आजकल पूरे देश में शाकाहारी भोजन में राजमा का चलन बढ़ता जा रहा है. राजमा एक ओर जहां खाने में स्वादिष्ठ और स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं दूसरी ओर मुनाफे के लिहाज से किसानों के लिए बहुत अच्छी दलहनी फसल है, जो मिट्टी की बिगड़ती हुई सेहत को भी कुछ हद तक सुधारने का माद्दा रखती है. इस के दानों का बाजार मूल्य दूसरी दलहनी फसलों की बनिस्बत कई गुना ज्यादा होता है. राजमा की खेती परंपरागत ढंग से देश के पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है, पर इस फसल की नवीनतम प्रजातियों के विकास के बाद इसे उत्तरी भारत के मैदानी भागों में भी सफलतापूर्वक उगाया जाने लगा है. थोड़ी जानकारी व सावधानी इस फसल में रखना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह फसल जहां एक ओर दूसरी दलहनी फसलों के बजाय सर्दियों के प्रति अधिक संवेदी है, तो वहीं दूसरी ओर इस की जड़ों में नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता भी कम पाई जाती है.

राजमा के साथ सोने पे सुहागा यह है कि इस की सहफसली खेती भी की जा सकती है. राजमा की सहफसली खेती राई व अलसी के साथ भी मुमकिन है. यही नहीं, राजमा की सहफसली खेती में अगेती आलू जैसे कुफरी, चंद्रमुखी सरीखी कम अवधि की प्रजातियों के इस्तेमाल से और भी भरपूर आमदनी हासिल की जा सकती है. भूमि का चयन और तैयारी : इस के लिए दोमट व हलकी दोमट भूमि, जिस में पानी के निकलने का उचित प्रबंध हो, अति उत्तम है. यदि पर्याप्त नमी न हो तो पलेवा कर के इस की बोआई करनी चाहिए. पहली गहरी जुताई मिट्टी पलट हल से व उस के बाद 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. बोआई का समय व बीज दर : राजमा के उत्पादन पर बोआई के समय का असर दूसरी दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक पड़ता है. देश के उत्तरपूर्व भाग में राजमा की बोआई का सब से उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से ले कर नवंबर के पहले हफ्ते तक होता है. पर देश के उत्तरपश्चिमी भाग (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब) में अधिकतम उपज सितंबर के मध्य में बोने से प्राप्त होती है. देर से बोआई करने पर राजमा की उपज में भारी गिरावट हो जाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में तापमान में गिरावट के कारण राजमा के पौधों की वानस्पतिक बढ़ोतरी घट जाती है, जिस से फलियों की संख्या और दानों के भार दोनों में कमी आ जाती है.

जहां तक बीज दर की बात है, तो इस की खेती के लिए 120-140 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. खास बात यह है कि राजमा से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए ढाई से साढ़े 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर जरूरी होते हैं. पौधों की यह संख्या दानों के भार के अनुसार हासिल की जा सकती है.

बोआई : बोआई करने से पहले बीजों का फफूंदीनाशक दवा जैसे कार्बंडाजिम या थीरम से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करने पर अंकुरण के समय लगने वाले रोगों से छुटकारा व दूसरे रोगों से कुछ हद तक नजात मिल जाती है. बीज की बोआई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 30-45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखी जानी उचित है. बीज की गहराई 5-8 सेंटीमीटर पर रखनी चाहिए. बोआई करने के बाद पाटा अवश्य लगाएं, जिस से राजमा के बीज अच्छी तरह जमीन के अंदर ढक जाएं. खाद व उर्वरक : खाद व उर्वरकों का प्रयोग कितना करना है, यह बिना मिट्टी की जांच के बताना मुश्किल है. दूसरी दलहनी फसलों के मुकाबले वैज्ञानिक इस में अधिक नाइट्रोजन इस्तेमाल करने की सिफारिश करते हैं, क्योंकि राजमा की जड़ग्रंथियों में वायुमंडल की नाइट्रोजन को मृदा में फिक्स करने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है. पर फिर भी मोटेतौर पर वैज्ञानिक 20 टन खूब सड़ी हुई एफवाईएम (सड़ी गोबर की खाद), 100-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20-25 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम सल्फर देने की सलाह देते हैं. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा या आधी मात्रा व फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय प्रयोग करनी चाहिए.

नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा बोआई के 25-30 दिन बाद पहली सिंचाई के बाद ओट आने पर और दूसरी फूल आते समय प्रयोग करनी चाहिए. राजमा में देखा गया है कि 2 फीसदी यूरिया के घोल का स्प्रे क्रमश: 30 व 50 दिनों पर करने पर उपज में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : सिंचाई की संख्या भूमि की किसम व बोने के समय पर निर्भर करती है. राजमा की अधिकतर पैदावार लेने के लिए सामान्यत: 3 सिंचाइयां लाभकारी पाई गई हैं. पहली सिंचाई बोआई के 25 दिनों बाद, दूसरी 50 दिनों बाद और अगर जरूरत हो तो तीसरी सिंचाई 75 दिनों के बाद करनी चाहिए. यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि फसल को नुकसान से बचाने हेतु सदैव हलकी  सिंचाई ही की जाए. निराईगुड़ाई व खरपतवार नियंत्रण: इस फसल में खरपतवार नियंत्रण न करने से पैदावार में 25-30 फीसदी की गिरावट होती है. पहली सिंचाई करने के बाद एक निराईगुड़ाई की जरूरत होती है. गुड़ाई के दौरान कुछ मिट्टी पौधों पर जरूर चढ़ानी चाहिए, ताकि फली लगने पर पौधों को सहारा मिल सके. खरपतवारों के रासायनिक तरीके से नियंत्रण हेतु फसल उगने से पहले पेंडीमेथलीन नामक रसायन को 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए. छिड़काव करते समय यह जरूर ध्यान रखें कि खेत का कोई भी भाग छूटने न पाए, वरना दवा सही से प्रभावी नहीं हो पाएगी.

फसल सुरक्षा : राजमा में सब से खतरनाक और तेजी से फैलने वाला रोग मोजैक है, जो विषाणुजनित (वायरस) बीमारी है. इस को फैलाने वाले कीटों में सफेद मक्खी की प्रमुख भूमिका होती है. इस बीमारी के नियंत्रण हेतु रोगोर, डेमोक्रान या नुवाक्रोन नामक दवा को 1.5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़कना चाहिए. फसल कटाई : जब फलियां पक जाएं, तो इन्हें काट लेना चाहिए. काटते वक्त फलियां अधिक सूखी हुई नहीं होनी चाहिए, वरना फलियों के चटखने का डर बढ़ जाता है.

क्या कहते हैं माहिर : राजमा की खेती के बाबत कानपुर, उत्तर प्रदेश में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान के परियोजना समन्वयक डाक्टर संजय गुप्ता कहते हैं, ‘‘राजमा की खेती एक नकदी फसल है. कुछ खास बातों का ध्यान रख कर किसान इस से भरपूर फायदा उठा सकते हैं.

‘‘जैसे कि पहली बात यह कि राजमा हेतु देश के सभी हिस्सों में अनुकूल वातावरण नहीं है, इसलिए निकटतम विशेषज्ञ से जरूर जान लें कि इस की खेती आप के यहां उपयुक्त है या नहीं. ‘‘दूसरी बात, इस की जड़ग्रंथियों में नाइट्रोजन अवशोषण करने की क्षमता दूसरी दलहनी फसलों से थोड़ी कम होती है, इसलिए नाइट्रोजन का दूसरी दलहनी फसलों से ज्यादा मात्रा में प्रयोग करें. ‘‘तीसरी बात यह है कि खेत में जल जमाव किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए.

‘‘चौथी बात यह है कि यह फसल सर्दी के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदी है, इसलिए पाले से बचने हेतु सावधानी रखनी चाहिए.

‘‘5वीं और खास बात यह है कि इस में लगने वाली सब से खतरनाक बीमारी वायरस जनित मोजैक है, इसलिए इस के बचाव हेतु पहले से ही कीटनाशी दवा छिड़कें.’’ 

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