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क्या करें

सुबह 9 बजे तैयार हो कर दफ्तर के लिए निकलने ही वाला था कि पत्नी, जो दूसरे शहर में रहती है, का फोन मेरे मोबाइल पर आया. सुन कर मुझे ऐसे लगा कि पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो. सारा दिन यही सोचता रहा कि आखिर क्या हो गया है आज की युवा पीढ़ी को. न सिर्फ पढ़ेलिखे और शहरों में रहने वाले लड़केलड़कियों के बीच ऐसा कुछ होता है, हमारे गांव भी इस तरह की संस्कृति से अछूते नहीं रह गए हैं. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इस का जीताजागता उदाहरण मुझे अपनी ही रिश्तेदारी में देखने को मिला.

दरअसल, हमारी पत्नी गांवों से संबंध रखती है. उस की दीदी की बेटी ने 12वीं पास कर के बीए प्रथम वर्ष में निकट के दूसरे गांव में दाखिला लिया था. एक दिन कालेज से फोन आया कि मातापिता आ कर अपनी बेटी को वापस घर ले जाएं. जब पत्नी की दीदी और जीजाजी वहां पहुंचे तो महिला प्रोफैसर ने बताया कि बच्ची 5 माह के गर्भ से है और तबीयत बिगड़ जाने की स्थिति में कालेज में ही गश खा कर गिर गई थी. ऐसे में कालेज प्रशासन के लिए उसे रखना ठीक नहीं था.

सब से शर्मनाक बात यह थी कि उस के गर्भ में जो 5 माह का बच्चा पल रहा था उस का जिम्मेदार उस की बूआ का लड़का था जोकि मां के अकस्मात गुजर जाने के बाद से इन के पड़ोस में ही रहने लगा था अपने पिता के साथ. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि एक ओर खाई तो दूसरी तरफ कुआं. घिनौनी हरकत करने वाला बाहर का व्यक्ति होता तो उसे पुलिस के हवाले किया जा सकता था या उस पर दबाव डाल कर बच्ची से शादी करवाई जा सकती थी.

एक और गंभीर बात, डाक्टर के अनुसार उस का गर्भ गिराया नहीं जा सकता था क्योंकि उस से उस की जान को खतरा हो सकता था. इधर, हिंदू समाज ऐसे रिश्ते को शादी के बंधन में बंधने से रोकता है. इन दोनों ने जो भी कुछ किया, चाहे वह अनजाने में किया हो या जानबूझ कर, किसी भी हालत में समाज को स्वीकार्य नहीं होगा. हम अपनेआप को कितना भी तरक्कीपूर्ण समाज कह लें, कई परिस्थितियों में हम अपनेआप को असहाय ही पाते हैं.

संजय कुमार, बेंगलुरु (कर्नाटक)

अच्छे दिन आने वाले हैं

लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली में लगे होर्डिंग यानी सड़क किनारे लगे विज्ञापनपट्ट पर ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाक्य के साथ श्रीमान नरेंद्र मोदीजी का हंसताखिलखिलाता हुआ चेहरा देख कर मेरा माथा ठनका और उसी समय मुझे लगा था कि इस होर्डिंग पर लिखने वाले पेंटर ने कुछ गड़बड़ी कर दी है या फिर कहीं कुछ वाक्य संरचना में त्रुटि व प्रूफ की कमी रह गई है. सच कहूं तो आज नहीं, मेरी नजर में तो उसी वक्त आ गया था कि यह वाक्य कुछ इस प्रकार लिखा जाना चाहिए था, ‘हमारे अच्छे दिन आने वाले हैं, नई सरकार’.जनाब, आप को पता ही है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों और निजी अस्पतालों पर अनावश्यक मरीजों की शारीरिक जांच करा कर उन की जेब से पैसा लूटने का आरोप लगा हुआ है. उन पर लगाया गया यह आरोप जायज है या नहीं, यह तो मैं सिद्ध नहीं कर सकता परंतु इतना जरूर बताना चाहूंगा कि कई दिनों से पेट में दर्द के चलते मेरे मन में परिवार के बुरे दिन आने के विचार आ रहे थे, इसलिए मैं अपना इलाज करवा कर यथाशीघ्र कुशल हो जाना चाहता था. तो सीधे ही जा पहुंचा अपने घर के नजदीक वाले एक प्राइवेट अस्पताल में.

डाक्टर के पास मेरा नंबर आते ही उस ने पूछा, ‘खाली पेट आए हो न?’ मैं पेट के रोग का शिकार था, ऊपर से बुद्धिजीवी इसलिए पहले ही सबकुछ सोचसमझ कर खाली पेट ही अस्पताल गया था. मैं ने तुरंत डाक्टर साहब से कहा, ‘हां, एकदम खाली पेट आया हूं. आप को जो भी जांच करवानी हो, आज ही करवा लीजिए ताकि मेरा समय भी बचे और मेरा इलाज भी जल्दी से जल्दी शुरू हो सके.’

पेट की एंडोस्कोपी के साथसाथ, होल एबडौमिनल अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन, एमआरआई, ईसीजी, ईकोकार्डियोग्राम, शुगर, यूरिन जांच सहित ब्लड की अन्य तमाम जांचें जब हो गईं तो मैं ने सोचा कि इन लैब कर्मियों ने हमारे शरीर से काफी खून चूस लिया है, इसलिए चलो अब यहां की कैंटीन में जा कर कुछ खापी लिया जाए और अपने शरीर को दुरुस्त किया जाए. जो होगा, सो देखा जाएगा. यदि मरेंगे भी तो कम से कम खापी कर ही सही. फिर पत्नी महोदया साथ थीं, इसलिए ज्यादा कुछ न ले सका. 350 रुपए का एक पनीर मसाला डोसा ले कर दोनों ने आधाआधा खाया. शादी के 25 वर्ष बाद हनीमून के समय एक ही थाली में एकसाथ खाया हुआ राजस्थान के उदयपुर शहर की झील वाले रैस्टोरैंट का दालबाटी चूरमा याद आ गया क्योंकि हनीमून के बाद तो शायद ही कभी हम दोनों ने एक ही थाली में एकसाथ खाया हो. उस समय अनजाना प्रेम था और इस समय पक्की मजबूरी.

खैर जनाब, पनीर मसाला डोसा खाने के बाद हमें तलब लगी एक कप चाय पीने की. सो हम ने आव देखा न ताव, सीधे काउंटर पर जा कर 100 रुपए का नोट थमाते हुए 2 कप चाय का और्डर दे डाला.

काउंटर पर बैठे हुए व्यक्ति ने पहले तो अपने पास खड़े हुए व्यक्ति से कहा, ‘साहब को जल्दी से 2 कप गरमागरम चाय दो.’ उस ने तेजी दिखाई और एक ट्रे में 2 कप चाय रख कर हमें थमा दी. तब तक काउंटर पर बैठा व्यक्ति कंप्यूटरीकृत मशीनसे हमारा बिल निकाल चुका था और बोला, ‘सर, यह रहा आप का बिल, आप ने मुझे 100 रुपए दिए हैं, कृपया 100 रुपए और दे दीजिए.’

मैं ने बिल पर अपनी दृष्टि गड़ाई तो देखा कि वहां पर 2 चाय के लिए पूरे 200 रुपए लिखे हुए थे. देख कर चाय पीने का मजा तो काफूर हो गया. मन ही मन गुस्सा आने लगा कि ये लोग सरेआम लूट रहे हैं. इन के तो अच्छे दिन आ गए, मगर हम मरीज भला आखिर क्या करें? कहां से लाएं इन का पेट भरने के लिए ढेर सारे रुपए? शरीर की स्थिति ऐसी कि काटो तो खून नहीं. कुछ खून तो जांच लैब कर्मियों ने निकाल लिया, रहा बचा अब यह कैंटीन वाला चूस रहा है.

खैर जनाब, पर्स में रुपए हों या न हों, बिल तो भरना ही था. सो, पत्नी से रुपए मांग कर बिल भरा. 5 रुपए के वास्तविक मूल्य की एक कप चाय के स्थान पर पूरे 100 रुपए प्रति कप चाय हमें भरने ही पड़े. पेट तो पहले से ही बीमार था, दिमाग और खराब हो गया. गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास. उस दिन अच्छे दिन की तलाश में बुरा समय देखना पड़ा.

जब डाक्टर द्वारा लिखित समस्त जांचों की रिपोर्टें आईं तो उस में कहीं भी कुछ भी नहीं निकला. डाक्टर साहब ने तुरंत अपने प्रिस्क्रिप्शन में केवल गैस की एक दवा, 2 हफ्ते तक रोजाना खाली पेट खाने और रोजाना सुबह की सैर करने के निर्देश दे कर छुट्टी दे दी और मैं ठीक हो गया. लेकिन अपने अच्छे दिन की तलाश में अस्पताल पहुंच कर डाक्टर की महंगी फीस, इलाज हेतु आवश्यकता से ज्यादा जांचों का कुचक्र व कैंटीन आदि के खर्च से हमें यह अच्छी तरह से समझ आ गया था कि मरीजों की जांच के गोरखधंधे में डाक्टर, अस्पताल, कैंटीन और बड़ीबड़ी कंपनियां खूब चांदी काट रही हैं और हमारी सरकार अपने अच्छे दिनों को पा कर चैन की बंसी बजा रही है या आंख मूंद कर सो रही है. उन के अच्छे दिन हैं, स्वाभाविक है आंख मूंद कर सोना और सुनहरे सपने देखना उन के लिए लाभकारी ही होगा.

चुनाव से पहले देशभर की जनता ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ नारे को पा कर उत्साहित थी. उसे नहीं पता था कि यह सिर्फ एक छलावा है या फिर सिर्फ एक नया नारा मात्र है, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ और कुछ भी नहीं.

चुनाव के दौरान दिए जाने वाले पुराने नारों को याद कर मुझे जवाहर लाल नेहरू के ‘आराम हराम है’, लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ और इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे बहुत याद आ रहे हैं. इत्तफाक से ये तीनों ही प्रधानमंत्री हुए.

चुनाव में तीनों की जीत हुई मगर इन के द्वारा जनता को दिए हुए नारों के अर्थ में आज तक कोई खास बदलाव नहीं आया. ‘आराम हराम है’ में आराम तो आज भी आराम ही है, वह तो अभी तक हराम न हुआ. सदियों से आराम करने वाला आराम ही कर रहा है और काम करने वाला काम. ‘जय जवान जय किसान’ में भले ही जवान की जय हुई हो (वह भी इस डर से कि वह हम सब की सुरक्षा के लिए सदा तत्पर रहता है) मगर किसान की जय तो आज तक नहीं हो पाई और ‘गरीबी हटाओ’ नारे से जनाब अभी तक तो गरीबी हटी नहीं और आगे का हमें विश्वास नहीं.

हमारे देश में नारे और प्रधानमंत्री अवश्य बदलते रहे मगरवास्तविकता में क्या बदला, क्या नहीं, यह सभी जानते हैं. कुल मिला कर कहा जाए कि नारों की बदौलत ही इस देश के कई प्रधानमंत्री अपनेअपने चुनाव जीतते रहे. वे अपने दिन बदलते रहे

और उन के अच्छे दिन आते रहे.

एक दिन बुरे दिन की अच्छे दिन से मुलाकात हो गई तो वह बोला, ‘भाई अच्छे दिन, देशभर की जनता परेशान है कि अच्छे दिन नहीं आ रहे. आखिर ऐसा क्यों है? तुम आते क्यों नहीं?’

अच्छे दिन ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘खबरदार, जो अच्छे दिनों की बात की. भारत की जनता को तो नाखुश रहने की आदत है और वह थोड़ी सी नासमझ भी है. चुनाव के दौरान उस से आखिर यह तो नहीं कहा गया था कि सरकार बनने के 7 दिनबाद जरूर ही अच्छे दिन आ जाएंगे. वहां पर निश्चित समयांतराल का तो कोई जिक्र ही नहीं किया गया था. बस, यही तो कहा गया था, अच्छे दिन आने वाले हैं.

इस का मतलब साफ है कि अच्छे दिन आएं तो सही और न आएं तो भी संभावना तो सदा बनी ही रहेगी कि कभी न कभी तो अच्छे दिन आएंगे ही न. आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों ही सही मगर आएंगे जरूर. फिर जनता तो खामखां ही चिंतित है, जब आएंगे तब आ जाएंगे अच्छे दिन. वैसे भी चुनाव के दौरान दिए गए नारों का काम होता है जनता को बहलानाफुसलाना और अपना उल्लू सीधा करना.

बस, इतनी सी बात नहीं समझते हमारे देश के वोटर. केवल यही कमी है हमारे देश के वोटरों में. वोटर को तो खुश होना चाहिए कि इस बार नए नारे ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ने फिर से सरकार पलट दी और नई सरकार बनवा दी. देश में प्रगति हो या न हो, आम नागरिक के अच्छे दिन आएं या न आएं प्रगतिशील नारे तो अपना काम करते ही रहेंगे और हर चुनाव में अपना दम दिखाते रहेंगे. मेरी राय में तो केवल इसी बात को समझते हुए ही सभी भारतवासियों को अब तसल्ली कर लेनी चाहिए.

अच्छे दिन की बात सुन कर बुरा दिन फिर भी नहीं माना और उस ने सोचा कि क्यों न मैं ही अपनी सोच को थोड़ा विस्तार दूं ताकि लोग न नए प्रधानमंत्री को कोसें, न किसी राज्यमंत्री को. इसलिए वह स्वयं ही अच्छे दिन के नापने के मापदंड की पहचान करने लगा. उस ने पाया कि देश का कोई भी राज्य ऐसा नहीं था जहां पर सरकार और जनता के मध्य आपसी बहस न चल रही हो. किसी प्रदेश में बिजली न आने के हाहाकार को ले कर तो कहीं सीमा पर घुसपैठ, गोलीबारी, कहीं कानूनी धाराओं को ले कर विवाद, कहीं जबानी जंग, तो कहीं बलात्कार व महिलाओं पर बढ़ते हादसों को देख कर वह भी परेशान हो उठा.

दरअसल, बुराई को भी अपने अंदर भरी हुई इतनी बुराइयों का वास्तविक ज्ञान ही नहीं था. जगहजगह बुराई ही बुराई, जंग, बलात्कार व महंगाई को देखदेख कर वह थक कर चूर हो गया और भूखप्यास से पीडि़त हो कर उस ने एक छोटे से वातानुकूलित रैस्टोरैंट में जा कर भोजन करना चाहा तो वहां लगी रेट सूची को पढ़ कर ही वह चक्कर खा कर गिर पड़ा.

थोड़ी देर बाद जब उसे होश आया तो उस के सामने रैस्टोरैंट का वेटर बिल लिए हुए खड़ा था, जिस में सिर्फ 1 गिलास ठंडे पानी का बिल था. वह भी पूरे 20 रुपए प्रति गिलास. इतना महंगा बिल देख कर उस से नहीं रहा गया, वह बोला, ‘क्यों भाई, इतना महंगा पानी क्यों?’

वातानुकूलित रैस्टोरैंट के मैनेजर ने जवाब दिया, ‘भइया, यह मिनरल वाटर है, ऊपर से इसे ठंडा करने में बिजली खर्च होती है. तो भई, अब तो समझ ही गए होगे कि इस का मूल्य इतना महंगा क्यों है? कल ही बिजली के दामों में बढ़ोतरी हुई है. अच्छा है कि होश में आने के बाद आप ने चाय नहीं मांगी. आज से ही बाजार में चीनी की कीमत बढ़ जाने के कारण अब हमारे इस छोटे से रैस्टोरैंट में भी प्रति कप चाय का मूल्य पूरे 50 रुपए कर दिया गया है.’

बुरे दिन को अब सबकुछ अच्छी तरह से समझ आ गया था, इसलिए वातानुकूलित उस रैस्टोरैंट में भी माथे पर आई हुई ढेर सारी पसीने की बूंदों को पोंछा और चुपचाप अपने घर लौट आया और अपनी सहनशक्ति बढ़ाने का योगाभ्यास करने लगा. उस ने अब देश के बाजार, रुपए और अर्थव्यवस्था के बारे में अधिक सोचने व अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय सदा के लिए चुप रहना ही उचित समझा. लेकिन पता नहीं क्यों, फिर भी उसे इंतजार था कि आज नहीं तो कल ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. आज नहीं तो कल अच्छे दिन जरूर आएंगे. बुरा वक्त सदा नहीं रहता.

यह भी खूब रही

हम सब गोआ की एचपीसीएल कालोनी में रहते थे. मैं, मेरे 2 बच्चे और दीदी के 2 बच्चे सब साथ में हंसीमजाक कर रहे थे. मेरी बेटी कुछ बातों से नाराज हो कर दूसरे कमरे में चली गई. उसे मनाने के लिए हम ने चौकीदार अरुण को बुलाया जो कभी भी पूरी बात सुनने से पहले काम करने को तत्पर हो जाता था. हम ने अरुण को कहा, ‘‘जाओ, नीचे दुकान से पर्क चौकलेट ले कर आओ.’’ वह गया और वापस आ कर बोला, ‘‘वहां फ्रौक नहीं मिलता.’’ मैं बोली, ‘‘अरे फ्रौक नहीं पर्क चौकलेट लाओ.’’

अरुण ने कहा, ‘‘तभी मैडम मैं ने सोचा 10 रुपए में फ्रौक कहां से मिलेगा. अभी लाता हूं.’’ गया और आ कर बोला, ‘‘मैडम, पर्क नहीं है.’’ मैं बोली, ‘‘ठीक है, कैडबरी का एक पैकेट ले आओ.’’ वापस आ कर बोला, ‘‘मैडम वह भी नहीं है.’’ मैं गुस्से से बोली, ‘‘ठीक है, जो भी पैकेट हो, ले आओ.’’ वह गया और ले आया सिगरेट का पैकेट. हम सब हंसतेहंसते बेदम हो गए.

मंजू दंडापत, कोयंबटूर (तमिलनाडु)

मेरी दूर की चाची की बेटी की सगाई थी. कार्यक्रम होटल में था. खाने के बाद मैं आइसक्रीम लेने पहुंची तो बहुत भीड़ थी क्योंकि एक ही वेटर डब्बे से धीरेधीरे एकएक स्कूप आइसक्रीम निकाल रहा था. वक्त ज्यादा लग रहा था. कुछ लोग उसे ताना मारने लगे. शुरू में तो वह सुनता रहा परंतु 5 मिनट बाद 2 मिनट में लौटने का बहाना कर के वह चला गया. फिर क्या था, सभी अपनेअपने चम्मच घुसा कर अपनी प्लेटें भरने लगे. लोगों के चेहरे देखने लायक थे. हम अपनी हंसी रोक न पाए.

सुमन डेंबला, जयपुर (राज.)

मैं राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद, उ.प्र. का प्रदेश अध्यक्ष हूं. मेरा कार्यालय विधायक निवास, दारूलशफा, लखनऊ में आबंटित है. एक नया चपरासी रखा गया, जो इंटर पास था. आंदोलन कार्यक्रमों के कुछ पत्र (सर्कुलर) प्रदेश के सभी जनपदों में जाने थे. एक पत्र में माह में कई अवकाश पड़ने के कारण बारबार बदलाव करना पड़ा था. अंतिम बदलाव व हर पत्र के पीछे फोटोस्टेट करने की संख्या लिखने के बाद भी 5 दिन तक जब पत्र नहीं भेजे गए तब मैं ने चपरासी को डांटते हुए कहा कि अभी तक पत्र क्यों नहीं गए. वह बोला कि आप लोग बारबार करप्शन में लगे थे, इसी कारण मैं ने फोटोकापी नहीं की, क्योंकि वे बरबाद हो जातीं. करेक्शन को करप्शन कहते सुन हम लोग हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

हरि किशोर तिवारी, लखनऊ (उ.प्र.)

बंद खिड़कियों को गुमां क्यों

बंद खिड़कियों को क्यों ये गुमां है

कि उस ने रखा है चांद छिपा कर

उन से नजरें मिलीं कैसे

ये उन की, हमारी

खिड़कियों की बात है

इधर नजरें मिलीं उधर

परदे और संवरने लगे

चांद छत पे न निकलने लगा

बंद खिड़कियों में ही

घुटघुट के रहने लगा

सांस रुकने लगी,

मन तड़पने लगा

ऐ खिड़कियो, मेरी बात सुनो

चांदनी तो कुछ दिनों की बात है

इसे बिखर जाने दो

हम ने देखे यहां बहुत चांद

चांदनी आती है यहां अमावस की रात

बंद खिड़कियों को क्यों ये गुमां है

कि उस ने रखा है चांद छिपा कर.

रिश्ते

परछाइयों की दुनिया,

परछाइयों से रिश्ते मेरे साथसाथ चलते,

तन्हाइयों से रिश्ते रातों की नींद टूटी,

दिन का करार छूटा हम ने जब से जोड़े हरजाइयों से रिश्ते हाथों की मेहंदी झूठी,

तन का सिंगार झूठा झूठे से अब हैं लगते,

शहनाइयों से रिश्ते गहरा बहुत रहा है,

वफा से अपना नाता पक्के हैं जैसे तेरे,

बेवफाइयों से रिश्ते तू ने जो साथ छोड़ा,

दुनिया ने मुंह मोड़ा जुड़ने लगे हैं अपने,

रुसवाइयों से रिश्ते

ऐसा भी होता है

मेरे पति औफिस से आते समय एक दुकान में गए. सामान खरीद कर बाहर आए तो एक लड़का इन से टकरा कर गिर गया. इन को लगा कि उन की वजह से वह गिरा. उस को इन्होंने बड़े प्रेम से उठाया. वह धन्यवाद देता हुआ चला गया. इतने में कुछ और चीज याद आई तो उसे लेने वे दुकान में गए. और वे पैसे देने के लिए जेब से पर्स निकालने लगे तो पर्स गायब. इन्होंने दुकानदार से कहा कि आप को पैसे दे कर जेब में रखा था पर्स, लेकिन अब मिल नहीं रहा, कहीं गिरा भी नहीं दिखाई पड़ रहा. दुकानदार बोला, ‘‘जो आप से टकरा गया था उसी ने तो नहीं पार कर दिया.’’ दुकानदार की बात सुन कर इन की समझ में पूरी कहानी आ गई.

सिम्मी सिंह कनेर, वसंतकुंज (न.दि.)

मैं 15 साल बाद अपने मायके लखनऊ गई थी. सुबह घर के पास के पार्क में टहलने के लिए निकली. मैं ने देखा कि पार्क में रखी बैंच पर 2 बुजुर्ग गोविंदजी व सिन्हाजी बैठे हुए हैं. एक समय दोनों में काफी दुश्मनी रहती थी, आज ये दोनों कैसे हंसहंस कर बात कर रहे थे. गोविंदजी व सिन्हाजी दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. सिन्हाजी बहुत ही ईमानदार व मेहनती थे. गोविंदजी चापलूस व मौजमस्ती करने वाले थे. औफिस में दोनों के विचार न मिलने के कारण दोनों में कभी नहीं बनी. बौस को पटा कर गोविंदजी ने प्रमोशन हासिल कर लिया. इस पर सिन्हाजी और भी दुखी हुए. घर में बीवी कहती कि एक गोविंदजी हैं जो दिनभर घूमते हैं, घर में भी हर सुखसुविधा मौजूद है और प्रमोशन भी पा गए. एक तुम हो जो हर जगह पीछे रह जाते हो. सिन्हाजी की समझ में न आता कि क्या जवाब दें. पर आज उन की मित्रता को देख बहुत अच्छा लग रहा था. पता चला कि दोनों की पत्नियों का निधन हो चुका है. दोनों अपने बेटेबहू के साथ रह रहे हैं. गोविंदजी की बहू बहुत बड़े घराने की इकलौती संतान थी. वह मायके के आगे ससुराल को कुछ न समझती थी. मायके में ही बनी रहती. बेटा भी आएदिन बीवी के साथ वहीं बना रहता. गोविंदजी नौकरों के साथ दिन बिताते. जो वे दे देते उसे खा लेते और पड़े रहते. सिन्हाजी के बेटे व बहू नौकरी वाले थे. सुबहसुबह बहू को औफिस के लिए जाना होता तो काफी काम सिन्हाजी को ही निबटाना पड़ता. दूध लाने से ले कर बच्चों को स्कूल छोड़ने का काम उन्हीं के जिम्मे होता. ऊपर से कुछ चूक हो जाने पर डांट भी सुनने को मिलती. आज वे दोनों पार्क में बैठ कर एकदूसरे का दुख बांट रहे थे.

उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

कहानी लेखन कार्यशाला

प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं के प्रकाशक, दिल्ली प्रैस द्वारा 2 दिवसीय कहानी लेखन कार्यशाला का आयोजन किया गया. यह आयोजन 28 और 29 जून को नई दिल्ली स्थित दिल्ली प्रैस मुख्यालय में संपन्न हुआ. कार्यशाला में कहानी लेखन में रुचि रखने वाले 50 से ज्यादा लोग शामिल हुए. दिल्ली प्रैस ग्रुप की पत्रिकाओं के संपादक परेश नाथ ने अपने उद्बोधन में कहानी कार्यशाला की आवश्यकता व अच्छी कहानी की विशेषताओं पर चर्चा की. उन्होंने कहा कि कहानी आज के समय को ध्यान में रख कर लिखी जानी चाहिए. कथानक हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं, जरूरत है पैनी दृष्टि की. कहानीकार राकेश भ्रमर ने कहानी के प्रस्तुतीकरण व उस की पृष्ठभूमि के अलावा कथानक पर ध्यान देने पर जोर दिया. कहानीकार अरुणेंद्र नाथ वर्मा ने कहा कि एक कहानीकार में स्वभाव का खुलापन तो हो ही, उस का बहिर्मुखी होना भी जरूरी है.

साथ ही कहानीकार में वह अंतर्दृष्टि हो जो दूसरों के हृदय में पैठ कर उन की वेदना स्वयं महसूस कर सके. कहानीकार राजेश रंगा ने बताया कि कहानी का शीर्षक, पात्रों के नाम व कहानी की लोकेशन आदि का निर्धारण ध्यान से करना जरूरी है. लेखिका रेखा व्यास ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए इस बात पर जोर दिया कि यथार्थ और कल्पना का खूबसूरत मेल कहानी के रूप में निखर कर आता है. लेखक जगदीश पंवार ने कहा कि पौराणिक कहानियों में पहले से ही घटनाएं, पात्र व परिस्थितियां मौजूद होती हैं, आप को अपने शब्दों के जरिए उन्हें नए और अलग रूप में प्रस्तुत करना होता है. लेखिका लतिका बत्रा ने कहा कि किसी भी कालजयी रचना का जन्म तब होता है जब किन्हीं विशेष क्षणों में होता है, जब भीतर से एक आलोड़न उठ खड़ा हो और आप सुधबुध बिसरा कर दर्द की गहराई में डूब जाएं. लेखिका गरिमा पंकज ने कहानी की भूमिका पर चर्चा करते हुए बताया कि कहानी में शब्दों का चयन काफी सोचसमझ कर करना चाहिए. कहानीकार सुधा गुप्ता ने संवादों के जरिए किस तरह आकर्षक कहानी लिखी जा सकती है, इस पर विस्तार से चर्चा की. लेखक पुष्कर पुष्प ने क्राइम स्टोरी लिखते समय किन बातों का खयाल रखा जाए, इस पर प्रकाश डाला. कार्यशाला के दौरान प्रतिभागियों में काफी जोश रहा. सभी को कार्यशाला में भाग लेने के लिए प्रमाणपत्र दिए गए.

अनुभव से मिली सीख

मेरा न्यायिक जीवन शुरू ही हुआ था कि न्यायालय में एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई जिस की कल्पना करना मेरे लिए क्या, किसी भी साधारण बुद्धि के व्यक्ति के लिए संभव नहीं लगता था. उस परिस्थिति से मेरे अनुभव की माला में एक कड़ी जरूर जुड़ गई थी, जिस का लाभ मुझे लगातार मिलता रहा. न केवल न्यायिक कार्यों में, बल्कि जीवन के हर कदम पर. मुझे तब तक न्यायिक कार्यों के विषय में ज्यादा ज्ञान भी नहीं हो पाया था. मैं लगातार सीखने का प्रयास कर रहा था. वरिष्ठ, योग्य व अनुभवी अधिवक्ताओं का महत्त्वपूर्ण सहयोग भी मुझे प्राप्त हो रहा था कि एक दिन मेरे समक्ष एक 30 वर्षीय महिला द्वारा अपने पति के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता धारा 125 के तहत भरणपोषण भत्ते की याचना के साथ दायर किया गया मुकदमा सुनवाई के लिए प्रस्तुत हुआ. महिला ने अपने कथन को साबित करने के लिए खुद को परीक्षित किया. उस का कथन खुद मेरे द्वारा लेखबद्ध किया गया. उस कथन में महिला द्वारा वे सभी आरोप लगाए गए जोकि आमतौर पर ऐसे प्रकरणों में लगाए जाते हैं. महिला ने बड़ी ही दर्दभरी आवाज में कहा था कि उस का पति बहुत ही निर्दयी है. छोटीछोटी बात पर उस को मारतापीटता है. न भोजन देता है न ही कपड़ा. वह बहुत ज्यादा शराब पीता है. दूसरी महिलाओं के साथ उस के अनैतिक संबंध हैं. अब पति से उसे अपने जीवन पर भी खतरा हो गया है. दोनों का पतिपत्नी के रूप में रहना अब असंभव हो गया है.

इसलिए पति से उसे ‘निर्वाह भत्ता’ दिलाया जाए ताकि वह गुजरबसर कर सके. महिला द्वारा दिया गया कथन इतना भावुक व दर्दनीय था कि उस पत्नी से सहानुभूति सी हो गई, लेकिन उस समय मेरे द्वारा कुछ भी कहना उचित नहीं था. मैं ने निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप पति के अधिवक्ता को महिला से जिरह हेतु आमंत्रित किया. अधिवक्ता महोदय महिला से पहला प्रश्न पूछने ही वाले थे कि पति, जो पीछे खड़ा चुपचाप पत्नी द्वारा लगाए जा रहे आरोपों को सुन रहा था, साहस कर के मेरे समक्ष आया, डरतेडरते बोला, ‘हुजूर, मेरी पत्नी मेरे साथ जाने व रहने को तैयार है. जज साहब, आप खुद पूछ कर तसदीक कर लीजिए.’

पति की बात सुन कर मुझे उस की मूर्खता पर तरस आया. मैं पति की बात को अनसुनी कर के प्रक्रिया को आगे बढ़ाने ही वाला था लेकिन न्यायिक स्वभाव के कारण, पति की बात को हलके में न लेते हुए पत्नी से पूछ ही लिया, ‘क्या तुम पति के साथ जाना चाहती हो?’ पत्नी ने बिना कोई समय लिए, स्पष्ट उत्तर दिया, ‘नहीं’. तब पति ने कहा, ‘हुजूर, पत्नी के पिता, पत्नी के पीछे खड़े हैं. पत्नी उन के प्रभाव में है. आप पिता को न्यायालय से बाहर भेज कर मेरी पत्नी से पूछिए.’ मैं ने ऐसा ही किया और पत्नी से वही प्रश्न दोहराया. पत्नी यह सब देख व सुन रही थी. उस ने पीछे मुड़ कर देखा व खुद को आश्वस्त किया कि उस के पिता न्यायालय कक्ष से बाहर चले गए हैं और तब उस ने उत्तर दिया, ‘हां, मैं अपने पति के साथ जाने व रहने को तैयार हूं. मुझे अपने पति से कोई शिकायत नहीं है.’

यह उत्तर सुन कर मैं ही नहीं बल्कि न्यायालय में उपस्थित सभी वकील व दूसरे लोग किंकर्तव्यविमूढ़ रह गए. मैं सोच नहीं पा रहा था कि क्या करूं. मैं ने एक मिनट सोचा, पति से फिर पूछा व आश्वस्त होने पर कि ‘हां’ उत्तर स्वैच्छिक है. मैं ने पत्नी से कहा, ‘यदि ऐसा है तो पति का हाथ थामो और साथ जाओ, कुछ और करने की आवश्यकता नहीं है. यदि ठीक रहते हो तो 10 दिन बाद फिर आना, तब मुकदमे की सुनवाई होगी.’ पत्नी ने फौरन अपने पति का हाथ जोर से पकड़ा व तेजी से न्यायालय से बाहर चली गई. मैं यह दृश्य देख ही रहा था कि पत्नी का पिता न्यायालय में उपस्थित हुआ और अपनी अप्रसन्नता व क्रोध प्रकट करते हुए कहने लगा, ‘आप ने यह क्या किया, वह व्यक्ति तो मेरी पुत्री को मार डालेगा. इस का दायित्व किस का होगा. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनी पुत्री को बचाया है.’

तब तक मुझे भी क्रोध आ चुका था परंतु मैं ने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए पिता को समझाने का प्रयास किया. परंतु उस ने समझने का प्रयास नहीं किया. वह बेबसी, क्रोध व अप्रसन्नता के साथ न्यायालय से बाहर चला गया. नियत तिथि पर पति व पत्नी न्यायालय में साथसाथ आए व बताया कि वे दोनों प्रसन्नतापूर्वक वैवाहिक जीवन जी रहे हैं. तब मैं ने मुकदमा खारिज कर दिया. इस घटना ने मेरे मस्तिष्क में प्रश्न छोड़ा कि क्या पुत्री अपने पिता के अनुचित प्रभाव में थी? क्या उस का पिता ही उस का जीवन नष्ट करने पर तुला था? पुत्री तो वयस्क थी, बुद्धिमान थी तब पिता ने ऐसा कार्य क्यों किया? मैं पिता के इस व्यवहार का कोई युक्तियुक्त कारण तो नहीं ढूंढ़ पाया लेकिन यह घटना मुझे सिखा गई कि मातापिता को अपनी वयस्क संतान पर अनुचित प्रभाव कभी भी नहीं बनाना चाहिए. साथ ही साथ, न्यायाधीश का भी यह कर्तव्य बनता है कि किसी भी पक्ष की बात, चाहे कितनी भी निरर्थक क्यों न लगे, की बिना विचार किए उपेक्षा या अनदेखी नहीं करनी चाहिए. मेरे पूरे न्यायिक जीवन में इन दोनों बातों ने मेरे कर्तव्यनिर्वहन में लगातार मदद की.

एक शायर गुलजार

‘हम ने देखी हैं इन आंखों की महकती खुशबू

हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलजाम न दो

सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो

प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो…’

फिल्म ‘खामोशी’ का यह गीत उस कवि की प्रतिभा का दर्शाता है जिस ने अपने गीतों से फिल्मी दुनिया में बतौर लेखक अपना अलग मुकाम हासिल किया. ‘प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं इक खामोशी है, सुनती है, कहा करती है…’ कुछ ऐसे ही एहसास की बर्फ अपने हाथ पर रख एक इंसान विभाजन के पहाड़ को छाती पर ले कर पाकिस्तान से रावी नदी के उस पार से यहां आया और जिंदगीभर उस विभाजन की सारंगी बजाता रहा, गुनगुनाता रहा.

पूरा नाम : संपूरन सिंग

मूल गांव : दीना (पाकिस्तान)

जन्म : 18 अगस्त, 1936

नया नाम : गुलजार

दीना से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई. मुंबई का खालसा कालेज, एक मोटर गैरेज, फिर संस्था ‘इप्टा’ के माध्यम से सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, फैज अहमद फैज और बाद में कवि शैलेंद्रजी से पहचान और फिर साक्षात बिमल राय जैसे पितासमान निर्देशक के साथ जीवन सफर. लेकिन यह तो केवल बुनियाद थी. बड़े होने के लिए ऐसे लोगों का जीवन में आना बहुत ही जरूरी है. अपने पूरे परिवार के साथ रिश्ता टूटने की दरार मन में रखने वाले गुलजार के रुपहले परदे का सफर सुहाना, सराहनाभरा होने के बावजूद उन के दिल का दर्द इस तरह टीसता रहा : ‘दिल बहल तो जाएगा इस खयाल से हाल मिल गया तुम्हारा अपने हाल से रात ये करार की, बेकरार है …तुम्हारा इंतजार है… …उं हूं… तुम पुकार लो…’ जैसे गुलजार उम्रभर किसी की राह देखते रहे, रावी नदी पार करते वक्त जैसे उन का दिल लहूलुहान हो गया. बंटवारे के घाव से, करीबी लोगों के इंतकाल से गुलजार बाहर से ‘खामोश’ और अंदर से झुलसते रहे.

जन्म से सिख संपूरन सिंग ने अपने सिर के बाल निकाले और अपनी नई दुनिया में ‘गुलजार’ नाम से प्रवेश किया, पूरी तरह से नए हो कर, सफेदपोश रूप में कवि, संवाद लेखक, निर्देशक गुलजार ने अपना फिल्मी सफर शुरू किया. मुंबई में बिमल दा के पास से काम करने की शुरुआत हुई. उसी समय पंजाब में उन के पिताजी का देहांत हुआ. लेकिन रिश्तेदारों ने यह खबर उन तक नहीं पहुंचाई. यह दुख उन्हें जीवनभर सताता रहा. ‘कोई होता जिस को अपना हम अपना कह लेते यारो पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना…’ फिल्मों के कैरेक्टर के जरिए गुलजार अपना दुख दुनिया को और खुद को सुनाते रहे. फिल्मों के दृश्यों के माध्यम से गुलजार के शब्द रुपहले परदे पर झलकते रहे. यह मरहम था उन के जख्म पर.

1960 में बिमल दा की फिल्म ‘काबुलीवाला’ के लिए उन्होंने असिस्टैंट डायरैक्टर के रूप में काम कर रुपहले परदे के लिए काम शुरू किया. 1960 से 1970 तक यानी 10 साल तक वे उम्मीद लगाए रहे, और 1970 में ‘मेरे अपने’ में गुलजार की उम्मीद पूरी हुई जब उन्होंने गीत, संवाद लेखन के अलावा निर्देशन भी किया था. उस समय वे बिमल दा की छत्रछाया में सीख रहे थे, बढ़ रहे थे और गीत लिख रहे थे, संवाद लिख रहे थे. ‘गंगा आए कहां से…’ (काबुलीवाला 1960), ‘मेरा गोरा अंग लेई ले…’ (बंदिनी 1963), ‘हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम…’ (दो दूनी चार 1968), ‘इक था बचपन,’ जीवन से लंबे हैं बंधू,’ ‘झिरझिर बरसे सावन अंखिया’ (आशीर्वाद 1968) जैसे एक से बढ़ कर एक गीत और ‘आनंद’ (1970), ‘खामोशी’ (1969), ‘सफर’ (1970) और ‘दो दूनी चार’ (1968) जैसी फिल्मों की पटकथा में भी उन का सहभाग था. इस में फिल्म ‘आनंद’ के लिए गुलजार ने एक गीत लिखा : ‘मैं ने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने…’ इस गीत के जरिए उन्होंने अपनी सोच व्यक्त की कि सपनों के रंग होते हैं, सपनों के पर होते हैं. वे हमेशा से सफेद परिधान में रहे और सपनों के रंग, दूसरों को दिखाते हुए खुद जमीं पे रहे.

‘एक राह रुक गई तो और जुड़ गई मैं मुड़ा तो साथसाथ राह मुड़ गई हवाओं के परों पर मेरा आशियाना…’ हवा के झोंके पर तैरने वाला अपना घर जैसे गुलजार ने पहले ही बना कर रखा था. हवा के साथ गुलजार का रिश्ता शायद उन के रावी के पार के गांव से होगा. लेकिन इस तैरते (या फिर अधर में लटके) हुए घर ने उन के दिल में पहले से ही एक खास जगह बनाई होगी. ‘आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे बोलो देखा है कभी तुम ने मुझे उड़ते हुए…’ या ‘हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम हम अनजान परदेशियों का सलाम…’ गुलजार ने अपने गीतों से, हिंदी सिनेमा के गीतों की हवा तेज की लेकिन इस के लिए उन्होंने लगातार हवा के पर का सहारा लिया : ‘जब कभी थामा है तेरा हाथ तो देखा है लोग कहते हैं कि बस हाथ की रेखा है हम ने देखा है दो तकदीरों को जुड़ते हुए… आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’

गुलजार मूलरूप से पंजाब के थे लेकिन बाद में उन के जीवन में बिमल दा जैसे दत्तक पिता के साथ आया हुआ बंगाली कबीले का प्रेम जिंदगीभर कायम रहा और वे बंगाली बनते गए. बंगाली लेखकों की प्रतिभा को सलाम करने के लिए गुलजार ने बंगला सीखी और फिर बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, सलिल चौधरी, अमित सेन, एस डी बर्मन, आर डी बर्मन, अर्थात पंचम, देबू सेन, संगीतकार हेमंत कुमार के रूप में एक बंगाली परिवार गुलजार के ‘आंसू और हंसी’ का उत्तराधिकारी हुआ. आगे चल कर अभिनेत्री के रूप में आईं शर्मिला टैगोर, सुचित्रा सेन जैसी बंगाली नायिकाएं व उन के जीवन में आईं मीनाकुमारी और राखी जैसी नायिकाओं का मूल परिवार बंगाली ही था. बंगला से गहरा प्रेम, सभ्यता और पारदर्शिता का संपूर्ण प्रभाव गुलजार पर था. फिल्म निर्माण करते वक्त वे कहते थे, ‘मैं बंगला फिल्म हिंदी में बना रहा हूं.’ गुलजार के इर्दगिर्द के बंगाली माहौल ने उन्हें खड़े रहने के लिए जगह दी, ऊपर चढ़ने के लिए सीढि़यां दीं और एक महत्त्वपूर्ण स्थान भी दिया. हाल में उन की ‘देवडी’ नाम की उर्दू कथाओं की मराठी अनुवादित किताब ‘मूल ड्योडी’ मशहूर हुई है. इस में कहानी है, व्यक्तिचित्रण है. इस में जावेद अख्तर और साहिर लुधियानवी के रिश्तों की कहानी गुलजार ने बताई है. जावेद के तंगी के समय में साहिर ने जावेद को 100 रुपए उधार दिए थे. बाद में जावेद बहुत ही मशहूर हो गए, बहुत पैसा, जायदाद उन के पास आई. लेकिन उन्होंने वे 100 रुपए उन्हें वापस नहीं किए. साहिर के गुजर जाने के बाद उन की बौडी जिस टैक्सी से जावेद लाए थे, उस टैक्सी का किराया जावेद देना भूल गए थे. दूसरे दिन सुबह वह टैक्सी वाला किराया वसूल करने आया और किराया मांगने लगा. तब जावेद ने वह पैसा देने में बहुत ही आनाकानी की. लेकिन बाद में पैसा दे कर वे बोले, ‘ले लो, रख लो, ये 100 रुपए…’ और फिर मन ही मन बोले, ‘मरने के बाद भी खुद का पैसा वसूल ही कर लिया.’

उस टैक्सी वाले के रूप में जैसे साहिर ही आ गए थे. रिश्तों का यह बंध कभी वास्तव में, तो कभी इस तरह की भूलभुलैया में गुलजार संभाल रहे थे और अपनी लेखनी में उतार रहे थे. ‘दिल ढूंढ़ता है, फिर वही फुरसत के रातदिन बैठे रहे तसव्वुर ए जाना किए हुए.’ गुलजार ने कुल मिला कर 17 फिल्में निर्देशित की हैं और उन की सभी फिल्मों की चर्चाएं हुई हैं. कुछ बौक्स औफिस पर हिट भी हुईं. कुछ को पुरस्कार भी मिले और लगभग सभी फिल्मों के गीत मशहूर हुए. फिल्म ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘इजाजत’ जैसी फिल्में दिल को छू गईं. ‘कोशिश’, ‘माचिस’ जैसी फिल्मों ने आलोचकों को चुप कराया. ‘परिचय’, ‘खुशबू’, ‘किनारा’, ‘नमकीन’ जैसी फिल्मों ने गुलजार को कवि मन का निर्देशक जैसी अलग पहचान दी. बिमल दा के सान्निध्य में रह कर गुलजार जैसे एक कदम आगे निकल गए. गीतों की गहराई जैसे फिल्मों में शरीक होती गई. तरलता, गहराई और नाट्यमयता की झलक ‘गुलजार’ की शख्सीयत में साफ नजर आती है.

‘कवि या निर्देशक जो भी मैं बना वह नियति के कारण नहीं बल्कि जरूरत, सहूलियत के लिए’, ऐसा अगर वे कह रहे हैं तो इस में पूरी हकीकत है क्योंकि एक अध्ययन करने वाला निर्देशक, एक चोट खाया हुआ कवि या एक यायावर किस्म का व्यक्ति, साथ ही बेबाकी से जिंदगी की हकीकत को कबूल कर सकता है. उन की वह पहचान अपने अस्तित्व की आवाज को पुकारती रही : ‘एक अकेला इस शहर में रात में और दोपहर में आबोदाना ढूंढ़ता है आशियाना ढूंढ़ता है…’ इस एक ही तड़प की लकीर पर अपनी निपुणता की लिखावट कुरेद कर गुलजार ने अपना जीवन और फिल्मों को यादगार बनाया. सपना और सत्य इन 2 पंक्तियों में गुलजार खुद को भरते गए और उन के स्पर्श से वह नक्काशी सुंदर होती गई क्योंकि उन पर सर्वाधिक प्रभाव था सपनों का.

‘फिर वो ही रात है रात है ख्वाब की’ (घर) या ‘बैठे रहे तसव्वुर ए जाना किए हुए’ (मौसम) या ‘जब तारे जमीं पर चलते हैं आकाश जमीं हो जाता है उस रात नहीं फिर घर जाता वो चांद यहीं सो जाता है पलभर के लिए इन आंखों में हम इक जमाना ढूंढ़ते हैं आबोदाना ढूंढ़ते हैं…’ (घरौंदा) इस में खोया हुआ कुछ ढूंढ़ने की लगन से गुलजार ने सपनों का जरतारी महल खड़ा किया. वे हर एक फिल्म में अनुभव के जरिए अपने दुखों की करवटें बदलते रहे. मैं जो यह सब लिख रहा हूं वह गुलजार की कार्यकुशल निपुणता को सलाम करने के लिए. लेकिन दिल ही दिल में एक कवि के रूप में मुझे गुलजार से ईर्ष्या होती है. कविता लिखतेलिखते अपने दिल की फिल्म का निर्माण करने का अवसर मिलना हर एक कवि की इच्छा होती है. और गुलजार ने तो कविता को ले कर 1 नहीं, 2 नहीं बल्कि 16 फिल्मों का निर्माण किया, उन के डायलौग लिखे, गीत लिखे. कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, जावेद अख्तर, आनंद बक्शी, इंदीवर, मजरूह सुलतानपुरी, योगेश जैसे बड़े शायरों के समय उन की अपनी अलग सोच के गीत लोकप्रिय हुए.

वास्तव में गुलजार ने अपने अल्फाज को कविता का रूप दिया. उन्होंने कविताएं लिखीं, कविताओं के बड़ेबड़े कश मारे और कविताओं का ही धुआं छोड़ा. बीते वर्ष का ‘लाइफ टाइम अवार्ड’ लेते वक्त गुलजार के दिल की छटपटाहट फिर से होंठों पर आई, ‘‘हिंदुस्तान में सिर्फ दो ही कम्युनिटी जातपात, मजहब, प्रांत की सलाखें नहीं मानतीं. उन में से एक है, ‘अपने जवान’ और दूसरी है, ‘भारतीय फिल्म इंडस्ट्री’.’’ ऐसा कहते हुए उन्होंने पाकिस्तान छोड़ने के बाद कई साल तक दिल में गड़ा हुआ एकात्मता का, राष्ट्रीयत्व का दर्द जाहिर किया. गुलजार हुआ टीवी गुलजार की कलम कभी भी माध्यमों की मुहताज नहीं रही. उन्होंने जिस भी माध्यम में काम शुरू किया वही उन की खूबसूरत शायरी, कहानियों और गीतों से गुलजार हो गया. बड़े परदे के लिए उन्होंने कई फिल्मों का न सिर्फ निर्देशन किया बल्कि कई अभिनेताओं की पुरानी छवि को बदल कर उन के अंदर के नए अभिनेता को दुनिया के सामने जाहिर किया. उन्होंने छोटे परदे के लिए कई यादगार और बेमिसाल कार्यक्रम बनाए, जिन का जिक्र किए बिना उन का कैरियर लगभग अधूरा है.

सब से पहले उन के क्लासिक सीरियल ‘मिर्जा गालिब’ की बात. अपने जमाने के मशहूर शायर मिर्जा गालिब के जीवन पर दूरदर्शन के लिए बनाया गया सीरियल देख कर एक बड़ी पीढ़ी जवान हुई है. इस सीरियल की खासीयत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी संजीदा दर्शक इस सीरियल की डीवीडी अपने कलैक्शन में सजा कर रखते हैं. नसीरुद्दीन शाह भी अपने इस किरदार को जीवन के सर्वश्रेष्ठ किरदारों में गिनाते हैं और इस का पूरा श्रेय गुलजार को ही देते हैं. पिछले दिनों अभिनेत्री तन्वी आजमी, जिन्होंने सीरियल में मिर्जा गालिब की बेगम के किरदार का रोल निभाया था, से बातचीत के दौरान जब मिर्जा गालिब और गुलजार का जिक्र छेड़ा गया तो उन्होंने भी गुलजार की दिल खोल कर तारीफ की. तन्वी के मुताबिक, गुलजार की ही बदौलत उस महान शायर की जिंदगी परदे पर इतने विश्वसनीय तरीके से उभर कर आई. मिर्जा गालिब के अलावा उन्होंने ‘किरदार’ नाम की सीरीज बनाई. कई अच्छी और चुनिंदा कहानियों पर बनी इस सीरीज में ओम पुरी, मीता वशिष्ठ, इरफान खान जैसे बड़े सितारों ने काम किया था.

किरदार की ही तर्ज पर उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की बेहतरीन कहानियों को आधार बना कर ‘तहरीर’ नाम का सीरियल दूरदर्शन के लिए बनाया. तहरीर के साथ ही मुंशीजी के ही उपन्यास ‘गोदान’ पर इसी नाम से सीरियल बनाया. गुलजार ने टीवी पर भले ही कम काम किया, लेकिन इन 4-5 सीरियलों की बदौलत टीवी का रुपहला परदा कई बार गुलजार हुआ. तेरे बिना जिंदगी से… बतौर गीतकार, लेखक और फिल्मकार गुलजार की जिंदगी खुली किताब की तरह रही है लेकिन निजी जिंदगी के बहुत से पन्ने वे आज भी हरेक के सामने नहीं पलटते. अकसर गुलजार को फिल्मी कार्यक्रमों व कला साहित्य के अवसरों पर या तो अकेले देखा जाता है या फिर चहेती पुत्री मेघना गुलजार के साथ. एक कार्यक्रम के दौरान हुई मुलाकात में जब उन से परिवार के बारे में पूछा गया तो उन्होंने निजी सवाल न करने का आग्रह किया.

ऐसे ही कई मौकों पर गुलजार ऐसे सवाल टाल जाते हैं. गुलजार ने 60 और 70 के दशक की मशहूर अभिनेत्री राखी से शादी की थी. लेकिन किन्हीं कारणों के चलते दोनों की राहें जुदा हो गईं. दोनों के बीच में जल्द ही मतभेद हो गए और नतीजतन गुलजार ने अकेले ही रहना मुनासिब समझा. गुलजार भले ही निजी सवालों से परहेज करते हों लेकिन उन की बेटी अपने परिवार और राखी से हुए उन के अलगाव पर अपनी बात रखती हैं. एक दफा जब बीबीसी ने मेघना से इस बारे में पूछा कि क्या दोनों को अकेलापन महसूस नहीं होता, तो उन का जवाब कुछ यों था, ‘अच्छा ही हुआ दोनों अलग हो गए क्योंकि मतभेद होने के बावजूद साथ रहने से अच्छा है सुकून के साथ अलगअलग रहना. दोनों ने अपने एकाकीपन को काम से भर लिया है.’

-साथ में राजेश यादव

भभूत का भ्रम

जब कोई योगगुरु या आध्यात्मिकता के नाम पर साम्राज्य स्थापित करने वाला मरता है तो कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं. कुछ समय पहले की बात है. सत्य साईं बाबा के नाम से जाने जाते सत्यनारायण राजू को गंभीर हालत में सुपर स्पैशियलिटी अस्पताल में जब भरती करवाया गया था तब उन के गुरदे, लिवर, फेफड़े आदि जवाब देने लगे थे, सांस में दिक्कत होने लगी थी, रक्तचाप बहुत नीचा हो गया था और दवाओं ने असर करना बंद कर दिया था. ऐसा किसी भी 86 वर्षीय व्यक्ति के साथ हो सकता है, वह चाहे कोई भी हो. पर जब यह सब साईं बाबा के साथ हुआ तब उन के भक्तों को बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि वे सारी उम्र हवा में से भभूत पैदा करने का दावा करते रहे थे. कई तो उन के चित्र में से भी भूत निकलने का दावा किया करते थे. गनीमत है कि उन के शव से भभूत नहीं निकली. भभूतवाद भभूत अर्थात राख को चमत्कारी दवा या आशीर्वाद के तौर पर न वेदों में कहीं प्रयुक्त किया गया है, न उपनिषदों में. यहां तक कि रामायण, महाभारत, गीता आदि में भी राख को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है. फिर यह राखवाद की दवा कहां से टपक पड़ी?

यह उन सिद्धों, नाथों और योगियों के संप्रदायों से उत्पन्न हुई है जिन का प्रामाणिक और शास्त्रीय हिंदूधर्म में कोई स्थान नहीं है. ये लोग अकसर हिंदू आबादी से दूर वनों में बड़ा सा धूना लगा कर बैठा करते थे और आग के पास बैठ कर किसी मंत्र का जाप करते हुए शरीर के तपाने, विशेषतया धूप और ग्रीष्म ऋतु में, को तप करना कहते थे. धीरेधीरे इन लोगों ने उदरपूर्ति के लिए यह प्रचार शुरू कर दिया कि उन के मंत्रजाप से वह धूनी (अग्नि) भी अलौकिक शक्तिसंपन्न हो जाती है जिस के पास वे जप करते हैं और उस की राख भी. इसलिए कई योगियों ने भस्म (राख) से तिलक लगाना शुरू कर दिया तो दूसरों ने सारे शरीर पर इसे मलना शुरू कर दिया. यही बाद में आशीर्वाद के तौर पर और दवा आदि के लिए बांटी जाने लगी. राखवादियों ने यह प्रचार किया कि जो इस भस्म को धारण करता है उस से तो मृत्यु भी डरती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने टिप्पणी की है, ‘‘जब रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं, तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे? जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिंह, सर्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश (यमराज) के गण क्यों डरेंगे?’’

(सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास) दरअसल, धूनी वनों में जंगली जानवरों से रक्षा का एक साधन मात्र थी. दूसरे, यह धूनी रमाने वालों की इस विवशता का प्रमाण थी कि वे तथाकथित सिद्धियों वाले और लोगों को अलौकिक शक्ति वाली राख बांटने वाले आग जलाने के लिए माचिस जैसे किसी सरल उपाय से भी वंचित थे. उन्हें दोबारा आग जलाने के लिए चकमक पत्थरों आदि से टक्करें मारनी पड़ती थीं या फिर कहीं वन में लगी आग से लुआठी वगैरह लानी पड़ती थी. इसलिए वे सदा ही कोशिश करते थे कि धूनी कभी बुझने न पाए, वे वृक्ष काटकाट कर उन्हें स्वाहा करते रहते थे. उन्हें न वृक्षों के महत्त्वों से कुछ लेनादेना था न वातावरण के प्रदूषित होने से. बस, वे तो पहुंचे हुए थे जो चमत्कारी राख के उत्पादक थे. पर सब दावों के बावजूद कोई चमत्कारी व्यक्ति एक छोटी सी माचिस नहीं बना पाया. जब शुरूशुरू में योगियों ने राख के चमत्कारी होने के दावे किए तब लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और इसे धोखा कहा. यही कारण है कि संस्कृत में योग का एक अर्थ धोखा, जालसाजी भी है. धीरेधीरे ये लोगों के सिरों में राख डालने में कामयाब हो गए. ये भभूत के साथसाथ धागे, तावीज आदि भी बेचने लगे. राजेरजवाड़े तक इन के अंध श्रद्धालु बनते गए, हालांकि इन के दावे बुरी तरह फेल हो रहे थे परंतु अंध श्रद्धा ने एक दावा फेल होने पर दूसरे पर आशा लगानी जारी रखी.

जब बाबर ने 1526 ई. में भारत पर हमला किया तब यहां के शासकों ने उसे रोकने के लिए बहुत से पीर, योगी, जंत्रमंत्र करने वाले इकट्ठे कर लिए थे कि वे अपने धागे, तावीज, भस्म आदि से हमलावर को नष्ट कर देंगे, परंतु किसी का जंत्रमंत्र कोई काम नहीं आया. गुरु नानकदेव, जो इस घटनाक्रम के चश्मदीद गवाह थे, ने लिखा है कि जब शासकों ने सुना कि मीर (बाबर) आ रहा है तो उन्होंने करोड़ों पीरों आदि को इकट्ठा कर लिया, परंतु जब वह आया तो उस की फौजों ने बड़ेबड़े पक्के मकान, मजबूत मंदिर आदि सब आग में जला दिए और राजकुमारों को काट कर मिट्टी में मिला दिया. किसी का कोई जंत्रमंत्र किसी काम न आया, उन से एक भी मुगल अंधा नहीं हुआ : कोटी हू पीर वरजि रहाए जो मीरु सुणिया धाइया. थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइया.. कोई मुगल न होआ अंधा किनै न परचा लाइया.. (आदिग्रंथ, 417-18) इन करोड़ों भभूत, धागे, ताबीज वालों की कृपा से हमलावर इस देश का हाकिम बन गया और सदियों तक के लिए मुगलों का साम्राज्य यहां स्थापित हो गया तथा देश गुलाम हो गया. यदि इन के चक्कर में लोग न पड़ते और शस्त्र उठा कर शत्रु का सामना करते तो वे उसे मिट्टी में मिला सकते थे. परंतु जो शस्त्र के स्थान पर राख, तावीज और धागों में उलझे थे, उन्हें राख में मिलने से कौन रोक सकता था?

जिन की खुद की आंखें राख से अंधी हो चुकी थीं वे मुगलों को क्या खाक अंधा करते. प्रार्थनाएं व दुआएं अस्पताल में मरणासन्न अवस्था में भरती किए गए साईं बाबा के भक्तों ने दुआएं करनी शुरू कर दी थीं और इलाज कर रहे डाक्टरों के विरुद्ध आक्रोश प्रकट करना शुरू कर दिया था कि वे बाबा का ठीक से इलाज नहीं कर रहे. यहां 2 बातें विचारणीय हैं. भक्त पहले तो बाबा से प्रार्थना किया करते थे कि वे उन के दुखों को दूर कर दें. अब वे किस से क्या प्रार्थना कर रहे थे? क्या वे बाबा से यह प्रार्थना कर रहे थे कि वे खुद को ठीक कर लें? क्या उन की प्रार्थना के बिना वे खुद को ठीक नहीं कर सकते थे? क्या वे स्वेच्छा से और शौक से उस गंभीर हालत को पहुंचे थे? कुछ सयाने भक्तों का कहना था कि वे बाबा से प्रार्थना या दुआ नहीं कर रहे, बल्कि उन के बारे में ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वह उन को ठीक कर दे. बिचवान क्यों? परंतु यहां भी यह सवाल पैदा होना लाजिमी है कि यदि ईश्वर बाबा से भी ऊपर की शक्ति है और वे भक्त उसी से बाबा के ठीक होने की प्रार्थनाएं कर रहे थे तो इस का अर्थ है कि वह बीच में एक स्वयंभू बिचवान मात्र था.

जब आप किसी बाबा के सक्रिय न रहने की स्थिति में, बिना बिचवान के, सीधे कथित ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं तब फिर इन बिचवई करने वालों के अस्तित्व का औचित्य ही क्या रह जाता है? जब सीधे सौदा हो सकता है, तब दलालों की क्या जरूरत? यदि बाबा वास्तव में शिवलिंग, अंगूठी, भभूत आदि भौतिक पदार्थ अध्यात्म की कथित शक्ति से उत्पन्न करते रहे होते तो उन्हें अपने लिए उसी शक्ति से लिवर, गुरदा आदि उत्पन्न करने में क्या बाधा हो सकती थी? वे जरूरी अंग हवा में से पैदा करते और स्वस्थ हो जाते, पर ऐसा न हो सकता था न हुआ ही. नतीजतन, भभूत बाबा भूतकाल की चीज बन गए. डाक्टरों की शरण क्यों? यदि बाबा आध्यात्मिक शक्ति से सबकुछ करते थे और 86 वर्ष तक उसी से कथित चमत्कार करते रहे होते तो संकट की घड़ी में डाक्टरों की शरण में जाने का कोई औचित्य न था, क्योंकि डाक्टर लोग तो अध्यात्म से इलाज नहीं करते. वे तो भौतिक चीजों और विज्ञान की आधुनिक खोजों के आधार पर इलाज करते हैं. अध्यात्म के बादशाह, बाबा, का इलाज तो अध्यात्म से ही होना चाहिए था और उसे अमेरिका से बुलाए डाक्टरों समेत 27 डाक्टरों के पास अस्पताल में नहीं, बल्कि हिमालय के किसी आश्रम में किसी हजारों वर्षों से समाधि लगाए बैठे योगी और अध्यात्मवाद के चक्रवर्ती सम्राट के पास पहुंचना चाहिए था.

कहां आम भौतिक मैडिकल कालेजों में पढ़े हुए डाक्टर कहे जाते स्त्रीपुरुष और कहां आध्यात्मिक साम्राज्य के बादशाह, डाक्टरों से तो आम आदमी इलाज कराता है. उसी डाक्टर से अब यदि पूज्य, अलौकिक शक्ति संपन्न बाबा भी इलाज करवाता है तो क्या वह (डाक्टर) बाबा की कथित आध्यात्मिक शक्ति से ज्यादा श्रेष्ठ सिद्ध नहीं हो जाता? यह कहा जा सकता है कि शरीर तो भौतिक है, यह तो कोई आध्यात्मिक वस्तु नहीं है. अत: इस के रोगों को शांत करने के लिए भौतिक ज्ञान के मालिक डाक्टरों की शरण में जाने में कुछ भी गलत नहीं है. भौतिकता का अपना क्षेत्र है और आध्यात्मिकता का अपना. अक्षमता की स्वीकृति इस बात को माना जा सकता था, परंतु एक बहुत बड़ी बाधा इन के मार्ग में आ रही है. जब कोई बाबा अध्यात्म के नाम पर भौतिक पदार्थ पैदा करता है, वह चाहे शिवलिंग हो या अंगूठी, पुस्तक हो या रुद्राक्ष के मनके, तब दोनों क्षेत्र पृथक नहीं रहते. तब अध्यात्म भौतिक को पैदा करता है, तब आध्यात्मिक शक्ति से भौतिक पदार्थ पैदा होते हैं. यदि शिवलिंग पैदा हो सकता है तो लिवर, फेफड़ा आदि पैदा करने के मामले में अध्यात्म के भौतिक से पृथक क्षेत्र होने की बात करना शोभा नहीं देता.

यह तो एक तरह से अक्षमता की स्वीकृति ही प्रतीत होती है. मात्र ट्रिक यदि वास्तव में आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र पृथकपृथक हैं तो स्पष्ट है कि भौतिक पदार्थों से बने शिवलिंग, रुद्राक्ष के मनके, अंगूठियां, चेनें, पुस्तकें आदि आध्यात्मिक शक्ति से पैदा करना एकदम असंभव है. यदि कोई उन्हें ‘पैदा’ करता है तो वह सिर्फ हाथ की सफाई है, ट्रिक मात्र है. यदि कोई वास्तव में उन्हें पैदा करता है, जैसा साईं बाबा के मामले में दावा किया जाता था, तो फिर उसे लिवर, फेफड़ा आदि पैदा कर के आईसीयू से बाहर आ जाना चाहिए था और वैंटिलेटर को अलविदा कह देना चाहिए था. दोनों स्थितियां बिलकुल स्पष्ट हैं. एक स्पष्ट स्टैंड लिया जाए. घालमेल नहीं, गड्डमड्ड नहीं. आशीर्वाद कारगर? यदि आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न किसी व्यक्ति के आशीर्वाद से सब रोग व कष्ट दूर हो जाते हैं तो ऐसे व्यक्ति का कथित तौर पर ठीक से इलाज न करने वाले डाक्टरों के विरुद्ध आक्रोश का क्या कोई औचित्य रह जाता है? देखा जाए तो यह कथन ही परस्पर विरोधी है कि आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न बाबा का डाक्टर ठीक से इलाज नहीं कर रहे हैं.

अस्पतालों का औचित्य? कहा जाता है कि साईं बाबा ने पुट्टपर्थी में 500 करोड़ रुपए खर्च कर के सुपर स्पैशियलिटी अस्पताल बनाया है. अन्यत्र भी उन्होंने कई अस्पताल खड़े किए हैं. यदि आध्यात्मिक शक्ति से सब रोग नष्ट हो जाते हैं, जैसा दावा किया जाता है, तो इन अस्पतालों का क्या औचित्य है? यह तो ठीक वैसा है जैसे कई ग्रंथों में कहा गया है कि उन के पाठ से सब रोग और दुख नष्ट हो जाते हैं, ‘यह ग्रंथ सब से बड़ी औषधि है’, ‘इस ग्रंथ का पाठ सब रोगों के लिए रामबाण है’, परंतु उन्हीं ग्रंथों को मानने वालों ने मैडिकल कालेज खोल रखे हैं और उन्हीं की दीवारों पर उन ग्रंथों के उक्त कथन अंकित करवा रखे हैं. यदि ग्रंथों के कथन सच्चे और प्रामाणिक हैं तो वे मैडिकल कालेज व्यर्थ हैं और यदि वे कालेज सार्थक हैं तो ग्रंथों की उक्त बातें गलत हैं. दोनों चीजें एक साथ सही नहीं हो सकतीं. राम और वैद्य रामायण में लिखा है कि लक्ष्मण बाण लगने से जब घायल हो कर मूर्छित हो जाते हैं तब राम ने यह नहीं कहा कि इसे फलां ग्रंथ का पाठ सुनाओ, हमें हनुमान चालीसा सुनाओ.

उन्होंने यह भी नहीं कहा कि इसे मेरा (अर्थात राम का) नाम सुनाओ और न ही यह कहा कि कीर्तन करो, ढोलक बजा कर गीत गाओ. उन्होंने किसी अध्यात्म की बात नहीं की, किसी दैवी शक्ति की बात नहीं की और न ही वहां कोई चमत्कार घटित हुआ. उन्होंने सीधे वैद्य की शरण ली और वैद्य ने औषधि दी. यदि अध्यात्म में घायल व मूर्छित को ठीक करने का सामर्थ्य होता तो राम शत्रु रावण के यहां से सुषेन नामक वैद्य को कभी न बुलवाते. उसे शत्रु के यहां से बुलवाना यही दर्शाता है कि उक्त वैद्य के बिना लक्ष्मण की प्राणरक्षा का और कोई चारा नहीं था. राम ने अध्यात्म और भौतिक का घालमेल नहीं किया, अत: उन का वैद्य की शरण ग्रहण करना किसी तरह की दुविधा को पैदा नहीं करता. परंतु पुट्टपर्थी के अस्पताल दुविधा और प्रश्न पैदा करते हैं, क्योंकि इन का सत्य साईं बाबा की इस कथित आध्यात्मिक शक्ति से सामंजस्य नहीं बैठता जिस से वे भौतिक पदार्थ पैदा कर के दिखाते थे और भक्तों के दुख व रोग हरते थे. जब भभूत से, आशीर्वाद से, हवा में हाथ लहराने से और ऐसे ही अन्य किसी तरीके से रोग नष्ट हो जाते थे तो 500 करोड़ रुपए सीमेंटईंटों व आधुनिक यंत्रों पर व्यय करना समझ से बाहर है. जब दुआ कारगर है तब दवा के प्रयोग का क्या औचित्य है? जब बाबा से ही सब दुआएं मांगी जाती थीं, तब उन के गंभीर हालत में पहुंचने पर उन के लिए किस से दुआएं मांगी जा रही थीं? यदि कोई उन से भी आगे बिग बौस है तो पहले ही उस से क्यों दुआएं नहीं मांगी जाती थीं और किसी बिचवान की बिचवई की क्या तुक थी? दुआ बनाम दवा प्रश्न यह भी उठता है कि क्या दुआ वह काम कर सकती है जो सिर्फ दवा कर सकती है?

यदि ऐसा संभव होता, यदि दुआ दवा का काम कर सकती है तो क्या यह राम को ज्ञात न था? क्या वे अज्ञानी थे जो उन्होंने दुआ को एकदम रद्द कर के दवा को प्राथमिकता दी? सत्य साईं बाबा द्वारा खोले गए अस्पताल दवा के लिए ही हैं, दुआ के लिए नहीं. जब बाबा खुद गंभीर हालत में पहुंचे तब खुद उन्होंने दवा की ही शरण ली, यह तथ्य भी दुआ की निरर्थकता का ही द्योतक है. दुआ क्या है? दुआ है एक कामना, हमारा मनोरथ कि यह ऐसा हो जाए, बीमार बाबा ठीक हो जाएं. टीवी के कई चैनल चिल्ला रहे थे कि हजारों नन्हे हाथ साईं बाबा के लिए दुआ के लिए उठ रहे हैं. महत्त्व उद्यम का हमारे नीतिकारों का कहना है कि दुआ से, मनोरथ या मनोकामना मात्र से, कोई कार्य संपन्न नहीं होता. सब कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं. ऐसा कभी नहीं होता कि शेर दुआ करता है और मृग आ कर खुदबखुद उस के मुंह में पड़ जाता है : उद्यमेन हि सिद्ध्यंति कार्याणि न मनोरथै:, न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशंति मृगा:. अध्यात्म की भूलभुलैया में फंसना उद्यम नहीं, केवल मनोकामना के रथ पर-मनोरथ पर-सवार होना है. पर क्या इच्छाओं के रथ पर सवार हो कर आप कहीं पहुंच सकते हैं? यदि कहीं पहुंचना है तो गति करनी होगी और वह अध्यात्म की भूलभुलैया से निकले बिना एकदम असंभव है. दलदल में फंस कर आप डूब तो सकते हैं, कहीं पहुंच नहीं सकते. अत: हाथ की सफाई दिखाने वालों के झांसे में मत आएं. वे चीजें बना नहीं सकते, केवल पहले से बनी हुई और दूसरों द्वारा बनाई हुई चीजों को मुट्ठी में से निकाल कर दिखा सकते हैं. जब साईं बाबा हवा से ऐसी घड़ी पैदा कर के दिखाते हैं, जिस पर मेड इन स्विस अंकित होता था, तब साफ था कि घड़ी उन्होंने असल में बनाई नहीं थी, बल्कि मंच पर अपनी मुट्ठी में से सिर्फ निकाल कर दिखाई थी, जैसे कोई एक रुपए का सिक्का मुट्ठी में से निकाल कर दिखा दे. रुपए का सिक्का कोई मदारी बनाता नहीं, क्योंकि वह तो पहले से ही भारत सरकार ने बना रखा होता है.

उसे बनाना वैसे भी दंडनीय अपराध है. वह सिर्फ अपनी कला से दृष्टिभ्रम पैदा करता है ताकि असावधान दर्शक को लगे कि उस ने सिक्का हवा में से ऐसे ही पैदा किया है. यदि मदारी सच में सिक्के पैदा कर लेते तो जगहजगह खेल दिखा कर उदरपूर्ति न करते, बल्कि नकली मुद्रा बनाने के अपराध में कारागार की हवा खा रहे होते. यही हाल स्विस में बनी नकली घडि़यां बनाने वाले का होता. मौत पर आत्महत्या टीवी के कई चैनल ऐसे भक्तों को दिखा रहे थे जो कहते थे कि यदि बाबा ठीक न हुए तो हम आत्महत्या कर लेंगे. (पर बाबा के मर जाने पर मरा एक भी भक्त नहीं) ये चैनल ऐसा कर के सीधे सारे लोगों को आत्महत्या के लिए ही प्रेरित करते प्रतीत होते थे, जो भारतीय दंड संहिता की नजरों में एक अपराध है. किसी की मौत पर आत्महत्या करने की मंशा से क्या किसी की महानता सिद्ध होती है? क्या इस से मृत व्यक्ति जीवित हो जाता है या आत्महंता अमर हो जाता है? क्या इस से मौत की सेहत पर कोई असर पड़ता है? मौत की समस्या बदस्तूर मुंहबाए खड़ी नजर आती है, मृतक चाहे कभी कितने ही चमत्कार, दर्शन के दावे क्यों न करता रहा हो या उस की शिष्यमंडली चाहे कितनी ही विशाल क्यों न रही हो. मौत चमत्कारों को और चौंधिया देने वाले तामझाम व तथाकथित आभामंडल को चित कर देती है तथाकथित भगवानों व स्वयंभू दलालों को शव मात्र बना देती है. बाढ़ में बहते तिनके इन (कथित भगवानों व दलालों) के मरने पर भावावेश में आत्महत्या करने वाला भक्त उस धक्के को सह नहीं पाता जो उसे अपने पूज्य भगवान के शव में परिवर्तित होने पर लगता है. वह जिसे सर्वशक्तिमान समझता था, उसे जब वह मौत की बाढ़ में बह रहे एक तिनके के समान असहाय पाता है तो उसे यथार्थ का सामना करने में असुविधा होती है. उसे समझ में नहीं आता कि यह सब कैसे हो गया. क्या गुरुजी एक फूला हुआ गुब्बारा मात्र थे कि हवा निकल गई और वह पिचक गया?

भक्त जब कथित भगवान और कटु यथार्थ में सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहता है तब वह पलायनवादी मार्ग अपनाता है. जैसे पहले वह गुरुजी के अंचल में छिप कर वास्तविकता से भागता था, उसी तरह वह गुरु के शव में परिणत हो जाने पर मौत के अंचल में छिप जाता है. समस्या जीवन को संतुलित व भलीभांति जीने की है, आत्महत्या करने में क्या है? एक मर गया, दूसरे ने खुद को मार लिया, यह अंधशृंखला ही यदि अध्यात्मवाद है तो इसे एक मनोरोग ही कहना होगा. जो टीवी चैनल यह अस्वस्थ संदेश फैला रहे थे वे दरअसल अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन सुचारु रूप से करने में आपराधिक लापरवाही बरत रहे थे, यही कहा जा सकता है. चमत्कार चित यह जीवन का एक अपरिवर्तनीय सत्य है कि जो जन्मता है वह अवश्य मरता है, चाहे वह चमत्कार दिखाता रहा हो या देखता रहा हो. मृत्यु एक बहुत बड़ा व अंतिम साधन है सब को एकसमान कर देने का, सब के समतलीकरण का और सब तथाकथित चमत्कारियों, सर्वशक्तिमानों, दंभियों, पाखंडियों, भगवानों, स्वयंभू दलालों, दैवी शक्तियों के दावेदारों आदि के ढोल की पोल खोलने का. जो शव बन गया, जो मर गया, समझो उस के सब पराप्राकृतिक दावे झूठे थे, वह एक नगण्य इंसान था, वह मात्र कालनेमि था, जो आखिर उघड़ गया. तुलसीदास ने रामचरितमानस में इन के बारे में ठीक ही कहा है : उघरे अंत न होहिं निबाहू, कालनेमि जिमि रावण राहू. हमें वास्तविकता को समझ कर, उस पर दृढ़ता से चलना चाहिए. तभी हम वास्तव में जीवन जी पाएंगे, क्योंकि सारी उम्र मतिभ्रमों में पड़े रहने या हम या उस पाखंडी के पीछे मूढ़मति की तरह चलते जाने का नाम जीवन नहीं है.

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