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भारत भूमि युगे युगे

उद्धव का दम

अपने सियासी कैरियर के शुरुआती दौर में लड़खड़ाने के बाद शिवसेना प्रमुख बने उद्धव ठाकरे अब पूरे दमखम से ताल ठोकते हुए मैदान में हैं. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में उन्हें साबित करना है कि वे बाल ठाकरे से कम नहीं. चौतरफा परेशानियों से जूझ रहे उद्धव ने पहली कामयाबी महायुति के मुद्दे पर पाई तो दूसरी उस से भी ज्यादा अहम थी, अपने चचेरे भाई राज ठाकरे को 5वेंछठे नंबर पर पहुंचाने की. उद्धव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने की अपनी दबी ख्वाहिश भी उजागर कर चुके हैं. इस से शिवसैनिकों में जोश है तो कांग्रेस व एनसीपी चिंतित हैं. वजह, उद्धव का धीरेधीरे बड़ा ब्रैंड बनते जाना है, जिन्हें चुनौती देने के लिए मैदानी नेता किसी दूसरे दल के पास नहीं.

विधवा समस्या

अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा गईं सांसद अभिनेत्री हेमा मालिनी विधवाओं की बदहाली देख इतनी व्यथित हो उठीं कि उन्हें खदेड़ने की ही मांग कर डाली. वृंदावन से विधवाओं को हटाने की बात भर कहने से विधवा समस्या हल होने का आसान तरीका कोई और हो भी नहीं सकता. जाने क्यों हेमा मालिनी का ध्यान विधवा जीवन की दुश्वारियों पर नहीं गया और न ही इस तरफ गया कि ये हजारों विधवाएं परिवार और समाज से तिरस्कृत हैं और वृंदावन इन की मंडी बेवजह नहीं है, उन से हजारों पंडों और संस्थाओं के पेट भरते हैं. सफेद लिबास, सूनी मांग और चेहरे की बेबसी देख दक्षिणा और दान बटोरे जाते हैं. यह सच जब उन्हें शुभचिंतकों ने बताया तो उन्होंने माफी भी मांग ली लेकिन वे यह नहीं कह पाईं कि जरूरत भगाने की नहीं, विधवा जीवन की परेशानियों को दूर करने की है.

अब सियासी सैलाब

बाढ़ त्रासदी व सदमे से जम्मूकश्मीर उबर रहा है जो विधानसभा चुनाव में ‘लव जिहाद’ आतंकवाद के बाद एक बड़ा मुद्दा होगा. वहां के बाढ़ पीडि़तों पर हर कोई एहसान रखेगा कि देखो, हम ने तुम्हारे लिए यह और वह किया था इसलिए हमें चुनो. भाजपा इस राज्य के सूखे से नजात पा चुकी है और उम्मीद लगाए बैठी है कि वह खासी यानी सरकार बनाने लायक सीटें बटोर लेगी. उमर अब्दुल्ला दिक्कत में हैं. वजह, वोटों का धु्रवीकरण है. जम्मू से वे नाउम्मीद हो रहे हैं पर यह भी जानते हैं कि अकेले कश्मीर के भरोसे बैठे रहना जोखिम वाला काम है. उधर, भाजपाइयों ने इस सूबे में आंखें गड़ा रखी हैं. कांग्रेस की ताकत पहले सी नहीं रही है. अगर कांग्रेसी वोट भाजपा के खाते में चले गए तो नैशनल कौन्फ्रैंस का नुकसान होगा. फौरीतौर पर उमर को कोई ट्रंप कार्ड खेलना जरूरी हो चला है ताकि कश्मीरियों का झुकाव उन की पार्टी की तरफ बना रहे.

शीला के सपने

राजनीति की यह एक खूबी है कि इस में नाकामयाब लोग कभी हताश नहीं होते. केरल के राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे कर वापस दिल्ली आ गईं शीला दीक्षित का बहीखाता बता रहा है कि ‘आप की विदाई नजदीक है और अगर मेहनत की जाए तो उस का अस्थायी वोटबैंक कांग्रेस के खाते में खींचा जा सकता है. लिहाजा, शीला दीक्षित दिल्ली में सक्रिय होने लगी हैं. विधानसभा उपचुनाव नतीजों ने उन्हें और हिम्मत बंधाई है. भाजपाई खेमे की खींचातानी में भी वे अपना फायदा देख रही हैं.

दीवाली में खेलें पर जुआ नहीं

दीवाली की रस्म और शगुन के नाम पर जुआ मध्यमवर्गीय लोगों का ऐसा ऐब है जिस में हर साल लाखों लोग खूनपसीने की गाढ़ी कमाई और बचत का लाखों रुपया दांव पर लगा कर सालभर हाथ मलते, पछताते रहते हैं. दीवाली पर जुए में जीतने को सालभर के लिए अच्छा होने के नाम पर लोग ज्यादा जुआ खेलते हैं. दीवाली पर जुआ खेलने के शौकीनों में यह बदलाव जरूर आया है कि जुए के अड्डे घर न हो कर अब ज्यादातर शहर के बाहर की तरफ के फार्महाउस, महंगे होटलों में बुक कराए गए कमरे और ऐसे दोस्तों के घर होने लगे हैं जिन की पत्नियों या परिवारजनों को जुए से एतराज न हो.

भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में तो छात्रावासों में जम कर जुआ चलता है. दीवाली के दिनों में साफसफाई के नाम पर छात्रों से छात्रावास 3 दिन के लिए खाली करवा लिए जाते हैं और साफसफाई और रंगाईपुताई के साथसाथ ताश के पत्तों से ‘तीन पत्ती’ का खेल दिनरात चलता रहता है. खिलाड़ी आतेजाते रहते हैं, हारने वाला पैसों के इंतजाम के लिए तो जीतने वाला पैसे घर में रखने को चला जाता है.

ऐसे जुटती है महफिल

जुआ खेलने का माहौल यानी योजना दीवाली के 8-10 दिन पहले से बनना शुरू हो जाती है. जो यारदोस्त आने में दिलचस्पी नहीं दिखाते या आनाकानी करते हैं उन्हें यह ताना दिया जाता है, ‘साल में एक दिन तो घर वालों और बीवी से डरना छोड़ो, दीवाली रोजरोज नहीं आती. और खुद कमाते हो, 4-6 हजार रुपए हार भी गए तो कौन से कंगाल हो जाओगे.’ पीने और खाने के सारे इंतजाम दीवाली पूजन के नाम पर हो जाते हैं. इसे धार्मिक फंडा कह कर दीवाली का गैट टू गैदर कहा जाता है. कहा यह भी जाता है कि असली लक्ष्मी देवी तो यहां मिलेंगी, वह भी मुफ्त में. घर में तो कोरी पूजापाठ होती है.

8-10 सालों से हर दीवाली एमपी नगर के एक होस्टल मालिक दोस्त के यहां जुआ खेलने जाने वाले पेशे से सरकारी इंजीनियर देवेश की पत्नी सुनयना का कहना है, ‘‘लाख रोकने पर भी ये नहीं रुकते. इन की हालत, गिड़गिड़ाना और दीगर हरकतें, जिन में खुशामद भी शामिल है, देख हंसी आती है और गुस्सा भी कि कैसे इन्हें रोका जाए.’’

बकौल सुनयना, ‘‘दोनों बेटे भी समझ जाते हैं कि दीवाली की रात आतिशबाजी में पापा का साथ नहीं मिलेगा. लेकिन परेशानी की बात तो यह है कि दीवाली की रात जुआ खेलना बच्चों के लिए कोई हर्ज की बात नहीं होती. अब तो वे भी इंतजार कर रहे हैं कि कब जुआ पार्टियों का बुलावा आए.

कमाते हैं गंवाने को

भोपाल के एक कपड़ा कारोबारी सनत जैन (बदला नाम) का कहना है, ‘‘हर साल मैं कान पकड़ता हूं कि अगली दीवाली कुछ भी हो जाए, जुआ नहीं खेलूंगा लेकिन यारदोस्तों का आग्रह टाल नहीं पाता. मन में कहीं न कहीं खेलने की इच्छा और जीतने का लालच भी होता है.’’ सनत 2 साल पहले जुए की फड़ पर एक दांव में 4 लाख रुपए हारे थे. इस के बाद दूसरे साल, पिछले साल का घाटा पूरा करने के लिए फड़ पर गए तो महज 60 हजार रुपए जीते.

‘‘4 लाख की हार के बाद मैं कई दिन डिप्रैशन में रहा. कारोबार में लगाता तो 4 के 40 लाख कर लेता,’’ दूसरे साल आतेआते पिछले सबक को भूल गया और जब 60 हजार रुपए जीता तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा. यानी बात रकम की न हो कर जीतहार की मानसिकता की थी.’’

एक जुआ और सैकड़ों नुकसान

जुए का फायदा तो कोई नहीं, नुकसान दर्जनों हैं जिन्हें ये मौसमी जुआरी जानबूझ कर नजरअंदाज करते हैं.

ज्यादती अपनों से : दीवाली का रोशन त्योहार अपनों के साथ मनाने का मजा ही अलग है जब आप बगैर किसी तनाव और दबाव के उन लोगों के साथ होते हैं जिन के लिए आप और जो आप के लिए हैं. उस वक्त दोस्तों और परिचितों, जो दरअसल जुआरी होते हैं, के साथ चले जाना वह भी फड़ में, अपनों से ज्यादती करना नहीं तो क्या है.

सेहत से खिलवाड़ : घंटों दांवचालों में उलझे रह कर स्वास्थ्य बिगाड़ना बेवकूफी है. जुआ तनाव वाला खेल है क्योंकि आप का पैसा दांव पर लगा रहता है. हर चाल आप का ब्लडप्रैशर बढ़ातीगिराती है. स्ट्रैस होता है जिस से डायबिटीज के मरीजों को खासी दिक्कत उठानी पड़ती है. घंटों जागना बीमारियों को बुलावा देना है. लगातार बैठे रहने से एसिडिटी और कब्ज की परेशानी आम बात है. हारे तो डिप्रैशन व ग्लानि तय है, जीते तो किसी बीमारी में फायदा नहीं होता उलटे जीत का पैसा उलटेसीधे कामों में ही खर्च हो जाता है क्योंकि वह मेहनत का नहीं होता. कमा कर लाने और जीत कर लाने में काफी फर्क होता है.

ठगी : सालभर संभल कर चलने वाले आप जुए में अकसर ठगी का शिकार होते हैं. हर फड़ पर चुनिंदा 2-3 लोग ही जीतते हैं क्योंकि वे जुए के माहिर खिलाड़ी और पत्ते लगाने वाले होते हैं, खासतौर से फ्लैश में, इसीलिए इसे कला माना और कहा गया है. आप कुछ अच्छा होने की उम्मीद में खेलते हैं और वे पैसा कमाने में चालाकी का सहारा लेते आप की जेब का पैसा खींचते हैं. जुए को बेईमानी, झूठ और धोखे का दूसरा नाम यों ही नहीं कहा जाता.

अंधविश्वास : पेशेवर सटोरियों की तरह हर चाल पर आप भगवान का नाम और टोटकों का सहारा लेते नजर आते हैं जो मन और आत्मविश्वास को कमजोर करने वाली बातें हैं. इस से व्यक्तित्व का आकर्षक और आत्मविश्वासी पहलू दबता है. हे भगवान, इस दफा जीत जाऊं तो यह करूंगा, वह करूंगा जैसी बातें सोचते रहना बुद्धि व विवेक को भ्रष्ट ही करना है.

दांव पर प्रतिष्ठा : आप को यह एहसास हर पल रहता है कि आप एक गैरकानूनी काम में लिप्त हैं जिस मेें अगर पकड़े गए तो इज्जत का कचरा होना तय है. बदनामी होगी, घर वाले शर्मिंदा होंगे. इस से साफ है कि आप अपनी प्रतिष्ठा के प्रति गंभीर नहीं हैं, वह भी एक ऐसे काम के लिए जिस से कुछ मिलना नहीं.

गलत काम के लिए तर्क : दीवाली पर जुआ खेलने के लिए आप खुद के बचाव में जो दलीलें देते हैं वे कितनी खोखली हैं, यह आप भी बेहतर जानते हैं पर खुद को सही ठहराने के लिए उन का सहारा ले कर एक गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं.

दूसरे ऐब : जुए की फड़ पर 80 फीसदी लोग लगातार धूम्रपान करते हैं जबकि 50 फीसदी शराब भी पीते हैं यानी तिहरा नुकसान होता है. जिन ऐबों से सालभर खुद को आप बचा कर रखते हैं, एक झटके में उन की गिरफ्त में आ कर कौन साबुद्धिमानी का काम करते हैं?

शान नहीं शर्म : अकसर जुआ खेलने वाले दीवाली के जुए  को शान और शगुन की बात करते सालभर पैसा आनेजाने का पैमाना मानते हैं. इस के पीछे कोई तर्क नहीं है. यह शान की नहीं, शर्म की बात है. महाभारत का जुआ मिसाल है कि कैसे युधिष्ठिर ने राजपाट, भाइयों और पत्नी तक को दांव पर लगा कर गंवा दिया था.

महिलाएं भी पीछे नहीं

दीवाली के जुए को ले कर जमाना बहुत बदल रहा है. वह दौर खात्मे की तरफ है जिस में पत्नी अपने पति को फड़ में जाने से रोकने को उस के सामने गिड़गिड़ाती थी. अब उल्टा होने लगा है. पत्नियां पतियों के साथ जाने लगी हैं और पतियों के दोस्तों की पत्नियों के साथ अलग समानांतर फड़ लगाने लगी हैं. यानी जमाना फैमिली गैंबलिंग का है.

नए कपल्स में दीवाली पर जुआ खेलने के बढ़ते रुझान पर चिंता जताती एक वरिष्ठ ब्यूटीशियन का कहना है कि ये कपल्स प्रतिभावान और पैसे वाले हैं पर गंभीर और उत्तरदायित्व उठाने वाले नहीं हैं. चूंकि ये ज्यादा कमाते हैं इसलिए 50 हजार या 1 लाख रुपए तक का जुआ इन के लिए वक्त काटने का जरिया है. ऐसे नए कपल्स बचत में पिछड़ जाते हैं और कैरियर में भी मात खाते हैं. दिक्कत यह है कि एकल परिवारों के दौर और चलन में इन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता यानी टूटती और बदलती पारिवारिक व्यवस्था भी जुए की लत को बढ़ावा देने की जिम्मेदार है. ऐसी पार्टियां अकसर बड़े बंगलों, फ्लैट्स में दीवाली पर रातभर चलती हैं जिन में पतिपत्नी दोनों जुआ खेलते हैं. यह दरअसल अभिजात्य व उच्चवर्ग की नकल करने की नादानी और कुंठा है.

हाई सोसायटी में महिलाओं का जुआ खेलना आम है पर यह संक्रमण तेजी से मध्यवर्ग में फैलना चिंता की बात है. साल में एकाध दिन खासतौर से दीवाली पर जुआ खेलना हर्ज की बात नहीं होती, यह सोच इस वर्ग को आर्थिक व मानसिक तौर पर खोखला कर रही है. 2 साल पहले मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर के एक मकान में संभ्रांत परिवार की 8 महिलाएं जुआ खेलते रंगेहाथों पकड़ी गई थीं, जो खासतौर से इंदौर से टैक्सी कर के आती थीं. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जुए की लत कितनी खतरनाक होती जा रही है. पत्नियों को जुआ खिलाने और सिखाने के सब से बड़े गुनाहगार उन के पति हैं जो खुद की लत पूरी करने के लिए ऐसा करते हैं.

जुए का शब्दकोश

ताश के 52 पत्तों से सैकड़ों तरह से जुआ खेला जाता है लेकिन इन में सब से ज्यादा लोकप्रिय और चलन वाला खेल फ्लैश यानी ‘तीन पत्ती’ का है. इस के बाद ‘मांग’ या ‘खींच पत्ती’ ज्यादा खेला जाता है जिस में खिलाड़ी के पास उस का मनचाहा कार्ड आ जाए तो सारा पैसा उस का हो जाता है वरना जितनी रकम वह दांव पर लगाता है वह किसी दूसरे खिलाड़ी की हो जाती है.

तीसरे नंबर पर ‘रमी’ है, जिसे आजकल इंटरनैट पर औनलाइन लाखों लोग खेलते हैं. उस का इश्तिहार भी फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर यह कहते लोग कर रहे हैं कि देखो, मैं ने एक झटके में इतने हजार या इतने लाख रुपए जीते. यह जुए का प्रचार नहीं तो क्या है. ‘किटी’ चौथे नंबर पर खेला जाने वाला जुआ है जिसे महिलाएं भी किटी पार्टी में खेलती हैं. फ्लैश पूरी तरह कथित भाग्य वाला खेल होता है, इसलिए ज्यादा चलता है. रमी और किटी में थोड़ा दिमाग लगाना पड़ता है, इसलिए वे कम लोकप्रिय हैं.

किसी फड़ पर जाएं तो वहां चाल के दौरान पिनड्रौप साइलैंस रहती है. सारे खिलाड़ी सांस रोके देखते रहते हैं कि कौन बाजी मारेगा, किस के पास बड़ी पत्ती है और कौन ब्लफ मार रहा है, कौन शो कराएगा. शो कराना अकसर नए खिलाडि़यों को हेठी की बात लगती है, इसलिए वे हारते भी खूब हैं. पेशेवर और आदतन खिलाड़ी बेहद सधे ढंग से जुआ खेलते हैं. वे पहले शिकारों को वैसे ही 2-4 चाल जानबूझ कर जिताते हैं जैसे पिता अपने बच्चों को जिताता है. इस से नए या शौकिया खिलाड़ी के जोखिम उठाने की हिम्मत बढ़ती है और वह ज्यादा पैसा दांव पर लगाने लगता है. जुए के इस मनोविज्ञान के जानकार पुराने खिलाड़ी खूब फायदा उठाते हैं.

एक ख्यात उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में एक जगह जुए की फड़ का दिलचस्प और सटीक वर्णन किया है. उस में बताया गया है कि कैसे खिलाड़ी पूरे आत्मविश्वास से ब्लफ मारते हैं, सूद पर पैसा देने वाले यानी फाइनैंसर भी फड़ पर मौजूद रहते हैं और कैसेकैसे इस में बेईमानियां होती हैं. पत्ते लगा कर खेलने वाले अकसर ब्लाइंड ज्यादा खेलते हैं और कवर या काउंटर करते हैं जिस में पत्ते देखने वाले को 3 गुना ज्यादा रकम देनी पड़ती है. उसे हैरानी तब होती है जब काउंटर करने वाले के पास उस से बड़े पत्ते निकलते हैं.

नतीजतन, नए खिलाड़ी लंबी रकम हार जाते हैं और पत्तों व समय को कोसते रहते हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है.

जुए का उद्भव हैं धर्मग्रंथ

धार्मिक रचनाकार और टीकाकार कितने चालाक थे इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जुए को इफरात से महिमामंडित करते इसे सीधे भाग्य से जोड़ दिया. महाभारत का अहम किरदार युधिष्ठिर, जिस ने जुए की लत में राजपाट, पत्नी और भाइयों तक को दांव पर लगा दिया, उसे धर्मराज का खिताब क्यों दिया गया, तय है इसलिए कि कहीं सचमुच लोग जुए को ऐब न मानने लगें. धर्म की बुनियाद भाग्यवाद है, इसलिए हारजीत को इस से जोड़ दिया गया. वैसे भी कोई धर्म खुल कर यह नहीं कहता कि जुआ खेलना पाप है. आज की भाषा में देखें तो जुए को चांस की बात बताया गया है. दुर्योधन का भाग्य अच्छा था, सितारे उस के साथ थे या उस का मामा शकुनि जैसा बेईमान व्यक्ति था इसलिए वह जीता. इन दोनों में से सच क्या है, यह आज तक कोई तय नहीं कर पाया. उल्टे समाज की दिशा तय करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इस बात पर लोगों को उलझाने के लिए बहस करता रहता है कि क्या युधिष्ठिर को यह हक था कि वह खुद को हारने के बाद पत्नी और भाइयों को दांव पर लगाता? लोग भी चटखारे लेले कर इस धार्मिक बहस में अपनी राय देते खुद को विद्वान की जमात में शुमार समझ खुश हो लेते हैं.

हिंदुओं के आदि भगवान शंकर भी अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेलते थे. यह प्रसंग शिवपार्वती पर बने कई धारावाहिकों में कई चैनलों पर दिखाया गया है. सार यह है कि जुए की मूल भावना भी धर्मग्रंथ है पर कोई धर्मगुरु अपने प्रवचनों में इस से दूर रहने की बात नहीं कहता, उल्टे बातबात पर जिंदगी को भाग्यप्रधान बताया जाता है जिस से जुए की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ही मिलता है.

जुए को प्रचलित करने में कौटिल्य का भी बड़ा हाथ रहा जिस का अर्थशास्त्र और दूसरा साहित्य ब्राह्मण महिमा से भरा पड़ा है. कौटिल्य ने साफ कहा है कि जुआ खेलने वालों से शासक को शुल्क लेना चाहिए जिस से राजस्व बढ़े यानी लाइसैंस देने की खुली वकालत की गई है. उस ने तो यहां तक कहा है कि कैसीनो की तर्ज पर जुआ सामग्री भी शासन द्वारा नियुक्त अधिकारी यानी द्यूताध्यक्ष जुआरियों को उपलब्ध कराए.

मध्य काल तक पांसे चलन में आ गए थे और जुए को द्यूतक्रीड़ा कहा जाने लगा था. वैदिक काल में जुए को अक्षक्रीड़ा और अक्षद्यूत कहा जाता था. और माहिर जुआरी को अक्षकितब कहा जाता था. उस समय में जुआरी को कितब संबोधन दिया गया था. इस से साबित यही होता है कि जुए का उद्भव धर्म ही है. ऋग्वेद की एक ऋचा (10.34.13) में भी जुए का स्पष्ट उल्लेख है. आज ब्लाइंड, शो, काउंटर और पैक जुए के प्रचलित शब्द हैं स्मृति ग्रंथों में तो जुआ खेलने के नियम व निर्देश भी उल्लिखित हैं.

बात सिर्फ हिंदू धर्मग्रंथों की नहीं है, बाइबिल और  बौद्ध ग्रंथों में भी जुए का उल्लेख यानी प्रोत्साहन है. ये सभी एकमत हो कर जुए का सांकेतिक विरोध तो करते हैं लेकिन इसे भाग्य की बात भी बताते हैं जो धर्म की दुकानदारी का एक बड़ा जरिया रहा है.

शेयर बाजार का जुआ

शेयर बाजार में जुआ खेलने से तात्पर्य है कि जो पैसा आप लगा रहे हैं उस की वापसी की गारंटी नहीं है. वह पैसा डूब सकता है या फिर आप को रातोंरात मालामाल भी बना सकता है. ताश के पत्तों से जुआ खेलने पर भी यही होता है. क्रिकेट में सट्टा लगाने पर भी यही होता है. इन में से जहां भी पैसा लगाया जाता है वह जोखिम भरा है और ज्यादा कमाने के लालच में जुआरी यह जोखिम बारबार उठाता है. पहले सरकार लौटरी का कारोबार करती थी, उस में बड़ा फायदा था. शराब की दुकान चला कर जैसा अनापशनाप राजस्व सरकार हासिल करती है, लौटरियों के जरिए भी उस की अंधाधुंध कमाई हो रही थी. इस जोखिम ने कई लोगों की जान ली तो सरकार पर दबाव आया और उस ने इस ‘जुआघर’ को बंद कर दिया. सरकार की यह दुकान बंद हुई यानी लौटरी प्रतिबंधित हो गई और अब ऐसा करना अपराध बन गया.

शेयर बाजार में पैसा लगाना भी एक तरह का जुआ है और इस जुए को खेल कर बरबाद हुए कई लोगों ने आत्महत्या कर ली और कई लोग बरबादी का जीवन जी रहे हैं. हर्षद मेहता जैसे कांड के कारण कई लोग रातोंरात कुबेर भी बन गए. स्वयं सरकार इस जुए के बल पर खासा राजस्व अर्जित कर रही है. चूंकि यह काम सरकार द्वारा प्रायोजित है इसलिए यह जुआ नहीं है लेकिन कोई निजी स्तर पर अथवा संगठित हो कर इस तरह का जुआघर चलाता है तो उस के लिए जेल आशियाना बन जाता है.

इस का मतलब यह हुआ कि सरकार अपने फायदे के लिए अवैध मुद्दों को वैध बनाती है. यह एक तरह की तानाशाही है और लोकतंत्र में इस तरह की तानाशाही अनुचित है. संसद में ही देखिए, अपने वेतनभत्ते व दूसरे फायदों के लिए सभी दलों के सांसद एकजुट हो कर उसे तत्काल कानूनी जामा पहना देते हैं लेकिन भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून बनाने पर जद्दोजहद होती है, महिला आरक्षण विधेयक वर्षों से लंबित पड़ा है, उसे पारित करने के लिए वे एकजुट नहीं होते हैं.

दीवाली पर्व पर देशभर में जुआ खेलने के अपराध में कई लोग पकड़े जाते हैं. कुछ लोगों की मान्यता है कि लक्ष्मीपूजन के इस दिन जुआ खेलने से पूरे साल धनवर्षा होती है. सरकार भी कहीं न कहीं इसी मान्यता की शिकार है. दीवाली के दिन जब पूरे मुल्क में अवकाश होता है तो बौम्बे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई उस दिन रुलाता है. शेयर बाजार का कारोबार महज 2 घंटे ही चलता है, लेकिन कारोबार होता है. 2 घंटे के इस कारोबार को ‘मुहूर्त कारोबार’ कहा जाता है. बीएसई अगर अन्य दिनों यानी स्वतंत्रतादिवस अथवा गणतंत्रदिवस, ईद या रामनवमी पर भी इस तरह का मुहूर्त कारोबार करे तो कह सकते हैं कि वह लक्ष्मीपूजा पर जुआ खेलने की परंपरा को नहीं मानता है लेकिन यह मुहूर्त सिर्फ दीवाली पर ही होता है.

मुहूर्त का मतलब है दिनरात का 30वां भाग जिसे शास्त्रों में शुभकाल कहा जाता है. इस घड़ी में काम करने को शुभ माना जाता है. यह घड़ी दीवाली पर आती है. इस का सीधा मतलब है कि सरकारी स्तर पर भी जुआ खेला जाता है और सरकार की अनुमति से चल रहे इस तरह के जुआघर कानून की परिधि के दायरे में नहीं हैं.

मृणाल कुलकर्णी से बातचीत

15 वर्ष की उम्र से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाली अभिनेत्री मृणाल कुलकर्णी ने हिंदी और मराठी धारावाहिकों व फिल्मों में काम कर अपनी अलग पहचान बनाई है. स्वभाव से नम्र, हंसमुख और मृदुभाषी मृणाल ने मराठी फिल्म ‘रमा माधव’ में पहली बार निर्देशन कर काफी प्रशंसा बटोरी है. वे हिंदी फिल्म का भी निर्देशन करना चाहती हैं. उन्हें हर वह फिल्म अच्छी लगती है जिसे करने में उन्हें अलग अनुभव हो. उन से मिल कर बात करना दिलचस्प था, पेश हैं खास अंश :

दीवाली आप कैसे मनाती हैं?

महाराष्ट्र में दीवाली 5 दिनों की होती है. मराठी संस्कृति में दीवाली जोरशोर से मनाई जाती है. मैं हर दिन को अपने परिवार के साथ मनाना चाहती हूं. बचपन में जब मैं पुणे में थी तो दीवाली की रौनक 1 महीने पहले से दिखाई पड़ती थी. मेरी मां घर की साजसज्जा के अलावा मिठाइयां भी बनाती थीं. नए कपड़े पहनना, उस की तैयारियां करना सबकुछ बड़ा ही अलग हुआ करता था, अब मुंबई में काम करते हुए दीवाली कम मना पाती हूं. कई बार शूटिंग के लिए बाहर जाना पड़ता है पर इस बार मुझे थोड़ा समय मिलेगा क्योंकि फिल्म ‘रमा माधव’ के बाद थोड़े दिनों का बे्रक लिया है और अपने परिवारजनों के साथ दीवाली मनाना चाहती हूं.

दीवाली में सब से अच्छा क्या लगता है?

आपसी मेलमिलाप. पहली बात तो यह है कि आजकल हम काम में इतने व्यस्त रहते हैं कि एकदूसरे को मेल, मैसेज या वाट्सऐप पर याद करते हैं. इसी बहाने हम समय निकाल कर एकदूसरे की खुशियों में शामिल होते हैं. जब हम काम करते हैं, परिवार के लिए वक्त नहीं होता. दीवाली में हमें जाना जरूरी होता है. इस के अलावा दीवाली के पटाखे बहुत अच्छे लगते हैं.

कितना पहले से तैयारियां करती हैं?

मुंबई में अधिक तैयारियां नहीं करती, पुणे में मेरे घर पर महीनों पहले से दीवाली की सजावट, सफाई, रंगरोगन शुरू हो जाता था. मैं हमेशा अपने घर की सजावट के लिए खूब सारे फूल, डैकोरेटिव पीस आदि इस्तेमाल करती हूं जिस से घर आम दिनों से अलग दिखे. ये सारी वस्तुएं मैं समयसमय पर खरीदती रहती हूं. इस के अलावा दोस्तों और परिवारजनों को बुलाती हूं.

दीवाली की कौन सी बात आप को पसंद नहीं?

दीवाली में पौल्यूशन बढ़ता है जिस से कई लोगों  की सांस की बीमारी बढ़ जाती है. यह मुझे अच्छा नहीं लगता. त्योहारों को खुशी से मनाना चाहिए. मैं इन 5 दिनों की दीवाली में अपनी खुशी को खोजती रहती हूं.

किस तरह के परिधान पहनती हैं?

मुझे साड़ी सब से अधिक पसंद है इसलिए दीवाली के सभी दिन मैं सिल्क की अलगअलग साडि़यां पहनती हूं. महाराष्ट्र की पैठनी सिल्क मुझे बहुत पसंद है.

दीवाली के बाद की थकान को कैसे दूर करती हैं?

थकान नहीं होती बल्कि आगे काम करने की इच्छा बढ़ती है. आजकल फोन के द्वारा सबकुछ मंगवाया जा सकता है. परिवारजन और दोस्त जब मिलते हैं तो खुशी बढ़ती है.

औस्कर जाएगी लायर्स डाइस

हिंदी फिल्म ‘लायर्स डाइस’ को इस बार भारत की ओर से औस्कर में भेजा जा रहा है. इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की कैटेगिरी के तहत भेजा जाएगा. गौरतलब है कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी और गीतांजलि थापा अभिनीत इस फिल्म को भले ही कमर्शियल सफलता न मिली हो लेकिन अवार्ड कई मिले. मसलन सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार गीताजंलि को मिला था.

यह फिल्म मलयालम अभिनेत्री गीतू मोहनदास ने निर्देशित की है. कहानी एक महिला आदिवासी की है जो अपने पति की तलाश में भटकती है. ‘लायर्स डाइस’ को फिल्म फैडरेशन औफ इंडिया (एफएफआई) द्वारा नियुक्त 12 सदस्यीय निर्णायक मंडल ने 30 फिल्मोें में से चुना है. वैसे भारत की ओर से औस्कर के लिए फिल्म तो हर बार भेजी जाती है लेकिन हाथ केवल निराशा ही लगती है.

स्मार्ट सिटी की परिकल्पना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की परिकल्पना ने देश की बड़ी आबादी के भीतर हलचल तो पैदा की ही है, साथ ही वालमार्ट जैसी बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों में भी खासा आकर्षण उत्पन्न कर दिया है. इन कंपनियों ने अपने अनुमान के आधार पर स्मार्ट सिटी की संभावित जगहों पर निवेश का जुआ खेलने की रणनीति पर भी काम शुरू कर दिया है. स्मार्ट सिटी में सबकुछ स्मार्ट होने की परिकल्पना समाहित है. इन शहरों का जीवनस्तर अन्य शहरों की तुलना में ऊंचा होगा. वहां नागरिक समस्याएं नहीं होंगी और जो भी दिक्कत उत्पन्न होगी, चंद घंटों के भीतर उन का समाधान सुनिश्चित होगा.

केंद्र सरकार राज्यों के सहयोग और जनभागीदारी के सहारे मोदी के इस सपने को साकार करना चाहती है. इस के लिए विभिन्न स्तर पर काम चल रहा है. शहरों के चयन को ले कर अनुमान लगाए जा रहे हैं और इसी परिकल्पना में कई कसबों और शहरों में जमीन की कीमत अचानक घटबढ़ रही है. सांसद, मंत्री अपने क्षेत्र में स्मार्ट शहर स्थापित करने के लिए लामबंदी कर रहे हैं.

शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इस बारे में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में यह बात स्वीकार भी की है. कोई जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र में किसी शहर या कसबे को स्मार्ट बनाने की बात करता है तो वहां जमीन के दाम रातोंरात बढ़ रहे हैं. यहां तक कि कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा कर कुछ शहरों के स्मार्ट सिटी बनने का अनुमान लगाते हुए वहां निवेश करने की योजना बना ली है. किस शहर, कसबे या गांव का ढांचागत विकास कर के उसे स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा, यह भविष्य की कोख में है लेकिन इसे ले कर जो ख्वाब है वह करोड़ों लोगों की धड़कनें बढ़ा रहा है और रहस्य बन कर अच्छेअच्छों को छल रहा है.

शरीयत और फतवे संवैधानिक नहीं-सुप्रीम कोर्ट

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में शरीयत और फतवे को गैरकानूनी घोषित किया. फैसले में सुप्रीम कोर्ट के सी के प्रसाद के नेतृत्व में गठित 2 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने साफ शब्दों में कह दिया है कि धर्म की दुहाई पर किसी निर्दोष को सजा सुनाना दुनिया के किसी भी धर्म में जायज नहीं है.

मुगलकाल और ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत में शरीयत व फतवे को कितना भी महत्त्व क्यों न दिया गया हो, आजाद भारत के सांविधिक प्रावधानों में इस के लिए कोई जगह नहीं. कोई फतवा या शरीयत कानून संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकता. हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि फतवे जारी होते हैं तो हुआ करें, पर उन्हें मानना या न मानना संबंधित व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है. उन्हें मानने के लिए व्यक्ति मजबूर नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने देश के अलगअलग हिस्से में चल रही समानांतर न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बारे में कोलकाता हाईकोर्ट के एडवोकेट मास्कर वैश्य का कहना है कि केंद्र में भाजपा की सरकार रहते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक विशेष माने रखता है. इस से पहले देश में चल रही समानांतर न्यायव्यवस्था पर कभी इतने जोर का प्रहार नहीं हुआ है. यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक नहीं तो कम से कम महत्त्वपूर्ण मानने में किसी को गुरेज नहीं होगा. 2005 में दिल्ली के एक वकील विश्वलोचन मदन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करते हुए कहा था कि दारुल कजा के नाम पर काजी और मुफ्ती मुसलमानों की आजादी को फतवे से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, जोकि गैरकानूनी है. संविधान के रहते हुए समानांतर न्यायव्यवस्था किसी को नियंत्रित नहीं कर सकती.

इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन यूपीए सरकार से राय जाननी चाही थी. तब केंद्र ने हलफनामा जारी करते हुए साफ कह दिया था कि वह मुसलिम पर्सनल ला के मामले में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगी जब तक कि किसी के मौलिक अधिकार का हनन न हो. सुप्रीम कोर्ट को इसी साल फरवरी में इस याचिका पर फैसला देना था लेकिन उस ने अब तक अपना फैसला सुरक्षित रखा था. इस बीच केंद्र में भाजपा सरकार बन गई और तब 7 जुलाई को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया, जिस में सुप्रीम कोर्ट ने शरीयत की कानूनी वैधता को नकार दिया.

चूंकि यह मामला शरीयत कानून के मद्देनजर है, इसीलिए यहां शाहबानो प्रकरण का जिक्र जरूरी है. एक हद तक अल्पसंख्यक वोट की राजनीति के चलते ही शाहबानो और उस के 5 बच्चों के साथ ‘नाइंसाफी’ हुई थी.  1986 में शाहबानो प्रकरण के निबटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसे गुजारा भत्ता देने के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था. मुसलिम समाज ने मुसलिम संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप की बात कह कर इस फैसले का जम कर विरोध किया. तब मुसलिम समाज के प्रवक्ता सैयद शहाबुद्दीन और एम जे अकबर ने औल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड बना कर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ देशभर में आंदोलन की धमकी दी थी. बाद में यही एम जे अकबर राजीव गांधी के प्रवक्ता और कांग्रेस के सांसद भी बने. यह और बात है कि वही एम जे अकबर पलटी मार कर आज भाजपा में हैं.

बहरहाल, अल्पसंख्यक वोट में दरार के अंदेशे से घबरा कर राजीव गांधी ने औल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड की मांगें मान लीं और संसद में कांग्रेस ने बहुमत का फायदा उठा कर ‘धर्म निरपेक्षता’ के नाम पर मुसलिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून 1986 पास कर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर रख दिया. इस में साफसाफ कहा गया है कि ‘हर वह आवेदन जो किसी तलाकशुदा महिला के द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय से विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निबटाया जाएगा, चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो.’ इस से मुसलिम पुरुषों को तो फायदा हुआ लेकिन मुसलिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गई.

समानांतर न्यायव्यवस्था

भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में समयसमय पर देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही समानांतर न्याय व्यवस्था पर सवाल उठते रहते हैं. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने तमाम ‘समानांतर न्यायव्यवस्था’ पर सवाल उठाया है. भारत में ‘फतवे’ पर केवल मुसलिम संगठनों व धर्मगुरुओं का एकाधिकार नहीं है, बल्कि हिंदू समाज में भी फतवे जारी होते रहते हैं. फिर चाहे वह पश्चिम बंगाल में वर्षों से चली आ रही सालिसी सभा हो, जिस में लड़के से दोस्ती की सजा के तौर पर सालिसी सभा ने लड़की से सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी, या हरियाणा की खाप पंचायत, जिस में प्रेम विवाह के लिए आमतौर पर मौत की सजा दी जाती है. 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायत जैसी समानांतर न्यायव्यवस्था को खारिज करते हुए समान नागरिक संहिता की बात कही थी.

देश में पंचों के फैसले से पारिवारिक संपत्ति का झगड़ा व सामाजिक विवाद सुलझाने की पुरानी परंपरा रही है. सवाल यह है कि किसी समुदाय विशेष की कोई पंचायत व्यवस्था को क्या समानांतर न्याय व्यवस्था कहा जा सकता है? क्या कोई समुदाय या संप्रदाय अपने 2 पक्षों का विवाद निबटाने का काम नहीं कर सकता?

समाजशास्त्री सेमंती घोष ऐसी व्यवस्था को समानांतर न्याय व्यवस्था मानने को तैयार नहीं. उन का कहना है कि भारत में बुजुर्गों की पंच या पंचायत की परंपरा रही है. समुदाय विशेष की पंचायत लोगों के आपसी विवाद को निबटाती रही है. वे कहती हैं कि असम व अरुणाचल प्रदेश के गांवदेहात के समाज में ऐसे विवाद निबटाने का काम ‘गांव बूढ़ों’ यानी गांव के बुजुर्ग करते हैं. इस परंपरा के तहत, ‘गांव बूढ़ों’ के न्याय पर कोई सवाल नहीं उठाता. पारिवारिक व सामाजिक विवाद व मसले यहीं निबट जाते हैं.

उन का तर्क यह है कि देश की न्याय व्यवस्था के साथ स्थानीय या सामुदायिक पंचायत पद्धति का कोई संबंध नहीं है. संविधान की नजर से सभी नागरिक समान हैं. वहीं संविधान ने धार्मिक आस्था व आचरण के साथ सामुदायिक प्रावधानों को भी स्वीकृति प्रदान की है. मुसलिम समाज में शरीयत नामक पंचायत को यही मान्यता प्राप्त है.

सेमंती का एक तर्क यह भी है कि जो दारुल कजा इमराना को अपने पति से तलाक ले कर बलात्कारी ससुर से निकाह करने को कहता है, जोकि गलत है, वही दारुल कजा मुसलिम समाज में बहुत सारे छोटेबड़े मसलों को नियमित रूप से सुलझाता भी रहा है, जिस का कोई हिसाब नहीं रखता. जाहिर है इस सचाई को मानने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि बहुत सारे मुसलिम अपने विवाद सुलझाने के लिए दारुल कजा या काजी मौलवी की शरण में जाते हैं, क्योंकि वहां दस्तावेज जमा करने की खानापूर्ति नहीं होती, न ही कोई बड़ा खर्च होता है. और मामले का निबटारा भी जल्द से जल्द हो जाता है.

पंचायत व्यवस्था की ज्यादतियां

इमराना मामले का जिक्र करते हुए वे कहती हैं कि कभीकभी सामुदायिक व स्थानीय पंचायत व्यवस्था में ज्यादतियां होती हैं, जैसा कि 2005 में इमराना के साथ हुआ था. शरीयत पंचायत ने 5 बच्चों की मां इमराना को अपने पति को बेटे के रूप में और बलात्कारी ससुर को पति के रूप में स्वीकारने का फैसला सुनाया था. यह भारतीय समाज का संकट है कि जहां हरेक समाज में कुछ गिनेचुने लोग धर्म व समाज के ठेकेदार बन कर अपना फैसला लोगों पर थोपना चाहते हैं. यह गलत है.

बहरहाल, दारुल कजा के फैसले से न तो इमराना संतुष्ट थी और न ही उस का शौहर. शरीयत पंचायत के फैसले को इमराना और उस के पति नूर इलाही ने नहीं माना. आज भी वे पतिपत्नी के रूप में साथ हैं.  सेमंती घोष का कहना है कि ऐसी पंचायत की वैधताअवैधता के पचड़े में न पड़ कर आज यह देखने की जरूरत है कि समाज के बीच इन्हें जिंदा रखते हुए इन बुराइयों को हम किस तरह दूर करें?

धर्म दखल क्यों देता है पारिवारिक मामलों में

जीवन के हर हिस्से में धर्म की गहरी घुसपैठ क्यों है? व्यक्ति जन्म से ले कर मरने तक धर्म की कैद में बंद क्यों हो जाता है? धर्र्म ने परिवार, समाज और यहां तक कि देश व शासन के संचालन तक के अपने नियमकायदे क्यों बना रखे हैं? हाल यह है कि उस के बनाए नियमों के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. व्यक्ति सुबह उठता है, ब्रह्म मुहूर्त में धर्म को चलाने वालों की मरजी चलने लगती है. दिन भर की सारी दिनचर्या वह धर्म के कहे अनुसार यंत्रवत करता चलता है. घर से बाहर निकलता है शुभ समय देख कर. ब्याहशादी खुद के दिमाग से नहीं, धर्म के संचालकों से पूछ कर करता है.

नौकरी, व्यापार के बारे में स्वयं की योग्यता, अनुभव, नफानुकसान, बाजार को देखने जैसी तमाम तरह की छानबीन कर के नहीं, ईश्वर ने जो पहले से तय कर रखा है, उस के हिसाब से करेगा और यह बात उसे बताएगा कौन? वह ईश्वर के किसी बिचौलिए के पास यह सब पूछने जाएगा.

परिवार में दुख है, सुखशांति  नहीं है, इस का उपाय व्यक्ति धर्मस्थलों में तलाशने जाएगा क्योंकि उसे बताया गया है कि दुखों से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर, गुरु की शरण में आओ. सुखदुख, लाभहानि, मानअपमान सब ऊपर वाले के हाथ में है. यह सब कर्मों का फल है. पूर्व जन्म की देन है इसलिए अब धर्म के दिखाए मार्ग पर चलो. धर्म ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है.

बालक के जन्मते ही धर्म उसे हथिया लेता है. उस के लिए क्याक्या संस्कार,  किस तरह करने चाहिए क्या मातापिता जानते हैं? इस में भी धर्म का निर्देश लेना होता है. विवाह में धर्म की प्रधानता है. विवाह के बाद सुखी जीवन के लिए किस तरह पूजापाठ, हवनयज्ञ, कीर्तन, जागरण, मंदिरदेवता, तीर्थयात्राएं, दानपुण्य, उपवास करते रहना चाहिए, इन सब में भी धर्म का दखल है. हर त्योहार की उत्पत्ति किसी देवीदेवता से जुड़ी कथा से संबद्घ कर दी गई है. लिहाजा, त्योहार के दिन किसी न किसी देवता की पूजाअर्चना जरूर की जाएगी. इस के लिए पूजा की तिथि, समय, विधिविधान पूछना पड़ेगा जो धर्मस्थल में बैठा कोई ज्ञानी ही बता सकेगा.

पढ़ाईलिखाई पर धर्र्म अपना शिकंजा कायम रखना चाहता है. हमारे यहां धर्म द्वारा बनाई गई सामाजिक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है जिस में समाज को अलगअलग वर्णों में बांट कर रखा गया है. इस व्यवस्था में निचले वर्गों व स्त्रियों के लिए शिक्षा की साफतौर पर मनाही है. नित्य पठन वाली धर्म की किताबों में यह सब लिखा हुआ है.

हिंदू धर्र्म में ही नहीं, हर धर्म ने निचले वर्गों व स्त्रियों में शिक्षा की रोशनी का प्रवेश वर्जित किए रखा. मुसलिम देशों में कट्टर संगठन आज जो आतंक फैलाए हुए हैं वह धर्म के नियमकायदों को थोपे जाने के लिए ही है. इराक, सीरिया के एक विशाल क्षेत्र समेत बहुचर्चित इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस मुसलिम देशों की जनता को कट्टर धर्र्म के अनुसार चलाना चाहता है. इराक और सीरिया के मुसलिमों में सुन्नी समुदाय का यह सक्रिय जिहादी ग्रुप है. इन दोनों देशों के साथसाथ विश्व के अधिकांश मुसलिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना इस का घोषित लक्ष्य है यानी यह इसलामी शासन चाहता है. अलकायदा ने इस संगठन का शुरू में समर्थन किया था पर बाद में यह अलकायदा से अलग हो गया लेकिन दोनों का मकसद मुसलमानों को मजहब से हांकना है.

ये संगठन इसलिए जल्दी ही खूब फलनेफूलने लगते हैं क्योंकि धर्म के व्यापार के मुरीद तो लोग बचपन से ही बन जाते हैं और धर्म के नाम पर पैसों की बौछार होने लगती है. 2013 में बना यह संगठन इसलामी दुनिया का सब से अमीर आतंकी संगठन है. जून में इस ने अपने मुखिया को विश्व के सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया था. इस के 10 से 30 हजार तक लड़ाकू हैं.

अफगानिस्तान में तालिबान, नाइजीरिया में बोको हरम वहां के शासन को इसलामी कानून पर आधारित शासन से बदलना चाहते हैं. ये भी आधुनिक शिक्षा और महिलाओं की आजादी के विरोधी हैं और विरोध में उत्पात मचाए हुए हैं. पिछले दिनों अप्रैल माह में बोको हरम ने करीब 300 स्कूली लड़कियों को अगवा कर लिया था. इन लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया गया. इन का यौन उत्पीड़न किया जा रहा है. हालांकि कुछ लड़कियां भागने में कामयाब रहीं पर चरमपंथी मजहब का खौफ लोगों में कम नहीं हो रहा है. सेना और आतंकियों की मुठभेड़ से गांव और शहर के लोग भयभीत हैं और वे पलायन कर रहे हैं.

एक धर्र्म दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाता. बोको हरम भी ईसाइयों का धर्र्म बदलवा रहा है. उन्हें जबरन मुसलिम बना रहा है. ऐसा न करने पर उन्हें मार रहा है. दावा किया जाता है कि धर्म तो प्रेम, शांति, भाईचारे की सीख देता है पर असलियत में वह उलटा चलता है. शादियां, वह चाहे किसी भी धर्र्म में हों, धर्म की उपस्थिति अनिवार्य है पर प्रेम विवाह करने वालों का यह दुश्मन बन जाता है. धर्म के रखवाले वैलेंटाइन डे का विरोध करते हैं. इसलाम तो प्रेम करने वालों को सार्वजनिक सजा, यहां तक कि मौत का दंड देने से भी नहीं चूकता.

पतिपत्नी के बीच रिश्तों में तनाव घोलने में मजहब की बड़ी भूमिका है. 3 तलाक का विधान धर्म की ही देन है. घरेलू, पारिवारिक मामलों में बातबात पर फतवों का रिवाज धर्म का चलाया हुआ है ताकि उस का दखल परिवार में बना रहे.   यानी धर्र्म हर जगह पारिवारिक मामलों में दखल देता रहा है. वह सामाजिक भेदभाव, ऊंचनीच, लैंगिक असमानता का सब से बड़ा मददगार है. ऐसा कर के वह समाज, परिवार को बांटता रहा है.

असल में धर्र्म व्यक्ति की निजी जिंदगी और परिवार में दखल इसलिए देता है क्योंकि इस से उसे फायदा मिलता है. जन्म, विवाह, मरण और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों में पंडेपुरोहितों ने अपने लिए दानदक्षिणा का इंतजाम कर रखा है. हर धर्म महज कारोबार का एक जरिया है. धर्र्म में पैसा ही पैसा है. यह  धन और ऐश का माध्यम है.

विदेश नीति की राह

अमेरिका में नरेंद्र मोदी का स्वागत कैसा हुआ, किस के साथ खाया, कहांकहां सभाएं हुईं, किनकिन से मिलने आदि की चर्चा तो बहुत हुई पर देश को क्या मिला, यह सब खो गया. बहुत सालों बाद एक कर्मठ, उत्साही प्रधानमंत्री अमेरिका गया था, इसलिए यह यात्रा चर्चा का विषय ज्यादा थी पर न तो पहले किसी तरह की नई संधि की तैयारी की गई थी न हाथोंहाथ की गई. चुनावी माहौल सा बना रहा जिस में एकमात्र उम्मीदवार नरेंद्र मोदी थे पर हाथों में क्या आया, यह अस्पष्ट है.

अमेरिका के बिना भारत का काम नहीं चलेगा, यह पक्का है. ऐसा नहीं कि अमेरिका अपना खजाना लुटा रहा है या अमेरिकी मुफ्त में भारत में आ कर उद्योग लगाएंगे या अमेरिका अपनी गुप्त तकनीक भारत के साथ साझा करेगा. अमेरिका की भारत को जरूरत इसलिए है कि भारतीयों का एक विशाल वर्ग, लगभग 30 लाख लोग, अमेरिका में अच्छा कमाखा रहे हैं और वे अपने मूल देश के बारे में अच्छा सुनना चाहते हैं. वे सिद्ध करना चाहते हैं कि भारत न तो सपेरों का देश है और न मध्य अफ्रीका का गिरापड़ा, अस्थिर देश.

पिछले प्रधानमंत्रियों ने भारत की एक धीमी गति से चलने वाली बैलगाड़ी की सी छवि ही प्रस्तुत की थी. नरेंद्र मोदी ने उत्साह जगाया, लगातार मीटिंगें कीं, फर्राटेदार अंगरेजी पर निर्भरता न रख कर अपनी ओजस्वी, भावपूर्ण हिंदी का इस्तेमाल किया और भारतीयों पर छा गए. उन्हें पहली बार अपने मूल देश के प्रधानमंत्री पर गर्व हुआ है.

बराक ओबामा से नरेंद्र मोदी कोई खास संबंध नहीं बना पाए और न ही संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में उन्होंने अमिट छाप छोड़ी पर दोनों जगह उन्होंने एक आशावादी भारत की चमक दिखाई है. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की कट्टरता का रंग अपनी बातों में चढ़ने नहीं दिया और लगा कि अब लोग उन की पिछली बातों को भूल कर उन्हें भारत के नए सक्षम लोकप्रिय नेता के रूप में स्वीकारने को तैयार हो गए हैं. यह सफलता है. वरना पिछले 5 महीनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार की विदेश नीति नरेंद्र मोदी के हाथों में होते हुए भी फिसलती नजर आ रही थी. 16 मई को दक्षिण एशिया के देशों के राष्ट्राध्यक्षों को प्रधानमंत्री शपथग्रहण समारोह में निमंत्रण दे कर उन्होंने एक मास्टर स्ट्रोक लगाया था पर वह निरर्थक सा लगने लगा है.

भारतपाकिस्तान संबंध और खराब हुए हैं और 16 मई के बाद से सीमा पर अकसर झड़पें हो रही हैं. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने न्यूयार्क में नरेंद्र मोदी से बात तक करना मुनासिब नहीं समझा. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत में थे और अहमदाबाद में नरेंद्र मोदी के साथ साबरमती (जो असल में नर्मदा पानी से बनी एक झील सी ही है) के तट पर गरबा देख रहे थे, उन के सैनिक भारतचीन नियंत्रण रेखा को नए ढंग से खींचने की कोशिश कर रहे थे.

जापान यात्रा में नरेंद्र मोदी ने ड्रम बजाया और बांसुरी भी पर जापानी, चीनी या अमेरिकी उद्योगपति भारत आ कर यहां पैसा लगाएंगे, इस में संदेह है. भारत का वातावरण ऐसा है ही नहीं कि यहां कोई आसानी से उद्योग लगा सके. और मोदी सरकार के 5 महीनों के कार्यकाल में किसी को कोई राहत भी नहीं मिली है. असल में विदेश नीति तब कामयाब होती है जब आंतरिक स्थिति अनुकूल हो. भारत यदि देश में विदेशी निवेश चाहता है तो उसे पहले अपने उद्योगपतियों को राहत देनी होगी, सरकारी ढांचा ढीला करना होगा.

हमारा विदेश मंत्रालय अपनेआप में बेहद निकम्मा है. उस का ज्यादातर समय वीजा लेनेदेने या टालमटोल में लगता है. भारत के हित में फैसला लेने के बारे में सोचने की फुरसत हमारे तथाकथित राजनयिकों के पास है ही नहीं. उन लोगों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित कराने (और उस में से अपने मतलब सिद्ध करने से फुरसत ही नहीं मिलती. वे सक्षम विदेश नीति कैसे बनाएंगे? नरेंद्र मोदी अक्षम लोगों के बल पर इच्छाओं का महल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वे सफल हों, यह हर भारतीय चाहता है पर जिस खच्चर गाड़ी पर वे सवार हैं, वह उन्हें रौकेटों के युग में ले जाएगी, इस में संदेह है. कहीं ऐसा न हो कि उन की विदेश नीति कैबिनेट मंत्री निर्मला सीतारमन के सूटकेस की तरह कहीं से कहीं पहुंच जाए.

मंगल मिशन की कामयाबी के माने

कहने को इसे महज एक इत्तफाक कहा जा सकता है कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का यान मार्स ऐटमौस्फियर ऐंड वोलाटाइन एवोल्यूशन (मावेन) और भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो का मार्स और्बिटर मिशन लगभग साथसाथ मंगल तक पहुंचे लेकिन इन की तुलना बताती है कि कई चीजें इस कोरे इत्तफाक से परे हैं, जैसे 4026 करोड़ रुपए के खर्च से मंगल तक पहुंचे मावेन के मुकाबले करीब 10 गुना कम लागत (450 करोड़ रुपए) वाले मार्स और्बिटर का पहले ही प्रयास में सफल होना कोई संयोग नहीं है. इस के पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति और ठोस वैज्ञानिक इरादों के अलावा व्यापार की सोचीसमझी रणनीति काम कर रही है जो भारत जैसे एक गरीब देश को किफायत में अंतरिक्ष मिशन चला कर स्पेस से कमाई के मौके दिला रही है.

मार्स और्बिटर मिशन का मंगल की कक्षा में कामयाबी के साथ पहुंचना साबित कर रहा है कि दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ कोई देश अपने पड़ोसियों को पीछे छोड़ सकता है और ग्लोब पर बड़ी ताकतों के मुकाबले में आ सकता है. 24 सितंबर को जब भारतीय मंगलयान ने मंगल की कक्षा में प्रवेश किया तो उस वक्त वह वहां अकेला नहीं था. 22 सितंबर को नासा के मावेन की पहुंच से कई और यान या तो मंगल की परिक्रमा कर रहे हैं या फिर मार्स रोवर इस लाल ग्रह की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं.

फिलहाल 6 और्बिटर इस की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं और नासा के 2 रोवर-स्पिरिट और अपौरर्च्युनिटी इस की सतह को खंगाल रहे हैं. फिलहाल भारतीय मंगलयान के अलावा जो मिशन मंगल की छानबीन में संलग्न हैं उन में से एक यूरोपियन स्पेस एजेंसी यानी ईएसए के मार्स एक्सप्रैस (2003) को छोड़ कर अन्य सभी नासा (अमेरिका) के हैं. इस बीच चीन और जापान भी मंगल पर अपने यान भेजने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन वे नाकाम रहे. सब से ज्यादा उल्लेखनीय यही है कि भारत के सिवा कोई भी देश अपने पहले ही प्रयास में मंगल तक अपना यान पहुंचाने में सफल नहीं रहा.

मामला सिर्फ मंगल तक यान पहुंचाना भर नहीं है बल्कि इस का उद्देश्य मंगल के बारे में कई ऐसे रहस्यों का खुलासा करना है जिन्हें दुनिया जानना चाहती है. खासतौर से मावेन की तरह, जिस का प्रमुख उद्देश्य मंगल के वातावरण के अध्ययन के साथ वहां की जलवायु में बदलाव की पड़ताल करना है. मंगलयान में कई ऐसे उपकरण लगे हैं जो मंगल की परिक्रमा करते वक्त कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं जुटाएंगे, जिन के आकलन से मंगल के बारे में कई नई जानकारियां मिल सकती हैं, जैसे मंगलयान पर लगा लिमन अल्फा फोटोमीटर यानी एलएपी मंगल के ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन कणों की मौजूदगी का पता लगाएगा. इस उपकरण में शक्तिशाली लैंस लगे हैं जो हाइड्रोजन कणों की खोज कर सकते हैं.

यान में मीथेन सैंसर फौर मार्स यानी एमएसएम भी फिट किया गया है जो मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मौजूदगी की टोह लेगा. दावा किया जा रहा है कि यदि मंगल पर मीथेन की जरा सी मात्रा भी मौजूद रही तो यह उसे खोज लेगा. इसी तरह मंगल के वायुमंडल की संरचना यानी वहां के वातावरण में क्याक्या है, इस की जांच के लिए मंगलयान में मार्स एक्सोफेरिक कंपोजिशन ऐक्सोप्लोरर यानी एमईएनसीए स्थापित किया गया है. लाल ग्रह के जमीनी हालात का जायजा लेने के लिए मंगलयान में मार्स कलरकैमरा यानी एमसीसी भी लगाया गया है जो 50 किलोमीटर के दायरे की फोटो खींच कर उस की सतह का विश्लेषण कर सकता है. मंगलयान की मिट्टी में मौजूद खनिजों की पड़ताल के लिए यान में टीआईआर इमेजिंग स्पैक्टोमीटर भी लगाया गया है जिस से निकलने वाली किरणें वहां की जमीन की गहराई तक जा कर यह पता लगाएंगी कि वहां कौन से खनिज भंडार हैं.

तकनीकी रूप से ये सारे वैज्ञानिक फायदे हैं लेकिन जिन्हें हासिल कर लेने के दूरगामी लाभ हो सकते हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2008 में भारत के चंद्रयान ने कामयाबी की नई इबारत लिखी थी, आज मंगलयान की आरंभिक सफलता के बाद अहम सवाल है कि क्या इस से देश को और आम जनता को कोई प्रत्यक्ष लाभ होगा या फिर जनता के खूनपसीने की कमाई में से टैक्स के रूप में लिए गए 450 करोड़ रुपयों को सिर्फ देश की प्रतिष्ठा के लिए कुरबान कर दिया गया है? एक गरीब और विकासशील देश के लिए ये सवाल जायज हैं और इन के हल ढूंढ़ने जरूरी हैं.

मंगल मिशन से पहले ऐसे ही सवालों से इसरो को चंद्रयान-1 के संबंध में भी दोचार होना पड़ा था. इस के आलोचक सिर्फ विदेशी ही नहीं थे, बल्कि भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों की उपयोगिता को संदिग्ध बताने वालों में कई ऐसे लोग भी रहे हैं जो देश के निर्माण कार्य से जुड़ रहे हैं. ऐसे ही लोगों में से एक थे आईआईटी में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभाग के चेयरमैन एचएच मुकुंद, जिन्होंने चंद्र मिशन के बारे में कहा था कि जिस चंद्रमा को साढ़े 3 दशक पहले खोजा जा चुका हो, उस की फिर से खोजबीन मूर्खतापूर्ण है. इस से देश को तकनीकी तौर पर कुछ हासिल नहीं होगा.

उन्होंने दावा किया था कि पूर्व के अभियानों से चंद्रमा की 97 फीसदी सतह का मापन हो चुका है, लिहाजा भारत के मूनमिशन की कोई उपयोगिता नहीं है. ऐसी ही आलोचना कई अन्य वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों व समाजसेवियों ने भी की थी क्योंकि उन के मत में एक गरीब देश को करोड़ों रुपए खर्च कर के ऐसे निरर्थक अंतरिक्ष अभियान पर नहीं जाना चाहिए, जहां से कुछ भी नया हासिल होने की उम्मीद न हो.

लेकिन चंद्रमिशन की कामयाबी ने इन सारे सवालों को बेबुनियाद साबित किया था. चंद्रयान-1 न सिर्फ तकनीकी तौर पर भारत को काफी कुछ दे कर गया, बल्कि उस के जरिए चंद्रमा के नए तथ्य भी सामने उद्घटित हुए.  चंद्रयान-1 से मिले आंकड़ों व चित्रों के विश्लेषण से वैज्ञानिकों को चंद्रमा के जन्म और बनावट से जुड़ी एक परिकल्पना को नया आधार मिला था.

पहले यह माना जाता था कि हमारा सौरमंडल बनना शुरू होने के लगभग 7 करोड़ वर्ष बाद ऊर्जा की बड़ी भारी मात्रा एक पिंड के रूप में जमा होनी शुरू हुई जो उस वक्त पिघले हुए लावे के समुद्र जैसी थी. यानी उस समय चंद्रमा द्रवीभूत (मौलेटन) रूप में था. पर जैसेजैसे चंद्रमा गरम से ठंडा हुआ, उस की ऊपरी परत में यह लावा चट्टानों के रूप में (एनौर्थाइट) जमा हो गया. ये चट्टानें चंद्रमा के ऊंचाई वाले इलाकों की जमीन की ऊपरी परत में मिलती हैं.

इसी तरह चंद्रयान-1 के मून मिनरोलौजी मैपर ने जो आंकड़े भेजे, उन से इस मैग्मा ओसन परिकल्पना की पुष्टि हुई. उस के भेजे चित्रों से एनौर्थाइट की मौजूदगी साबित हुई. यह बेहद महत्त्वपूर्ण जानकारी थी क्योंकि इस का फायदा भविष्य में चंद्रमा पर खनिजों की व्यापक खोजबीन में मिल सकेगा. चंद्रयान-1 द्वारा जुटाए गए नए तथ्यों, आंकड़ों व फोटो से चंद्रमा पर पानी की उपस्थिति की अवधारणा को और बल मिला था.

चंद्रयान की तरह ही मंगलयान के औचित्य पर एक बड़ा सवाल पिछले साल खुद इसरो के पूर्व चेयरमैन जी माधवन नायर ने यह कहते हुए उठाया था कि भारत को ऐसे महंगे मिशन नहीं चलाने चाहिए जिन का मकसद अपना नाम चमकाने के सिवा कुछ नहीं है.

माधवन नायर और उन्हीं की तरह कई अन्य लोगों की आशंकाओं का जवाब इसरो के वर्तमान चेयरमैन के राधाकृष्णन ने दिया था और कहा था कि इसरो का उद्देश्य मार्स मिशन के जरिए अंतरिक्ष में कहीं और जीवन की संभावना की तलाश करने के साथसाथ अंतरिक्ष से कमाई करना है. असल में भारत अपने अंतरिक्ष अभियानों से उस ग्लोबल स्पेस मार्केट में और मजबूत हैसियत बनाना चाहता है, जहां उस ने मून मिशन और सैटेलाइट लौंचिंग की बदौलत पहले से ही काफी बढ़त बना रखी है. ध्यान रखना होगा कि अंतरिक्ष अभियानों में तकरीबन आत्मनिर्भर हो चुके इसरो की योजना असल में ग्लोबल स्पेस इंडस्ट्री से कमाई करने की है.

वर्ष 1975 में रूसी रौकेट के जरिए आर्यभट्ट उपग्रह के प्रक्षेपण के अपने अंतरिक्ष अभियान शुरू करने वाले भारत ने अब तक 100 से ज्यादा उपग्रहों और 37 रौकेटों का निर्माण किया है. भारत के संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी एएसएलवी और पृथ्वी की कक्षा में 900 किलोमीटर ऊपर स्थापित करने वाले ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी पीएसएलवी की ग्लोबल स्पेस मार्केट में भारी मांग है क्योंकि इन से उपग्रहों का प्रक्षेपण अंतरिक्ष अभियान चला रहे दूसरे देशों के मुकाबले सस्ता पड़ता है और इन की सफलता की दर भी उन से ज्यादा है.

यह भी उल्लेखनीय है कि इसरो ने अपने स्पेस मिशनों पर जितना खर्च किया है उस से कहीं अधिक देश को दिया है. इतने वर्षों में भारत ने ऐसे अभियानों पर करीब 12 अरब डौलर खर्च किए हैं और तमाम सफलताएं अपने खाते में दर्ज की हैं जबकि अमेरिकी स्पेस एजेंसी-नासा का सालाना बजट ही 17 अरब डौलर है. इसी से भारतीय स्पेस मिशनों की मितव्ययिता और सफलता जाहिर हो जाती है.

सैटेलाइट लौंचिंग का बाजार

प्रतिस्पर्धी कीमत पर सैटेलाइट का सफल प्रक्षेपण ही वह कारण है जिस ने इसरो के पीएसएलवी को दुनिया के पसंदीदा रौकेटों में शामिल कराया है और आज ज्यादा से ज्यादा देश अपने सैटेलाइट इसरो की मदद से स्पेस में भेजने के इच्छुक हैं. हालांकि इसरो या एंट्रिक्स द्वारा विदेशी उपग्रहों की लौंचिंग की कीमत का कभी सरकार ने खुलासा नहीं किया लेकिन माना जाता है कि आरंभ में यह शुल्क विदेशी स्पेस एजेंसियों के मुकाबले 25-30 फीसदी कम होता था. अनुमान है कि इसरो एक उपग्रह को लौंच करने के लिए अमूमन 25 हजार डौलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से शुल्क लेता रहा है, लेकिन पीएसएलवी रौकेट की कामयाबी की दर ने उसे इस स्थिति में पहुंचा दिया है कि अब वह इस के लिए लगभग वही कीमत वसूल कर सके जो यूरोपीय स्पेस एजेंसी या फ्रांसीसी स्पेस एजेंसी वसूल करती हैं.

सैटेलाइट लौंचिंग का वैश्विक बाजार अब काफी तेजी से फैल रहा है. पूरी दुनिया में मौसम की भविष्यवाणी, दूरसंचार और टैलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. चूंकि ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं इसलिए ऐसे उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में काफी बढ़ोतरी हो रही है. कहने को तो आज यूरोपीय या फ्रांसीसी स्पेस एजेंसी के अलावा चीन, रूस और जापान आदि देशों के रौकेट भी इस के लिए उपलब्ध हैं लेकिन बढ़ती मांग, प्रतिस्पर्धी कीमतों और प्रक्षेपण की सफलता की दर आदि मानकों के आधार पर इसरो के रौकेट काफी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके हैं.

कोई संदेह नहीं कि अपने मून व मार्स मिशन के अलावा पीएसएलवी जैसे रौकेट के बलबूते आज इसरो और भारत जिस मुकाम पर हैं, वह गौरव का विषय है पर साथ ही यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि उसे इस जगह पर पहुंचने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. असल में, विकसित देशों को हमेशा यह आशंका सताती रही है कि भारत यदि अंतरिक्ष क्षेत्र में माहिर हो गया तो न केवल उन का अंतरिक्ष में उपग्रहों की दुनिया से एकाधिकार छिन जाएगा, बल्कि मिसाइलों की दुनिया में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगे.

बढ़ेगी कमाई, सुधरेगी इकोनौमी

एक  दौर था जब भारत जैसे गरीब देश के अंतरिक्ष अभियानों की घर के भीतर और बाहर यह कह कर आलोचना की जाती रही है कि हम अपनी गरीब जनता की भूख, शिक्षा व स्वास्थ्य की फिक्र छोड़ कर आखिर क्यों चंद्रमा और मंगल की खोज जैसे व्यर्थ के मिशनों में लगे हैं, जिन से कुछ हासिल नहीं होना है. इन अभियानों में भारत की संलिप्तता का अतीत में पश्चिमी देशों ने भी खूब मजाक उड़ाया है, पर आज वही देश अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारतीय रौकेटों का सहारा ले रहे हैं. इस की 2 प्रमुख वजहें हैं. पहली, भारतीय रौकेटों की सफलता की दर दुनिया के किसी भी अन्य प्रतिष्ठित रौकेट की तुलना में अधिक है और दूसरी, इन से उपग्रहों को प्रक्षेपित करने का खर्च काफी कम है.

जहां तक ध्रुवीय प्रक्षेपण यान पीएसएलवी (जिस से पिछले साल 5 नवंबर, 2013 को मंगलयान प्रक्षेपित किया गया था) की बात है तो इस के जरिए मेटसेट, चंद्रयान और मंगलयान सरीखे 1.6 टन वजन के उपग्रहों को 650 किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष की कक्षा में भेज कर इसरो वही प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका है जो यूरोपीय स्पेस एजेंसी या अमेरिकी स्पेस एजेंसी को हासिल है.

इसी साल 30 जून को श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी सी-23 के जरिए एकसाथ 5 विदेशी उपग्रहों को उन की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर के इसरो ने साबित किया है कि अब वह खरबों डौलर के बिजनैस वाली ग्लोबल स्पेस मार्केट का एक अहम खिलाड़ी है और अब उस की अनदेखी नहीं हो सकती. पीएसएलवी ने जिन 5 उपग्रहों को उन की कक्षा में भेजा था, उन में से पहला फ्रांस का 714 किलोग्राम वजनी स्पौट-7 था. इस के अलावा 4 सैटेलाइट नैनो श्रेणी के थे, जिन में से एक जरमनी का एआईएसएटी (14 किलोग्राम), 2 कनाडा के (कैन एक्स-4 व कैन एक्स-5, दोनों 15-15 किलोग्राम) और 1 सिंगापुर (वेलौक्स-1, 7 किलोग्राम) का था.

एक भारतीय रौकेट से विदेशी उपग्रहों की सफल लौंचिंग का यह पहला मौका नहीं था. इसरो ने 15 साल पहले 26 मई, 1999 को पीएसएलवी सी-2 से भारतीय उपग्रह ओशन सैट-2 के साथ कोरियाई उपग्रह किट सैट-3 और जरमनी के उपग्रह टब सैट को सफलतापूर्वक उन की कक्षा में स्थापित कर के ग्लोबल स्पेस मार्केट में कामयाब दस्तक दे दी थी. पर इस उड़ान में चूंकि एक भारतीय उपग्रह भी शामिल था, इसलिए इसे इसरो की पहली कामयाब व्यावसायिक उड़ान नहीं माना जाता है. इस के बजाय पीएसएलवी सी-10 के 21 जनवरी, 2008 के प्रक्षेपण को इस मानक पर सफल करार दिया जाता है क्योंकि उस से भेजा गया एकमात्र सैटेलाइट (इसराईल का पोलरिस) विदेशी था.

बहरहाल, ताजा स्थिति यह है कि पीएसएलवी से अब तक स्पेस में भेजे गए 67 उपग्रहों में से 40 सैटेलाइट विदेशी (19 मुल्कों के) हैं और इन के प्रक्षेपण के जरिए इसरो की सहयोगी कंपनी अंतरिक्ष (एंट्रिक्स) कौर्पोरेशन कंपनी लिमिटेड एक लाभदायक प्रतिष्ठान में बदल चुकी है. उल्लेखनीय है कि आज दुनिया में पीएसएलवी को टक्कर देने वाला दूसरा रौकेट (वेगा) सिर्फ यूरोपीय स्पेस एजेंसी के पास है, लेकिन उस से उपग्रहों की लौंचिंग इसरो के मुकाबले कई गुना अधिक है.

मंगल मिशन में अहम कदम

1.    14 जुलाई, 1965 को मरीनर-4 अंतरिक्ष यान मंगल ग्रह तक पहुंचा. इस ने किसी दूसरे ग्रह की पहली तसवीरें भेजीं.

2.    मरीनर-9 को 30 मई, 1971 को लौंच किया गया था, यह मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंचा और उस का पहला कृत्रिम उपग्रह बन गया.

3.    मार्स-3 सोवियत संघ का अंतरिक्ष यान था. यह मंगल ग्रह पर मार्स-2 के 5 दिन बाद पहुंचा था.

4.    नासा के साल 1975 के वाइकिंग मिशन में वाइकिंग-1 और वाइकिंग-2 अंतरिक्ष यान थे.

5.    वर्ष 1996 में मंगल पर भेजे गए मार्स ग्लोबल सर्वेयर ने मंगल की सतह पर किसी और अंतरिक्ष यान की तुलना में ज्यादा वक्त तक काम किया.

6.    अप्रैल, 2001 में लौंच ओडिसी मंगल की सतह पर सब से ज्यादा समय तक काम करने वाले अंतरिक्ष यानों में से एक है.

7.    जून 2003 में मंगल पर भेजा गया मार्स ऐक्सप्रैस किसी दूसरे ग्रह के लिए यूरोप का पहला अंतरिक्ष यान था.

8.    मार्स रिकंजा मिशन मंगल पर पानी के इतिहास के बारे में जानकारी जुटा रहा है.

9.    मंगल की सतह पर मौजूद क्यूरियोसिटी साल 2011 के आखिर में लौंच हुआ था.

क्या होगा फायदा

  1. ग्रह की सतह और वहां मौजूद खनिजों का पता लग सकेगा.
  2. मंगल के वातावरण के बारे में शोध किया जा सकेगा.
  3. पानी और मीथेन की मौजूदगी की संभावनाएं तलाशी जाएंगी.
  4. मंगल ग्रह पर भेजा जाने वाला मानव मिशन आसान होगा.

मंगल मिशन की सफलता के सूत्रधार

  1. के राधाकृष्णन : ये इसरो के चेयरमैन और स्पेस डिपार्टमैंट के सैक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने 1971 में इसरो जौइन किया था और चंद्रयान मिशन में भी इन का अहम योगदान था. इसरो की हर एक ऐक्विटी की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है.
  2. एम अन्नादुरई : ये इस मिशन के प्रोग्राम के डायरैक्टर के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने इसरो 1982 में जौइन किया था और कई प्रोजैक्टों का नेतृत्व किया है. इन के पास बजट मैनेजमैंट, शैड्यूल और संसाधनों की जिम्मेदारी है. ये चंद्रयान-1 के प्रोजैक्ट डायरैक्टर रहे हैं.
  3. एस रामाकृष्णन : ये रामाकृष्णन विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर के डायरैक्टर हैं और लौंच अथोराइजेशन बोर्ड के सदस्य हैं. इन्होंने 1972 में इसरो जौइन किया था और पीएसएलवी को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
  4. एस के शिवकुमार : ये इसरो सैटेलाइट सैंटर के डायरैक्टर हैं. इन्होंने 1976 में इसरो जौइन किया था और इन का कई भारतीय सैटेलाइट मिशनों में योगदान रहा है. मिशन के लिए सैटेलाइट संबंधित तकनीक विकसित करने की जिम्मेदारी थी.
  5. पी कुन्हीकृष्णन : कुन्हीकृष्णन पीएसएलवी के 8 सफल अभियानों में मिशन डायरैक्टर रह चुके हैं. मंगलयान मिशन पर इन के ऊपर रौकेट और सैटेलाइट को निर्धारित जगह पर स्थापित करने की जिम्मेदारी थी.
  6. ए एस किरण कुमार : सैटेलाइट ऐप्लीकेशन सैंटर के निदेशक, ए एस किरण कुमार ने मंगलयान में डिजाइनिंग और 3 और्बिटर पेलोड को विकसित करने का काम किया. इन के सामने सब से बड़ी चुनौती पेलोड का आकार छोटा रखना था.
  7. वी कोटेश्वर राव : ये इसरो के साइंटिफिक सैके्रेटरी हैं. वे सभी अंतरिक्ष उपकरणों को लगातार चेक करते रहे. साथ ही ये भी सुनिश्चित करते रहे कि सभी सिस्टम ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं.
  8. एस अरुणन : मंगल मिशन में स्पेसक्राफ्ट तैयार करने के लिए टीम बनाने की जिम्मेदारी एस अरुणन को दी गई थी. 50 साल के एस अरुणन मार्स और्बिटर मिशन के प्रोजैक्ट डायरैक्टर हैं.
  9. चंद्रादाथन : लिक्विड प्रोपल्सन सिस्टम के डायरैक्टर चंद्रादाथन ने एसएलवी-3 प्रोजैक्ट पर डिजाइनिंग फेज से ले कर आखिर तक काम किया. उन का फोकस एसएलवी-3 के लिए सौलिड प्रोपलैंट फौर्मुलेशन के विकास पर था.

आशावादी भारत की चमक

भारतीय प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर गए तो मेजबान देश में रहने वाले आप्रवासियों समेत पूरा देश, एक सप्ताह तक प्रधानमंत्री के जलवे का गुणगान करता रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चाहे संयुक्त राष्ट्र महासंघ में भाषण हो, न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में प्रवासी भारतीयों को संबोधन हो, अमेरिकी उद्योग जगत के साथ मुलाकात हो या अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा से वाइट हाउस में वार्त्तालाप का जिक्र हो, मोदी की हर गतिविधियों पर भारतीय न्योछावर होते दिखाई दिए.

इस से पहले मई में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की नेपाल, भूटान, जापान यात्रा और उन के द्वारा की गई चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेजबानी के भी इतने चर्चे नहीं हुए. स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी से ले कर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक की विदेश यात्राओं पर कभी प्रवासी भारतीयों और देश में बैठे लोगों की उतनी उत्सुकता नहीं रही. हालांकि नेहरू, इंदिरा गांधी के वक्त अमेरिका में भारतीयों की तादाद ज्यादा न थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बहुप्रतीक्षित अमेरिकी यात्रा में धर्म और संस्कृति की पोटली भी ले कर गए और इस दौरान वे नवरात्र के उपवास जारी रखते हुए नित्य एक घंटा दुर्गा माता के लिए पाठ करना नहीं भूले. मेजबान राष्ट्रपति ओबामा द्वारा परोसे गए तरहतरह के स्वादिष्ठ महाभोज को छोड़ कर मोदी ने व्रत के कारण केवल पानी पी कर ही मेहमान धर्र्म निभाया.

प्रधानमंत्री मोदी अपनी विदेश यात्राओं में भगवतगीता के बड़े प्रचारक साबित हो रहे हैं. जापान यात्रा में उन्होंने वहां के राजा को गीता भेंट की थी. अब ओबामा को भी. 4 दिन की अमेरिकी यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने हर कार्यक्रम में जादू बिखेरा. देश में बैठे भारतीयों को ही नहीं प्रवासी भारतीयों को भी अपना मुरीद बनाया. 27 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए भाषण में मोदी ने खुद की और भारत की छवि इस तरह पेश की कि उन का देश दुनिया के देशों के साथ मिल कर शांति के साथ तरक्की के लिए आगे बढ़ना चाहता है. उन्होंने कूटनीति को उस तरीके से पेश किया है जो हाल के सालों में नहीं हुआ.

संयुक्त राष्ट्र महासभा में मोदी ने अपने भाषण में न सिर्फ भारत की वैश्विक चिंताओं को व्यक्त किया, उस मंशा को भी जाहिर कर दिया कि वह  क्याक्या चाहता है.

युवा पीढ़ी का किया गुणगान

यात्रा पर जाने से एक दिन पहले मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की शुरुआत की थी और विश्वभर से जुटे देशों को उन्होंने व्यापार के लिए भारत के माकूल माहौल में आने का न्यौता दिया. 28 सितंबर को न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर में प्रवासी भारतीय नागरिकों ने हौलीवुड के कलाकारों को बुलाया ताकि भीड़ जुट सके. रौक स्टार के म्यूजिकल कंसर्ट की तर्ज पर यह कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस कार्यक्रम के लिए टिकट रखा गया था जो 50 हजार डौलर तक का था. जिन लोगों को इस शो के टिकट नहीं मिले थे उन के लिए टाइम स्क्वायर के अलावा अमेरिका में 100 जगहों पर स्क्रीन लगाए गए थे ताकि वे शो को लाइव देख सकें.

अमेरिका में करीब 30 लाख भारतीय रहते हैं और वहां उन्हें सब से अमीर लोगों में गिना जाता है. मोदी ने इन लोगों के लिए कई छूट देने का वादा किया. पर्सन औफ इंडियन ओरिजन यानी पीआईओ कार्डधारकों के लिए आजीवन वीजा देने की घोषणा की. अमेरिकन नागरिकों के लिए भी लौंग टर्म वीजा देने तथा वीजा औन अराइवल की सुविधा देने का ऐलान किया.

मोदी ने युवाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि सूचना तकनीक के क्षेत्र में अगर भारत की युवा पीढ़ी का योगदान न होता तो अभी भी हमारा देश सांपसपेरों का देश होता. हमारे पूर्वज तो सांप के साथ खेलते थे. अब हमारी युवा पीढ़ी माउस के साथ खेलती है. वहां मोदी ने अपने भाषण से लोगों को मुग्ध किया.

मोदी में आत्ममुग्धता के भाव थे. भारतीयों की प्रशंसा करने के साथसाथ उन्होंने भारतीय संस्कृति का गुणगान भी किया. भारतीय योग की प्रशंसा की गई. ग्लोबल सिटीजन फैस्टिवल में भाग लेते हुए मोदी ने अपने भाषण का समापन संस्कृत के श्लोक ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चित् दुख भाग्भवेत’ से किया. बड़ी संख्या में रहने वाले हिंदू अपने धर्म एवं संस्कृति से कुछ ज्यादा ही जुड़े हुए हैं. ये लोग देश के धार्मिक संगठनों से भी जुड़े हुए हैं. साधुसंतों, गुरुओं के अनुयायी बने हुए हैं. कई गुरुओं की दुकानें तो इन लोगों के बल पर ही फलफूल रही हैं.

आप्रवासी भारतीयों में मोदी के समर्थक बड़ी तादाद में हैं. पर ऐसा नहीं है कि अमेरिका में सभी भारतीय मोदी के मुरीद ही हैं. कुछ भारतीय संगठनों और लोगों ने मोदी की ‘घृणात्मक विचारधारा’ को ले कर नाखुशी भी जाहिर की. मैडिसन स्क्वायर गार्डन के बाहर भारतीय और दक्षिण एशिया के एक संगठन एलायंस फौर जस्टिस ऐंड अकाउंटेबिलिटी ने मोदी के विरोध में प्रदर्शन किया और मुसलमानों के प्रति न्याय की मांग की. इस गठबंधन ने मोदी की नीतियों की निंदा की. रैली में न्यूजर्सी, बाल्टीमोर, वाशिंगटन डीसी और फिलाडेल्फिया से प्रदर्शन करने के लिए बसों में भर कर लोग न्यूयार्कआए थे. इस संगठन में ज्यादातर हिंदू ही थे.

30 सितंबर को मोदी की ओबामा से भेंट पर सब की नजर थी. भारतीय मीडिया इसे असली परीक्षा बता रहा था. अमेरिका की मुख्य रणनीति भारत को अमेरिकी पाले में लाने की थी जिस में वह सफल रहा. वह चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए एशिया में भारत व जापान को अपने साथ रखना चाहता है. वह इसलामी चरमपंथी संगठन आईएसआईएस के खिलाफ साझा कार्यवाही में भी भारत का सहयोग चाहता है. भारत इस के लिए राजी है क्योंकि भारत खुद आतंकवाद से पीडि़त देशों में एक है. दोनों देश कारोबार बढ़ाने के साथसाथ आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए राजी हुए. मोदी ने ओबामा को भरोसा दिलाया कि वे अमेरिकी कंपनियों को भारत में कारोबार करने को आसान कर देंगे. उन्होंने ऐटमी करार, रक्षा, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर भी मिल कर चलने का वादा किया.असल में अमेरिका में बैठे भारतीय प्रवासियों की वजह से मोदी को इतना भाव दिया जा रहा है. प्रवासियों का अमेरिका की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है.

आर्थिक उदारीकरण और खासतौर से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने अमेरिका के साथ रिश्तों को गर्मजोशी प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई थी. 2000 में बिल क्लटन की भारत यात्रा के बीच कूटनीतिक साझेदारी का ढांचा तैयार किया गया. भाजपा  शुरू से ही अमेरिका के साथ बेहतर संबंधों की हिमायती रही है. बहरहाल, आज भारत का महत्त्व यह है कि राजनीतिक और आर्थिक सहयोगी के रूप में इसे लुभाया जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी भी देश की छवि निर्भर करती है. आज अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का परिदृश्य बदल रहा है. ब्रिक्स सम्मेलन, जापान की यात्रा, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेजबानी कर और अब सफल अमेरिकी यात्रा में मोदी ने साबित किया है.

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