अमेरिका में नरेंद्र मोदी का स्वागत कैसा हुआ, किस के साथ खाया, कहांकहां सभाएं हुईं, किनकिन से मिलने आदि की चर्चा तो बहुत हुई पर देश को क्या मिला, यह सब खो गया. बहुत सालों बाद एक कर्मठ, उत्साही प्रधानमंत्री अमेरिका गया था, इसलिए यह यात्रा चर्चा का विषय ज्यादा थी पर न तो पहले किसी तरह की नई संधि की तैयारी की गई थी न हाथोंहाथ की गई. चुनावी माहौल सा बना रहा जिस में एकमात्र उम्मीदवार नरेंद्र मोदी थे पर हाथों में क्या आया, यह अस्पष्ट है.
अमेरिका के बिना भारत का काम नहीं चलेगा, यह पक्का है. ऐसा नहीं कि अमेरिका अपना खजाना लुटा रहा है या अमेरिकी मुफ्त में भारत में आ कर उद्योग लगाएंगे या अमेरिका अपनी गुप्त तकनीक भारत के साथ साझा करेगा. अमेरिका की भारत को जरूरत इसलिए है कि भारतीयों का एक विशाल वर्ग, लगभग 30 लाख लोग, अमेरिका में अच्छा कमाखा रहे हैं और वे अपने मूल देश के बारे में अच्छा सुनना चाहते हैं. वे सिद्ध करना चाहते हैं कि भारत न तो सपेरों का देश है और न मध्य अफ्रीका का गिरापड़ा, अस्थिर देश.
पिछले प्रधानमंत्रियों ने भारत की एक धीमी गति से चलने वाली बैलगाड़ी की सी छवि ही प्रस्तुत की थी. नरेंद्र मोदी ने उत्साह जगाया, लगातार मीटिंगें कीं, फर्राटेदार अंगरेजी पर निर्भरता न रख कर अपनी ओजस्वी, भावपूर्ण हिंदी का इस्तेमाल किया और भारतीयों पर छा गए. उन्हें पहली बार अपने मूल देश के प्रधानमंत्री पर गर्व हुआ है.
बराक ओबामा से नरेंद्र मोदी कोई खास संबंध नहीं बना पाए और न ही संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में उन्होंने अमिट छाप छोड़ी पर दोनों जगह उन्होंने एक आशावादी भारत की चमक दिखाई है. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की कट्टरता का रंग अपनी बातों में चढ़ने नहीं दिया और लगा कि अब लोग उन की पिछली बातों को भूल कर उन्हें भारत के नए सक्षम लोकप्रिय नेता के रूप में स्वीकारने को तैयार हो गए हैं. यह सफलता है. वरना पिछले 5 महीनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार की विदेश नीति नरेंद्र मोदी के हाथों में होते हुए भी फिसलती नजर आ रही थी. 16 मई को दक्षिण एशिया के देशों के राष्ट्राध्यक्षों को प्रधानमंत्री शपथग्रहण समारोह में निमंत्रण दे कर उन्होंने एक मास्टर स्ट्रोक लगाया था पर वह निरर्थक सा लगने लगा है.
भारतपाकिस्तान संबंध और खराब हुए हैं और 16 मई के बाद से सीमा पर अकसर झड़पें हो रही हैं. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने न्यूयार्क में नरेंद्र मोदी से बात तक करना मुनासिब नहीं समझा. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत में थे और अहमदाबाद में नरेंद्र मोदी के साथ साबरमती (जो असल में नर्मदा पानी से बनी एक झील सी ही है) के तट पर गरबा देख रहे थे, उन के सैनिक भारतचीन नियंत्रण रेखा को नए ढंग से खींचने की कोशिश कर रहे थे.
जापान यात्रा में नरेंद्र मोदी ने ड्रम बजाया और बांसुरी भी पर जापानी, चीनी या अमेरिकी उद्योगपति भारत आ कर यहां पैसा लगाएंगे, इस में संदेह है. भारत का वातावरण ऐसा है ही नहीं कि यहां कोई आसानी से उद्योग लगा सके. और मोदी सरकार के 5 महीनों के कार्यकाल में किसी को कोई राहत भी नहीं मिली है. असल में विदेश नीति तब कामयाब होती है जब आंतरिक स्थिति अनुकूल हो. भारत यदि देश में विदेशी निवेश चाहता है तो उसे पहले अपने उद्योगपतियों को राहत देनी होगी, सरकारी ढांचा ढीला करना होगा.
हमारा विदेश मंत्रालय अपनेआप में बेहद निकम्मा है. उस का ज्यादातर समय वीजा लेनेदेने या टालमटोल में लगता है. भारत के हित में फैसला लेने के बारे में सोचने की फुरसत हमारे तथाकथित राजनयिकों के पास है ही नहीं. उन लोगों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित कराने (और उस में से अपने मतलब सिद्ध करने से फुरसत ही नहीं मिलती. वे सक्षम विदेश नीति कैसे बनाएंगे? नरेंद्र मोदी अक्षम लोगों के बल पर इच्छाओं का महल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वे सफल हों, यह हर भारतीय चाहता है पर जिस खच्चर गाड़ी पर वे सवार हैं, वह उन्हें रौकेटों के युग में ले जाएगी, इस में संदेह है. कहीं ऐसा न हो कि उन की विदेश नीति कैबिनेट मंत्री निर्मला सीतारमन के सूटकेस की तरह कहीं से कहीं पहुंच जाए.