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मास्साब मुंह लटकाए हुए स्कूल की ओर चल दिए. आज उन्हें वकील साहब का व्यवहार कुछ अजीब सा लगा. लेकिन कोर्टकचहरी के काम उन के अपने बस के तो थे नहीं. कहां स्कूल छोड़ कर सारा दिन कचहरी के चक्कर लगाते रहते. वैसे भी कोर्टरूम के भीतर जो हो रहा है, वह तो वकील साहब ही जानें. आम आदमी को क्या पता कि कोर्ट के भीतर क्या चल रहा है.

बीचबीच में वकील साहब से अपनी फाइल के बारे में पूछ लेते और वकील साहब भी अच्छाखासा पैसा ले कर सुरेशजी को सिर्फ कोरे आश्वासन ही देते रहे. मास्साब की जो हालत थी, वही जानते थे. रिटायरमेंट की उम्र नजदीक आ रही थी. बच्चों की कक्षाएं भी साल दर साल बढ़ रही थीं. एक मध्यवर्गीय इनसान में जीवनयापन को ले कर जो भी चिंताएं होती हैं, वह मास्साब के हिस्से में भी बराबर थी.

लगभग 1 साल बीतने वाला था. कई बार वकील साहब को पैसे दे चुके थे, लेकिन फाइल तो शायद कछुए की चाल भी नहीं चल रही थी खरगोश की तरह आधे रास्ते में ही किसी जगह सो गई थी. अब तो उन्होंने धीरेधीरे फोन उठाना भी बंद कर दिया था. अकसर पत्नी फोन उठाती और कह देती कि वकील साहब अभी घर पर नहीं है.

मास्साब को राशन वाले गुप्ताजी ने वकील बदलने की सलाह दी. थकहार कर उन्हें यह सलाह माननी ही पड़ी. एक उम्मीद की किरण दिखाई दी कि हो सकता है कि पिछला वकील यह काम नहीं कर पाया तो यह नया मेरा काम समय पर कर दे, क्योंकि इस बार जिस वकील का नाम सुझाया गया था, वह शहर में थोड़ा रुतबा रखने वाला था और कोर्ट में भी उस का दबदबा था. शहर के लोग उसे एक कुशल वकील बताते थे.

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