीं मिलना था उस का त्याग कर डालते. वजह, उन की पार्टी से बिहार में किसी को कोई नफानुकसान नहीं होने वाला.

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अन्ना आंदोलन पार्ट 3

2 अक्तूबर यानी गांधी जयंती से अन्ना हजारे फिर अनशन पर दिखेंगे लेकिन इस बार भीड़ कम होगी, जिस की वजहें कई हैं. पहली तो यह कि देश के युवाओं का मोह अन्ना और उन के आंदोलनों से भंग हो चला है, दूसरी यह कि अन्ना के अधिकांश समर्थक अब आम आदमी पार्टी का हिस्सा बन नेतागीरी में मशगूल हो गए हैं और तीसरी यह कि भूमि अधिग्रहण बिल पर मोदी ने यू टर्न ले लिया है. मीडिया के लिए भी अन्ना हजारे अब टीआरपी या पाठक बढ़ाने वाले व्यक्तित्व नहीं रह गए हैं. लेकिन इस के बाद भी अन्ना हजारे की अहमियत और जरूरत है. वजह, देश में सबकुछ ठीकठाक नहीं है, हर कोई मनमानी पर उतारू है. राष्ट्रीय राजनीति नरेंद्र मोदी और गांधीनेहरू परिवार के बीच आरोपप्रत्यारोपों में सिमटती जा रही है. ऐसे में अन्ना का आंदोलन कुछ तो नयापन देगा.

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हो गए पक्के नेता

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल 8 सितंबर को गुपचुप तरीके से कर्नाटक के प्रसिद्ध धर्मस्थल श्रीक्षेत्र पहुंचे और वहां भगवान से थोक में जाने क्याक्या मांगा. जाहिर है नजीब जंग को रास्ते पर लाने और आप नेताओं की गिरफ्तारी पर रोक की गुहार प्रमुख मांगें रही होंगी. श्रीक्षेत्र धर्मस्थल में देशभर के उद्योगपति, खिलाड़ी और अभिनेता अकसर जाया करते हैं. यहां धोती पहनना एक धार्मिक अनिवार्यता है. यहां से सैलिब्रिटी कुछ ले कर जाएं न जाएं पर काफी कुछ पंडों और ट्रस्ट को दे जरूर जाते हैं. हालांकि दिल्ली में मंदिरों और भगवानों की कमी नहीं लेकिन अरविंद केजरीवाल, कहा जा सकता है, अब राजनीति के रंग में पूरी तरह रंग गए हैं जिस का एक प्रमुख लक्षण धर्म और भक्ति है. दिल्ली की समस्याएं हल नहीं हो पा रही हैं, इस से भी वे घबराए हुए हैं कि अब क्या करें वादे तो कर लिए थे पर यह एहसास नहीं था कि उन्हें पूरे करने में इतनी दिक्कतें आएंगी और आखिरी सहारा भगवान ही बनेगा. 

ब्यूटी, सैक्स, दौलत और कत्ल : महत्त्वाकांक्षा और माया का इंद्राणी जाल

महत्त्वाकांक्षा जीवन में आगे बढ़ने के लिए बेहद सार्थक और जरूरी है लेकिन अगर यही महत्त्वाकांक्षा नाजी तानाशाह हिटलर सरीखी हो जाए तो इतिहास के शब्द खून से सने नजर आते हैं. शीना हत्याकांड में अबूझ पहेली बनी इंद्राणी मुखर्जी भी इसी अतिमहत्त्वाकांक्षा के जाल में जा फंसी जो उस ने जानेअनजाने खुद ही बुना था. ऊंची साख बनाने और प्रसिद्धि पाने की मानसिकता ने आज के दौर की इंद्राणी सरीखी महिलाओं के हौसले बुलंद तो किए हैं पर कुछेक को अंधेरे दलदल की ओर धकेल भी दिया जहां सिवा अफसोस और अवसादभरी तनहा जिंदगी के कुछ भी नहीं होता. इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है शीना बोरा मर्डर केस में फंसी आईएनएक्स मीडिया की पूर्व सीईओ इंद्राणी मुखर्जी.

पोरी बोरा से इंद्राणी बनने तक

देश की सब से बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुका शीना बोरा हत्याकांड पुलिस, मीडिया सब के लिए एक पहेली बना हुआ है. असम के गुवाहाटी की पोरी बोरा मायानगरी मुंबई में जिस तरह हाई प्रोफाइल इंद्राणी मुखर्जी बन गई, वह बौलीवुड की किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. इंद्राणी मुखर्जी बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी थी. कमसिन उम्र में ही उस का प्रेम परवान चढ़ा और शादी के पहले ही वह गर्भवती हो गई. उस समय पोरी बोरा के नाम से जानी जाने वाली इंद्राणी ने सिद्धार्थ दास से पहली शादी शिलांग (मेघालय) में की. हालांकि सिद्धार्थ ने इसे स्वीकार नहीं किया है. शादी के बाद बेटी शीना और बेटे मिखाइल को जन्म दिया. सिद्धार्थ से अलग होने के बाद व्यापारी संजीव खन्ना से दूसरी शादी रचाई. इस रिश्ते से विधि खन्ना पैदा हुई. कुछ समय बाद संजीव खन्ना से भी तलाक हो गया. पर यह तलाक दिखावे के लिए था. असल में स्टार इंडिया के तत्कालीन सीईओ से विवाह बंधन में बंध कर इंद्राणी उन की दौलत की मालकिन बनना चाहती थी. इंद्राणी स्टार इंडिया में एचआर कंसल्टैंट के तौर पर काम करती थी और मौके का फायदा उठा कर स्टार इंडिया के मुखिया पीटर मुखर्जी पर डोरे डालने लगी थी. 2002 में इंद्र्राणी पीटर मुखर्जी से शादी कर ब्रौडकास्ट इंडस्ट्री की सब से ताकतवर शख्सीयत बन गई. उस दौरान पूर्व पति संजीव से पैदा हुई विधि 9 साल की थी. इंद्राणी ने पीटर को विधि के बारे में बताया, लेकिन सिद्धार्थ से पैदा हुई बेटी शीना और बेटे मिखाइल के बारे में नहीं बताया.

पीटर मुखर्जी की भी इंद्राणी से दूसरी शादी है. पहली पत्नी शबनम से पीटर के 2 लड़के हैं-राहुल और रौबिन. इंद्राणी ने पीटर मुखर्जी से 2002 में शादी की थी. इस के बाद इंद्राणी और पीटर ने 2007 में 9ङ्ग चैनल शुरू किया. इस कंपनी में इंद्राणी  सीईओ बनी. अंगरेजी अखबार के मुताबिक, इंद्राणी ने 4 कंपनियों को जोड़ कर आईएनएक्स कंपनी में इन्वैस्टमैंट किया था. लेकिन 2009 में इंद्राणी ने कंपनी को 170 मिलियन डौलर में बेच दिया. शीना बोरा मर्डर मिस्ट्री सैक्स, पैसा और हाई प्रोफाइल जिंदगी से जुड़ी एक ऐसी कहानी है जिस ने मांबेटी के रिश्ते को तारतार कर दिया है. वरना इतने बड़े संपन्न परिवार की एक महिला अपनी बेटी शीना, जो तथाकथित तौर पर उस की बहन भी कही जा रही थी, की हत्या कर दे, कैसे संभव है? शीना की अप्रैल 2012 में हत्या करने और उस का शव रायगढ़ के जंगल में ठिकाने लगाने के आरोप में इंद्राणी,  उस के पूर्व पति संजीव खन्ना और उस के पूर्व चालक श्याम राय को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस के मुताबिक, जिस कार में शीना की हत्या की गई थी उस कार में ड्राइवर श्याम राय ने शीना बोरा के पैर पकड़े और संजीव खन्ना ने उस का गला दबा दिया था. इस के बाद इंद्राणी ने पुलिस से बचने के लिए शीना के शव का मेकअप तक किया. उस के बाल संवारे थे और लिपस्टिक लगाई थी ताकि लोग शंका न कर सकें.

रिश्तों की उलझन शीना की डायरी से भी समझी जा सकती है जिस में वह लिखती है कि मुझे अब मां से नफरत है. वह मां नहीं, डायन है. शीना बोरा हत्याकांड मानवीय मूल्यों के माने ही खत्म होने की मिसाल है. सवाल कई हैं. अगर इंद्राणी ने सबकुछ हासिल कर लिया था तो उसे हत्या जैसा कदम क्यों उठाना पड़ा? क्या कोई ऐसा राज था जो शीना के दिल में दफन करने के लिए उस की हत्या की साजिश रची गई या फिर इस डिसफंक्शनल परिवार में और भी ऐसी कई सड़ांध फैली थीं जिन के फैलने के डर से अपनों ने ही शीना का गला घोंट दिया?   

महत्त्वाकांक्षा की मार

जब औरत महत्त्वाकांक्षा के बुने जाल में फंसती है तो उसे इस की कीमत अकसर अपनी जान दे कर या गहरे अपराध में फंस कर जेल के अंधेरे बंद कमरे में चुकानी पड़ती है. इंद्राणी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. पैसा और शोहरत का यह रास्ता शुरुआत में भले ही सुगम और सुखदाई लगे लेकिन यह रास्ता आखिरकार जाता अवसाद और अपराध की ओर ही है. इंद्राणी ने भी सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए शौर्टकट अपनाया और अब पुलिस की गिरफ्त में है. दरअसल, अपने दूसरे पति सिद्धार्थ दास से अलग होने के बाद इंद्राणी की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी. उस वक्त इंद्राणी के पास काइनेटिक स्कूटी हुआ करती थी. लेकिन आज स्थिति ठीक उलट है. इंद्राणी के पास मुंबई, कोलकाता, देहरादून समेत कई शहरों में अरबों की संपत्ति तो है ही, साथ में कई लग्जरी कारें भी हैं. यही नहीं, पीटर मुखर्जी से शादी के बाद इंद्राणी को नीता अंबानी, शाहरुख खान समेत कई बड़ी हस्तियों के साथ देखा गया. इंद्राणी पेज 3 पार्टीज में खूब शिरकत करती थी और ज्यादा पैसे वाला मिलते ही वह दूसरी शादी रचा लेती थी. अब तक 5 पतियों को छोड़ चुकी इंद्राणी और पीटर के बीच मुलाकात भी एक ‘बार’ में पार्टी के दौरान हुई थी. इंद्राणी के एक दोस्त का तो यहां तक कहना है कि इंद्राणी हद से अधिक आक्रामक और महत्त्वाकांक्षी थी, वह अपना काम पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी.

और भी हैं इंद्राणी

किसी भी कीमत पर सबकुछ पाने की सोच और उन्मुक्त जीवन व आजादी का यह सपना एक नहीं कई इंद्राणियों को दर्द व अवसाद की गहरी खाई में धकेल चुका है. पुरुषों से ज्यादा महत्त्वाकांक्षी होने के चलते औरतें अपना सर्वस्व समर्पित करने से गुरेज नहीं करती हैं. लेकिन बदले में सिवा बरबादी और तकलीफ के कुछ हासिल नहीं होता. हमारे सामने मधुमिता, भंवरी देवी, शिवानी भटनागर, फिजा, सुनंदा पुष्कर और रूपम जैसे कई उदाहरण हैं जहां महिलाएं अपनी ही महत्त्वाकांक्षा के बुने जाल में फंस गईं और उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस के लिए कभी शशि थरूर जैसे रसूखदार केंद्रीय मंत्री का सहारा लिया गया तो कभी आर के शर्मा जैसे भ्रष्ट पुलिस अधिकारी का और कभी चांद मोहम्मद उर्फ चंद्रमोहन जैसे लोगों का. लेकिन तमाम किस्सों में बलि का बकरा सिर्फ औरत बनी. इन की महत्त्वाकांक्षी और पुरुषों की दुनिया में वर्चस्व हासिल करने की जिद ने इन्हें दुनिया से ही विदा कर दिया.  शिवानी भटनागर एक वरिष्ठ पत्रकार बनने से पहले जब प्रशिक्षु थी, तो उस ने अपने सीनियर पत्रकार से शादी की जबकि दोनों की आदतों में बहुत अंतर था. उस पत्रकार एवं पति की बदौलत उस को मीडिया में वह रुतबा हासिल हुआ जो इतने कम समय में मिलना बेहद मुश्किल था. इस दौरान उस की नजदीकियां पुलिस अधिकारी आर के शर्मा से बढ़ीं, जिस के पीछे त्वरित सफलता पाने की शिवानी की ख्वाहिश काम कर रही थी. नजदीकियां हदों से पार निकल गईं. आखिरकार, वह मौत का कारण भी बन गई.

इसी तरह फिजा उर्फ अनुराधा बाली एक अधिवक्ता थी. मगर राजनीति के गलियारों में पैठ बनाने के लिए मिला एक शादीशुदा चंद्रमोहन, एक प्रदेश का उपमुख्यमंत्री. दोनों ने शादी भी कर ली चांद और फिजा बन कर. मगर जब फिजा दुनिया से रुखसत हुई तो अफसोस के सिवा उस के पास कुछ नहीं था. सुनंदा पुष्कर ने चुना एक केंद्रीय मंत्री, जिस की पिछली पारिवारिक जिंदगियां सदैव संदेह के घेरों में रहीं. सुनंदा की भी पृष्ठभूमि कोई पाकसाफ नहीं थी. वह एक तथाकथित सोशलाइट थी, जिस में शीर्ष के लोगों के साथ की ललक व चाहत थी. मगर यहां सवाल यह उठता है कि सुनंदा पुष्कर और शशि थरूर के बीच ऐसे कौन से हालात बन गए थे जिन की परिणति एक असामयिक और संदिग्ध मौत के रूप में हुई? कुछ तो जरूर होगा जो शायद महत्त्वाकांक्षा की अतिशयता से जुड़ा होगा? दरअसल, जब हम किसी का इस्तेमाल कर रहे होते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं वह भी हमारा इस्तेमाल कर रहा है. और आखिर में शिकार इंद्राणी जैसी औरतों का ही होता है.

खूबसूरती और ताकत की भूख

इस हश्र से परे अगर इन के इंद्राणी बनने के पीछे के जरियों की पड़ताल की जाए तो 2 कारक सामने आते हैं. पहला, खूबसूरती यानी शरीर का इस्तेमाल और दूसरा बेशुमार ताकत हासिल करने की भूख. इन 2 अरमानों तले पलती महिलाएं पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों का ही इस्तेमाल कर फर्श से अर्श तक का सफर पूरा करती हैं. इन को समझने के लिए विश्व राजनीति के पटल पर क्लियोपेट्रा को समझना बेहद जरूरी है. यह एक ऐसा नाम है जिस ने अपनी खूबसूरती और अपने शरीर का इस्तेमाल अपने कैरियर को बढ़ाने में बेहतरीन तरीके से किया. उस ने सैक्स पावर को पहचानते हुए खुल कर उस का उपयोग किया और उसे अपनी सफलता की सीढ़ी बना कर बुलंदी पर जा पहुंची. क्लियोपेट्रा इस बात को जानती थी कि किस तरह अपने शरीर का इस्तेमाल कर के मर्दों को गुलाम बनाया जा सकता है. उसे उस हुनर का पता था जिस के बल पर वह बड़ेबड़े लोगों को अपने मोहजाल में फंसा सकती थी. साफ है कि क्लियोपेट्रा ने सैक्स और अपने शरीर को एक कमोडिटी की तरह अपने हक में सत्ता हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया. क्लियोपेट्रा अब एक नाम नहीं रही, बल्कि यह एक प्रवृत्ति के तौर पर स्थापित हो चुकी है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की महिलाएं, जो अपनी देह को सत्ता हासिल करने का जरिया बनाती हैं,  सिर्फ विदेशों या पश्चिमी देशों में हैं, इस तरह के कई उदाहरण हमारे देश में भी मिल जाएंगे.

कितने खून माफ होंगे?

रस्किन बौंड की कहानी ‘सुजैन्स सेवन हस्बैंड्स’ पर विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘सात खून माफ’ बनाई, जो काफी हद तक ऐसी औरत की कहानी थी जो प्यार, ताकत और वर्चस्व की चाह में औरतों के अपने बनाए मापदंडों पर पुरुषों को खरा न पा कर उन की हत्या कर देती है. वह अलगअलग मिजाज के लोगों से 7 शादियां करती हैं. प्यार,  नफरत, सैक्स, लालच जैसे भावों से भरी इस फिल्म में सुजैन का किरदार इंद्राणियों सरीखा है जो अपनी शर्तों पर जिंदगी जीती हैं और रास्ते पर चाहे पति आए या बेटी, गला घोंटने से गुरेज नहीं करतीं. इसी तरह, विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’, जोकि दक्षिण भारतीय फिल्मों में सिल्क स्मिता के नाम से मशहूर सी ग्रेड अभिनेत्री के जीवन पर आधारित थी, उसी पुरुषवादी समाज का इस्तेमाल कर उभरती और डूबती औरत की कहानी थी. फर्क इतना भर है कि सुजैन अपने पतियों का कत्ल कर देती है और सिल्क को आत्महत्या करनी पड़ती है. लेकिन गौर करें तो दोनों ही हालात में औरतें अकेली और अवसाद भरी जिंदगी के मुहाने पर थकी और लाचार सी खड़ी दिखाई देती हैं. इस तरह के किरदारों पर कई फिल्में बनी हैं जिन में डकैत फूलन देवी की ‘बैंडिट क्वीन’ की भी कहानी शामिल की जा सकती है. अब्बास मस्तान की प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फिल्म ‘ऐतराज’ भी कुछ यही बयां करती है. जहां एक महत्त्वाकांक्षा की मारी औरत अमीर बनने के लिए एक उम्रदराज बिजनैसमैन से शादी तो कर लेती है लेकिन जिस्म की भूख शांत करने के लिए अपने पुराने प्रेमी का इस्तेमाल करना चाहती है. बदले में उसे कंपनी में बड़ा ओहदा भी औफर करती है. उस की पावर को जब नायक चुनौती देता है तो उस पर रेप का झूठा इल्जाम लगाती है. आखिर में खुदकुशी की दहलीज पर उसे ही जाना पड़ता है.

सामाजिक सरोकार

ऐसी अपराधभरी घटनाएं जब अखबार और टीवी पर दिनरात टीआरपी के नशे में घरघर परोसी जाती हैं तो सामाजिक तबके पर इस के अलग प्रभाव दिखते हैं. कोई सैक्स और हत्या की इस गुत्थी को चटकारे ले कर गलीनुक्कड़ में सुनतासुनाता है तो कोई अपने घर की फैली सड़ांध से इसे मैच करने लगता है. सभ्य और अमीर समाज की धज्जियां उड़ाती ऐसी घटनाओं के गहरे सामाजिक सरोकार हैं और इन से सबक लेना ज्यादा जरूरी है बजाय इन पर सोशल मीडिया में चुटकुले गढ़ने के.

ये हालात किसी के घर भी हो सकते हैं. शीना मर्डर केस का असर राजधानी दिल्ली के एक प्रतिष्ठित प्राइवेट स्कूल में 7वीं क्लास के एक छात्र पर कुछ इस तरह दिखा कि उस की मां उसे इंद्र्राणी मुखर्जी की तरह लगने लगी है. उस ने नोट्स में अपनी मां के बारे में लिखा था, ‘‘मैं एक नाजायज बच्चा हूं. मेरी मां इंद्र्राणी मुखर्जी की तरह है. उसे बहुत से आदमियों के साथ सैक्स करना पसंद है.’’ टीचर ने इस बात की जानकारी स्कूल के प्रिंसिपल को दी. प्रिंसिपल ने उस बच्चे के मातापिता को मिलने के लिए स्कूल बुलाया. बहरहाल, अब वह स्टूडेंट काउंसलिंग की प्रक्रिया से गुजर रहा है.

अंत बुरा तो सब बुरा

फर्ज कीजिए, अगर इंद्र्राणी ने शीना की हत्या नहीं की होती तो क्या सबकुछ ठीक होता इन की जिंदगी में, कतई नहीं. सिर्फ हत्या प्रकरण को हटा दें तो भी शीना अपनी मां से नफरत करती. इंद्र्राणी इसी तरह सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए शादियां करती और परिवार इस तरह की डिसफंक्शनल जाल में उलझा रहता. जरा सोचिए, इतनी उलझनों के बीच परिवार में कौन खुश रहता. जहां भाई मां के खिलाफ है और बेटी को मां से नफरत है, जहां परिवार के साधारण से रिश्तों की गुत्थी सुलझाने के लिए दिमाग के न जाने कितने घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं, वहां सिवा अपराध, हत्या, झगडे़ और साजिश के और क्या हो सकता था. आज के इस युग में जब संवेदनाएं सूख रही हैं और संबंधों का भी बाजारीकरण हो चुका है, ऐसे में महिलाओं को समझना होगा कि सशक्तीकरण का अर्थ सिर्फ धन कमाना और ऊंची पहुंच बनाना नहीं है. सशक्तीकरण का सही अर्थ है जागरूकता, आत्मनिर्भरता, संवेदनशील सोच व सतर्कता और अपने सामाजिक व पारिवारिक मूल्यों का बोध. जब महिलाएं इस बात को समझ जाएंगी, तभी उन का और उन से जुड़े रिश्तों का जीवन दिशाहीन होने से बच सकेगा.

-साथ में राजेश कुमार

नासिक कुंभ : हिंदुत्व का कारोबारी तमाशा

5 प्लेटफौर्मों वाला छोटा सा नासिक रेलवे स्टेशन उस समय लोगों की भीड़ से उफन रहा था. एक के बाद एक मुंबई और मनमाड की ओर से आने वाली रेलगाडि़यां इसी स्टेशन पर यात्रियों को उडे़ल कर आगे बढ़ रही थीं. सुबह के 6 बजे थे. सैकड़ों लोग प्लेटफौर्मों पर सोते दिखाई दे रहे थे. गाडि़यों से उतर कर सवारियां स्टेशन के 2 दरवाजों से बाहर की ओर निकल रही थीं. सवारियों की इस बेशुमार भीड़ में भगवा, पीले व सफेद वस्त्रधारी, बूढे़, जवान, स्त्रियां, बच्चे थे. स्टेशन के सामने बसों, टैक्सियों में सवार हुए इन यात्रियों से गोदावरी के रामघाट तक 12 किलोमीटर और वहां से त्र्यंबकेश्वर तक का 28 किलोमीटर लंबा रास्ता भरा हुआ था. 29 अगस्त के दिन नासिक सिंहस्थ कुंभ का पहला शाही स्नान था. चारों तरफ विचित्र नजारा अजीब सा पागलपन लिए था. कोई लंगोट पहने है, कोई सफेद या भगवा वस्त्र में, किसी की जटा बढ़ी है, किसी के खिचड़ी बाल हैं तो कोई सफाचट, किसी की लंबी दाढ़ी, कोई क्लीन शेव, पतले, पेटू तो कई मुस्टंडे और साधुओं के आगेपीछे चेलों की भीड़ थी.

338 एकड़ क्षेत्रफल में यहां बने साधुग्राम में धर्मनिरपेक्ष सरकार ने जनता के करों के पैसे से साधुओं के ठहरने के शाही इंतजाम किए थे. शाही महलों को मात देते आश्रमों के भीतर मखमली गलीचे, सामने ऊंचे चांदी से मढे़ सिंहासन, फलफ्रूट्स, मेवों के ढेर, महंगे मोबाइल, लैपटौप और इर्दगिर्द चेलेचेलियों में सेठसेठानियां थीं. कुछ आश्रमों के अंदर तो कुछ के बाहर, महंगी लग्जरी गाडि़यां खड़ी थीं जो साधुओं की विलासिता को उजागर कर रही थीं. सांसारिक वस्तुओं व मोहमाया के त्याग की सीख देने वाले संन्यासियों के भोगविलास का इंतजाम देख कर नहीं लगता कि वे किसी त्यागी का जीवन जी रहे हैं.

शाही संत

क्या साधुसंन्यासी भी शाही हो सकते हैं? आश्चर्य की बात है कि राजामहाराजाओं के साथ तो शाही शब्द का तालमेल सही बैठता है पर यहां तपोवन में संतों के शाही ठाट थे और पूरा सरकारी अमला इन शाही साधुओं की सेवा में खड़ा था. तपोवन में श्रीश्री 1008 महंत श्री रामदास त्यागी के आश्रम में खड़ी महंगी गाड़ी महंत के ‘त्याग’ की पोल खोल रही थी. महंत की इस गाड़ी के आगे उन के ‘त्यागी’ नाम और पदवी वाला एक बैनर भी लगा था जिसे पढ़ कर हंसी छूटने लगी. भक्तों को अपनी ओर खींचने की होड़ में कहीं रामकथा चल रही थी, कहीं सत्संग हो रहा था, कहीं प्रवचन चल रहा था, कहीं रामलीला तो कहीं रासलीला, कहीं भंडारा हो रहा था. महामंडलेश्वर सीतारामदास महाराज (नेपाली बाबा) के यहां 21 दिन का रामचरितमानस का पाठ चल रहा था. सतपाल महाराज के आश्रम में सद्भावना सम्मेलन हो रहा था. किशोरीशरण भक्तमाल द्वारा एकादश दिवसीय श्रीबृहद् भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा था. महामंडलेश्वर बाबा बालकराम दास महाराज, रमणरेती वृंदावन के आश्रम में रामकथा चल रही थी.  हरेरामा हरेकृष्णा के विदेशी गोरे युवकयुवतियां, भक्तों व भारतीय साधुसंन्यासियों को ज्यादा ही लुभा रहे थे. महामंडलेश्वर श्रीराघवशरण महाराज के यहां भागवत, रामायण, सत्संग, ध्यान, सहज योग कार्यक्रम चलाए जा रहे थे. राष्ट्रीय संत चिन्मयानंद बापू, राष्ट्रसंत जनार्दन स्वामी (मौनगिरि महाराज), मोरारी बापू और स्वामी रामकमल दास वेदांती महाराज रामकथा बेच रहे थे. मोरारी बापू तो रामकथा के सब से अमीर, बड़े और पुराने व्यापारी हैं. अपना रामकथामृत देशविदेश के अमीर सेठसेठानियों को ही बेचते हैं, गरीब ग्राहकों में नहीं. देश का सब से धनी अंबानी परिवार इन के खास ग्राहकों में है. यानी हर बाबा कुछ न कुछ बेच रहा था. हर आश्रम में एकदो दानपात्र और टेबलकुरसी लगा कर दान लेने वाले 2-3 लोग बैठे दिखे जो आयकर की धारा 80 बी के तहत बाकायदा आप को कर में छूट प्राप्त करने के लिए रसीद दे रहे थे.

इन सब महंत, महामंडलेश्वरों ने ये काम बाकायदा लिखित में प्रचारित, प्रदर्शित किए और प्रचारप्रसार की ही महिमा है कि लोग इन के यहां ढाई माह तक उमड़ते रहे. आश्रमों में भक्तों से दान देने की बात कही जा रही थी और कुछ जगहों पर तो लिखा दिया गया-

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्.

अर्थात, यज्ञ, दान और तप यही बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं.

श्रीपहाड़ी बाबा अपने विशाल पंडाल में कथा सुना रहे थे, ‘‘क्या वेश्या महासती हो सकती है? वेश्या रोज भगवान का सत्संग सुनती थी. किसी ने पूछा, ‘तुम महासती कैसे हो सकती हो?’ वेश्या ने जवाब दिया, ‘जब तक मैं किसी के साथ रहती हूं, अपने पतिधर्र्म का पालन करती हूं, पतिव्रता नारी का धर्म निभाती हूं.’ भगवान उस से प्रसन्न हुए. एक दिन भगवान प्रकट हो कर वेश्या से कहने लगे, ‘मैं तुम्हारे इस धर्म से प्रसन्न हो कर तुम्हें पार्वती की सहचरी बनाता हूं.’’’ इस पंडाल में करीब 300 लोग बैठे थे, इन में स्त्रियां भी थीं. इस कथा से बाबा अपने भक्तों में क्या संदेश देना चाहते हैं, यही न कि स्त्रियों को भगवान से ध्यान नहीं हटाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो बाबाओं की दुकानें कैसे चलेंगी? एक तरह से वे पुरुषों को लाइसैंस दे रहे थे कि वेश्याओं के पास जाने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि वेश्या तो सती हो सकती है. यानी पुरुष अपनी पत्नी के साथ जो अन्याय एक वेश्या के पास जा कर करता है उस पर धर्म की मुहर लग रही थी.

कुंभ में क्रोध, लोभ, स्वार्थ, सांसारिक भोग, लालसा पगपग पर देखी जा सकती है. साधुओं में परस्पर बैर रहता है और वे एकदूसरे की निंदा में लिप्त रहते हैं. साधुसंन्यासियों के आश्रमों वाली जगह का नाम भले ही तपोवन रखा गया पर यहां न तप था न वन. धन ही धन और ऐश्वर्य था. तपोवन का वातावरण तो देसी घी के पकवानों, कृत्रिम सुगंधों से महक रहा था. ऐसा नहीं लगता कि कुंभ में आश्रमों, अखाड़ों में धर्म के मायामोह के त्यागी लोग विराजमान थे. वहां राजामहाराजाओं का सा वैभव, हाथी, घोड़ों, चमचमाती गाडि़यों की सवारी, शाही ठाटबाट, चांदीसोने के सिंहासन और छत्र, अगलबगल में चंवर डुलाते सेवक, चेलेचेलियों की फौज, आशीर्वाद के आकांक्षी सेवा में हरदम तत्पर सेठसेठानियों की भीड़ दिख रही थी. हर आश्रम में माइक लगे हैं. कथा, सत्संग कम है शोरशराबा ज्यादा है. और फिल्मी धुनों पर भजनों के रिकौर्ड बजाए जा रहे थे. जहां धर्र्म का डंका बज रहा हो वहां भला राजनीतिबाज कहां पीछे रहने वाले थे. भक्तों के एकमात्र हितैषी दर्शाने वाले राजनीतिक पार्टियों के होर्डिंग्स शहर और मेलास्थल पर जगहजगह लगे हैं. शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के नेताओं में होड़ दिखाई देती है कि कौन कुंभ यात्रियों को ज्यादा आकर्षित कर रहा है. 

मेले में ताकत की दवाएं भी बिक रही थीं. सड़क के किनारे माला, तावीज, मंत्र, जंत्र, शंख, मोती, मणि, काले घोड़े की नाल, धार्मिक पुस्तकें, सीडी और देसी जड़ीबूटियों की सैकड़ों दुकानें सजी थीं. काले घोड़े की नाल की अंगूठी बेचने वाला ग्राहकों से कह रहा था, ‘‘बड़ी चमत्कारी अंगूठी है. यह आप की हर समस्या का समाधान कर देगी, बड़ेबड़े काम करवा देगी, कारोबार नहीं चलता है, घर में क्लेश रहता है, बच्चा सोने पर डर जाता है, यानी यह आप का हर समस्या का हल करती है.’’ झूठ पर सफेद झूठ कुंभ में बोला जा रहा है, इसलिए हर भक्त सिर नवा कर सच मान रहा है. शिलाजीत बेचने वाले एक नेपाली के पास पूरे माथे पर तिलक लगाए एक बाबा शिलाजीत खरीद रहा था. वह नेपाली उस बाबा को शिलाजीत के गुण बता रहा था, ‘‘शिलाजीत धातु रोकता है, शरीर का दर्द, जोड़ों का दर्द काटता है, शरीर में गरमी पैदा करता है, बूढ़े को जवान बना देता है.’’ भला बाबाओं को शिलाजीत की क्या जरूरत? जप, तप, योग से क्या जवान नहीं रह सकते? धर्म तो कामसुख को त्याज्य मानता है. कारसेवक भगवाई कहते तो यही फिरते हैं और वे युवा जोड़ों को मारते रहते हैं.

कुंभ में कितने महंत, महामंडलेश्वर हैं, यह पूछने पर चित्रकूट से आए बाबा शिवराजदास कहते हैं कि कुंभ में कितने महंत, महामंडलेश्वर हैं, किसी को नहीं मालूम. आजकल हर कोई महंत, महामंडलेश्वर बन बैठता है. कितने ही शंकराचार्य हैं. असलीनकली का पता नहीं है. यहां बाबाओं को पता नहीं है कितने अखाड़े हैं. कोई 13 बताता है, कोई ज्यादा. अखाड़ों में टकराव की आशंका भी बनी रही. प्रशासन को टकराव टालने के लिए मशक्कत करनी पड़ी. फिर भी जूना अखाड़ा, अग्नि और आवाहन के बीच स्नान को ले कर मारामारी मची रही. यह प्रतिनिधि पंचवटी में पहुंचा है. यहां सीता गुफा मंदिर है. इसे देखने के लिए लंबी लाइन लगी है. कुछ लोग बीच में घुस रहे हैं, इसे ले कर लड़ाई हो रही है. मंदिर परिसर में ‘जेबकतरों से सावधान’ रहने का निर्देश चौंकाने वाला है. भला भगवान भक्त की जेब की रक्षा भी नहीं कर सकता. सीता गुफा के सामने सीताहरण के स्थान पर मंदिर है. एक पंडा बता रहा है कि मारीच इसी जगह पर सोने का हिरण बन कर राम के सामने आया था और बाद में रावण ने यहां से सीता हरण किया. लक्ष्मण रेखा मंदिर भी यहीं पर है. इन मंदिरों में दानपात्र रखे हुए हैं. 2003 के नासिक कुंभ में यह प्रतिनिधि गया था तब सीता गुफा जैसी जगह पर मंदिर नहीं था, यह स्थल खंडहर था, न भीड़ थी पर इन सालों में यहां मंदिर बना कर भक्तों की जेबों से दानदक्षिणा निकलवानी शुरू कर दी गई है. अलगअलग नामों से संस्थान बना कर दुकानदारी जमा ली गई है. विभिन्न दंतकथाओं के नाम पर दुकानें चल रही हैं.

कुंभ की महिमा

सारा तमाशा यों ही नहीं है. धर्म की किताबों में लोगों को कुंभ स्नान के तरहतरह के लालच दिए गए हैं.

स्कंद पुराण केअनुसार,

गोदाया यक्तलं प्रोक्तं संगमे द्विगुण भवेत,
चतुर्गुणंतु सिंहस्थ ह्यतिच रेतुषद गुण.

अर्थात, गोदावरी में स्नान एवं दान करने का जो पुण्य प्राप्त होता है वह संगम स्थल पर दोगुने रूप में प्राप्त होता है. यही पुण्य सिंहस्थ में चौगुने रूप में प्राप्त होता है. यदि सिंहस्थ में बृहस्पति का परिभ्रमण हो तो यह षट् गुण रूप में प्राप्त होता है.

कुंभ स्नान का शास्त्रों में खूब महिमा गान है.

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च,
लक्षं प्रदक्षिण भूमे: कुंभस्नानेन तत्फलम्.

अर्थात, हजार बार अश्वमेध यज्ञ करने से, 100 बार वाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है वही फल एक बार कुंभ स्नान करने से मिलता है.

तान्येव य:पुमान, योगेसोमृतस्वायकल्पते,
देवा नमंति तत्रस्थान, यथा रग्डा धनाधिपान.

अर्थात, मनुष्य कुंभ योग में स्नान करता है, वह अमरत्व यानी मुक्ति की प्राप्ति करता है. जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य धनवान को नम्रतापूर्वक अभिवादन करता है ठीक उसी प्रकार कुंभ पर्व में स्नान करने वाले मनुष्य को देवगण नमस्कार करते हैं. एक जगह लिखा है :

‘‘कुंभ मेले के तिथि पर्व के समय पर त्र्यंबकेश्वर में किए गए दान, जप, हवन के पुण्य से मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे महापाप से मुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त करता है.’’
प्राचीन समय से ही सिंहस्थ कुंभ के दौरान स्नान करने के बाद गोदान, भूमि, तिल, सोना, चांदी, घी, वस्त्र, धान दान देने की परंपरा बताई गई है.

वाह, भोलेभाले लोगों को बेवकूफ बनाने के कितने सुंदर प्रपंच रचे गए हैं. कुंभ की कहानी तो चिरपरिचित है. देवताओं और दानवों ने अमृत के लिए मिल कर समुद्र मंथन किया और मंथन से अमृत का घड़ा निकला तो दोनों के बीच लड़ाई हुई. विष्णु ने सुंदर नारी का रूप धर कर छल से देवताओं को अमृत और असुरों को सुरा पिलाने की चाल चली पर असुर समझ गए. इस बीच, अमृत कुंभ इंद्र का पुत्र जयंत ले कर भागा व इस भागमभाग में अमृत इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार और नासिक इन 4 जगहों पर छलक गया. तब से इन चारों स्थानों पर कुंभ स्नान की परंपरा शुरू हुई. क्या देवता ऐसे थे कि वे एक कलश को संभाल भी न पाए कि उस के अमृत की बूंदें इधरउधर  गिरती रहीं? मानव जाति को ऐसे देवता कैसे संभालेंगे?

कथा के अनुसार, यह अमृत देवताओं ने इसलिए छीनना चाहा कि इसे पी कर असुर अमर हो जाएंगे और फिर धरती पर पाप, अत्याचार का साम्राज्य बढ़ जाएगा. सवाल यह है कि देवताओं द्वारा असुरों से अमृत छीनने के बावजूद धरती पर पाप क्यों बढ़ता जा रहा है.? धर्म के बावजूद हर कुंभ में चोरी की वारदातें होती रही हैं. लड़कियों को मंगा लिया जाता है, जेबकतरे सक्रिय रहते हैं, मेला शुरू होते ही रामकुंड पर दो औरतों की सोने की चेन लूट ली गई. एक व्यक्ति ने 70 हजार रुपए लूटने की शिकायत दर्ज कराई थी.एक और चौंकाने वाली चीज–कुंभ के मौके पर नासिक में कंडोम की बिक्री बढ़ गई थी. शहर में प्रति माह डेढ़ से 2 लाख कंडोम की जरूरत होती है पर कुंभ के दौरान महाराष्ट्र स्टेट एड्स कंट्रोल ने यहां 5.40 लाख कंडोम भेजने पड़े थे. नासिक में 2 हजार वेश्याओं के साथसाथ 1 लाख बाहर से आई हुई सैक्सवर्कर थीं. आखिर क्यों? कुंभ मेले में अकसर भगदड़ मचती है और दर्जनों लोग मारे जाते हैं. 2003 के नासिक कुंभ मेले में शाही स्नान के वक्त साधुओं द्वारा पैसा उछाले जाने से मची भगदड़ में 41 लोग मारे गए थे. कुंभ के इतिहास में इलाहाबाद, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में हजारों लोग मारे जा चुके हैं. अखाड़ों के बीच संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है. 1690 में नासिक में शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ था जिस में 12 हजार साधु मारे गए थे. 1746 में हुए यद्ध के बाद भाऊ साहेब पेशवा ने समझौता करवा कर विवाद निबटाया था. बाद में 1860 में मामला नगर अदालत में गया तो यह निर्णय दिया गया कि वैष्णवधर्मी वैरागी साधुओं को सिंहस्थ पर्व के  समय शैव यानी नागा साधुओं के बाद स्नान करेंगे. इस घटना के बाद पेशवा के आदेश पर 2 अलगअलग घाट बनाए गए. वैष्णवों के लिए नासिक तथा शैवों के लिए त्र्यंबकेश्वर में व्यवस्था कराईर् गई. यह धार्मिक उन्माद ही भक्ति है? सदियों से सत्य का नहीं, झूठ का प्रचार हो रहा है. मनुष्य की उन्नति के लिए तो ज्ञान और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है व वह विवेक का उपयोग कर सदा प्रगति के मार्ग पर चल कर ही अपने लक्ष्य में कामयाब होता है.

सरकार ने इस तमाशे के आयोजन के लिए खजाना खोल दिया. 2,378 करोड़ से ज्यादा रुपए खर्र्च किए गए हैं.

प्रचार तंत्र है धर्म के प्रसार में

समूचे नासिक शहर में और गोदावरी तट से ले कर 28 किलोमीटर दूर त्र्यंबकेश्वर तक शंकराचार्य, महंत, महामंडलेश्वर तथा अन्य गुरु, प्रवचक, साधुसंत अपने प्रचार में पीछे नहीं हैं. समूचा क्षेत्र बैनर, पोस्टर, होर्डिंग्स, पंफलैट्स से अटा पड़ा है. इन के अलावा आश्रमों, अखाड़ों में माइकों के माध्यम से भक्तों को अपनी ओर खींचने के प्रयास किए जा रहे हैं. कई साधु तो अपनी वैबसाइटें चला रहे हैं  त्र्यंबकेश्वर में सब से बड़े बोर्ड शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती के लगे हैं. ब्रह्मगिरि पर्वत स्थित बस स्टैंड से ले कर गौतम कुंड तक शंकराचार्य के कई होर्डिंग्स लगे हैं. कई साधुओं द्वारा रामकथा का प्रचार किया जा रहा था. अखाड़ों द्वारा स्थापित शिविरों में प्रवचन, रामलीला, रासलीला, छोटेबड़े यज्ञ, अखंड पाठ, दक्षिणा, भंडारा, शोभायात्रा, रामकथा,, धार्मिक प्रदर्शनियां, योग शिविर, कीर्तन जैसी सभी जानकारी भक्तों तक बैनर, पोस्टर, माइक, होर्डिंग्स द्वारा दी गई थीं. महिला गुरु, साध्वियां भी पीछे नहीं थीं. साध्वी त्रिकाल भवंता ने महंत ज्ञानदास पर छेड़छाड़ का आरोप लगा कर हंगामा खड़ा कर दिया था. यह साध्वी कुंभ मेले में अलग महिला अखाड़ा और अलग स्नान की जगह देने की मांग कर रही थी. त्रिकाल भवंता ने महिला साध्वियों का अलग परी अखाड़ा बना रखा है. बाल साध्वी राधा देवी की दिव्य कथाएं सुनाने के प्रचार वाले पोस्टर कई जगह चस्पां थे. मां कनकेश्वरी देवी के रामकथा वाले बड़ेबड़े होर्डिंग्स लगे थे. दुनियाभर से आस्था के नाम पर 58 दिन तक जुटे लाखों लोगों की जेबों से पैसा निकलवाने के लिए प्रचार तंत्र की जरूरत तो है ही इस के लिए पहले साधुओं, गुरुओं को प्रचार सामग्री पर इन्वैस्ट करना पड़ता है. ये सब देख कर लग रहा है कि देश में अन्य उद्योगों से फायदा हो न हो, पर अंधविश्वास की इंडस्ट्री खूब फल रही है.

सियासी तुकबंदियों में उलझी जनता

‘अब की बार, मोदी सरकार’ और ‘चलो चलें मोदी के साथ’, ये नारे लोकसभा चुनाव में इस कदर हिट और कामयाब रहे कि अब उसी की देखादेखी बिहार विधानसभा चुनाव में लगी तमाम पार्टियां कविता की सियासत पर उतर आई हैं. हर पार्टी अपने को बेहतर साबित करने और विरोधी को नीचा दिखाने के लिए तुकबंदी करने में लगी हुई है. भाजपा समेत, जदयू, राजद, कांगे्रस व अन्य सभी छोटीमोटी पार्टियां भी कविता के जरिए जनता को रिझानेपटाने की कवायद में लगी हुई हैं. लगता है कि सभी पार्टियों को लग रहा है कि कविताबाजी की वजह से ही केंद्र में भारी बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी. अब बिहार विधानसभा के चुनाव में भी नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, समेत छुटभैये नेता भी कविताबाजी पर उतर आए हैं और हर दल की होर्डिंग में तमाम कविताएं ही नजर आ रही हैं. नीतीश कुमार ने तो नरेंद्र मोदी का प्रचारतंत्र संभालने वाले प्रशांत किशोर को ही अपने दल के चुनाव प्रचार और तुकबंदियां करने की जिम्मेदारी सौंप रखी है.

जदयू की तुकबंदियां–‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’, ‘झांसे में न आएंगे, नीतीश को जिताएंगे’, ‘आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’, ‘बहुत हुआ जुमलों का वार, फिर इस बार नीतीश कुमार’, ‘अपराध मुक्त रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’. भाजपा की तुकबंदियां–‘अपराध, भ्रष्टाचार और अहंकार, क्या इस गठबंधन से आगे बढ़ेगा बिहार’, ‘अब की बार, भाजपा सरकार’, ‘हम बदलेंगे बिहार, इस बार भाजपा सरकार’, ‘जब होगी विकास की तेज रफ्तार, तब समृद्ध बनेगा बिहार’. राजद की चुनावी कविता–‘यह पीर अली और बाबू कुंवरसिंह का है बिहार, यहां नहीं बनेगी भाजपा सरकार’, ‘न जुमलों वाली न जुल्मी सरकार, गरीबों को चाहिए अपनी सरकार’.

कांग्रेस की कवितागीरी-‘सूटबूट और जुमला छोड़, थाम कर कांगे्रस की डोर, बढ़ा बिहार विकास की ओर’.

राज्य में भाजपा की अगुआई वाले राजग और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजैक्ट कर चुके महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई होनी है. महागठबंधन एकता का दावा और दिखावा तो कर रहा है लेकिन लालू, नीतीश और कांगे्रस अलगअलग ही प्रचार कर रहे हैं और अलगअलग ही होर्डिंग लगा रहे हैं. होर्डिंग को देख कर नहीं लगता कि जदयू, राजद, कांगे्रस आदि दल साथसाथ हैं. भाजपा के प्रवक्ता संजय मयूख कहते हैं कि लालू यादव, नीतीश कुमार, कांगे्रस समेत महागठबंधन में शामिल दलों के चुनावी होर्डिंग्स को देख कर कोई नहीं कहेगा कि उन के दिल मिले हुए हैं.

चुनाव में इस बार नीतीश के लिए करो या मरो वाली हालत है. नीतीश यह साबित करना चाहते हैं कि साल 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव वे भाजपा के भरोसे नहीं जीते थे. बिहार की जनता में उन की गहरी पैठ है. दलित, पिछड़े तो उन्हें पसंद करते ही हैं, साथ ही शहरी और अगड़ी जातियों के ज्यादातर लोग भी उन के तरक्की के नारे में यकीन करते हैं.पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार मिलने के बाद नीतीश जीत के लिए किसी भी तरह का दांवपेंच छोड़ना नहीं चाहते. गौरतलब है कि पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जदयू को केवल 2 सीटें ही मिलीं, जबकि 2009 के आम चुनाव में उन्होंने 20 सीटों पर कब्जा जमाया था. अब नीतीश अपने धुर विरोधी नरेंद्र मोदी को मात देने की कवायद में लगे हुए हैं.

पिछले महीने नीतीश ने अपनी पार्टी के प्रचार का पूरा जिम्मा प्रशांत किशोर को सौंप दिया. गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रशांत ने नरेंद्र मोदी के प्रचार की कमान संभाली थी. इस के अलावा प्रशांत साल 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भी मोदी के प्रचारतंत्र के मुखिया थे. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के लिए ‘अब की बार मोदी सरकार’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे नारे गढ़ने वाले प्रशांत किशोर अब नीतीश कुमार के लिए चुनावी नारे गढ़ रहे हैं.बिहारी बोलचाल और लहजे के हिसाब से उन्होंने नीतीश के लिए नारा लिखा है – ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’. साल 2011 में संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़ कर प्रशांत ने गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए प्रचार किया और उस के बाद आम चुनाव के दौरान भी मोदी के प्रचार के लिए तुकबंदियां रचते रहे. मोदी के लिए ‘चाय पर चर्चा’ प्रोग्राम के कामयाब होने के बाद बिहार में वे ‘बे्रकफास्ट विद सीएम’ और ‘परचा पर परचा’ जैसे प्रोग्राम शुरू कर चुके हैं.प्रशांत की अगुआई में बिहार ञ्च 2015 के नाम से बड़े लेवल पर पब्लिसिटी की शुरुआत की गई है. प्रचार मुहिम के तहत जदयू के बैनरोंपोस्टरों से सजी 400 गाडि़यां लगाई गई हैं. सारी गाडि़यां, जीपीएस, एलईडी, माइक्रोफोन और म्यूजिकसिस्टम से लैस हैं. जदयू के विधान पार्षद रणवीर नंदन बताते हैं कि सभी गाडि़यों को राज्य के सभी 45 हजार गांवों में घुमाया जाना है. गाडि़यां गांवों में घूम कर जदयू के दावों व वादों को जनता तक पहुंचाने के साथ भाजपा की कलई खोलने का काम करेंगी. पुरानी न्यूज क्लिपिंग और वीडियो फिल्मों के जरिए भाजपा और नरेंद्र मोदी के वादों की सचाई जनता तक पहुंचाने का काम शुरू कर दिया गया है.नीतीश कुमार के चुनावी प्रचार की सियासी तुकबंदियों को देख लालू की पार्टी राजद और कांगे्रस भी अपने प्रचार के लिए तुकबंदियां करने लगी हैं. चुनावी तुकबंदियों को सुन कर जनता का दिमाग चकरा रहा है. देखना अब यह है कि राजनीतिक दलों की तुकबंदियों को जनता कितना पसंद करती है और किस पर कितना यकीन करती है? लगे हाथ नेताओं की देखादेखी कुछ मेरी भी सुन लीजिए, ‘लफ्फाजी करने वाले अब कविता गढ़ रहे हैं, जनता को मूल मुद्दे से भटका रहे हैं, चुनाव के समय एकदूसरे की बखिया उधेड़ रहे हैं. असल में तो वे एक ही थैली के चट्टेबट्टे रहे हैं. कैसी रही?’

संघ को मोदी सरकार की रिपोर्ट

नरेंद्र मोदी सरकार ने 3 सितंबर को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत, सुरेश जोशी, दत्तात्रेय होसबोले, कृष्ण गोपाल व राम माधव को दी. रिपोर्ट प्रस्तुत करने वालों में नरेंद्र मोदी के अलावा राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रिकर, वेंकैया नायडू व अनंत कुमार आदि थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हर मंत्रालय की रिपोर्ट दी गई और जो बातचीत हुई उस का केवल ब्योरा ही बाहर आया.

भारतीय जनता पार्टी की बागडोर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ में है, यह छिपी बात नहीं है. पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी दोनों साफसाफ कहते रहे हैं कि वे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही चलेंगे. अब अगर वे सत्ता में हैं तो यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चतुराई और कर्मठता है कि उस ने ब्राह्मणवादी गुट को पूरे देश से स्वीकार करा लिया और रामविलास पासवान व उदितराज जैसे ब्राह्मणवाद विरोधियों को अपने दायरे में बांध लिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीति देश को पौराणिक परंपराओं के अनुसार चलाने की है और अगर देश की जनता इस रास्ते पर चलना चाहे तो इस से कैसे बचा जा सकता है. आज पूरा पश्चिमी एशिया इसलामी आतंक की आग में झुलस रहा है और यह आग बंगलादेश, इंडोनेशिया, मलयेशिया व अफ्रीका के कितने ही देशों और यहां तक कि यूरोप में जनजीवन पर कहर ढा रही है तो गलत क्या है? जब धर्म का अंधानुकरण किया जाएगा तो विध्वंस होगा ही.

भारत अगर सदियों गुलाम रहा तो इस का मुख्य कारण धर्मजनित जाति व्यवस्था रही है जिस के चलते हथियार उठाने का हक केवल क्षत्रियों को था और काम करने की जिम्मेदारियां नीची जातियों की. ब्राह्मण दोनों ही नहीं करते. वे आग जला कर मंत्र पढ़ने का नाटक करते रहते. वे सब से सेवा करवा लेते. आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यही कर रहा है. इस बैठक में उस ने हिसाब लिया पर सिवा नरेंद्र मोदी और उन के मंत्रियों व सांसदों के लिए वोट बटोरने के, उस का और क्या योगदान था? कंपनियों के शेयरहोल्डरों की तरह उन की तो पूंजी भी नहीं लगी थी. सरकार से हिसाब संसद मांगे, जनता मांगे, प्रैस मांगे, अदालत मांगे, यह समझा जा सकता है क्योंकि इन के हितअहित और इन का भविष्य सरकार पर निर्भर है और सरकार इन के प्रबंध या टैक्स पर जीवित है. पर संघ का क्या योगदान है? संघ उस परंपरा को दोहरा रहा है जो सदियों से कई देशों में चली आ रही है जिस में पुरोहितों की चलती थी. उस युग में बेहद हिंसा होती और अन्याय होता था, यह न भूलें. लोकतंत्र में आज क्या पुरोहितवाद की जगह है?

सीरिया शरणार्थी संकट : धर्म का जानलेवा कहर

सीरिया के 3 वर्षीय आयलन कुर्दी की मौत की तसवीरों से सामने आई शरणार्थी संकट  की भयावह झलक ने पूरी दुनिया की संवेदना को झकझोर दिया है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह सब से भीषण शरणार्थी संकट माना जा रहा है. हालात काफी गंभीर हैं. समुद्र के किनारे औंधे मुंह मृत पड़े इस बच्चे की तसवीर ने युद्धग्रस्त देशों की पीडि़तों को शरण न देने की मंशा और शरणार्थियों के खिलाफ रहने वाले देशों को राय बदलने पर मजबूर कर दिया है. आम लोगों और सरकारों में बहस छिड़ गई. तसवीर से विचलित जनमत की वजह से यूरोप के बड़े देशों ने अपने साथी देशों से कहा है कि वे शरणार्थियों को आने दें पर समस्या यह है कि इतनी ज्यादा तादाद में आ रहे शरणार्थियों का बोझ वे कैसे उठाएं. शरण देने के सवाल पर यूरोपीय संघ के 28 देश अब भी बंटे हुए हैं. संघ ने 1.60 लाख शरणार्थियों को विभिन्न देशों में बांटने की योजना पेश की थी पर अंतिम फैसला नहीं हो पाया. इधर, संयुक्त राष्ट्र इस मुद्दे पर अपनी नाकामी जाहिर कर चुका है. यह सब से बड़ी मानवीय त्रासदी भले ही दुनिया के लिए भयानक हो, पर मजहबी कट्टरपंथी अपनी कामयाबी पर जरूर अट्टहास कर रहे हैं. धर्म की बड़ीबड़ी बातें करने वाले दुनिया भर के हिंदू, बौद्ध, सिख, बोहरा, प्रोटेस्टैंट, कैथोलिक आदि दूसरे धार्मिक संगठनों की ओर से कहीं कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है.

शरण पर नफानुकसान

मजहब की अमानवीयता के शिकार लाखों बेकुसूर लोग दुनियाभर के अमीर देशों के दरवाजे पर शरण की खातिर दस्तक दे रहे हैं पर हर देश अपना नफानुकसान तोलता हुआ दिखाई दे रहा है. विश्व के देशों की इस ऊहापोह की स्थिति में सीरिया, इराक और पूर्वी व दक्षिण अफ्रीका के हजारों लोग समुद्र  की लहरों में समाते जा रहे हैं. हजारों भुखमरी, बीमारी और दूसरी दुर्घटनाओं में जानें गंवा रहे हैं. लाखों लोग विभिन्न देशों की सीमाओं पर सिर पटकते हुए इधरउधर भटकने को मजबूर हैं. युद्धग्रस्त देशों से शरणार्थियों के सैलाब से यूरोपीय सीमाओं पर हालात बेकाबू होते जा रहे हैं. सीरिया में हालात खराब हैं. हर दिन हजारों लोग देश छोड़ रहे हैं. 2011 के बाद से अब तक 40 लाख से भी ज्यादा सीरियाई लोग देश छोड़ कर जा चुके हैं. ताजा संकट में 65 लाख लोग बेघर हो कर दरबदर भटक रहे हैं. जोर्डन, तुर्की और लेबनान जैसे देशों में लोग पैदल ही पहुंच रहे हैं. 2011 में राष्ट्रपति बशर अल असद द्वारा कट्टरपंथियों के खिलाफ की गई सैनिक कार्यवाही के बाद से सीरिया में 3 लाख लोग मारे जा चुके हैं. कई शहर मलबे में तबदील हो चुके हैं.

ये अधिकांश मुसलिम लोग अपने मजहब इसलाम, अपने जैसी संस्कृति और भाषा वाले अरब देशों के बजाय समृद्ध यूरोपीय देशों की ओर जाने लगे और यूरोपीय देशों की सीमाओं पर सैलाब बढ़ गया तो यूरोपीय देशों के संगठन को मामले की भयावहता का पता चला. यूरोपीय संघ के कुछ देशों ने अपने यहां शरणार्थियों को शरण देने से स्पष्ट इनकार कर दिया तो कुछ ने अपनीअपनी क्षमता तय कर ली. संघ इस संकट से निबटने का कोई ठोस समाधान नहीं निकाल पाया है. इंटरनैशनल और्गेनाइजेशन फौर माइग्रेशन के मुताबिक, जनवरी और अगस्त 2015 के बीच यूरोपीय देशों की सीमाओं पर साढे़ 3 लाख से ज्यादा शरणार्थियों की पहचान की गई है. यहां इस वर्ष अब तक 3.80 लाख से अधिक सीरियाई और अफ्रीकी शरणार्थी पहुंच चुके हैं. अगर सीरिया के अलावा अन्य देशों के शरणार्थियों की बात करें तो उन की तादाद 1 करोड़ के आसपास पहुंचती है.

ब्रिटेन में शरणार्थियों के खिलाफ बुरी तरह प्रचार हो रहा था पर अब हालात बदले हैं और हमदर्दी भी बढ़ी है. सरकार ने अपनी पौलिसी में यू टर्न लिया और कुछ शरणार्थियों को लेने में सहमत हो गई. ब्रिटेन ने कहा है कि आने वाले 5 साल में वह 20 हजार लोगों को शरण देगा. यह संख्या बहुत कम मानी जा रही है. आस्ट्रिया, जरमनी जाने के रास्ते का अहम पड़ाव है, इसलिए हंगरी से शरणार्थी आस्ट्रिया में प्रवेश करना चाहते हैं. आस्ट्रिया ने अपने यहां प्रवेश रोकने के लिए पूर्वी सीमा पर निगरानी कठोर कर हंगरी की ओर से आने वाली गाडि़यों की छानबीन शुरू करवा दी. इस से 20 किलोमीटर तक जाम लग गया था पर बाद में स्थिति विस्फोटक होते देख आस्ट्रिया ने प्रवेश देने का फैसला किया. हंगरी ने 175 किलोमीटर सर्बेनियन सीमा पर लोहे के कांटों की बाड़ लगाई है. पुलिस सर्बिया से आने वाले हजारों लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है. डेनमार्क ने सैकड़ों शरणार्थियों को सीमा पर रोकने के बाद अपने सभी रेल संपर्क बंद कर दिए. यहां की पुलिस ने डेनमार्क और जरमनी को जोड़ने वाले हाईवे को भी बंद कर दिया था.

यूनान की 8,500 मील लंबी सीमा कई जगहों से खुली है. यहीं पर सब से अधिक शरणार्थी प्रवेश कर रहे हैं. यूरोपीय संघ का सब से ताकतवर देश जरमनी शरणार्थियों को जगह देने के पक्ष में खड़ा है. आयलन की तसवीर दुनिया के सामने आने के अगले दिन ही जरमनी और फ्रांस ने ऐलान कर दिया था कि शरणार्थियों के लिए यूरोपीय देशों का कोटा तय होगा. मौजूदा नियमों में भी ढील दी जाएगी ताकि लोगों का आना आसान हो. जरमनी ने साफ कर दिया है कि वह किसी भी शरणार्थी को लौटाएगा नहीं. वह 8 लाख लोगों को शरण देने को तैयार हो गया है. फिनलैंड के प्रधानमंत्री जुहा सिपिला ने अपना घर शरणार्थियों के लिए खोलने का ऐलान कर दिया. यह देश स्वेच्छा से लोगों को लेने को तैयार है. फिनलैंड ने 30 हजार लोगों को लेने की पेशकश की है. सीरिया और उत्तरी अफ्रीका के सब से नजदीक होने की वजह से शरणार्थियों की बाढ़ का यूनान, इटली और हंगरी को सामना करना पड़ रहा है.

खाड़ी देश खामोश

इन ज्यादातर मुसलिम शरणार्थियों को ले कर यह सवाल भी उठ रहा है कि खाड़ी परिषद के 6 देशों में इन में से कितनों को शरण मिली है. बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने इन के लिए अपने दरवाजे क्यों नहीं खोले? यह प्रश्न खाड़ी देशों में ही नहीं, पश्चिम देशों में भी उठ रहा है.

मानव माफिया

धर्म के मारे इन लोगों का दूसरे देशों में गैर कानूनी तरीके से दाखिल होना सुरक्षित नहीं है. गैर कानूनी तरीके से लोगों को दूसरे देशों में पहुंचाने वाले गिरोह सक्रिय हैं जो लाखों रुपए ले कर सीमा पार करवा रहे हैं.

आड़े आता धर्म

कुछ देश पीडि़त सीरियाई लोगों को धर्म के तराजू में तोल रहे हैं. तुर्की एक तरफ आईएस के खिलाफ लड़ने की बात करता है पर दूसरी ओर कुर्द व दूसरे पंथों के  खिलाफ कार्यवाही कर रहा है. फ्रांस 7.5 फीसदी मुसलिम आबादी वाला देश है, इसलिए दक्षिणपंथी धड़ा शरण का विरोध कर रहा है. साइप्रस ने केवल 500 शरणार्थियों को पनाह देने की इच्छा जताई है पर साथ ही, उन के ईसाईर् होने की शर्त भी जोड़ दी है. साइप्रस के गृहमंत्री ने कहा है कि हम और्थोडौक्स क्रिश्चियन शरणार्थियों को ही प्राथमिकता देंगे. इसराईल ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह कोईर् शरणार्र्थी नहीं लेगा. उधर, यूरोप के दक्षिणपंथी शरणार्थियों के चलते मुसलिम आबादी बढ़ने की आशंका जता रहे हैं और सरकारों पर उन्हें अपनी सीमा में न लेने का दबाव बना रहे हैं. सब से बड़े शरणार्थी संकट से गुजर रहे यूरोप की समस्या केवल सीरिया नहीं है. सीरिया से पहले इराक के बड़े हिस्से पर आईएस ने कब्जा कर लिया था. इस से इराक से अब तक 35 लाख लोगों ने पलायन किया है. कई लोगों ने विदेशों में शरण ली है. सब से अधिक 16 लाख अफगानिस्तानी शरणार्थी जीवन बिता रहे हैं. 45 हजार अफगानी अब भी तालिबान के डर से देश छोड़ना चाहते हैं. 35 हजार कोसोवा और इरिट्रिया के लोग भी यूरोपियन संघ में शरण चाहते हैं. 2011 से जातीय हिंसा से जूझ रहे सूडान के हजारों विस्थापित लोग भी शरण मांग रहे हैं. इधर, लीबिया में मोअम्मर गद्दाफी के पतन के बाद युद्ध से जूझ रहे हजारों लोग बेहतर जीवन के लिए यूरोप जा रहे हैं. तानाशाह सैन्य शासन और खराब मानवाधिकार की वजह से हजारों लोग इरिट्रिया से हर महीने पलायन कर रहे हैं.

इतिहास के आईने में

द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त बड़ी संख्या में लोगों को इधरउधर शरण लेनी पड़ी थी. इसे देखते हुए 1948 में कई देशों ने विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे. घोषणापत्र के अनुच्छेद (14)1 में इन देशों में शरण लेने के अधिकार की गारंटी दी गई है. 1951 में जेनेवा समझौता हुआ जो शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित था. इस में 1967 में संशोधन किया गया. विश्व युद्ध में 5 से 8.5 करोड़ लोग मारे गए थे. आधुनिक मानव इतिहास का वह सब से बड़ा धार्मिक युद्ध था. इस में नाजी क्रूरता की इंतहा थी जो यहूदियों पर टूट पड़ी थी. यहूदियों को यंत्रणा शिविरों, गैस चैंबरों में तड़फातड़फा कर मारा गया था. 8 वर्षों में अकेले चीन के  1 करोड़, 40 लाख लोग मारे गए थे. करीब 8 करोड़ शरणार्थी बने. देश के ज्यादातर कलकारखाने, सड़कें रेलमार्ग और दूसरे आधारभूत ढांचे ध्वस्त हो गए थे. हां, चीन में नरसंहार के पीछे कम्युनिज्म था, पुराना धर्म नहीं. सीरिया सहित मौजूदा देशों के शरणार्थियों की तुलना द्वितीय विश्व युद्ध के शरणार्थियों से की जा रही है लेकिन सीरिया, इराक, सूडान, लेबनान, लीबिया जैसे देश तो अपने ही इसलाम मजहब के कहर के शिकार हो रहे हैं. आईएसआईएस अपने ही धर्म के लोगों की जानें ले रहा है. इसलामी स्टेट बनाने के नाम पर इसलामी देशों को ही तबाह करने पर तुला है.

शिकार भारत भी

भारत भी धर्म का जानलेवा कहर झेलता आया है. 1947 में भारतपाक विभाजन और 1971 में बंगलादेश के निर्माण के वक्त देश को लाखों की मौत के साथसाथ शरणार्र्थी समस्या से दोचार होना पड़ा था. 1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में कहा था कि 8 सप्ताह में 35 लाख बंगलादेशी शरणार्थी भारत आए. सरकार को तब आर्थिक दबाव झेलना पड़ा था. 6 महीने के लिए 180 करोड़ रुपए की राहत का इंतजाम करना पड़ा था.

धर्म का कहर

दुनियाभर में धर्म का कहर बरप रहा है. एक धर्र्म दूसरे धर्म के लोगों की कम, अपने धर्र्म के लोगों की जानें अधिक ले रहा है. यह बात मुसलिम देशों के हालात से जाहिर है. मुसलिम देश इराक, सीरिया, सूडान, यमन, तुर्की, सोमालिया, लीबिया शिया, सुन्नी, कुर्द के बीच झगड़ों में बरबाद हो गए. हजारों लोग ऊंचनीच के झगड़ों में मारे जा रहे हैं. दुनिया के तकरीबन 53 मुसलिम देश अपने ही मजहब की हिंसा के शिकार हैं. असल में धर्म सदियों से मनुष्य पर बंदिशें थोपता आया है. मुसलिम देशों में यह गृहयुद्ध आधुनिक स्वतंत्रता और हजारों साल पुराने धर्म के सड़ेगले विचारों के बीच है. चंद कट्टरपंथी हिंसा के बल पर पढे़लिखे लोगों पर अपने दकियानूसी विचार थोपना चाहते हैं. आईएस मुसलिम देशों में शरीया कानून बनाने की बात करता है. इस आड़ में वह युवा लड़कियों का अपहरण कर लेता है, उन के साथ बलात्कार करता है. बेकुसूर लोगों पर हमले करता है. उस ने कई शहरों ही नहीं, देशों को तबाह कर दिया है. मनुष्य की स्वतंत्र विचार शैली और तर्कसम्मत होने की ताकत के खिलाफ निहित स्वार्थों के हमले सदियों से जारी रहे हैं.

विश्व के लिए खतरा

धर्म आज विश्व के लिए सब से बड़ा खतरा बन गया है. कलह, अशांति, हिंसा, युद्ध आदि का कारण धर्म ही है. यह धरती धार्मिक युद्धों के कारण ही तबाह होती रही है. आज दुनिया अशांत है तो धर्र्म की वजह से.  दुनिया की संवेदना को झकझोरने वाली मृत आयलन कुर्दी की तसवीर महज शरणार्थी संकट की एक बदतर झलक भर है, यह असल में उस मजहब की वह अमानवीय क्रूर हकीकत है जो इंसानियत को सदियों से रौंदती, दरबदर करती आई है. अब ऐसी त्रासदी से निबटने का एक ही तरीका है, धर्म का खात्मा. राजनीतिक, धार्मिक, जातीय हिंसा व युद्ध के चलते जो भी लोग अपना देश छोड़ कर विश्व में अन्यत्र जाना चाहें, बसना चाहें, उन्हें बेरोकटोक जाने दिया जाना चाहिए. सीमाएं बाधा नहीं बननी चाहिए. आज समूचा विश्व एक ग्लोबल गांव में तबदील हो रहा है तो सीमाओं की बाधा क्यों?

समाचार

सफेद मक्खी के प्रकोप से नरमा फसल तबाह

भिवानी (हरियाणा) : सूबे के किसानों की कपास की फसल पर सफेद मक्खी ने कहर बरपा रखा है. इन सफेद मक्खियों पर दवाओं का असर भी बेअसर हो रहा है. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर इस बार इन सफेद मक्खियों का प्रकोप नहीं थमा तो इस का असर अगले वर्ष भी रहेगा. दूसरी तरफ नरमा किसान फसल के नुकसान की भरपाई के लिए सरकार से मुआवजे की मांग को ले कर उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं. किसानों का कहना है कि 1 एकड़ में नरमा फसल पैदा करने में 30-35 हजार रुपए का खर्च होता है. ऐसे हालात में फसल बरबादी के मुहाने पर है और सरकार चुप है. कृषि विभाग और सरकार को फसल में हुए नुकसान की भरपाई करनी चाहिए. वहीं प्रदेश के कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ का कहना है कि किसानों का कहना सही है. सरकार इस मामले को ले कर चिंतित है और इस के लिए जरूरी कदम उठाए जा रहे हैं. कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अकेले भिवानी जिले में 62 हजार 700 हेक्टेयर भूमिपर कपास की बिजाई की गई है. उन का यह भी कहना है कि पिछले साल भी सफेद मक्खी ने नरमा फसल को नुकसान पहुंचाया था और इस बार भी सफेद मक्खी कहर बरपा रही है. तकरीबन 30 फीसदी नुकसान अब तक हो चुका है.

इस बारे में माहिरों का कहना है कि किसान अपनी फसल पर सफेद मक्खी से बचाव के लिए 2-3 बार दवाओं का स्प्रे कर चुके हैं, लेकिन फायदा नहीं हुआ. फसल चौपट हुई जा रही है. ऐसी हालत में बेहतर होगा कि किसान महंगे कीटनाशकों की बजाय डेमोथेरट्स, रोगोर या मेटासिसटोन को नीम की दवा के साथ मिला कर फसल पर स्प्रे करें. उन्होंने बताया कि यह सफेद मक्खी एक बार में सौ से सवा सौ अंडे देती है. यह तेजी से फसल को नुकसान पहुंचाती है. अगर कीटनाशक दवाओं से सफेद मक्खी की रोकथाम न की गई तो फसल को काफी नुकसान होगा. सफेद मक्खी के प्रकोप से फसल के पत्तों पर काला पाउडर जमा हो जाता है, नतीजतन पत्ते काले हो कर खराब होने लगते हैं, पौधों की बढ़वार रुक जाती है और फल भी कम आते हैं. इसलिए सफेद मक्खी से फसल का बचाव करने में किसान लापरवाही न करें.    

जरूरी है परंपरागत बीजों की हिफाजत

छत्तीसगढ़ : यदि हमें अपना स्वास्थ्य और खानपान ठीक रखना है तो खेती के क्षेत्र में भी सुधार करना जरूरी है लिहाजा हमें अच्छी फसल लेने के लिए परंपरागत बीजों को बचाना होगा और उन में सुधार करना होगा ऐसा ही एक कार्यक्रम छत्तीसगढ़ के जिला बिलासपुर में जन स्वास्थ्य सहयोग ने शुरू कर रखा है. वहां के गनियारी गांव में भी कृषि सुधार कार्यक्रम तकरीबन 1 दशक से चल रहा?है. इस कार्यक्रम के मुखिया होमप्रकाश बताते?हैं कि इस कार्यक्रम में धान की 405 किस्में, अरहर व मंडुआ की 6 किस्में और गेहूं की 16 किस्में शामिल हैं. धान की 405 किस्मों में तकरीबन 50 किस्में ऐसी हैं जिन की स्थानीय किसानों में काफी मांग?है. इन किस्मों को खासतौर पर मुहैया कराया जाता है.

यहां बीज पूरी तरह से जैविक तरीकों से तैयार किए जाते?हैं. इन में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया जाता है, जिस से अच्छी क्वालिटी की फसल और बीज मिलते?हैं. यह तकनीक सस्ती होती?है, जिस से किसानों को कर्ज लेने की जरूरत नहीं पड़ती. इस तकनीक से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी दूर होती?है और पानी भी बहुत कम खर्च होता?है. होमप्रकाश आगे बताते?हैं कि यहां एसआरआई तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, जिस में 1 एकड़ में इस्तेमाल होने वाले बीज की मात्रा जो तकरीबन 40 किलोग्राम होती है, घट कर 2 से 3 किलोग्राम ही रह जाती?है. एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी सभी दिशाओं में 10 इंच रखी जाती?है. पौधों की कम संख्या होने से हर पौधे को जमीन से सही पोषक तत्त्व मिल जाते?हैं. इस तकनीक में 10-12 दिनों की पौध की रोपाई की जाती?है. रोपाई के बाद 15 दिनों के अंदर निराई की जाती?है. खेत में नमी का भी खास ध्यान रखा जाता?है. खेत को पानी से पूरा भरने की जरूरत नहीं है. फूल निकलने के समय 2 से 4 इंच पानी बनाए रखने की जरूरत होती है. फसल में 2 बार जीवनामृत का छिड़काव करना चाहिए. जीवनामृत गोमूत्र, गोबर, गुड़ और बेसन से तैयार होता?है.

इस मिश्रण को 5 दिन रखने के बाद पानी में घोल कर फसल में छिड़काव किया जाता?है. पहला छिड़काव निराई के समय और दूसरा उस के 20-25 दिनों के बाद किया जाता?है. इस छिड़काव के बाद आमतौर पर कीड़ों और बीमारियों का खतरा नहीं रहता?है. होमप्रकाश का कहना?है कि जहां लगभग 10 महीने हम अपने इस्तेमाल की फसलें उगाते?हैं, वहीं करीब 2 महीने हमें जमीन के पोषण के लिए भी रखने चाहिए. मिट्टी के पोषण के लिए तरहतरह के अनाजों, दलहनतिलहन व अन्य उपयोगी पौधों को उगा कर मिट्टी में हरी खाद के रूप में जोत देना चाहिए. इस तरह मिट्टी का कुदरती उपजाऊपन बना रहता?है. इस साल परंपरागत खाद्य व पोषण उत्सव ‘जेवनार’ का आयोजन जन स्वास्थ्य सहयोग द्वारा किया गया. इस आयोजन के मुखिया अनिल बामने ने बताया कि जेवनार में भाग लेने वाले हर स्वयं सहायता समूह को अपनी पसंद के परंपरागत पकवान मिल कर पकाने और खानेखिलाने के लिए बुलाया गया. इस आयोजन का मकसद अपने कृषि खाद्य व पोषण ज्ञान को अच्छे तरीके से जाननासमझना?है, ताकि नई पीढ़ी उस को समझ कर उस की हिफाजत कर सके. अनिल ने बताया कि उत्सव के दिन गांववासियों खासकर महिलाओं में बहुत जोश था. लोग अपनेअपने गांवों से तरहतरह की पकवान बनाने की सामग्री ले कर रात को ही आयोजन की जगह पर पहुंचने लगे थे, ताकि सुबह खाना पकाने का काम जल्दी शुरू किया जा सके.

सुबह 10 बजे तक ज्यादातर समूहों ने तरहतरह की लजीज खानेपीने की चीजें तैयार कर ली थीं. करीब 40 तरह के पकवान इस उत्सव में तैयार किए गए थे. सभी लोगों ने एकदूसरे द्वारा तैयार की गई खानेपीने की चीजों का जायका लिया और उन के बारे में एकदूसरे को जानकारी दी. उत्सव में महुए से तैयार किए गए पकवानों की खास चर्चा रही. ऐसे पकवानों में महुए की पूरी, लड्डू और सब्जी खास थे. चने के साथ मिला कर पकाई गई महुए की सब्जी को लोगों ने बहुत पसंद किया. इस के अलावा सेम के बीज के साथ पकाया गया महुए का लाटा भी चर्चा का विषय रहा. महुए के मीठे और तीखे पकौड़ों को भी लोगों ने बहुत पसंद किया. इसी तरह तमाम कंदों, हरे पत्तों व बांस के पौधों से बनने वाली सब्जियों के बारे में भी लोगों को काफी जानकारी मिली. जेवनार से लौटते वक्त तमाम गांववासियों का कहना था कि ऐसे उत्सव साल में कम से कम 1 बार तो जरूर होने चाहिए.            

हिफाजत

सुरक्षा के लिए जैविक मेहंदी बाड़

हैदराबाद : जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा के लिए एक ऐसी जैव तकनीक आई है, जो पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है. इस तकनीक का नाम ‘मेहंदी जैव बाड़’ है. यह फसल सुरक्षा के लिए एक प्रभावी उपाय है. एस कुमार के कृषि व्यापार निगम के द्वारा इस तकनीक को ईजाद किया गया है जो हैदराबाद में स्थित?है. इस ‘मेहंदी जैव बाड़’ की खासीयत यह भी है कि यह कीट मुक्त है और फसलों को भी कीटमकोड़ों से सुरक्षा देती है. यह खुद ही एक कीटनाशक के रूप में काम करती?है. यह मेहंदी जैव बाड़ बारहमासी हरीभरी रहती है.

पूरी तरह से जैविक ‘मेहंदी जैव बाड़’ फसल के चारों ओर 1 मीटर की चौड़ाई में 6 से 9 लाइनों में लगाई जाती है, जो आगे चल कर मोटी और मजबूत जैविक बाड़ बन जाती है. जंगली सुअर, नील गाय व अन्य जंगली जानवर इस बाड़ को पार नहीं कर पाते और न ही इसे खा कर नष्ट कर पाते हैं. इस तरह किसानों की फसल कीटमुक्त व जंगली जानवरों से सुरक्षित रहती?है. ‘मेहंदी जैव बाड़’ लगाने के लिए न तो कंटीले तारों से फसल के चारों तरफ घेराबंदी करनी पड़ती है और न ही बिजली या बैटरी चालित कोई यंत्र लगाने की जरूरत होती है. यह पूरी तरह से सुरक्षित और परिस्थितियों के अनुकूल है और लागत में फायदे का सौदा है.

अगर आप भी इसे अपनाना चाहते?हैं या ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते?हैं तो कुछ कंपनियों की नीचे दी गई  मोबाइल नंबरों 919494947894, 919848028410 पर संपर्क कर सकते हैं.

इस प्रकार जैविक मेहंदी बाड़ से कोई भी किसान अपनी मेहनत से लगाई गई फसलों की हिफाजत आसानी से कर सकता?है.        

जज्बा

नवाजुद्दीन ने दिखाया खेती किसानी में दम

मुजफ्फरनगर : हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी इस समय अपने फिल्मी जीवन में अभिनय की बुलंदियों पर हैं, लेकिन अभी भी जब वे अपने गांव बुढ़ाना जाते?हैं, तो एक आम किसान की तरह अपने खेतों में काम करना नहीं भूलते. वे अपने खेतों में एक किसान की तरह ही काम करते?हैं और एक आम आदमी की तरह ही अपने दोस्तों व चाहने वालों से मिलते?हैं. उन के चाहने वाले उन्हें तमाम उपहार भी भेजते?हैं, जिन्हें वे सहेज कर रखते?हैं.                    ठ्ठ

गुस्ताखी

खड़ी फसल बचाने के लिए छिड़क दी दवा

हैदराबाद : तेलंगाना राज्य सूखे के दौर से गुजर रहा है. खेत में खड़ी खरीफ  की फसल पानी की कमी में सूख कर बरबाद हो रही है. धान की खेती करने वाले किसान अपने खेत में बेहद जहरीले कैमिकल औक्सीटौसिन का छिड़काव कर रहे हैं. इस के अलावा किसान औक्सीटौसिन का इस्तेमाल सब्जी और फल की खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में करते हैं. वैसे इस खतरनाक दवा का इस्तेमाल खेती और पशुपालन में प्रतिबंधित है, क्योंकि औक्सीटौसिन जानवरों में पाया जाने वाला हारमोन है. इस का सेवन करने से इनसान पर खतरनाक असर पड़ सकता है. यह पहला मौका है, जब किसान अपनी पैदावार बढ़ाने के लिए औक्सीटौसिन को अपने खेतों में इस्तेमाल कर रहे हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा करने से न केवल धान की खेती और जमीन पर बेहद गलत असर पड़ेगा, बल्कि सेहत के नजरिए से भी यह खतरनाक साबित होगा. हैदराबाद कोर्ट ने भी इस मामले पर सख्ती दिखाते हुए फलों को अप्राकृतिक तौर पर बड़ा करने और पैदावार बढ़ाने के लिए कैमिकल पदार्थों के इस्तेमाल को आड़े हाथों लिया. किसान जहां इस कैमिकल का इस्तेमाल ज्यादा पैदावार बढ़ाने की उम्मीद से करते हैं, वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि इस से पैदावार में कोई इजाफा नहीं होता.

धान की खेती करने वाले किसान जो कि आमतौर प सिंचाई के लिए नहर पर निर्भर हैं, सूखे के कारण सिंचाई नहीं कर सके. उन की खेत में खड़ी आधी से ज्यादा फसल सूख चुकी है. यही वजह है कि पैदावार बढ़ाने की उम्मीद में किसान औक्सीटौसिन का इस्तेमाल कर रहे हैं. वैसे तेलंगाना सरकार के कृषि विभाग ने औक्सीटौसिन के इस्तेमाल के खिलाफ  मुहिम छेड़ रखी है, परंतु किसान निजी कृषि फर्म वालों की सलाह पर ऐसा कर रहे हैं.       

सुविधा

खेतों में ही होगी मिट्टी की जांच

पटना : बिहार में मिट्टी की जांच को ले कर किसानों की बेरुखी को देखते हुए कृषि विभाग ने अब खेतों में ही मिट्टी की जांच करने और वहीं पर किसानों को रिपोर्ट देने की कवायद शुरू की है. राज्य के सभी कृषि विज्ञान केंद्रों में मिट्टी की जांच के पोर्टेबल किट मुहैया कराए जा रहे हैं. बिहार में फिलहाल 38 कृषि विज्ञान केंद्र काम कर रहे हैं और 6 नए केंद्र खोलने की तैयारी चल रही है. पोर्टेबल किट के जरीए खेत में ही 2 घंटे के अंदर मिट्टी की जांच की रिपोर्ट मिल जाएगी. खास बात यह है कि मिट्टी की जांच के लिए किसानों को कोई फीस भी नहीं देनी पड़ेगी. मिट्टी की जांच की रिपोर्ट आने के बाद कृषि वैज्ञानिक किसानों को बताएंगे कि उन के खेतों में कौन सी फसल लगाने से ज्यादा मुनाफा हो सकता है. इस के साथ ही किसानों को यह भी बताया जाएगा कि फसलों में कौन सी खाद कितनी मात्रा में डालनी है और फसल को कबकब कितना पानी देना है. मिट्टी की जांच के बाद किसान खेतों में केमिकल खादों का इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से ही कर सकेंगे, जिस से खेत के बंजर होने  की तेज रफ्तार में कमी आएगी. विभाग हर 3 साल में मिट्टी की जांच कराएगा. मिट्टी की जांच में तेजी लाने के लिए हर प्रमंडल को मिट्टी जांच प्रयोगशाला से लैस एकएक गाड़ी मुहैया कराई जाएगी. हैदराबाद से मंगवाई गई एक चलतीफिरती प्रयोगशाला की कीमत 40 लाख रुपए है.

गौरतलब है कि बिहार में आमतौर पर मिट्टी का पीएच 6.5 से ले कर 8.4 के बीच है. कुछ इलाकों में मिट्टी का पीए 10 भी है. राज्य के ज्यादातर इलाकों में मीडियम हलकी मिट्टी है, केवल टाल क्षेत्रों में भारी मिट्टी है. इस के साथ ही मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की मात्रा 150 से ले कर 400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. इन के अलावा पौधों के पोषण के लिए जरूरी तत्त्वों में तांबा, मैगनीज, बोरोन, जस्ता, लोहा व क्लोरीन वगैरह भी शामिल हैं.  

जायका

मसालेदार भोजन से न घबराएं

लंदन : मसालेदार भोजन वाकई खाने वालों को बेहद लजीज लगता है. मगर खास बात यह?है कि मसालेदार भोजन कई बीमारियों से बचा कर मौत को पीछे धकेलने में मददगार भी साबित होता है. जी हां, यह बात बिलकुल सही है. ब्रिटिश मेडिकल जरनल में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मसालेदार भोजन को ज्यादा लेने से कैंसर, दिल और सांस की बीमारी से होने वाली मौतों का खतरा कम होता है. यह बात मर्दों से ज्यादा औरतों पर लागू होती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, किए गए सर्वे में हिस्सा लेने वाले उन लोगों ने, जिन्होंने रोज मसालेदार भोजन खाया, उन की मौत की आशंका उन लोगों के मुकाबले 14 फीसदी कम पाई गई, जिन्होंने हफ्ते में 1 बार या इस से भी कम मसालेदार भोजन लिया. यह बात मसालेदार भोजन लेने वाले उन लोगों पर और लागू होती है, जो शराब नहीं पीते. शोध करने वालों का कहना है कि मसालों में ऐसे तत्त्व होते हैं, जो सेहत के लिए काफी फायदेमंद होते हैं. यानी मतलब साफ?है कि लजीज मसालेदार खाने की बुराई करने वालों की दलीलें फुजूल हैं. अब तो खानेपीने के शौकीनों को मसालों से परहेज करने की जरूरत ही नहीं?है. अगर कोई डाक्टर मसालों की बुराई करे तो उसे इस रिपोर्ट का हवाला दिया जा सकता?है. 

चोरी

2 लाख के प्याज ही ले उड़े चोर

जयपुर : ज्यादातर चोर वैसे तो सोना और नकदी ही चुराते हैं, पर अब वे शातिर तरीके से प्याज चुराते नजर आ रहे हैं. लगता है कि महंगाई की मार अब चोरों को भी झेलनी पड़ रही है, तभी तो चोर प्याज पर भी अपने हाथ की सफाई दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं. प्याज के दाम आसमान क्या छूने लगे, चोरों ने भी अब इसे अपने निशाने पर ले लिया है. राजस्थान में एक बार फिर चोरों ने जयपुर की थोक मंडी से 2 लाख रुपए की तकरीबन 4 हजार किलोग्राम प्याज पर हाथ साफ  कर दिया. भले ही बाद में इन प्याज चोरों को पकड़ लिया गया. पकडे़ गए आरोपियों में एक सब्जी मंडी का चौकीदार है और दुकान के लिए जगह मुहैया कराने वाली एक औरत भी पकड़ी गई है. पुलिस ने जांच शुरू की, तो पता चला कि चौकीदार ने एक पिकअप वैन से औरत की जगह से प्याज उठवाए थे. इस के बाद पुलिस ने चौकीदार को गिरफ्तार कर के पूछताछ की, तो पूरा मामला खुल गया. पुलिस के अनुसार प्याज के 60 किलोग्राम के 70 बोरे चोरी किए गए. बताया जा रहा है कि चोरी किए गए माल की कीमत 2 लाख रुपए से भी ज्यादा है.          

तबाही

दियारा में मक्के की फसल चौपट

पटना : जिले के दियारा इलाकों में पानी में डूबने की वजह से तकरीबन 70 हजार हेक्टेयर खेत में लगी मक्के की फसल बरबाद हो गई है. गंगा नदी का जल स्तर बढ़ने से दियारा के सारे खेत पानी में डूब गए हैं, जिस से मक्के की फसल का रंग बिगड़ कर पीला होने लगा है. इस के साथ ही मवेशियों को रखने और पशुचारे की भी समस्या पैदा हो गई है. किसान रामप्रवेश के मुताबिक मक्के की 50 फीसदी फसल में बालियां आ गई थीं. बाढ़ के पानी में फसल के डूबने से उस के गलने का खतरा पैदा हो गया है. इस से किसानों की मेहनत और पूंजी बरबाद होने तय है. गौरतलब है कि बाढ़ से प्रभावित इलाकों में सरकार राहत के तौर पर 15 सौ रुपए और 40 किलोग्राम अनाज देती है, लेकिन फसलों के मुआवजे की कोई व्यवस्था नहीं है. कृषि विभाग का कहना है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में उन्हीं फसलों को लगाया जाता है, जो बाढ़ से पहले ही तैयार हो जाती हैं. इस के बाद भी अगर कोई किसान खतरा मोल ले कर फसल लगाता है, तो उस में सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती है, इसिलए दियारा इलाकों में बाढ़ से होने वाले फसलों के नुकसान के एवज में कोई मुआवजा नहीं दिया जाता है.        

हालातहालात

शताब्दी निजी नलकूप योजना

पटना : बिहार में सूखे की हालत पैदा हो गई है और राज्य सरकार अपनी ‘शताब्दी निजी नलकूप योजना’ को अब तक फाइलों से बाहर नहीं निकाल सकी है. गौरतलब है कि पिछले साल फरवरी महीने में इस योजना का ऐलान करते समय तब के कृषि मंत्री ने दावा किया था कि इस योजना के तहत अगले 5 सालों में 12 लाख किसानों को निजी नलकूप दिए जाएंगे. इस योजना की शुरुआत में हर जिले के 1-1 प्रखंड में किसानों को सब्सिडी पर निजी नलकूप दिए जाने हैं. सभी प्रखंडों के पंचायत भवनों, स्कूलों, सामुदायिक भवनों या वसुधा केंद्रों में कैंप लगा कर किसानों से आवेदन लिए जाने थे. 100 फुट गहरी बोरिंग कराने पर 238 रुपए प्रति मीटर या अधिकतम 15 हजार रुपए और इस से ज्यादा गहरी बोरिंग कराने पर प्रति मीटर 595 रुपए या अधिकतम 35 हजार रुपए सब्सिडी देने का प्रावधान रखा गया है.

मोटर पंप के लिए 50 फीसदी या 10 हजार रुपए की सब्सिडी देने की बात कही गई थी. लघु जल संसाधन विभाग ने इस के लिए 65 करोड़ रुपए जारी भी कर दिए थे, ताकि किसानों को सब्सिडी देने में कोई दिक्कत न हो. वित्तीय साल 2014-15 खत्म हो गया पर इस योजना पर एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की जा सकी?है. इस योजना की शुरुआत के मौके पर पटना, पूर्णियां, नालंदा और पश्चिमी चंपारण के जिन किसानों को स्वीकृतिपत्र सौंपे गए थे, वे नलकूप के लिए दफ्तर के चक्कर लगालगा कर बुरी तरह से थक गए हैं. नालंदा के किसान उमेश कुमार ने बताया कि लघु जल संसाधन विभाग में किसानों की सुनने वाला कोई नहीं?है.  

मामला

जांच के दायरे में बीटी काटन

चंडीगढ़ : इस बार प्रदेश में अमेरिकन कंपनी के बीज द्वारा उगाई गई बीटी काटन में सफेद मक्खी का प्रकोप देखा गया. एक तरफ कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए कृषि वैज्ञानिकों से चर्चा कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ बीज बनाने वाली अमेरिकन कंपनी से भी जवाबतलब किया गया. सरकार का कहना है कि पूरी तरह से प्रमाणित बीज न होने की दशा में उन पर शिकंजा कसा जाएगा. उन्होंने कृषि विभाग के अधिकारियों को बीज की जांच के ओदश भी दिए. कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ ने केंद्र सरकार से आग्रह किया?है कि वे अपनी टीम भेज कर किसानों को हुए नुकसान का जायजा लें जिस से किसानों को हुए नुकसान भी भरपाई की जा सके. अकस ऐसी बातों से हमारे कृषि अधिकारियों की नादानी का खुदासा होता रहता?है. सवाल उठता?है कि कोई भी नया कदम उठाने से पहले उस के बारे में पूरी खोजबीन क्यों नहीं की जाती.            

डेरी में महिलाओं का दखल

करनाल : अब वह जमाना नहीं रहा जब गांवदेहात की औरतों को मुंह ढक कर रहना पड़ता था और घर से बाहर निकलने के लिए कई बार सोचना पड़ता था, वह भी बड़ों से इजाजत ले कर. अब हालात में बहुत कुछ बदलाव होने लगा है और महिलाएं भी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं. गांव अमृतपुरा कलां, करनाल (हरियाणा) की ऐसी ही कुछ महिलाओं ने ‘अनमोल महिला दुग्ध समिति’ बनाई और दूध का कारोबार करने का मन बनाया. ये सभी महिलाएं 30 से 45 साल तक की हैं. ये औरतें सविता, कमलेश, सीमा, ममतेश और मूर्ति देवी हैं. इन के उत्साह को देख कर नेशनल डेरी रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और वैज्ञानिकों ने इन्हें दूध उत्पादन, प्रोसेसिंग और बिक्री करने के संबंध में ट्रेंड किया और इन्हें 50 हजार रुपए का लोन दिया और 5 हजार रुपए तकनीकी उपकरणों के लिए अलग से मुहैया कराए. आज ये पांचों महिलाएं शादी और पार्टियों में दूध और दूध के बने उत्पादों के और्डर लेती हैं. साथ ही, गांव और कसबों के आसपास के क्षेत्रों में दूध की मांग को पूरा करती हैं. आज के हालात के मुताबिक महिलाओं की यह तरक्की काबिलेतारीफ है. अब वह जमाना लद गया, जब औरतों का कोई वजूद नहीं था. अब तो हर जगह महिलाओं का जलवा?है.               

अमेरिका की मदद से बिहार होगा बाढ़ मुक्त

पटना : बिहार को बाढ़ मुक्त बनाने में अमेरिकी सेना की मुख्य इंजीनियरिंग टीम कौर्प्स मदद करेगी. गौरतलब?है कि कुछ महीने पहले अमेरिकी सेना की इंजीनियरिंग विंग कौर्प्स डाक्टर एपीजे अब्दुल कलाम से मिली थी, तो कलाम ने विंग के अफसरों को बिहार को बाढ़ से नजात दिलाने की बात की थी. अब कलाम जिंदा नहीं?है, लेकिन बिहार सरकार ने उन के सपने को साकार करने की पहल की?है. अमेरिकी सेना की मदद से इस दिशा में काम शुरू कर दिया गया?है. साल 1775 में बनी अमेरिकी सेना की इंजीनियरिंग विंग में 650 सैनिक और 34600 सिविल औफिसर शामिल हैं. यह दुनिया की सब से बड़ी इंजीनियरिंग, डिजाइन और कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट एजेंसी है. कौर्प्स ने अब तक 400 अप्राकृतिक नदियों और जलाशयों को तैयार किया है. इस के अलावा 8500 मील लंबे तटबंध का निर्माण भी किया?है. इस ने अमेरिका के समुद्री तटों की किलाबंदी भी की है.

गौरतलब?है कि बिहार के 38 में से 28 जिलों को हर साल बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती?है. अररिया, कटिहार, खगडि़या, किशनगंज, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, भागलपुर, बेगुसराय, भोजपुर, बक्सर, दरभंगा, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, लखीसराय, मधुबनी, मुजफ्फरपुर, नालंदा, सारण, शेखुपरा, शिवहर, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, सिवान, वैशाली, सुपौल और पअना को हर साल बाढ़ से काफी नुकसान उठाना पड़ता?है. गंगा, कोसी, गंडक, बागमती, कमला बलान, भूतही बलान नदियों के अलावा नेपाल की नदियों में आई बाढ़ से भी बिहार में हाहाकार मचता रहता?है. राज्य का कुल 73 फीसदी इलाका बाढ़ग्रस्त है, जो देश के कुल बाढ़ग्रस्त इलाके का 17 फीसदी?है. बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी ने बताया कि कौर्प्स के अफसरों के साथ कई दौर की बात हो चुकी?है और अब कौर्प्स प्रोजेक्ट तैयार करने में लगी हुई?है.              

जश्न

तोतामैना की शादी देखने के लिए भीड़ उमड़ी

नई दिल्ली : ‘तोतामैना की कहानी तो पुरानी हो गई…’ फिल्म ‘फकीरा’ का यह गीत तो आप ने खूब सुना होगा, पर तोतामैना की शादी की बात आज के दौर में कुछ हजम होने वाली नहीं लगती. नार्थईस्ट डिस्ट्रिक्ट के ब्रह्मपुरी इलाके में तोतामैना की एक अनोखी शादी देखने को मिली. यह शादी बडे़ ही गाजेबाजे के साथ धूमधाम से की गई. ब्रह्मपुरी इलाके के रहने वाले हाजी नजाकत अली 4 साल पहले अपने घर एक मैना को खरीद कर लाए थे. उन्होंने मैना की परवरिश अपनी बेटी की तरह की, वहीं नजाकत अली के साले कमर अब्बास के पास एक तोता था. जीजासाले दोनों ने मिल कर तोता और मैना की शादी पक्की कर दी और इंतजाम में जुट गए. साले कमर अब्बास बैंडबाजे के साथ डांस करते हुए तोते की बरात ले कर अपने जीजा नजाकत अली के घर पहुंचे. घोड़ी पर बैठे बच्चे के हाथ में तोते वाला पिंजरा था. जब बरात गली से गुजर रही थी, तो देखने वालों की भीड़ लग गई. नजाकत अली ने बरातियों का स्वागत बहुत धूमधाम से किया. वहां तमाम तरह के पकवान बनाए गए थे. बरात में शामिल लोगों का हुजूम देखते ही बनता था. खाना खाने के बाद बरातियों के चेहरों पर अलग ही खुशी दिख रही थी. दुलहन बनी मैना को देखने के लिए भी लोग उतावले हो रहे थे. नजाकत अली के घर पर मैना की शादी की सारी रस्में अदा की गईं.यह अनोखी शादी पूरे इलाके में बहुत दिनों तक चर्चा का विषय बनी रही. 

खोज

ग्राफ्टिंगमैन आनंद गणनायक

ओडिशा : देवगढ़ गांव के 72 साला किसान आनंद गणनायक ने अपनी 18 एकड़ जमीन पर आम, लीची और चने की फसल लगाई हुई है. वे इस काम को साल 1984 से कर रहे हैं. साथ ही वे कुछ अलग करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने ग्राफ्टिंग तकनीक के बारे में माहिरों से जानकारी ली और अपने खेतों में इस तकनीक को अपनाने के लिए प्रेरित हुए. उन्होंने आम के पौधों में ग्राफ्टिंग की जिस से उन्होंने आम की नईनई किस्में ईजाद कीं. इस ग्राफ्टिंग तकनीक से लगाए पेड़ों से उन्हें बहुत अच्छे नतीजे मिले और उन्होंने अपने आमों की इस प्रजाति का नाम ‘आनंद सागर’ रखा. जुलाई के दूसरे हफ्ते से अगस्त तक उन्होंने डबल मुनाफा कमाया. इस के साथ ही उन्होंने अपने दोस्तों और दूसरे किसानों को भी ग्राफ्टिंग के बारे में जानकारी दी.

ग्राफ्टिंग एक ऐसी तकनीक है जिस में एक पौधे की शाखाओं को बीच से काट कर व चीर कर उस को दूसरे पौधे की शाखा साथ जोड़ा जाता है. कुछ ही दिनों में दोनों पौधों की शाखाएं और मुख्य पौधा आपस में जुड़ जाते हैं. यह तकनीक बागबानी में बेहतर उत्पादन के लिए दूसरे देशों में भी अपनाई जाती है. अगर किसी तरह की कुदरती आपदा न आए तो इस तकनीक को अपनाने से वे हर साल 20 से 30 फीसदी ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. अच्छा स्वाद और ज्यादा गूदा होने की वजह से इस प्रजाति की बिहार और उत्तर प्रदेश में काफी मांग है. बाजार में इस प्रजाति की कीमत भी ज्यादा मिलती है. ओडिशा के मुख्यमंत्री द्वारा साल 2009 में जिले के उत्कृष्ट किसान के तौर पर आनंद गणनायक को सम्मानित भी किया जा चुका है. उन की इच्छा है कि इस बेहतर तकनीक को देश के ज्यादा से ज्यादा किसान अपनाएं.        

योजना

नदी जोड़ योजना की कछुआ चाल

पटना : बिहार नदी जोड़ योजना के मसले पर केंद्र और बिहार सरकारें अपनीअपनी जिद चलाने की कोशिशों में लगी हुई हैं, जिस से यह योजना धीमी गति से आगे बढ़ रही है. केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के तहत काम करने वाली नेशनल वाटर डेवलपमेंट (एनडब्ल्यूडीए) बिहार में नदी जोड़ परियोजना का काम देख रही है और उस ने बिहार सरकार की 9 में से 4 परियोजनाओं की संभावनाओं को खारिज कर दिया है. वहीं बिहार सरकार का कहना है कि वह केंद्र के फैसले को मानने के लिए मजबूर नहीं है. राज्य सरकार अपने स्तर से रिसर्च करवा कर नदी जोड़ परियोजनाओं की संभावनाओं का करने की जिद पर अड़ गई है. गौरतलब है कि एनडब्ल्यूडीए को 9 परियोजनाओं का डीपीआर बनाने का जिम्मा दिया गया था. इस में कोसीमेची लिंक, बूढ़ी गंडकनोनगंगा लिंक, अक्सर पंप कैनाल, चंदनबटुआबेसिन, कोसीअधवाराबागमती लिंक, कोहराचंद्रावत लिंक, बगमतीबूढ़ीगंडक वाया वेलवाधार, कोसीगंगा लिंक वाया बागमती और गंगा के पानी को दक्षिण बिहार में उपयोग करने की परियोजना शामिल है. इस में से कोसीमेची लिंक एवं बूढ़ीगंडकनोन वाया गंगा लिंक का डीपीआर केंद्रीय जल आयोग को सौंप दिया गया है, जबकि बक्सर पंप कैनाल, कोसीअधवाराबागमती लिंक और चंदनबटुआ बेसिन के डीपीआर पर काम चल रहा है.

केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बागमतीबूढ़ीगंडक वाया वेलवाधार, कोहराचंद्रावत लिंक, कोसीगंगा लिंक वाया वागमती तथा गंगा परियोजना की संभावनाओं को पूरी तरह से रद्द कर दिया है. इस की वजह यह बताई गई है कि इन चारों परियोजनाओं पर जितना खर्च किया जाएगा, उस के मुकाबले काफी कम लोगों को फायदा मिल सकेगा. बिहार के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी कहते हैं कि वे केंद्रीय एजेंसी की रिपोर्ट मानने के लिए बाध्य नहीं हैं. सरकार एक कमेटी बना कर अपन स्तर पर संभावनाओं की खोज कराएगी.  

टानिक

दूध बढ़ाने वाला पशुओं का पाउडर

नई दिल्ली : अभी हाल ही में अनिल हर्बल नर्सरी फरीदाबाद हरियाणा ने दुधारू पशुओं के लिए एक हर्बल पाउडर तैयार किया?है. सुरभि गोल्ड नाम से बना यह पशु आहार सप्लीमेंट पूरी तरह प्राकृतिक है. इसे प्राकृतिक तरीके से हासिल पौधों से तैयार किया जाता?है. इस में शतावर व अश्वगंधा वगैरह का प्रयोग किया जाता?है, जो पशुओं के लिए बहुत फायदेमंद हैं. अनिल हर्बल नर्सरी के मालिक अनिल कुमार का कहना?है कि इस पाउडर को पशुओं को नियमित रूप से देने से पशुओं का स्वास्थ्य सुधरता है. इस से दूध में फैट की मात्रा में बढ़त, दूध में तकरीबन 2 किलोग्राम की बढ़ोतरी होती है. इस से पशुओं का गर्भचक्र भी सामान्य रहता है. 60 ग्राम मात्रा प्रतिदिन के हिसाब से यह पाउडर रोजाना दुधारू पशुओं को उन के रातिब में मिला कर दे सकते?हैं. अभी यह उत्पाद 1 किलोग्राम के पैकेट में उपलब्ध है, जिस की कीमत 500 रुपए?है. अगर आप इस हर्बल पाउडर को मंगाना चाहते हैं या इस बारे में ज्यादा जानकारी चाहते?हैं तो अनिल कुमार के मोबाइल नंबरों 09315515650, 07065344742 पर बात कर सकते हैं.  

बरबादी

हरियाली के नाम पर लगवा दिए प्लास्टिक के पेड़

रायपुर : सरकार भी अजबगजब कारनामे कर के वाहवाही बटोरने में पीछे नहीं रहती. छत्तीसगढ़ सरकार ने हरियाली लाने का एक अलग ही हैरान कर देने वाला हल निकाला है. छत्तीसगढ़ सरकार ने शहर को हराभरा और खूबसूरत बनाने के लिए असली पेड़ों के बजाय प्लास्टिक के पेड़ लगवा दिए. चेरी के ये प्लास्टिक पेड़ बड़ेबड़े नेताओं और अफसरों के बंगलों के बाहर लगवाए गए हैं. इन पेड़ों की डालियों पर छोटीछोटी लाइटें लगी हैं, जिन्हें रात के समय जलाया जा सकता है. यूथ वेलफेयर डिपार्टमेंट और पीडब्ल्यूडी महकमे ने मिल कर राजधानी में ऐसे तकरीबन 8 पेड़ लगाए हैं, जबकि रायपुर के अलगअलग इलाकों में सड़क के डिवाइडरों पर 28 से ज्यादा प्लास्टिक के पेड़ों को लगाया गया है.

बताते हैं कि प्लास्टिक के 1 पेड़ की कीमत तकरीबन 2 लाख रुपए से ज्यादा बताई जा रही है. अब तक इन पेड़ों पर 70 लाख रुपए से भी ज्यादा रकम खर्च की जा चुकी है. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इन पेड़ों के लिए राज्य सरकार और नए टेंडर जारी करे. राज्य सरकार ने इन पेड़ों को लगाने के लिए बाकायदा टेंडर जारी किए थे. सप्लायरों को जरूरत से ज्यादा पैसा दिया गया था. हर पेड़ के लिए 2 लाख रुपए से ज्यादा का भुगतान किया गया, जबकि उन की असल कीमत 35 से 40 हजार रुपए है.              

मदद

तालाब खुदाई पर अनुदान

पटना : बिहार में मछलीपालकों को तालाब की खुदाई के लिए 40 फीसदी अनुदान मिलेगा. मत्स्य विभाग को इस बात का भरोसा है कि इस से मछलीपालन को बढ़ावा मिलेगा. इस के साथ ही मछलीपालन करने वाले किसान फंगेसियस मछली के पालन पर 60 फीसदी अनुदान का फायदा भी उठा सकते?हैं.

बिहार के पशुपालन और मत्स्य संसाधन मंत्री बैद्यनाथ साहनी ने बताया कि मछली की पैदावार को बढ़ाने के लिए एकसाथ कई योजनाओं को चालू किया गया है और कई किसान और मछलीपालक इस का फायदा उठाने लगे?हैं. अब बिहार में ही मत्स्य बीज पैदा करने के लिए हैचरी बनाने की योजना पर काम चल रहा है. सरकार की कोशिश है कि अगले 5 सालों में राज्य में मछली के उत्पादन में 3 गुना इजाफा हो. इस के लिए किसानों और मछलीपालकों को लगातार ट्रेनिंग दी जा रही है और उन में जागरूकता पैदा की जा रही?है. अब तक 3 हजार किसानों को?ट्रेनिंग दी जा चुकी?है और इस साल के आखिर तक 1500 किसानों को ट्रेनिंग देने का लक्ष्य रखा गया?है.          

बदहाली

दाल में प्याज का तड़का गायब

नई दिल्ली : थाली से अरहर की दाल और दाल में प्याज का तड़का गायब हो गया है. प्याज के बढे़ दामों के साथसाथ अब दाल के दामों में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है. अरहर की दाल ही नहीं, दूसरी दालों के भाव भी बढ़े हैं प्याज के दाम 50 से 60 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गए हैं. विक्रेताओं को डर है कि सरकार ने अगर जल्दी दखल न किया, तो इस बार और भी महंगे दामों में प्याज खरीदना पड़ सकता है. इधर अरहर की दाल भी अपना असर दिखा रही है. थोक भाव में अरहर की दाल 135 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई है. वहीं फुटकर बाजार में यह 160 रुपए प्रति किलोग्राम में बिक रही है. इसी तरह उड़द की दाल भी 10 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच चुकी है. साथ ही दूसरी दालें भी अपना रंग दिखाने लगी हैं. उम्मीद है कि बाहरी देशों से दालें आएंगी. अरहर की फसल की कम पैदावार होने से भी दामों में बढ़ोतरी हुई है. राज्य में अरहर की दाल का स्टाक नहीं रह गया है. वहीं डालर के मुकाबले रुपया भी काफी कमजोर हो गया है. इसी तेजी को देखते हुए सरकार अब विदेशों से दाल मंगाने के लिए कोशिश कर रही है, ताकि दालों की बढ़ी हुई कीमतों पर रोक लगाई जा सके. जमाखोर भी इस बेहतरीन मौके का फायदा गंवाने के मूड में नहीं हैं. इस वजह से भी अरहरमूंगउड़द की दालों में कोई नरमी नहीं दिख रही  है.

थोक विक्रेताओं का कहना है कि अगर सरकार ने समय रहते विदेशों से दाल मंगा ली होती, तो आम आदमी को ऐसी तकलीफ  नहीं देखनी पड़ती.                   

सहूलियत

फसल बीमे की मीआद बढ़ी फसल बीमे की मीआद बढ़ी

नई दिल्ली : तमाम बेबस किसानों को राहत देते हुए केंद्र सरकार ने फसल बीमा कराने की मीआद बढ़ा दी है. राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के तहत फसल बीमा की मीआद को कर्ज लेने वाले किसानों के लिए बढ़ा कर अब 30 सितंबर कर दिया गया है.गैर ऋणधारक किसान भी इस छूट से लाभ हासिल करेंगे. गैर ऋणी किसानों के लिए यह सीमा 31 जुलाई होती है, मगर राहत के बाद उन के लिए भी समय सीमा में इजाफा किया गया है.गौरतलब है कि महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश, तेलंगान, गुजरात और ओडिशा से गैर ऋणी किसानों के लिए फसल बीमा की मीआदबढ़ाए जाने का पत्र केंद्र सरकार को मिला था.कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि यह कदम सूबों में हुई कम बारिश की वजह से फसलों की बोआई में हुई देरी के तहत उठाया गया है. केंद्र सरकार के इस कदम से तमाम किसानों को दिली राहत मिली होगी. इस कदम से किसान सरकार के कायल हो जाएंगे.

सवाल किसानों के

सवाल : प्याज की संकर किस्मों के बारे में बताएं. इन किस्मों के बीज कहां मिलेंगे?

-राम भरोसे, जालौन, उत्तर प्रदेश

जवाब : प्याज की संकर किस्में अर्का कीर्तिमान, अर्का लालिमा, मरसीडीज व कागर और कोलीना व एक्सकालीबर हैं. इन के अलावा पूसा रेड व पूसा माधवी भी अच्छी किस्में हैं.

अर्का कीर्तिमान : यह संकर किस्म भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई है. इस की गांठें लाल व कसी हुई और छिलका पतला होता है. इस की बनावट गठीली होती है. यह परिवहन व भंडारण के लिए उपयुक्त है. यह रोपाई के बाद 110-120 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 4 सौ से 6 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म रबी मौसम के लिए उपयुक्त है.

अर्का लालिमा : यह हाईब्रिड किस्म आईआईएचआर बेंगलूरू द्वारा विकसित की गई है. इस की गांठें गहरी लाल, गोल व छिलका पतला होता है. इस की बनावट गठीली होती है. परिवहन व भंडारण के लिए यह भी ठीक है. यह रोपाई  के बाद 115-125 दिनों में तैयार हो जाती है. यह किस्म रबी मौसम के लिए ठीक है और इस की औसत पैदावार 4 सौ से 5 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

मरसीडीज व कागर : यह किस्म निजी कंपनी सेमीवीज द्वारा विकसित की गई है. इस की गांठें पीलापन लिए होती हैं व उन का आकार 6.0-8.0 सेंटीमीटर का होता है. इस में तीखापन हलका होता है. यह एक्सपोर्ट के लिए बढि़या किस्म है. इस की औसत पैदावार 550 से 700 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म खरीफ मौसम में देर से बोआई के लिए व रबी मौसम में उगाए जाने के लिए ठीक है. यह पौध रोपाई के बाद 95-100 दिनों में तैयार हो जाती है.

कोलीना व एक्सकालीबर : यह किस्म निजी कंपनी नून्हेम्स द्वारा विकसित की गई है. इस की गांठों का आकार 6-8 सेंटीमीटर व रंग पीलापन लिए होता?है. इस में तीखापन कम होता है. इस की औसत पैदावार 5 सौ से 650 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. रोपाई के बाद 85 से 105 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म देर से बोआई के खरीफ मौसम में व रबी मौसम में आसानी से उगाई जा सकती है.

पूसा रेड : इस की गांठें मध्य आकार की चपटी, गोल व हलके लाल रंग की होती हैं. इस की 10 गांठों का वजन करीब 900 ग्राम होता है. यह भंडारण के लिए बहुत उपयुक्त किस्म है. यह रोपाई के बाद लगभग 140-145 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की पैदावार 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह किस्म खरीफ में देर से बोआई के लिए व रबी मौसम के लिए?ठीक है.

पूसा माधवी : हलके लाल रंग की प्याज की यह किस्म गोल व चपटे आकार की होती है. इस के 10 प्याज का वजन 9 सौ ग्राम से 1 किलोग्राम तक होता है. रोपाई के बाद 130-135 दिनों में तैयार हो जाने वाली यह किस्म भंडारण के लिए अच्छी किस्म है. इस की पैदावार 3 सौ क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति रबी मौसम के लिए उपयुक्त है. 

कुछ कहती हैं तसवीरें

भारत मे बहुत से लोग ऐसे हैं, जो जंगलों के आसपास बसे होने के चलते खेतीकिसानी नहीं कर पाते हैं. लेकिन अपने परिवार को चलाने के लिए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और वे पेड़ों पर रेशम के कीड़े पालने लगे हैं. बिहार के कई किसानों ने तो रेशम पालन को ही अपनी रोजीरोटी का जरीया बना लिया है.

राजमा उत्पादन आमदनी दनादन

आजकल पूरे देश में शाकाहारी भोजन में राजमा का चलन बढ़ता जा रहा है. राजमा एक ओर जहां खाने में स्वादिष्ठ और स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं दूसरी ओर मुनाफे के लिहाज से किसानों के लिए बहुत अच्छी दलहनी फसल है, जो मिट्टी की बिगड़ती हुई सेहत को भी कुछ हद तक सुधारने का माद्दा रखती है. इस के दानों का बाजार मूल्य दूसरी दलहनी फसलों की बनिस्बत कई गुना ज्यादा होता है. राजमा की खेती परंपरागत ढंग से देश के पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है, पर इस फसल की नवीनतम प्रजातियों के विकास के बाद इसे उत्तरी भारत के मैदानी भागों में भी सफलतापूर्वक उगाया जाने लगा है. थोड़ी जानकारी व सावधानी इस फसल में रखना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह फसल जहां एक ओर दूसरी दलहनी फसलों के बजाय सर्दियों के प्रति अधिक संवेदी है, तो वहीं दूसरी ओर इस की जड़ों में नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता भी कम पाई जाती है.

राजमा के साथ सोने पे सुहागा यह है कि इस की सहफसली खेती भी की जा सकती है. राजमा की सहफसली खेती राई व अलसी के साथ भी मुमकिन है. यही नहीं, राजमा की सहफसली खेती में अगेती आलू जैसे कुफरी, चंद्रमुखी सरीखी कम अवधि की प्रजातियों के इस्तेमाल से और भी भरपूर आमदनी हासिल की जा सकती है. भूमि का चयन और तैयारी : इस के लिए दोमट व हलकी दोमट भूमि, जिस में पानी के निकलने का उचित प्रबंध हो, अति उत्तम है. यदि पर्याप्त नमी न हो तो पलेवा कर के इस की बोआई करनी चाहिए. पहली गहरी जुताई मिट्टी पलट हल से व उस के बाद 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. बोआई का समय व बीज दर : राजमा के उत्पादन पर बोआई के समय का असर दूसरी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक पड़ता है. देश के उत्तरपूर्व भाग में राजमा की बोआई का सब से उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से ले कर नवंबर के पहले हफ्ते तक होता है. पर देश के उत्तरपश्चिमी भाग (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब) में अधिकतम उपज सितंबर के मध्य में बोने से प्राप्त होती है. देर से बोआई करने पर राजमा की उपज में भारी गिरावट हो जाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में तापमान में गिरावट के कारण राजमा के पौधों की वानस्पतिक बढ़ोतरी घट जाती है, जिस से फलियों की संख्या और दानों के भार दोनों में कमी आ जाती है.

जहां तक बीज दर की बात है, तो इस की खेती के लिए 120-140 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. खास बात यह है कि राजमा से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए ढाई से साढ़े 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर जरूरी होते हैं. पौधों की यह संख्या दानों के भार के अनुसार हासिल की जा सकती है.

बोआई : बोआई करने से पहले बीजों का फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बंडाजिम या थीरम से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करने पर अंकुरण के समय लगने वाले रोगों से छुटकारा व दूसरे रोगों से कुछ हद तक नजात मिल जाती है. बीज की बोआई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 30-45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखी जानी उचित है. बीज की गहराई 5-8 सेंटीमीटर पर रखनी चाहिए. बोआई करने के बाद पाटा अवश्य लगाएं, जिस से राजमा के बीज अच्छी तरह जमीन के अंदर ढक जाएं. खाद व उर्वरक : खाद व उर्वरकों का प्रयोग कितना करना है, यह बिना मिट्टी की जांच के बताना मुश्किल है. दूसरी दलहनी फसलों के मुकाबले वैज्ञानिक इस में अधिक नाइट्रोजन इस्तेमाल करने की सिफारिश करते हैं, क्योंकि राजमा की जड़ग्रंथियों में वायुमंडल की नाइट्रोजन को मृदा में फिक्स करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है. पर फिर भी मोटेतौर पर वैज्ञानिक 20 टन खूब सड़ी हुई एफवाईएम (सड़ी गोबर की खाद), 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20-25 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम सल्फर देने की सलाह देते हैं. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा या आधी मात्रा व फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय प्रयोग करनी चाहिए.

नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा बोआई के 25-30 दिन बाद पहली सिंचाई के बाद ओट आने पर और दूसरी फूल आते समय प्रयोग करनी चाहिए. राजमा में देखा गया है कि 2 फीसदी यूरिया के घोल का स्प्रे क्रमश: 30 व 50 दिनों पर करने पर उपज में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : सिंचाई की संख्या भूमि की किसम व बोने के समय पर निर्भर करती है. राजमा की अधिकतर पैदावार लेने के लिए सामान्यत: 3 सिंचाइयां लाभकारी पाई गई हैं. पहली सिंचाई बोआई के 25 दिनों बाद, दूसरी 50 दिनों बाद और अगर जरूरत हो तो तीसरी सिंचाई 75 दिनों के बाद करनी चाहिए. यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि फसल को नुकसान से बचाने हेतु सदैव हलकी  सिंचाई ही की जाए. निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण: इस फसल में खरपतवार नियंत्रण न करने से पैदावार में 25-30 फीसदी की गिरावट होती है. पहली सिंचाई करने के बाद एक निराईगुड़ाई की जरूरत होती है. गुड़ाई के दौरान कुछ मिट्टी पौधों पर जरूर चढ़ानी चाहिए, ताकि फली लगने पर पौधों को सहारा मिल सके. खरपतवारों के रासायनिक तरीके से नियंत्रण हेतु फसल उगने से पहले पेंडीमेथलीन नामक रसायन को 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए. छिड़काव करते समय यह जरूर ध्यान रखें कि खेत का कोई भी भाग छूटने न पाए, वरना दवा सही से प्रभावी नहीं हो पाएगी.

फसल सुरक्षा : राजमा में सब से खतरनाक और तेजी से फैलने वाला रोग मोजैक है, जो विषाणुजनित (वायरस) बीमारी है. इस को फैलाने वाले कीटों में सफेद मक्खी की प्रमुख भूमिका होती है. इस बीमारी के नियंत्रण हेतु रोगोर, डेमोक्रान या नुवाक्रोन नामक दवा को 1.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़कना चाहिए. फसल कटाई : जब फलियां पक जाएं, तो इन्हें काट लेना चाहिए. काटते वक्त फलियां अधिक सूखी हुई नहीं होनी चाहिए, वरना फलियों के चटखने का डर बढ़ जाता है.

क्या कहते हैं माहिर : राजमा की खेती के बाबत कानपुर, उत्तर प्रदेश में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान के परियोजना समन्वयक डाक्टर संजय गुप्ता कहते हैं, ‘‘राजमा की खेती एक नकदी फसल है. कुछ खास बातों का ध्यान रख कर किसान इस से भरपूर फायदा उठा सकते हैं.

‘‘जैसे कि पहली बात यह कि राजमा हेतु देश के सभी हिस्सों में अनुकूल वातावरण नहीं है, इसलिए निकटतम विशेषज्ञ से जरूर जान लें कि इस की खेती आप के यहां उपयुक्त है या नहीं. ‘‘दूसरी बात, इस की जड़ग्रंथियों में नाइट्रोजन अवशोषण करने की क्षमता दूसरी दलहनी फसलों से थोड़ी कम होती है, इसलिए नाइट्रोजन का दूसरी दलहनी फसलों से ज्यादा मात्रा में प्रयोग करें. ‘‘तीसरी बात यह है कि खेत में जल जमाव किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए.

‘‘चौथी बात यह है कि यह फसल सर्दी के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदी है, इसलिए पाले से बचने हेतु सावधानी रखनी चाहिए.

‘‘5वीं और खास बात यह है कि इस में लगने वाली सब से खतरनाक बीमारी वायरस जनित मोजैक है, इसलिए इस के बचाव हेतु पहले से ही कीटनाशी दवा छिड़कें.’’ 

पौलीहाउस में सब्जी की आर्गेनिक खेती

मेरे पास 4000 वर्गफुट जमीन है, जिस में मैं सब्जी की आर्गेनिक खेती करना चाहता हूं. मैं उसी जमीन के थोड़े से एरिया में सब्जी बोता हूं. मुझे कुछ सुझाव दें? इस तरह की जानकारी आज के समय में बहुत लोग चाहते हैं, क्योंकि ज्यादातर सब्जियां उगाने में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, हमारी खेती की जमीन की उपजाऊ कूवत को भी नुकसान पहुंचाते हैं. तो क्यों न हम आर्गेनिक फार्मिंग की तरफ बढ़ें और पौलीहाउस में सब्जी की खेती करें. वाकई यह आज के दौर में फायदे का सौदा है.

पौलीहाउस बनाने में एक बार खर्च जरूर आता है, लेकिन इस का फायदा हमें सालोंसाल मिलता है. जानकारों के अनुसार, 1 हजार वर्गफुट का पौलीहाउस बनाने के लिए अगर हम 200 माइक्रोन की (लो डैंसिटी पौलीथिन) इस्तेमाल करते हैं, तो उस का खर्च लगभग 45000 रुपए तक आता है. पौलीहाउस बनाते समय अपने इलाके के मौसम को ध्यान में रख कर बनाएं. पौलीहाउस में हवा के आनेजाने और सूरज की रोशनी को भी ध्यान में रखें. इस के लिए दिशाओें को अवश्य ध्यान में रखें. पौलीहाउस की छत 2 प्रकार की बनाई जाती है. एक ढलान वाली त्रिभुजाकार, दूसरी गोलाकार आकार में. बर्फीले इलाकों में पौलीहाउस की छत गोलाकार आकार में बनानी चाहिए. दूसरी जगहों पर किसी भी प्रकार के आकार वाली छत बना सकते हैं.

क्यों है पौलीहाउस फायदेमंद

आज विश्वभर के 90 फीसदी पौलीहाउस प्लास्टिक की पन्नी, एल्यूमीनियम की चादर, लकड़ी या बांस के ढांचे से बनते हैं. इसी कारण पौलीहाउस अब पहले के मुकाबले सस्ते पड़ते हैं. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में अच्छी क्वालिटी के बांस आसानी से और कम कीमत पर मिल जाते हैं. इन जगहों पर बांस का इस्तेमाल पौलीहाउस का ढांचा बनाने में किया जा सकता है. एल्यूमीनियम में जंग नहीं लगती है. इस के इस्तेमाल से पौलीहाउस के ढांचे का भार कम किया जा सकता है. लकड़ी और बांस के ढांचे 5-7 साल तक उपयोगी होते हैं और अगर ठीक प्रकार से रखरखाव किया जाए तो धातु से बने ढांचे की उम्र 20-25 साल तक होती है. पौलीहाउस ऐसी जगह पर लगाएं जो सड़क से नजदीक हो और बारिश का पानी इकट्ठा न होता हो. इस के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वहां रोशनी और साफ पानी आसानी से मिल सके. पौलीहाउस में पौधों की सिंचाई ड्रिप सिस्टम से करनी चाहिए. सर्दी के मौसम में पौलीहाउस में बिना किसी कृत्रिम ऊर्जा के ही उस का प्राकृतिक सौर ऊर्जा द्वारा यानी सूरज की रोशनी के द्वारा तापमान बढ़ जाता है, जो ठंड के मौसम में बेहतर फसल पैदा करने के लिए उपयोगी है. फसलों से संबंधित जैविक क्रियाएं तेजी से होती हैं. इस से फसलों की पैदावार व गुणवत्ता में सुधार होता है. साथ ही, सालभर फसल लेना भी संभव है.

अपनाएं जैविक तरीका

भारत में अलगअलग जगह पर मौसम का अलगअलग मिजाज होता है, इसलिए मौसम के अनुसार ही सब्जी की फसल का चुनाव करें. सब्जी उगाने से पहले यह पता कर लें कि आप के द्वारा चुनी गई सब्जी इस समय मौसम के तापमान में सही पैदावार दे पाएगी या नहीं. सब्जी में अलगअलग तापमान सहने की क्षमता होती है, जैसे प्याज 18 डिगरी सेंटीग्रेड पर भी उगा सकते हैं.

रोटेशन भी अपनाएं

जैविक खेती का खास पहलू है कि सब्जियां बदलबदल कर बोएं. एक ही फसल को बारबार लगाने से फसल की उपज कम हो जाती है और फसल में कीट बीमारी का खतरा भी बढ़ जाता है.

डालें जैविक खाद

पौलीहाउस में हमेशा प्राकृतिक खाद का ही इस्तेमाल करें. रासायनिक खाद या कीटनाशक दवाओं का बिलकुल इस्तेमाल न करें. यह जमीन की उपजाऊ ताकत को नुकसान पहुंचाती है. जैविक खेती में हमेशा जैविक खाद या घरेलू खाद ही डालें व प्राकृतिक कीटनाशक का ही इस्तेमाल करें.

मल्चिंग व कंपोस्टिंग

जैविक खेती में मल्चिंग करने के लिए सब्जी उगाने से पहले सड़ीगली घासफूस की एक परत बिछा दी जाती है. यह माइक्रोआर्गेनिज्म को बढ़ाता है, जो पौधों के विकास में सहायक होता है. साथ ही यह पौधों को ठंड के समय में गरमाहट भी देता है. इसी तरह से कंम्पोस्ट खाद का इस्तेमाल भी जैविक खेती का खास हिस्सा है, जो पौधों में अच्छी बढ़वार व फसल से अच्छी पैदावार दिलाती है. जैविक तरीके से उगाई गई सब्जियां ज्यादा पौष्टिक व स्वादिष्ठ होती हैं.

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