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आप के पत्र

ध्यान दे सरकार

मैं सरिता के माध्यम से सरकार का ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूं कि वह कड़े कदम उठाए. आज प्राइवेट कालेजों ने युवाओं के सपनों को उड़ान दी है, इंजीनियरिंग में कैरियर बनाना सरल हुआ है लेकिन सचाई बिलकुल अलग है. कालेज में पढ़ाने के लिए टीचिंग स्टाफ ही नहीं हैं, प्रयोगशालाएं नहीं हैं. ऐसे में छात्र क्या पढ़ाई करेंगे और क्या सीखेंगे? सरकार को चाहिए कि वह समय रहते चेते ताकि इंजीनियर्स की गुणवत्ता बनी रहे. मांबाप की मोटी कमाई बच्चों के ऊपर खर्च करने के बाद भी इंजीनियर क्लर्की करते नजर आ रहे हैं. 10 हजार से 15 हजार रुपए की नौकरी अधिकतर इंजीनियर्स की पहचान बन गई है.

 इंजीनियर बना युवा आज हताश और निराश है. ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ यह कहावत आज के इंजीनियरिंग कालेजों पर फिट बैठती है. बच्चे बड़ेबड़े सपने ले कर आते हैं. लेकिन कुशल टीचिंग स्टाफ न होने से उन के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग रहा है. टीचिंग स्टाफ की गुणवत्ता पर कुछ नियमकानून बनने आवश्यक हैं वरना इंजीनियर्स की एक ऐसी खेप तैयार होगी जो देश के भविष्य के लिए खतरा बनेगी.

रेखा सिंघल, हरिद्वार (उत्तराखंड)

आप के पत्र

क्रूर परंपरा

जून (द्वितीय) अंक में लेख ‘धर्म की क्रूर परंपरा औरतों का खतना’ पढ़ा. अभी तक पुरुषों का खतना सुना था पर औरतों का खतना भी होता है, जानकर अजीब लगा. निश्चय ही यह धर्म की कू्रर परंपरा है. इस से साबित होता है कि धर्म के नाम पर प्रकृति प्रदत्त शरीर पर भी तरहतरह के अंकुश लगाए जाते हैं.

हजारों साल पुरानी अवैज्ञानिक नसीहतों द्वारा जबरदस्ती समाज का रहनुमा बनने का मोह ही यह करवाता है. इसलिए खाप पंचायतों और काजी लोगों के फैसले अजीब होते हैं. पैसे ले कर यदि संसद में प्रश्न पूछे जा सकते हैं तो उन से फतवे क्यों नहीं जारी हो सकते हैं? सरिता, ऐसे आलेख छाप पर अपनी परंपरा बनाए हुए है, जो सराहनीय है.

माताचरण पासी, देहरादून (उत्तराखंड)

आप के पत्र

मोदी शक्ति

लेख ‘समस्याओं के अंबार पर मोदी सरकार’ पढ़ कर दिल इसलिए बागबाग हो गया कि चुनाव से पहले जो लोग नरेंद्र मोदी को रातदिन पानी पीपी कर कोसने से नहीं अघाते थे, वे लोग और संस्थान अब उन की तारीफ करते नजर आ रहे हैं. इस लेख में जो कुछ पढ़ने को मिला, उसे पढ़ कर पाठकों की आंखें खुल गई होंगी कि आखिर नमो का विरोध कितना गलत और कितना सही था.

खैर, कहावत भी तो है कि ‘सोना तप कर ही कुंदन बनता है’, ठीक उसी तरह के विरोधों का डट कर मुकाबला कर, विजयश्री को अपने माथे पर लगा कर, नमो ने अपना जो स्वरूप प्रस्तुत किया है उस की प्रशंसा न केवल भाजपा या समर्थक दलों में हो रही है बल्कि अन्य कई विरोधी दलों में भी प्रशस्ति गान की झलक स्पष्ट नजर आ रही है.

आश्चर्य का विषय तो यह है कि कल तक जहां विदेशी सरकारों के नमो की काट पर संघर्ष चल रहा था है वह अब न केवल ठंडा पड़ गया है बल्कि नमो के स्वागत में ‘रैड कारपेट’ बिछाने की पहल में बदल गया है.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

आप के पत्र

लोकतंत्र के स्तंभ

जून (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘समस्याओं के अंबार पर मोदी सरकार’ पढ़ा. दरअसल, देश समस्याओं से घिरा है. उन का निराकरण किए बिना समस्याओं के अंबार से मुक्ति पाना संभव नहीं है.

देश के नौकरशाह अपनेआप को जनसेवक न मान कर देश की आम जनता को सेवक मान कर कार्य करते हैं जिस से आम जनता के वाजिब कार्य भी समय पर नहीं होते. जबकि असामाजिक तत्त्वों के प्रलोभन के दबाव में कार्य तुरंत हो जाते हैं. इसलिए नौकरशाह देश के हर नागरिक का कार्य, जो कानूनी तौर पर सही हो, तुरंत समय पर करें.

विधायिका के तहत चुने गए राजनेता अपने को लोकसेवक न मान कर जनता को सेवक मान कर चलते हैं. जबकि वे आम जनता के मतों से ही राजनेता बनते हैं. ये लोग उद्योगपतियों, उन के चमचों का तो कार्य प्राथमिकता से करते हैं जबकि आम व्यक्ति इन के चक्कर लगा कर थक कर बैठ जाता है और ऐसे नेताओं को मत दे कर अपनेआप को ठगा महसूस करता है.

न्यायपालिका से न्याय समय पर न मिलने की वजह से आम नागरिक हताश जिंदगी जीने को मजबूर है.

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया बड़े वर्ग पर तो ध्यान देता है लेकिन आम नागरिकों की वाजिब समस्याओं को प्रकाशित या प्रसारित नहीं करता है.

आम जनता अपना मत दे कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है. हर नागरिक को अपने परिवार समाज की तरह देशहित में भी कार्य करना चाहिए.

जगदीश प्रसाद पालड़ी ‘शर्मा’, जयपुर (राज.)

आप के पत्र

लोकतंत्र के स्तंभ

जून (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘समस्याओं के अंबार पर मोदी सरकार’ पढ़ा. दरअसल, देश समस्याओं से घिरा है. उन का निराकरण किए बिना समस्याओं के अंबार से मुक्ति पाना संभव नहीं है.

देश के नौकरशाह अपनेआप को जनसेवक न मान कर देश की आम जनता को सेवक मान कर कार्य करते हैं जिस से आम जनता के वाजिब कार्य भी समय पर नहीं होते. जबकि असामाजिक तत्त्वों के प्रलोभन के दबाव में कार्य तुरंत हो जाते हैं. इसलिए नौकरशाह देश के हर नागरिक का कार्य, जो कानूनी तौर पर सही हो, तुरंत समय पर करें.

विधायिका के तहत चुने गए राजनेता अपने को लोकसेवक न मान कर जनता को सेवक मान कर चलते हैं. जबकि वे आम जनता के मतों से ही राजनेता बनते हैं. ये लोग उद्योगपतियों, उन के चमचों का तो कार्य प्राथमिकता से करते हैं जबकि आम व्यक्ति इन के चक्कर लगा कर थक कर बैठ जाता है और ऐसे नेताओं को मत दे कर अपनेआप को ठगा महसूस करता है.

न्यायपालिका से न्याय समय पर न मिलने की वजह से आम नागरिक हताश जिंदगी जीने को मजबूर है.

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया बड़े वर्ग पर तो ध्यान देता है लेकिन आम नागरिकों की वाजिब समस्याओं को प्रकाशित या प्रसारित नहीं करता है.

आम जनता अपना मत दे कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है. हर नागरिक को अपने परिवार समाज की तरह देशहित में भी कार्य करना चाहिए.

जगदीश प्रसाद पालड़ी ‘शर्मा’, जयपुर (राज.)

आप के पत्र

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘काले धन पर स्पैशल टीम’ अद्वितीय है. आज का यह एक ज्वलंत मुद्दा है. जिस तरह मोदी ने काले धन से निबटने के लिए अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में विशेष जांच टीम का गठन किया है, उस से आशा बंधती है कि वे जरूर इस विषय में कुछ कर के रहेंगे.

अगर वास्तव में काले धन की वापसी होती है तो देश की गरीबी मिटाने में काफी सहायता मिलेगी और आगे से काला धन विदेशों में रखने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगेगा. पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी एक टीम गठित करने का आदेश पिछली सरकार को दिया था पर वह सरकार टालमटोल करती रही. वह सरकार इस फैसले को गैरकानूनी और असंवैधानिक मानती रही और बारबार सर्वोच्च न्यायालय पर उस पर पुनर्विचार करने का दबाव बनाती रही.

नरेंद्र मोदी ने यह काम पहली बैठक में कर के अगर यह बताया है कि वे काले धन के प्रति चिंतित हैं तो यह भी साफ कर दिया है कि कोई सरकार अपने पिछले कुकर्मों के लिए सदासदा के लिए सुरक्षित नहीं है. जिन मामलों में रिश्वत ली गई है उन के रिकौर्ड लंबे समय तक रहते हैं और इच्छा हो तो काले धन के हस्तांतरण का रूट पता किया जा सकता है.

पिछली सरकारें इसलिए इस विषय में टालमटोल करती रही हैं क्योंकि इस से बड़ेबड़े दिग्गजों की काली करतूतों का भेद खुलने का डर बना हुआ था. अब देखना यह है कि नरेंद्र मोदी अपने इस प्रयास में कितना सफल होते हैं. यदि वे इस लक्ष्य में सफल हो जाते हैं तो नए भारत का उदय होगा.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

आप के पत्र

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां’ पढ़ी. यह सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री के समक्ष अनगिनत समस्याओं का समंदर लहरा रहा है. उन से लोगों की अपेक्षाएं काफी ज्यादा हैं. इस के लिए जनहित में धन, सामग्री, सुविधा के परिवहन तंत्र को उन्हें इतना पारदर्शी बनाना है कि सभी सुविधाएं आम जनता तक सीधे पहुंच सकें. गरीब, असहाय जनता के अधिकारों के मूल्य पर धनी और धनी कैसे होते गए, नेतागण व उन के रिश्तेदार अरबपति कैसे बन गए? प्रशासन तंत्र की यह कैसी पारदर्शिता है कि बिना चोरी किए जनहित का कोई काम ही संभव नहीं? इन के कारणों का निवारण करना है. प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी भाजपा भी कोई दूध से धुली हुई नहीं है.

देश के अंदर छिपे हुए काले धन की बरामदगी से ही बहुत सारी समस्याओं का निदान हो सकता है. जिन मुद्दों को आधार बना, जनता को भरमा, उन को लड़ा कर बांटते हुए राजनीतिक पार्टियां सत्तारूढ़ होती हैं उन से भी उन्हें सख्ती से निबटना है. कालिखों से भरे शासकीय तंत्रों के विरुद्ध उन का हुंकार अभियान ही था जो विजयश्री की माला उन्हें अर्पित की गई. उस की अनुगूंज की प्रखरता को उन्हें बरकरार रखना होगा.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जून (द्वितीय) 2014

‘नए प्रधानमंत्री के लिए चुनौतियां’ शीर्षक से प्रकाशित आप की टिप्पणी पढ़ी. नई सरकार को यह बात तो समझ ही लेनी चाहिए कि सभी कार्य धीरेधीरे, ढंग से सिलसिलेवार ही होंगे.

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार बनते ही सारे विपक्षी दलों ने उन्हें राजकाज समझने तक का वक्त नहीं दिया था और वादे पूरे करने के दबाव शुरू हो गए थे. केंद्र में बैठे मंत्रियों को भी यह बात समझ लेनी होगी कि वे अब सिर्फ दिल्ली या महानगरों के लिए ही नहीं हैं, बल्कि लक्षद्वीप, त्रिपुरा या अंडमान के भी उतने ही संरक्षक हैं. उन्हें दूरदराज प्रदेशों के भी औचक दौरे करने चाहिए न कि पहले से बता कर या कार्यक्रम बना कर वहां जाया जाए.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

साईं बाबा बनाम शंकराचार्य विवाद : धर्मों में आपसी वैर का दोहराव

विश्व में एक बार फिर धर्मों के भीतर लड़ाई जोर पकड़ रही है. इराक, सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में मुसलमान गुटों में खूनी संघर्ष बताता है कि अब देशों में राजनीतिक लड़ाई की जगह एक ही धर्म के अलगअलग पंथों के बीच कलह चरम पर पहुंच रही है. भारत में कुछ ऐसा ही मामला साईं बाबा की पूजा को ले कर द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने उठाया है. यह भी हिंदू धर्म के मानने वालों की आस्था और विश्वास से जुड़ा हुआ है.

एक ही धर्म में विश्वास और मान्यताओं को ले कर विवाद कोई नई बात नहीं है. विश्व के धर्मों में आपसी लड़ाई बहुत पुरानी है. हर धर्म में अकसर विचारों और मान्यताओं को ले कर मतभेद जगजाहिर होते आए हैं. काफी खूनखराबे हुए हैं. 2 अलगअलग धर्मों के बीच हिंसा और मारकाट तो स्वाभाविक है पर यहां तो एक ही धर्म के लोग आपस में युद्धरत हैं. इराक व सीरिया में इसलाम धर्म के अनुयायियों–शिया और सुन्नियों के बीच हजारों जानें ले चुका गृहयुद्ध आज का नहीं है. यूरोप में ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट के बीच झगड़ा चलता आया है. भारत में भी हिंदू धर्म में आपसी वैरविद्वेष और कलह का रक्तरंजित इतिहास रहा है. बौद्धों में हीनयान और महायान लड़तेझगड़ते रहे हैं.

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा की पूजा की मुखालफत के बाद हिंदू धर्र्म के ही 2 गुट आमनेसामने हैं. देश के प्रमुख धार्मिक तीर्थस्थलों पर इस मामले को ले कर खासी हलचल है. इलाहाबाद, बनारस और हरिद्वार में मठों, आश्रमों, मंदिरों में सामान्य भक्तों से ले कर साधुसंतों, महंतों, महामंडलेश्वरों की प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है.हरिद्वार में हर की पैड़ी से ले कर शंकराचार्य चौक, संन्यास रोड, भीमगौड़ा, सप्त सरोवर मार्ग, कनखल, ऋषिकेश तक शंकराचार्य-साईं पूजा विवाद चर्चा में है. इस विवाद पर हर किसी के कान खड़े हैं. हरिद्वार में स्थित सभी अखाड़े और महामंडलेश्वर  शंकराचार्य के साथ हैं तो साईं बाबा के भक्त शंकराचार्य के विरोध में गुस्साए हुए हैं. नागा अखाड़ा तो साईं पूजा के खिलाफ खासा आक्रोशित है. वह धर्मयुद्ध पर उतारू नजर आता है.

जो सनातनी हिंदू यानी ब्राह्मण हैं वे इस विवाद पर धिक कुछ नहीं बोलना चाहते पर अंदर से शंकराचार्य के साथ हैं. हरिद्वार में करीब एक दर्जन महामंडलेश्वर आश्रमों की ओर से केवल यही कहा जा रहा है कि जब शंकराचार्य ने कहा है तो सही है. हम सब उन के साथ हैं. लेकिन जो गैरब्राह्मण यानी दलित, शूद्र साधु और उन की धार्मिक संस्थाएं हैं, वे  हिंदू धार्मिक व्यवस्था और शंकराचार्य द्वारा उठाए गए इस विवाद की निंदा करते हैं. हालांकि वे यह भी कहते हैं कि हम इस धर्मनगरी में रहते हैं और इसी धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत आते हैं तो अधिक बोलना ठीक नहीं है.

धर्म और मत

हरिद्वार के निर्मला छावनी बेगमपुर में स्थित श्री रविदास साधु संप्रदाय सोसायटी को इस विवाद का पता है. सोसायटी का कहना है कि हम सभी धर्मों का आदर करते हैं. परमात्मा का बनाया हुआ कोई धर्र्म नहीं है. उन का धर्म सिर्फ इंसानियत है और हम इंसान की कद्र करते हैं. हम यह विश्वास करते हैं कि लोग जातिपांति और धर्र्म में न पड़ें. श्री रविदास साधु संप्रदाय सोसायटी को हिंदू धर्म की ऊंचनीच, भेदभावपूर्ण व्यवस्था की टीस भी है पर वह खुल कर अधिक बुराई नहीं करना चाहती.

हरिद्वार की गांधी हरिजन धर्मशाला के प्रबंधक रामदास हिंदू धर्म की बुराइयों पर खुल कर बोलते हैं. वे कहते हैं, ‘‘इस विवाद के पीछे शंकराचार्य का क्या ध्येय है, हम समझ ही  नहीं पाए.’’ वे दलितों के साथ भेदभाव पर गहरा दुख जताते हैं पर अब वे उसी व्यवस्था को अंगीकार किए बैठे हैं. इस धर्मशाला में प्रवेश करते ही सामने एक छोटा मंदिर बना दिखाई देता है जिस में राम, कृष्ण की मूर्तियां स्थापित हैं.

सप्त सरोवर मार्ग पर स्थित विश्व सद्भावना साईं मंदिर के प्रमुख पारसमुनि कहते हैं, ‘‘साईं बाबा ने सनातन धर्म को कोई चोट नहीं पहुंचाईर् है. बाबा ने किसी को कुछ नहीं कहा. शिष्यों ने सम्मान दिया है. साईं को गुरु माना है. न तो बाबा ने कहा कि उन्हें भगवान मानो, न भक्तों ने उन्हें भगवान या अवतार माना है. भक्त तो उन्हें गुरु मान रहे हैं. गुरु को भगवान से भी बड़ा बताया गया है. सब लोग अपनेअपने हिसाब से मान रहे हैं. शंकराचार्य ने विरोध क्यों किया, हो सकता है उन पर कोई दबाव हो. उन के मन में कुछ आया हो. हम साईं को गुरु मानेंगे. साईं बाबा ने अपना कोई प्रचार नहीं किया. भक्त ही कर रहे हैं. उन्होंने तो पाखंडों का विरोध किया. बिना किसी जाति, धर्म  के इंसानियत की सीख दी और इंसानियत का ही प्रचार किया. हिंदू लोग उधर क्यों जा रहे हैं, यह शंकराचार्य देखें, वे सनातन धर्म को बढ़ाएं.’’

हर की पैड़ी मार्ग स्थित दुर्गा साईं मंदिर के पुजारी शीशराम उनियाल साईं बाबा की मूर्ति के पास बैठे पूजा कर रहे हैं. गहरा भगवा पहने, माथे पर ऊपर लाल और नीचे पीला तिलक लगाए उनियाल साईं बाबा की पैरवी करते हुए कहते हैं, ‘‘साईं बाबा कलियुग के देवता हैं. भगवान ने कहा था कि वह प्रत्यक्ष रूप में दर्शन नहीं दे पाएंगे. किसी न किसी रूप में दर्शन देंगे. लोग भक्ति कर रहे हैं तो उन्होंने चमत्कार देखे हैं.’’यह सच है कि हरिद्वार के वैष्णव मंदिरों में आज भी दलित, शूद्र प्रवेश करने से कतराते हैं. गंगा में डुबकी लगाने में हिचकते हैं.

विष्णु, राम, कृष्ण, लक्ष्मीनारायण और सूर्य मंदिर लगभग सूने से नजर आ रहे हैं. भक्तों की आवाजाही काफी कम है. लेकिन कबीर, रविदास, साईं बाबा आश्रम और मंदिरों में भीड़ दिखती है. चारधाम की यात्रा शुरू है फिर भी हरिद्वार के रास्तों और यहां के होटलों, धर्मशालाओं और आश्रमों में खालीपन पसरा हुआ है. 8 जुलाई को मोक्षदायी एकादशी होने के बावजूद मंदिरों में भीड़ कम थी.

सूना है आश्रम

विवाद खड़ा करने वाले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कनखल स्थित आश्रम सूना पड़ा है. यहां केवल 1-2 केयरटेकरों के अलावा और कोई नजर नहीं आया. 7 और 8 जुलाई को इस आश्रम में राजा नाम का एक युवक मिला. उस ने बताया कि यहां शंकराचार्य साल में 1-2 बार ही आते हैं. संन्यास मार्ग स्थित महामंडलेश्वरों के आश्रम लगभग खाली दिखाईर् पड़ रहे हैं. इन में भक्तों की अधिक आवाजाही नहीं है. माथे पर तिलक और भगवाधारी महामंडलेश्वर के शिष्य अनजान के साथ बातचीत में अहंकारी दिखाई देते हैं.

हर की पैड़ी पर एक दिलचस्प नजारा देखा जा सकता है. यहां देशभर से अस्थि विसर्जन कराने और अन्य कर्मकांड कराने आने वालों के लिए पुरोहितों की कतार लगी है. इन में एक हैं पंडित गंगाराम. इन महानुभाव ने अपनी दुकान के बाहर दीवार पर लिख रखा है, ‘‘अनुसूचित जातियों के एकमात्र तीर्थपुरोहित.’’ आगे लिखा है, ‘‘इन सीटों पर केवल अनुसूचित जाति के लोग ही बैठ सकते हैं.’’

मजे की बात है कि इस यजमान के यहां भीड़ लगी है और बाहर टेबल पर बहीखातों का ढेर लगा है जिन में पीढि़यों का लेखाजोखा दर्ज रहता है. तिलक लगाए एक प्रौढ़ मुख्य सीट पर तो दूसरे युवा पंडित इधरउधर बैठे हैं जो शायद पुरोहित परिवार के हैं. दूसरे सनातनी ब्राह्मण खाली बैठे हैं. दरअसल, साईं बाबा जैसे धर्मस्थलों में अधिकतर वे लोग जाते हैं जिन्हें हिंदू धर्म में सम्मान नहीं मिला, जिन के लिए पूजापाठ, पढ़नालिखना वर्जित किया गया था. तीर्थों पर जाने की पाबंदी थी. उन के लिए मोक्ष के कोई माने न थे.

‘जाति न पूछो साधु की’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं पर यहां साधु और भक्त की जाति पहले पूछी जाती है. माथा देख कर तिलक लगाया जाता है. यहां सदियों तक जाति पूछ कर मंदिरों में प्रवेश का अधिकार ऊंची जातियों के पास सुरक्षित रहा है. तो क्या साईं की पूजा हिंदू देवीदेवताओं, अवतारों, धर्मगुरुओं और शंकराचार्यों की नाकामी का नतीजा है, जो भक्तों की मुरादें पूरी करने में नाकाम साबित हो रहे हैं? हिंदू धर्र्म के इतने सारे चमत्कारी लोग भक्तों की मनोकामनाएं पूरी नहीं कर पा रहे हैं? क्या इसीलिए भक्त लोग 20-30 साल बाद कोई न कोई नया चमत्कारी भगवान गढ़ लेने पर मजबूर  हो रहे हैं?

लेकिन इन जातियों का भला भी किसी साईं बाबा की पूजापाठ से नहीं हो सकेगा. यह तो वही हिंदूवादी व्यवस्था है जिस के शिकार ये लोग सदियों से रहे हैं. देवताओं, गुरुओं, बबाओं के चमत्कारों में पोल ही पोल है. इन के प्रति विश्वास खोखला है. कुछ समय पहले संतोषी माता के मंदिर उग आए थे.

शंकराचार्य कहते हैं कि साईं बाबा और संतोषी माता जैसे देवीदेवताओं का हिंदू शास्त्रों में कहीं कोई जिक्र नहीं है. लेकिन कई निराश भक्त पूछ रहे हैं कि जिन की शास्त्रों में गाथाएं गाई गई हैं और धर्मगुरु जिन के बारे में दिनरात गुणगान करते हैं उन्होंने कौन सी भक्तों की नैया पार लगा दी, कौन सी समस्याएं दूर कर दीं? गनीमत है कि अब भारत में एक ही धर्म के लोग आपस में युद्ध नहीं करते. सिर्फ बातें बनाते हैं या छोटीमोटी तोड़फोड़ करते हैं जैसे सिखों में संत गुरमीत रामरहीम सिंह. वे साथ ही रहते हैं. पहले इस तरह के विवादों पर सेनाएं खड़ी कर ली जाती थीं.

आज इराक और सीरिया के शिया व सुन्नियों की तरह यूरोप के देशों में भी कहीं कैथोलिक तो कहीं प्रोटेस्टैंट राजा थे. यूरोप में दशकों तक कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाइयों के बीच युद्ध चलता रहा. लाखों लोगों को जानें गंवानी पड़ीं. एकदूसरे के चर्च तोड़े गए, संपत्ति लूटी गई, कब्जाई गई.

इसलाम धर्म के पैगंबर मुहम्मद के दुनिया से जाने के बाद ही मुसलमानों में विवाद शुरू हो गया था. शिया और सुन्नी का झगड़ा इमाम और खलीफाओं को मानने को ले कर है. यह झगड़ा सदियों से चला आ रहा है. ईरान अकेला देश है जहां शिया राष्ट्रीय धर्र्म है. इस के अलावा इराक और बहरीन में शिया बहुमत में हैं. सीरिया, फलस्तीनी अरब आदि इलाकों में सुन्नी बहुलता है. उत्तरी अफ्रीका के बहुत से देशों में सुन्नियों की आबादी अधिक है. इराक व सीरिया के गृहयुद्ध में अन्य देश भी कूद पड़े हैं.

भारत में 10वीं शताब्दी के आसपास हिंदुओं में ही शैव और वैष्णवों के बीच खूनी लड़ाई चली. बौद्धों में हीनयान और महायान संप्रदाय के बीच झगड़ा चला. जैनों में श्वेतांबर और दिगंबरों के बीच विवाद रहा है.

लोग एक से दूसरे भगवान, गुरु की शरण में भटकते रहेंगे पर हाथ कुछ नहीं आना है. धर्म के दलाल एकदूसरे को लड़ाते, मरवाते रहेंगे. मान्यताओं, विश्वासों पर अपनी राय थोपने की कोशिश करेंगे. दुनियाभर में यही हो रहा है. दुनियाभर में आपस में लोगों की जानें लेने, वैरविद्वेष, झगड़ा कराने वाले धर्म कैसे हैं? ये कैसे धर्मगुरु हैं जो मान्यताओं के नाम पर, पूजापाठ के नाम पर, विश्वास के नाम पर लोगों को एकदूसरे से लड़वाते आए और आज भी वही कर रहे हैं.

साईं बनाम शंकराचार्य

साईं पूजा किन हिंदुओं की व्यथा का स्वरूप है : हिंदू धर्म जिस में नदी, पहाड़, पेड़ और पशुपक्षी तक पूजे जाते हों उस में एक फकीर की पूजा को ले कर पैदा किए विवाद से करोड़ों लोग हैरत में हैं कि साईं बाबा की पूजाअर्चना पर विवाद क्यों? हिंदू धर्म की कथित उदारता एक बार फिर कठघरे में है. इस दफा बवाल खड़ा किया है द्वारका पीठ के धर्मगुरु और ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के मुखिया जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने. उन के एतराज की मंशा या व्याख्या अगर एक लाइन में की जाए तो वह लाइन होगी ‘क्योंकि साईं बाबा ब्राह्मण नहीं थे.’

अपनी बात समझाने के लिए स्वरूपानंद एक पखवाड़े तक अलगअलग जगहों पर अलगअलग तर्क और उपदेश देते रहे. हिंदू धर्म की मान्यता और मूल्य सनातन धर्म पर आधारित हैं. ये कौन सी मान्यताएं और कौन से मूल्य हैं जो हिंदू धर्म की सनातन कमजोरी हैं. जिन्हें खूबियां बता कर हिंदू धर्म के ठेकेदार और दुकानदार चांदी काटते रहे हैं? साईं बाबा के बहाने इस सनातन धर्म की दुकान घाटे में चलने लगी और ढहती दुकान को फायदे का धंधा बनाने की कोशिश जारी है. इस का एक पहलू यह है कि हिंदू धर्म, जिसे स्वरूपानंद सनातन धर्म कहते हैं, ब्राह्मणसंतों की जागीर है. दूसरा पहलू आर्थिक है कि अरबों का चढ़ावा शिरडी क्यों जा रहा है जिसे पंडे, पुजारियों और संतमहंतों के श्रीचरणों में होना चाहिए था. तीसरा पहलू राजनीतिक है कि अब कांग्रेस हिंदुत्व के मुद्दों पर से भारतीय जनता पार्टी का दबदबा तोड़ने पर आमादा है.

एक खतरनाक पहलू सामाजिक है कि साईं बाबा के बहाने हिंदू समाज को एक बार और तोड़ने व बांटने की कोशिशें की जा रही हैं, वह भी हिंदू संतों द्वारा ही.

शास्त्रीय सिद्धांतों के अनुसार, स्वरूपानंद की तमाम बातें और दलीलें सच हैं. दरअसल, हिंदू धर्म का खोखलापन, आडंबर, पाखंड और जातिविशेष की पूजा हिंदुओं में ही आपस में भेदभाव, वैमनस्य को उजागर करते हैं. करोड़ों हिंदुओं और साईं भक्तोंमें स्वरूपानंद कोई असमंजस पैदा नहीं कर पाए क्योंकि धर्म को मानने वाले अब बदल रहे हैं. यह बदलाव सुखद किसी लिहाज से नहीं है पर दुखद इस लिहाज से है कि इस घोर कलियुग में छोटी जाति वाले हिंदू, जो कल तक अछूत कह कर अपमानित किए जाते थे, आज ब्राह्मणों और दूसरी ऊंची जाति वालों पर राज कर रहे हैं.

धर्म की दुकान

स्वरूपानंद ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया है बल्कि अपनी व्यथा व्यक्त की है जिस का सार समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि उन्होंने जो कहा उस के असल माने क्या थे और इस के नतीजे क्या होंगे. बीते 2 दशकों में समाज में भारी बदलाव आए हैं. हिंदुओं की नई पीढ़ी विश्लेषण नहीं करती, सीधे फैसला लेती है. ये हिंदू आसमान से नहीं टपके हैं बल्कि क्रमबद्ध तरीके से समाज की मुख्यधारा को काटते खुद मुख्यधारा बन बैठे हैं. ये शिक्षित हैं पर तार्किक नहीं हैं, धर्म और भगवान को मानने का अपना मौलिक तरीका इन्होंने विकसित कर लिया है जो हिंदू धर्म का हिस्सा होते हुए भी पंडों का मुहताज नहीं है. और इसी व्यथा को स्वरूपानंद ने व्यक्त किया और इतने आक्रामक तरीके से किया कि खुद मजाक का पात्र बन बैठे.

जबलपुर के नजदीक श्रीधाम (गोटेगांव) में स्वरूपानंद का भव्य वातानुकूलित आश्रम है जिस की शानोशौकत देखते ही बनती है.  जबलपुर के ही एक भाजपा के कार्यकर्ता की मानें तो स्वरूपानंद को साईं बाबा से कम चढ़ोत्री नहीं मिलती है. आश्रम की 20 एकड़ जमीन या तो दान में मिली है या औनेपौने दामों में उन्होंने खरीद ली है. कुछ सरकारी जमीन भी दबाए जाने की बात इस कार्यकर्ता ने कही. स्वरूपानंद सोने के मोटेमोटे गहने पहनते हैं और बेशकीमती रत्न धारण करते हैं.

साईं बाबा की पूजा पर उन का एतराज दुकानदारी के अलावा कुंठा, पूर्वाग्रह, ईर्ष्या ज्यादा लगता है जिस से मुक्त रहने और होने की बात तमाम धर्मगुरु करते हैं यानी ‘हम करें तो लीला, कोई और करे तो अपराध’ वाली बात उन पर लागू होती है.

क्या था मामला

बीती 25 जून को स्वरूपानंद ने बयान दिया कि शिरडी वाले साईं बाबा कोई भगवान नहीं हैं. उन की पूजा को बढ़ावा देना हिंदू धर्म को बांटने की साजिश है. बकौल स्वरूपानंद, हिंदू धर्म में अवतार और गुरु की पूजा होती है. हिंदू धर्म के 24 अवतारों में से कलियुग में बुद्ध और कल्कि ही अवतार हुए हैं. साईं पूजा को निरर्थक बताते हुए शंकराचार्य ने उन के मंदिरों को भी अनुचित ठहराया. जल्द ही स्वरूपानंद मुद्दे की बात चढ़ावे पर आते हुए बोले कि शिरडी में चढ़ावा ब्रिटेन से आता है, साईं के नाम पर व्यवसाय किया जा रहा है. उन्होंने साईं बाबा को हिंदूमुसलिम एकता का प्रतीक मानने से भी इनकार किया.

इस बयान की उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रिया हुई. करोड़ों साईंभक्तों के अलावा गैर साईंभक्तों ने भी सोचना, पूछना और कहना शुरू कर द या कि लोग साईं बाबा को पूजें. इस से आप को क्या, यह तो व्यक्तिगत बात है. एक वर्ग के लोगों ने स्पष्ट माना कि संतों को पैसे से मोह नहीं होना चाहिए. लोग अगर साईं बाबा को चमत्कारी मानते हैं तो मानने दें. आप इस लायक हैं तो आप भी चमत्कार दिखा कर पैसा कमाने लगें. आम राय यह भी बनी कि चूंकि बड़ी तादाद में लोग शिरडी जा कर चढ़ावा चढ़ाते हैं इसलिए शंकराचार्य कुढ़ रहे हैं.

इस पर साईंभक्त चुप नहीं बैठे. उन्होंने स्वरूपानंद के खिलाफ एफआईआर दर्ज करानी शुरू कर दी. स्वरूपानंद इस दुसाहस पर भड़क उठे और खुल कर मैदान में आ गए. लोगों ने इस दलील से कोई इत्तेफाक नहीं रखा कि साईंपूजा हिंदू धर्म को बांटने वाली है, न ही अवतारों वाली बात में रुचि ली. मंदिर न बनाने की बात भी यह कहते खारिज कर दी गई कि इस देश में तो सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन के भी मंदिर बनाए जाते हैं, फिर साईं मंदिरों पर एतराज क्यों?

किसी को यह समझ नहीं आया कि स्वरूपानंद का एतराज एक ऐसे आदमी को संत या भगवान न मानने का है जो छोटी जाति का या कथितरूप से मुसलमान है. यह भी लोग नहीं समझ पाए कि वे हिंदू देवीदेवताओं के मंदिरों में पैसा चढ़ाने का मशविरा दे रहे हैं जहां पुजारी ब्राह्मण होता है और चढ़ावे का पैसा उसे ही मिलता है.

वाराणसी से शिरडी तक स्वरूपानंद के खिलाफ साईंभक्तों ने प्रदर्शन किए तो वे घबरा कर हरिद्वार आ गए पर बजाय बयान वापस लेने के आग में घी डालते कह डाला कि साईंभक्तों को राम का पूजन नहीं करना चाहिए, न ही हरहर महादेव का जाप करना चाहिए. इस दिन यानी 24 जून को पहली दफा स्वरूपानंद ने बजाय हिंदू धर्म के सनातन धर्म शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा कि सनातन धर्म की रक्षा करना उन का कर्तव्य है.

पैंतरा बदलते हुए उन्होंने यह भी कहा कि मैं शास्त्रसम्मत बात कर रहा हूं. आखिर क्यों कुछ लोग साईं बाबा को हिंदू देवता बताने पर तुले हुए हैं. साईंभक्त अपनी आस्था के लिए स्वतंत्र हैं पर वे साईं को हिंदू देवता के तौर पर प्रकट कर प्रोजैक्ट करें तो यह गलत है.

इस बखेड़े में 28 जून को साध्वी उमा भारती भी कूदीं. उन्होंने कहा, ‘‘मैं खुद भी साईंभक्त हूं, साईं पूजा में गलत कुछ नहीं है.’’ कभी हिंदुत्व की पैरोकार और विवादित ढांचा ढहाए जाने की नायिका रहीं उमा भारती के इस पत्र पर स्वरूपानंद बिफर उठे. वे अब तक हरिद्वार में संतमहंतों की बैठकों में अपने पक्ष में काफी अच्छा माहौल तैयार कर चुके थे.

29 जून को हरिद्वार में संतों की एक बैठक  हुई जिस में महामंडलेश्वर स्वामी दिव्यानंद महाराज, स्वामी श्यामसुंदर दास शास्त्री, स्वामी मंगलदास, महंत कपिल मुनि महाराज और महंत कमलदास महाराज सहित दर्जनों संतों ने मिल कर उमा पर हमला बोल दिया. शुरुआत स्वरूपानंद ने यह कहते हुए की कि उमा भारती मुद्दे का राजनीतिकरण न करें और न ही धार्मिक मामलों में दखल दें. उमा भारती केंद्रीय सरकार में मंत्री हैं, देवी नहीं. स्वरूपानंद ने यह भी कहा कि उमा भारती के गुरु मेरे विचारों से सहमत हैं.

साईं से चिढ़ क्यों

न केवल स्वरूपानंद बल्कि देशभर के तमाम धर्मस्थलों पर दोनों हाथों से दक्षिणा और चढ़ावा बटोरते पंडेपुजारी भी साईंबाबा से चिढ़ते हैं. इस की खास वजह सालाना अरबों रुपयों का चढ़ावा शिरडी के मंदिर पर जाना है. सत्यनारायण, संतोषी माता और वैभव लक्ष्मी जैसे देवीदेवताओं का बुखार अब धर्मांध और अंधविश्वासी लोगों के सिर से उतर रहा है. ऐसे में साईं बाबा  उन्हें  बेहतर विकल्प के रूप में मिल गए. इसलिए यह कोई नहीं देखता है कि वे कौन थे और किस धर्म के मानने वाले थे.

स्वरूपानंद जैसे शंकराचार्य और तमाम पंडेपुजारी जानतेसमझते हैं कि साईंबाबा बुद्ध की तरह हिंदू कर्मकांड के घोर विरोधी थे. उन्होंने वाकई कभी गंगाजल नहीं पिया, न ही ग्रहनक्षत्रों की बात की, ज्योतिष का विरोध उन्होंने किया और दीक्षा जैसे पैसा बरसाने वाले संस्कार से भी सरोकार नहीं रखा. वे स्त्रीशोषण के भी खिलाफ थे. दूसरे छोटेबड़े हिंदू मंदिरों की तरह शिरडी के मंदिर में जातिपांति या धर्म को ले कर कोई भेदभाव नहीं है. इस लिहाज से स्वरूपानंद का यह कहना ठीक है कि वे हिंदू नहीं थे. ऐसा आदमी जो हिंदू धर्म में व्याप्त पाखंडों से दूर रहे और भक्तों को भी दूर रखे उसे हिंदू कहलाने का हक भी नहीं.

बहरहाल, स्वरूपानंद की चिढ़ शिरडी को ले कर ही नहीं है बल्कि इस बात को ले कर भी है कि शहरशहर में साईं मंदिर खुल रहे हैं. अकेले भोपाल में आधा दर्जन साईं मंदिर बन चुके हैं जिन में हिंदू मंदिरों की तरह चढ़ावा आने लगा है. यह हालांकि अभी काफी कम है लेकिन इतना जरूर है कि इस से फर्क हनुमान, राम, कृष्ण और शंकर मंदिरों की आमदनी पर पड़ रहा है. दूसरे, साईं मंदिर बनाने और चलाने वाले जाति के ब्राह्मण नहीं हैं इसलिए मशविरा और नसीहत ये दिए जा रहे हैं कि साईं के नाम पर चढ़ावा मत चढ़ाओ.

कई हिंदू मंदिरों में दूसरे देवीदेवताओं के बराबर साईं बाबा की मूर्ति स्थापित कर दी गई है. इस के पीछे पंडों का मकसद साईं भक्तों के यानी अपने पुश्तैनी ग्राहकों को दोबारा हिंदू मंदिरों की तरफ आकर्षित करना है. लेकिन जगहजगह साईं मंदिर खुलने लगे और उन की पालकी और पादुकाएं यात्राएं भी निकलने लगीं, जिन में हर कोई चढ़ावा चढ़ाने लगा. यही वह वजह थी जिस के चलते स्वरूपानंद, साईं बाबा और साईं भक्तों पर फट पड़े.

नए भोपाल इलाके में स्थित एक साईं मंदिर संचालक का कहना है कि हम चढ़ावे का हिसाब देने को तैयार हैं लेकिन पहले हिंदू मंदिरों का हिसाब सार्वजनिक किया जाए. हम चढ़ावे के पैसे का इस्तेमाल व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं करते. उसे सामाजिक कार्य में लगाते हैं. यह भी कड़वा सच है कि धीरेधीरे यही सामाजिक कार्य उदरपोषण का जरिया बन निकम्मों की फौज खड़ी कर देते हैं. चढ़ावे का यही पैसा मुफ्त की मलाई जीमने को उकसाता है. यहीं से साईं बाबा और पंडों का वैर शुरू होता है जो अब चरम पर है.

-भारत भूषण श्रीवास्तव के साथ जगदीश पंवार

बजट 2014-15 शब्दों और वादों की बाजीगरी

नरेंद्र मोदी सरकार ने अपना पहला आम बजट पेश करते हुए चुनाव में बनी अपनी छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है पर बजट में आर्थिक विकास की दिशा नहीं है. अच्छे दिन, सब का हाथ, सब का साथ, विकास की बात भाजपा का कोई भी सुझाव बजट में नहीं है. सरकार के इस पहले बजट में आर्थिक सुधार और विकास का रोडमैप क्या होगा और वित्तीय घाटे को कम करने के लिए क्या उपाय किए गए हैं. कहीं स्पष्ट नहीं है. दूरदृष्टिता व नयापन बिलकुल नहीं है. सामाजिक विकास को दरकिनार कर, गरीब को बस मुंगेरी सपने दिखा कर बरगलाया गया है.

निजीकरण को बढ़ावा

हर क्षेत्र में ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए ज्यादातर योजनाओं को मामूली 100 करोड़ रुपए का आवंटन दे कर संतुष्ट किया गया है. क्या यह सब खानापूर्ति है. बजट में कौर्पोरेट जगत और अमीरों को खुश करने के लिए काम हुआ है. बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी व निजी क्षेत्र की भागीदारी यानी पीपीपी को बहुत महत्त्व दिया गया है. व्यापारी वर्ग को लाभ पहुंचाने के हरसंभव प्रयास हुए हैं. निजी क्षेत्र को निवेश के लिए इस विश्वास के साथ तैयार किया गया है कि उन को हर हाल में लाभ होगा. बजट में चुपचाप और बहुत चतुराई से पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाने और आम आदमी को शब्दों की बाजीगरी में फंसाया गया है.

लंबीचौड़ी घोषणाएं की गई हैं लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाने की राह नहीं सुझाई गई है. किसान, मजदूर, छोटे कारोबारी, बुनकरों, धानुकों सहित निम्न वर्ग को बजट में जगह कम दी गई है. महिलाओं, बुजुर्गों, सैनिकों और कामगार श्रेणी के लोगों को झुनझुना थमा कर शांत रहने को कहा गया है.

सामाजिक सरोकार दरकिनार

भारतीय जनता पार्टी, जो महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों को बड़ेबड़े ख्वाब दिखा कर सत्ता में आई है, ने रेल बजट और आम बजट पेश करते हुए कमोबेश वही शैली अपनाई है जिस के सहारे लोगों को चुनाव में आकर्षित किया और सत्ता की कुरसी तक पहुंची. हाथ में कमंडल और डंडा ले कर अलख जगाने के लिए भगवा पहने बाबा आरामदायक गाडि़यों से संसद तक पहुंच रहे हैं. इन बाबाओं का कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है लेकिन सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिए संसद में बैठे हैं. भाजपा इसी जोगलीला के साए में देश के विकास का सपना दिखा रही है. विभिन्न महत्त्वपूर्ण योजनाओं के लिए 100-100 करोड़ रुपए के आवंटन को देखते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राजग सरकार के इस बजट को लौंड्री बजट की संज्ञा दी है.

बातों से, ख्वाबों से और भाषणों से वोट पाए जा सकते हैं और सत्ता भी हासिल की जा सकती है, पर आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, दूरदृष्टि, दिशानिर्देशों और आर्थिक स्तर पर तार्किक होने की जरूरत पड़ती है जो भाजपा सरकार के बजट में नजर नहीं आती है. कुछ लोग बजट को राहत देने वाला बता रहे हैं और बजट के संतुलित होने की बात भी कर रहे हैं. अच्छाई बजट में है लेकिन संतुलन और राहत के नाम पर सिर्फ खोखले वादे हैं. उस में वास्तविकता नहीं है. सामाजिक विकास की बात करने वाली इस सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के उन्नयन के लिए पिछले बजट की तुलना में 96 करोड़ रुपए कम कर के सिर्फ 79 करोड़ रुपए का आवंटन किया है.

प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के लोगों को खुश करने का प्रयास किया गया है. यह प्रयास भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता. गंगा की सफाई के लिए 2,037 करोड़ रुपए दिए गए हैं. बनारस में उद्योग स्थापित कर के लोगों को रोजगार के अवसर देने की कोशिश नहीं हुई है. गंगा की सफाई पर पैसा बहाने की योजना है लेकिन गंगा को मैला करने वाले कारकों से निबटने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है. हां, बजट में सरकार ने इंटरनैट की पहुंच हर भारतीय तक बनाने के लिए 5 अरब रुपए की डिजिटल इंडिया योजना की घोषणा की है जिस का सभी स्तर पर स्वागत किया जा रहा है.

विदेशी निवेश पर मेहरबान

सत्ता में आने के बाद भाजपा ने अपने विदेशी पूंजी के विरोध के सिद्धांत से भी समझौता किया है. सरकार ने रक्षा, बीमा और 8 हजार किलोमीटर सड़क के निर्माण के लिए विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी करने का निर्णय लिया है. ये अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र हैं जिन की परवा किए बिना विदेशी निवेश को महत्त्व दिया गया है.  बीमा क्षेत्र के लिए भी सरकार ने 49 फीसदी के विदेशी निवेश को मंजूरी दी है. यह उसी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है जिस ने दिसंबर 2012 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार के इस क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ाने की घोषणा का विरोध किया था. मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने ट्वीट किया था, ‘‘कांगे्रस देश को बेचने की योजना बना रही है. यह सरकार देश को विदेशियों के हाथों में सौंपने का उपक्रम कर रही है.’’ कमाल देखिए कि कांगे्रस विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाती है तो वह देश को बेचती है और खुद मोदी यह काम कर रहे हैं तो यह राष्ट्रसेवा है.

बजट में आम आदमी को लुभाने का काम हुआ पर वह महंगाई के अनुसार है. आयकर की सीमा 50 हजार बढ़ा कर ढाई लाख की गई है. छोटे निवेश पर छूट की राशि को 1 लाख रुपए से बढ़ा कर डेढ़ लाख रुपए किया गया है. वरिष्ठ नागरिकों के लिए 50 हजार रुपए की छूट और दी गई है. आवास ऋण योजना पर ब्याज पर छूट की दर भी 50 हजार रुपए बढ़ा कर 2 लाख रुपए की गई है.  2 लाख के ब्याज देने पर जो मूल मिलेगा उस से केवल 15-18 लाख का मकान मिल सकता है जो कहीं नहीं बन रहे.

आम आदमी की नजर पूरे बजट के दौरान आयकर छूट से जुड़े अध्याय पर टिकी होती है. उस के लिए चार पैसा बचना ही सब से बड़ी खुशहाली है. जो बचेगा वह महंगाई डायन का हिस्सा है असल में.

सपनों की दुकान

गरीब को लौलीपौप दे कर अपने पक्ष में खड़ा किया जा सकता है. मोदी ने 2022 तक सब को आवास उपलब्ध कराने के अपने वादे को पूरा करने के लिए एक मिशन बनाने का ऐलान किया है पर किस गरीब को घर मिलेगा, सरकार यह नहीं बता रही है और न यह कि कितने गरीबों के पास छत नहीं है. उन्हें छत उपलब्ध कराने के लिए सालाना कितने घरों का निर्माण होगा और उस पर कितना पैसा खर्च होगा. कहने को तो कांगे्रसी सरकारें भी 1947 से ही घर बनवा रही हैं पर कहां हैं वे घर?

वोट का खेल

सरकार का कार्यकाल 2019 तक है. अगले 5 साल के बाद फिर सत्ता में आए, इस के लिए गरीबों के साथ अभी से भावनात्मक खेल शुरू हो गए हैं. सरकार को मालूम है कि अगले चुनाव में इन्हीं गरीबों का आवास मुद्दा होगा और उन का वोट अपने पक्ष में लाया जा सकता है. यहां सिर्फ वोट का खेल होता है.

सड़कों का जाल बुनना भाजपा सरकार की प्राथमिकताओं में रहा है. पिछली भाजपा सरकार यानी कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के कार्यकाल में सड़क निर्माण को विशेष महत्त्व दिया गया था, उसी समय पूरे देश में सड़कों का संपर्क बढ़ाने की योजना बनी और इस बार भी सरकार ने उसी योजना को आगे बढ़ाने का काम किया है. सड़कों के निर्माण के लिए बजट का 50 से 60 फीसदी हिस्सा दिया गया है. ढांचागत विकास तो ठीक है लेकिन बजट का आधा हिस्सा किसी एक क्षेत्र को मिले तो यह जरूर सवाल खड़ा करता है और यही सवाल आने वाले समय में मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकता है.

सड़क निर्माण क्षेत्र में बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार होता है, ठेकेदार और इंजीनियरों की मौज होती है. ठेकेदार के हलके गारेसीमेंट को पैसे के बल पर मजबूती का प्रमाणपत्र मिलता है. यह आम बात है. हर मंत्री और नेता इसे समझता है, इसलिए आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार ने अपने खाने का जुगाड़ अच्छे से कर लिया है. सड़कें गांव में बनती हैं और उन में ज्यादा हेराफेरी हुई तो मोदी की लोकप्रियता के समीकरण बिगड़ सकते हैं.

कर्ज और किसान

कृषि ऋण सीमा को बढ़ा कर सरकार ने 2014-15 के लिए 8 लाख करोड़ रुपए कर दिए हैं. किसानों को अल्प ब्याज दर पर यह ऋण मिलता है और यदि समय पर किसान ऋण की किस्त का भुगतान करता है तो उसे 3 प्रतिशत की दर से ब्याज पर और छूट देने का प्रावधान है.

हर सरकार किसान का ऋण माफ कर जाती है जिस से बैंकों को भारी नुकसान होता है. इस से जो किसान ईमानदारी से ऋण लौटा रहा होता है वह भी बेईमानी पर उतर आता है और ऋण की किस्तों का भुगतान करना बंद कर देता है. बैंक का पैसा मारा जाता है इसलिए बैंकों के शाखा प्रबंधक ज्यादातर यही कोशिश करते हैं कि किसानों को ऋण न दिया जाए. वे नियमों में बंधे होते हैं इसलिए खुल कर नहीं लेकिन परदे के पीछे से इस ऋण स्कीम को निष्क्रिय बनाए रखने का प्रयास करते हैं. यहां ईमानदारी भी नहीं है. फर्जी दस्तावेजों के जरिए फर्जी काम के वास्ते किसान ऋण लेता है और उसे पूरा भुगतान भी नहीं मिलता. आधा पैसा बैंक के संबंधित अधिकारी रिश्वत के रूप में डकार जाते हैं.

कहीं उजड़ न जाएं गांव

स्मार्ट शहरों के विकास के नाम पर इस सरकार ने भी गांव की जमीन को छीनने की पुख्ता व्यवस्था की है. पहले विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईजेड बनाए गए थे जिन में किसानों की जमीनें हड़पी गईं. हरियाणा में 10 एसईजेड के विकास के लिए जमीन किसानों से खरीदी गई थी लेकिन अब तक सिर्फ 3 क्षेत्र ही विकसित किए गए हैं. शेष 7 क्षेत्रों की जमीन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है, इसलिए इस जमीन को किसान को लौटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए.

भाजपा सरकार की 100 नए शहर बसाने की योजना है. उस के लिए 71 अरब रुपए की राशि आवंटित किए जाने की योजना है. मतलब यह कि गांवों के विकास का सपना दिखाने वाली भाजपा सरकार गांवों को ही उजाड़ने में जुट गई है.

सरकार ने गांव से पलायन रोकने की कोई योजना नहीं बनाई है. कहा गया है कि रोजगार के अवसर बनाए जाएंगे लेकिन यह खुलासा नहीं हुआ है कि रोजगार कहां और कैसे बढ़ेंगे. गांवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध क्यों नहीं कराए जा रहे हैं? आईआईटी, आईआईएम और एम्स विकसित किए जा रहे हैं लेकिन वहां उन के लिए ढांचागत विकास की सुविधाओं का अभाव है, जिसे दूर नहीं किया जा रहा है.

कुल मिला कर नई सरकार के पहले बजट में खास और नया कुछ भी नहीं है. यह बजट पूर्ववर्ती सरकार के जैसा ही है. उस में वादे किए गए हैं, सपने दिखाए गए हैं, बड़ीबड़ी बातें की गई हैं जबकि उन पर अमल करना व उन्हें पूरा करना सरकार के लिए सपना देखने जैसा ही साबित होगा और तब आम जनता एक बार फिर खुद को ठगा सा महसूस करेगी.

-साथ में राजेश यादव

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