लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली में लगे होर्डिंग यानी सड़क किनारे लगे विज्ञापनपट्ट पर ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाक्य के साथ श्रीमान नरेंद्र मोदीजी का हंसताखिलखिलाता हुआ चेहरा देख कर मेरा माथा ठनका और उसी समय मुझे लगा था कि इस होर्डिंग पर लिखने वाले पेंटर ने कुछ गड़बड़ी कर दी है या फिर कहीं कुछ वाक्य संरचना में त्रुटि व प्रूफ की कमी रह गई है. सच कहूं तो आज नहीं, मेरी नजर में तो उसी वक्त आ गया था कि यह वाक्य कुछ इस प्रकार लिखा जाना चाहिए था, ‘हमारे अच्छे दिन आने वाले हैं, नई सरकार’.जनाब, आप को पता ही है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों और निजी अस्पतालों पर अनावश्यक मरीजों की शारीरिक जांच करा कर उन की जेब से पैसा लूटने का आरोप लगा हुआ है. उन पर लगाया गया यह आरोप जायज है या नहीं, यह तो मैं सिद्ध नहीं कर सकता परंतु इतना जरूर बताना चाहूंगा कि कई दिनों से पेट में दर्द के चलते मेरे मन में परिवार के बुरे दिन आने के विचार आ रहे थे, इसलिए मैं अपना इलाज करवा कर यथाशीघ्र कुशल हो जाना चाहता था. तो सीधे ही जा पहुंचा अपने घर के नजदीक वाले एक प्राइवेट अस्पताल में.
डाक्टर के पास मेरा नंबर आते ही उस ने पूछा, ‘खाली पेट आए हो न?’ मैं पेट के रोग का शिकार था, ऊपर से बुद्धिजीवी इसलिए पहले ही सबकुछ सोचसमझ कर खाली पेट ही अस्पताल गया था. मैं ने तुरंत डाक्टर साहब से कहा, ‘हां, एकदम खाली पेट आया हूं. आप को जो भी जांच करवानी हो, आज ही करवा लीजिए ताकि मेरा समय भी बचे और मेरा इलाज भी जल्दी से जल्दी शुरू हो सके.’
पेट की एंडोस्कोपी के साथसाथ, होल एबडौमिनल अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन, एमआरआई, ईसीजी, ईकोकार्डियोग्राम, शुगर, यूरिन जांच सहित ब्लड की अन्य तमाम जांचें जब हो गईं तो मैं ने सोचा कि इन लैब कर्मियों ने हमारे शरीर से काफी खून चूस लिया है, इसलिए चलो अब यहां की कैंटीन में जा कर कुछ खापी लिया जाए और अपने शरीर को दुरुस्त किया जाए. जो होगा, सो देखा जाएगा. यदि मरेंगे भी तो कम से कम खापी कर ही सही. फिर पत्नी महोदया साथ थीं, इसलिए ज्यादा कुछ न ले सका. 350 रुपए का एक पनीर मसाला डोसा ले कर दोनों ने आधाआधा खाया. शादी के 25 वर्ष बाद हनीमून के समय एक ही थाली में एकसाथ खाया हुआ राजस्थान के उदयपुर शहर की झील वाले रैस्टोरैंट का दालबाटी चूरमा याद आ गया क्योंकि हनीमून के बाद तो शायद ही कभी हम दोनों ने एक ही थाली में एकसाथ खाया हो. उस समय अनजाना प्रेम था और इस समय पक्की मजबूरी.
खैर जनाब, पनीर मसाला डोसा खाने के बाद हमें तलब लगी एक कप चाय पीने की. सो हम ने आव देखा न ताव, सीधे काउंटर पर जा कर 100 रुपए का नोट थमाते हुए 2 कप चाय का और्डर दे डाला.
काउंटर पर बैठे हुए व्यक्ति ने पहले तो अपने पास खड़े हुए व्यक्ति से कहा, ‘साहब को जल्दी से 2 कप गरमागरम चाय दो.’ उस ने तेजी दिखाई और एक ट्रे में 2 कप चाय रख कर हमें थमा दी. तब तक काउंटर पर बैठा व्यक्ति कंप्यूटरीकृत मशीनसे हमारा बिल निकाल चुका था और बोला, ‘सर, यह रहा आप का बिल, आप ने मुझे 100 रुपए दिए हैं, कृपया 100 रुपए और दे दीजिए.’
मैं ने बिल पर अपनी दृष्टि गड़ाई तो देखा कि वहां पर 2 चाय के लिए पूरे 200 रुपए लिखे हुए थे. देख कर चाय पीने का मजा तो काफूर हो गया. मन ही मन गुस्सा आने लगा कि ये लोग सरेआम लूट रहे हैं. इन के तो अच्छे दिन आ गए, मगर हम मरीज भला आखिर क्या करें? कहां से लाएं इन का पेट भरने के लिए ढेर सारे रुपए? शरीर की स्थिति ऐसी कि काटो तो खून नहीं. कुछ खून तो जांच लैब कर्मियों ने निकाल लिया, रहा बचा अब यह कैंटीन वाला चूस रहा है.
खैर जनाब, पर्स में रुपए हों या न हों, बिल तो भरना ही था. सो, पत्नी से रुपए मांग कर बिल भरा. 5 रुपए के वास्तविक मूल्य की एक कप चाय के स्थान पर पूरे 100 रुपए प्रति कप चाय हमें भरने ही पड़े. पेट तो पहले से ही बीमार था, दिमाग और खराब हो गया. गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास. उस दिन अच्छे दिन की तलाश में बुरा समय देखना पड़ा.
जब डाक्टर द्वारा लिखित समस्त जांचों की रिपोर्टें आईं तो उस में कहीं भी कुछ भी नहीं निकला. डाक्टर साहब ने तुरंत अपने प्रिस्क्रिप्शन में केवल गैस की एक दवा, 2 हफ्ते तक रोजाना खाली पेट खाने और रोजाना सुबह की सैर करने के निर्देश दे कर छुट्टी दे दी और मैं ठीक हो गया. लेकिन अपने अच्छे दिन की तलाश में अस्पताल पहुंच कर डाक्टर की महंगी फीस, इलाज हेतु आवश्यकता से ज्यादा जांचों का कुचक्र व कैंटीन आदि के खर्च से हमें यह अच्छी तरह से समझ आ गया था कि मरीजों की जांच के गोरखधंधे में डाक्टर, अस्पताल, कैंटीन और बड़ीबड़ी कंपनियां खूब चांदी काट रही हैं और हमारी सरकार अपने अच्छे दिनों को पा कर चैन की बंसी बजा रही है या आंख मूंद कर सो रही है. उन के अच्छे दिन हैं, स्वाभाविक है आंख मूंद कर सोना और सुनहरे सपने देखना उन के लिए लाभकारी ही होगा.
चुनाव से पहले देशभर की जनता ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ नारे को पा कर उत्साहित थी. उसे नहीं पता था कि यह सिर्फ एक छलावा है या फिर सिर्फ एक नया नारा मात्र है, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ और कुछ भी नहीं.
चुनाव के दौरान दिए जाने वाले पुराने नारों को याद कर मुझे जवाहर लाल नेहरू के ‘आराम हराम है’, लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ और इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे बहुत याद आ रहे हैं. इत्तफाक से ये तीनों ही प्रधानमंत्री हुए.
चुनाव में तीनों की जीत हुई मगर इन के द्वारा जनता को दिए हुए नारों के अर्थ में आज तक कोई खास बदलाव नहीं आया. ‘आराम हराम है’ में आराम तो आज भी आराम ही है, वह तो अभी तक हराम न हुआ. सदियों से आराम करने वाला आराम ही कर रहा है और काम करने वाला काम. ‘जय जवान जय किसान’ में भले ही जवान की जय हुई हो (वह भी इस डर से कि वह हम सब की सुरक्षा के लिए सदा तत्पर रहता है) मगर किसान की जय तो आज तक नहीं हो पाई और ‘गरीबी हटाओ’ नारे से जनाब अभी तक तो गरीबी हटी नहीं और आगे का हमें विश्वास नहीं.
हमारे देश में नारे और प्रधानमंत्री अवश्य बदलते रहे मगरवास्तविकता में क्या बदला, क्या नहीं, यह सभी जानते हैं. कुल मिला कर कहा जाए कि नारों की बदौलत ही इस देश के कई प्रधानमंत्री अपनेअपने चुनाव जीतते रहे. वे अपने दिन बदलते रहे
और उन के अच्छे दिन आते रहे.
एक दिन बुरे दिन की अच्छे दिन से मुलाकात हो गई तो वह बोला, ‘भाई अच्छे दिन, देशभर की जनता परेशान है कि अच्छे दिन नहीं आ रहे. आखिर ऐसा क्यों है? तुम आते क्यों नहीं?’
अच्छे दिन ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘खबरदार, जो अच्छे दिनों की बात की. भारत की जनता को तो नाखुश रहने की आदत है और वह थोड़ी सी नासमझ भी है. चुनाव के दौरान उस से आखिर यह तो नहीं कहा गया था कि सरकार बनने के 7 दिनबाद जरूर ही अच्छे दिन आ जाएंगे. वहां पर निश्चित समयांतराल का तो कोई जिक्र ही नहीं किया गया था. बस, यही तो कहा गया था, अच्छे दिन आने वाले हैं.
इस का मतलब साफ है कि अच्छे दिन आएं तो सही और न आएं तो भी संभावना तो सदा बनी ही रहेगी कि कभी न कभी तो अच्छे दिन आएंगे ही न. आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों ही सही मगर आएंगे जरूर. फिर जनता तो खामखां ही चिंतित है, जब आएंगे तब आ जाएंगे अच्छे दिन. वैसे भी चुनाव के दौरान दिए गए नारों का काम होता है जनता को बहलानाफुसलाना और अपना उल्लू सीधा करना.
बस, इतनी सी बात नहीं समझते हमारे देश के वोटर. केवल यही कमी है हमारे देश के वोटरों में. वोटर को तो खुश होना चाहिए कि इस बार नए नारे ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ने फिर से सरकार पलट दी और नई सरकार बनवा दी. देश में प्रगति हो या न हो, आम नागरिक के अच्छे दिन आएं या न आएं प्रगतिशील नारे तो अपना काम करते ही रहेंगे और हर चुनाव में अपना दम दिखाते रहेंगे. मेरी राय में तो केवल इसी बात को समझते हुए ही सभी भारतवासियों को अब तसल्ली कर लेनी चाहिए.
अच्छे दिन की बात सुन कर बुरा दिन फिर भी नहीं माना और उस ने सोचा कि क्यों न मैं ही अपनी सोच को थोड़ा विस्तार दूं ताकि लोग न नए प्रधानमंत्री को कोसें, न किसी राज्यमंत्री को. इसलिए वह स्वयं ही अच्छे दिन के नापने के मापदंड की पहचान करने लगा. उस ने पाया कि देश का कोई भी राज्य ऐसा नहीं था जहां पर सरकार और जनता के मध्य आपसी बहस न चल रही हो. किसी प्रदेश में बिजली न आने के हाहाकार को ले कर तो कहीं सीमा पर घुसपैठ, गोलीबारी, कहीं कानूनी धाराओं को ले कर विवाद, कहीं जबानी जंग, तो कहीं बलात्कार व महिलाओं पर बढ़ते हादसों को देख कर वह भी परेशान हो उठा.
दरअसल, बुराई को भी अपने अंदर भरी हुई इतनी बुराइयों का वास्तविक ज्ञान ही नहीं था. जगहजगह बुराई ही बुराई, जंग, बलात्कार व महंगाई को देखदेख कर वह थक कर चूर हो गया और भूखप्यास से पीडि़त हो कर उस ने एक छोटे से वातानुकूलित रैस्टोरैंट में जा कर भोजन करना चाहा तो वहां लगी रेट सूची को पढ़ कर ही वह चक्कर खा कर गिर पड़ा.
थोड़ी देर बाद जब उसे होश आया तो उस के सामने रैस्टोरैंट का वेटर बिल लिए हुए खड़ा था, जिस में सिर्फ 1 गिलास ठंडे पानी का बिल था. वह भी पूरे 20 रुपए प्रति गिलास. इतना महंगा बिल देख कर उस से नहीं रहा गया, वह बोला, ‘क्यों भाई, इतना महंगा पानी क्यों?’
वातानुकूलित रैस्टोरैंट के मैनेजर ने जवाब दिया, ‘भइया, यह मिनरल वाटर है, ऊपर से इसे ठंडा करने में बिजली खर्च होती है. तो भई, अब तो समझ ही गए होगे कि इस का मूल्य इतना महंगा क्यों है? कल ही बिजली के दामों में बढ़ोतरी हुई है. अच्छा है कि होश में आने के बाद आप ने चाय नहीं मांगी. आज से ही बाजार में चीनी की कीमत बढ़ जाने के कारण अब हमारे इस छोटे से रैस्टोरैंट में भी प्रति कप चाय का मूल्य पूरे 50 रुपए कर दिया गया है.’
बुरे दिन को अब सबकुछ अच्छी तरह से समझ आ गया था, इसलिए वातानुकूलित उस रैस्टोरैंट में भी माथे पर आई हुई ढेर सारी पसीने की बूंदों को पोंछा और चुपचाप अपने घर लौट आया और अपनी सहनशक्ति बढ़ाने का योगाभ्यास करने लगा. उस ने अब देश के बाजार, रुपए और अर्थव्यवस्था के बारे में अधिक सोचने व अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय सदा के लिए चुप रहना ही उचित समझा. लेकिन पता नहीं क्यों, फिर भी उसे इंतजार था कि आज नहीं तो कल ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. आज नहीं तो कल अच्छे दिन जरूर आएंगे. बुरा वक्त सदा नहीं रहता.