कहने को इसे महज एक इत्तफाक कहा जा सकता है कि अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का यान मार्स ऐटमौस्फियर ऐंड वोलाटाइन एवोल्यूशन (मावेन) और भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो का मार्स और्बिटर मिशन लगभग साथसाथ मंगल तक पहुंचे लेकिन इन की तुलना बताती है कि कई चीजें इस कोरे इत्तफाक से परे हैं, जैसे 4026 करोड़ रुपए के खर्च से मंगल तक पहुंचे मावेन के मुकाबले करीब 10 गुना कम लागत (450 करोड़ रुपए) वाले मार्स और्बिटर का पहले ही प्रयास में सफल होना कोई संयोग नहीं है. इस के पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति और ठोस वैज्ञानिक इरादों के अलावा व्यापार की सोचीसमझी रणनीति काम कर रही है जो भारत जैसे एक गरीब देश को किफायत में अंतरिक्ष मिशन चला कर स्पेस से कमाई के मौके दिला रही है.
मार्स और्बिटर मिशन का मंगल की कक्षा में कामयाबी के साथ पहुंचना साबित कर रहा है कि दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ कोई देश अपने पड़ोसियों को पीछे छोड़ सकता है और ग्लोब पर बड़ी ताकतों के मुकाबले में आ सकता है. 24 सितंबर को जब भारतीय मंगलयान ने मंगल की कक्षा में प्रवेश किया तो उस वक्त वह वहां अकेला नहीं था. 22 सितंबर को नासा के मावेन की पहुंच से कई और यान या तो मंगल की परिक्रमा कर रहे हैं या फिर मार्स रोवर इस लाल ग्रह की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं.
फिलहाल 6 और्बिटर इस की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं और नासा के 2 रोवर-स्पिरिट और अपौरर्च्युनिटी इस की सतह को खंगाल रहे हैं. फिलहाल भारतीय मंगलयान के अलावा जो मिशन मंगल की छानबीन में संलग्न हैं उन में से एक यूरोपियन स्पेस एजेंसी यानी ईएसए के मार्स एक्सप्रैस (2003) को छोड़ कर अन्य सभी नासा (अमेरिका) के हैं. इस बीच चीन और जापान भी मंगल पर अपने यान भेजने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन वे नाकाम रहे. सब से ज्यादा उल्लेखनीय यही है कि भारत के सिवा कोई भी देश अपने पहले ही प्रयास में मंगल तक अपना यान पहुंचाने में सफल नहीं रहा.
मामला सिर्फ मंगल तक यान पहुंचाना भर नहीं है बल्कि इस का उद्देश्य मंगल के बारे में कई ऐसे रहस्यों का खुलासा करना है जिन्हें दुनिया जानना चाहती है. खासतौर से मावेन की तरह, जिस का प्रमुख उद्देश्य मंगल के वातावरण के अध्ययन के साथ वहां की जलवायु में बदलाव की पड़ताल करना है. मंगलयान में कई ऐसे उपकरण लगे हैं जो मंगल की परिक्रमा करते वक्त कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं जुटाएंगे, जिन के आकलन से मंगल के बारे में कई नई जानकारियां मिल सकती हैं, जैसे मंगलयान पर लगा लिमन अल्फा फोटोमीटर यानी एलएपी मंगल के ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन कणों की मौजूदगी का पता लगाएगा. इस उपकरण में शक्तिशाली लैंस लगे हैं जो हाइड्रोजन कणों की खोज कर सकते हैं.
यान में मीथेन सैंसर फौर मार्स यानी एमएसएम भी फिट किया गया है जो मंगल के वातावरण में मीथेन गैस की मौजूदगी की टोह लेगा. दावा किया जा रहा है कि यदि मंगल पर मीथेन की जरा सी मात्रा भी मौजूद रही तो यह उसे खोज लेगा. इसी तरह मंगल के वायुमंडल की संरचना यानी वहां के वातावरण में क्याक्या है, इस की जांच के लिए मंगलयान में मार्स एक्सोफेरिक कंपोजिशन ऐक्सोप्लोरर यानी एमईएनसीए स्थापित किया गया है. लाल ग्रह के जमीनी हालात का जायजा लेने के लिए मंगलयान में मार्स कलरकैमरा यानी एमसीसी भी लगाया गया है जो 50 किलोमीटर के दायरे की फोटो खींच कर उस की सतह का विश्लेषण कर सकता है. मंगलयान की मिट्टी में मौजूद खनिजों की पड़ताल के लिए यान में टीआईआर इमेजिंग स्पैक्टोमीटर भी लगाया गया है जिस से निकलने वाली किरणें वहां की जमीन की गहराई तक जा कर यह पता लगाएंगी कि वहां कौन से खनिज भंडार हैं.
तकनीकी रूप से ये सारे वैज्ञानिक फायदे हैं लेकिन जिन्हें हासिल कर लेने के दूरगामी लाभ हो सकते हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2008 में भारत के चंद्रयान ने कामयाबी की नई इबारत लिखी थी, आज मंगलयान की आरंभिक सफलता के बाद अहम सवाल है कि क्या इस से देश को और आम जनता को कोई प्रत्यक्ष लाभ होगा या फिर जनता के खूनपसीने की कमाई में से टैक्स के रूप में लिए गए 450 करोड़ रुपयों को सिर्फ देश की प्रतिष्ठा के लिए कुरबान कर दिया गया है? एक गरीब और विकासशील देश के लिए ये सवाल जायज हैं और इन के हल ढूंढ़ने जरूरी हैं.
मंगल मिशन से पहले ऐसे ही सवालों से इसरो को चंद्रयान-1 के संबंध में भी दोचार होना पड़ा था. इस के आलोचक सिर्फ विदेशी ही नहीं थे, बल्कि भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों की उपयोगिता को संदिग्ध बताने वालों में कई ऐसे लोग भी रहे हैं जो देश के निर्माण कार्य से जुड़ रहे हैं. ऐसे ही लोगों में से एक थे आईआईटी में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभाग के चेयरमैन एचएच मुकुंद, जिन्होंने चंद्र मिशन के बारे में कहा था कि जिस चंद्रमा को साढ़े 3 दशक पहले खोजा जा चुका हो, उस की फिर से खोजबीन मूर्खतापूर्ण है. इस से देश को तकनीकी तौर पर कुछ हासिल नहीं होगा.
उन्होंने दावा किया था कि पूर्व के अभियानों से चंद्रमा की 97 फीसदी सतह का मापन हो चुका है, लिहाजा भारत के मूनमिशन की कोई उपयोगिता नहीं है. ऐसी ही आलोचना कई अन्य वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों व समाजसेवियों ने भी की थी क्योंकि उन के मत में एक गरीब देश को करोड़ों रुपए खर्च कर के ऐसे निरर्थक अंतरिक्ष अभियान पर नहीं जाना चाहिए, जहां से कुछ भी नया हासिल होने की उम्मीद न हो.
लेकिन चंद्रमिशन की कामयाबी ने इन सारे सवालों को बेबुनियाद साबित किया था. चंद्रयान-1 न सिर्फ तकनीकी तौर पर भारत को काफी कुछ दे कर गया, बल्कि उस के जरिए चंद्रमा के नए तथ्य भी सामने उद्घटित हुए. चंद्रयान-1 से मिले आंकड़ों व चित्रों के विश्लेषण से वैज्ञानिकों को चंद्रमा के जन्म और बनावट से जुड़ी एक परिकल्पना को नया आधार मिला था.
पहले यह माना जाता था कि हमारा सौरमंडल बनना शुरू होने के लगभग 7 करोड़ वर्ष बाद ऊर्जा की बड़ी भारी मात्रा एक पिंड के रूप में जमा होनी शुरू हुई जो उस वक्त पिघले हुए लावे के समुद्र जैसी थी. यानी उस समय चंद्रमा द्रवीभूत (मौलेटन) रूप में था. पर जैसेजैसे चंद्रमा गरम से ठंडा हुआ, उस की ऊपरी परत में यह लावा चट्टानों के रूप में (एनौर्थाइट) जमा हो गया. ये चट्टानें चंद्रमा के ऊंचाई वाले इलाकों की जमीन की ऊपरी परत में मिलती हैं.
इसी तरह चंद्रयान-1 के मून मिनरोलौजी मैपर ने जो आंकड़े भेजे, उन से इस मैग्मा ओसन परिकल्पना की पुष्टि हुई. उस के भेजे चित्रों से एनौर्थाइट की मौजूदगी साबित हुई. यह बेहद महत्त्वपूर्ण जानकारी थी क्योंकि इस का फायदा भविष्य में चंद्रमा पर खनिजों की व्यापक खोजबीन में मिल सकेगा. चंद्रयान-1 द्वारा जुटाए गए नए तथ्यों, आंकड़ों व फोटो से चंद्रमा पर पानी की उपस्थिति की अवधारणा को और बल मिला था.
चंद्रयान की तरह ही मंगलयान के औचित्य पर एक बड़ा सवाल पिछले साल खुद इसरो के पूर्व चेयरमैन जी माधवन नायर ने यह कहते हुए उठाया था कि भारत को ऐसे महंगे मिशन नहीं चलाने चाहिए जिन का मकसद अपना नाम चमकाने के सिवा कुछ नहीं है.
माधवन नायर और उन्हीं की तरह कई अन्य लोगों की आशंकाओं का जवाब इसरो के वर्तमान चेयरमैन के राधाकृष्णन ने दिया था और कहा था कि इसरो का उद्देश्य मार्स मिशन के जरिए अंतरिक्ष में कहीं और जीवन की संभावना की तलाश करने के साथसाथ अंतरिक्ष से कमाई करना है. असल में भारत अपने अंतरिक्ष अभियानों से उस ग्लोबल स्पेस मार्केट में और मजबूत हैसियत बनाना चाहता है, जहां उस ने मून मिशन और सैटेलाइट लौंचिंग की बदौलत पहले से ही काफी बढ़त बना रखी है. ध्यान रखना होगा कि अंतरिक्ष अभियानों में तकरीबन आत्मनिर्भर हो चुके इसरो की योजना असल में ग्लोबल स्पेस इंडस्ट्री से कमाई करने की है.
वर्ष 1975 में रूसी रौकेट के जरिए आर्यभट्ट उपग्रह के प्रक्षेपण के अपने अंतरिक्ष अभियान शुरू करने वाले भारत ने अब तक 100 से ज्यादा उपग्रहों और 37 रौकेटों का निर्माण किया है. भारत के संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी एएसएलवी और पृथ्वी की कक्षा में 900 किलोमीटर ऊपर स्थापित करने वाले ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी पीएसएलवी की ग्लोबल स्पेस मार्केट में भारी मांग है क्योंकि इन से उपग्रहों का प्रक्षेपण अंतरिक्ष अभियान चला रहे दूसरे देशों के मुकाबले सस्ता पड़ता है और इन की सफलता की दर भी उन से ज्यादा है.
यह भी उल्लेखनीय है कि इसरो ने अपने स्पेस मिशनों पर जितना खर्च किया है उस से कहीं अधिक देश को दिया है. इतने वर्षों में भारत ने ऐसे अभियानों पर करीब 12 अरब डौलर खर्च किए हैं और तमाम सफलताएं अपने खाते में दर्ज की हैं जबकि अमेरिकी स्पेस एजेंसी-नासा का सालाना बजट ही 17 अरब डौलर है. इसी से भारतीय स्पेस मिशनों की मितव्ययिता और सफलता जाहिर हो जाती है.
सैटेलाइट लौंचिंग का बाजार
प्रतिस्पर्धी कीमत पर सैटेलाइट का सफल प्रक्षेपण ही वह कारण है जिस ने इसरो के पीएसएलवी को दुनिया के पसंदीदा रौकेटों में शामिल कराया है और आज ज्यादा से ज्यादा देश अपने सैटेलाइट इसरो की मदद से स्पेस में भेजने के इच्छुक हैं. हालांकि इसरो या एंट्रिक्स द्वारा विदेशी उपग्रहों की लौंचिंग की कीमत का कभी सरकार ने खुलासा नहीं किया लेकिन माना जाता है कि आरंभ में यह शुल्क विदेशी स्पेस एजेंसियों के मुकाबले 25-30 फीसदी कम होता था. अनुमान है कि इसरो एक उपग्रह को लौंच करने के लिए अमूमन 25 हजार डौलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से शुल्क लेता रहा है, लेकिन पीएसएलवी रौकेट की कामयाबी की दर ने उसे इस स्थिति में पहुंचा दिया है कि अब वह इस के लिए लगभग वही कीमत वसूल कर सके जो यूरोपीय स्पेस एजेंसी या फ्रांसीसी स्पेस एजेंसी वसूल करती हैं.
सैटेलाइट लौंचिंग का वैश्विक बाजार अब काफी तेजी से फैल रहा है. पूरी दुनिया में मौसम की भविष्यवाणी, दूरसंचार और टैलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. चूंकि ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं इसलिए ऐसे उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में काफी बढ़ोतरी हो रही है. कहने को तो आज यूरोपीय या फ्रांसीसी स्पेस एजेंसी के अलावा चीन, रूस और जापान आदि देशों के रौकेट भी इस के लिए उपलब्ध हैं लेकिन बढ़ती मांग, प्रतिस्पर्धी कीमतों और प्रक्षेपण की सफलता की दर आदि मानकों के आधार पर इसरो के रौकेट काफी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके हैं.
कोई संदेह नहीं कि अपने मून व मार्स मिशन के अलावा पीएसएलवी जैसे रौकेट के बलबूते आज इसरो और भारत जिस मुकाम पर हैं, वह गौरव का विषय है पर साथ ही यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि उसे इस जगह पर पहुंचने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. असल में, विकसित देशों को हमेशा यह आशंका सताती रही है कि भारत यदि अंतरिक्ष क्षेत्र में माहिर हो गया तो न केवल उन का अंतरिक्ष में उपग्रहों की दुनिया से एकाधिकार छिन जाएगा, बल्कि मिसाइलों की दुनिया में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच सकता है कि बड़ी ताकतों को चुनौती देने लगे.
बढ़ेगी कमाई, सुधरेगी इकोनौमी
एक दौर था जब भारत जैसे गरीब देश के अंतरिक्ष अभियानों की घर के भीतर और बाहर यह कह कर आलोचना की जाती रही है कि हम अपनी गरीब जनता की भूख, शिक्षा व स्वास्थ्य की फिक्र छोड़ कर आखिर क्यों चंद्रमा और मंगल की खोज जैसे व्यर्थ के मिशनों में लगे हैं, जिन से कुछ हासिल नहीं होना है. इन अभियानों में भारत की संलिप्तता का अतीत में पश्चिमी देशों ने भी खूब मजाक उड़ाया है, पर आज वही देश अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारतीय रौकेटों का सहारा ले रहे हैं. इस की 2 प्रमुख वजहें हैं. पहली, भारतीय रौकेटों की सफलता की दर दुनिया के किसी भी अन्य प्रतिष्ठित रौकेट की तुलना में अधिक है और दूसरी, इन से उपग्रहों को प्रक्षेपित करने का खर्च काफी कम है.
जहां तक ध्रुवीय प्रक्षेपण यान पीएसएलवी (जिस से पिछले साल 5 नवंबर, 2013 को मंगलयान प्रक्षेपित किया गया था) की बात है तो इस के जरिए मेटसेट, चंद्रयान और मंगलयान सरीखे 1.6 टन वजन के उपग्रहों को 650 किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष की कक्षा में भेज कर इसरो वही प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका है जो यूरोपीय स्पेस एजेंसी या अमेरिकी स्पेस एजेंसी को हासिल है.
इसी साल 30 जून को श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी सी-23 के जरिए एकसाथ 5 विदेशी उपग्रहों को उन की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर के इसरो ने साबित किया है कि अब वह खरबों डौलर के बिजनैस वाली ग्लोबल स्पेस मार्केट का एक अहम खिलाड़ी है और अब उस की अनदेखी नहीं हो सकती. पीएसएलवी ने जिन 5 उपग्रहों को उन की कक्षा में भेजा था, उन में से पहला फ्रांस का 714 किलोग्राम वजनी स्पौट-7 था. इस के अलावा 4 सैटेलाइट नैनो श्रेणी के थे, जिन में से एक जरमनी का एआईएसएटी (14 किलोग्राम), 2 कनाडा के (कैन एक्स-4 व कैन एक्स-5, दोनों 15-15 किलोग्राम) और 1 सिंगापुर (वेलौक्स-1, 7 किलोग्राम) का था.
एक भारतीय रौकेट से विदेशी उपग्रहों की सफल लौंचिंग का यह पहला मौका नहीं था. इसरो ने 15 साल पहले 26 मई, 1999 को पीएसएलवी सी-2 से भारतीय उपग्रह ओशन सैट-2 के साथ कोरियाई उपग्रह किट सैट-3 और जरमनी के उपग्रह टब सैट को सफलतापूर्वक उन की कक्षा में स्थापित कर के ग्लोबल स्पेस मार्केट में कामयाब दस्तक दे दी थी. पर इस उड़ान में चूंकि एक भारतीय उपग्रह भी शामिल था, इसलिए इसे इसरो की पहली कामयाब व्यावसायिक उड़ान नहीं माना जाता है. इस के बजाय पीएसएलवी सी-10 के 21 जनवरी, 2008 के प्रक्षेपण को इस मानक पर सफल करार दिया जाता है क्योंकि उस से भेजा गया एकमात्र सैटेलाइट (इसराईल का पोलरिस) विदेशी था.
बहरहाल, ताजा स्थिति यह है कि पीएसएलवी से अब तक स्पेस में भेजे गए 67 उपग्रहों में से 40 सैटेलाइट विदेशी (19 मुल्कों के) हैं और इन के प्रक्षेपण के जरिए इसरो की सहयोगी कंपनी अंतरिक्ष (एंट्रिक्स) कौर्पोरेशन कंपनी लिमिटेड एक लाभदायक प्रतिष्ठान में बदल चुकी है. उल्लेखनीय है कि आज दुनिया में पीएसएलवी को टक्कर देने वाला दूसरा रौकेट (वेगा) सिर्फ यूरोपीय स्पेस एजेंसी के पास है, लेकिन उस से उपग्रहों की लौंचिंग इसरो के मुकाबले कई गुना अधिक है.
मंगल मिशन में अहम कदम
1. 14 जुलाई, 1965 को मरीनर-4 अंतरिक्ष यान मंगल ग्रह तक पहुंचा. इस ने किसी दूसरे ग्रह की पहली तसवीरें भेजीं.
2. मरीनर-9 को 30 मई, 1971 को लौंच किया गया था, यह मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंचा और उस का पहला कृत्रिम उपग्रह बन गया.
3. मार्स-3 सोवियत संघ का अंतरिक्ष यान था. यह मंगल ग्रह पर मार्स-2 के 5 दिन बाद पहुंचा था.
4. नासा के साल 1975 के वाइकिंग मिशन में वाइकिंग-1 और वाइकिंग-2 अंतरिक्ष यान थे.
5. वर्ष 1996 में मंगल पर भेजे गए मार्स ग्लोबल सर्वेयर ने मंगल की सतह पर किसी और अंतरिक्ष यान की तुलना में ज्यादा वक्त तक काम किया.
6. अप्रैल, 2001 में लौंच ओडिसी मंगल की सतह पर सब से ज्यादा समय तक काम करने वाले अंतरिक्ष यानों में से एक है.
7. जून 2003 में मंगल पर भेजा गया मार्स ऐक्सप्रैस किसी दूसरे ग्रह के लिए यूरोप का पहला अंतरिक्ष यान था.
8. मार्स रिकंजा मिशन मंगल पर पानी के इतिहास के बारे में जानकारी जुटा रहा है.
9. मंगल की सतह पर मौजूद क्यूरियोसिटी साल 2011 के आखिर में लौंच हुआ था.
क्या होगा फायदा
- ग्रह की सतह और वहां मौजूद खनिजों का पता लग सकेगा.
- मंगल के वातावरण के बारे में शोध किया जा सकेगा.
- पानी और मीथेन की मौजूदगी की संभावनाएं तलाशी जाएंगी.
- मंगल ग्रह पर भेजा जाने वाला मानव मिशन आसान होगा.
मंगल मिशन की सफलता के सूत्रधार
- के राधाकृष्णन : ये इसरो के चेयरमैन और स्पेस डिपार्टमैंट के सैक्रेटरी के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने 1971 में इसरो जौइन किया था और चंद्रयान मिशन में भी इन का अहम योगदान था. इसरो की हर एक ऐक्विटी की जिम्मेदारी इन्हीं के पास है.
- एम अन्नादुरई : ये इस मिशन के प्रोग्राम के डायरैक्टर के पद पर कार्यरत हैं. इन्होंने इसरो 1982 में जौइन किया था और कई प्रोजैक्टों का नेतृत्व किया है. इन के पास बजट मैनेजमैंट, शैड्यूल और संसाधनों की जिम्मेदारी है. ये चंद्रयान-1 के प्रोजैक्ट डायरैक्टर रहे हैं.
- एस रामाकृष्णन : ये रामाकृष्णन विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर के डायरैक्टर हैं और लौंच अथोराइजेशन बोर्ड के सदस्य हैं. इन्होंने 1972 में इसरो जौइन किया था और पीएसएलवी को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
- एस के शिवकुमार : ये इसरो सैटेलाइट सैंटर के डायरैक्टर हैं. इन्होंने 1976 में इसरो जौइन किया था और इन का कई भारतीय सैटेलाइट मिशनों में योगदान रहा है. मिशन के लिए सैटेलाइट संबंधित तकनीक विकसित करने की जिम्मेदारी थी.
- पी कुन्हीकृष्णन : कुन्हीकृष्णन पीएसएलवी के 8 सफल अभियानों में मिशन डायरैक्टर रह चुके हैं. मंगलयान मिशन पर इन के ऊपर रौकेट और सैटेलाइट को निर्धारित जगह पर स्थापित करने की जिम्मेदारी थी.
- ए एस किरण कुमार : सैटेलाइट ऐप्लीकेशन सैंटर के निदेशक, ए एस किरण कुमार ने मंगलयान में डिजाइनिंग और 3 और्बिटर पेलोड को विकसित करने का काम किया. इन के सामने सब से बड़ी चुनौती पेलोड का आकार छोटा रखना था.
- वी कोटेश्वर राव : ये इसरो के साइंटिफिक सैके्रेटरी हैं. वे सभी अंतरिक्ष उपकरणों को लगातार चेक करते रहे. साथ ही ये भी सुनिश्चित करते रहे कि सभी सिस्टम ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं.
- एस अरुणन : मंगल मिशन में स्पेसक्राफ्ट तैयार करने के लिए टीम बनाने की जिम्मेदारी एस अरुणन को दी गई थी. 50 साल के एस अरुणन मार्स और्बिटर मिशन के प्रोजैक्ट डायरैक्टर हैं.
- चंद्रादाथन : लिक्विड प्रोपल्सन सिस्टम के डायरैक्टर चंद्रादाथन ने एसएलवी-3 प्रोजैक्ट पर डिजाइनिंग फेज से ले कर आखिर तक काम किया. उन का फोकस एसएलवी-3 के लिए सौलिड प्रोपलैंट फौर्मुलेशन के विकास पर था.