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ममता बनर्जी और सारदा चिटफंड का रंग एक

सारदा चिटफंड ऐसे हमाम की तरह है जिस में राज्य की तमाम पार्टियां नंगी नजर आ रही हैं. मामले की छानबीन जितनी गहरा रही है. अब तो मामला सीबीआई के पास जाने के बाद केंचुए के बदले सांप निकलने का अंदेशा भी उतना ही गहरा रहा है. फिर वह तृणमूल कांगे्रस हो या कांग्रेस. फिलहाल यह मामला प्रवर्तन निदेशालय के अधीन है और 1 साल से निदेशालय इस मामले को खंगालने में जुटा है. निदेशालय से जो भी खबरें छनछन कर बाहर आ रही हैं, उन से यही लग रहा है कि केंचुए की तलाश में कहीं कोई सांप न निकल आए.

पहली नजर में भले ही यह मामला ऐसा लगे कि यह अकेले ममता बनर्जी के गले की फांस बना हुआ है पर धीरेधीरे राज्य की तमाम प्रमुख पार्टियों के नेताओं के नाम इस में सामने आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि जिस नेता ने सारदा चिटफंड घोटाले के लिए सीबीआई को भी पत्र लिखा था, खुद उस नेता का नाम इस घोटाले में उभर कर आ रहा है.

तृणमूल कांगे्रस को अंदेशा है कि मामले को प्रवर्तन निदेशालय को सौंपने के पीछे केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम का हाथ रहा है. चुनाव के मद्देनजर केंद्र गड़े मुरदे उखाड़ रहा है. जबकि सचाई यह है कि चुनावी सरगर्मियां शुरू होने से बहुत पहले ही प्रवर्तन निदेशालय ने सारदा चिटफंड कांड को ले कर छानबीन शुरू कर दी थी. गौरतलब है कि सितंबर 2013 को मामला प्रवर्तन निदेशालय के पास गया. वह भी असम प्रवर्तन निदेशालय के पास. निदेशालय ने सारदा चिटफंड के खिलाफ आर्थिक अनियमितताओं के लिए एफआईआर दर्ज कर ली और वह ‘मनी लौंडिं्रग’, हवाला और हुंडी के जरिए पैसों के लेनदेन की जांच कर रहा है. वहीं, इस मामले की अलग से जांच कौर्पोरेट मंत्रालय, सेबी और आयकर विभाग जैसी कई सरकारी एजेंसियां भी कर रही हैं.

जाहिर है मामले को संभालने के मद्देनजर ममता बनर्जी के पास करने को कुछ खास नहीं है. वहीं, कोलकाता हाईकोर्ट में भी एक जनहित याचिका दायर है, जिस में मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की गई है. उधर, असम सरकार भी सीबीआई जांच के पक्ष में है. जबकि वाममोरचा भी लंबे समय से मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहा है. लेकिन ममता बनर्जी सीबीआई जांच के पक्ष में कतई नहीं हैं.

फिलहाल मामला असम के प्रवर्तन निदेशालय में ही नहीं, कोलकाता हाईकोर्ट में भी विचाराधीन है. गौरतलब है कि सारदा चिटफंड ने न केवल पश्चिम बंगाल से पैसों की उगाही की, बल्कि असम और ओडिशा में भी लोगों को करोड़ों का चूना लगाया. लेकिन पश्चिम बंगाल से बाहर असम के प्रवर्तन निदेशालय में एफआईआर दायर की गई है.

चुनावी समर में गरमाया मुद्दा

बहरहाल, चुनाव प्रचार के दौरान इसे ममता के खिलाफ हथियार जरूर बनाया जाना था, सो बनाया गया. इस को ले कर हर तरफ से आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला भी बदस्तूर चलता रहा. माकपा नेता गौतम देव का कहना है कि मां, माटी, मानुष की बात ममता करती हैं और इसीलिए मां, माटी, मानुष की करोड़ों की रकम वे डकार गईं. वहीं, विधानसभा में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र ने कहा कि चुनाव प्रचार के लिए हैलिकौप्टर के पैसे चिटफंड से ही निकल कर आ रहे हैं.

यहां तक कि राहुल गांधी ने भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया. पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने चिटफंड कांड मामले में ममता बनर्जी का नाम ले कर जम कर खिंचाई की. ममता ने पलटवार किया. कहा, ‘‘अगर हिम्मत है तो मुझे टच कर के कोई दिखाए. मैं न तो मायावती हूं और न ही मुलायम सिंह. मैं ममता बनर्जी हूं, ममता बनर्जी.’’

इधर, प्रवर्तन निदेशालय से जानकारी मिली है कि सारदा कांड की तमाम रकम के बारे में अभी तक कुछ खास पता नहीं चल पाया है. सुदीप्तो सेन समेत 14 गिरफ्तार लोगों के बयान दर्ज किए जा चुके हैं. इस के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय को लगता है कि इस संबंध में शासक दल के कुछ नेता और मंत्रियों के नाम तो सामने आए हैं लेकिन साथ ही प्रदेश कांगे्रस के कुछ नेताओं के भी नाम सामने आए हैं. छानबीन में गोपनीयता के मद्देनजर किसी का भी नाम नहीं लिया गया.

हालांकि इतना जरूर कहा गया कि जिन के भी नाम आए हैं उन सब से कड़ी पूछताछ होनी है. अब तक 60 लोगों को प्रवर्तन निदेशालय की ओर से नोटिस भेजे जा चुके हैं. इन में तृणमूल कांगे्रस के 2 सांसद, 1 छात्र नेता और कोलकाता के एक नामी फुटबौल क्लब के अधिकारियों से प्रवर्तन निदेशालय की ओर से पूछताछ भी हो चुकी है.

सुदीप्तो के पक्षधर

तृणमूल कांगे्रस की राज्य सरकार के मंत्री सारदा ग्रुप की ओर से आयोजित ज्यादातर कार्यक्रमों में अकसर मंच पर विराजमान रहे हैं और सारदा ग्रुप में निवेश के लिए दर्शकदीर्घा में बैठे लोगों से अपील भी करते रहे हैं. उन्होंने सुदीप्तो सेन की शान में कसीदे भी पढ़े. यही नहीं, उन्होंने सुदीप्तो सेन की दूसरी पत्नी के लिए फ्लैट का इंतजाम भी किया.

तृणमूल कांगे्रस के 1 अन्य प्रभावशाली नेता का नाम सामने आया है, जिन्होंने सारदा कांड का खुलासा होने के बाद सुदीप्तो सेन को बंगाल से फरार होने में मदद की थी. इतना ही नहीं, सुदीप्तो सेन के परिवार को सुरक्षा देने में भी इन की बड़ी भूमिका रही है.

घोटाले की कडि़यां

उल्लेखनीय है कि सारदा चिटफंड के सुदीप्तो सेन की पहली पत्नी और बेटे को भी गिरफ्तार किया जा चुका है. सुदीप्तो सेन की दूसरी पत्नी और बेटे शुभाजित से भी पूछताछ हो चुकी है. सुदीप्तो सेन की दूसरी पत्नी ने बताया कि उत्तर 24 परगना के तृणमूल कांगे्रस के एक प्रभावशाली नेता के कारण ही सुदीप्तो सेन ने उन्हें और उन के बेटे को अलगथलग रखा था.

तृणमूल कांगे्रस के एक सांसद पत्रकार कुणाल घोष, जो जेल में हैं, के माध्यम से ही तृणमूल के इस प्रभावशाली नेता का परिचय सुदीप्तो सेन से हुआ था और यह तृणमूल नेता भी कुणाल घोष के निशाने पर रहा है. कुणाल ने गिरफ्तारी से पहले प्रैस कौन्फ्रैंस बुला कर तृणमूल के जिन नेताओं की सूची मीडिया को दी थी, उस में भी उस नेता का नाम है.

इस के अलावा कांगे्रस के 1 सांसद और 1 नेता के भी नाम सामने आए हैं. सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो सेन के साथ इस कांगे्रसी नेता का नियमित संपर्क रहा है. कांगे्रसी नेता की सिफारिश पर कइयों को सारदा ग्रुप में नौकरी भी दी गई. वहीं, एक दूसरे कांगे्रसी नेता का पिछले चुनाव का खर्च सारदा ग्रुप ने ही उठाया था, जिस का जिक्र सारदा ग्रुप के दस्तावेजों में भी पाया गया है.

यह सच है कि सारदा चिटफंड का कारोबार वाममोरचा के शासनकाल में शुरू हुआ, लेकिन वह फलाफूला ममता बनर्जी के समय. ममता बनर्जी को सत्ता में लाने में सारदा ग्रुप का बड़ा हाथ रहा है. यही वजह है कि मौजूदा चुनाव प्रचार के दौरान वामपंथी पार्टियों से ले कर कांगे्रस तक ने इस मुद्दे को ममता बनर्जी के खिलाफ खूब उछाला.

हालांकि प्रवर्तन निदेशालय ने इस मामले में लोकसभा चुनाव से बहुत पहले काम शुरू कर दिया था. देखना यह है कि उस की छानबीन में केवल केंचुए ही बाहर आते हैं या कोई बड़ा सांप भी.

फिएट लीनिया : कार मस्त फीचर जबरदस्त

फिएट कंपनी ने कार बाजार में अपने मौडल लीनिया का नया रूप उतारा है. कंपनी ने लीनिया को नया फेसलिफ्ट दिया है. बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए यह बदलाव बेहद जरूरी था क्योंकि साजसज्जा और यांत्रिकी के लिहाज से इस की प्रतिस्पर्धी होंडा सिटी और फौक्सवैगन वेंटो बेहतर हो चुकी थीं. लीनिया में कुछ कमियां हमेशा से महसूस की गईं लेकिन इस में कुछ खूबियां भी हैं जो इस की कमियों को दरकिनार कर देती हैं.

नए बदलावों की बात की जाए तो इस में फ्रंट में नई ग्रिल और नया बंपर व जैम लाइट्स लगाई गई हैं. रिंग मिरर में नए इंडिकेटर दिए गए हैं, साथ ही नए एलोय व्हील्स भी लगाए गए हैं. बू्रटलीड के ऊपर चमकदार लोगो दे कर लीनिया को आकर्षक बनाया गया है. इंटीरियर की बात की जाए तो हलकेफुलके क्लासी बदलाव किए गए हैं. सैंट्रल कंसोल पिआनो ब्लैक है और साउंड सिस्टम का ग्लौसी ब्लैक लुक इसे बेहतर बनाता है.

नई फिएट लीनिया में रियर पार्किंग सैंसर्स की सुविधा दी गई है लेकिन जैसे ही आप किसी अन्य गाड़ी से 9-10 इंच की दूरी पर होते हैं, सैंसर्स की साउंड बहुत लाउड हो जाती है. मेकैनिकल पार्ट्स में बहुत ज्यादा चेंज नहीं किए गए हैं जो अच्छी बात है लेकिन धीमी गति की ड्राइव पर स्टीयरिंग थोड़ा हलका होना चाहिए था जिस से पार्किंग करने में मदद मिले. जहां तक इंजन की बात है,

1.3 लिटर का मल्टीजैट इंजन है जो शहर में धीमी गति पर गाड़ी चलाने के लिए तो ठीक है लेकिन शहर से बाहर तेज गति पर इंजन आवाज करने लगता है. खासकर 3,000 आरपीएम मार्क के बाद. 120 किलोमीटर प्रति घंटे की गति पर 5वें गियर में इंजन थकने लगता है जो आप को स्पीड कम करने के लिए मजबूर करता है. कुल मिला कर मल्टीजैट इंजन शहरी गति के लिए उपयुक्त है. हालांकि इस का गियर बौक्स स्मूथ है और क्लच हलका है लेकिन स्टीयरिंग धीमी गति पर भारी हो जाता है.

नई लीनिया की कीमत 6.99 लाख रुपए से शुरू होती है. यह कीमत पैट्रोल वर्जन की है, जो नौन टीजैट वर्जन है. बेस टीजैट इंजन की कीमत 7.44 लाख रुपए है और 1.3 लिटर मल्टीजैट इंजन की कीमत 9.72 लाख रुपए है.

तो यह है नई फिएट लीनिया का नया रंगरूप और कीमत. अब आप निर्णय लीजिए कि इसे आप वेंटो और होंडा सिटी के मुकाबले कितने अंक देंगे. यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि नई लीनिया क्या वेंटो और सिटी को टक्कर दे पाएगी और साथ ही बाजार में नई लीनिया के आने से क्या उन्हें घबराना चाहिए. 

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका मोटरिंग वर्ल्ड से

जमीन के लिए जान लेती जातियां

जमीन को ले कर हुए झगड़े ने एक बार फिर सदियों पुराने जातीय विद्वेष को उभार दिया है. घटना किसी दूरदराज इलाके में नहीं, देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा गाजियाबाद के कनावनी गांव में हुई. घटना के बाद हमेशा की तरह औपचारिक सरकारी प्रशासनिक कर्मकांड शुरू हो गया है. पुलिस, पीएसी फोर्स की गश्त, मानवाधिकारवादियों के दौरे, मीडिया रिपोर्टें और पीडि़तों के रोनेधोने, कोसने और दोषारोपण के दौर चले.\

28 अप्रैल की सुबह करीब 9 बजे गांव में 70 गज की जमीन के एक टुकड़े को ले कर समझौते के लिए गुर्जर और दलित समुदाय के लोग पूर्व प्रधान देशराज कसाना के यहां जुटे थे. इस जमीन पर देशराज गुर्जर और चमन सिंह अपनाअपना दावा कर रहे थे. दोनों पक्षों के बीच पहले भी इस जमीन को ले कर झगड़ा हुआ था और मामला कोर्ट में लंबित है. देशराज ने विवादित जमीन पर कुछ निर्माण करा लिया और दावा किया कि उस ने यह जमीन एक ग्रामीण से खरीदी थी. इस पर चमन सिंह ने विरोध किया. दोनों के बीच जबानी बहस हुई. सो, दोनों समुदायों के लोग जुटे. समझौता नहीं हुआ तो दोनों ओर से पत्थरबाजी और फिर फायरिंग हुई. देशराज के भतीजे राहुल की गरदन में गोली लगने से मौत हो गई. दोनों ओर के दर्जनभर लोग घायल हो गए. करीब 2 घंटे तक चले संघर्ष में दर्जनों राउंड गोलियां चलीं. घटना के बाद इस प्रतिनिधि ने गांव का जायजा लिया.

दलित-गुर्जर झगड़ा

गौतमबुद्धनगर के कनावनी गांव में सन्नाटा पसरा था. गांव में प्रवेश करने से करीब 500 मीटर पहले चौक पर पुलिस के दर्जनभर जवान इक्कादुक्का आनेजाने वालों पर नजर रखे दिखे. सामने दूर से दिखाई दे रहे गांव के पूर्व प्रधान देशराज कसाना के बड़े से मकान के बाहर लगे टैंट में 15-20 लोग मातम की मुद्रा में बैठे थे. 28 अप्रैल को जातीय झगड़े में प्रधान के परिवार का 22 वर्षीय बेटा गोली से मारा गया था. बाहर 8-10 छोटीबड़ी गाडि़यां खड़ी दिखीं. पूर्व प्रधान के घर के पास अहाते में पीएसी और पुलिस के जवान हथियारों से लैस नजर आए. गौतमबुद्धनगर, गाजियाबाद से पुलिसकर्मी और पीएसी के 300 जवानों को तैनात किया गया और 6 दमकल की गाडि़यां लगाई गई थीं.

कनावनी गांव की दलित महिला ने गुर्जरों के खिलाफ लूट, आगजनी, हत्या का प्रयास, मारपीट, बलवा व बेटे के स्कूल में तोड़फोड़ कर उसे तहसनहस करने की शिकायत नोएडा थाने में दर्ज करा दी है.

जवान युवक की मौत के बाद गुस्साए गुर्जरों ने शाम को गांव के डूब क्षेत्र में स्थित दलित बस्ती में हमला बोल दिया. आरोप है कि भीड़ ने दलित घरों के पास फायरिंग शुरू कर दी. करीब 50 लोगों की भीड़ थी. यह भीड़ अर्थमूवर ले कर आई थी जिस से सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल को तहसनहस कर दिया गया. यह स्कूल चमन सिंह का बताया जाता है. स्कूल के 5 कमरे, लोहे के दरवाजे सहित धराशायी कर दिए गए. स्कूल के पास स्थित एक दुकान को तोड़ दिया गया. घरों में आग लगा दी गई. कारें, मोटरसाइकिलें जो भी सामने आईं, तोड़फोड़ डाली गईं. लूट की शिकायतें भी हैं. हमले की खबर पर पुलिस मौके पर जब पहुंची तो हमलावर भाग गए. दोनों जातियों की ओर से की गई करतूत में 18 लोगों के खिलाफ मामला दर्र्ज किया गया, इन में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है.

सरकारी अमला

गुर्जर समुदाय का एक झुंड सैक्टर 9, वसुंधरा में स्थित रामकृष्ण इंस्टिट्यूट में घुस गया जहां ज्यादातर दलितों के बच्चे पढ़ते हैं. जब वे बच्चों को मारने की धमकी देने लगे तो स्कूल प्रबंधन ने आननफानन पुलिस को सूचित किया. पुलिस ने आ कर भीड़ को खदेड़ा पर इस से बच्चे और अध्यापक दहशत में आ गए. घटना के बाद 29 अप्रैल को पुलिस और पीएसी फोर्स तैनात कर दी गई.

इलाके में बरबादी का दृश्य दृष्टिगोचर था. बस्ती शुरू होते ही पुलिस के दर्जनभर जवान खड़े दिखाईर् दिए. पास में करीब 300 वर्गगज में बनी स्कूल की इमारत धराशायी नजर आई. लोहे का बना मुख्य दरवाजा, लोहे के गार्टर, एंगल तुड़ेमुड़े पड़े दिखे. क्लासरूम, प्रिंसिपल रूम, टौयलेट सब तहसनहस कर दिए गए. पिं्रसिपल के कमरे में शांति और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी और गौतमबुद्ध की लगी तसवीरें तबाही के मंजर की मौन गवाह बनी रहीं. स्कूल में तकरीबन 400 बच्चे पढ़ रहे थे.

एसएसपी सिटी योगेश सिंह अपने दलबल के साथ खड़े दिखे. वे कहते हैं, ‘‘गांव में अब शांति है. कोई तनाव नहीं है. जाटवों और गुर्जरों का जमीन को ले कर झगड़ा था. पीएसी की 3 प्लाटून और दर्जनों पुलिस के जवान लगाए गए हैं. शांति बहाली के लिए दोनों पक्षों से बातचीत की गई ताकि भविष्य में झगड़ा आगे न बढे़.’’

दलितों की दशा

गांव में तकरीबन 150 दलित परिवार रहते हैं. इन में से करीब 50 परिवार घरबार छोड़ कर जा चुके हैं. इन परिवारों के पुरुष वापस लौटने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं. दलितों के इन घरों में कई किराएदार भी हैं पर वे मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं. पूछने पर साफ कहते हैं, ‘‘हमें तो पता नहीं जी. हम तो बाहर के हैं, किराएदार हैं.’’

बचेखुचे दलितों के चेहरों पर तनाव, भय साफ दिख रहा था. गांव की गलियों में लोग किसी अजनबी से डरेसहमे से बात करने को तैयार होते हैं पर मुंह अधिक नहीं खोलना चाहते. दर्जनों दुकानें बंद. इक्कीदुक्की दुकानें ही खुली दिखीं.

कनावनी व उस के आसपास के गांवों की तमाम दलित बस्तियों के युवा व कमाने लायक पुरुषों का खासा हिस्सा दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ में छोटेमोटे कामों में लगा है. मेहनत के बल पर इन लोगों ने यहां अपने पक्के मकान बना लिए हैं. मोटरसाइकिल, स्कूटर से ले कर छोटेबड़े 4 पहिया वाहन भी ले लिए. दलितों में शिक्षा की ललक भी यहां साफ देखी जा सकती है. ऊंचेऊंचे अपार्टमैंटों से घिरे कनावनी गांव में ज्यादातर जमीन गुर्जरों के अधिकार में है. उन के पास बड़े मकान, बड़ी गाडि़यां हैं.

पूर्व प्रधान देशराज कसाना के भतीजे व मृतक राहुल के भाई अशोक कुमार बताते हैं कि डूब क्षेत्र में ग्रामसभा की करीब 15 बीघा जमीन को सुभाष, चमन सिंह ने घेर कर स्कूल बना लिया और कालोनी काटने लगे. आज की तारीख में इस की कीमत करीब 35-40 करोड़ रुपए है. इस की शिकायत प्रधानजी द्वारा डीएम, एसडीएम से की गई. अफसरों ने जमीन की पैमाइश की और कहा कि अभी चुनाव है, चुनाव के बाद खाली करा लेंगे. इस बात को ले कर देशराज से चमन सिंह व सुभाष की रंजिश हो गई.

इस बीच चमन सिंह ने 60 गज के प्लौट को साजिशन बेच दिया. इस कार्यवाही ने रंजिश में घी डालने का काम किया. समझौते के लिए दोनों पक्ष बैठे थे. पूर्व प्रधान देशराज पर पत्थर मारे गए, परिवार को चोटें आईं. सुभाष, चमन के पास पिस्टलें थीं. राहुल को गोली मार दी गई.

अशोक कहते हैं कि जाटव लोग दारू की तस्करी में शामिल हैं. अवैध हथियार रखते हैं. वे संपन्न हैं. बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ते हैं. लग्जरी गाडि़यां हैं. चारमंजिले मकान हैं. हम तो शांति की अपील कर रहे हैं. कोई जातीय मुद्दा नहीं बना रहे.

दलितों और पिछड़ों के बीच जमीन और अन्य वादविवाद को ले कर यह कोई पहला झगड़ा नहीं है. आएदिन देश के कोनेकोने में इस तरह के विवाद में हत्या, तोड़फोड़, आगजनी की वारदातें होती रहती हैं. लेकिन पीडि़त पक्ष हमेशा दलित ही होता है. उन के घर लूट लिए जाते हैं, तहसनहस कर दिए जाते हैं, आग के हवाले कर दिए जाते हैं और जानें भी ले ली जाती हैं. [कुछ चर्चित मामले बौक्स में देखें.]

इतिहास और आज

दरअसल, सामाजिक हैसियत पाने के लिए दलित 2-2 मार झेलते आ रहे हैं. एक तो उन्हें वर्णव्यवस्था से बाहर रख कर जमीनजायदाद, धनसंपत्ति के संग्रह से दूर रखा गया. दूसरा आजादी के बाद बने कानूनों में भी उन के साथ भेदभाव व पुरानी सोच बनाए रखी गई. ज्यादातर कृषिभूमि व रिहायशी जमीनों पर ऊंची जातियों का कब्जा है. दलितों को गांव, कसबे के बाहर किसी कोने में रहने की छोटी जमीन दे दी जाती है. कानून ने भले ही कुछ अधिकार दलितों को दिए हैं पर उस से ऊपर ऊंची जातियों के पास सामाजिक व्यवस्था के नाम पर परंपराओं, रीतिरिवाजों के सारे अधिकार सदियों से मौजूद हैं. व्यवहार में ऊंची जातियों के ये तमाम अधिकार सर्वोपरि और सर्वमान्य हैं.

असल में पहले ऊंची जातियां धर्म की जातिगत व्यवस्था बनाए रखने के लिए शूद्रों और दलितों को दबाए रखने में कामयाब थीं. संविधान में दलितों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के बाद ऊंचों वाले काम पिछड़े करने लगे. पिछड़ी जातियों वाले ऊंची जातियों के नेताओं की ओर से दलितों को नियंत्रित करते हैं. उन्हें कुओं पर नहीं चढ़ने देना, सार्वजनिक नलों, हैंडपंपों से पानी न भरने देना, जमीन, संपत्ति न जुटाने देना, विवाह में दूल्हे को घोड़ी पर न बैठने देना, मंदिरों में प्रवेश न करने देना, खुद से ऊपर की जाति से प्रेम या शादी न करने देना, ऊंची जाति की सामाजिक परंपराओं और रीतिरिवाजों को अपनाने से रोकने जैसे काम अब पिछड़े करने लगे हैं. ऐसा कर के पिछड़े आज दलितों पर अपना सामाजिक वर्चस्व दिखाना चाहते हैं.

सदियों से दलित ऊंची, दबंग जातियों के खेतों में मजदूरी करते आ रहे हैं. इन के पास न अपनी खेती की कोई जमीन है और न ही रिहायशी. आंकड़ों की बात करें तो देश में 80 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं. जिन के पास जमीन है वह 10×12 फुट के आसपास है. 20-25 गज के घर में 15 से 20 सदस्य एकसाथ रह रहे हैं.

पिछले कुछ समय से दलितों और पिछड़ों में वर्चस्व की होड़ बढ़ी है. दबंग पिछड़ा वर्ग अब दलितों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उभार को एक चुनौती के तौर पर लेने लगा है और इसी बात पर दलितों व पिछड़ों के बीच की खाई गहरी होती जा रही है. इस तरह के झगड़े इसी का नतीजा हैं. पिछड़ों के पास जमीनें, जायदाद, राजनीतिक, प्रशासनिक शक्ति आई लेकिन अब यह सब उन से निचले यानी दलित वर्ग के पास आने लगी तो दोनों के बीच झगड़े होने लगे. सामाजिक तौर पर पिछड़ों से नीचे रहे दलितों को उन की औकात में रखे जाने के गैरकानूनी तरीके इस्तेमाल किए जाने लगे.

बिना जमीन के दलितों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति मुश्किल में है. गांवों और छोटे कसबों में किसी की भी सामाजिक हैसियत जमीन और पशुओं से आंकी जाती है. दलित इस मामले में सब से पीछे हैं.

इतिहास और आज

स्वतंत्रता के बाद भी भूमि उपयोग की कोई समान नीति नहीं बनाई गई. हालांकि जमीनों की सीलिंग तय की गई लेकिन वह बड़े भूस्वामियों के लिए थी. इस से भूमिहीनों, दलितों को कोई फायदा नहीं मिला. पिछले सालों में 19 राज्यों में 86,107 हैक्टेअर भूमि कौर्पोरेट कंपनियों को स्पैशल इकोनौमिक जोन के लिए दे दी गई. यह जमीन किसानों से छीन कर दी गई. इस से दलितों को भी नुकसान हुआ है. जमीनें गईं तो दबंग जातियों के यहां खेतों में काम करने वाले इन दलित मजदूरों का काम छिन गया.

स्वतंत्रता के तुरंत बाद अर्थशास्त्री जे सी कुमारप्पा की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने कहा था कि अधिकतर भूमि उन चंद शक्तिशाली लोगों के पास है जिन की स्वयं की खेती करने में कोई रुचि नहीं है. कुमारप्पा अपने समय में महात्मा गांधी के सहयोगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जानकार थे. हैरानी है कि इतने साल गुजर जाने के बाद भी भूमिहीनों की हालत ज्यों की त्यों है. केंद्र और राज्य सरकारें इन वर्षों में कोई समान भू वितरण की ठोस नीति नहीं बना पाईं. जो नियमकायदे बने वे केवल कागजों में चल रहे हैं. इसी वजह से दलित बड़ी संख्या में अभी भी भूमिहीन हैं.

असल में यह स्थिति जातीय भेदभाव, ऊंचनीच की वजह से है. ब्राह्मणों ने शूद्रों यानी आज के पिछड़ों को तो पढ़नेलिखने. पूजापाठ के वे अधिकार दे दिए, जो उन के पास सुरक्षित थे लेकिन दलितों को स्वतंत्रता नहीं दी. उन्हें स्वतंत्रता देने से ही देश में उत्पादकता बढे़गी. जातीयता की संकीर्ण सोच से हर वर्ग को नुकसान हो रहा है.

भूमि सुधारों और उत्पादन साधनों पर वंचितों, दलितों, मजदूरों के नियंत्रण के बिना मेहनतकश की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता. दलित और पिछड़ों के झगड़ों का निदान जमीन के समान बंटवारे और जातिव्यवस्था के खात्मे में है.

चुनावी नतीजे 2014 प्रचार और कर्मठता की चौंकाती जीत

16वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान देशभर में जिस शख्स के नाम की सुनामी का दावा किया जा रहा था, आखिर वह नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा को पहली बार पूरे बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंचाने में कामयाब हो गए हैं. तमाम चुनावी सर्वेक्षणों, भविष्यवाणियों और अनुमानों पर खरा उतरते हुए भारतीय जनता पार्टी अप्रत्याशित तौर पर 282 सीटें जीत कर 3 दशक बाद अकेले सरकार बनाने के काबिल बन गई. भाजपा को खुद इतने बंपर बहुमत की उम्मीद नहीं थी. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को 336 सीटों का छप्पर फाड़ कर बहुमत मिला है.

सोनिया गांधी और उन की पार्टी कांग्रेस को भ्रष्टाचार, कुशासन और तानाशाही रवैया ले डूबे. पार्टी के परिवर्तन और सशक्तीकरण के तमाम दावे धरे के धरे रह गए. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली ढीली सरकार की उसे जो सजा मिली है वह तो मिलनी ही चाहिए थी. कांग्रेस को मात्र 44 सीटें हासिल हो सकी हैं. उस के इतिहास का यह उस का सब से बुरा प्रदर्शन है. भारीभरकम नेताओं के किले ढह गए. दूसरे छोटे दलों के दिग्गज भी मोदी लहर में बह गए जो अपनी जीत के दावे कर रहे थे. उत्तर भारत के जातीय, मजहबी क्षत्रपों के गढ़ों में मोदी ने पूरी सेंध लगा दी.

9 चरणों में 36 दिन तक चली लंबी चुनावी प्रक्रिया में कई रंग देखे गए. प्रचार का काम तो सालभर पहले ही शुरू हो गया था. जीत के लिए राजनीतिबाजों की कलाबाजियां, पार्टियों की पैंतरेबाजी, एकदूसरे की टांगखिंचाई के दृश्य दिखे.  मोदी के प्रचार की जबरदस्त ताकत और रणनीति कामयाब रही. मोदी ने भगवा जैकेट पहन कर विकास और सुशासन की बातें कीं और इसी वजह से भाजपा उन जगहों पर भी जीती है जहां वह अब तक जीत से वंचित रही है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता, ओडिशा में नवीन पटनायक  के सामने मोदी लहर का ज्यादा असर नहीं हुआ पर यह भी इन राज्यों के नेताओं की कर्मठता का कमाल है.

उत्तर प्रदेश में बड़बोले मुलायम सिंह यादव, मायावती, बिहार में नीतीश कुमार, तमिलनाडु में एम करुणानिधि की अपनेअपने राज्यों में बुरी गत हुई है. इन तीनों ही राज्यों के इन नेताओं के जातीय और मजहबी किले ढह गए.        

2 साल पहले दिल्ली के जंतरमंतर पर उमड़े जनाक्रोश के वक्त ही यह बात तय हो गई थी कि अब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार का जाना तय है. अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में जन लोकपाल बिल और मौजूदा भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिए उमड़े जनाक्रोश ने केंद्र की संप्रग सरकार को हिला दिया था. बाद में केजरीवाल द्वारा बनाई गई आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली जबरदस्त सफलता से घबराए दलों को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी. 

मोदी की जीत में देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश व दूसरे राज्य बिहार के नतीजे चौंकाने वाले रहे. मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार के साथ मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का भी उत्तर प्रदेश में नामोनिशान मिट गया.

नरेंद्र मोदी ने अपने समूचे चुनावी अभियान में यह बताने की सफल कोशिश की कि वे मेहनत के बल पर आगे बढ़ने वालों में से हैं. हालांकि विपक्ष ने मोदी के शादीशुदा जीवन को ले कर उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की.

यह तय रहा कि समूचे चुनाव प्रचार अभियान में मोदी दूसरे दलों के निशाने पर रहे. कांग्रेस के काम की तो बात ही कम हुई. पर वहां तो बस भ्रष्टाचार और निकम्मापन था. ‘आप’ के नेता अरविंद केजरीवाल ने मोदी और राहुल गांधी दोनों पर कौर्पोरेट घरानों से सांठगांठ के आरोप लगाए. कहा गया कि मोदी अंबानी और अडाणी के हवाईजहाजों में घूमते हैं. मोदी के चुनाव प्रचार में फूंके जा रहे करोड़ों रुपए भी यही अमीर घराने दे रहे हैं.

उलट इस के, भाजपा ने अपने हमलावर तेवर बरकरार रखे और देशभर में ताबड़तोड़ मेहनत की, सीधे मतदाताओं से संवाद व संपर्क रखे और लोगों को भरोसा दिलाया कि उसे वोट दो, अच्छे दिन आएंगे. लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से तो आजिज आ ही गए थे लेकिन सब से बड़ी समस्या थी रोजमर्राई जिंदगी का दिनोंदिन कठिन होते जाना.

ले डूबा भ्रष्टाचार

सियासी लिहाज से देखें तो चुनाव में कांग्रेस अति आत्मविश्वास और भ्रम का शिकार दिखाई दी. सोनिया गांधी थकीहारी और बीमार सी दिखीं तो राहुल गांधी अपने भाषणों में मुद्दे की बातों के बजाय दार्शनिकों सी भारीभरकम, आम आदमी को न समझ आने वाली बातें करते रहे. ‘हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्की’ व ‘कट्टर सोच नहीं युवा जोश’ के नारे लोगों को छलावा लगे.

जनता, जो कांग्रेस सरकार के दौरान लगातार बढ़ती महंगाई व भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी थी, ने इन नारों को गंभीरता से नहीं लिया. इस लोकसभा चुनाव में कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं था, न ही कोई लहर थी. इस का पूरा फायदा संघ ने उठाया और नरेंद्र मोदी को ही मुद्दा बना डाला. कांग्रेस के खिलाफ पनपते जनाक्रोश और ऊब को वोटों में तबदील करने के लिए जरूरी था कि मंदिर निर्माण की बात ज्यादा न की जाए क्योंकि लोग इतना तो समझते हैं कि नरेंद्र मोदी का मतलब ही हिंदुत्व होता है.

दरअसल, नरेंद्र मोदी की 3 मोरचों पर जीत हुई है. एक, मोदी 2002 में हुए गुजरात दंगों के दाग छिपाने में कामयाब रहे. इस जीत ने मोदी पर लगे दंगों के दाग धो दिए. गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए दंगों में कई हजार लोग मारे गए थे और उस में मोदी सरकार का हाथ बताया गया था. हालांकि कुछ मामलों में अदालत और जांच कमेटियों ने उन्हें बरी कर दिया था. वे लगातार गुजरात के विकास को प्रचारित करते रहे. गुजरात को विकास का आदर्श मौडल मान लिया गया.

दूसरे, उन्होंने भारतीय जनता पार्र्टी के बूढे़, थके नेताओं को बाहर कर भाजपा पर विजय पाई.

तीसरे, उन्होंने अकेले दम पर पूरे बहुमत के साथ विजय पाई और अपने साथ उन दलों का भी उद्धार कर दिया जो उन के साथ आ मिले थे.

मोदी ने चतुराई से सीधे न राम मंदिर निर्माण की बात की और न ही ज्यादा हिंदुत्व की. मोदी सुशासन और विकास के नाम पर चुनावी प्रचार करते रहे. वे समूचे देश को साथ ले कर चलने की बात भी करते रहे. भगवा जैकटों और रंगबिरंगी टोपियां जरूर लगाईं ताकि उन के मूल समर्थक साथ रहें. यह मोदी की कर्मठता की वजह से संभव हो पाया है. उन का जज्बा, उत्साह औरों के मुकाबले कहीं अधिक ऊंचा रहा है. बाकी सारे नेता थकेहारे लगते रहे, चाहे उन की अपनी पार्टी के थे या दूसरे विरोधी दलों के.

भाजपा पिछले दिनों दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में सत्ता का रास्ता रोके जाने पर नई पार्टी ‘आप’ से थोड़ा डरी रही पर ‘आप’ दिल्ली की तरह देश में करिश्मा नहीं दिखा पाई. उस ने सब से ज्यादा 426 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन जीत पाई केवल 4 सीटें. ये चारों सीटें उसे पंजाब से मिली हैं. अपने दिल्ली के गढ़ में वह सारी सीटें हार गई. पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, आशुतोष, शाजिया इल्मी हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीटों पर हार गए.

भाजपा ने गुजरात की सभी 26, राजस्थान की सभी 25, दिल्ली की सभी 7, उत्तराखंड की सभी 5, छत्तीसगढ़ की 11 में से 10, झारखंड में 14 में से 12, कर्नाटक में 28 में से 17, बिहार की 40 में से 31,  महाराष्ट्र में 48 में से 23 सीटों पर विजय पाई.

अगर मुसलमानों की बात करें तो देश की मुसलिम असर वाली 92 सीटों में से मोदी को 41 सीटें मिली हैं. क्या इस का अर्थ यह माना जाए कि मुसलमानों के भी बड़ी तादाद में वोट मोदी के खाते में गए हैं? अभी इस पर विश्लेषण चल रहा है.

मोदी से उम्मीदें

देश के सब से बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां की जनता सत्ताधारी दलों के निकम्मेपन से पूरी तरह से ऊब चुकी थी. राज्य की कुल 80 में से भाजपा को मिली 73 सीटें इस बात का सुबूत हैं कि जनता ने मोदी के विकास, सुशासन के नारे पर भरोसा किया है. इस चुनाव में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने खुले मन से हिंदुत्व की बात नहीं की और न अल्पसंख्यकों के खिलाफ किसी तरह का आक्रोश दिखाया. मोदी से अधिक विरोधी दल सपा, बसपा और कांग्रेस ही मोदी के मुसलिम विरोध को मुद्दा बनाते रहे. जनता इस बात को समझ चुकी थी कि ये दल मोदी विरोध की हवा दे कर सुशासन, भ्रष्टाचार, विकास और महंगाई जैसे मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाना चाहते हैं. यहां बस कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी रायबरेली और राहुल गांधी अमेठी से सीट बचाने में सफल रहे.

सब से बड़ा झटका सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल को लगा है. तीसरे मोरचे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले मुलायम सिंह मैनपुरी और आजमगढ़ से जीते और पुत्रवधू डिंपल को कन्नौज से जिता ले गए. भतीजा अक्षय यादव फिरोजाबाद, दूसरा भतीजा धर्मेंद्र्र बदायूं से कामयाब हुए. बसपा को कोई भी सीट नहीं मिली. दलित की बेटी का प्रधानमंत्री बनने का सपना हमेशा के लिए टूट गया.

सपा और बसपा दोनों को ही कांग्रेस का साथ देने की सजा मिली है. राजनीतिक रूप से देखा जाए तो पिछड़ी और दलित जातियों की अगुआई करने वाली सपाबसपा दोनों का अस्तित्व खत्म होता नजर आ रहा है.

राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया अजित सिंह और उन के पुत्र जयंत दोनों को ही करारी हार का सामना करना पड़ा है. 

पहली बार भाजपा को यहां इतना बड़ा समर्थन मिला है तो युवाओं ने मोदी की सक्रियता और युवाओं के लिए कुछ करने के वादे पर भरोसा किया है. युवा चाहता है उन्हें रोजगार मिले, पढ़ाईलिखाई की दिक्कतें दूर हों. अमित शाह को जब यहां भेजा गया तो उन का टारगेट युवा मतदाता ही था.

फेल हुए सुशासन बाबू

बिहार की बात करें तो भाजपा ने तीसरे मोरचे की हवा निकाल दी. वैसे तो जातिवाद कमोबेश समूचे देश में है पर बिहार में इस का रंग कुछ ज्यादा ही गहरा रहा है. यहां हर चीज को जाति से देखने और आंकने की आदत रही है. कोई नया आदमी आप से मिलेगा तो नाम, गांव, जिला पूछेगा. उस से भी उसे अगर आप की जाति का पता नहीं चल पाता है तो तपाक से पूछ बैठेगा, ‘अरे, किस जाति के हो?’

लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में तरक्की और सुशासन के नारे पर जाति हावी होने की कोशिश करती रही. मुख्य रूप से 3 जातियों का समीकरण काम कर रहा था. एक के अगुआ रहे राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, जो कांगे्रस की मदद से यूपीए-3 का सपना देखते और दिखाते रहे. उन का दावा था कि यादव और मुसलमान उन के पक्के वोटर हैं और कांगे्रस के साथ गठबंधन करने से उन्हें ब्राह्मण और भूमिहार जाति का भी वोट मिल जाएगा. दूसरा समीकरण भाजपा और लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के तालमेल से बना. बनिया, राजपूत, कायस्थ, ब्राह्मण जातियां समेत शहरी आबादी भाजपा की कट्टर समर्थक रही हैं. पासवान के मिलने से भाजपा को दलितों और महादलितों का वोट मिलने की उम्मीद जगी थी. तीसरे समीकरण के मुखिया बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहे, जो वाम दलों, सपा, जेवीएम, बीजद, अन्नाद्रमुक आदि दलों को मिला कर तीसरा मोरचा बनाने की कवायद में लगे रहे. नीतीश को कुर्मी, कुशवाहा और पिछड़ी जातियों का पूरा सपोर्ट रहा है.

बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और 6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी अति पिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलमान, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं.

भाजपा बिहार प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान कहते हैं कि इस बार के चुनाव में अति पिछड़ों ने गेम चेंजर की भूमिका अदा की है. भाजपा को हर जाति का समर्थन मिला है पर सब से ज्यादा अति पिछड़ों ने गेमचेंजर की भूमिका अदा की है. भाजपा को हर जाति का समर्थन मिला है पर सब से ज्यादा अति पिछड़ों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी में भरोसा जताया है. अति पिछड़ों को इस से पहले तक नीतीश और लालू पर यकीन था. नरेंद्र मोदी के बैकग्राउंड की वजह से अति पिछड़ों और पिछड़ों का वोट भाजपा को मिला है.

नीतीश कुमार अपनी खामियों और कमजोरियों पर परदा डालने के लिए इस मसले पर केवल राजनीति ही करते रहे.

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच की खींचतान का पिछला रिकौर्ड बताता है कि नीतीश अपनी खुन्नस छिपा नहीं पाते हैं और मोदी बड़ी चालाकी से खामोश रह कर नीतीश की खुन्नस का जवाब देते रहे हैं. नीतीश के करीबी रहे जदयू के एक नेता बताते हैं कि नीतीश कभी मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़ा करते थे. मोदी गुजरात की पिछड़ी घांची (धानुक या तेली) जाति से और नीतीश बिहार की पिछड़ी कुर्मी जाति से आते हैं. पहली बार जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तो नीतीश का मानना था कि मोदी ही भाजपा को ब्राह्मणवाद के चोले से बाहर निकाल सकते हैं.

2002 के गुजरात के गोधरा कांड के बाद नीतीश ने बड़ी ही खामोशी और चालाकी से मोदी से दूरी बनानी शुरू कर दी थी और पिछले साल 16 मई को तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने के विरोध में नीतीश ने भाजपा को राज्य सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

जाति की बात पर और ज्यादा सोचने की जरूरत है. सीधेसीधे कहा जाए तो जमाना अब पिछड़ों का है. अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के हैं और पूरी ठसक से हैं. कुल आबादी और वोटों का आधा हिस्सा पिछड़े वर्ग का है जो हर राज्य में अलगअलग समीकरणों के चलते 2 से ज्यादा दलों में बंटता रहा था, यानी एकजुट नहीं था.

पिछड़ों का है जमाना

इत्तेफाक से राजनीति का यह वह दौर है जिस में जमीनी व वजनदार ठाकुर और ब्राह्मण नेता किसी दल के पास नहीं हैं. संघ ने इस हालत पर पूरा शोध व विश्लेषण किया और फैसला लिया कि ब्राह्मणों के हित में और अपनी विचारधारा यानी हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने में बेहतर है कि अब किसी पिछड़े को ही अपग्रेड कर उसे आधुनिक ब्राह्मण बना दिया जाए.

संघ और भाजपा के रणनीतिकारों ने नैशनल इलैक्शन स्टडी के पेश आंकड़ों को भी ध्यान में रखा जिन के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछड़े वर्ग के 22 फीसदी ही वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को उस से महज 1 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे. 2003 के चुनाव में भी लगभग ऐसी ही हालत थी. उत्तर प्रदेश जैसे सब से बड़े सूबे के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2009 में भाजपा को महज 27 फीसदी पिछड़े वोट मिले थे जबकि 1996 और 1998 में यह प्रतिशत 45 था. गुजरात में 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 जबकि भाजपा को 46 प्रतिशत वोट मिले थे. राजस्थान में दोनों दल 42 फीसदी वोट ले कर बराबरी पर थे लेकिन मध्य प्रदेश में भाजपा को 46 फीसदी पिछड़े वोट 2009 में मिले थे जबकि कांग्रेस 17 फीसदी पर सिमट गई थी. छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल सूबे में भाजपा को हैरतअंगेज तरीके से 57 फीसदी वोट इस समुदाय के मिले थे. कांग्रेस यहां 28 प्रतिशत पर सिमट गई थी.

जाति का सियासी कार्ड

आजादी के बाद से अब तक देश में बहुत सारे बदलाव हो चुके हैं. 16वीं बार देश में लोकसभा के आम चुनाव हो चुके हैं. एक के बाद एक  कई दल सत्ता की कुरसी पर बैठ चुके हैं. सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों और रूढि़वादी सोच के खिलाफ हर दल की सोच एक जैसी ही रही है.

1947 में जब देश में सरकार चलाने के लिए प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठने वाले का नाम तय करने का समय आया तो ऊंची जाति के पंडित जवाहरलाल नेहरू को आगे कर दिया गया था.

आजादी के बाद से ही देश ही नहीं हर प्रदेश में ऊंची जातियों का वर्चस्व लंबे समय तक बना रहा. उत्तर प्रदेश में 1947 से ले कर 1989 तक लगातार 42 साल तक ऊंची जातियों के नेताओं ने मुख्यमंत्री की कुरसी पर अपना कब्जा बनाए रखा. आजादी के बाद पंडित गोविंद वल्लभ पंत से शुरू हुआ यह सिलसिला संपूर्णानंद, चंद्रभानु गुप्ता, सुचेता कृपलानी, चरण सिंह, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी तक बिना किसी अवरोध के चलता रहा. यह सभी ऊंची जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे.

1977 से 1979 के बीच ही रामनरेश यादव को मुख्यमंत्री की कुरसी मिली थी. पिछड़ी जाति के वह पहले नेता थे जिन को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुरसी नसीब हुई थी. कांग्रेस का दौर वापस आते ही मुख्यमंत्री की कुरसी पर एक के बाद एक ऊंची जातियों के नेताओं का कब्जा होने लगा. 

1989 में केंद्र में एक बड़ा सामाजिक बदलाव हुआ जिस के तहत कांग्रेस सत्ता से बाहर गई और जनता दल की केंद्र में सरकार बनी. भारतीय जनता पार्टी जनता दल सरकार का समर्थन कर सरकार चला रही थी. उस समय के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों की बेहतरी के लिए देश में मंडल कमीशन लागू करने का ऐलान किया. जनता दल की सरकार का बाहर से समर्थन कर रही भाजपा शुरू से ही ऊंची जातियों का समर्थन कर रही थी. ऐसे में उस ने मंडल कमीशन का विरोध किया और मंडल कमीशन को रोकने के लिए अयोध्या में राममंदिर का मुद्दा उठा दिया. राममंदिर की आड़ ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया. उस समय तक पिछड़ी जातियों के नेताओं का उदय हो चुका था. 

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुरसी पर पिछड़ी जाति के मुलायम सिंह यादव कब्जा कर चुके थे. मजबूर हो कर भाजपा को भी अपनी पार्टी के अंदर पिछडे़ वर्गों के नेताओं को महत्त्व देना पड़ा. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह का नाम सब से प्रमुख था. काम निकल जाने के बाद कल्याण सिंह को हाशिए पर ढकेल दिया गया. कल्याण सिंह के बाद भाजपा में पिछड़ी जातियों के नेताओं की राजनीति का प्रभाव खत्म हो गया. सत्ता पर ऊंची जातियां फिर से काबिजहो गईं.

पिछड़ी जातियों के साथ ही साथ दलित जातियों का उभार भी शुरू हो चुका था. ऐसे में एक तरफ धर्म और ऊंची जातियों की राजनीति करने वाली भाजपा थी तो दूसरी ओर पिछड़ों की अगुआई करने वाली मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और पूरे देश में अछूतों यानी दलितों की अगुआई बहुजन समाज पार्टी के मुखिया कांशीराम कर रहे थे. राममंदिर आंदोलन के उफान के बाद भी मुलायम और कांशीराम की जोड़ी ने 1993 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया. बाकी राज्यों में इन दोनों पिछड़ों और दलितों के नेताओं की एक न चली.

हाशिए से मुख्यधारा की ओर

भाजपा के भेष में अब एक बार फिर से 1947 से 1989 तक के कांग्रेसी जमाने की ऊंची जातियों की सत्ता में वापसी हुई है. भाजपा की जीत में अचंभे वाली बात यह है कि हाशिए पर खड़ी अगड़ी जातियों को एक बार फिर से राजनीतिक रूप से जिंदा करने का काम किया है.    

मध्य प्रदेश में भी यही सब हुआ. लोकसभा की कुल 29 में से भाजपा 27 सीटें अपनी झोली में डालने में कामयाब रही. कांग्रेस को महज 2 सीटें मिलीं. केंद्रीय मंत्री कमलनाथ छिंदवाड़ा और ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना से अपनी सीटें बचा पाए.

मध्य प्रदेश से सटा छत्तीसगढ़ कभी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी कलह यहां बढ़ती गई. विद्याचरण शुक्ल और आदिवासी नेता अजीत जोगी के बीच राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई ने यहां भाजपा को पांव पसारने का मौका दे दिया. यही वजह है कि राज्य की रमनसिंह सरकार के कामकाज की बदौलत लोकसभा की 11 सीटों में 10 सीटें भाजपा ने अपने खाते में डाल लीं. नक्सली वारदातें राज्य की रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा बनते जाने के बाद भी पार्टी ने अपने बलबूते यहां कामयाबी पाई.

राजस्थान में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने राजघराने के नेतृत्व में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर के सरकार बनाई थी तब मोदी के दौरों ने राज्य के युवा वोटरों पर जादू सा असर किया. यहां मोदी लहर एकतरफा दिखाईर् दी. गुजरात की सीमा से सटे होने के कारण मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और नरेंद्र मोदी के बीच अच्छा तालमेल दिखाई देता रहा. यही वजह है कि राज्य की सभी 25 सीटों पर भाजपा का परचम लहरा रहा है.

लगातार तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी अपने राज्य में सभी 26 सीटें ले गए. कांग्रेस के दिग्गज शंकर सिंह वाघेला हार गए. पर जहां दूसरे दल दमखम से काम कर रहे हैं वहां नरेंद्र मोदी का जादू कम चला. पश्चिम बंगाल में मोदी लहर के बावजूद ममता बनर्जी का जादू चला और वे अपनी तृणमूल कांग्रेस पार्टी को प्रदेश की कुल 42 में से 34 सीटें दिला ले गईं. फिर भी पहली बार भाजपा ने यहां से 2 सीटें जीत लीं.

यह कड़वी सचाई है कि बंगलादेशी घुसपैठ ने बंगाल के जनसांख्यिकी संतुलन में ऐसा परिवर्तन ला दिया कि राज्य की सत्ता में उलटफेर में अल्पसंख्यक मतदाता एक अहम कारक बन गए. बंगाल में काफी हद तक राजनीतिक पार्टियों के लिए सत्ता का रास्ता अल्पसंख्यक मतदाताओं की गलियों से हो कर गुजरता है. इस के बगैर कोई चारा भी नहीं.

वर्ष 2016 में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में राज्य में भाजपा के पैर पसारने से ममता बनर्जी को बड़ा झटका लगना तय है. अगर 16वीं लोकसभा के नतीजों की समीक्षा की जाए तो यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद कांगे्रस और वाममोरचे का बड़ा हिस्सा तृणमूल कांगे्रस में शामिल हो गया था जो फिर छिटक कर अब मजबूत हुई भाजपा में जा सकता है.

तमिलनाडु में जयललिता ने न केवल राज्य की 39 में से 37 सीटें हासिल कीं, उन की अन्नाद्रमुक देश की तीसरी सब से बड़ी पार्टी भी बन कर उभरी. द्रमुक और कांग्रेस जोड़ी का सफाया ही हो गया.

कर्नाटक में 28 में से भाजपा को सब से अधिक 17 सीटें, कांग्रेस को 9 और जनता दल सैक्युलर को 2 सीटें मिलीं. दक्षिण के नए राज्य तेलंगाना के गठन का फायदा तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी टीआरएस को मिला है. तेलुगूदेशम पार्टी यानी टीडीपी भाजपा से गठबंधन कर फायदे में रही. तेलंगाना में भाजपा से गठजोड़ कर टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू ने 16 सीटें पा लीं. टीआरएस को 11 सीटें मिलीं लेकिन कांग्रेस दोनों राज्यों में खाली हाथ रही. सीमांध्र में वाईएसआरसी और टीडीपी में मुकाबला था, जहां किरण रेड्डी की पार्टी ने जगनमोहन को खासा नुकसान पहुंचाया.

असल में चुनाव प्रचार और प्रबंधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपरहैंड की तरह से काम किया. जब कभी भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने नरेंद्र मोदी की राह रोकने का प्रयास किया, संघ बीच में आ गया. संघ प्रमुख मोहन भागवत एक तरफ यह कहते रहे–‘उन का काम नमोनमो करना नहीं है’, दूसरी तरफ वे भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और जसवंत सिंह जैसे लोगों के विरोध को रोकते रहे. संघ प्रमुख ने सरकार से उम्मीद लगाते हुए कहा है कि ‘हमें न्याय करने वाला शासन चाहिए, जो सभी के साथ समान व्यवहार करने वाला नजरिया रखता हो. अच्छे शासन का मतलब है जिस में सभी लोगों की भागीदारी हो.’

मोदी सरकार या संघ की बात

जिस समय नरेंद्र मोदी को वाराणसी से चुनाव लड़ाने की योजना बनी थी उसी समय यह साफ हो गया था कि संघ अब विवादित मुद्दों को राजनीति के जरिए ही हल करना चाहता है. नरेंद्र मोदी के लिए इन मसलों को परदे के पीछे ढकेलना संभव नहीं होगा. नरेंद्र मोदी के रूप में संघ का सब से लाड़ला स्वयंसेवक प्रधानमंत्री की कुरसी पर बैठ चुका है. अब अपने को संघ की उम्मीदों पर खरा साबित करना मोदी का काम है.\

अटल सरकार के समय संघ ने खुल कर उन पर दबाव नहीं बनाया था. संघ ने लालकृष्ण आडवाणी के रूप में केवल अपना स्वयंसेवक तैनात किया था. संघ की उम्मीदों पर खरा न उतर कर लालकृष्ण आडवाणी ने उस समय जो गलती की थी उस का खमियाजा वे अब तक भुगत रहे हैं. आडवाणी का हश्र देख कर भाजपा को दूसरा कोई नेता संघ की अवहेलना करने की कोशिश करेगा इस की आशंका नहीं दिखती है.

नरेंद्र मोदी समूचे देश व देशवासियों को साथ ले कर चलने की बात कह रहे हैं लेकिन आशंका उठती है कि वास्तव में प्रचंड बहुमत पाने वाली यह सरकार मोदी की होगी या मोहन की. मोहन यानी मोहन भागवत की अर्थात भाजपा की या आरएसएस की.

-दिल्ली से जगदीश पंवार के साथ लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति, कोलकाता से साधना शाह.

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