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कैसे कहूं उसे चाह न थी

था अपना सा, मगर मेरा नहीं था

बहुत था दूर, पर इतना नहीं था

उसे वो तोड़ना क्यों चाहता था

बंधन जो कभी बांधा नहीं था

नहीं वो मिल सका ये है हकीकत

कहूं कैसे उसे चाहा नहीं था

उस को फुरसत तो थी, चाह न थी

था वो मसरूफ पर इतना नहीं था

जी लिया दर्द, पी लिए आंसू

कहां रोता, तेरा कांधा नहीं था.

 

सैक्स-सैक्स का खेल नहीं लिव इन रिलेशनशिप

गोंदिया से नौकरी की तलाश में आई अंकिता रायपुर के एक फाइवस्टार होटल में काम करने लगी. प्रदीप भी वहीं काम करता था. दोनों की जानपहचान बढ़ी और दोस्ती प्यार में बदल गई. इस के बाद उन्होंने एकसाथ रहने का फैसला कर लिया. मकानमालिक को आपत्ति न हो, इस के लिए दोनों ने वहां मंदिर में शादी रचा ली और अपनेआप को पतिपत्नी बता कर रहने लगे.

वह शादी मात्र दिखावा थी. वे लिव इन रिलेशनशिप (सहजीवन) में रह रहे थे. दोनों 2 साल तक साथ रहते रहे. उन में अच्छा तालमेल रहा मगर उस के बाद प्रदीप के रवैए में बदलाव आने लगा. उस ने एकाएक अपनी नौकरी बदल ली. अंकिता को कुछ संदेह हुआ. इसलिए उस ने हठ पकड़ ली कि हमें हमारे परिवारों को विश्वास में ले कर विवाह कर लेना चाहिए ताकि हमारे रिश्ते को कानूनी व सामाजिक मान्यता मिल जाए. मगर प्रदीप एक दिन बिना बताए गायब हो गया. अंकिता बहुत परेशान हुई. वह उस के दोस्तों के पास गई. तब एक दोस्त ने रहस्योद्घाटन किया कि प्रदीप उस से यह कह कर गया है कि मैं अंकिता के साथ टाइमपास कर रहा था, उस से कह देना कि वह मुझे भूल जाए.

अंकिता शिकायत ले कर पुलिस स्टेशन पहुंची और उस ने प्रदीप के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई जिस में उस ने विवाह का झांसा दे कर देहशोषण का आरोप लगाया. उस ने मंदिर में हुई प्रतीकात्मक शादी के सुबूत पेश करते हुए रिपोर्ट में लिखवाया कि सामाजिक रूप से शीघ्र शादी कर लेने के आश्वासन पर वे साथ रह रहे थे मगर जब भी उस ने घर वालों को रिश्ते के बारे में बताने के लिए कहा, प्रदीप कुछ न कुछ बहाना बना कर टालता रहा. पुलिस जांच किसी नतीजे पर पहुंचती, इस से पहले मन ही मन टूट चुकी अंकिता ने आत्महत्या कर ली. अब प्रदीप पर आत्महत्या हेतु उकसाने का प्रकरण चल रहा है.

बेंगलुरु में काम करते हुए राजीव और अलका की भेंट हुई. दोनों सहकर्मी थे. दोनों में आपस में अच्छा तालमेल था. वे लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. यद्यपि दोनों टे्रडिशनल परिवारों से थे और जानते थे कि जातीय भिन्नता के कारण वे कभी विवाह नहीं कर पाएंगे. बावजूद इस के, वे साथ रह रहे थे. दोनों के बीच तय हुआ था कि वे बच्चे को जन्म नहीं देंगे और समय आने पर मातापिता व परिवार की पसंद से विवाह करने के बाद सदासदा के लिए अलग हो जाएंगे. इस तरह उन की रिलेशनशिप पूरी तरह से एकदूसरे का अकेलापन दूर करने के लिए बनी.

एक अरसे बाद उन की लिव इन रिलेशनशिप समाप्त हो गई. आज अलका एक कारोबारी की पत्नी है और पूरी तरह से अपने परिवार में रचबस गई है. उधर, राजीव मुंबई में कार्यरत है. जब कभी वे मिलते हैं, मैत्री भाव से मिलते हैं.

आजकल लिव इन रिलेशनशिप अत्यधिक प्रचलन में है. इस का तात्पर्य परस्पर सहमति से 2 वयस्क स्त्रीपुरुष का विवाह किए बिना, पतिपत्नी की भांति साथ रहने से है. उन के इसी सहजीवन को लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं. हालांकि कानून में यह परिभाषित नहीं है लेकिन लिव इन रिलेशनशिप में रही एक अध्यापिका के अलग होने पर गुजाराभत्ता दिए जाने के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 4 शर्तों का उल्लेख किया है जिन्हें परिभाषा के रूप में माना जा सकता है.

न्यायालय की पहली शर्त है कि रिलेशनशिप में रहने वाले युगल समाज के समक्ष पतिपत्नी के तौर पर पेश होने चाहिए. दूसरी शर्त है कि वे शादी की वैध आयु को प्राप्त कर चुके हों. तीसरी शर्त यह है कि उन के बीच रिश्ते कानूनी रूप से शादी करने हेतु वर्जित न हों. चौथी व अंतिम शर्त यह है कि वे स्वेच्छा से लंबे समय तक पतिपत्नी के रूप में रह रहे हों. इन शर्तों को सहजीवन की रूपरेखा माना जा सकता है.

जहां तक कानून द्वारा प्रतिबंध या वर्जना की बात है, ऐसा कहीं भी देखा नहीं गया है. उलटा, सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप की समीक्षा करते हुए एक मामले में कहा है कि जब 2 वयस्क साथ रहना चाहते हैं तो इस में कौन सा अपराध है? इस कारण यह रिलेशनशिप उपरोक्त प्रकरण में व्याख्यायित शर्तों के अंतर्गत स्वीकार्य मानी जा सकती है.

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में, विशेष रूप से महानगरों में ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है. कई नामीगिरामी फिल्मी हस्तियां और प्रतिष्ठित लोग लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं. इन के नाम गिनाए जाएं तो लंबी सूची बन सकती है. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि महानगरीय संस्कृति में इस के प्रति लोगों के मन में किसी प्रकार की झिझक दिखाई नहीं देती और अन्य लोग भी उन के सहजीवन को स्वीकारने लगे हैं.

समाज पर असर

उपरोक्त दोनों उदाहरणों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सहजीवन जहां विवाह से पूर्व का अनुभवपूर्ण प्रायोगिक परीक्षण है वहीं आज के युवाओं ने इसे टाइमपास का माध्यम भी बना लिया है. वे इसे पूरी तरह व्यक्तिगत मामला मानते हैं और हस्तक्षेप को मौलिक अधिकारों का हनन कहते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता अमिताभ बनर्जी कहते हैं कि सहजीवन से किसी को रोकना, व्यक्ति को मैत्री संबंधों से रोके जाने की भांति है, जिस का कोई औचित्य नहीं. लगे हाथों वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इस के कारण समाज में जो परिवार नामक संस्था है वह अवश्य प्रभावित होती है और कदाचित इस दौरान युगल के बच्चे हो जाएं तो उन के टाइटल व उत्तराधिकार को ले कर विभिन्न समस्याएं पैदा हो सकती हैं.

क्यों है चलन में

सहजीवन की वकालत करने वाले इस के कई लाभ गिनाते हैं. उन का कहना है कि लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों में धोखा, बेवफाई व व्यभिचार की आशंका बहुत कम रहती है क्योंकि उन के संबंध परस्पर सहमति के आधार पर बने होते हैं और जब तक चाहें तब तक जारी रखने की स्वतंत्रता इन का मूल आधार होती है. जब भी उन्हें यह लगता है कि उन्हें विवाह कर लेना चाहिए, वे विवाह कर लेते हैं अन्यथा बंधनरहित दांपत्य सुख का आपसी समझ के अनुसार उपभोग करते हैं. इस तरह सहजीवन में साथ रहते हुए वे उन्मुक्त जीवन का लुत्फ उठाते हैं. वे उन असफल विवाहों की तुलना में, जिन में लंबी, उबाऊ कानूनी प्रक्रिया के बाद तलाक हो जाते हैं, से लिव इन रिलेशन को कई गुना बेहतर मानते हैं.

मुंबई में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत अंशुल, जो स्वयं 3 वर्षों से लिव इन रिलेशन में हैं, का कहना है कि ऐसा फैसला भली प्रकार विचारित व द्विपक्षीय होता है. इसलिए अकसर सही ही साबित होता है. देखने में आया है कि लोग शादी के बंधन में बंधने के बावजूद परस्पर समर्पण का भाव अधिक समय तक नहीं रख पाते और अलगाव व तलाक के शिकार बन जाते हैं. सहजीवन उन से कई गुना बेहतर है, जिस में कम से कम विवाह पूर्व पर्याप्त समझ बनाने की सुविधा है. अंशुल कहते हैं कि यह कोई अजूबा नहीं क्योंकि आज के युवाओं का जीवन के प्रति अपना नजरिया है. लिव इन रिलेशनशिप ऐसा ही मसाला है जिस में जब तक निभी, साथ रह लिए अन्यथा सम्मानपूर्वक अलग हो गए.

बौलीवुड ऐक्ट्रैस कश्मीरा शाह, जो विगत 7 सालों से कृष्णा के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही हैं, कहती हैं, ‘‘हमें एकदूसरे से कोई परेशानी नहीं है. जहां तक बच्चों की बात है, तो बच्चा पैदा कर के हम क्या करेंगे? पता चला सारी उम्र उस की परवरिश में व्यतीत कर दी और बाद में जब हमें उस की जरूरत पड़ी, तब वही बच्चा हम से दूरी बना कर कहीं और चला गया.’’

गैरजिम्मेदारी को बढ़ावा

इस तरह सहजीवन में रह रहे ऐसे जोड़े न बच्चों को जन्म देना चाहते हैं और न ही उन की परवरिश के झमेलों में पड़ना चाहते हैं. इस कारण वे भावी जीवन में बच्चों को ले कर उत्पन्न होने वाले पारिवारिक, सामाजिक व कानूनी दायित्वों से भी बचे रहने का उपक्रम कर लेते हैं.

वहीं, आलोचक इसे उत्तरदायित्वविहीन गृहस्थ का विकृत स्वरूप मानते हैं जिस के कारण चाहेअनचाहे विभिन्न समस्याएं उत्पन्न होती हैं. वे पतिपत्नी नहीं होते बल्कि पार्टनर होते हैं. मान लीजिए, इस दौरान भावुकता भरे क्षणों या लापरवाहीवश उन के बच्चा हो जाए तो उस के जन्मदाता ‘पार्टनर’ होने के नाते, मातापिता नहीं कहला सकते. बेशक, ऐसे बच्चों को कितनी ही धनवैभव की सुविधाएं प्रदान कर दी जाएं या संरक्षण दे दिया जाए किंतु वे कभी उन को वैध संतति होने का अधिकार नहीं दे सकते.

न्यायालयों के कुछ फैसलों के अनुसार, उन्हें वैध संतति की भांति भरणपोषण के अधिकार तो अवश्य मिल जाते हैं किंतु अवैध संतति होने के नाते वैध उत्तराधिकार प्राप्त नहीं होता.  जहां तक उन्हें मिलने वाले वात्सल्य का सवाल है, पता नहीं कब जन्मदाताओं की पार्टनरशिप टूट जाए और बच्चा मिल रहे प्यार से भी वंचित हो जाए.

कुछ लोगों का सोचना भिन्न है. वे लिव इन रिलेशनशिप को पुरुष मनमानियों का नया सुगरकोटेड संस्करण मानते हैं. अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखते हुए वे कहते हैं कि महिलाओं के अस्तित्व व सम्मान को स्वीकार करना अब भी पुरुषों के लिए दुष्कर है. कदमकदम पर वे महिलाओं को उपभोग सामग्री समझते हैं. नारी सशक्तीकरण व स्त्री स्वतंत्रता की ओट में ‘रखैल व्यवस्था’ का पुनर्जीवन ही लिव इन रिलेशनशिप है. लेख के प्रारंभ में दिए गए दोनों उदाहरण इसी ओर इंगित करते हैं जिन में मुख्य रूप से स्त्री का शोषण ही दिखाई पड़ता है जो एक तरह से रखैल व्यवस्था का ही विस्तृत रूप है.

जो कुछ भी हो, आज के जीवन में लिव इन रिलेशनशिप अत्यधिक प्रचलित है जिसे नकार पाना संभव नहीं.

कुछ जोड़ों ने लिव इन रिलेशन को युवावस्था आने और विवाह होने के बीच वाले समय को ‘सैक्ससैक्स’ का खेल बना दिया है. इस खेल को भी सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस के दौरान यदि कोई स्त्री गर्भवती हो जाए या कोई यौनजनित बीमारी लग जाए तो यह मनोरंजन भारी पड़ सकता है. दूसरी ओर भारतीय पुरुष आज भी सहज ही किसी अन्य के साथ पत्नीवत रही स्त्री के साथ विवाह करने से हिचकिचाते हैं. यदि विवाह के समय पूर्व सहजीवन का ज्ञान न हो और यह रहस्य भविष्य में खुले, तब संभव है वैवाहिक जीवन ही खतरे में पड़ जाए. पिछले दिनों जिस तरह से नारायण दत्त तिवारी उज्ज्वला को अनदेखा कर रहे थे उस से आजिज आ कर उज्ज्वला ने धरने पर बैठने की धमकी तक दे डाली. लिहाजा हार मान कर नारायण दत्त तिवारी उज्ज्वला के साथ लिव इन में रहने को राजी हो गए. फिर कुछ ही दिनों बाद उन्होंने उज्ज्वला से शादी कर ली.

इन सब के मद्देनजर जरूरी है कि लिव इन रिलेशनशिप को कानून के माध्यम से नियंत्रित किया जाए. टाइमपास या सैक्ससैक्स के उन्मुक्त खेल हेतु लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों पर प्रभावी रोक लगाई जाए ताकि सुनिश्चित हो सके कि जो लोग इस प्रकार रह रहे हैं वे सुप्रीम कोर्ट की शर्तों की अनुपालना कर रहे हैं या नहीं. वरना दोहरा वैवाहिक जीवन जीने वाले व यौनदुराचरण में प्रवृत्त लंपट लोग इस की ओट में ‘रखैल’ रखने लगेंगे. इस तरह तय है कि कानूनी अंकुश के बिना पश्चिमी देशों की तर्ज पर हमारे यहां भी अवैध संततियों की भरमार हो जाएगी और यौनदुराचरण के प्रकरण बढ़ने लगेंगे.

यह भी खूब रही

मेरे मित्र के भाईभाभी हनीमून से वापस आए थे और हम सब उन का सामान कार से उतारने में मदद कर रहे थे. मित्र की नई भाभी अपने हाथ में एक छोटा सा पैकेट ले कर कार से उतरने का प्रयत्न कर रही थीं, तभी मेरे मित्र ने कहा, ‘‘भाभी, यह सामान मुझे पकड़ा दो.’’ परंतु उन्होंने इसे अनसुना कर दिया. इस पर मेरे मित्र ने हंसते हुए पूछा, ‘‘भाभी, लगता है इस में कोई खाने का बढि़या सामान है जो आप मुझे नहीं दे रही हैं?’’ ‘‘है तो खाने का सामान ही, परंतु हम आप को नहीं खिलाएंगे,’’ उन्होंने हंसते हुए कहा. ‘‘अगर ऐसा है फिर तो मैं इसे जरूर खाऊंगा,’’ कहते हुए मित्र ने वह पैकेट अपनी भाभी के हाथ से उन के मना करने के बावजूद छीन लिया और वहीं पर सब के सामने खोलने लगा. जैसे ही पैकेट खुला, हम सब की हंसी का फौआरा फूट पड़ा और मेरे मित्र का झेंपता हुआ चेहरा देखने लायक था. पैकेट में भाभी की नई चमचमाती हुई सैंडिल थी जो उन्होंने हनीमून टूर में खरीदी थी.

बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली)

हम लोग अपने मित्र के यहां घूमने के लिए गए थे. शाम के वक्त खाना खा कर टहलने के लिए निकले. जब वापस आ रहे थे तो एक सड़क पार करनी थी. लेकिन गाडि़यों के निरंतर आनेजाने के कारण नहीं कर पा रहे थे. गाडि़यां कुछ कम हुईं. केवल एक बस दूर से आती नजर आ रही थी. मित्र ने मेरे पति से कहा कि आ जाओ लेकिन मेरे पति ने कहा, रुक जाओ. इस को भी निकल जाने दो. मित्र ने कहा, ‘‘अरे, बस अभी दूर है और इस से पहले एक स्पीड ब्रेकर भी है.’’ मेरे पति हाजिरजवाब हैं. उन्होंने कहा कि तुझे तो पता है यहां स्पीड ब्रेकर है, बस वाले को थोड़े ही पता है कि यहां बे्रकर है.’’ इस बात पर सभी बिना हंसे नहीं रह सके.

आशा शर्मा, बूंदी (राज.)

स्कूल जाते वक्त एक लड़का मुझे बहुत परेशान करता था. यह बात मेरी सभी सहेलियां जानती थीं. हम सभी साइकिल से स्कूल जाया करते थे. एक दिन स्कूल जाते समय उस ने मेरे हाथ में जोर से काट लिया. मैं तेजी से चिल्लाई. फिर क्या था, मेरी सहेली ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया. यह हम साइकिल चलाते हुए कर रहे थे. वह घबरा गया. आई एम सौरी कह कर दोबारा ऐसा न करने की दुहाई देने लगा. परंतु मेरी सहेली ने उस का हाथ न छोड़ा. वह कहने लगी कि आज हम तुम्हारे घर चलेंगे और तुम्हारे मम्मीडैडी को बताएंगे कि किस तरह से तुम हमें परेशान करते हो. इस तरह से साइकिल चलातेचलाते हम काफी दूर निकल आए. इसी बीच एक ट्रक आ गया, हमें उसे छोड़ना पड़ा. परंतु इस के बाद वह हमें कभी दोबारा नहीं दिखा.

प्रेमलता दिवाकर, कानपुर (.प्र.)

हाईटैक देह व्यापार

बदलते दौर में लगभग सभी कारोबारी 2 तरह के हालात में फंसे हैं. पहले वे लोग हैं जो अपने कारोबार को पुराने तौरतरीके से चलाना चाहते हैं, नई टैक्नोलौजी का इस्तेमाल नहीं करना चाहते. अपने कारोबार में ज्यादा पैसे का निवेश कर के उसे बेहतर बना कर ज्यादा मुनाफा नहीं कमाना चाहते. ऐसे लोग दूसरों से ज्यादा मेहनत और परेशानी उठाने के बाद भी कम मुनाफा कमा पा रहे हैं. नतीजतन, वे और उन का कारोबार दोनों ही खराब हालत में हैं. दूसरे वे लोग हैं जो अपने कारोबार को नए तौरतरीकों से करने के हिमायती हैं. वे नई तकनीक और जानकारी का प्रयोग कर रहे हैं. अपने कारोबार को बदलने के लिए पैसों का अच्छा निवेश भी करते हैं. ये लोग कम मेहनत में ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं.

हर कारोबार की तरह देह का भी कारोबार है. यह बात और है कि इस कारोबार को धंधा कहा जाता है. देह के धंधे में भी 2 तरह के लोग हैं. एक जो पुराने तौरतरीकों से अपने धंधे को रैडलाइट एरिया, ढाबे या होटलों पर चलाते हैं. देहधंधा करने वाली अपने को जवान और खूबसूरत दिखाने के लिए भद्दा मेकअप करती हैं. उन की कीमत 100 रुपए से ले कर 300 रुपए तक ही होती है. इस धंधे से जुडे़ दूसरी तरह के लोगों ने अपने काम करने के तौरतरीके बदल लिए हैं. वे स्मार्ट तरीके से काम कर रहे हैं.

वाट्सऐप पर देहधंधा

धंधा करने वाली लड़कियां ग्राहकों के सामने कभी कालेज की लड़कियां बन जाती हैं तो कभी हाउसवाइफ और कभी वर्किंग वुमन. कई तो तलाकशुदा महिलाएं बन कर भी यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि वे पेशेवर वेश्या नहीं हैं. ये अच्छे कपडे़ पहनती हैं. अच्छा मेकअप करती हैं. स्मार्ट मोबाइल फोन का प्रयोग करती हैं. ये अपने धंधे को चलाने के लिए अब फेसबुक और वाट्सऐप का प्रयोग भी करने लगी हैं. ये अपने धंधे से जुडे़ लोगों को अपने वाट्सऐप नंबर बांट देती हैं. अपने ग्रुप में नए सदस्य को बहुत ही छानबीन के बाद शामिल करती हैं. इस ग्रुप में ज्यादातर बिजनैसमैन और नौकरी करने वाले लोग शामिल किए जाते हैं.देह धंधे का काम सलीके से कर के ये लोग एक रात का 5 हजार रुपए से 25 हजार रुपए तक का चार्ज लेती हैं.देहधंधे में वाट्सऐप के इस्तेमाल का खुलासा उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में पकडे़ गए एक सैक्स रैकेट से हुआ.

एक तरफ कानपुर का मूलगंज रैडलाइट एरिया है जहां बदबूदार गलियों, सीलन वाले कमरों में पुराने व गंदे कपडे़ पहने देहधंधा करने वाली औरतें हैं. ग्राहकों से 100, 200 रुपए पाने की ललक में लड़तीझगड़ती रहती हैं. दूसरी तरफ होटलों और अपार्टमैंट के जरिए चलने वाला देहधंधा है. इस को चलाने के लिए फेसबुक और वाट्सऐप का सहारा लिया जा रहा है, जहां उसी काम के लिए महिलाएं 5 से 25 हजार रुपए वसूल रही हैं. यहां साफसुथरे कमरे हैं. सुंदर डिजाइनर कपडे़ पहनने वाली औरतें लड़कियां बन कर धंधा कर रही हैं. कानपुर के एसएसपी यशस्वी यादव को शिकायत मिली कि फेसबुक और वाट्सऐप को देहधंधे के नए औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है.

जरिया बना कमैंट बौक्स

कई फेसबुक अकाउंट ऐसे मिले जिन में लड़कियों के फोटो दिए गए थे. कमैंट बौक्स में ग्राहक से अपना नंबर छोड़ने की बात कही जाती थी. नम्बर मिलने के बाद वे लोग अपनी तरफ से ग्राहक से संपर्क करते थे.

इस संवाददाता को फेसबुक से ‘रसीली भाभी’ नामक अकाउंट मिला. इस पर जुड़ी ज्यादातर लड़कियां कानपुर की थीं. वैसे तो इन लड़कियों ने अपने नकली फोटो लगा रखे थे. चैटिंग के दौरान ये अपनी सही फोटो चैटिंग बौक्स के जरिए दिखाती थीं. सैक्स रैकेट से जुड़ी कुछ लड़कियां तो बाद में अपना अलग धंधा करने लगती थीं. ऐसी ही एक लड़की सविता का कहना है, ‘‘हमारे पैसों का बड़ा हिस्सा बीच वाला ले जाता था. ऐसे में मैं ने खुद अपना काम करना शुरू किया. मेरे पास अपने 20-22 ग्राहक हैं जो समयसमय पर हमारे काम आते रहते हैं.’’

एसएसपी ने पुलिस विभाग के ऐसे सिपाहियों को इस काम की छानबीन का काम सौंपा जो फेसबुक और वाट्सऐप का प्रयोग करने में माहिर थे. ऐसे सिपाहियों ने फोटो देख कर 40 हजार में लड़की का सौदा कर लिया. 10 हजार रुपए एडवांस देने के लिए उन के आदमी को बुलाया. पैसे के झांसे में वह आ गया. इस के जरिए पुलिस को पता चला कि कलक्टरगंज के होटल गिरिजा और स्वरूपनगर के एक अपार्टमैंट में यह धंधा साफसुथरे सजेसजाए कमरों में किया जा रहा था. पुलिस ने वहां छापामार कर 4 लड़कियों और 11 आदमियों को पकड़ा.इन के पास से कुछ पैसे, लैपटौप और दूसरी अश्लील चीजें बरामद कीं. होटल मालिक उत्तम गुप्ता और मैनेजर वीरेंद्र खत्री सहित पुलिस ने सारा सुबानो नामक महिला को पकड़ा. यह इस धंधे की मुख्य किरदार थी. अपनी सफाई में पुलिस ने प्रैस कौन्फ्रैंस कर यह बात मीडिया को बताई और वाट्सऐप के जरिए भेजे गए फोटो भी दिखाए.

फेसबुक से सुरक्षित है वाट्सऐप

फेसबुक और वाट्सऐप के जरिए चलाए जाने वाले इस धंधे का मुख्य आधार कांट्रैक्ट सैक्स होता है. दिल्ली, मुंबई, मणिपुर, कोलकाता और पंजाब से औरतों को 10 से 15 दिन की अवधि के लिए कानपुर बुलाया जाता था. यहां इन को होटल और अपार्टमैंट में कमरा दे कर रखा जाता था. इन के फोटो फेसबुक और वाट्सऐप के जरिए ग्राहकों को दिखाए जाते थे. फोटो देख कर ग्राहक लड़की को पसंद कर लेता था. कभी ग्राहक होटल या अपार्टमैंट के कमरे में आ जाता था तो कभी लड़कियों को ग्राहक की बताई जगह पर भेज दिया जाता था. दोनों ही माध्यमों में पैसा अलगअलग होता था.

इन लड़कियों को कभी संचालकों का रिश्तेदार बताया जाता था तो कभी कालेज में पढ़ने वाली लड़की. एक लड़की को ज्यादा समय तक एक ही जगह पर नहीं रखा जाता था. कुछ दिनों के बाद उस की जगह बदल दी जाती थी. इस के 2 कारण थे. पहला, इस से धंधे की गोपनीयता बनी रहती थी. दूसरा, ग्राहक को हर बार नई लड़की मिल जाती थी. पुलिस कहती है, ‘‘इन लोगों के पास से बरामद डायरी से कुछ फेसबुक अकाउंट और वाट्सऐप के नम्बर मिले हैं. इन की जांच चल रही है.’’

फेसबुक में 2 लोगों की बीच की बातचीत कई बार तीसरे सदस्य को भी देखने को मिल जाती है. अगर फेसबुक अकाउंट में सिक्योरिटी का सही सिस्टम नहीं लगा है तो किसी अनचाहे व्यक्ति के द्वारा अकाउंट देखे जाने का खतरा रहता है. वाट्सऐप में ऐसा खतरा नहीं होता है. इस में जिस के बीच फोटो या मैसेज शेयर किए जा रहे हैं उन के बीच ही सारी बात रहती है. स्मार्टफोन आने से अब यह काम आसान हो गया है. वाट्सऐप सस्ता बल्कि लगभग फ्री है. केवल मोबाइल में इंटरनैट चलाने का पैसा ही देना पड़ता है.

इमेज बदलने का लाभ

यहां धंधा करने वाली मणिपुर की एक लड़की मणि बताती है, ‘‘यहां यानी उत्तर प्रदेश के लिए वाट्सऐप चौंकाने वाली बात हो सकती है. बडे़ शहरों में यह पहले से चला आ रहा है.’’ मणि टूटीफूटी हिंदी बोलती है पर हर बात सही से समझती और उस का जवाब देती है. वह कहती है कि इस धंधे में भी इमेज बदलने वालों को पैसा मिलता है. कोलकाता के सोनागाछी में धंधा करने वाली कई लड़कियां वहां कम पैसे में काम करती थीं. वही लड़कियां अब उत्तर भारत के बड़े शहरों में आ गईं. वे अब मोबाइल फोन ले कर जींस पहन कर चलती हैं तो उन को मुंहमांगे दाम मिलने लगे हैं. बड़ी संख्या में ऐसी लड़कियां वहां से यहां आ रही हैं. वे वाट्सऐप और फेसबुक के जरिए अपना कारोबार चला रही हैं.

कानपुर में पकड़ी गई पंजाब की सोनिया बताती है कि उस के यहां बड़ी संख्या में ऐसी लड़कियां हैं जो एनआरआई लोगों से शादी के बाद तलाकशुदा हो गई हैं. वे अपने को इस धंधे से जोड़े हैं. ऐसी औरतें डिमांड के हिसाब से एक शहर से दूसरे शहर की ओर जा रही हैं. इन में कई लैपटौप रखती हैं. उन को देख कर लगता है कि वे वर्किंग महिलाएं हैं. इमेज बदलने से उन की कीमत भी बढ़ जाती है. वे अपनी इमेज बदल कर खूब पैसा उगाह रही हैं.

इस तरह, तकनीकी दौर में सैक्स के धंधे का भी डिजिटलीकरण हो गया है.महिलाओं के जिस्म का धंधा करने वाले पुरुष व पैसों के एवज में खुद अपना जिस्म परोसने वाली महिलाएं वैब मीडिया को माध्यम बना अवैध कमाई कर रहे हैं. प्रशासन, पुलिस व कानून इस पर कैसे रोक लगा पाते हैं, यह सवाल मुंहबाए खड़ा है.

खर्चीली तीर्थयात्राएं

देश में धर्म के प्रति अंधश्रद्धा का जनून ही है कि जहां पिछले साल 16-17 जून को भीषण प्राकृतिक आपदा ने सैकड़ों जानें लील लीं, वहीं इन दिनों फिर से चारधाम के नाम पर श्रद्धालुओं का तांता लग रहा है. जी हां, चारधाम की यात्रा जोरशोर से शुरू हो चुकी है और राज्य सरकार भी बढ़चढ़ कर इस की तैयारी में मसरूफ दिख रही है. एक बार फिर धर्म के नाम पर लोग अपना समय, धन व मेहनत प्रसादपूजा के नाम पर बरबाद करेंगे, पंडेपुरोहितों की धर्म की दुकानें सजेंगी और लोगों को पापपुण्य का लौलीपौप दिखा कर लूटा जाएगा.

दरअसल, हिंदुओं में तीर्थयात्रा का मोह और चलन बेवजह नहीं है. बचपन से ही हिंदुओं के दिलोदिमाग में यह बात कूटकूट कर भर दी जाती है कि तुम पापी हो और चूंकि सांसारिक जीवन में हो इसलिए तुम से पाप होते रहेंगे. नतीजतन, तुम्हें मोक्ष नहीं मिलेगा. मोक्ष न मिलने का मतलब है कि मरने के बाद तुम नर्क की कष्टप्रद यंत्रणाएं भोगोगे. ये यंत्रणाएं क्या और कैसी हैं, इस का गरुड़ पुराण में विस्तार से वर्णन इतने खौफनाक तरीके से किया गया है कि शेर का कलेजा रखने का दावा करने वाला भी इन्हें सुन कर कांप जाए और उन से बचने के उपाय ढूंढ़ने लगे और इन से बचने में यदि उस का घरबार बिक जाए तो भी हिचकिचाए नहीं.

दूसरे धार्मिक पाखंडों की तरह तीर्थयात्रा का विधान भी महज पैसा कमाने के मकसद से एक साजिश के तहत रचा गया है. जिंदगीभर तो आदमी धर्म के मकड़जाल में फंसा अपने खूनपसीने की गाढ़ी कमाई उस पर लुटाता ही रहता है लेकिन तमाम जिम्मेदारियों से निबटने के बाद जब वह थोड़ा चिंतामुक्त होता है तो कथित पापों से मुक्ति पाने के लिए उसे तीर्थयात्रा की सलाह दी गई है.

यह वह वक्त होता है जब आदमी वक्तवक्त पर तमाम धार्मिक कमीशन देते रहने के बाद भी खासा पैसा व जायदाद बना ही लेता है. धर्म के दुकानदारों की नजर इस पर भी शुरू से ही रही है. लिहाजा, तीर्थयात्रा की महिमा इतने लुभावने तरीके से गाई गई है कि उस पर भी लुटनेपिटने में लोग संकोच नहीं करते. पुण्य कमाने का लालच उन से अपनी कमाई दौलत का बड़ा हिस्सा खर्च करवा ही लेता है. यह बीमारी लगभग सभी धर्मों में बराबरी से फैली है पर हिंदुओं में कुछ ज्यादा है जो धर्म के लिए जमीनजायदाद तक बेच देते हैं.

पापपुण्य का जाल

गांवदेहातों से ले कर महानगरों तक के लोग तीर्थयात्रा करते हैं. वे तबीयत से लुटतेपिटते हैं और हजारों रुपए खर्च करने के बाद गंगाजल, कंठी, माला, गीता और देवीदेवताओं सहित तीर्थस्थलों के फोटो जैसी दो कौड़ी की सस्ती चीजें घर ला कर अपने पापी न होने की हीनभावना से उबरने का भ्रम भी पाल लेते हैं.

दुनिया की सब से बड़ी मूर्खता यही है कि लोग अपने कमाए पैसे का उपयोग अपने हिसाब और जरूरतों से न करें बल्कि धर्म के कहे अनुसार करें. मानव जीवन की यह सार्थकता धर्म के व्यापारियों ने गढ़ी है.

इस सार्थकता के चक्कर में कैसे लोग लुटते आ रहे हैं, इस की बेहतर मिसाल तीर्थस्थलों के पंडेपुजारी हैं जो सूर्योदय से पहले अपनी दुकान ले कर ठिकानों पर जा कर बैठते हैं और दिनभर में कुछ मंत्र, कथा पूजा कर मुक्ति के नाम पर हजारों रुपए ले कर रात को घर लौटते हैं. ऐसा चोखा धंधा शायद ही दुनिया में कहीं देखने को मिले, जिस में किसी पढ़ाईलिखाई या दूसरी योग्यताओं की जरूरत नहीं पड़ती. संस्कृत के कामचलाऊ श्लोक और जाति से ब्राह्मण होना ही काफी होता है. स्कंद पुराण में तो ब्राह्मण सेवा को ही तीर्थ के समान फल देने वाला कार्य बताया गया है.

दूसरे धार्मिक कृत्यों की तरह तीर्थयात्रा का पाखंड भी शोबाजी से लबरेज है. मध्य प्रदेश के महाकौशल इलाके के लोग जब तीर्थ पर जाते हैं तो गांवभर में चने की दाल बांटते हैं. तीर्थयात्री के परिजन और परिचित उसे फूलमालाओं से लाद कर बैंडबाजे के साथ बस स्टैंड या स्टेशन तक छोड़ने जाते हैं. इस दौरान भजनकीर्तन और पूजापाठ का दौर चलता रहता है. बांटी गई चने की दाल की कीमत लगभग 4 हजार रुपए और कहींकहीं इस से भी ज्यादा होती है. अलगअलग क्षेत्रों में इस तरह के रिवाज दूसरे तरीकों से प्रचलित हैं.

पहले तीर्थयात्री यह मान कर चलते थे कि शायद वापस न आ पाएं इसलिए जायदाद का बंटवारा और तमाम लेनदेन निबटा कर जाते थे. पहले यात्राएं आवागमन की सुविधाएं न होने से कठिन और लंबी होती थीं पर अब यात्राएं सुलभ और सहूलियत वाली हो गई हैं, इसलिए पहले से ज्यादा लोग तीर्थयात्रा करने लगे हैं. लेकिन इन सुविधाओं की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ती है. मसलन, वैष्णो देवी के दर्शन अब हैलिकौप्टर से भी लोग करते हैं पर इस के लिए महज चंद किलोमीटर की दूरी के लिए हजारों रुपए जेब में होने चाहिए.

लूट का खेल

पैसा फूंकने की शुरुआत मुहूर्त निकलवाने से होती है. यह काम पंडित ही करता है. शुभ कार्य करने के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं तो पैसे का मुंह नहीं देखते.

बढ़ती महंगाई के चलते मुहूर्त के रेट भी बढ़ गए हैं. आमतौर पर लोग तीर्थयात्रा का मुहूर्त निकलवाने के 101 रुपए देते हैं. पर हकीकत में यह राशि 1 हजार रुपए से ज्यादा होती है. मुहूर्त के साथ पंडित रास्ते की जानकारी, ठहरने के स्थान और तीर्थस्थल के नामी पंडित का भी पता बता देता है और यह भी कह देता है कि उन्हें बता देना कि आप मेरे यजमान हो. 2 से 5 साल में स्थानीय पंडित तीर्थ नहीं ‘अर्थयात्रा’ के मकसद से तीर्थस्थल जाता है और प्रति तीर्थयात्री अपना कमीशन वसूलने के साथसाथ धंधे के नए गुर सीख कर वापस आता है.

हैरत वाली बात यह है कि गया, इलाहाबाद और बनारस के पंडे उधारी में भी तीर्थयात्रियों के धार्मिक कृत्य करवाते हैं और बाद में ब्याज सहित वसूलते हैं. एक जिले में एक प्रमुख पंडित होता है जिस के पास सभी घरों की 7 पीढि़यों का लेखाजोखा होता है. इलाहाबाद में जो विदिशा जिले का पंडित है उसे विदिशा वासियों से 4 करोड़ की उधारी वसूलनी है.

अब यह काम मोबाइल फोन पर होने लगा है. तीर्थस्थल के पंडित को जादू के जोर से मालूम हो जाता है कि मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के गंगरवाड़े गांव से क्षत्रिय जाति के कमर सिंह आ रहे हैं जिन की गांठ में कम से कम 25 हजार रुपए हैं. तीर्थयात्रा पर जाने के पहले या आने के बाद ग्रामभोज या शहरों में परिचितों को बुला कर खाना खिलाने का रिवाज भी चलन में है. इस पर लोग हैसियत के मुताबिक 10 से ले कर 25 हजार रुपए तक खर्च कर देते हैं. तीर्थयात्रा की तरह ही इस रिवाज का कोई औचित्य नहीं है पर चूंकि बापदादों के जमाने से होता आ रहा है इसलिए लोग ऐसा करते हैं यानी खासी फुजूलखर्ची तीर्थयात्रा शुरूहोने से पहले शुरू हो चुकी होती है.

तथाकथित पुण्य के इस कार्य में आनेजाने और ठहरने पर लगभग 10 हजार रुपए औसतन खर्च होते हैं. पैसे वाले लोग तो लाखों रुपए फूंक देते हैं. आज हर तीर्थस्थल पर भव्य होटल हैं जिन में तमाम आधुनिक सुखसुविधाएं उपलब्ध हैं.

असल खर्च तब शरू होता है जब तीर्थयात्री नदी किनारे बैठे पंडों की गिरफ्त में आता है, जो दरअसल गाइड का भी काम करते हैं. हर एक पूजा का रेट तय होता है. अब मोलभाव भी होने लगा है जो यह बताता है कि धर्म से बड़ा धंधा कोई नहीं.

तीर्थस्थल पर दर्जनों मंदिर होते हैं जिन में चढ़ावा चढ़ा कर लोग अपना पैसा बरबाद ही करते हैं. भिखारियों और साधुसंतों को भी तबीयत से दान देते हैं क्योंकि कहा यह भी जाता है कि तीर्थस्थल पर दान करने से मोक्ष मिलता है, वहां नर के रूप में साक्षात नारायण रहते हैं. दरअसल, ये साधु और भिखारी तीर्थस्थलों के चलतेफिरते होर्डिंग्स होते हैं जिन की रोजाना की औसत कमाई हजार रुपए होती है. 2-3 दिन में तीर्थयात्री की जेब खाली हो जाती है.

धर्म की दुकान

प्रचार किया जाता है कि अमरनाथ यात्रा में खानेपीने में पैसा खर्च नहीं होता, जगहजगह पर लंगर चलता रहता है. हकीकत यह है कि खाना तो कहींकहीं मिल जाता है पर पानी की बोतल 100 रुपए में खुलेआम बिकती है. यही हाल तिरुपति और शिरडी जैसे तीर्थस्थलों का भी है. ठहरने के होटलों में कमरों के दाम तो सीजन में आसमान छूने लगते हैं. चारोंधाम जाएं, वैष्णो देवी या धार्मिक शहरों में तीर्थयात्रा पर जाएं, सब फुजूलखर्ची ही है, तीर्थयात्री को हासिल कुछ नहीं होता.

तीर्थयात्रा करने का एक बड़ा लालच यह प्रचार भी है कि यहां हजारों साल की उम्र के सिद्ध साधु रहते हैं, दुर्लभ जड़ीबूटियां व ओषधियां मिलती हैं. इस के अलावा तीर्थों के दर्शन लाभ से तमाम दुख दूर हो जाते हैं.

ये सब काल्पनिक चीजें पाने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है जिसे खर्च के बजाय बरबादी या फुजूलखर्ची ही कहा जाना बेहतर होगा. हैरानी यह है कि यह फुजूलखर्ची और बरबादी मध्य प्रदेश में सरकारी स्तर पर होने लगी है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पूरे धूमधड़ाके से सरकारी पैसे पर प्रदेशवासियों को तीर्थयात्रा करवा रहे हैं. हिंदूवादी संगठन तीर्थयात्रा का जम कर प्रचार करते हैं. पंडों का काम कर रहे ये लोग दरअसल लोगों को कंगाल करने का इंतजाम कर रहे हैं. क्योंकि तीर्थयात्रा से लौटे लोग अब जगहजगह गंगाजली खोलेंगे, सामूहिक भोज देंगे और इस के पहले तीर्थस्थलों के पंडों को तो काफी दक्षिणा चढ़ा ही चुके होंगे.

मध्य प्रदेश में अब बड़े पैमाने पर हो यह रहा है कि जिन लोगों की सरकारी तीर्थयात्रा में जाने की लौटरी नहीं लगी वे यहांवहां से पैसे जुगाड़ कर खुद ही जाने का इंतजाम कर रहे हैं. जाहिर है ये लोग अपने जरूरी खर्चों में भी कटौती कर रहे हैं पर इस बाबत शिवराज सिंह को दोषी करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि वे तो अपने हिंदुत्व के एजेंडे का प्रचारप्रसार कर रहे हैं जिस में उन की जेब से फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं होनी.

पुरुष पर अत्याचार

विजय और नीलू वर्ष पिछले 3 वर्षों एकदूसरे को जानते थे.पारिवारिक स्थितियों के कारण चूंकि विवाह करना तब संभव नहीं था इसलिए दोनों ने इंतजार करने का फैसला किया. हालांकि विवाह किए बिना भी उन के बीच शारीरिक संबंध कायम हो गए थे. शादी तो करनी ही है, यह सोच कर और नीलू को कभी आर्थिक परेशानी न हो, विजय ने नीलू के नाम से काफी प्रौपर्टी खरीदी और दोनों ने विवाह कर लिया.

उन का संबंध 2011 तक कायम रहा. इस बीच नीलू धीरेधीरे सारी प्रौपर्टी बेचती रही और सारा पैसा हड़पने के बाद वह उसे छोड़ कर भाग गई. विजय ने तलाक की अर्जी अदालत में दी जिस के जवाब में नीलू ने कहा कि उस से दहेज की मांग की जाती थी. विजय को इस वजह से 2 महीने कस्टडी में रहना पड़ा. अभी यह मामला अदालत में विचाराधीन है, लेकिन विजय पत्नी द्वारा लगातार दी जा रही मानसिक यातना को झेल रहा है. इस तरह के मामले में अधिकतर फैसले पत्नी के हक में ही जाते हैं और पत्नी द्वारा पति पर अत्याचार करना कोई अपराध नहीं माना जाता है.

दिल्ली के सरस्वती विहार में रहने वाले पतिपत्नी सुमित व मोनिका अरोड़ा की बात करें तो मोनिका आपसी मतभेद के चलते सुमित को तंग करती थी. मामले को सुलझाने के लिए सुमित ने अपने ससुर को बुलाया. उन्होंने सुमित को बहुत मारा जिस में उस की पत्नी की सहमति भी शामिल थी. उसे जान से मारने की धमकी भी दी. इसी आधार पर जब सुमित ने तलाक की अर्जी दी तो उस के ऊपर दहेज मांगने का इल्जाम लगाते हुए मोनिका ने मैंटेनैंस की मांग की. अंत में आपसी सहमति से दोनों के बीच तलाक हो गया, लेकिन सुमित आज तक पत्नी द्वारा दी गई पीड़ा से उबर नहीं पाया है.

राजन का मामला देखें. उस की पत्नी उस से तलाक चाहती थी. तलाक की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए उस ने धारा 498 ए के तहत उत्पीड़न का मामला दायर कर दिया. उस का 1 साल का बच्चा भी था, लेकिन उस के बारे में भी उस की पत्नी ने नहीं सोचा. आज 3 साल से अधिक हो गए हैं, राजन अपने को निर्दोष साबित करने के लिए इधरउधर मारामारा फिर रहा है.

ताकत गई है हाथों में

समय ने जिस तेजी से करवट ली है उतनी ही तेजी से औरत ने अपनी उड़ान भरी है. उड़तेउड़ते अपने पंखों को उस ने इतनी तेजी से फैलाया कि अपने वर्चस्व का परचम लहरा कर ही चैन लिया. यही वजह है कि आज इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि यह महिला सशक्तीकरण का युग है. औरत से जहां पहले यह उम्मीद की जाती थी कि वह पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिला कर चले, वह आज उसे ही पीछे छोड़ कई कदम आगे निकल चुकी है.

आज औरत की स्वतंत्रता ने एक अलग ही मोड़ ले लिया है. वह तानाशाह की कुरसी पर बैठी है और पुरुष पर जुल्म करने से भी नहीं हिचक रही है. उस ने जुल्म सहे और प्रताड़ना भी, उस की मदद के लिए अनगिनत कानून भी बने पर आज आलम यह है कि औरत पति को खरीखोटी तो सुनाती ही है उसे धोखा भी देती है. इतना ही नहीं कभीकभी पति की हत्या करने से भी नहीं हिचकती. पत्नी की इस नामाकूल हरकतों के पीछे तर्क यह दिया जाता कि सदियों से पुरुष जो उस पर अत्याचार करता आ रहा था, उन सब का बदला लेने का उसे अब मौका मिला है.

समझौता करने को तैयार नहीं

औरत आज आत्मनिर्भर है इसलिए किसी तरह का समझौता करने से इनकार करती है. दहेज विरोधी कानून का भी खूब दुरुपयोग किया गया. यह सच है कि सदियों से औरत को दोयम दरजा दिया जा रहा है और उस ने सहा भी कम नहीं है. आज स्थिति यह है कि पुरुष उसी दोयम दरजे का शिकार हो रहा है. फैमिनिज्म और खुलेपन की दुहाई दे कर औरत क्या अब पति को पीड़ा नहीं पहुंचा रही है? पारिवारिक मूल्यों का विघटन ऐसी ही स्त्रीवादी संस्थाओं के चलते हो रहा है. ऐसा कोई प्रावधान क्यों नहीं बनाया जा रहा है जिस में घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत पुरुषों को भी सुरक्षा मिले. इस में पक्षपात क्यों किया जा रहा है?

घर तोड़ता कानून

घरेलू हिंसा कानून महिला को पुरुष पर वैधानिक तौर पर एक हुकूमत करने और ऐसा समाज निर्मित करने की अनुमति देता है जिस में पुरुषों को उन के अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. इस कानून की 3 मौलिक समस्याएं हैं. वह पूरी तरह से महिलाओं के पक्ष में होने के कारण जैंडर बायस है, इस का दुरुपयोग होने की संभावना असीमित है.

घरेलू हिंसा की परिभाषा अत्यंत व्यापक है. केवल यही मानना कि महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, गलत है. जबकि कानून के अनुसार केवल महिला ही अपने पति के खिलाफ केस फाइल कर सकती है. एक पुरुष, जो घरेलू हिंसा का शिकार हो, इस कानून के तहत कोई केस फाइल नहीं कर सकता है. फैमिनिस्ट मानती हैं कि भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं जिस में गाली व अपशब्दों का प्रयोग भी आता है. लेकिन यही बात जब पुरुषों के संदर्भ में उठाई जाती है तो वे खामोश हो जाती हैं. आखिर गालियां और मारपीट तो पुरुष भी झेलते हैं.

छोटेछोटे घरेलू झगड़ों के प्रति असहनशीलता और मुकदमा दायर करने को बढ़ावा देने वाला घरेलू हिंसा कानून दरअसल विवाह की नींव को हिलाने का काम कर रहा है. हर पतिपत्नी के बीच झगड़े होते हैं और वे एकदूसरे को बुराभला भी कहते हैं, लेकिन समय के साथ सब ठीक हो जाता है. इस कानून की वजह से छोटेछोटे झगड़े तक आज अदालत पहुंचने लगे हैं और पुरुष उन अत्याचारों की भी सजा भुगतने को मजबूर है जो उस ने किए ही नहीं. यह कानून तलाक को बढ़ावा दे रहा है और घर तोड़ रहा है.

तंग करती हैं पति को समाज हमारा इस तरह बना है कि उस में माना जाता है कि एक पति कभी भी पत्नी के जुल्मों का शिकार नहीं हो सकता है. उसे कई वैधानिक, सामाजिक कानूनों या आर्थिक मदद से सिर्फ इसलिए वंचित किया जाता है क्योंकि वह पुरुष है. आजकल तो टीवी पर भी इस तरह के धारावाहिक आ रहे हैं जिन में औरत को बहुत ताकतवर दिखाया जा रहा है. घर ही नहीं, कार्यक्षेत्र में भी उस का दबदबा होता है.

क्राइम अगेंस्ट मैन के संचालक आर पी चुग कहते हैं, ‘‘पुरुषों के प्रति औरतों के अत्याचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. लगता है कि पुरुषों पर होने वाले अत्याचारों को ले कर सरकार ने भी आंखें मूंद ली हैं. आखिर क्यों सारी सहानुभूति औरत के साथ ही होती है? स्त्री आज यह जानती है कि उस के एक ही कथन से पुरुष जेल की सलाखों के पीछे हो सकता है इसलिए वह हिंसा पर उतर आई है. उस में इतना हौसला आ गया है कि मानसिक रूप से पीडि़त करने के साथ वह पति को शारीरिक रूप से भी प्रताडि़त कर सकती है.

‘‘कहते हैं कि पशुओं तक को हमारे समाज में सुरक्षा मिलती है लेकिन पुरुषों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है. त्रासदी तो यह भी है कि जब हम महिलाओं के पुरुषों पर अत्याचार के खिलाफ धरनेप्रदर्शन करते हैं तो बहुत सारे पुरुष उस में शामिल नहीं होते हैं. वे या तो शर्म महसूस करते हैं या सार्वजनिक तौर पर अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरोध में आवाज उठाने से कतराते हैं. पुरुषों पर होने वाले अत्याचार तब तक नहीं रोके जा सकते जब तक वे खुद अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाते.’’

दिल्ली की तीस हजारी अदालत के वकील हरीश मोंगा के अनुसार, ‘‘पति व पत्नी के बीच अकसर झगड़े वहीं होते हैं जहां पत्नी पति के साथ रहने की इच्छुक नहीं होती है. ऐसे में दहेज को ले कर या मेट्रोमोनियल केस फाइल करना उस के लिए एक हथियार के समान होता है. वह झूठी शिकायत दर्ज कराती है. धारा 406 के अंतर्गत महिला अपराध शाखा में पति को फंसा सकती है. घरेलू हिंसा अधिनियम के द्वारा भी महिलाएं फायदा उठा पति को तंग कर सकती हैं. ऐसे अनेक मामले देशभर की अदालतों में चल रहे हैं.

समझें पुरुष की पीड़ा

कानून का दृष्टिकोण पत्नी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होता है, चाहे वह दोषी ही क्यों न हो. लेकिन अगर निर्दोष पति अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वह स्वयं ही पुलिस व अदालत के शिकंजे में कस जाता है. वहां केवल सिक्के के एक ही पहलू को देखा जाता है, क्योंकि समाज आज तक पुराने मानदंडों पर चला आ रहा है. क्या जरूरत इस बात की नहीं है कि पुरुषों को हर बार ही दोषी न माना जाए और ‘जिस के हाथ में ताकत होती है वही हुकूमत करता है’ के सिद्धांत से ऊपर उठ कर कानून एक बार तो पुरुष के दृष्टिकोण और पीड़ा को समझे.

औरत के विशेष अधिकारों को हटाने का एकमात्र तरीका है कि समानता, सामाजिक समन्वय और न्याय को स्थापित किया जाए. पुरुषों से घृणा करने वाली फैमिनिस्ट सोच ने औरतों के अधिकारों का जो दुरुपयोग करना आरंभ किया है, उस ने समाज की व्यवस्था को बिगाड़ दिया है.

क्या करे पुरुष

अगर वह औरत की नाजायज मांगों को पूरा नहीं करता है तो उसे सजा काटनी पड़ती है और अगर उन्हें पूरा करता है तो भी उत्पीड़न उसी का होता है. मजबूरी उस की है कि वह घर छोड़ कर जा नहीं सकता. अगर वह विरोध करता है तो पत्नी आरोप लगाती है कि वह उस पर अत्याचार कर रहा है और यह सुनते ही कानून पत्नी का साथ देने को तैयार हो जाता है. आखिर पुरुष क्या करे, कानून की खामियों के चलते स्त्री द्वारा शिकार बनता रहे या सरकार पुरुषों की भी घरेलू सुरक्षा के लिए कुछ करेगी?

क्रिकेटी जुआ : आईपीएल

भ्रष्टाचार के बाद भी आईपीएल की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है. क्रिकेट में स्पौट फिक्ंसग की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में बेईमानी, भ्रष्टाचार सामने आने के बावजूद इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल का जोश उफान पर है. इस बार टूर्नामैंट की शुरुआत संयुक्त अरब अमीरात में हुई और भारत में आम चुनावों के बावजूद क्रिकेट का रोमांच घटा नहीं. लोग घरों में टैलीविजन से चिपके देखे जा सकते हैं. सड़कों, गलियों, बाजारों, घरों, दफ्तरों में क्रिकेट की ही ज्यादा चर्चा है. देश का भविष्य तय करने वाले चुनावों के बजाय लोग बुराइयों से भरे क्रिकेट में अधिक डूबे हुए हैं. दुनियाभर के सटोरिए, अंडरवर्ल्ड के बिचौलिए, बेईमान, टीम कारोबारी और नीलामी में खरीदे गए घुड़दौड़ के घोड़े मैदान में हैं. तमाशबीन लोग खिलाडि़यों के करतबों पर तालियां पीट कर धन्य हो रहे हैं.

आईपीएल के नाम पर अंडरवर्ल्ड माफिया, सट्टेबाज, चंद बेईमान व्यापारी, भ्रष्ट राजनीतिबाज, लालची खिलाड़ी और बिचौलियों के गठजोड़ वाला कलंकित क्रिकेट देशदुनिया को फिर से लुभाने में कामयाब दिख रहा है. 47 दिन तक चलने वाले इस टूर्नामैंट के आयोजन को सरकारें पूरी शह दे रही हैं. क्रिकेट संचालित करने वाली संस्थाएं पूरी तरह न्योछावर हैं. चोरों, बेईमानों, भ्रष्टाचारियों के इस खेल में ‘उत्कृष्ट योगदान’ के लिए सरकार पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और देश के सर्वोच्च सम्मान भारतरत्न की रेवडि़यां बांट रही है.

क्रिकेट के प्रति पागलपन

इस बार 16 अप्रैल से 1 जून तक चलने वाले आईपीएल का पहला चरण, भारत में आम चुनावों की वजह से, संयुक्त अरब अमीरात में शुरू हुआ. 16 से 30 अप्रैल तक दुबई, शारजाह, अबूधाबी में होने के बाद 2 मई से भारत में चल पड़ा लेकिन बदनामी के बाद भी क्रिकेट के तमाशबीनों का जोश ठंडा नहीं हुआ. क्रिकेट के प्रति पागलपन का आलम यह है कि मतदान और जरूरी कामधाम छोड़ कर भीड़ स्टेडियमों की ओर भाग रही है.

मजे की बात है कि क्रिकेटप्रेमियों में खेल, खिलाड़ी की ही चर्चा है, खेल के पीछे भ्रष्टाचार, बेईमानी की जरा भी नहीं. यानी खेल में सब जायज मान लिया गया है. तभी सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई के चेयरमैन पद से हटाए गए एन श्रीनिवासन, उन के दामाद एवं चैन्नई टीम से जुड़े गुरु मयप्पन की संलिप्तता पर कोई चर्र्चा नहीं, स्पौट फिक्ंसग के चलते पकड़े गए खिलाडि़यों की कोई बात नहीं, सटोरियों, बिचौलियों, बौलीवुड सितारों और कौर्पोरेट कंपनियों की बेईमानी की कहीं निंदा नहीं.

मैच फिक्सिंग की जांच

क्रिकेटप्रेमियों पर इस बात का कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता कि आईपीएल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी की जांच मुद्गल कमेटी कर रही है और उस की प्रारंभिक जांच में क्रिकेट से जुड़े कई दिग्गज बेपरदा हो चुके हैं. सीधे सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही जांच में आईपीएल में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग मामले की जांच अब मुद्गल कमेटी ही करेगी. कमेटी एन श्रीनिवासन और कुछ प्रमुख खिलाडि़यों सहित 12 अन्य आरोपियों के खिलाफ जांच करेगी. अदालत ने आईपीएल के आयोजन का अस्थायी जिम्मा पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर को सौंपा है.

क्रिकेट को संचालित करने वाली संस्था बीसीसीआईर् टीम मालिकों को बचाने की भरसक कोशिशें करती रही और अपनी ओर से जांच समिति बना कर वह बड़े पदाधिकारियों को बेकुसूर साबित कर चुकी है पर इस जांच समिति को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था और जस्टिस मुद्गल से आगे जांच करने को कह दिया है.

दरअसल, पिछले साल मई में 3 खिलाडि़यों की गिरफ्तारी के साथ मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी का भंडाफोड़ हुआ था. दिल्ली पुलिस ने सट्टेबाजों और कुछ खिलाडि़यों की टैलीफोन बातचीत के टेप सुने तो क्रिकेट की कई हस्तियों के नाम निकल कर सामने आए.

गिरफ्तार खिलाडि़यों में राजस्थान रौयल के श्रीसंत, अजित चंदीला और अंकित चव्हाण थे. इन के साथ ही बीसीसीआई चेयरमैन एन श्रीनिवासन और चैन्नई सुपर किंग्स से जुड़े उन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन के नाम भी सामने आए. राजस्थान रौयल की मालिक शिल्पा शेट्टी व राज कुंद्रा पर भी उंगलियां उठीं लेकिन बीसीसीआई ने केवल खिलाड़ियों के खिलाफ ही प्रतिबंध की कार्यवाही की. राजस्थान रौयल के मालिक राज कुंद्रा, चैन्नई सुपर किंग्स से जुड़े गुरुनाथ मयप्पन पर कोई कार्यवाही नहीं की.

मैच फिक्सिंग उजागर होने के बाद खेल जगत में हल्ला मचा तो तीनों खिलाडि़यों को तुरंत निकाल बाहर कर दिया गया. आईपीएल संचालित करने वाली संस्था बीसीसीआई सकते में आ गई और आईपीएल के कर्ताधर्ताओं को सांप सूंघ गया. सरकार में बैठे राजनीतिबाज साफसुथरे क्रिकेट की बातें करने लगे और कानून बनाने का ढोंग करते सुने गए. संसद में आईपीएल को बंद करने की मांग भी उठी पर अब तक किया कुछ नहीं गया.

बीसीसीआई अध्यक्ष झूठ बोलते पकड़े गए. उन्होंने खिलाडि़यों की गिरफ्तारी के बाद प्रैस कौन्फ्रैंस कर अपने दामाद और चैन्नई सुपर किंग्स के गुरुनाथ मयप्पन के सट्टेबाजों के साथ पकड़े जाने पर सफाई दी, कहा था कि दामाद के साथ उन का किसी तरह का संबंध नहीं है.

स्वार्थी गठजोड़

तीनों खिलाडि़यों की गिरफ्तारी के बाद फिल्म अभिनेता दारा सिंह का बेटा विंदू दारा सिंह पकड़ा गया तो उस ने सब से पहले गुरुनाथ मयप्पन का नाम लिया. उस ने साफ कहा था कि यह सारा खेल काले चोरों का है. विंदू ने पाकिस्तानी अंपायर असद रऊफ की ओर भी संकेत किया था. असद पहले भी विवादों में रहे हैं. वे सट्टेबाजों, दलालों से महंगे उपहार लेते रहे. विंदू के खुलासे के बाद अंडरवर्ल्ड, कौर्पोरेट, बौलीवुड और क्रिकेटरों का नापाक गठजोड़ सामने आया जिस से लोग भौचक्के रह गए.

सियासीबाजों की अगुआई में चल रहे इस क्रिकेट में वे कंपनियां शामिल नहीं हैं जो अपने औद्योगिक और प्रबंधन कौशल के लिए जानी जाती हैं. इस में भ्रष्ट नेताओं से सांठगांठ कर सरकारी ठेके हथियाने वाली, टैक्स चोरी करने वाली, धोखाधड़ी, बेईमानी में फंसी कंपनियां शामिल हैं जो नीलामी में खिलाडि़यों की खरीदफरोख्त कर महज मुनाफा कमाने उतरी हैं. इन में शराब कारोबारी विजय माल्या की कंपनी दिवालिया हो गई थी जो अपने कर्मचारियों को महीनों तक तनख्वाह नहीं देती थी. धोखाधड़ी के चलते जेल में बंद सहारा समूह के मालिक सुब्रत राय की भी पुणे टीम में हिस्सेदारी थी. राज कुंद्रा पर सट्टेबाजी से पैसा कमाने के आरोप लगते रहे हैं.

क्रिकेट टूर्नामैंट के दौरान दुनियाभर में सटोरिए, दलाल सक्रिय हो जाते हैं. इन का सारा नैटवर्क दुनियाभर के देशों से जुड़ा रहता है. पुलिस के दावों पर विश्वास करें तो आईपीएल में सट्टेबाजी का 50 हजार करोड़ रुपए का कारोबार है.

अरबों डौलर के इस खेल की खासीयत यह है कि विनर और रनर की तो चांदी है ही, हारने वाली हर टीम भी भारी मुनाफे में रहती है. उसे किसी तरह का कोईर् नुकसान नहीं होता. सभी फ्रैंचाइजी भारी फायदे में रहती हैं. इस बार आईपीएल में 8 टीमें भाग ले रही हैं. कोलकाता नाइटराइडर्स के मालिक फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, जयपुर व पंजाब की टीमों की सह- मालकिन फिल्म अभिनेत्रियां शिल्पा शेट्टी व प्रीटि जिंटा हैं. रौयल चैलेंजर्स बेंगलुरु की टीम के मालिक शराब कारोबारी विजय माल्या थे. मुंबई इंडियंस के मालिक देश के सब से अमीर मुकेश अंबानी हैं. कोच्चि टीम की हिस्सेदार केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर के विवाद में आने के बाद थरूर को मंत्री पद गंवाना पड़ा था लेकिन बाद में उन्हें वापस ले लिया गया.

पिछले कुछ समय से यह प्रतियोगिता टैक्स न देने के कारण भी चर्चा में रही. सरकार के साथ विवाद भी हुए. बीसीसीआई को आईपीएल के चलते दुनियाभर के कई क्रिकेट संघों के साथ कई बार संघर्ष की स्थिति का सामना करना पड़ा. विवाद का कारण यह था कि जिन खिलाडि़यों ने आईपीएल के साथ अनुबंध कर रखा है उन्हें अपने देश के लिए भी उपलब्ध रहना चाहिए.

विवादों में आईपीएल

आईपीएल की शुरुआत अमेरिका से भाग कर आए कारोबारी ललित मोदी ने 2008 में की थी. वे मध्यवर्ग के लोगों को मनोरंजन से लुभा कर पैसा कमाना चाहते थे. आईपीएल के लिए पहली बार टीम की जगह फ्रैंचाइजी की नीलामी की गई. हर फ्रैंचाइजी में खिलाडि़यों की कीमत तय हुई. फ्रैंचाइजी के मालिकों ने खिलाडि़यों की हैसियत के मुताबिक बोली लगाई. खिलाडि़यों की खरीदफरोख्त की गई.

ललित मोदी ने कौर्पोरेट, बौलीवुड, राजनीति और अंडरवर्ल्ड के गठजोड़ को काली कमाई का अवसर मुहैया कराया पर वे इस खेल में अधिक समय तक न रह पाए. ललित मोदी पहले 3 साल तक आईपीएल के कर्ताधर्ता रहे. बाद में 2 फ्रैंचाइजी के साथ विवादों से उन के नाम का करार रद्द होने और 8 खिलाडि़यों के स्पौट फिक्सिंग में निलंबन की वजह से वे आईपीएल से बाहर कर दिए गए.

कैसे होती है मैच फिक्सिंग

असल में दुबई, शारजाह जैसे देशों में बैठे अंडरवर्ल्ड के लोग अपने दलालों के माध्यम से खिलाडि़यों से संपर्क साधते हैं. उन से दोस्ती गांठते हैं. महंगी पार्टियों का आयोजन कर उन्हें आमंत्रित करते हैं. पार्टियों में महंगी शराब परोसी जाती है और खूबसूरत लड़कियों को भी बुलाया जाता है. इस चकाचौंध और लालच में कई खिलाड़ी आ जाते हैं और बिचौलिए अपनी मनमरजी का काम कराने के लिए सौदेबाजी करने में कामयाब हो जाते हैं. बदले में खिलाडि़यों को मोटा पैसा, सुंदर लड़कियां, महंगे गिफ्ट दिए जाते हैं.

पहले से ही फिक्स इस सौदे के बल पर बड़ेबड़े सट्टेबाज सट्टेबाजी के भाव तय कर लेते हैं. चूंकि उन्हें नतीजे का पहले से ही पता होता है, इसलिए बाजी जीत कर वे लाखोंकरोड़ों कमाते हैं.

असल में खिलाडि़यों को सजा देने से कुछ नहीं होगा. आईपीएल के खिलाडि़यों की हालत तो घुड़दौड़ के उस घोड़े की तरह है जिस पर बाहर बैठे लोग दांव लगाते हैं. मध्यवर्ग से आने वाले ये खिलाड़ी तो और मिल जाएंगे. असली खेल तो चंद बेईमान व्यापारी भ्रष्ट राजनीतिबाजों के साथ मिल कर  संचालित कर रहे हैं.

आईपीएल करोड़ों का है लेकिन खिलाडि़यों और आयोजकों की जिम्मेदारी कौड़ी की नहीं है. असल में हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां पहले से ही बहुत गैर बराबरी है. खिलाडि़यों की करोड़ों की बोली लगती है. कोई 12 करोड़ में बिक रहा है तो किसी की कीमत डेढ़ करोड़ ही लग रही है. वह भी तबजब दुनिया देख रही है कि इस पर गोरखधंधे और सट्टेबाजी के आरोप लगते रहे हैं और टीम के खिलाड़ी व मालिक सट्टेबाजी में लिप्त पाए गए हैं. दरअसल, मध्यवर्ग को तमाशों में बहला कर चतुर लोग अपना स्वार्थ साध रहे हैं.

क्रिकेट पर सवाल

ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्रिकेट का खेल देश को क्या दे रहा है सिवा बुराइयों के, वक्त की बरबादी के. अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान, जरमनी जैसे देश तरक्की के लिए किसी क्रिकेट जैसे खेल के मुहताज नहीं हैं. क्रिकेट खेल कर भारत ने कौन सा तीर मार लिया? पद्म पुरस्कार और भारतरत्न पाने वाले क्रिकेट खिलाडि़यों ने देश, समाज को क्या दिया? कौन से सामाजिक, आर्थिक सुधार कर दिए? सचिन तेंदुलकर को भारतरत्न देने के लिए इस सम्मान के नियमकायदों में परिवर्तन कर के खेल को शामिल कराया गया. महज इसलिए कि चुनावों में इस खिलाड़ी की लोकप्रियता को पक्ष में भुनाया जा सके.

सचिन को भारतरत्न दिया गया. क्या उन्होंने क्रिकेट पर लगे कलंक के दागों से उस खेल को उबार लिया? क्या क्रिकेट में अरसे से चल रही सट्टेबाजी को खत्म करा दिया? क्या क्रिकेट व अन्य खेलों को भ्रष्ट राजनीतिबाजों, बेईमान कारोबारियों के चंगुल से मुक्त करा दिया? सचिन तेंदुलकर को देश का सर्वोच्च सम्मान उस खेल के लिए मिला जो अंडरवर्ल्ड माफिया, सट्टेबाजी, भ्रष्टाचार, बेईमानी के लिए बदनाम है. ठीक है कि सचिन ने क्रिकेट में दुनियाभर के दूसरे खिलाडि़यों की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन उन उपलब्धियों से किस को, क्या सार्थक फायदा मिला? क्या भारतरत्न की गरिमा को गिराया नहीं गया?

क्रिकेट पर सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग के आरोप 2 दशक पहले से ही लगते आए हैं. सट्टेबाजों के लिए यह फायदेमंद रहा है. करीब ढाई दशक पहले शारजाह में एक कारोबारी ने भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट टूर्नामैंट का आयोजन शुरू किया था. उस में व्यापारी की तरफ से खिलाडि़यों को काफी पैसा दिया जाता था. भारत पाकिस्तान के मैचों में वैसे भी काफी रोमांच होता है. तब इसे मुरगे लड़ाने का खेल करार दिया गया था. इन मैचों पर जम कर खुलेआम सट्टा लगता था. स्टेडियम में मैच देखने के लिए अंडरवर्ल्ड के लोग भी मौजूद रहते थे. बौलीवुड के सितारों

को खासतौर से आमंत्रित किया जाता था. मैच फिक्सिंग का खेल भी यहीं शुरू हो गया था. चीयरलीडर्स को बुला कर क्रिकेट में चकाचौंध को बढ़ावा दिया गया ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को जुटाया जा सके.

दरअसल, भ्रष्ट, भुक्खड़ देशों के चंद बेईमान, व्यापारी, नेता, बिचौलिए, सट्टेबाज और नशे के कारोबारी मिल कर दुनिया को क्रिकेट तमाशे के नाम पर बरबादी की ओर धकेल रहे हैं. आईपीएल सट्टेबाजों, दलालों, टीम व्यापारियों और आंख मूंदे बैठे आयोजकों के लिए सोने का अंडा साबित हो रहा है पर बाकी देश को क्या मिल रहा है? इंटरटेनमैंट तलाश रहे लोगों को यह सोचनेसमझने की फुरसत नहीं है. इन्हीं लोगों की वजह से यह बदनाम खेल परवान चढ़ रहा है.

पूंजी बाजार

चुनावी नतीजे से सूचकांक ने भी रचा इतिहास

लोकसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा को बहुमत मिलने की धमक बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में जम कर दिखी और चुनाव नतीजों के साथसाथ शेयर सूचकांक भी कुलांचें भरता हुआ कारोबार के दौरान रिकौर्ड 25,376 अंक के स्तर पर पहुंच गया.

कमाल यह रहा कि 1 घंटे के कारोबार में उत्साहित निवेशकों ने बीएसई और नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी में जम कर कारोबार किया जिस के कारण सूचकांक ने 5 प्रतिशत की जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की. बाजार में यह उत्साह 16 मई को ही नहीं बल्कि इस से पहले टैलीविजन चैनलों पर प्रसारित एक्जिट पोल में भाजपा गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद से ही देखने को मिल रहा था. शुक्रवार को बाजार 25,000 के पार पहुंचा जबकि इस से पहले मंगलवार को अंतिम और 9वें चरण के मतदान में 20,000 अंक को पार कर गया था.

चुनावी नतीजे की सुनामी में बाजार पिछले वर्ष 13 सितंबर से कुलांचें भर रहा है जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. तब से यानी 13 सितंबर, 2013 से 16 मई, 2014 के बीच बाजार मोदी नाम के उत्साह में आएदिन रिकौर्ड बनाता और तोड़ता हुआ करीब 23 फीसदी तक उछल चुका है. इस दौरान रुपए में भी मजबूती रही और हमारी मुद्रा भी मोदी के रंग में रंगती हुई निरंतर नजर आ रही है. रुपया लंबे समय बाद मजबूती के इस स्तर पर पहुंचा है. पिछले माह महंगाई की दर भी घटी है जो बाजार के लिए अनुकूल माहौल ले कर आई. नरेंद्र मोदी से अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद से सूचकांक उड़ान भर रहा है. मोदी के लिए असली परीक्षा उम्मीदों पर खरा उतर कर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की है.

बीमा कंपनियों में धोखाधड़ी पर इरडा सख्त

बीमा कंपनियों में होने वाली धोखाधड़ी पर अब लगाम लग सकती है. बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण यानी इरडा इस तरह की घटनाओं पर नजर रखने के लिए एक निगरानी व्यवस्था बनाने पर विचार कर रहा है. संगठन ने दूसरी प्रक्रिया भी शुरू कर दी है.

इरडा का मानना है कि यह व्यवस्था लागू होने के बाद बीमा कंपनियों में होने वाली धोखाधड़ी की घटनाओं को नियंत्रित किया जा सकेगा. व्यवस्था के तहत बीमाधारक, बीमा देने वाली कंपनी और बीमा क्लेम से जुड़ी प्रक्रिया में धोखाधड़ी की संभावना वाली हर प्रक्रिया पर नजर रखी जाएगी. इस में अच्छे रिकौर्डधारी बीमाग्राहक को प्रोत्साहित करने की भी योजना है. बीमा क्षेत्र में मोटर वाहन और स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में सर्वाधिक हेराफेरी होती है. इस तरह के बीमा से जुड़ा शायद ही कोई बीमाधारक होगा जिसे गड़बड़ी नजर न आती हो.

स्वास्थ्य बीमा में सब से ज्यादा गड़बड़ी होती है. इस लेखक का भी एक अनुभव है. पिता की आंख के औपरेशन के लिए कैशलैस कार्ड पर गाजियाबाद का एक नामी अस्पताल वर्ष 2006 में

35 हजार रुपए मांग रहा था. बीमा कंपनी युनाइटेड इंश्योरेंस को अनावश्यक पैसा नहीं भरना पड़े, इसलिए 18 हजार रुपए में एक डाक्टर से इलाज कराया. बीमा कंपनी को बिल भेजा तो उस ने चुप्पी साध ली. मामला वर्ष 2008 में कर्जन रोड स्थित दिल्ली की उपभोक्ता अदालत में गया लेकिन 2012 से फैसला लंबित है. संदेह है कि युनाइटेड इंश्योरेंस ने वहां भी जुगाड़ लगा लिया है. लेखक को लेने के देने पड़े. उस मुकदमे के लिए करीब 10 हजार रुपए और खर्च करने पड़े.

स्पष्ट है कि अस्पताल बीमा कार्ड पर मनमाने पैसे वसूलते हैं. डाक्टर और अस्पताल ऐसे फ्राड में शामिल रहते हैं. स्वास्थ्य बीमा में लगभग 95 फीसदी गड़बड़ी होती है. इसी तरह की गड़बड़ी मोटर बीमा क्षेत्र में भी होती है. आएदिन कहानियां सुनने को मिलती हैं. बीमा क्लेम में गवाहों और एजेंटों का गठजोड़ होता है जो अस्पताल और डाक्टरों की तरह मिलीभगत किए रहते हैं.

कुछ गवाह तो मोटर वाहन क्लेम के मामलों में कई जगह गवाह बनते हैं और कमीशन लेते हैं. उन का यह धंधा बन गया है. उन के पास अलगअलग पहचानपत्र और पेन कार्ड हैं. फर्जीवाड़ा के लिए जो भी आवश्यक दस्तावेज चाहिए होते हैं, उन के पास सब तैयार रहते हैं. उधर, ग्राहकों को बाजार में बीमा कंपनियों की प्रतिस्पर्धा का भी शिकार होना पड़ रहा है. उन्हें लालच दे कर फर्जी बीमा प्रदाता बन कर कंपनी बदलने की सलाह दी जा रही है जो एक और बड़ा फ्राड है. जरूरत ग्राहक के सतर्क रहने और फर्जीवाड़ा करने वाली कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने की है.

विज्ञापन का फर्जीवाड़ा कर रहा कबाड़ा

विज्ञापन यानी चीजों का प्रचारप्रसार बाजार की धुरी बन रहा है. पहले किसी वस्तु की महत्ता या गुणवत्ता की कसौटी होती थी उपभोक्ता का अनुभव और खरीदे गए सामान की गुणवत्ता पर उस की प्रतिक्रिया. लोग जिस कंपनी के सामान की तारीफ करते थे उस की बाजार में मांग बढ़ती थी और वह वस्तु लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच जाती थी. अब किसी के पास किसी सामान की तारीफ करने या सुनने की फुरसत नहीं है, इसलिए कंपनियां अपने उत्पाद के सर्वश्रेष्ठ होने का खुद ही प्रचार कर रही हैं. यह अपने मुंह मियां मिट्ठू’ बनने वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली स्थिति है. कंपनियां विज्ञापन में अपने उत्पाद का वह गुण बताती हैं जो उपभोक्ता को प्रभावित करता है.

विज्ञापन से लगता है कि यह उत्पाद एक ही दिन में कायाकल्प कर देगा. उत्पाद खरीद के लिए लाइन लगने लगती है. खानपान अथवा सेहत से जुडे़ विज्ञापनों के लुभावने झांसे में उपभोक्ता जल्दी आ जाता है. विज्ञापनों में कितना भ्रामक प्रचार होता है इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई कंपनियों ने गत फरवरी में स्वीकार किया है कि उन के विज्ञापन में सचाई नहीं है. भारतीय विज्ञापन मानक परिषद यानी एएससीआई ने इस साल फरवरी में कहा कि उस से 136 विज्ञापनों की शिकायत की गई जिन की उस ने जांच की. 99 कंपनियों ने स्वीकार किया कि उन का दावा गलत है. विज्ञापन में अच्छा दिखाया गया सामान मानक के अनुकूल नहीं है और विज्ञापन गुमराह करने वाला है. परिषद ने कई कंपनियों के पैकेजिंग को भी गुमराह करने वाला पाया है.

कमाल यह है कि उन में 80 फीसदी से अधिक शिकायतें खाद्य वस्तुओं की पैकेजिंग को ले कर थीं. असल में कंपनियां समझती हैं कि ग्राहक को अच्छी पैकेजिंग के जरिए लुभाया जा सकता है. सामान खुलने के बाद वापसी की गारंटी नहीं होती. हर उपभोक्ता लड़ना भी नहीं जानता जिस का लाभ कंपनियां उठाती हैं. ज्यादा दिन नहीं हुए जब विज्ञापन की चोरी का एक मामला सामने आया था जिस में एक टूथपेस्ट कंपनी ने दूसरे पर आरोप लगाया कि उस ने विज्ञापन की नकल की है.

विज्ञापन और प्रचार ही है जिस की बदौलत आसाराम और रामदेव आज उद्योगपति बन गए हैं और निर्मल (कथित निर्मल बाबा) भगवान बने फिर रहे हैं. विज्ञापन एक कला है जिसे बेहद संतुलित मनोवैज्ञानिक ढंग से तैयार किया जाता है. विज्ञापन भरोसा दिलाता है जिस की आड़ में भरोसा दरअसल तोड़ा जा रहा है.

टौपअप हैल्थकवर : खुद को करें सुरक्षित

जब किसी व्यक्ति के पास अपनी कंपनी द्वारा दिया गया हैल्थकवर होता है तो उस के मन में यही बात आमतौर पर आती है कि मैं अलग से हैल्थ इंश्योरैंस कवर क्यों लूं? अतिरिक्त प्रीमियम का बोझ क्यों उठाऊं दरअसल, जब भी आप किसी फाइनैंशियल प्लानर से मिलने जाएंगे तो उन की सलाह होगी कि भले आप को नियोक्ता की तरफ से हैल्थकवर मिला हुआ है लेकिन आप को अलग से पर्याप्त हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी लेनी चाहिए क्योंकि नौकरी छूटने या बदलने के साथ ही नियोक्ता की तरफ से मिले हैल्थ इंश्योरैंस का लाभ आप नहीं उठा पाएंगे. वह हैल्थकवर आप के नौकरी छोड़ने या फिर बदलने के साथ ही समाप्त हो जाएगा. ऐसी स्थिति में जरूरत पड़ने पर इलाज के लिए आप को अपनी जेब से पैसे खर्च करने होंगे.

जो लोग नौकरीपेशा हैं, कंपनी की तरफ से उन्हें उन के गे्रड और पद के अनुसार स्वास्थ्य बीमा की सुविधा मिलती है जिस में आमतौर पर परिवार के सदस्य भी शामिल होते हैं. कर्मचारी के पद और गे्रड के अनुसार नियोक्ता की तरफ से कराए गए स्वास्थ्य बीमा की राशि आमतौर पर 1 लाख रुपए से ले कर 4-5 लाख रुपए तक होती है. लेकिन किस व्यक्ति को कब, कौन सी, कैसी बीमारी हो जाए, यह कहना मुश्किल है, और सुपर स्पैशिलिटी हौस्पिटल में इलाज कराने की लागत तो भुक्तभोगी बेहतर समझ सकते हैं.

ऐसे में सर्टिफाइड फाइनैंशियल प्लानर अजय बजाज सलाह देते हैं, ‘‘भले ही कंपनी ने आप को हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी दी हो पर साथ में आप को अपने लिए टौपअप हैल्थकवर जरूर ले लेना चाहिए. इस से आप और आप का परिवार दोनों ही सुरक्षित रहते हैं.’’

क्या है टौपअप हैल्थकवर

टौपअप हैल्थ इंश्योरैंस कवर वास्तव में मैडिकल रीइंबर्समैंट कवर है जिस की डिडक्टिबल राशि अधिक होती है. सामान्य शब्दों में कहें तो टौपअप कवर मैडिकल खर्च की निश्चित सीमा के बाद काम करना शुरू करता है.

उदाहरण के तौर पर मान लीजिए, आप की कंपनी अगर आप को 3 लाख रुपए का हैल्थकवर उपलब्ध करा रही है तो इस के ऊपर होने वाले मैडिकल खर्च के लिए आप टौपअप इंश्योरैंस कवर का सहारा ले सकते हैं. 3 लाख रुपए के डिडक्टिबल के साथ आप चाहें तो 10 लाख रुपए का टौपअप कवर ले सकते हैं.

अब मान लीजिए किसी कारणवश आप को हौस्पिटलाइज होना पड़ा और कुल खर्च 5 लाख रुपए का आया. ऐसी परिस्थिति में 3 लाख रुपए का भुगतान नियोक्ता की तरफ से मिले हैल्थकवर से किया जाएगा और शेष 2 लाख रुपए का भुगतान टौपअप पौलिसी करेगी. अगर टौपअप इंश्योरैंस कवर लेने वाले व्यक्ति के पास पहले से कोई हैल्थ पौलिसी नहीं है तो डिडक्टिबल जितना खर्च भी उसे खुद ही वहन करना पडे़गा.

सस्ती होती है टौपअप पौलिसी

टौपअप पौलिसी अतिरिक्त स्वास्थ्य बीमा पौलिसी खरीदने के मुकाबले 30 प्रतिशत अधिक सस्ती होती है. अगर कोई व्यक्ति अपना स्वास्थ्य बीमा कवर बढ़ाना चाहता है तो नई पौलिसी लेने के बजाय टौपअप हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी लेना ज्यादा सस्ता विकल्प है जबकि इस से मिलने वाले फायदे में कोई कमी नहीं होती.

कंपनी व पौलिसीधारक को लाभ

टौपअप हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी बीमा कंपनियों के लिए भी फायदे का सौदा है क्योंकि बेस कवर की सीमा समाप्त होने के बाद ही टौपअप इंश्योरैंस पौलिसी प्रभावी होती है. दूसरी तरफ यह पौलिसीधारकों के लिए भी बेहतर है क्योंकि अतिरिक्त कवर के लिए उन्हें कम प्रीमियम देना होता है. किसी अस्पताल में इलाज के दौरान पौलिसीधारक को टौपअप हैल्थ इंश्योरैंस की सीमा तक के खर्च की चिंता करने की जरूरत नहीं होती है. इस से किसी बीमारी या फिर आपातकाल में पौलिसीधारक पर वित्तीय दबाव नहीं पड़ता है.

टौपअप और सुपर टौप पौलिसी

टौपअप और सुपर टौप पौलिसी में फर्क है. दोनों के लाभों में भी फर्क है. टौपअप पौलिसी के मामले में पौलिसीधारक जितनी बार अस्पताल में भरती होता है, गणना में कटौती की राशि (बेस कवर) उतनी बार शामिल की जाती है. सुपर टौपअप प्लान के मामले में बेस कवर की राशि पौलिसी अवधि में केवल एक बार लागू होती है. इसे एक उदाहरण के जरिए बेहतर समझा जा सकता है.

मान लीजिए, किसी व्यक्ति का 3 लाख रुपए का बेस कवर है और उसे इलाज के लिए साल में 2 बार अस्पताल में भरती होना पड़ता है जिस में उस के क्रमश: 4 लाख रुपए और 5 लाख रुपए खर्च होते हैं. टौपअप पौलिसी ऐसे मामले में क्रमश: 1 लाख और 2 लाख रुपए का भुगतान करेगी. लेकिन सुपर टौपअप पौलिसी के मामले में यह राशि 1 लाख रुपए और 5 लाख रुपए होगी क्योंकि बेसकवर की कटौती पौलिसी वर्ष में एक बार ही होती है.

कहां से लें टौपअप पौलिसी

यूनाइटेड इंडिया इंश्योरैंस, बजाज आलियांज, जनरल इंश्योरैंस, स्टार हैल्थ इंश्योरैंस और मैक्स बुपा आदि बीमा कंपनियां टौपअप और सुपर टौपअप पौलिसी उपलब्ध करा रही हैं. बजाज के अनुसार, हैल्थकेयर की लगातार बढ़ रही लागत के दौर में सुपर टौपअप या टौपअप हैल्थ इंश्योरैंस पौलिसी लेना फायदे का सौदा है. ये पौलिसियां अलग से उतनी ही राशि का हैल्थ इंश्योरैंस कवर लेने की तुलना में ज्यादा सस्ती हैं.

इस तरह, गंभीर बीमारियों के समय असहनीय आर्थिक झटकों से बचने के लिए हैल्थ इंश्योरैंस तो लें ही, साथ ही टौपअप हैल्थकवर भी लें. टौपअप हैल्थकवर का प्रीमियम कम ही होता है. यह बीमारी के वक्त आप को आर्थिक चिंता से मुक्त रखता है.

कुल मिला कर बिना टौपअप पौलिसी के हैल्थकवर का रिस्क उतना ही होता है जितना बिना स्पेयर टायर के गाड़ी चलाना. इस मामले में टौपअप और सुपर टौपअप पौलिसी अतिरिक्त सुरक्षा देती है.

भारत भूमि युगे युगे

पत्रकार का गिरहबान

सब से पहले और चटपटी खबर लाने की होड़ देशभर के पत्रकारों में इस तरह मची हुई है कि वे अब आंतों तक में झांकने लगे हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की छोटी आंत संक्रमण ग्रस्त है या नहीं, इस का जवाब तो मुंबई के  मशहूर गेस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट जयंत एस वर्बे ही दे सकते हैं, जिन के यहां बीते दिनों अमिताभ बच्चन का आनाजाना छिप नहीं पाया.

यही सवाल बीती 8 मई को मुंबई के एक कार्यक्रम में एक पत्रकार ने अमिताभ बच्चन की पत्नी जया बच्चन से पूछ लिया तो उन्होंने भड़क कर उस का गिरहबान पकड़ पत्रकारिता की तमीज सिखाती नसीहत दे डाली. बात आईगई हो गई लेकिन यह जता गई कि पत्रकार का गिरहबान बहुत सस्ता हो चला है जो नौकरी बजाने के चक्कर में ठसक तो दूर की बात, अपना स्वाभिमान तक भी सुरक्षित नहीं रख पा रहे.

चिंतक का अज्ञातवास

लोकसभा चुनाव के दौरान प्रख्यात हिंदूवादी चिंतक गोविंदाचार्य का गायब रहना चिंता की बात थी जो अकसर भाजपा तो भाजपा, सभी दलों को निशुल्क ‘इलैक्शन टिप्स’ देने के लिए जाने जाने लगे थे. इस महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अनुष्ठान में इस बार उन्होंने कोई वैचारिक आहुति नहीं दी. वे दिखे तक नहीं, यहां तक कि झांसी भी नहीं गए, जहां उन की मौजूदगी की उम्मीद करने वाले कर रहे थे.

चिंतन हमारे यहां पेशा नहीं है, शौक और लत है जिस की गिरफ्त में एक दफा कोई आ जाए तो फिर बाहर नहीं आ पाता. मजबूरी में चुनावी छिछोरेपन से छुटकारा दिलाने का जिम्मा बनारस की तरफ के काशीनाथ सरीखे कुछ साहित्यकारों ने लिया. इस बहाने ही सही, लोगों को कुछ नया तो सोचने को मिला पर हिंदुत्व पर जितनी गहराई से गोविंदाचार्य बोलते हैं उतना कोई दूसरा नहीं बोल पाता.

राष्ट्रपति ने नहीं डाला वोट

इस बार मतदान के प्रोत्साहन पर काफी जोर दिया गया. लगने यह लगा मानो वोट न डालना कोई पाप है. चुनाव आयोग ने अरबों रुपए ‘वोट डालो अभियान’ पर फूंक डाले. नेता, अभिनेता, उद्योगपति और खिलाड़ी वोट डालने के बाद अपनी स्याही लगी उंगली दिखाते रहे लेकिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मतदान को ठेंगा दिखा दिया. राष्ट्रपति भवन के सूत्रों ने

10 मई को स्पष्ट किया कि निष्पक्ष दिखने के लिए राष्ट्रपति वोट नहीं डालेंगे. इस से आम मतदाताओं में अच्छा संदेश नहीं गया है और वे खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जिस देश में प्रथम नागरिक ही वोट न डाले वहां मतदान की अनिवार्यता की बात करना बेमानी लगता है. प्रणब मुखर्जी का वोट दक्षिण कोलकाता की सीट पर है. अगर उन्हें निष्पक्ष दिखने का इतना ही शौक था तो नोटा वाले बटन को दबाना चाहिए था.

धर्मगुरुओं की चालाकी

द्वारका शारदापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को मई के पहले सप्ताह में एकाएक ही ज्ञान प्राप्त हुआ जिसे वितरित करवाने उन्होंने पत्रकारों को बुलाया और जो कहा उस का सार यह था कि उन्होंने कभी वाराणसी तो दूर, किसी चौपाल से भी नरेंद्र मोदी का विरेध नहीं किया, न ही उन की पत्नी जसोदा बेन को ले कर कोई टिप्पणी की, वे कांग्रेसी नहीं हैं. अहम बात यह कि शंकराचार्य की भूमिका राष्ट्रपति सरीखी होती है जिस की नजर में सभी भारतीय बराबर होते हैं.

धर्मगुरुओं का चंचल स्वभाव नहीं, बल्कि इसे चालाकी कहा जाएगा जिन की कथनी और करनी में कोई तालमेल ही नहीं होता. मठों में बैठ कर राजनीति करने वाले इन धर्मगुरुओं की पहली कोशिश अपना साम्राज्य बनाए रखने और दूसरी मौका देख कर पाला बदलने की होती है जिस से दुकानदारी पर आंच न आए.

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