हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में शरीयत और फतवे को गैरकानूनी घोषित किया. फैसले में सुप्रीम कोर्ट के सी के प्रसाद के नेतृत्व में गठित 2 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने साफ शब्दों में कह दिया है कि धर्म की दुहाई पर किसी निर्दोष को सजा सुनाना दुनिया के किसी भी धर्म में जायज नहीं है.
मुगलकाल और ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत में शरीयत व फतवे को कितना भी महत्त्व क्यों न दिया गया हो, आजाद भारत के सांविधिक प्रावधानों में इस के लिए कोई जगह नहीं. कोई फतवा या शरीयत कानून संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकता. हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि फतवे जारी होते हैं तो हुआ करें, पर उन्हें मानना या न मानना संबंधित व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है. उन्हें मानने के लिए व्यक्ति मजबूर नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने देश के अलगअलग हिस्से में चल रही समानांतर न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बारे में कोलकाता हाईकोर्ट के एडवोकेट मास्कर वैश्य का कहना है कि केंद्र में भाजपा की सरकार रहते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक विशेष माने रखता है. इस से पहले देश में चल रही समानांतर न्यायव्यवस्था पर कभी इतने जोर का प्रहार नहीं हुआ है. यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक नहीं तो कम से कम महत्त्वपूर्ण मानने में किसी को गुरेज नहीं होगा. 2005 में दिल्ली के एक वकील विश्वलोचन मदन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करते हुए कहा था कि दारुल कजा के नाम पर काजी और मुफ्ती मुसलमानों की आजादी को फतवे से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, जोकि गैरकानूनी है. संविधान के रहते हुए समानांतर न्यायव्यवस्था किसी को नियंत्रित नहीं कर सकती.
इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन यूपीए सरकार से राय जाननी चाही थी. तब केंद्र ने हलफनामा जारी करते हुए साफ कह दिया था कि वह मुसलिम पर्सनल ला के मामले में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगी जब तक कि किसी के मौलिक अधिकार का हनन न हो. सुप्रीम कोर्ट को इसी साल फरवरी में इस याचिका पर फैसला देना था लेकिन उस ने अब तक अपना फैसला सुरक्षित रखा था. इस बीच केंद्र में भाजपा सरकार बन गई और तब 7 जुलाई को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया, जिस में सुप्रीम कोर्ट ने शरीयत की कानूनी वैधता को नकार दिया.
चूंकि यह मामला शरीयत कानून के मद्देनजर है, इसीलिए यहां शाहबानो प्रकरण का जिक्र जरूरी है. एक हद तक अल्पसंख्यक वोट की राजनीति के चलते ही शाहबानो और उस के 5 बच्चों के साथ ‘नाइंसाफी’ हुई थी. 1986 में शाहबानो प्रकरण के निबटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत उसे गुजारा भत्ता देने के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था. मुसलिम समाज ने मुसलिम संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप की बात कह कर इस फैसले का जम कर विरोध किया. तब मुसलिम समाज के प्रवक्ता सैयद शहाबुद्दीन और एम जे अकबर ने औल इंडिया पर्सनल ला बोर्ड बना कर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ देशभर में आंदोलन की धमकी दी थी. बाद में यही एम जे अकबर राजीव गांधी के प्रवक्ता और कांग्रेस के सांसद भी बने. यह और बात है कि वही एम जे अकबर पलटी मार कर आज भाजपा में हैं.
बहरहाल, अल्पसंख्यक वोट में दरार के अंदेशे से घबरा कर राजीव गांधी ने औल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड की मांगें मान लीं और संसद में कांग्रेस ने बहुमत का फायदा उठा कर ‘धर्म निरपेक्षता’ के नाम पर मुसलिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून 1986 पास कर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर रख दिया. इस में साफसाफ कहा गया है कि ‘हर वह आवेदन जो किसी तलाकशुदा महिला के द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय से विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निबटाया जाएगा, चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो.’ इस से मुसलिम पुरुषों को तो फायदा हुआ लेकिन मुसलिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गई.
समानांतर न्यायव्यवस्था
भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में समयसमय पर देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही समानांतर न्याय व्यवस्था पर सवाल उठते रहते हैं. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने तमाम ‘समानांतर न्यायव्यवस्था’ पर सवाल उठाया है. भारत में ‘फतवे’ पर केवल मुसलिम संगठनों व धर्मगुरुओं का एकाधिकार नहीं है, बल्कि हिंदू समाज में भी फतवे जारी होते रहते हैं. फिर चाहे वह पश्चिम बंगाल में वर्षों से चली आ रही सालिसी सभा हो, जिस में लड़के से दोस्ती की सजा के तौर पर सालिसी सभा ने लड़की से सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी, या हरियाणा की खाप पंचायत, जिस में प्रेम विवाह के लिए आमतौर पर मौत की सजा दी जाती है. 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायत जैसी समानांतर न्यायव्यवस्था को खारिज करते हुए समान नागरिक संहिता की बात कही थी.
देश में पंचों के फैसले से पारिवारिक संपत्ति का झगड़ा व सामाजिक विवाद सुलझाने की पुरानी परंपरा रही है. सवाल यह है कि किसी समुदाय विशेष की कोई पंचायत व्यवस्था को क्या समानांतर न्याय व्यवस्था कहा जा सकता है? क्या कोई समुदाय या संप्रदाय अपने 2 पक्षों का विवाद निबटाने का काम नहीं कर सकता?
समाजशास्त्री सेमंती घोष ऐसी व्यवस्था को समानांतर न्याय व्यवस्था मानने को तैयार नहीं. उन का कहना है कि भारत में बुजुर्गों की पंच या पंचायत की परंपरा रही है. समुदाय विशेष की पंचायत लोगों के आपसी विवाद को निबटाती रही है. वे कहती हैं कि असम व अरुणाचल प्रदेश के गांवदेहात के समाज में ऐसे विवाद निबटाने का काम ‘गांव बूढ़ों’ यानी गांव के बुजुर्ग करते हैं. इस परंपरा के तहत, ‘गांव बूढ़ों’ के न्याय पर कोई सवाल नहीं उठाता. पारिवारिक व सामाजिक विवाद व मसले यहीं निबट जाते हैं.
उन का तर्क यह है कि देश की न्याय व्यवस्था के साथ स्थानीय या सामुदायिक पंचायत पद्धति का कोई संबंध नहीं है. संविधान की नजर से सभी नागरिक समान हैं. वहीं संविधान ने धार्मिक आस्था व आचरण के साथ सामुदायिक प्रावधानों को भी स्वीकृति प्रदान की है. मुसलिम समाज में शरीयत नामक पंचायत को यही मान्यता प्राप्त है.
सेमंती का एक तर्क यह भी है कि जो दारुल कजा इमराना को अपने पति से तलाक ले कर बलात्कारी ससुर से निकाह करने को कहता है, जोकि गलत है, वही दारुल कजा मुसलिम समाज में बहुत सारे छोटेबड़े मसलों को नियमित रूप से सुलझाता भी रहा है, जिस का कोई हिसाब नहीं रखता. जाहिर है इस सचाई को मानने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि बहुत सारे मुसलिम अपने विवाद सुलझाने के लिए दारुल कजा या काजी मौलवी की शरण में जाते हैं, क्योंकि वहां दस्तावेज जमा करने की खानापूर्ति नहीं होती, न ही कोई बड़ा खर्च होता है. और मामले का निबटारा भी जल्द से जल्द हो जाता है.
पंचायत व्यवस्था की ज्यादतियां
इमराना मामले का जिक्र करते हुए वे कहती हैं कि कभीकभी सामुदायिक व स्थानीय पंचायत व्यवस्था में ज्यादतियां होती हैं, जैसा कि 2005 में इमराना के साथ हुआ था. शरीयत पंचायत ने 5 बच्चों की मां इमराना को अपने पति को बेटे के रूप में और बलात्कारी ससुर को पति के रूप में स्वीकारने का फैसला सुनाया था. यह भारतीय समाज का संकट है कि जहां हरेक समाज में कुछ गिनेचुने लोग धर्म व समाज के ठेकेदार बन कर अपना फैसला लोगों पर थोपना चाहते हैं. यह गलत है.
बहरहाल, दारुल कजा के फैसले से न तो इमराना संतुष्ट थी और न ही उस का शौहर. शरीयत पंचायत के फैसले को इमराना और उस के पति नूर इलाही ने नहीं माना. आज भी वे पतिपत्नी के रूप में साथ हैं. सेमंती घोष का कहना है कि ऐसी पंचायत की वैधताअवैधता के पचड़े में न पड़ कर आज यह देखने की जरूरत है कि समाज के बीच इन्हें जिंदा रखते हुए इन बुराइयों को हम किस तरह दूर करें?
धर्म दखल क्यों देता है पारिवारिक मामलों में
जीवन के हर हिस्से में धर्म की गहरी घुसपैठ क्यों है? व्यक्ति जन्म से ले कर मरने तक धर्म की कैद में बंद क्यों हो जाता है? धर्र्म ने परिवार, समाज और यहां तक कि देश व शासन के संचालन तक के अपने नियमकायदे क्यों बना रखे हैं? हाल यह है कि उस के बनाए नियमों के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. व्यक्ति सुबह उठता है, ब्रह्म मुहूर्त में धर्म को चलाने वालों की मरजी चलने लगती है. दिन भर की सारी दिनचर्या वह धर्म के कहे अनुसार यंत्रवत करता चलता है. घर से बाहर निकलता है शुभ समय देख कर. ब्याहशादी खुद के दिमाग से नहीं, धर्म के संचालकों से पूछ कर करता है.
नौकरी, व्यापार के बारे में स्वयं की योग्यता, अनुभव, नफानुकसान, बाजार को देखने जैसी तमाम तरह की छानबीन कर के नहीं, ईश्वर ने जो पहले से तय कर रखा है, उस के हिसाब से करेगा और यह बात उसे बताएगा कौन? वह ईश्वर के किसी बिचौलिए के पास यह सब पूछने जाएगा.
परिवार में दुख है, सुखशांति नहीं है, इस का उपाय व्यक्ति धर्मस्थलों में तलाशने जाएगा क्योंकि उसे बताया गया है कि दुखों से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर, गुरु की शरण में आओ. सुखदुख, लाभहानि, मानअपमान सब ऊपर वाले के हाथ में है. यह सब कर्मों का फल है. पूर्व जन्म की देन है इसलिए अब धर्म के दिखाए मार्ग पर चलो. धर्म ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है.
बालक के जन्मते ही धर्म उसे हथिया लेता है. उस के लिए क्याक्या संस्कार, किस तरह करने चाहिए क्या मातापिता जानते हैं? इस में भी धर्म का निर्देश लेना होता है. विवाह में धर्म की प्रधानता है. विवाह के बाद सुखी जीवन के लिए किस तरह पूजापाठ, हवनयज्ञ, कीर्तन, जागरण, मंदिरदेवता, तीर्थयात्राएं, दानपुण्य, उपवास करते रहना चाहिए, इन सब में भी धर्म का दखल है. हर त्योहार की उत्पत्ति किसी देवीदेवता से जुड़ी कथा से संबद्घ कर दी गई है. लिहाजा, त्योहार के दिन किसी न किसी देवता की पूजाअर्चना जरूर की जाएगी. इस के लिए पूजा की तिथि, समय, विधिविधान पूछना पड़ेगा जो धर्मस्थल में बैठा कोई ज्ञानी ही बता सकेगा.
पढ़ाईलिखाई पर धर्र्म अपना शिकंजा कायम रखना चाहता है. हमारे यहां धर्म द्वारा बनाई गई सामाजिक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है जिस में समाज को अलगअलग वर्णों में बांट कर रखा गया है. इस व्यवस्था में निचले वर्गों व स्त्रियों के लिए शिक्षा की साफतौर पर मनाही है. नित्य पठन वाली धर्म की किताबों में यह सब लिखा हुआ है.
हिंदू धर्र्म में ही नहीं, हर धर्म ने निचले वर्गों व स्त्रियों में शिक्षा की रोशनी का प्रवेश वर्जित किए रखा. मुसलिम देशों में कट्टर संगठन आज जो आतंक फैलाए हुए हैं वह धर्म के नियमकायदों को थोपे जाने के लिए ही है. इराक, सीरिया के एक विशाल क्षेत्र समेत बहुचर्चित इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस मुसलिम देशों की जनता को कट्टर धर्र्म के अनुसार चलाना चाहता है. इराक और सीरिया के मुसलिमों में सुन्नी समुदाय का यह सक्रिय जिहादी ग्रुप है. इन दोनों देशों के साथसाथ विश्व के अधिकांश मुसलिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना इस का घोषित लक्ष्य है यानी यह इसलामी शासन चाहता है. अलकायदा ने इस संगठन का शुरू में समर्थन किया था पर बाद में यह अलकायदा से अलग हो गया लेकिन दोनों का मकसद मुसलमानों को मजहब से हांकना है.
ये संगठन इसलिए जल्दी ही खूब फलनेफूलने लगते हैं क्योंकि धर्म के व्यापार के मुरीद तो लोग बचपन से ही बन जाते हैं और धर्म के नाम पर पैसों की बौछार होने लगती है. 2013 में बना यह संगठन इसलामी दुनिया का सब से अमीर आतंकी संगठन है. जून में इस ने अपने मुखिया को विश्व के सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया था. इस के 10 से 30 हजार तक लड़ाकू हैं.
अफगानिस्तान में तालिबान, नाइजीरिया में बोको हरम वहां के शासन को इसलामी कानून पर आधारित शासन से बदलना चाहते हैं. ये भी आधुनिक शिक्षा और महिलाओं की आजादी के विरोधी हैं और विरोध में उत्पात मचाए हुए हैं. पिछले दिनों अप्रैल माह में बोको हरम ने करीब 300 स्कूली लड़कियों को अगवा कर लिया था. इन लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया गया. इन का यौन उत्पीड़न किया जा रहा है. हालांकि कुछ लड़कियां भागने में कामयाब रहीं पर चरमपंथी मजहब का खौफ लोगों में कम नहीं हो रहा है. सेना और आतंकियों की मुठभेड़ से गांव और शहर के लोग भयभीत हैं और वे पलायन कर रहे हैं.
एक धर्र्म दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाता. बोको हरम भी ईसाइयों का धर्र्म बदलवा रहा है. उन्हें जबरन मुसलिम बना रहा है. ऐसा न करने पर उन्हें मार रहा है. दावा किया जाता है कि धर्म तो प्रेम, शांति, भाईचारे की सीख देता है पर असलियत में वह उलटा चलता है. शादियां, वह चाहे किसी भी धर्र्म में हों, धर्म की उपस्थिति अनिवार्य है पर प्रेम विवाह करने वालों का यह दुश्मन बन जाता है. धर्म के रखवाले वैलेंटाइन डे का विरोध करते हैं. इसलाम तो प्रेम करने वालों को सार्वजनिक सजा, यहां तक कि मौत का दंड देने से भी नहीं चूकता.
पतिपत्नी के बीच रिश्तों में तनाव घोलने में मजहब की बड़ी भूमिका है. 3 तलाक का विधान धर्म की ही देन है. घरेलू, पारिवारिक मामलों में बातबात पर फतवों का रिवाज धर्म का चलाया हुआ है ताकि उस का दखल परिवार में बना रहे. यानी धर्र्म हर जगह पारिवारिक मामलों में दखल देता रहा है. वह सामाजिक भेदभाव, ऊंचनीच, लैंगिक असमानता का सब से बड़ा मददगार है. ऐसा कर के वह समाज, परिवार को बांटता रहा है.
असल में धर्र्म व्यक्ति की निजी जिंदगी और परिवार में दखल इसलिए देता है क्योंकि इस से उसे फायदा मिलता है. जन्म, विवाह, मरण और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों में पंडेपुरोहितों ने अपने लिए दानदक्षिणा का इंतजाम कर रखा है. हर धर्म महज कारोबार का एक जरिया है. धर्र्म में पैसा ही पैसा है. यह धन और ऐश का माध्यम है.